Category Archives: वेद विशेष

योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार

योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः । देवता मघवा । छन्दः आर्षी उष्णिक्।

उपयामगृहीतोऽस्य॒न्तर्यच्छ मघवन् पाहि सोमम्। रुष्य रायऽएषोयजस्व

-यजु० ७।४

हे साधक! तू ( उपयामगृहीतः असि ) यम-नियमों से गृहीत है, (अन्तः यच्छ ) आन्तरिक नियन्त्रण कर। ( मघवन्) हे योगैश्वर्ययुक्त! तू ( सोमं पाहि ) समाधिजन्य आनन्दरस का पान कर। (रायः ) ऐश्वर्यों को ( उरुष्य ) रक्षित कर । ( इष:) इच्छासिद्धियों को ( आ यजस्व) प्राप्त कर।।

हे साधक! यह प्रसन्नता का विषय है कि तूने योगमार्ग पर चलना आरम्भ किया है, तू योगप्रसिद्ध यम-नियमों को ग्रहण कर रहा है। योगशास्त्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम कहलाते हैं । अष्टाङ्ग योग में सर्वप्रथम ये ही आते हैं, क्योंकि जब तक साधक इन्हें क्रियान्वित नहीं कर लेता, तब तक योग के अगले सोपानों पर चढ़ना कठिन होता है। हे साधक! तू यम नियमों को अङ्गीकार करके अपने आन्तरिक नियन्त्रण में लग जा, अपने इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा को साध, कुमार्ग पर जाने से रोक, अन्तर्मुख कर। इस प्रकार तू शनैः-शनै: योगैश्वर्यों से युक्त होता चलेगा। तूआसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान के पड़ावों से गुजरता हुआ समाधि की स्थिति तक पहुँच जाएगा। ‘समाधि’ की स्थिति को पाकर तू समाधिजन्य आनन्दरसरूप ‘सोम’ को रक्षित कर उसका पान कर। साधना में अग्रसर रहते हुए यदि कोई विघ्न तेरे मार्ग में बाधक बन कर आयें,  तो उनसे तू योगैश्वर्यों की रक्षा करता रह, क्योंकि यदि तू उनके वश में हो जाएगा, तो तेरी सारी उपलब्धि मिट्टी में मिल जाएगी। यदि तू विघ्नों से पराजित नहीं होगा, तो योग की राह तुझे अनेक इच्छासिद्धियों को प्राप्त करा सकेगी। तब तू इच्छामात्र से पापी को पुण्यात्मा बना सकेगा, अधर्मात्मा को धर्मात्मा बना सकेगा, अभद्र को सर्वतोभद्र बना सकेगा, असुन्दर को सुन्दर बना सकेगा, निन्दास्पद को यशस्वी कर सकेगा। योग की पराकाष्ठा पर पहुँच कर तो तू अनबरसते बादलों को भी बरसा सकेगा, भूकम्प के निर्भय झटकों को आनन्द के झूले में परिवर्तित कर सकेगा, सागर के उत्पीडक तूफान को मनभावनी लहरों में बदल सकेगा, विश्व को विपत्ति से पार लगा सकेगा। इतने ऊँचे योगी आज दुर्लभ हैं। हे साधक! प्रभुकृपा से तेरी साधना सफल हो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. उरुष्यतिः रक्षाकर्मा, निरु० ५.२३ ।

२. एषः =आ इषः । इषु इच्छायाम् ।

योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार  

तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और अन्तरिक्ष हैं- रामनाथ विद्यालंकार

तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और  अन्तरिक्ष हैं -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः । देवता ईश्वरः । छन्दः आर्षी पङ्किः।।

अन्तस्ते द्यावापृथिवी दधाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम्। सुजूर्देवेभिरर्वारैः परैश्चान्तर्यामे मघवन् मादयस्व ॥

-यजु० ७।५

ईश्वर कह रहा है-हे योगसाधक ( ते अन्तः ) तेरे अन्दर ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को (दधामि ) रखता हूँ। ( अन्तः दधामि ) अन्दर रखता हूँ (उरुअन्तरिक्षम् ) विशाल अन्तरिक्ष को। ( अवरैः परैः च देवेभिः ) अवर और पर देवों से (सजू:१) समान प्रीतिवाला होकर ( अन्तर्यामे ) अन्तर्यज्ञ में ( मघवन् ) हे योगैश्वर्य के धनी ! तू ( मादयस्व ) स्वयं को आनन्दित कर।

हे मानव ! तू अन्तर्यज्ञ रचा। देख, बाहरी सृष्टि में सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष मिलकर यज्ञ रचा रहे हैं। सूर्य पृथिवी को प्रकाश और ताप देता है। वही अपनी किरणों से पार्थिव जल को भाप बना कर अन्तरिक्ष में ले जाता और बादल बनाता है। बादलों से वृष्टि करके शुष्क भूमि को सरस करता है, उस पर हरियाली पैदा करता है। अन्तरिक्ष चन्द्र द्वारा भूमि को शीतलता पहुँचाता है और सौम्य प्राण देकर जड़-चेतन को परिपुष्ट करता है। पृथिवी भी अपने अन्दर जो ऐश्वर्य भरा पड़ा है, जो पवन, नीर, अग्नि, सोना, चाँदी, हीरे, मँगे आदि अमूल्य द्रव्यों की निधि रखी हुई है, उसे अपने पास न रख कर दूसरों के उपयोग के लिए दे देती है। सूर्य, पृथिवी और अन्तरिक्ष अलग-अलग भी परोपकाररूप यज्ञ कर रहे हैं और  परस्पर सामञ्जस्य द्वारा भी जनकल्याण का यज्ञ रचा रहे हैं। हे साधक! तू यह मत समझ कि सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष केवल बाहर ही हैं, प्रत्युत तेरे शरीर के अन्दर भी ये विद्यमान हैं। तेरा आत्मा सूर्य है, तेरा शरीर या अन्नमयकोष पृथिवी है। तेरे प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष अन्तरिक्ष हैं, जिनमें प्राण, मन और बुद्धि निवास करते हैं। इनमें तू परस्पर सामञ्जस्य उत्पन्न करके अन्तर्यज्ञ रचा। तेरा आत्म-सूर्य देहस्थ इन्द्रियों को तथा अन्तरिक्षस्थ प्राण, मन एवं बुद्धि को सुप्रकाशित करता रहे, अपने ताप से इनके दोषों को दग्ध करता रहे और ये सब मिलकर आत्मा को ज्ञान आदि से परिपुष्ट करते रहें। साथ ही अन्तर्यज्ञ रचाने के लिए तुझे अपने इन्द्रिय, प्राण, मन एवं बुद्धि को सुप्रकाशित करता रहे, अपने ताप से इनके दोषों को दग्ध करता रहे और ये सब मिलकर आत्मा को ज्ञान आदि से परिपुष्ट करते रहें। साथ ही अन्तर्यज्ञ रचाने के लिए तुझे अपने इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि एवं आत्मा को अन्तर्मुख करना होगा। पूर्णतः बहिर्मुख रहते हुए ये अन्तर्यज्ञ के यजमान एवं होता, उद्गाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा नहीं बन सकते । अन्तर्यज्ञ में तू अपने आत्मा को यजमान बना, मन को ब्रह्मा बना, चक्षु श्रोत्र आदि को होता बना, वाणी को उद्गाता बना, प्राण को अध्वर्यु बना। तू शरीरस्थ अवर और पर दोनों देवों से सहयोग ले। इन्द्रियाँ और प्राण अवर देव हैं, आत्मा, मन, बुद्धि पर कोटि के देव हैं। इनके द्वारा योगसाधना करता हुआ तू परब्रह्म को प्राप्त करके ब्रह्मानन्द का अनुभव कर। यह ब्रह्मानन्द एवं सांसारिक आनन्दों से बढ़कर है। लाखों सांसारिक आनन्द मिलकर भी एक ब्रह्मानन्द की बराबरी नहीं कर सकते, ऐसा योगी ऋषियों ने अपने अनुभव से बताया है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सजू: समानजोषण: समानप्रीतियुक्त:-म० ।जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः ।

२. मदी हर्षे, माद्यति, दिवादिः । णिच्, मादयस्व ।

तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और  अन्तरिक्ष हैं- रामनाथ विद्यालंकार

बालक का गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार 

बालक का   गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गृत्समदः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः क. आर्षी गायत्री,र, निवृद् आर्षी उष्णिक्।

कविश्वे देवासऽआर्गत शृणुता म इमहर्वम् । । एवं बर्हिर्निषीदत।’उपयामगृहीतोऽसि विश्वेभ्यस्त्वा । देवेभ्यएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥

-यजु० ७ । ३४

शिष्य कहता है—( विश्वे देवासः ) हे सब विद्वान् गुरुजनो! ( आ गत ) आओ, ( शृणुत) सुनो ( मे ) मेरे ( इमं हवम् ) इस पढ़ाये हुए पाठ को, (इदं बर्हिः ) इस कुशासन पर (निषीदत ) बैठो। आगे माता-पिता बालक को कहते हैं ( उपयामगृहीतः असि) तू यम-नियमों से जकड़ा हुआ है। हमने ( त्वी ) तुझे (विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) सब विद्वान् गुरुओं को सौंपा है, (एषः ) यह गुरुकुल ( ते योनि:४) तेरा घर है। हमने ( त्वी ) तुझे (विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) सब दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए [गुरुकुल में प्रविष्ट किया है] ।

वैदिक शिक्षापद्धति के अनुसार माता-पिता द्वारा गुरुकुल में प्रविष्ट कराया गया बालक गुरुजनों को ही हो जाता है। आचार्य के साथ उसका पिता-पुत्र का सम्बन्ध होता है। आचार्य उसका पिता और सावित्री (गायत्री ऋचा) उसकी माता होती है। प्रस्तुत मन्त्र के पूर्वभाग में गुरुकुल में प्रविष्ट शिष्य गुरुजनों को आदर के साथ बुलाता हुआ कह रहा है। कि हे सब विद्वान् गुरुजनो! आओ, इस कुशानिर्मित आसन पर बैठो, आप जो पाठ पढ़ा चुके हैं, उसे सुनो। इससे सूचित होता है कि गुरुजनों का यह कर्तव्य है कि वे दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, षण्मासिक, वार्षिक

बालक का   गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार 

होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार 

होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अत्रिः । देवता गृहपतयः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वयहि त्वा प्रति यज्ञेऽअस्मिन्नग्ने होतारमवृणीमहीह ।ऋर्धगयाऽऋर्धगुतार्शमिष्ठाः प्रजनन्यज्ञमुर्पयाहि विद्वान्त्स्वाहा॥

-यजु० ८। २०

( अग्ने ) हे विद्वन्! (वयं हि ) हम गृहपतियों ने निश्चय पूर्वक ( अस्मिन् प्रयति यज्ञे ) इस प्रारभ्यमाण यज्ञ में त्वा) आपको ( होतारम् ) होता, यज्ञनिष्पादक (अवृणीमहि ) वरण किया है। आप पहले भी ( इह ) यहाँ (ऋधक् ) समृद्धिपूर्वक ( अशमिष्ठाः ) शान्ति या पूर्णाहुति करते रहे हैं। अतः (विद्वान्) विद्वान् आप (प्रजानन्) यज्ञ के विधि-विधान को जानते हुए ( यज्ञम् उपयाहि ) यज्ञ में आइये, और (स्वाहा ) आहुति दिलवाइये ।।

बड़े यज्ञों में चार ऋत्विज् होते हैं—होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा । होता मन्त्रपाठ, उद्गाता सामगान, अध्वर्यु यज्ञ का विधि-विधान और ब्रह्मा अध्यक्षता तथा सञ्चालन करता है। एक, दो, तीन ऋत्विजों से भी कार्यनिर्वाह हो सकता है। अच्छे विद्वान्, धार्मिक, जितेन्द्रिय, कर्म करने में कुशल, निर्लोभ, परोपकारी, दुर्व्यसनों से रहित, कुलीन, सुशील, वैदिक मतवाले, वेदवित् एक, दो, तीन अथवा चार (ऋत्विजों) का वरण करे। जो एक हो तो उसका पुरोहित, जो दो हों तो ऋत्विक्, पुरोहित और तीन हों तो ऋत्विक्, पुरोहित और अध्यक्ष और जो चार हों तो होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा ।” एक पुरोहित रखने पर उसे ऋत्विक्, पुरोहित या होता भी कह देते हैं। वहाँ होता’ का अर्थ यज्ञनिष्पादक  होता है। प्रस्तुत मन्त्र में यज्ञनिष्पादक पुरोहित अर्थ में ही ‘होता’ शब्द है।

हे विद्वन् ! आप यज्ञ कराने में कुशल हैं। यज्ञनिष्पादन में प्रमुख बातें होती हैं वेद तथा कर्मकाण्ड का पाण्डित्य, शुद्ध तथा स्पष्ट मन्त्रोच्चारण, भाषणकला तथा अनुभव। आप एक अनुभवी पुरोहित हैं और यज्ञ के विधि-विधान प्रभावपूर्ण शैली से कराने में निष्णात हैं और अच्छे उपदेशक तथा मार्गदर्शक हैं। अतः आपसे निवेदन है कि आप हमारे पवित्र यज्ञ के होता बनने की हमारी अभ्यर्थना स्वीकार करने की कृपा करें। आपने अब तक सब यजमानों का यज्ञ समृद्धिपूर्वक निष्पन्न किया है और समृद्धिपूर्वक ही उसकी पूर्णाहुति की है। आप यज्ञविधियों की जो प्रभावोत्पादक व्याख्या करते हैं, उससे यज्ञ को चार चाँद लग जाते हैं। आप आइये और हम यजमानों से स्वाहापूर्वक आहुति डलवाने की कृपा कीजिए। हम गृहपति जन आपका स्वागत करते हैं, आपको वरण करते

पादटिप्पणियाँ

१. प्र-इण् गतौ, शतृ, सप्तमी विभक्ति। प्रयति प्रगच्छति प्रवर्तमाने ।

२. ऋधगिति पृथग्भावस्य प्रवचनं भवति, अथापि ऋध्नोत्यर्थे दृश्यते ।’ऋधगया ऋधगुताशमिष्ठाः’ य० ८.२०, ऋध्नुवन् अयाक्षी: ऋध्नुवन् | अशमिष्ठाः इति च। -निरु० ४.६०

३. संस्कारविधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती, सामान्य प्रकरण।

४. (होतारम्) यज्ञनिष्पादकम्-द० ।

होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार 

इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार

इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः अत्रिः । देवता वाक्। छन्दः आर्षी जगती ।

पुरुदस्मो विषुरूपऽइन्दुरन्तर्महिमानमानञ्ज धीरः। एकपदीं द्विपद त्रिपदीं चतुष्पदीमष्टापदीं भुनानु प्रथन्तास्वाहा॥

-यजु० ८।३०

( पुरुदस्म:१) अतिशय दु:खक्षयकर्ता, (विषुरूपः ) विविध रूपों वाला, ( धीरः) धीर, बुद्धिमान् ( इन्दुः२) आनन्द से आर्द्र करनेवाले परमेश्वर ने ( अन्तः ) शरीर तथा ब्रह्माण्ड के अन्दर ( महिमानं ) महिमा को ( आनञ्ज ) प्रकट किया हुआ है। उसकी (एकपदीं ) ओम् रूप एक पदवाली, ( द्विपदीं ) अभ्युदय और निःश्रेयस इन दो पदोंवाली, (त्रिपदीं ) मन, बुद्धि, आत्मा इन तीन पदोंवाली, (चतुष्पदीं ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पदोंवाली और ( अष्टापदीं ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्षों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास इन चार आश्रमों रूप आठ पदोंवाली (स्वाहा ) वाणी को ( भुवना) सब घर ( अनुप्रथन्ताम् ) अनुकूलरूप से विस्तीर्ण करें, फैलाएँ।

परमेश्वर का एक नाम ‘इन्दु’ भी है। उणादि कोष में इसे आर्द्र करनेवाली ‘उन्द्’ धातु से उ प्रत्यय तथा धातु के उ को इ करके निष्पन्न किया गया है। जो उपासकों को आनन्दवर्षा से आर्द्र करता है, वह परमात्मा ‘इन्दु’ कहलाता है। वह “पुरुदस्म’ है, बहुत अधिक दु:ख, दोष आदि का क्षय करनेवाला है। जो सच्चे भाव से दु:खदोषादि से छूटने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करता है, उसकी वे प्रभु सुनते हैं। वह ‘विषुरूप भी है, अर्थात् विविध रूपोंवाला है-सच्चिदानन्दस्वरूप,  निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता आदि अनन्त रूपोंवाला है। वह धीर अर्थात् धैर्यसम्पन्न तथा बुद्धिमान् (धीर) भी है। उस इन्दु ने शरीर में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र अपनी महिमा को प्रकट किया हुआ है। सृष्टि में जिधर भी दृष्टि डालो, उसी की महिमा दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि चारों ओर जो अद्भुत सृष्टि की कला और छवि है। वह मनुष्यकृत तो हो नहीं सकती। जब उसकी सृष्टि इतनी महान् और अचरजभरी है, तब उसकी वेदवाणी क्यों न निराली होगी। उसका अध्ययन और मनन करने पर ज्ञात होता है कि सचमुच वह अति अभिनन्दनीय है। कहीं वह एकपदी है, कहीं द्विपदी है, कहीं त्रिपदी है, कहीं चतुष्पदी है, कहीं अष्टापदी है। ओम्, सत्यम्, शिवम्, स्वस्ति, नमः, स्वाहा आदि एकपदी वाक् है, जिसमें एक पद से वाक्यार्थ निकल आता है। एक परब्रह्म का वर्णन करने के कारण भी वह एकपदी है। कहीं वह द्विपदी है, अभ्युदय-नि:श्रेयस, ऋत-सत्य, आत्मोपकार-परोपकार, इन्द्र-अग्नि, मित्र-वरुण, व्यक्ति-समाज, गुरु-शिष्य आदि युगल विषयों का वर्णन करती है। कहीं वह त्रिपदी है, जहाँ ईश्वर-जीव-प्रकृति, मन बुद्धि-आत्मा आदि त्रैत का वर्णन करती है। कहीं वह चतुष्पदी है, जहाँ धर्म अर्थ-काम-मोक्ष इन चार विषयों की चर्चा है। कहीं वह अष्टापदी है, जहाँ समाज के चार वर्षों तथा चार आश्रमों का प्रतिपादन करती है। चार आश्रमों की चर्चा मनुप्रोक्त नामों से न होकर अन्य नामों से भी हो सकती है, जैसे वानप्रस्थ का उल्लेख मुनि नाम से और संन्यासी का वर्णन यति नाम से मिलता है। ऐसे-ऐसे महत्त्वपूर्ण विषयों का जिस इन्दु को वाणी में वर्णन है, उसका विस्तार, प्रसार, प्रचार सकल गृहों के निवासियों को करना चाहिए। बड़े-बड़े नास्तिक लोग भी ईश्वरकृत किसी घटनाचक्र को देख कर आस्तिक बन गये, बड़े बड़े नास्तिकता का दम भरनेवाले लोगों ने अन्त समय में परमात्मा का स्मरण करके आँखें मूंदीं।

अतः आओ हम भी ‘इन्दु’ प्रभु का गुणगान करें, उसकी वेदवाणी का प्रचार-प्रसार करें और उसने हमें उन्नति के लिए नर-तन दिया है, उसके लिए उसके कृतज्ञ हों।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरु बहु दु:खदोषादीन् दस्यति उपक्षयति स पुरुदस्मः। पुरु-दसु | उपक्षये-मक् प्रत्यय ।

२. उनत्ति आर्मीकरोति आनन्दवर्षाभिः भक्तजनान् यः स इन्दुः । ‘इन्देरुच्चउ० १.१२ से उ प्रत्यय और धातु के इ को उ।

३. अजू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु, लिट् ।

इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शासः । देवता विश्वकर्मा ईश्वरः । छन्दः क. भुरिग् आर्षीत्रिष्टुप्, र. विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।।

के वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेऽअद्या हुवेम। नो विश्वानि हव॑नानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुर्कर्मा।उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा विश्वकर्मणऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे

-यजु० ८ । ४५

हम ( वाचस्पतिं ) वाणी के स्वामी, (मनोजुवं) मन को गति देनेवाले, (विश्वकर्माणं ) विश्व के कर्मों के कर्ता परमेश्वर को ( अद्य ) आज ( वाजे ) संग्राम में ( हुवेम ) पुकारें । ( स विश्वशम्भूः साधुकर्मा ) वह विश्वकल्याणकारी, साधु कर्मोवाला परमेश्वर (अवसे) रक्षा के लिए (नः विश्वानि हवनानि ) हमारी सब पुकारों को ( जोषत् ) प्रीतिपूर्वक सुने । हे मानव ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) यम-नियमों से जकड़ा हुआ है, ( इन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ) तुझे विश्व के कर्ता परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर की शरण में देता हूँ। (एष ते योनिः ) यह तेरा शरणस्थान है । ( इन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ) तुझे सब उत्कृष्ट कर्मों के कर्ता विघ्नोच्छेदक जगदीश्वर की शरण में देता हूँ।

क्या तुम जानते हो कि प्रकृति में जो अद्भुत क्रियाएँ हो रही हैं, उनका करनेवाला कौन है ? सम्भवतः तुम कहोगे कि प्रकृति स्वयं अपने खेल रचाती है। स्वयं उषा छिटकती है, सूर्योदय होता है, सूर्यास्त होता है, काली निशा आती है, चाँदनी चमकती है, ग्रीष्म ऋतु आती है, बरसात आती है, शीत ऋतु का आगमन होता है, पर्वतों पर बर्फ गिरता है, नदियाँ बहती हैं, समुद्र में गिरती है, वनस्पतियाँ उगती हैं, लताएँ वृक्षों की गलबहियाँ लेती हैं, रङ्गबिरङ्गे पुष्प खिलते हैं, फल आते हैं। प्रकृति का कम्प्यूटर स्वयं काम करता है, उसे चलानेवाला कोई नहीं है। परन्तु ऐसा कम्प्यूटर आज तक कोई नहीं बना जिसे कभी निरीक्षणकर्ता की, टूटा तार जोडनेवाले की आवश्यकता न हो। कोई विश्वकर्मा परमेश्वर है, जो विश्व के कार्यों को करने में प्रकृति की सहायता करता है। वह केवल प्रकृति की बाह्य करामातों को ही नहीं, शरीर के अन्दर होनेवाले आश्चर्यजनक कार्यों को भी करता-करवाता है। जीभ जो वाणी बोलती है, उसमें उसी का कर्तृत्व है, मन जो चिन्तन करता है या चक्षु-श्रोत्र आदि के देखने-सुनने आदि में माध्यम बनता है, उसमें उसी की कला है। वह ‘साधुकर्मा’ है, सत्य-शिव-सुन्दर कर्मों को ही करता है। आओ, हम उसे पुकारें, उच्च ज्ञान और कर्म की प्राप्ति के लिए उसके द्वार खटखटायें, मानव से देव बनने के लिए उसकी शरण में जाएँ।

हे मानव! जो उपयाम’ है, जो समीप होकर प्रकृति के कम्प्यूटर को नियन्त्रित करता है, उसी को तुम पकड़ो, उसी की शरण में जाओ। उसी से यम-नियमों की डोर पकड़ो। उसी ‘विश्वकर्मा इन्द्र’ से कर्तृत्व की कला सीखो, उसी से बाह्य और आध्यात्मिक उड़ान की शिक्षा लो। उसी से अपरा और परा विद्या का सूत्र पकड़ो। उसी से सूत्रों का भाष्य करने की विद्या प्राप्त करो। वह तुम्हारा ‘योनिरूप’ है, तुम्हारा निवासगृह है, तुम्हारा शरणालय है। उसी विश्व-रचयिता, विश्व की प्रत्येक क्रिया का सञ्चालन करनेवाले परमैश्वर्यवान् प्रभु की शरण में तुम्हें भेजता हूँ। उसी की स्तुति करो, उसी से प्रार्थना करो, उसी की उपासना करो। वह तुम्हारा कल्याण करेगा, वह तुम्हें साधु मार्ग द्वारा लक्ष्य पर पहुँचायेगा। देवासुरसंग्राम में वही तुम्हें विजय दिलायेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वाज=संग्राम। निघं० २.१७

२. योनि=गृह। निघं० ३.४

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार 

जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार

जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः: । छन्दः निवृद् आर्षी बृहती।

सुत्रस्यऽऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृताऽअभूम। दिवं पृथिव्याऽअध्यारुहामाविदाम देवान्त्स्वर्योतिः

-यजु० ८।५२

हे जीवन्मुक्ति! तू ( सत्रस्य) जीवन-यज्ञ की ( द्धिःऋ असि ) समृद्धि है। (अगन्मज्योतिः ) पहुँच गये हैं हम प्रजापति रूप ज्योति तक। ( अमृताः अभूम) अमर हो गये हैं, जीवन्मुक्त हो गये हैं। (पृथिव्याः दिवम् अध्यारुहाम ) पृथिवी से द्युलोक में चढ़ गये हैं, निचले स्तर से सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गये हैं। हमने (अविदामदेवान्) पा लिया है, दिव्य गुणों को, ( स्वः) आनन्द को, (ज्योतिः ) दिव्य प्रकाशको।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये जीवन के पुरुषार्थ-चतुष्टय कहलाते हैं। धर्माचरण, धर्मानुकूल उपायों से अर्थसञ्चय एवं धर्मानुकूल काम का सेवन करते हुए मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहना मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है। मुक्ति के मुख्य उपाय हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और वृत्ति-चतुष्टय (मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा) । इन उपायों द्वारा अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से छूट कर मनुष्य मुक्ति का परमानन्द प्राप्त करता है। उक्त साधनों के अतिरिक्त ‘‘परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म-अविद्या-कुसङ्ग-कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने, सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्यायधर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने, धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार आचरण करने आदि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञाभङ्ग आदि से बन्ध होता है।”१ जब मनुष्य उस परमात्मा के दर्शन कर लेता है, जो अपने आत्मा के भीतर और सर्वत्र बाहर भी व्याप रहा है तब उससे अज्ञानरूपी गाँठ कट जाती है, उसके सब संशय छिन्न हो जाते हैं और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में जब तक शरीरपात नहीं होता, तब तक वह जीवन्मुक्त कहाती है। ऐसे ही कोई मनुष्य अपनी आनन्दमय जीवन्मुक्ति का वर्णन करते हुए प्रस्तुत मन्त्र में कह रहे हैं

‘हे जीवन्मुक्ति ! तू हमारे जीवन-यज्ञ की अतिशय समृद्ध अवस्था है। इस अवस्था में हमने प्रजापति परमात्मारूप ज्योति को पा लिया है। हम अमर हो गये हैं। हम पृथिवी से उठकर अन्तरिक्ष में पहुँच गये हैं, हमने ऊर्ध्व स्तर को पा लिया है। हमने दिव्य गुण पा लिये हैं। हमने आनन्द पा लिया है। हमने दिव्य प्रकाश प्राप्त कर लिया है। हमें जीवन्मुक्त हो गये हैं। देहपात के अनन्तर अब हम सुदीर्घ काल तक मुक्ति का आनन्द पाते रहेंगे, प्रभु के साहचर्य का दिव्य सुख अनुभव करते रहेंगे।’

पादटिप्पणियाँ

१. स० प्र०, समु० ९।।

२. मु० उप० २.२.१८

  जीवन्मुक्त की चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार 

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चतुस्त्रिशत्तन्तवो ये वितनिरे यऽइमं यज्ञस्वधया दर्दन्ते। तेषां छिन्नसम्वेतद्दधामि स्वाहा घुर्मोऽअप्येतु देवान्

-यजु० ८।६१ |

( चतुस्त्रिंशत् ) चौंतीस (तन्तवः) सूत्र ( ये वितत्निरे ) जो देहरूप ताने को तन रहे हैं, (ये ) जो ( इमं यज्ञं ) इस जीवन-यज्ञ को ( स्वधया) आत्मधारणशक्ति से ( ददन्ते ) धारण कर रहे हैं, ( तेषां छिन्नं ) उनके छिन्न हुए अंश को ( एतत् सं दधामि ) यह संधान कर रहा हूँ, पूर्ण कर रहा हूँ। ( स्वाहा ) शरीर में यथोचित ओषधि की आहुति से स्वस्थ किया हुआ ( घर्म:२ ) जीवन-यज्ञ ( देवान्) दिव्य गुणों को ( अप्येतु) प्राप्त हो।

यों तो प्रत्येक पदार्थ पञ्च तत्त्वों के विभिन्न अनुपातों के मेल से बना है, तो भी देहधारक तत्त्व चौंतीस माने जा सकते हैं। पञ्चभूत, १० इन्द्रियाँ, १० प्राण, अहङ्कारचतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार), ४ धातुएँ (अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त), १ आत्मा। इनमें से किसी की भी न्यूनता या दुर्बलता होने पर शरीर न्यून या दुर्बल हो जाता है। उदाहरणार्थ इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि या आत्मा के दुर्बल हो जाने से शरीर अस्वस्थ या दयनीय लगने लगता है। आँख की दूरदृष्टि या समीपदृष्टि यदि अल्प हो जाती है, तो उस कमी को दूर करने के लिए हम उपनेत्र (ऐनक) का प्रयोग करते हैं। कभी-कभी आँख में मोतिया उतर आता है, तब शल्यक्रिया करानी पड़ती है और कृत्रिम लैन्स डाला जाता है। शल्यक्रिया यदि सफल न हो, तो एक आँख या दोनों आँखें सदा के लिए बेकार हो जाती हैं। तब अन्धा हो जाने से कितनी बड़ी कमी शरीर में अनुभव होने लगती है। इसी प्रकार श्रवणशक्ति कम हो जाने से या सर्वथा नष्ट हो जाने से भी शरीर अल्पसामर्थ्य हो जाता है। प्राण, अपान आदि के ठीक काम न करने से भी पाचन संस्थान, रक्त-संस्थान, ज्ञानतन्तु-संस्थान आदि अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाते । मनोबल या आत्मबल न्यून हो जाए, तब तो मनुष्य नकारे के तुल्य हो जाता है, क्योंकि कठिन कार्य करने की या सङ्कटों से मुकाबला करने की शक्ति उसके अन्दर नहीं रहती। उक्त सभी चौंतीसों तत्त्व स्वात्मधारण शक्ति से हमारे जीवन-यज्ञ को धृत या सञ्चालित कर रहे हैं। यदि इनमें से किसी का भी अंश न्यून हो जाता है, तो यथोचित चिकित्सा द्वारा या शरीर में ओषधि की आहुति द्वारा मैं उसे पूर्ण कर लेता हूँ। परन्तु कमी को पूर्ण करके स्वस्थ किया हुआ भी जीवन-यज्ञ किसी काम का नहीं है, यदि उसमें सद्गुणों का समावेश न हो। अतः शरीरस्थ आत्मा में मैं सत्य, अहिंसा, न्याय, दयालुता, सेवाभाव आदि सद्गुणों का समावेश भी करता हूँ। तब स्वस्थ और सर्वगुणसम्पन्न मेरा जीवन उन्नति और परोपकार में लगकर यशस्वी हो उठता है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ददन्ते धारयन्ति, दद दानधारणयो:-म० ।।

२. घर्म:=यज्ञ, निघं० ३.१७

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार 

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः बृहस्पतिः । देवता बृहस्पतिः इन्द्रश्च । छन्दः आर्षी जगती ।

बृहस्पते वाजं जय बृहस्पतये वाचे वदत बृहस्पतिं वाजे जापयत। इन्द्र वाजे येन्द्रा वाचे वदतेन्द्रं वाजे जापयत ।।

-यजु० ९ । ११

( बृहस्पते ) हे महान् शक्ति के स्वामी जीवात्मन्! तू ( वाजं जय ) देवासुरसंग्राम को जीत । ( बृहस्पतये ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा के लिए ( वाचे वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। ( बृहस्पतिम् ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा को ( वाजं ) संग्राम (जापयत ) जितवाओ। ( इन्द्र ) हे परमैश्वर्यवान् मन ! तू ( वाजं जय ) संग्राम को जीत। ( इन्द्राय ) परमैश्वर्यवान् मन के लिए (वाचं वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। (इन्द्रं ) परमैश्वर्यवान् मन को ( वाजं ) संग्राम ( जापयत ) जितवाओ।।

हे मेरे आत्मन् ! तू बृहती शक्ति का अधिपति होने के कारण ‘बृहस्पति’ कहलाता है। तेरे अन्दर अपार बल निहित है। उस बल से तू अपने अन्दर होनेवाले देवासुरसंग्राम पर विजय प्राप्त कर । जब भी तू किसी व्रत की दीक्षा लेना चाहता है या कोई पुण्य कार्य करना चाहता है, तभी आसुरी वृत्तियाँ आकर तुझे उस व्रत से तथा उस पुण्य कार्य से रोकना चाहती हैं। उन आसुरी वृत्तियों के वश में तू मत हो। अन्दर के समान बाहर भी तुझे देवासुरसंग्राम लड़ना पड़ता है। आसुर वृत्ति के पामर लोग श्रेष्ठ मार्ग पर चलनेवाले तुझे भटका कर उस मार्ग से विचलित करना चाहते हैं। परन्तु उनके प्रभाव में न आकर तू अपनी सात्त्विक वृत्ति के साथ श्रेष्ठ मार्ग पर चलने का आदर्श स्थापित करता रह ।।

हे मनुष्यो ! जब कभी तुम्हें कोई पाशविक वृत्ति उद्विग्न करने लगे, तुम्हारी ऊर्ध्व यात्रा में कोई विघ्न आकर अवरोध उपस्थित करने लगे, कोई शत्रु आकर तुम्हें ऊपर से नीचे गिराने लगे, तब तुम अपने बृहस्पति’ आत्मा को उद्बोधन दो, उसे जागृत करो। उसे उद्बोधन देकर उससे संग्राम जितवाओ। यदि तुम समझते हो कि चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से तुम संग्राम जीत लोगे, तो यह तुम्हारी भूल है। ये इन्द्रियाँ तो विषयों की ओर प्रवृत्त होकर संग्रामों में तुम्हारी पराजय करानेवाली सिद्ध होती हैं। आत्मा ही है, जो निर्भीक, निश्चल होकर शत्रुओं से लोहा लेता है।

हे मेरे ‘इन्द्र’! हे मेरे परमैश्वर्यवान् मन! तू अपने सङ्कल्प बल से देवासुरसंग्राम को जीत । हे मानवो ! जब भी तुम्हें कभी विपदा आती दिखायी दे, शत्रुओं की टोली तुम्हें लीलने के लिए आगे बढ़ती दृष्टिगोचर हो, तब तुम अपने मन को उद्बोधन दो, मन को जागृत एवं प्रबुद्ध करो, उससे देवासुरसंग्राम जितवाओ। मत भूलो ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ । आओ, हम सभी अपने आत्मा और मन को प्रबुद्ध करके देवासुरसंग्रामों में विजय प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. बृहत्या: महत्याः शक्तेः पतिः बृहस्पतिः । बृहत्-पति। त् का लोपऔर सुट्स् का आगम। ‘तबृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च’, वार्तिक, पा० ६.१.१५७

२. जापयत, जि जये, णिच्, लोट् ।

३. यन्मन: स इन्द्रः । गो० उ० ४.११

आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार 

राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार

राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता बृहस्पतिः। छन्दः भुरिक् पङ्किः।

शन्नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवतता मितद्रवः स्वः । जम्भयन्तोऽहिं वृकुरक्षासि सनेम्यस्मद्युयवन्नमवाः ॥

यजु० ९ । १६

 हे बृहस्पति राजन् ! ( मितद्रव:१) मपी-तुली गतिवाले, (स्वक:२) शुभ अर्चिवाले (वाजिनः ) वीर राजपुरुष ( देवताता ) यज्ञ में, और ( हवेषु ) संग्रामों में ( नः ) हमारे लिए ( शं भवन्तु ) सुखशान्तिकारी हों। वे ( अहिं ) साँपको, ( वृकं ) भेड़िये को, और (रक्षांसि ) राक्षसों को ( जम्भयन्तः५) विनष्ट करते हुए ( अस्मद् ) हमसे ( सनेमि६ ) शीघ्र ही ( अमीवाः ) रोगों को ( युयवन्) दूर कर देवें । |

राजपुरुषों की नियुक्ति उनके पदों पर उन्हें सम्मान देने के लिए या प्रजा पर रोबदाब जमाने के लिए नहीं होती है, अपितु प्रजा की सेवा के लिए होती है। ‘वाज’ शब्द बलवाचक है, अतः ‘वाजी’ का अर्थ है बली। ‘वाजिनः’ उसका बहुवचन है। यहाँ ‘वाजिनः’ का अर्थ है बली राजपुरुष। मन्त्र में ‘वाजिनः’ के दो विशेषण दिये गये हैं ‘मितद्रवः’ और ‘स्वर्का:’ । ‘मितद्रव:’ का अर्थ है मपी-तुली गतिवाले । जिस-जिस अधिकार या पद पर उन्हें नियुक्त किया गया है, उसकी जो सीमा है, वहीं तक गति करना उनका कार्य होता है। परन्तु गति करनी अवश्य है, अपने क्षेत्र में पूरा सक्रिय होना है, उदासीन होकर नहीं बैठना है। ‘स्वर्का:’ का निरुक्त में एक अर्थ ‘स्वर्चिषः’ दिया गया है, अर्थात् उत्कृष्ट ज्योतिवाले। प्रत्येक राजपुरुष को ज्योतिष्मान् अर्थात् अन्यों पर अपना प्रभाव छोड़नेवाला होना चाहिए। ढीला-ढाला या गलत बात पर समझौता कर लेनेवाला नहीं। इनके विषय में एक बात यह कही गयी है कि ये यज्ञ में और संग्रामों में हमारे लिए सुखकारी हों। जिस राजपुरुष को जो कार्य सौंपा गया है, वही उसके लिए यज्ञ है। उसे पवित्र यज्ञ मानकर ही करना है। जब कभी अपने राष्ट्र को किसी दूसरे राष्ट्र से युद्ध करना पड़ जाता है, तब उसमें भी क्षत्रियभिन्न राजपुरुषों को भी सेना की सहायता के लिए भेजना पड़ जाता है, क्योंकि वेद की दृष्टि में प्रत्येक राष्ट्रवासी को सैनिक शिक्षा देना अनिवार्य है। जैसे नियुक्त स्थल पर राजपुरुषों को प्रजाहित करना है, वैसे ही संग्रामों में भी राष्ट्रहित या प्रजाहित करना होता है। जो क्षत्रिय राजपुरुष होते हैं, उनसे तो संग्रामों में प्रजाहित अपेक्षित होता ही है।

राजपुरुषों का यह भी कर्तव्य है कि वे अहि, वृक और राक्षसों को विनष्ट करें । अहि, वृक और राक्षस राष्ट्रवासियों में भी हो सकते हैं और शत्रुओं में भी। जो साँप की तरह कुटिल चाल चलते हैं और विषैले हैं, वे ‘अहि’ होते हैं। हिंसा, मार काट मचानेवाले लोग ‘वृक’ या भेड़िये हैं। जिनसे अपनी रक्षा करनी पड़ती है ऐसे नरपिशाच राक्षस या रक्षस् हैं। इन्हें विनष्ट करके ही तो राजपुरुष प्रजा को सुख पहुँचा सकेंगे। अन्त में कहा गया है कि वे राजपुरुष इन सबका विध्वंस करते हुए हमारे रोगों या अस्वास्थ्य को भी दूर करें, अर्थात् हमें चिन्ताओं से मुक्त करें। रोग शारीरिक व्याधियाँ ही नहीं, मानसिक चिन्ताएँ भी रोग कहाती हैं। | हे राजपुरुषो! तुम हम प्रजाओं को सर्वभाव से सुखी रखो, हम तुम्हारा धन्यवाद करेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (मितद्रवः) ये परिमितं द्रवन्ति गच्छन्ति ते-द० ।।

२. स्वर्का: स्वञ्चना इति वा, स्वर्चना इति वा, स्वर्चिष इति वा-निरु०१२.३० । ।

३. देवताता=यज्ञे । निघं० ३.१७। देव-तातिल् प्रत्यय, सप्तमी विभक्ति कोडा=आ आदेश ।।

४. ह्वयन्ते स्पर्धन्ते योद्धारो यत्र स हवः संग्रामः । ह्वञ् स्पर्धायां शब्दे च,भ्वादिः ।।

५. जभि नाशने, चुरादिः ।।

६. सनेमि=क्षिप्रम्, निरु० १२.३० ।।

७. युयवन् पृथक् कुर्वन्तु। अत्र लेटि शपः श्लु:-द० । यु मिश्रणेअमिश्रणे च, अदादिः ।

राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार