Category Archives: वेद विशेष

चतुर्थाश्रमी संन्यासी -रामनाथ विद्यालंकार

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

ऋषिः आङ्गिरसः । देवता आदित्यः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।।

कुदा चुन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी तुरीयादित्य सर्वनं तऽइन्द्रियमार्तस्थामृते दिव्यादित्येभ्यस्त्वा॥

-यजु० ८।३ |

क्या आप (कदा चन) कभी ( प्रयुच्छसि ) प्रमाद करते हो ? अर्थात् कभी नहीं करते। ( उभे जन्मनी ) माता-पिता से दिया जन्म और विद्याजन्य जन्म दोनों की (निपासि ) आप रक्षा करते हो, लाज रखते हो। ( तुरीय आदित्य ) हे चतुर्थाश्रमी संन्यासी ! (तेइन्द्रियम् ) आपका प्रत्येक इन्द्रिय-व्यापार ( सवनम् ) यज्ञ होता है। आपका (अमृतम्) अमृतमय उपदेश ( दिवि ) श्रोताओं के आत्मा में (आ तस्थौ ) स्थित हो जाता है, घर कर जाता है।

हे संन्यासी-प्रवर! आप तुरीय आदित्य’ हैं। आदित्य का अर्थ है विद्वान्, क्योंकि वह वेदादि शास्त्रों का रस ग्रहण किये होता है। ‘तुरीय’ का अर्थ है चतुर्थ। इस प्रकार तुरीय आदित्य’ चतुर्थाश्रमी विद्वान् अर्थात् संन्यासी का वाचक होता है। हे परिव्राट् ! आपने पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा तीनों एषणाओं का त्याग करके लोकोपकार का ही व्रत ग्रहण किया हुआ है। इस समय आप हम छात्रों के आचार्य भी हैं। गुरुकुल को आदर्श शैली से चलाने और ब्रह्मचारियों को विद्यादान करने के साथ-साथ जनता में वेदप्रचार का व्रत भी आपने धारण किया हुआ है, अतः समय निकालकर आप वेदोपदेश हेतु बाहर भी जाते हैं। आप कभी अपने कर्तव्य के पालन में प्रमाद नहीं करते। आपने अपने दोनों जन्म सफल किये हुए हैं। प्रथम जन्म माता-पिता से होता है, जब बालक माता के गर्भ से बाहर निकलता है। द्वितीय जन्म आचार्य से होता है, जब पर्याप्त समय आचार्य के गर्भ में रहकर ब्रह्मचा  अपना समावर्तन संस्कार करा कर स्नातक बनता है। आपने इन दोनों जन्मों को फलवान् किया है। माता-पिता से प्राथमिक शिक्षा पाकर, गुरुकुल में प्रविष्ट होकर गुरुजनों से उच्च शिक्षा ग्रहण कर आप उच्चकोटि के विद्वान् बने हैं और अब अपनी विद्वत्ता का लाभ अन्यों को पहुँचा रहे हैं। अब आप स्वयं आचार्य बनकर हम ब्रह्मचारियों को द्वितीय जन्म दिलाने के अनवरत प्रयास में लगे हुए हैं, जिससे हमारे दोनों जन्म सफल हो सकें। इस प्रकार आप अपने और ब्रह्मचारियों के दोनों के दोनों जन्मों को सफल करते हैं।

हे भगवन् ! आपके सभी इन्द्रियों के व्यापारों ने यज्ञ का रूप धारण किया हुआ है। आपका देखना, सुनना, विचार करना, निश्चय करना आदि सभी व्यापार अन्यों को लाभ पहुँचाने के लिए होते हैं। चाहे निन्दा, चाहे प्रशंसा, चाहे मान, चाहे अपमान, चाहे जीना, चाहे मृत्यु, चाहे हानि, चाहे लाभ हो, चाहे कोई प्रीति करे, चाहे वैर बाँधे, चाहे अन्न-पान, वस्त्र, उत्तम स्थान न मिले वा मिले, चाहे शीत-उष्ण कितना ही क्यों न हो संन्यासी सबका सहन करे और अधर्म की खण्डन तथा धर्म को मण्डन सदा करता रहे। जिस-जिस कर्म से गृहस्थों की उन्नति हो वा माता, पिता, पुत्र, स्त्री, पति, बन्धु, बहिन, मित्र, पड़ोसी, नौकर, बड़े और छोटों में विरोध छूट कर प्रेम बढ़े उस-उसका उपदेश करे।”२ आप संन्यासी के इन तथा अन्य शास्त्रोक्त कर्तव्यों का सदा निर्वाह करते हो, कभी उसमें प्रमाद नहीं करते। आपका अमृतोपदेश श्रोताओं के दिव्यगुणी आत्मा में स्थिर हो जाता है, घर कर जाता है। मन्त्र का अन्तिम वाक्य पिता अपने पुत्री से कह रहा है-हे पुत्र तूने प्राथमिक शिक्षा हमारे पास रहकर तथा स्थानीय पाठशाला में पढ़कर प्राप्त कर ली है, अब हम तुझे संन्यासी गुरुजन रूप आदित्यों को सौंप रहे हैं, जिससे तू विद्वान् बन सके।

पाद-टिप्पणियाँ

१. “पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता । मत्तः सर्वेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा” इस वाक्य को बोल के सबके सामने जल को भूमि में छोड़ देवे। -संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण।

२. संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण ‘यमानु सेवेत सततं’ श्लोक से आगे की भाषा ।

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

गृहाश्रम -रामनाथ विद्यालंकार

गृहाश्रम

ऋषिः ब्रह्मा। देवता गृहपतयः छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,र, निवृद् आर्षी जगती।।

के विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथस्तस्मिन् मत्स्व। श्रर्दस्मै नरो वर्चसे दधात यदाशीर्दा दम्पती वमर्मश्नुतः । पुमान् पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारपएधते गृहे।

-यजु० ८ । ५

हे ( विवस्वन्’ ) अविद्यान्धकार को दूर किये हुए ( आदित्य ) आदित्य के समान प्रकाश से युक्त ब्रह्मचारिन् ! ( एषः ) यह गृहाश्रम ( ते ) तेरे लिए ( सोमपीथ:२) सोम आदि पौष्टिक ओषधियों के पान का आश्रम है। ( तस्मिन्) उसमें (मत्स्व ) आनन्दलाभ कर । ( नरः ) हे मनुष्यो ! (अस्मै वचसे ) इस वचन के लिए ( श्रद्दधातन) श्रद्धा रखो ( यत् ) कि ( आशीर्दा ) दूध का दान करनेवाले (दम्पती ) पति पली (वाममु ) प्रशस्त फल ( अश्रतः ) प्राप्त करते हैं। उनके यहाँ (पमान पत्र: ) पुरुषार्थी पत्र ( जायते ) पैदा होता है, जो ( वसु विन्दते ) धन प्राप्त करता है, ( अध) और (विश्वाहा ) सब दिनों में ( अरपः७) निष्पाप होकर ( गृहे ) में ( एधते ) बढ़ता है। |

हे ब्रह्मचारी ! गुरुकुल में आचार्याधीन निवास करके तू ‘विवस्वान्’ हो गया है, तू अपने अज्ञानान्धकार को दूर करके सूर्य-सदृश हो गया है। सावित्री रूप अदिति का पुत्र होने से तू आदित्य है। अब तेरा समावर्तन संस्कार हो चुका है और तु गहाश्रम में प्रवेश के लिए उद्यत है। यह गहाश्रम ‘सोमपीथ’ है, अर्थात् इसमें बल-वृद्धि के लिए सोम आदि पौष्टिक और सात्त्विक ओषधियों के रस का पान किया जाता है। सोमपीथ’ का अर्थ वीर्यरक्षा भी होता है, अतः यह वीर्यरक्षा का भी आश्रम है। इसमें वीर्यक्षय केवल राष्ट्र को उत्तम सन्तान प्रदान  करने के लिए होता है। इस आश्रम में तेरा स्वागत है। इस आश्रम में तू पत्नी और सन्तान के साथ आनन्दपूर्वक रह। यह आश्रम सम्पत्ति-अर्जन का आश्रम भी है, किन्तु इसमें केवल सम्पत्ति को अर्जन ही नहीं करना है, प्रत्युत दान भी करना है। दान अनेक वस्तुओं का हो सकता है, उनमें गाय का दान या दध का दाने सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मन्त्र कह रहा है कि हे मनुष्यो ! इस वचन पर विश्वास रखो कि दूध के दानी पति पत्नी सुन्दर और प्रशस्त फल पाते हैं। दान से धन घटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता ही है। उनके घर में पुरुषार्थी पुत्र जन्म लेता है, और वह भौतिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार की सम्पत्ति अर्जित करता है। अपार भौतिक धन का स्वामी होकर भी वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। सांसारिक सुख-सम्पदा को हेय माननेवाले कतिपय मनीषियों का कथन है कि लक्ष्मी पाकर मनुष्य पाप के गर्त में गिर जाता है। परन्तु वेद समन्वयवादी है। वह कहता है कि दोनों हाथों से भर-भर कर कमाओ, किन्तु पाप की लक्ष्मी नहीं, पुण्य की लक्ष्मी कमाओ। सम्पत्ति पाकर भी पुण्य के कार्य करो। सम्पत्ति कमाओ भी, उसका दान भी करो। दानी लोगों के घर में जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह सब दिन निष्पाप रहता हुआ निरन्तर वृद्धि और उन्नति प्राप्त करता है।

हे विवस्वन् आदित्य! गृहाश्रम में प्रवेश करता हुआ तू वेद के इन वचनों और आशीर्वादों को सदा स्मरण रख। हम तेरा अभिनन्दन करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विवासयति अपगमयति अविद्यातमांसि यः स विवस्वान् ।

२. सोमः पीयते यस्मिन् स:-द० ।।

३. मत्स्व, मदी हर्षे, दिवादि । वेद में अदादि भी होने से शप् का लुक् ।

४. आशिरं दुग्धं दत्तः यौ तौ आशीद, ‘सुपा सुलुक्०’ पा० ७.१.३९से औ का आ । ‘आशी: आश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा, इन्द्राय गावआशिरम् ऋ० ८.६९.६’ इत्यपि निगमो भवति’ निरु० ६.३५ ।

५.वाम=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

६. विद्लु लाभे, तुदादिः ।।

७.न विद्यन्ते रपांसि पापानि यस्य सः । ‘रपो रिप्रमिति पापनामनी भवत:’ निरु० ४.४८।।

गृहाश्रम

पापों और अपराधों से छुटकारा-रामनाथ विद्यालंकार

पापों और अपराधों से  छुटकारा

 ऋषिः भरद्वाजः । देवता परमेश्वरो विद्वांश्च । छन्दः १. निवृत् साम्नी उष्णिक, २. साम्नी उष्णिक्, ३, ४, ५. प्राजापत्या उष्णिक्,। ६. निवृद् आर्षी उष्णिक्।।

१देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसिमनुष्यकृत॑स्यैनसोऽवयजनमसिपितृतस्यैसोऽव्यज॑नमस्यात्मकृतस्यैसक्यज॑नम्स्येन्सऽएनसेल वयजनमसि। ६ यच्चाहमेनों विद्वाँश्चकार यच्चाविद्वाँस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि॥

 -यजु० ८।१३

हे परमात्मन् और योगी विद्वन् ! आप ( देवकृतस्य) विद्वानों के द्वारा किये गये तथा विद्वानों के प्रति किये गये (एनसः) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( मनुष्यकृतस्य) मनुष्यों के द्वारा किये गये तथा मनुष्यों के प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के (अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। (पितृकृतस्य ) पिताओं, पितामहों, प्रपितामहों के द्वारा किये गये तथा इनके प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो, (आत्मकृतस्य ) आत्मा के द्वारा तथा आत्मा के प्रति किये गये ( एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( एनसः एनसः ) प्रत्येक पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( यत् च अहम् एनः ) जो कोई मैंने पाप या अपराध (विद्वान्) जानकर (चकार ) किया है, ( यत् च ) और जो (अविद्वान्) अनजाने में किया है ( तस्य सर्वस्व एनसः ) उस सब पाप या अपराध के आप ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो।

हमने मनुष्यजन्म सत्कर्म करने के लिए पाया है, पाप या  अपराध में प्रवृत्त होने के लिए नहीं। ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। ज्यों ही हम पाप या अपराध करते हैं, त्यों ही वह उसे देख लेता है और उसका फल हमें कभी न कभी मिलकर ही रहता है। यह सब जानते हुए भी मनुष्य प्रलोभनवश पाप करता ही है। कम या अधिक प्रायः सभी लोग कभी न कभी पाप-पङ्क में फँस ही जाते हैं। देवजन अर्थात् विद्वान् । लोग भी यह जानते हुए भी कि पाप करना बुरा है, पाप के वश हो जाते हैं। ये ‘देवकृत’ पाप कहलाते हैं। परन्तु न्यायाधीश परमात्मा का जब उन्हें स्मरण होता है, तब वे शिक्षा ले लेते हैं कि आगे हम पाप नहीं करेंगे। विद्वानों के प्रति दूसरों के द्वारा किये गये पाप या अपराध भी ‘देवकृत एनस्’ में आते हैं। विद्वानों के प्रति जैसा सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए वैसा न करके हम उनका निरादर करते हैं या उन्हे कष्ट पहुँचाते हैं, यह विद्वानों के प्रति किया गया पाप या अपराध है। ईश्वर का स्मरण हमें इन पापों से भी बचा सकता है। परमेश्वर स्वयं भी अपनी कृपा की कोर से हमें पापमय जीवन से मुक्त रहने की प्रेरणा कर सकते हैं।

दूसरे पाप ‘मनुष्यकृत’ हैं, अर्थात् जनसामान्य द्वारा किये जानेवाले पाप और जनसामान्य के प्रति किये गये पाप । एक राहभटका राही हमसे कहीं का मार्ग पूछता है। हम उसे सही मार्ग ने बतला कर गलत मार्ग बतला देते हैं और सोचते हैं। कि जब यह गलत स्थान पर पहुँचेगा तब इसकी कैसी दुर्गति होगी। हम इसी में मजा लेते हैं। हम किसी दीन-दु:खी को सताते हैं, उसके कटे पर नमक छिड़कते हैं, और उसमें आनन्द मनाते हैं। हम किसी निरीह की हत्या कर देते हैं। प्रभु की दिव्यता का स्मरण हमें ऐसे सब पापों और अपराधों से बचा सकता है और हमें दिव्य बना सकता है।

तीसरे पाप ‘पितृकृत’ होते हैं, अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह जो पाप करते हैं या इनके प्रति दूसरे लोग जो पाप करते हैं। बुजुर्ग लोगों से ही छोटे लोग शिक्षा लेते हैं। ये ही पाप करने लग जायेंगे, तो इनकी देखा-देखी छोटे लोग भी पाप करने से नहीं डरेंगे। इसी प्रकार छोटे लोगों द्वारा इनका अपमान किया जाना, इन्हें दु:खी करना आदि पाप भी इसी श्रेणी में आते हैं। परमेश्वर की मनभावनी कृपा और उसकी न्याय की तराजू का ध्यान हमें इन पापों से भी बचा सकता है।

चौथे पाप ‘आत्मकृत’ होते हैं, अर्थात् अपने द्वारा अपने प्रति या अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गये पाप । आत्मा का अपने प्रति पाप यह है कि आत्मा में जो असीम शक्ति छिपी है, उसे न पहचान कर उसे अल्पशक्ति, दीन-हीन समझना। ये परिगणित पाप ही नहीं, सभी प्रकार के पाप या अपराध परमेश्वर की छत्रछाया में जाने से दूर हो सकते हैं। पाप और अपराध मनुष्य जान-बूझकर भी करता है, और अनजाने में भी। इनमें से किसी भी प्रकार के पाप हों, न्यायकारी, दण्डदाता, सत्प्रेरणा के स्रोत परम प्रभु की कृपा से दूर हो सकते हैं। योगी विद्वान् जन भी अपने उपदेशों, योगप्रयोगों, जीवन ज्योतियों तथा सत्परामर्शो से पापियों को देवता बना सकते हैं, अपराधियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं। आओ, हम भी परम प्रभु और योगी विद्वानों से जागृति प्राप्त करें।

पापों और अपराधों से  छुटकारा

तू विभू है, प्रवाहण है -रामनाथ विद्यालंकार

तू विभू है, प्रवाहण है

ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

विभूरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः।। श्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदाः ॥

– यजु० ५। ३१

हे अग्ने ! हे अग्रनेता तेजस्वी परमेश्वर ! तू ( विभूः असि ) सर्वव्यापक है, (प्रवाहणः ) धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, आनन्द आदि की धाराएँ बहानेवाला है, ( वह्निः असि ) विश्व को वहन करनेवाला है, (हव्यवाहनः) सूर्य, वायु आदि देय पदार्थों को हमारे समीप पहुँचानेवाला है। (श्वात्रः१ असि) शीघ्रकारी एवं गतिप्रदाता है, (प्रचेता:) प्रकृष्ट प्रज्ञावाला एवं प्रकृष्टरूप से चेतानेवाला है। ( तुथः असि) ज्ञानवर्धक है, ( विश्ववेदाः ) विश्ववेत्ता है।

हे अग्नि! हे मेरे अग्रनेता तेजोमय जगदीश्वर ! तुम ‘विभू’ हो, ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्यापक हो, सर्वान्तर्यामी हो । तुम्हारी इस विशेषता को यदि हम सच्चे रूप में जान लें, अनुभव कर लें, तो अकर्तव्यों एवं पापों से सदा बचे रहें । हे सर्वेश ! तुम ‘प्रवाहण’ भी हो, सदा धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, श्रद्धा, आनन्द आदि की धाराएँ हमारी ओर बहाते रहते हो तथा हमारे अन्दर यदि कोई दुरित या दुर्गुण होते हैं, तो उन्हें धोकर हमारे पास से प्रवाहित कर नष्ट कर देते हो। हे। जगदाधार ! तुम वह्नि अर्थात् विश्व का वहन करनेवाले भी हो। जैसे रथ को वहन करने के कारण घोड़ा ‘वह्नि’ कहलाता है, वैसे ही तुम विश्वरथ के वाहक हो । हे दाता! तुम ‘हव्यवाहन नाम से भी प्रसिद्ध हो, यतः हव्य अर्थात् देय सूर्य, चन्द्र, जल,  वायु, प्राण आदि असंख्य पदार्थों के वाहक अर्थात् हमारे पास पहुँचानेवाले हो। आप ये पदार्थ यदि हमें प्राप्त न कराते, तो हम मानव क्या इनकी रचना स्वयं कर सकते थे? हे प्रभु, तुम *श्वात्र’ हो, क्षिप्रकारी हो, जिस कार्य को करना चाहते हो अविलम्ब कर लेते हो। तुम पदार्थों को गति देने के कारण भी ‘श्वात्र’ कहलाते हो। तुम्हीं ने वायु को गति दी है, तुम्हीं ने भूमि, चन्द्र तथा भूगोल-खगोल के अन्य गतिमय पिण्डों को गति दी है, तुम्हीं हमारे दूरंगम मन को गति देते हो। हे देव! तुम ‘प्रचेताः’ हो, प्रकृष्ट चित्तवाले हो, प्रकृष्ट प्रज्ञावाले हो, प्रकृष्ट रूप से चेतानेवाले हो। हे ज्ञाननिधि ! तुम ‘तुथ’ हो, हमारे आत्मा में ज्ञान की वृद्धि करनेवाले हो । यदि तुमने हमें मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ आदि ज्ञान के साधन न दिये होते, तो हमारा आत्मा अज्ञानी ही बना रहता। हे प्रभु! तुम ‘विश्ववेदाः’ हो, सर्वज्ञ हो, सकल ब्रह्माण्ड के अणु-अणु को जाननेवाले हो। साथ ही ज्यों ही कोई विचार हमारे मन में आता है, त्यों ही तुम उसे जान लेते हो। तुमसे छिपकर हम कुछ भी नहीं सोच पाते, कुछ भी नहीं कर पाते।

| हे प्रकाशमय और प्रकाशक! तुम्हारे उत्तम गुणों को सदा स्मरण करते हुए हम तुमसे यथोचित शिक्षा ग्रहण कर स्वयं को धन्य करते रहें।

पादटिप्पणियाँ

१. श्वात्रमिति क्षिप्रनाम, आशु अतनं भवति, निरु० ५.३ । श्वात्रति गतिकर्मा, निघं० २.१४।।

२. चेत:=प्रज्ञा, निघं० ३.९। प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य स प्रचेताः । चिती संज्ञाने, भ्वादिः ।

३. तुथः ज्ञानवर्द्धकः । तु गतिवृद्धिहिंसासु इत्यस्याद् औणादिकः थक् प्रत्ययः-द० । ब्रह्म वै तुथः, श० ४.३.४.१५

तू विभू है, प्रवाहण है

आत्मा सूर्य, मन सोम -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा सूर्य, मन सोम

 ऋषिः अगस्त्यः । देवता सविता सोमश्च । छन्दः क. साम्नी बृहती, र, निवृद् आर्षी पङ्किः।

देव सवितरेष ते सोमस्तरक्षस्व मा त्वा दभन् ‘एतत्त्वं देव सोम देवो दे॒वाँ२ ।।ऽउपांगाऽइदमहं मनुष्यान्त्सह रायस्पोषेण स्वाहा निर्वरुणस्य पाशोन्मुच्ये

-यजु० ५। ३९

(देव सवितः) हे प्रकाशमान जीवात्मारूप सूर्य ! ( एषः ते सोमः ) यह तेरा मन रूप चन्द्रमा है, ( तं रक्षस्व ) उसकी रक्षा कर। ( मा त्वा दभन्’ ) कोई भी शत्रु तुझे दबा न पायें । ( एतत् त्वं ) यह तू ( देव सोम ) हे दिव्य मन रूप चन्द्र ! ( देवः) जगमग करता हुआ ( देवान्) प्रजाजनों को ( उपागाः ) प्राप्त हुआ है। आगे मन रूप सोम कहता है-( इदम् अहम् ) यह मैं मन रूप सोम ( मनुष्यान्) मनुष्यों को ( रायस्पोषेण सह) ऐश्वर्य की पुष्टि के साथ [प्राप्त होता हूँ] । ( स्वाहा ) मेरा स्वागत हो। मैं (वरुणस्यपाशात् ) वरुण के पाश से ( निर् मुच्ये ) निर्मुक्त होता हूँ, छूटता हूँ।

जैसे बाहर प्रकाशमान सविता सूर्य अन्तरिक्षस्थ चन्द्ररूप सोम को प्रकाशित करता है, वैसे ही हमारे शरीर के अन्दर आत्मा-रूप सूर्य मन-रूप चन्द्र को प्रकाशित करता है। मन्त्र में सविता नाम से जीवात्मा-रूप सूर्य को सम्बोधन करके कहा गया है कि जो तुम्हारा मन-रूप चन्द्र है, उसकी सदा रक्षा करते रहना । कहाबत है कि मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण होता है। जीवात्मा यदि मन-रूप चन्द्र को प्रकाशित करता रहेगा, तो वह सही रास्ते पर चलेगा और परीक्षाएँ शिष्यों की लिया करें, जिससे उन्हें शिष्यों की प्रगति और योग्यता का ज्ञान होता रहे तथा शिष्य भी पाठ में अपनी दुर्बलता या सबलता जानकर तदनुसार पाठ की तैयारी में ध्यान दिया करें।

मन्त्र के उत्तरार्ध में गुरुकुल में बालक से मिलने तथा अध्ययन में उसकी प्रगति जानने के लिए आये हुए माता-पिता घर लौटते समय बालक को कह रहे हैं। हे बालक! तू यम नियमों से या संस्था के नियमों-उपनियमों से जकड़ा हुआ है, इस बात का सदा ध्यान रखना। गुरुकुल में तू केवल विद्याध्ययन के लिए नहीं आया है, अपितु चरित्रनिर्माण भी तेरे गुरुकुल प्रवेश का उद्देश्य है। अतः गुरुकुल के किसी नियम की अवहेलना मत करना। हम तुझे विद्वान् गुरुओं को सौंप चुके हैं। अब वे ही तेरे विद्याप्रदाता, आचारनिर्माता और सर्वहितकर्ता हैं। अब वे ही तेरे माता-पिता भी हैं। हम तो तुम्हारे आचार्यों से स्वीकृति लेकर कभी-कभी ही तुम्हारी अध्ययन, व्यायाम, व्रतपालन में प्रगति देखने के लिए तुम्हारे पास आ सकते हैं। इस गुरुकुल को ही अपना घर समझो। यह भी ध्यान रखो कि सभी वेदों, आर्ष शास्त्रों, दिव्य गुणों एवं दिव्य व्रतों की प्राप्ति के लिए हमने तुम्हें गुरुकुल में भेजा है। अत: दत्रचित्त होकर सभी विद्याओं का अध्ययन एवं व्रतों का पालन करते हुए तुम विद्यास्नातक एवं व्रतस्नातक बनकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् हमारे पास घर आओगे।

पादटिप्पणियाँ

१. आगत=आगच्छत, छान्दस रूप ।

२. शृणुता= शृणुत, छान्दस दीर्घ ।

३. (उपयामगृहीतः) अध्यापननियमै: स्वीकृतः ७.३३–द० ।

४. योनिः =गृह, निघं० ३.४।।

५. द्रष्टव्य, ऋ० ४.३.७ द०भा० का भावार्थ- अध्यापक लोगों को विद्यार्थियों को पढ़ा के प्रत्येक अठवाडे, प्रत्येक पक्ष, प्रतिमास, प्रति छमाही और प्रति वर्ष परीक्षा यथायोग्य करनी चाहिए।

आत्मा सूर्य, मन सोम

तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े-रामनाथ विद्यालंकार

तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े

ऋषिः मेधातिथि: । देवता विद्वांसः । छन्दः क. भुरिग् आर्ची त्रिष्टुप्, | र. आर्षी पङ्किः

मनस्तऽआप्यायतां वाक् तऽआप्यायतां प्राणस्तऽआप्यायत चक्षुस्तऽआप्यायताछ श्रोत्रे तऽआप्यायताम्। ‘यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्तूऽआप्यायतां निष्ट्यायतां तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः ।ओषधे त्रायस्व स्वर्धिते मैनहिसीः 

 -यजु० ६ । १५

हे शिष्य ! मेरी शिक्षा से ( ते मनः आप्यायाम् ) तेरे मन की शक्ति बढ़े, (तेवाक्आप्यायताम् ) तेरी वाणी की शक्ति बढे, ( ते प्राणः आप्यायताम् ) तेरी प्राणशक्ति बढे, ( ते चक्षुः आप्यायताम् ) तेरी आँख की शक्ति बढ़े, (तेश्रोत्रम्आप्यायताम् ) तेरी श्रोत्र-शक्ति बढ़े। ( यत् ते क्रूरं ) जो तेरा क्रूर स्वभाव था ( यत् आस्थितं ) जो अब स्वस्थ हो गया है। ( तत् ते आप्यायतां ) वह तेरा शान्तस्वभाव बढ़े। यदि तेरा अन्य कोई अङ्ग ( निष्ट्यायतां ) विकृत या अशुद्ध हो जाए ( तत् ते शुध्यतु ) वह तेरा अङ्ग शुद्ध हो जाए। तुझे ( शम्) शान्ति प्राप्त हो (अहोभ्यः ) सब दिनों के लिए। ( ओषधे ) हे ओषधिरूप आचार्य ! आप अपने शिष्य की ( जायस्व ) दुर्गुणों और दुर्व्यसनों से रक्षा कीजिए। ( स्वधिते) हे वज्र के समान कठोर आचार्य ! ( एनं मा हिंसी: ) इस अपने शिष्य की हिंसा मत कीजिए।

अतदयानन्दभाष्य में यह मन्त्र आचार्य की ओर से शिष्य को कहा गया है। जब माता-पिता अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट करा देते हैं, तब उसके शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, शैक्षणिक  विकास का और उसे सब दृष्टियों से योग्य बनाने का उत्तरदायित्व आचार्य का हो जाता है। : आचार्य कह रहा है कि मेरे शिक्षण से तेरे मन की शक्ति बढ़े। मन के द्वारा शिष्य मनन चिन्तन करता है, अन्य ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले चाक्षुष, श्रावण आदि ज्ञान में भी मन माध्यम बनता है और मन शिव सङ्कल्प द्वारा उसके चरित्रवान् होने में भी कारण बनता है। अतः मन के बढ़ने का बहुत महत्त्व है। फिर आचार्य कहता है कि तेरी वाणी बढे, वाणी की शक्ति समुन्नत हो। शिष्य वाणी द्वारा ही मन्त्र, श्लोक, गीत आदि का उच्चारण करेगा, पठित पाठ को स्मरण करके आचार्य को सुनायेगा, भाषण कला का अभ्यास करेगा। फिर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तथा पोषण के लिए प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि प्राणमय कोष का समृद्ध और बलवान् होना भी आवश्यक है। जैसे धौंकनी द्वारा आग धौंकने से धातुओं के मल दग्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं। योग-क्रियाओं का भी मुख्य केन्द्र प्राण ही है। चक्षु की दृष्टिशक्ति और श्रोत्र की श्रवणशक्ति यदि न्यून हो जाए, तो भी शिष्य का विकास नहीं हो सकती। इनकी कार्यशक्ति भी बढ़ी रहना चाहिए। इनके द्वारा शिष्य भद्र को ही देखे और भद्र को ही सुने इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि शिष्य का स्वभाव क्रूर है, तो आचार्य द्वारा उसे मधुर और शान्त किया। जाना आवश्यक है और स्वभाव का माधुर्य निरन्तर बढते रहना। चाहिए। अन्यथा वह काम, क्रोध आदि विकारों को जन्म देगा। इन परिगणित शक्तियों और अङ्गों के अतिरिक्त भी यदि शिष्य के मस्तिष्क, हृदय, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान आदि में या मन, बुद्धि, चित्त, आत्मा आदि में कोई विकार या दोष आ जाता है, तो आचार्य द्वारा उसे भी शुद्ध किया जाना चाहिए। शिष्य को सब दिनों में शान्ति प्राप्त रहनी चाहिए, मानसिक अशान्ति रहने से सभी कार्यों को करने में बाधा उपस्थित हो सकती है

अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में आचार्य की विशेषताएँ बताते हुए उसे ‘ओषधि ४ भी कहा गया है, क्योंकि वह उसके शारीरिक और मानसिक रोगों को दूर करता है। अतः प्रस्तुत मन्त्र कहता है कि हे ओषधिरूप आचार्य, आप शिष्य की दुर्गुणों, दुर्व्यसनों व रोगों से रक्षा भी कीजिए। आचार्य शिष्य के प्रति मृदु होने के साथ-साथ वज्र के समान कठोर भी होता है, तभी वह तपस्या और नियमपालन करा पाता है। परन्तु वह कठोरता शिष्य की हिंसा या हानि के लिए नहीं, प्रत्युत उसके कल्याण के लिए होती है।

| हे शिष्य ! तू आचार्याधीन वास करके सर्वगुणसम्पन्न बन और हे आचार्यवर ! आप उसे अपनी विद्या और चारित्र्य की संजीवनी बूटी से सर्वोन्नत जीवन प्रदान कीजिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।

२. नि-ष्ट्यै शब्दसंघातयोः, भ्वादिः ।

३. स्वधिति=वज्र, निघं० २.२० ।

४. आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पय: । अ० ११.५.१४

तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े

समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार

समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः-दीर्घतमाः । देवता-मनुष्यः । छन्दः-क. साम्नी उष्णिक, ख. स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्, र. भुरिग् आर्षी उष्णिक्,| उ. आर्षी उष्णिक्।।

के समुद्रं गच्छु स्वाहाऽन्तरिक्षं गच्छ स्वाहा ख देवसवितार गच्छ स्वाहा मित्रावरुणौ गच्छ स्वाहाऽहोरात्रे गच्छ स्वाहा छन्दांसि गच्छ स्वाहा द्यावापृथिवी गच्छ स्वाहा’यज्ञं गच्छ स्वाहा सोमै गच्छ स्वाहा दिव्यं नभो गच्छ स्वाहाग्निं वैश्वानरं गच्छ स्वाहामनों में हार्दि यच्छदिवे ते धूमो गच्छतु स्वयॊतिः पृथिवीं भस्मनापृ स्वाहा ।।

-यजु० ६। २१ |

हे मनुष्य ! तू (समुद्रं गच्छ) समुद्र में जा ( स्वाहा ) जलयान रचने की विद्या से सिद्ध समुद्रयान द्वारा। ( अन्तरिक्षं गच्छ ) अन्तरिक्ष में जा ( स्वाहा ) खगोल विद्या से रचित विमान द्वारा। ( देवं सवितारं गच्छ) द्योतमान सर्वोत्पादक परमेश्वर को प्राप्त कर (स्वाहा ) वेदवाणी द्वारा।( मित्रावरुण गच्छ ) प्राण और उदान को सिद्ध कर (स्वाहा) प्राणायामाभ्याससहित योगयुक्त वाणीद्वारा। (अहोरात्रे गच्छ) दिन-रात्रि को जान (स्वाहा ) कालविद्या एवं ज्योतिषशास्त्र की वाणी द्वारा। (छन्दांसि गच्छ) ऋग्यजुः साम-अथर्व चारों वेदों को अध्ययन-अध्यापनपूर्वक श्रवण-मनन निदिध्यासन-साक्षात्कार द्वारा ज्ञान का विषय बना (स्वाहा ) वेदाङ्गादि विज्ञानसहित वाणी द्वारा। ( द्यावापृथिवी गच्छ ) सूर्य और पृथिवी को अर्थात् सब देशदेशान्तरों को ज्ञान का विषय बना ( स्वाहा ) भूमियान-अन्तरिक्षयान-भूगोल- भूगर्भ खगोलविद्या द्वारा। ( यज्ञं गच्छ ) अग्निहोत्र, शिल्प, राजनीति आदि यज्ञ को प्राप्त कर ( स्वाहा ) यज्ञविद्या की वाणी द्वारा। यजुर्वेद ज्योति ( सोमं गच्छ ) सोमलता आदि ओषधि समूह को जान और प्रयुक्त कर ( स्वाहा ) वैद्यकशास्त्र की वाणी द्वारा । ( दिव्यं नभःगच्छ) आकाशस्थ वृष्टिजल को प्राप्त कर ( स्वाहा ) विद्युविद्या की वाणी द्वारा । ( मे मनः )   मेरे मन को ( हार्दि यच्छ ) प्रेम प्रदान कर । ( ते धूमः ) तेरी यन्त्रकलाओं की अग्नि का धुआँ और ( स्वः ज्योतिः ) चमकीली ज्योति (दिवं गच्छतु ) आकाश में पहुँचे। तू (पृथिवीं भस्मना आपृण ) भूमि को भस्म से भर दे (स्वाहा ) कल-कारखानों की विद्या द्वारा ।।

हे मानव ! सङ्कल्प करने के लिए तुझे मन मिला है, निश्चयात्पक ज्ञान करने के लिए बुद्धि मिली है, ज्ञान की साधन ज्ञानेन्द्रियाँ तेरे पास हैं, कर्म करने के लिए कर्मेन्द्रियाँ और अङ्ग-प्रत्यङ्ग हैं। तुझ जैसा मूल्यवान् प्राणी ब्रह्माण्ड के किसी कोने में अन्य कोई नहीं है। तू इन साधनों का उपयोग करके उत्कर्ष को प्राप्त कर । प्रकृति की अद्भुत देन अग्नि, जल, वायु, भूमि, खुला आकाश, ओषधि, वनस्पति, पर्वत, समुद्र तुझे परमेश्वर की ओर से बिना मूल्य प्राप्त है। तू अपनी बुद्धि का प्रयोग करके नवीन-नवीन आविष्कार कर, अपने और समाज के लिए नये-नये सुखसाधन जुटा । तू आध्यात्मिक उन्नति भी कर और भौतिक क्षेत्र में भी उन्नति के शिखर पर पहुँच जा । तू योगाभ्यास कर, प्राणायाम की साधना कर, प्राण को ऊपर-ऊपर के चक्रों में ले जाता हुआ ऊर्ध्वारोहण कर। धारणा, ध्यान से समाधि तक पहुँच, अपने प्राण और उदान को सिद्ध कर। प्रणव को धनुष और अपने आत्मा को शर बनाकर ब्रह्मरूप लक्ष्य पर छोड़। द्योतमान, सर्वोत्पादक सविता प्रभु का साक्षात्कार कर। चारों वेद, वेदाङ्ग, दर्शनशास्त्र, भूगोल खगोलशास्त्र, वैद्यकशास्त्र आदि का अध्ययन कर । दिन रात्रि-मास-त्-अयन- संवत्सर आदि की कालविद्या को जान । अग्नि-यज्ञ, शिल्प-यज्ञ, वृष्टि-यज्ञ, राजनीति यज्ञ आदि की यज्ञविद्या को जान । वृष्टि-विज्ञान को सीख, अनावृष्टि होने पर  बिना बादलों के वर्षा करा, अतिवृष्टि होने पर वृष्टि को रोकने की कला भी सीख। तू भूयान, जलयान और अन्तरिक्षयान बना। जलपोतों से समुद्र पार कर, अन्तरिक्ष में विमानों की उड़ान भर । प्रकृति के पदार्थों से विद्युत् उत्पन्न करके उसके प्रकाश से रात्रि को भी दिन में बदल दे, विद्युत् से कलायन्त्रों को भी चला। तेरे कारखानों का धूम आकाश में छा जाए। भूमि को यज्ञभस्म से और शिल्पशालाओं की भस्म से भर दे। तू इतनी वैज्ञानिक उन्नति कर कि परमात्मा की सृष्टि को भी चार चाँद लगा दे।

पाद-टिप्पणी

१. मन्त्रार्थ दयानन्दभाष्य से गृहीत । स्वाहा=वाक्, निघं० १.११ ।

वाक्-वाणा, वाङ्मय, विद्या । गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च ।।

समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार 

जिसके प्रभु रक्षक हैं -रामनाथ विद्यालंकार

 जिसके प्रभु रक्षक हैं  -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री।

यमग्ने पृत्सु मम वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतरिषः स्वाहा।

-यजु० ६ । २९

( अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर ! आप ( यं मर्त्यम् ) जिस मनुष्य को ( पृत्सु ) संग्रामों में, सङ्घर्षों में ( अवा: ) रक्षित करते हो, ( यम् ) जिसे ( वाजेषु ) आन्तरिक बलों के निमित्त ( जुनाः३) प्रेरित करते हो, ( सः ) वह ( यन्ता ) प्राप्तकर लेता है (शश्वती:इषः५) अविनश्वर इच्छासिद्धियों को, (स्वाहा ) यह कथन सत्य है।

जीवन में मनुष्य को अनेक सङ्घर्षों का सामना करना पड़ता है। कभी आध्यात्मिक सङ्घर्षों से जूझना पड़ता है, तो । कभी बाह्य सङ्घर्षों से । काम, क्रोध आदि षड् रिपु ही उसे उद्विग्न किये रखने में पर्याप्त हैं। फिर हिंसा, असत्य, तस्करी, रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी आदि अन्य मन के आन्तरिक शत्रुओं की अपार सेना उसे कवलित करने के लिए खड़ी रहती है। परन्तु इन अन्त:शत्रुओं से घबरा कर मनुष्य सङ्घर्षों पर विजय नहीं पा सकता। वह सङ्घर्षों का स्वागत करे और उन्हें परास्त करने का प्रयास करे, तो अग्रनेता प्रभु उसके सहायक होते हैं और उसकी रक्षा करते हैं। वे उसे संग्रामों तथा सङ्घर्षों में विजयी होने के लिए आन्तरिक बल प्रदान करते हैं। धन्य हैं। वे लोग, जो आन्तरिक संग्रामों और सङ्घर्षों में परम प्रभु से रक्षा, मनोबल तथा विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। जितना ही अधिक अन्त:शत्रु मनुष्य को दबोचते हैं, उतना ही  अधिक साहस और अन्तर्बल मनुष्य को जुटाना होता है। यदि योगसाधक सचमुच इन आन्तरिक विपदाओं में प्रभुकृपा से विजयी हो जाए, तो अविनश्वर इच्छासिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। कामदेव के जय से उसके चेहरे पर एक सात्त्विक तेज आ जाता है। क्रोध के जय से वह शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। लोभ के जय से उसमें दानशीलता एवं परोपकार भावना घर कर लेती है। मोह के वश से राग-द्वेष उससे छूट जाते हैं तथा उसे वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है। मद या अभिमान के जय से वह इतना विनयी बन जाता है कि उसकी बात को कोई टाल नहीं सकता। मत्सर के जय से वह सबके प्रति समदर्शी हो जाता है। हिंसा के जय से सब प्राणियों का उसके प्रति निर्वैर हो जाता है। असत्य के जय से वाणी में ऐसी शक्ति आ जाती है, जो सबको प्रभावित करती है। स्तेय के जय से सब वस्तुओं की प्राप्ति स्वयमेव होने लगती है। प्रभु जिसे अन्तर्युद्धों में रक्षा प्रदान करते हैं तथा अन्तर्बल की प्राप्ति करा देते हैं, उसे सचमुच ऐसी अमोघ दिव्य शक्तियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पृत्सु=संग्रामेषु । निघं० २.१७

२. अवाः अवसि रक्षसि । लेट्, ‘इतश्च लोप: परस्मैपदेषु’ पा० ३.४.९७,से इकारलोप, ‘लेटोऽडाटौ’ पा० ३.४.९४ से आट् का आगम।

३. जुना:, जु गतौ, श्ना, सिप्, इतश्च लोपः परस्मैपदेषु । ४. यम धातुरत्र प्राप्त्यर्थः। तृजन्तमेतत्, आद्युदात्तत्वात्’–उवटः ।

५. इषः इच्छासिद्धी:, इषु इच्छायाम् ।

 जिसके प्रभु रक्षक हैं  -रामनाथ विद्यालंकार 

हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार

हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार 

 ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अम्बा। छन्दः आर्षी उष्णिक्।

प्रागपागुर्दगधराक्सर्वतस्त्व दिशऽआधावन्तु।अम्ब निष्पर समरीर्विदाम्

-यजु० ६ । ३६

( अम्ब ) हे माता ! (प्राक् ) पूर्व से, ( अपाक् ) पश्चिम से, (उदक् ) उत्तर से, (अधराक्) दक्षिण से, ( सर्वतः दिशः) सब दिशाओं से, प्रजाएँ ( त्वा आधावन्तु ) तेरे पास दौड़कर आयें। तू ( अरी:१) प्रजाओं को ( निष्पर ) पालित पूरित कर। वे प्रजाएँ तुझे (संविदाम्) प्रीतिपूर्वक जानें।

हम सामाजिक मनुष्यों के परस्पर कई प्रकार के सगे या कृत्रिम सम्बन्ध होते हैं। माँ और सन्तानों का बड़ा ही प्यारा मधुर सगा सम्बन्ध है। जब तक पुत्र-पुत्री अल्पवयस्क होते ।। हैं, तब तक माता-पिता के ही आश्रित रहते हैं, किन्तु युवक युवती होकर तथा पढ़-लिख कर योग्य बनकर विवाहोपरान्त वे अपना पृथक् संसार बना लेते हैं और अपना-अपना कार्य करने के लिए कोई पूर्व में, कोई पश्चिम में, कोई उत्तर में, कोई दक्षिण में चला जाता है। किन्तु माँ उनसे छूटती नहीं है, न वे माँ को भुला पाते हैं। जिस किसी भी दिशा में पुत्र-पुत्री बसे होते हैं, समय निकाल कर वहाँ से वे माता-पिता से मिलने आते हैं। माँ भी उनका दुलार करती है। उनकी कोई कठिनाई या समस्या होती है, तो उसका समाधान करती है। और उन्हें आशीर्वाद देती है। वे कितने ही बड़े हो गये हों, किन्तु माँ के लिए तो पुत्र-पुत्रियाँ ही हैं। मन्त्र कह रहा है। कि हे माँ! सन्ताने सब दिशाओं से तेरे पास दौड़ती चली आये  और तू उनका पालन-पूरण कर, उन्हें प्यार और आशीष दे, उन्हें किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता है, तो वह भी उन्हें भरपूर प्रदान कर। किन्तु सन्तानों का भी कुछ कर्तव्य है। वे भी माँ के प्रति सद्भाव प्रकट करें, उसके प्रति प्रेम और आदर प्रदर्शित करें तथा वे भी उसका पालन-पूरण करें। ऋषि अपने भाष्य में लिखते हैं-“माता-पिता को योग्य है कि अपने सन्तानों को विद्या आदि सद्गुणों में प्रवृत्त करके निरन्तर उनकी रक्षा करें और सन्तानों को योग्य है कि माता-पिता की सब प्रकार से सेवा करें।”

हे राजरानी ! तुम भी राष्ट्र की प्रजाओं की माँ हो, सब दिशाओं में तुम्हारी प्रजाएँ फैली हुई हैं। वे तुम्हारा आशीष पाने के लिए तुम्हारे पास दौड़कर आयेंगी, तुम उनका निवेदन सुनो, उन्हें न्याय दो, उनके कष्ट दूर करो, उन पर अपना आशीर्वाद बरसाओ। वे भी तुम्हें आदर देंगी, तुम पर विश्वास प्रकट करेंगी और तुम्हारे प्रति अपनी राजभक्ति प्रदर्शित करेंगी।

हे जगदीश्वरी ! तुम भी हमारी माँ हो, हम सब तुम्हारी सन्तानें हैं। हम बालक-बालिकाओं के समान दौड़कर तुम्हारी गोदी में आ रहे हैं, स्तुति-प्रार्थना-उपासना से तुम्हें रिझा रहे हैं। हमें किस वस्तु की आवश्यकता है, यह तुम स्वयं देखो और माँ की मुस्कराहट के साथ हमारी ओर निहार कर हमें गद्गद करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रजा वा अरी: । श० ३.९.४.२१

२. पृ पालनपूरणयोः, जुहोत्यादिः । पर=पिपृहि।विकरणव्यत्यय, लोट् ।।

३. संविदाम् संविदताम् । विद ज्ञाने, लोपस्त आत्मनेपदेषु, पा० ७.१.४१से तकार-लोप।

हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार 

प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार

प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।

मधुमतीर्नुऽइर्घस्कृधि यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवि । तस्मै ते सो सोमाय स्वाहा स्वाहोर्वन्तरिक्षमन्वेमि॥

–यजु० ७ । २

( नः इष:१) हमारी इच्छाओं को ( मधुमतीः ) मधुर (कृधि ) कर । ( यत् ते ) जो तेरा (सोम ) हे सोम ( अदाभ्यं नाम ) अदभ्य अमर नाम है, वह हमारे सम्मुख (जागृवि ) सदा जागृत रहे । (तस्मै ते सोमाय ) उस तेरे सोम नाम का ( सोम) हे परमात्मन् (स्वाहा ) हम सुप्रचार करते हैं। ( स्वाहा ) हम तुझे आत्मसमर्पण करते हैं। तेरी कृपा से मैं (उरु अन्तरिक्षं ) विस्तीर्म अन्तरिक्ष में ( अन्वेमि) पहुँच रहा हूँ।

हम जो इच्छाएँ करते हैं, वे मधुर भी हो सकती हैं और कटु भी। क्या ही अच्छा हो नदी में बाढ़ आ जाए और नदी किनारे बसा यह नया नगर उजड़ जाए, इस विशाल दस मञ्जिले भवन पर बिजली गिर जाए तो कैसा अच्छा हो, अन्तरिक्ष में उड़ते हए इस वायुयान में आग लग जाए, तो इन उड़ाकुओं को धनी होने का मजा मिल जाए, ऐसी इच्छाएँ कटु कहलाती हैं। इनके विपरीत जनकल्याण की भावनाएँ मधुर इच्छाओं की श्रेणी में आती हैं। यथा, संसार में सब लोग ईश्वरपूजक, धर्मात्मा और सुखी हों, सब राष्ट्र परस्पर प्रेम से रहें और विश्वशान्ति का स्वप्न पूरा हो। हम शान्ति के अग्रदूत सोम प्रभु से याचना करते हैं कि हमारे अन्दर मधुर इच्छाएँ ही जन्म लें। हम अपने पड़ोसी का हित चाहें और समस्त  संसार के हित की कामना करें। सुख, शान्ति, सरसता बरसानेवनाला प्रभु का ‘सोम’ नाम अमर है। हम चाहते हैं। कि वह हमारे सम्मुख सदा जागृत रहे, जिससे हम संसार की सुख, शान्ति एवं सरसता की मधुर इच्छाएँ सदा अपने मन में संजोते रहें और उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील हों। हे प्रभु ! हम तुम्हारे सोम नाम की ‘स्वाहा-ध्वनि’ करते हैं, उसका जन-जन में सुप्रचार करते हैं, जिससे सारा जन-समुदाय शान्ति का उपासक बन जाए। हे सोम प्रभु! हम तुम्हारे प्रति अपने आत्मा को ‘स्वाहा’ करते हैं, तुम्हें आत्म-समर्पण करते हैं। हे सोम! तुम्हारी कृपा, तुम्हारी सदिच्छा, तुम्हारी प्रेरणा, तुम्हारा आशीर्वाद हमें प्राप्त हो जाए, तो हम नीले गगन में चमकाए हुए तुम्हारे चाँद के समान अन्तरिक्ष में पहुँच सकते हैं, पृथिवी से उठकर उन्नति के शिखर पर आसीन हो सकते हैं। तम्हारी सत्प्रेरणा से हमने उड़ान भरनी प्रारम्भ कर दी है। अब हम ऊर्ध्वयात्रा करते-करते विशाल वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में जा पहुँचे हैं। सर्वसाधारण भी अपेक्षा बहुत ऊँचे आध्यात्मिक स्तर पर भी पहुँच गये हैं। अब हम तुम्हारे बनाये सौम्य चन्द्रमा के समान चमक रहे हैं, धरती पर सरसता का स्रोत बहा रहे हैं। हे प्रभु, तुम स्वयं सोम’ हो, तुमने हमें भी ‘सोम’ बना दिया है। हम तुम्हारे प्रति नमन करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. इषु इच्छायाम्, तुदादिः ।

२. अदाभ्यम् अहिंसनीयम्-द० । दभ्नोति वधकर्मा, निघं० २.१९।।

३. सु-आह=स्वाहा।।

४. सु-आ-हा धातु त्यागार्थक, सुन्दर रूप से सर्वत: समर्पण।

५. अनु-इण् गतौ, अदादिः ।

प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार