योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः गोतमः । देवता मघवा । छन्दः आर्षी उष्णिक्।
उपयामगृहीतोऽस्य॒न्तर्यच्छ मघवन् पाहि सोमम्। उरुष्य रायऽएषोयजस्व
-यजु० ७।४
हे साधक! तू ( उपयामगृहीतः असि ) यम-नियमों से गृहीत है, (अन्तः यच्छ ) आन्तरिक नियन्त्रण कर। ( मघवन्) हे योगैश्वर्ययुक्त! तू ( सोमं पाहि ) समाधिजन्य आनन्दरस का पान कर। (रायः ) ऐश्वर्यों को ( उरुष्य ) रक्षित कर । ( इष:) इच्छासिद्धियों को ( आ यजस्व) प्राप्त कर।।
हे साधक! यह प्रसन्नता का विषय है कि तूने योगमार्ग पर चलना आरम्भ किया है, तू योगप्रसिद्ध यम-नियमों को ग्रहण कर रहा है। योगशास्त्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम कहलाते हैं । अष्टाङ्ग योग में सर्वप्रथम ये ही आते हैं, क्योंकि जब तक साधक इन्हें क्रियान्वित नहीं कर लेता, तब तक योग के अगले सोपानों पर चढ़ना कठिन होता है। हे साधक! तू यम नियमों को अङ्गीकार करके अपने आन्तरिक नियन्त्रण में लग जा, अपने इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा को साध, कुमार्ग पर जाने से रोक, अन्तर्मुख कर। इस प्रकार तू शनैः-शनै: योगैश्वर्यों से युक्त होता चलेगा। तूआसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान के पड़ावों से गुजरता हुआ समाधि की स्थिति तक पहुँच जाएगा। ‘समाधि’ की स्थिति को पाकर तू समाधिजन्य आनन्दरसरूप ‘सोम’ को रक्षित कर उसका पान कर। साधना में अग्रसर रहते हुए यदि कोई विघ्न तेरे मार्ग में बाधक बन कर आयें, तो उनसे तू योगैश्वर्यों की रक्षा करता रह, क्योंकि यदि तू उनके वश में हो जाएगा, तो तेरी सारी उपलब्धि मिट्टी में मिल जाएगी। यदि तू विघ्नों से पराजित नहीं होगा, तो योग की राह तुझे अनेक इच्छासिद्धियों को प्राप्त करा सकेगी। तब तू इच्छामात्र से पापी को पुण्यात्मा बना सकेगा, अधर्मात्मा को धर्मात्मा बना सकेगा, अभद्र को सर्वतोभद्र बना सकेगा, असुन्दर को सुन्दर बना सकेगा, निन्दास्पद को यशस्वी कर सकेगा। योग की पराकाष्ठा पर पहुँच कर तो तू अनबरसते बादलों को भी बरसा सकेगा, भूकम्प के निर्भय झटकों को आनन्द के झूले में परिवर्तित कर सकेगा, सागर के उत्पीडक तूफान को मनभावनी लहरों में बदल सकेगा, विश्व को विपत्ति से पार लगा सकेगा। इतने ऊँचे योगी आज दुर्लभ हैं। हे साधक! प्रभुकृपा से तेरी साधना सफल हो।
पाद-टिप्पणियाँ
१. उरुष्यतिः रक्षाकर्मा, निरु० ५.२३ ।
२. एषः =आ इषः । इषु इच्छायाम् ।
योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार