Category Archives: वेद विशेष

एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार

एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः स्वयंभु ब्रह्म। देवता परमात्मा। छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः ।।

-यजु० ३२.१

( तद् एव ) वही परमात्मा ( अग्निः ) अग्नि कहाता है, ( तद् आदित्यः ) वही आदित्य कहाता है, ( तद् वायुः ) वही वायु कहाता है, ( तद् उ ) वही ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा कहाता है। ( तद् एव शुक्रं ) वही शुक्र, ( तद् ब्रह्म ) वही ब्रह्म, ( ता: आपः ) वही आपः, ( स प्रजापतिः ) और वही प्रजापति कहाता है। |

वेद में अनेक देवों का वर्णन देख कर बहुदेवतावाद की शङ्का होती है। अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, पूषा, त्वष्टा आदि नानी देवों की चर्चा तथा उनकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना वेद करता है। उसका समाधान ऋग्वेद में किया गया है और प्रस्तुत मन्त्र में भी है। ऋग्वेद कहता है कि इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम, मातरिश्वा सब एक ही सत्स्वरूप परमेश्वर के नाम हैं, ये पृथक्-पृथक् देव नहीं हैं।” यजुर्वेद का प्रस्तुत मन्त्र कह रहा है कि ”वही एक परमेश्वर अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा नामों से वर्णित होता है, वही शुक्र है, वही ब्रह्म है, वही आपः है, वही प्रजापति है।” परमेश्वर के विभिन्न नाम उसके विभिन्न गुण-कर्म-स्वभावों को सूचित करते हैं। ‘अग्नि’ नाम गत्यर्थक अगि धातु से नि प्रत्यय करने पर बनता है। गति के ज्ञान, गमन और प्राप्ति अर्थ होते हैं। ज्ञानस्वरूप, सर्वगत और प्राप्तियोग्य होने से परमेश्वर  ‘अग्नि’ कहलाता है। उसका नाम ‘आदित्य’ इस कारण है कि वह प्रलयकाल में ब्रह्माण्ड की सब वस्तुओं का आदान कर लेता है। वह ‘वायु’ इस कारण कहलाता है, क्योंकि वायु के समान अनन्तबलशाली और सर्वधर्ता है। आह्लादार्थक चदि धातु से ‘चन्द्रमाः’ नाम सिद्ध होता है। परब्रह्म आनन्दस्वरूप और आह्लाददायक होने से चन्द्रमाः’ नाम से वर्णित होता है। उसे आशुकारी और शुद्ध होने से ‘शुक्र’ कहते हैं। सबसे अधिक महान् होने के कारण वह ब्रह्म’ कहाता है। उसकी महिमा अपार है, प्रकृति में, मानव शरीर में, अध्यात्म में सर्वत्र वह महामहिम लोकाधिपति के रूप में प्रख्यात है। सर्वव्यापक होने से वह ‘आप:’ नाम से प्रसिद्ध है। (आप्लू व्याप्तौ)। ‘आप:’ का अर्थ जल भी होता है। जलों के समान शान्तिदायक, रसमय और संतरण करानेवाला होने से भी वह ‘आप:’ है। समस्त प्रजाओं का अधिपति होने के कारण वह प्रजापति-पदवाच्य है। मानव सम्राट् की प्रजाएँ तो अपने राष्ट्र तक सीमित होती हैं, परब्रह्म ही प्रजाएँ सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, जिनका वह चक्रवर्ती सम्राट्, स्वराट् और विराट् कहलाता है।

वेदों में नाना देवों का वर्णन देख कर हम भ्रान्ति में न पड़े। अनेक देव एक ही देवाधिदेव परब्रह्म के विभिन्न गुण कर्म-स्वभावों को सूचित करनेवाले नाम हैं। आओ, नाना नामों से हम उस प्रभु की उपासना करें, उसके साम्राज्य और वैभव का वर्णन करें।

पाद-टिप्पणी

१. (तत्) सर्वज्ञं सर्वव्यापि सनातनमनादि सच्चिदानन्दस्वरूपं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं न्यायकारि दयालु जगत्स्रष्ट्र जगद्ध सर्वान्तर्यामि, (अग्निः) ज्ञानस्वरूपत्वात् स्वप्रकाशत्वाच्च, (आदित्य:) प्रलये सर्वस्वादातृत्वात्, (वायुः) अनन्तबलत्वसर्वधर्तृभ्याम्, (चन्द्रमा:) आनन्दस्वरूपत्वाद् आह्लादकत्वाच्च, (शुक्रम्) आशुकारित्वात् शुद्ध भावाच्च, (ब्रह्म) सर्वेभ्यो बृहत्त्वात्, (आपः) सर्वत्र व्यापकत्वात्, (प्रजापतिः) सर्वस्याः प्रजायाः स्वामित्वात्-द० ।

एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार

प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार

प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः स्वयम्भु ब्रह्म। देवता परमात्मा । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्। तस्मिन्नूिद सं च वि चैति सर्वः सऽओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु॥

-यजु० ३२.८

( वेनः ) इच्छुक, पूजक, मेधावी मनुष्य ही ( तत् गुहा निहितं सत् ) उस गुहा में निहित अर्थात् गुह्य परब्रह्म परमेश्वर को ( वेद ) जानता है, ( यत्र ) जिसमें ( विश्वं ) ब्रह्माण्ड ( एकनीडं भवति ) एक घोंसले में निहित के समान होता है। ( तस्मिन् ) उस परमेश्वर के अन्दर ( इदं सर्वं ) यह सकल विश्व ( सम् एति ) प्रलयकाल में समा जाता है, और ( वि एति च ) सृष्टिकाल में उससे पृथक् हो जाता है। ( सः विभूः ) वह व्यापक परमेश्वर ( प्रजासु ) प्रजाओं के अन्दर ( ओतः प्रोतः च ) ओत-प्रोत है।

परब्रह्म परमेश्वर सर्वसाधारण के लिए ऐसा ब्रह्म है, जो मानो किसी गम्भीर गुफा में रहता हो, जहाँ किसी की पहुँच न हो। उसके दर्शन वही कर सकता है, जिसमें उसके दर्शन के अनुकूल विशिष्ट योग्यता हो। ‘वेन’ मनुष्य को ही उसके दर्शन हो सकते हैं। वेन धातु वैदिक निघण्टु कोष में इच्छा, गति और अर्चना अर्थों में पठित है। ईश्वर-दर्शन के लिए सर्वप्रथम तो मनुष्य के अन्दर दर्शन की उत्कट इच्छा या अभीप्सा होनी चाहिए। उसके हृदय में प्रभु-दर्शन की लौ लगी होनी चाहिए। दूसरे उसकी गतिविधि बाह्य जगत् की ओर न होकर प्रभु की ओर होनी चाहिए। तीसरे उसमें प्रभु की अर्चना में आनन्द लेने की निपुणता होनी चाहिए। निघण्ट में ही ‘वेन’ शब्द मेधावी-वाचक शब्दों में भी पठित है। अतः ईश्वर-दर्शक को ईश्वर–सम्बन्धी शास्त्रों में गहन चिन्तन एवं पाण्डित्य भी होना चाहिए। ऐसा योगाभ्यासी साधक ही प्रभु का साक्षात्कार कर सकता है। | कैसा है वह परमेश्वर ? उसके अन्दर सारा विश्व ऐसे ही निवास करता है, जैसे पंछी घोंसले में रहता है। सकल विश्व का वह घोंसले के समान आश्रयस्थान है । मन्त्र के अन्त में उसके विषय में यह कहा गया है कि प्रलयकाल में उसी के अन्दर सब कुछ समा जाता है, और सृष्टिकाल में उसके अन्दर से निकल आता है। परन्तु यह स्थापना तो वेदान्तदर्शन की है। यदि ऐसा मान लें, तो ईश्वर जगत् का उपादान कारण सिद्ध होता है, जबकि त्रैत दर्शन के अनुसार है वह जगत् का निमित्त कारण। मण्डक उपनिषदः कहती है कि यह जगत परमेश्वर के अन्दर से ऐसे ही निकलता है, जैसे मकड़ी के अन्दर से जाला निकलती है, और फिर उसी में समा जाता है । मन्त्र का कथन भी इसी कथन से मिलता-जुलता है। जगत् यदि प्रलयकाल में परमेश्वर में समा जाता है और सृष्टिकाल में उसमें से बाहर निकल आता है, तो परमेश्वर जगत् का निमित्त कारण नहीं हो सकता, इस शङ्का का उत्तर मकड़ी के दृष्टान्त से ही मिल जाता है। मकड़ी तो आत्मा का नाम है, आत्मा में से जाला नहीं निकलता, अपितु मकड़ी के शरीर में से जाला निकलता है। इसी प्रकार जगत् परमेश्वर में नहीं समाता, न उसमें से निकलता है, अपितु परमेश्वर का जो शरीर प्रकृति है उसमें प्रलयकाल में जगत् समाता है और सृष्टिकाल में प्रकृति में से बाहर आ जाता है। अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति है, न कि ब्रह्म।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वेनति=इच्छति, गच्छति, अर्चति, निघं० २.६, २.१४, ३.१४ ।। २. वेन:=मेधावी, निघं० ३.१५ । ३. यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च । मु० उप० १.२.७

प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार

गन्धर्व विद्वान् ही गुह्य ब्रह्म का प्रवचन कर सकता है -रामनाथ विद्यालंकार

गन्धर्व विद्वान् ही गुह्य ब्रह्म का प्रवचन कर सकता है -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः स्वयंभु ब्रह्म। देवता विद्वान् । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

प्र तद्वोचेदमृतं नु विद्वान् गन्धर्वो धाम विभृतं गुहा सत्। त्रीणि पदानि निहित गुहास्य यस्तानि वे स पितुः पितासंत्॥

-यजु० ३२.९ |

(गन्धर्वः१ विद्वान् ) वेदवाणी को अपने अन्दर धारण करनेवाला विद्वान् ही (गुहानिहितं ) गुहा में रखे हुए अर्थात् गुह्य ( तत् अमृतं ) उस अमर ( धाम ) मुक्तिधाम परमेश्वर का ( नु) निश्चयपूर्वक ( प्रवचेत् ) प्रवचन कर सकता है। ( अस्य ) इस परमेश्वर के ( त्रीणि पदानि ) तीन पद ( गुहा निहितानि ) गुहा में निहित अर्थात् गुह्य हैं। ( यः तानि वेद ) जो उन्हें जान लेता है, अनुभव कर लेता है, ( सः ) वह (पितुःपिता असत् ) पिता का भी पिता हो जाता है।

क्या तुम अमृतस्वरूप परब्रह्म को जानना चाहते हो ? उसका प्रवचन वही विद्वान् कर सकता है जो गन्धर्व हो अर्थात् जिसने वेदवाणी को, उपनिषद्वाणी को उन सन्तों की वाणी को जिन्होंने परब्रह्म की अनुभूति प्राप्त की हुई है, अपने अन्तरात्मा में धारण कर रखा हो। जिन्हें अपनी विद्वत्ता का गर्व है ऐसे शास्त्रज्ञ पण्डित भले ही दिन-रात उसकी चर्चा करते रहें, उसकी सत्ता के विषय में प्रमाण उपस्थित करते रहें, अनुमान और आगम प्रमाणों से उसकी सिद्धि करते रहें, किन्तु वे उसका साक्षात्कार या उसकी अनुभूति नहीं करा सकते, क्योंकि स्वयं उन्होंने उसका साक्षात्कार नहीं किया है। इसलिए चलो, ‘गन्धर्व’ के पास चलें। ये बैठे हैं जङ्गल में एक वृक्ष के नीचे अर्ध नग्न अवस्था में एक विद्वान् योगी, जो पूर्णतः अपरिग्रही हैं, भूमि ही जिनकी शय्या है, वृक्षों के वल्कल ही  जिनके वस्त्र हैं, कौपीन ही जिनकी सम्पत्ति है। नमस्ते भगवन्, यह ब्रह्मजिज्ञासु आपके चरणस्पर्श करता है। ओंकार का जप करो एक लक्ष बार निराहार रहकर, तब तुम्हारी सच्ची जिज्ञासा जागेगी। कर लिया भगवन्, अन्त:करण शुद्ध हो गया है। नहीं, अभी नहीं, तपस्या करो एक वर्ष तक शीत ऋतु में जल में खड़े होकर और ग्रीष्म ऋतु में धूप में खड़े होकर प्रति दिन दो घण्टे, गायत्री-जप करो पञ्च लक्ष। वेद, उपनिषद् और योगियों के ग्रन्थ पढ़ो, योगाभ्यास करो। एक वर्ष आपके निर्देशानुसार तपस्या, गायत्री-जप और योगाभ्यास करके पुन: आपकी शरण में आये हैं भगवन् ! प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष दग्ध हो गये हैं। ठीक है, मेरे सान्निध्य में ध्यान करना होगा। पाँच साधक मेरे साथ बैठेंगे, उनमें पाँचवें तुम हो। हमें परब्रह्म की अनुभूति हो गयी है, गुरुवर ! अब हम सत्पात्रों को ब्रह्म के दर्शन करायेंगे। भगभभक्तों की एक श्रेणी बनेगी, जो योगधारा प्रवाहित कर योग्य पात्रों को भगवान् के दर्शन करायेगी।

गन्धर्व विद्वान् ही अमर प्रभु का प्रवचन और दर्शन करा सकता है, जो प्रभु मुक्ति का धाम है, जिसके पास पहुँच कर मुक्तिप्राप्त भक्तजन आनन्दलाभ करते हैं। वह अमर प्रभु चतुष्पात् है। इस ब्रह्माण्ड में जो भी प्राकृतिक कलाकृति है, उसमें उसका एक ही पाद दिखायी देता है, शेष पाद तो गुहा में निहित हैं, गुह्य हैं। उन्हें अध्यात्मसाधक ही देख सकता है। जो उन गुह्य तीन पादों को जान लेता है, अनुभव का विषय बना लेता है, वह पिता का भी पिता हो जाता है, परम ज्ञानी हो जाता है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (गन्धर्व:) यो गां वेदवाचं धरति स:-द० ।।गां वेदवाचं धारयति विचारयतीति गन्धर्वः वेदान्तवेत्ता विद्वान्पण्डितः-म० ।।

२. गुहा=गुहायाम्। सुपां सुलुक् पा० ७.१.३९ से विभक्ति का लुक।

३. असत्, अस भुवि अदादिः, लेट् ।

गन्धर्व विद्वान् ही गुह्य ब्रह्म का प्रवचन कर सकता है -रामनाथ विद्यालंकार

युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार

युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः त्रिशोकः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री।

बृहन्निदिध्मएषां भूरिशस्तं पृथुः स्वरुः । येषामिन्द्रो युवा सखा ।

–यजु० ३३.२४ |

(एषां ) इनका ( बृहन् इत् ) विशाल ही ( इध्मः ) ईंधन होता है, ( भूरि ) बहुत ( शस्तं ) यश होता है, और ( पृथुः ) विस्तीर्ण ( स्वरुः ) खड्ग होता है, ( येषां ) जिनका (युवाइन्द्रः ) युवा इन्द्र (सखा ) सखा बन जाता है।

कोई मनुष्य कैसा है इसकी पहचान इससे होती है कि उसके मित्र कैसे हैं, उसका मेल-मिलाप कैसे लोगों के साथ है। एक बार कोई व्यक्ति हत्या के सन्देह में पकड़ा गया। वह प्रतिदिन एक साधु के यहाँ सत्सङ्ग में जाता था। साधु के साथ इसकी मैत्री है, यह हत्यारा नहीं हो सकता, यही सोचकर उसे छोड़ दिया गया। किसी की राजमन्त्री के साथ मैत्री होती है, किसी की समाधि लगानेवाले महात्मा के साथ मैत्री होती है, किसी की चोर-डाकुओं और अतिङ्कवादियों के साथ मैत्री और सहानुभूति होती है। उन्हीं से उसका चरित्र परखा जाता है। |

आओ, हम युवा इन्द्र के साथ मैत्री करें। उससे मैत्री करके हम उसी के सदृश बन जायेंगे। इन्द्र की एक विशेषता यह है कि वह अन्धकार और अत्याचार के प्रेमी वृत्र’ का संहार करता है। यदि हम इन्द्र से मैत्री स्थापित करेंगे तो हमें भी वृत्रे-जैसे आततायी लोगों का संहार करने का उत्साह और बल प्राप्त होगा। इन्द्र की दूसरी विशेषता यह है कि वह ग्रीष्म के ताप से तपती प्यासी भूमि पर शुद्ध मेघ-जल की वर्षा करती है। इन्द्र के मित्र बनकर हम भी प्यासों को पानी पिलायेंगे, सहायता की बाट जोहते लोगों की सहायता में तत्पर होंगे, दु:खियों के दु:ख मिटा कर उन पर सुख की वर्षा करेंगे। वेदों में जो भी बल के कर्म हैं, उन्हें इन्द्र करता है। इन्द्र के मित्र होकर हम भी बल के कर्म करेंगे। इन्द्र ने सूर्य विद्युत् और अग्नि को ज्योति दी है। हम भी अन्धकार में ज्योति उत्पन्न करेंगे। इन्द्र सृष्टि की उत्पत्ति करता है और सृष्टि को धारण करता है। हम भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनायेंगे, उन्हें क्रियान्वित करेंगे और उन्हें चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उनका धारण भी करेंगे।

मन्त्र में युवा इन्द्र जिसका सखा हो जाता है, उसके लिए तीन बातें कही गयी हैं। प्रथम यह कि उसका ईंधने विशाल होता है। युवा इन्द्र सर्वस्वत्यागी है, उसने अपने लिए कुछ न रख कर ब्रह्माण्ड की समस्त सम्पदा दूसरों के लिए स्वाहा की हुई है। इन्द्र का सखा बनकर मनुष्य भी न केवल अपनी सम्पत्ति गरीबों के लिए स्वाहा करने को उद्यत हो जाता है, अपितु स्वयं को भी अपने राष्ट्र के लिए स्वाहा कर देता है। इन्द्र के सखाओं के लिए दूसरी बात यह कही गयी है कि उनका भूरि-भूरि यश होता है, क्योंकि वे इन्द्र के सदृश स्तुत्य कर्म करते हैं। इन्द्र के सखा मनुष्यों को तीसरी उपलब्धि यह होती है कि उनका खड्ग बहुत विशाल होता है। छोटी-छोटी तलवारें छोटे-छोटे अस्त्र-शस्त्र तो बहुतों के पास होते हैं, परन्तु इन्द्र के वज्र-जैसा वज्र उन्हीं के पास होता है, जो इन्द्र के प्रेमी हैं। इन्द्र का मित्र भी ‘इन्द्र’ बनकर आततायी शत्रुओं पर खड्ग-प्रहार करता है, तोप के गोले बरसाता है, आग्नेयास्त्र से उन्हें भून डालता है। यह विध्वंसलीला वह उनकी करता है, जो शान्ति में बाधक होते हैं, जो अशान्ति और उपद्रव को अपना ध्येय मानते हैं। | आओ, हम भी इन्द्र के सखा बनकर उक्त सब उपलब्धियों को पाने का सौभाग्य प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणी

१. शस्तं यशः, शसि इच्छायाम्, भ्वादिः

युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार

मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

medha ki yachna1मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधाकाम: । देवता सदसस्पतिः परमेश्वर: ।। छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधार्मयासि8 स्वाहा ॥

-यजु० ३२.१३

( अद्भुतं ) आश्चर्यजनक गुण-कर्म-स्वभाववाले, (इन्द्रस्य प्रियं ) जीवात्मा के प्रिय, (काम्यं ) चाहने योग्य ( सदसः पतिं ) ब्रह्माण्डरूप तथा शरीररूप सदन के अधिपति परमेश्वर से मैं ( सनिं ) सत्यासत्य का संविभाग करनेवाली ( मेधां) मेधा ( अयासिषं ) माँगता हूँ। ( स्वाहा ) यह मेरी प्रार्थना पूर्ण हो ।

मेधा धारणवती बुद्धि को कहते हैं, जिससे एक बार सुन लेने पर या पढ़ लेने पर सुना-पढ़ा हुआ स्मरण रहता है। ऐसी बुद्धि मैं भी पाना चाहता हूँ। किन्तु, किस दुकान से खरीदें? नहीं, यह किसी दुकान पर मोल नहीं मिलती है। यह तपश्चर्या, ध्यान और योगाभ्यास द्वारा प्रभु से प्राप्त होती है। किस प्रभु से प्राप्त होती है? उस प्रभु से प्राप्त होती है, जो ‘सदसस्पति’ है, ब्रह्माण्डरूप तथा शरीर रूप सदन का स्वामी है, अधीश्वर है। वह सकल विशाल ब्रह्माण्ड को भी सञ्चालित करता है। और यह जो मनुष्यादि का शरीररूप सदन है, इसकी सब गतिविधि को भी क्रियान्वित करता है। देखो, आकाश के सूरज, चाँद, सितारे किसके इशारे पर चल रहे हैं ? अन्तरिक्ष में ये घनघोर बादल बनते और बरसते हैं, यह किसका कौशल है ? नदियाँ समुद्र को भरती रहती हैं, यह किसका कर्तृत्व है ? पेड़-पौधे, लताएँ फूल-फल पैदा करते हैं, भूमि पर हरियाली छाती है, पर्वतों पर बर्फ जमती हैं, यह सब किसकी महिमा से हो रहा है? इस छोटे-से मानव-शरीर में आँख की पुतली दश्यों को देखती है, कान का परदा शब्द को सनता है. नासिका गन्ध पूँघती है, रसना खट्टे-मीठे-तीखे-कड़वे रस का स्वाद पता लगाती है, त्वचा स्पर्श से कोमल-कठोर का ज्ञान करती है, भुजाएँ, हाथ, पैर, मस्तिष्क, आमाशय, रक्तसंस्थान अपना-अपना काम करते रहते हैं, इसकी चौकसी कौन करता है? जो इन सब व्यापारों को कर-करा रहा है, वही सदसस्पति’ परमेश्वर मेधा का प्रदाता भी है। वह अद्भुत है, अनोखे गुण कर्म-स्वभाववाला है। वह ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान पानेवाले और कर्मेन्द्रियों से कर्म करनेवाले जीवात्मा का परम प्रिय सखा है। उसकी महिमा से आकृष्ट होकर सब उसे पाना चाहते हैं। उसी परम मेधावी यशस्वी प्रभु से मैं मेधा की याचना करता हूँ। वह मेधा ‘सनि’ है, क्या सत्य है और क्या असत्य है, इसका विवेक करनेवाली है। हे सदसस्पति प्रभु ! अपने विशाल मेधा के भण्डार में से थोड़ी-सी मेधा मुझे भी दे दो। मैं भी उस मेधा के बल पर ज्ञान-विज्ञान के अचरज-भरे कार्य कर सकें। ‘स्वाहा’! यह मेरी प्रार्थना पूर्ण करो।

पाद-टिप्पणी

१. (सदसः) सभाया ज्ञानस्य न्यायस्य दण्डस्य वा (पतिं) पालकंस्वामिनम्। (अद्भुतप्) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावम्। (इन्द्रस्य) इन्द्रियाणां स्वामिनो जीवस्य। (सनिम्) सनन्ति संविभजन्ति सत्यासत्य यया ताम् (मेधाम्) संगतां प्रज्ञाम्-द० ।।

मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

surya aur ratri ka niyam palan1सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कुत्सः । देवता सूर्य: । छन्दः आर्षी त्रिष्टप् ।

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तावित सं जभार। यदेदयुक्त हुरितः सधस्थदाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ।

-यजु० ३३.३७

( तत् सूर्यस्य देवत्वं ) वह सूर्य का देवत्व है, ( तत् महित्वं ) वह महत्त्व है कि (कर्ते:मध्या’ ) क्रियमाण कर्मों के मध्य में ही ( विततं ) फैले हुए रश्मिजाल को (संजभार ) समेट लेता है। ( यदा इत् ) जब ही सूर्य ( सधस्थात् ) आकाश मण्डप से ( हरित:४) किरणों को ( अयुक्त ) अन्यत्र जोड़ता है, (आत् ) उसके अनन्तर ही (रात्री) रात्रि ( सिममै ) सबके लिए ( वासः तनुते ) अपने अन्धकाररूप वस्त्र को फैलाती है।

किसी बूढ़ी माँ ने आँगन की धूप में अनाज सूखने रखा है, वह अभी उसे समेट नहीं पायी है। वह चाहती है सूर्य तब अस्त हो जब मैं अनाज उठा लूं। वह सूर्य से कहती है-भैया ! जरा अस्त होने से रुक जाओ, मेरा काम फैला पड़ा है, तो वह हँसकर उसकी बात अनुसुनी कर देता है। वह नियमपालन के प्रति दृढ़ है, समय पर उदित होता है, और समय पर अस्त होता है। मन्त्र कह रहा है कि इसी में सूर्य का देवत्व और महत्त्व है कि वह किये जाते हुए कर्मों के मध्य में ही फैले हुए रश्मिजाल को समेट लेता है। यदि वह सबकी इच्छा पूरी करने लगे, तो कभी अस्त न हो पाये। कोई चाहेगा आधे घण्टे बाद अस्त हो, कोई चाहेगा एक घण्टे पश्चात् अस्त हो, किसी की इच्छा होगी कि दो घण्टे और रुक जाए, कोई कहेगा आज अस्त न ही हो तो क्या बिगड़ता है, मैं अपना कार्य धूप-धूप में पूरा कर लूं। व्रतपालन के धनी मनुष्य भी निश्चित समय पर अपना कार्य आरम्भ करते हैं। और निश्चित समय पर समाप्त कर देते हैं। यदि समय की सीमा निश्चित की हुई नहीं होती है, केवल इतना ही व्रत होता है कि दिन भर में इतना कार्य करना है, चाहे किसी समय कर लें, तो वैसे नियम का पालन करते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भी नियम बनाया हो, उसका पालन आवश्यक है।

रात्रि भी अपने नियम की पक्की है। जब सूर्य आकाशमण्डप से अपनी किरणों को खींच लेता है, तभी वह अपने अन्धकार रूप चादर को तानती है। यह कभी नहीं होता कि वह सूर्यास्त से एक-दो घण्टा पहले ही आ विराजे और सूर्य से कहे कि सरको, मैं आ गयी।

हम चाहें तो प्रकृति से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर का आना जाना, पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर घूमना, चन्द्रोदय होना, समुद्र में ज्वार-भाटा आना-जाना, बादल बनना, वर्षा होना  आदि हमारे गुरु बन सकते हैं।

पाद-टिप्पमियाँ

१. मध्ये यत् कर्मणां क्रियमाणानाम्-निरु० ४.१२ ।

२. सं जभार=सं जहार। ग्रहोर्भश्छन्दसि ।।

३. सधस्थात् सहस्थानात्, मण्डपात् ।

४. हरितः हरणान् आदित्यरश्मीन्-निरु० ४.१२।।

सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

rashtra ke raja rani aur veer1राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कण्वः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

प्रेतु ब्रह्मणस्पतिः प्रदेव्येतु सूनृत

अच्छा वीरं न परिधिसं देवा यज्ञं नंयन्तु नः॥

-यजु० ३३.८९

( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( ब्रह्मणः पतिः ) महान् राष्ट्र का पालक सम्राट्, ( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( देवी सूनृता ) शुभ गुणों से देदीप्यमान सत्यमधुरभाषिणी महारानी। ( देवाः ) विद्वान् लोग (नः यज्ञम् अच्छ) हमारे राष्ट्रयज्ञ में ( नर्यम् ) परुषाथी, ( पहिराधसम) पंक्तियों के सेवक (वीर) वीर को (नयन्तु ) प्राप्त कराएँ।

हम अपने राष्ट्र को महान् बनाना चाहते हैं। उसके लिए वेद का सन्देश है कि सम्राट्, प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति को ‘ब्रह्मणस्पति’ होना चाहिए। ब्रह्मन् शब्द निघण्टु में अन्न और धन का वाचक है। इससे सूचित होता है कि प्रधान राष्ट्रनायक जो भी हो उसके राष्ट्र में अन्न और धन भरपर रहना चाहिए, जिससे राष्ट्र में भुखमरी और निर्धनता फटकने भी न पावे। ‘ब्रह्म’ महान् परमेश्वर का नाम भी है। अत: राष्ट्रनायक को परमेश्वर का आराधक भी होना चाहिए, जिससे वह परमेश्वर से सद्गुणों और सत्कर्मों की प्रेरणा ग्रहण करता रहे। सम्राट् के साथ उसकी देवी महारानी भी राजोचित गुणोंवाली होनी चाहिए।’देवी’ शब्द क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति एवं गति अर्थवाली दिवु धातु से निष्पन्न होने के कारण महारानी के इन गुणों को भी सूचित करता है। वह प्रत्येक कार्य को इतनी आसानी से करने की क्षमतावाली होनी चाहिए कि वह उसे खेल लगे। उसके अन्दर प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त करने की इच्छा होनी चाहिए। उसे व्यवहारकुशल होना चाहिए। राजनीति के ज्ञान की द्युति, स्तवनय की स्तुति, श्लाध्य कर्मों को करने से मोद और प्रसन्नता उसके अन्दर होनी चाहिए। अकरणीय कार्यों के प्रति प्रसुप्ति, कर्तव्यपालन के प्रति इच्छाशक्ति, जागरूकता, आशावादिता और प्रगतिशीलता उसमें रहनी चाहिए। सूनुता’ पद से उसकी वाणी की सत्यता और मधुरता सूचित होती है। राष्ट्रोत्थान इस पर भी निर्भर करता है कि राष्ट्र के वीर कैसे हैं। अतः मन्त्र कहता है कि विद्वानों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्र में ऐसे वीरों का निर्माण करें, जो ‘नर्य’ हों, नरों के हितकर्ता एवं पुरुषार्थी हों, ‘पङ्किराधस्’ अर्थात् सहायता की इच्छुक जनपङियों के सेवक और कार्यसाधक हों। ऐसे वीर पुत्र जब राष्ट्रयज्ञ के अग्रणी बनेंगे तब निश्चय ही राष्ट्र प्रगति की ओर अग्रसर होगा, अन्य राष्ट्रों के मध्य उसकी स्थिति ऊँची होगी और अन्य राष्ट्रों का वह आदर्श तथा मार्गदर्शक हो सकेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. देवी शुभगुणैर्देदीप्यमाना-द०भा० ३३.८९, देवी विदुषी सूनृतासत्यभाषणादिसुशीलत्वयुक्ता-द०भा० ३७.७

२. ब्रह्म=अन्न, धन, निघं० २.७, २.१०।।

३. पङ्केः समूहस्य राधः संसिद्धिर्यस्मात् तम्-० । राध संसिद्धौ, स्वादिः।।

राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

 

वानप्रस्थाश्रम प्रवेश – रामनाथ विद्यालंकार

vanprsthashram pravesh1वानप्रस्थाश्रम प्रवेश-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कुत्सः । देवता अग्नि: । छन्दः भुरिक आर्षी पङ्किः ।

अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठोऽअध्वरेष्वीड्यः। यमनवानो भृर्गवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे।।

-यजु० ३३.६

( अयं) यह ( प्रथमः ) श्रेष्ठ, ( होता ) हवि को ग्रहण करनेवाला तथा सुगन्ध को देनेवाला, ( यजिष्ठः ) यज्ञ में साधकतम, ( अध्वरेषु ईड्यः ) यज्ञों में स्तवनीय आहवनीय अग्नि ( धातृभिः) अग्न्याधान करनेवालों के द्वारा (इह धायि ) यहाँ यज्ञवेदि में आधान किया गया है, ( यं चित्रं विभ्वं ) जिस चित्र विचित्र व्यापक अग्नि को (अप्नवान:३ भृगव:४) कमसेवी तपस्वी वानप्रस्थ जन (वनेषु ) वनों में ( विशेविशे) प्रत्येक प्रजा के हितार्थ ( विरुरुचुः५) विरोचित करते रहे हैं।

कोई व्रतसेवी जन गृहस्थ आश्रम को तिलाञ्जलि देकर वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि का आधान किया है। कैसा है वह यज्ञाग्नि? प्रथम अर्थात् श्रेष्ठ कोटि का है, घृत-भरे दीपक की लौ से चन्दन, पलाश आदि की समिधाओं में प्रदीप्त किया गया है और उसे प्रज्वलित रखने के लिए धीमे-धीमे पंखा झल कर उस पर गाय के घृत में डूबी आठ-आठ अङ्गल की तीन समिधाएँ मन्त्रोच्चारणपूर्वक अर्पित की गयी हैं। अग्निकुण्ड में प्रदीप्त, प्रबुद्ध और समिदाधान द्वारा जागृत किया गया यह अग्नि वानप्रस्थ की दीक्षा ग्रहण करनेवाले व्रतियों को भी अपने समान प्रज्वलित, प्रबुद्ध और जागरूक होने की शिक्षा दे रहा है। आगे जलप्रोक्षण, आघार आहुति, आज्याभागाहुति, व्याहृति आहुति देकर वानप्रस्थाश्रम का प्रधानहोम होता है, जिसमें स्थालीपाक की ४३ आज्याहुति  दी जाती हैं।

यह सब वानप्रस्थाश्रमप्रवेश की यज्ञप्रक्रिया प्राचीनकाल से वनों में कर्मसेवी, तपस्वी जन करते रहे हैं। जो अंग्नि चित्र-विचित्र रंगोंवाला है, कण-कण में व्यापक है, उसे उत्तरारणि और अधरारणि की रगड़ से, या दीपक की लौ से यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त करते रहे हैं, विरोचमान करते रहे हैं। किसलिए?‘विशेविशे’, प्रत्येक प्रजाजन के हित के लिए। जो भी यज्ञकुण्ड में अग्न्याधान को देखता है और घृताहुति तथा अन्य हव्यों की आहुति पाकर ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से प्रखर होती हुई यज्ञाग्नि पर दृष्टिपात करता है, उसे ये अग्निज्वालाएँ ‘आओ, आओ’ कहती हुई अपने साथ उन्नति की दिशा में चलने का, ऊध्र्वारोहण करने का निमन्त्रण देती हैं। इस प्रकार जन-जन का हितसाधन करती हैं।

आओ, हम भी वानप्रस्थाश्रमप्रवेश की आयु होने पर वानप्रस्थ की अग्नि प्रज्वलित करें, उसमें अदिति, सरस्वती, पूषा, त्वष्टा, प्रजापति आदि के नाम से आहुति देते हुए इनसे शिक्षाएँ ग्रहण करें और आयु, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, चक्षु, श्रोत्र, वाक्, मन, आत्मा आदि को यज्ञ द्वारा समर्थ बनायें । एक के लिए स्वाहा करें, दो के लिए स्वाहा करें, शत के लिए स्वाहा करें

“एकस्मै स्वाहा, द्वाभ्यां स्वाहा, शताय स्वाहा”

पाद-टिप्पणियाँ

१. धायि=अधायि । अडागमनषेध छान्दस।

२. विभ्वं=विभुम् । यणादेश छान्दस।

३. अप्नस्=कर्म, निघं० २.१, वनिप् प्रत्यय ।

४. भृगवः, भ्रस्ज पाके, ‘प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च’ उ० १.२८से कु=उ प्रत्यय तथा धातु के स् का लोप ।

५. विरुरुचुः =विरोचयामासुः, णिलोप ।

६. द्रष्टव्यः संस्कारविधि, वानप्रस्थसंस्कार।

वानप्रस्थाश्रम-प्रवेश-रामनाथ विद्यालंकार

आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार

aap prtham angiras rishi hai1आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः हिरण्यस्तूपः अङ्गिरसः । देवता अग्निः । छन्दः विराडू जगती ।

त्वमग्ने प्रथमोऽअङ्गिाऽऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा।

तव व्रते कुवयों विद्मनापसोऽजयन्त रुतो भ्राज॑दृष्टयः ।

–यजु० ३४.१२ |

हे ( अग्ने ) तेजस्वी परमेश्वर ! ( त्वं ) आप ( प्रथमः ) सर्वप्रथम ( अङ्गिराः ऋषिः ) अङ्गिरस् ऋषि हैं। ( देवः ) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाले आप (देवानां ) विद्वानों के (शिवः सखा ) कल्याणकारी मित्र ( अभवः ) हुए हैं । ( तव व्रते ) आपके व्रत में रहकर ही ( मरुतः ) मनुष्य ( कवयः ) क्रान्तद्रष्टा ( विद्मनापसः ) कर्तव्यों के ज्ञाता और (भ्राज ऋष्टयः ) चमचमाती बर्छियों से युक्त (अजायन्त) हुए हैं।

सुनते हैं प्राचीन काल में अङ्गिरस् ऋषि हुए हैं, जिन्होंने शौनक को यह रहस्य बतलाया था कि किस एक के जान लेने पर सब कुछ विदित हो जाता है। किन्तु हे अग्ने ! हे ज्योतिर्मय परमेश्वर ! सबसे प्रथम अङ्गिरस् ऋषि तो आप हैं। आप ‘अङ्गिरस्’ इस कारण कहलाते हो कि आप अङ्गियों (जीवात्माओं) को सुख देते हो और आप सर्वद्रष्टा होने से ऋषि हो। हे प्रभुवर ! आप ‘देव’ हो, दिव्य गुण-कर्म स्वभाववाले हो और विद्वानों के शिव सखा हो। लोगों का विश्वास है कि कोई शिवजी हैं, जो कैलास पर्वत पर रहते हैं, किन्तु विद्वज्जन तो आपको ही मङ्गलकारी शिव मानते हैं, क्योंकि आप उनके सखा हो, परम मित्र हो। सच्चा मित्र तो अपने मित्र का अमङ्गल कर ही नहीं सकता। सखित्व या मैत्री ही आपका लिङ्ग है, चिह्न है, आपकी पहचान है। प्रचलित शिवलिङ्ग की कल्पना तो अज्ञानी लोगों के मस्तिष्क की कल्पना है, जिससे पत्थर के लिङ्ग की पूजा चल पड़ी है। विद्वान् लोग तो आपके मैत्री रूप लिङ्ग की ही पूजा करते हैं। जो लोग आपके व्रत में दीक्षित हो जाते हैं, वे ‘कवि’ वन जाते हैं। कवि का अर्थ है क्रान्तद्रष्टा, दूरदृष्टिसम्पन्न। उनमें वह दृष्टि उत्पन्न हो जाती है कि किस कार्य को करने का क्या परिणाम होगा। सामान्य जन तो प्रलोभनवश कोई भी कार्य कर बैठते हैं, परन्तु ईश्वरीय व्रत पर चलनेवाला मनुष्य अपनी दूरदृष्टि से कार्य के परिणाम को देख कर शुभ परिणामवाले कार्य में ही प्रवृत्त होता है। उसे अपने कर्तव्य का बोध हो जाता है, वह ‘विमनापस्’ हो जाता है। ईश्वरीय व्रत पर चलनेवाले मनुष्य भी ऐसा ही करते हैं। जो विश्व का मित्र बनता है, विश्व के प्रति शिव होता है, विश्वशान्ति का प्रेमी होता है, उससे वे मैत्री करते हैं, किन्तु जो विश्व में अशान्ति पैदा करना चाहता है, उसके प्रति वे ‘भ्राजऋष्टि हो जाते हैं, चमचमाती बर्छियाँ या चमचमाते शस्त्रास्त्र हाथ में ले लेते हैं, उसे उसके द्वारा किये जानेवाले उपद्रवों के लिए दण्डित किये बिना नहीं छोड़ते। याद रखो, जो दुष्टता से समझौता करता है, वह शक्तिहीन होता है। वह शान्ति की दुहाई देकर आतङ्कवाद को सहता है। परन्तु असली कारण यह होता है। कि वह आतङ्कवादी का मुकाबला नहीं कर सकता। ज्योतिर्मय परमेश्वर से बल पाकर आततायी को दण्डित करना ही ईश्वरीय व्रत है।

पादटिप्पणियाँ

१. (अङ्गिराः) अङ्गिभ्यो जीवात्मभ्यः सुखं राति ददाति यः सः-२० ।

२. ऋषिर्दर्शनात् । निरु० २.११

३. कवि: क्रान्तदर्शनो भवति । निरु० १२.७ ।

४. विद्मनानि विदितानि अपांसि कर्माणि येषां ते विद्मनापस:-दे०।।

५. भ्राजन्त्यः शोभमाना ऋष्टय आयुधानि येषां ते भ्राजदृष्टयः-२०||

आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार

दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

dakshaayan hiranyदाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दक्षः । देवता हिरण्यं तेजः । छन्दः भुरिक् शक्वरी ।

न तद्रक्षछिसि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज ह्येतत्।। यो बिभर्ति दाक्षायण हिरण्यः स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः । स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः

-यजु० ३४.५१

( न तद् ) न उसे ( रक्षांसि ) राक्षस’, ( न पिशाचाः ) न पिशाच ( तरन्ति ) लांघ सकते हैं। ( एतद् ) यह ( देवानां ) विद्वानों का ( प्रथमजम् ओजः ) प्रथम आयु ब्रह्मचर्याश्रम में उत्पन्न ओज है। ( यः ) जो ( दाक्षायणं हिरण्यं ) बलवर्धक ब्रह्मचर्य को ( बिभर्ति ) धारण करता है (सः ) वह ( देवेषु ) विद्वानों में ( आयुः ) अपनी आयु ( दीर्घ कृणुते ) दीर्घ कर लेता है, ( सः ) वह (मनुष्येषु ) मनुष्यों में ( आयुः ) अपनी आयु (दीर्घकृणुते) दीर्घ कर लेता है।

जो दाक्षायण हिरण्य को धारण करता है, वह विद्वानों में दीर्घायु होता है, वह मनुष्यों में दीर्घायु होता है। अभिप्राय यह है कि चाहे वह विद्वान् हो, चाहे साधारण मनुष्य दीर्घायु अवश्य होता है। क्या है यह दाक्षायण हिरण्य? यह विद्वानों का प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है। प्रथम आयु होती है, ब्रह्मचर्याश्रम, उसमें संचित ब्रह्मचर्य का बल या वीर्य ही हिरण्य है। दक्ष शब्द वेद में बल का वाचक है, दाक्ष का अर्थ है बलसमूह, उसका अयन, अर्थात् प्राप्तिस्थान दाक्षायण कहलाता है। इस प्रकार दाक्षायण हिरण्य’ का अर्थ होता है बलवर्धक वीर्य । इसके संचय का माहात्म्य अधिकतर वे लोग बताते हैं, जो वीर्यरक्षा न करके अब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत कर चुके होते हैं, क्योंकि अब्रह्मचर्य से उन्हें हानि हुई होती है। वे सोचते हैं कि हमने जो हानि उठायी, वह दूसरों को न भुगतनी  पड़े। अतः वे दूसरों को सावधान करते हैं। योगी दयानन्द सदृश कोई विरले ऐसे भी होते हैं, जो न केवल प्रथम आयु में, अपितु आगे भी ब्रह्मचारी रहे होते हैं। वे भी अपने अनुभव के आधार पर ब्रह्मचर्य की महिमा दूसरों को बताते हैं । यह हिरण्य प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्मचर्य के पश्चात् के आश्रमों में अब्रह्मचारी रहना है। गृहस्थाश्रम में भी राष्ट्र को श्रेष्ठ सन्तान देने के पश्चात् ब्रह्मचर्य का जीवन बिताना ही अभीष्ट है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम तो पूर्णत: ब्रह्मचर्य के आश्रम हैं ही। इस रीति से यदि चलें, तो अल्पाय होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसीलिए अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में ब्रह्मचर्य का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि विद्वान लोग ब्रह्मचर्य के तप से मत्य को मार भगाते हैं ।६ प्रथम आयु में उत्पन्न यह विद्वानों का ओज ब्रह्मचर्यबल ऐसा होता है कि न इसे राक्षस, न पिशाच पराजित कर सकते हैं । ब्रह्मचर्य के ओज से अनुप्राणित अकेला ब्रह्मचारी शत और सहस्र नरपिशाचों से लोहा ले सकता है। पिशाच का अर्थ दयानन्दभाष्य में किया गया है रुधिर-मांस आदि खानेवाले हिंसक म्लेच्छाचारी दुष्ट लोग।

आओ, हम सब ‘दाक्षायण हिरण्य’ को धारण करें, तब हमारे अन्दर शरीर-बल के साथ मनोबल और आत्मबल भी अधिकाधिक जागृत होगा और मनुष्य-कोटि से उठकर हम देव-कोटि में पहुँच जायेंगे। सचमुच दाक्षायण हिरण्य’ का ऐसा ही माहात्म्य है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (रक्षांसि) अन्यान् प्रपीड्य स्वात्मानमेव ये रक्षन्ति ते-द० ।

रक्षो रक्षितव्यम् अस्मात्, रहसि क्षणोतीति वा, रात्रौ नक्षते इति वा

निरु० ४.३४।।

२. (पिशाचा: ) ये प्राणिनां पिशितं रुधिरादिकम् आचामन्ति भक्षयन्ति ते | हिंसका म्लेच्छाचारिणी दुष्टा:-द०।।

३. (प्रथमजम्) प्रथमे वयसि ब्रह्मचर्याश्रमे वा जातम्-द० ।

४. दक्षस्य बलस्य समूहो दाक्ष:, दाक्षस्य अयनं प्राप्ति: येन से दाक्षायणः ।

५. रेतो वै हिरण्यम् तै० ३.८.२.४, मैं ३.७.५।।

६. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्त । अ० ११.५.१९

दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार