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मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं

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लेखक – स्वामी ओमानंद जी सरस्वती 

मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं

 

हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि मानव शरीर की रचना की तुलना मांसाहारी पशुओं की शरीर रचना से करने पर यह भली-भांति पता चलता है कि भगवान् ने मनुष्य का शरीर मांस खाने के लिये नहीं बनाया । इस अध्याय में यह सिद्ध किया जायेगा कि शरीर ही नहीं, किन्तु मनुष्य का स्वभाव भी मांस खाने का नहीं है ।

 

संसार में प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जितने भी मांसाहारी जीव हैं, चाहे वे स्थलचर, जलचर अथवा नभचर हों, वे सभी अपने शिकार अन्य जीव को बिना चबाये ही निगल जाते हैं और उसे पचा लेते हैं । जैसे जल में रहने वाली मछलियां, मेंडक आदि अपने से छोटी तथा निर्बल मछली आदि को पूरी की पूरी निगल जाते हैं । उनकी हड्डी पसली, चमड़ी आदि कुछ भी शेष नहीं छोड़ते । इसी प्रकार भूमि पर रहने वाले मांसाहारी पशु, पक्षी अपने से छोटे तथा निर्बल प्राणियों को सभी निगल ही जाते हैं, यह प्रतिदिन देखने में आता है । किन्तु जो बड़े मांसाहारी जीव जन्तु शेर, चीता, भेड़िया आदि हैं, जब वे अपने शिकार मृग आदि पर आक्रमण करते हैं तो पहले उसकी ग्रीवा (गर्दन) तोड़कर उसका रक्त चूस जाते हैं और वह प्राणी मर जाता है । तब उस मरने वाले पशु का खून ठण्डा होकर शरीर में जम जाता है तो सिंह आदि उसको खुरच कर खा जाते हैं । यहां तक कि शरीर की पतली-पतली हड्डी पसली को भी चट कर जाते हैं । बहुत मोटी हड्डियां ही बचती हैं । इसी प्रकार बिल्ली भी चूहे को नोच-नोच कर सारे को अपने पेट में पहुंचा देती है । सभी मांसाहारी जीवों में यही दृष्टिगोचर होता है, जब वे दूसरे प्राणी को खाते हैं तो उनका खून भी कहीं गिरा हुवा नहीं मिलता । इसी प्रकार घास, फूस, हरा वा सूखा चारा खाने वाले गाय आदि पशु अपना भोजन प्रायः सारा का सारा निगल जाते हैं । पुनः अवकाश मिलने पर उसकी जुगाली करके चबाकर हजम कर लेते हैं, अपने भोजन को व्यर्थ नहीं होने देते । इसी प्रकार जो मांसाहारी पेड़ हैं वे अपने शिकार अन्य जीव को सम्पूर्ण खा कर पचा लेते हैं, केवल उनकी हड्डियां पीछे पड़ी रह जाती हैं । इस प्रकार के पेड़ अफ्रीका आदि में देखने में आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि कोई भी मांसाहारी जन्तु यहां तक कि पेड़ पौधे भी अपने भोजन के भाग को व्यर्थ नहीं जाने देते । परमात्मा ने इनका स्वभाव इस प्रकार का बनाया है ।अब आप मांसाहारी मनुष्यों को देखें । अपने खाने के लिये ये जिन जीवों को मारते हैं उनका रक्त, चमड़ा, हड्डियां, मल आदि शरीर का तीन-चौथाई भाग छोड़ देते हैं, वे इसे नहीं खाते । वह व्यर्थ नष्ट होता है । अर्थात् एक मन जीवित जन्तु का मांस केवल १० सेर बनता है । यदि मनुष्य का स्वाभाविक भोजन मांस होता तो वह भी अन्य प्राणियों के समान सारे के सारे को चट कर जाता । भगवान की सृष्टि में यह भूल कैसे हो सकती थी कि वह अन्य सारे मांस खानेवाले जीवों को अपनेशिकार को सारा का सारा खानेवाला बनाता किन्तु मनुष्य एक वा दो मन में से केवल दस वा बीस सेर ही खाता और शेष को व्यर्थ नष्ट होने के लिये छोड़ देता ।

यथार्थ में बात यह है कि मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं । वह हड्ड़ी आदि को चबा नहीं सकता । निगल कर उसे हजम नहीं कर सकता । उसके शरीर की रचना और स्वभाव के यह सर्वथा विरुद्ध है । इसके दांत मांस को नहीं काट सकते । इसके गले वा मुख का द्वार इतना भीड़ा (तंग) होता है कि किसी बड़े जीव को तो क्या, वह सामान्य छोटे जन्तुओं को भी नहीं निगल सकता । कच्चा मांस खाना और उसे पचाना तो इसके स्वभाव वा प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है । जंगली मनुष्यों को छोड़ कर संसार में सभी मांसाहारी मनुष्य मांस के टुकड़ों को छोटा-छोटा करके उसे स्वादिष्ट बनाकर खाते हैं । न कच्चा मांस खा सकते हैं, न चबा ही सकते हैं । हजम करने की बात तो कोसों दूर की है क्योंकि यह मांस का भोजन मानव का स्वाभाविक आहार नहीं है ।

स्थलचर मांसाहारी शेर, चीता, भेड़िया आदि पशुओं के बहुत बड़े समूह देखने में नहीं आते । वे बड़े-बड़े जंगलों में भी थोड़ी-थोड़ी संख्या में ही मिलते हैं । शेरों के लहंडे नहीं के अनुसार इनके बड़े झुंड नहीं होते । जिन पशुओं को ये हिंस्र पशु खाते हैं, वे मृगादि जंगलों में बड़ी भारी संख्या में होते हैं ।

केवल जलचर तो इसके अपवाद हैं किन्तु वहां एक बात इससे भी भिन्न है वह यह कि जल में रहने वाले सभी बड़े जीव छोटे जीवों को खा जाते हैं । वहां मांसाहारी जीवों तथा उनके भक्ष्य (शिकार) की पृथक्-पृथक् श्रेणी नहीं । यदि बड़ी मछली वा कोई अन्य जल का बड़ा प्राणी मर जाये तो उसे सब छोटे जन्तु चट कर जाते हैं । वहां भक्षक और भक्ष्य पृथक् नहीं

हैं । किन्तु पृथ्वी पर रहने वाले जन्तुओं में इससे भिन्नता देखने में आती है । घास आदि पर निर्वाह करने वाले भेड़, बकरी, गाय, भैंस, मृग, बारहसिंगा आदि पृथक् हैं, वे मांस नहीं खाते । मांस खाने वाले शेर, चीते और भेड़िये आदि की श्रेणी इनसे पृथक् है, जो उपर्युक्त पशुओं की हिंसा करके मांस ही खाते हैं ।

मांस तथा अन्न दोनों को खाने वाली बिल्ली, कुत्ते तथा पक्षी पृथक् हैं । मनुष्यों में यह भी देखने में आता है कि पर्याप्त मनुष्य ऐसे हैं जो अन्न, फल, घी, दूध, शाक, सब्जी इत्यादि को खाकर ही अपना निर्वाह करते हैं । वे माँस, मछली, अण्डा आदि को स्पर्श भी नहीं करते और इस पृथ्वी पर ऐसे दानवों की भी कोई न्यूनता नहीं है जो अन्न, फल, शाकादि के अतिरिक्त मांस, मछली, अण्डा आदि भी खाते हैं । यदि मनुष्य का स्वाभाविक भोजन मांस ही हो तो मांसाहारियों को केवल मांस ही खाना चाहिये था, वे अन्नादि क्यों खाते ?

यथार्थ बात यह है कि वे कुसंग वा कुशिक्षा के कारण मांस खाने लगते हैं । खाते-खाते उनका अभ्यास पक जाता है, फिर अच्छी शिक्षा और सत्संग मिल जाये तो वे छोड़ भी देते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि माँस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है । नहीं तो कोई भी मनुष्य मांस को खाये बिना जीवित नहीं रह सकता था । जैसे मांसाहारी पशु संख्या में थोड़े होते हैं किन्तु मनुष्य तो अरबों की संख्या में इस पृथ्वी पर रहता है । उसके लिए कितने पशु-पक्षी मांस पूर्त्यर्थ प्रतिदिन चाहियें ? इतनी भारी संख्या में दुःख देने वाले मनुष्य रूपी मांसाहारी पशुओं के झुंड भगवान् क्या उत्पन्न कर सकता है ? कभी नहीं ! इसीलिये तो मनुष्य फल-फूल शाक-सब्जी अन्न आदि खाता है, केवल मांस पर निर्वाह नहीं करता, क्योंकि मांस मानव का स्वाभाविक भोजन नहीं ।

मनुष्य का यदि स्वाभाविक भोजन मांस होता तो प्रत्येक मांसाहारी मनुष्य मांसाहारी पशुओं शेर, चीते के समान अपने शिकार को आप स्वयं मारकर खाता जो असम्भव है । क्योंकि इस महान् पाप को गिने-चुने हुये अभ्यस्त कसाई बूचड़ करते हैं । यदि प्रत्येक मांसाहारी मनुष्य को स्वयं जीव मार कर मांस खाना पड़े तो अधिक से अधिक बल्कि ७५ प्रतिशत मनुष्य मांस खाना छोड़ दें । क्योंकि जब कोई प्राणी मारा जाता है तो वह तड़फता है, पीड़ा से बिलबिलाता है । उस भयंकर दृश्य को सुहृद व्यक्ति देख भी नहीं सकता, मारना तो दूर की बात है । क्योंकि मनुष्य के स्वभाव में प्रेम, दया, सहृदयता, सहानुभूति और परसेवा है । दूसरे को सताना, तड़पा-तड़पाकर मारना यह साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं । इस प्रकार वध होते भयंकर दृश्य को देखकर ही आधे से अधिक मांसाहारी मनुष्य भी बेसुध (बेहोश) होकर पृथ्वी पर गिर पड़ेंगे । किसी प्राणी की मृत्यु इतनी दुःखदायी नहीं होती जितना कि मनुष्य के हाथों कत्ल होना दुःखदायी होता है । मनुष्य तो सब प्राणियों में श्रेष्ठ है । जीव इससे प्रेम करते हैं और यह जीवों से प्रेम करता है । लोग तो शेर, चीतों तक को प्रेम से वश में करके पाल लेते हैं । उपगृहमंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल के यहां मैंने एक सिंह का पाला हुआ बच्चा स्वतन्त्र रूप से खुला बैंच पर बैठे देखा । चिड़ियाघरों में शेर शेरनी अपने भोजन देने वाले से प्रेम करने लगते हैं । लखनऊ के चिड़ियाघर में एक शेरनी के छोटे चार बच्चे थे । उनको भोजन करानेवाला सेवक पिंजरे में हाथ डालकर शेरनी के उन बच्चों को हाथ से स्पर्श करके प्रेम करते मैंने कई बार देखा । शेरनी पास में खड़ी रहती थी, वह कुछ भी नहीं कहती थी । इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य का स्वाभाविक गुण प्रेम है । कसाई जो बकरे आदि पशुओं को मारने के लिए पालता है, वह जब उन पशुवों को मारने के लिये वधशाला में ले जाता है, तब वे उसके प्रेम के वशीभूत हो उसके पीछे पीछे चले जाते हैं । वे नहीं जानते कि उनके साथ क्या होने वाला है । वे अपने उस बधक स्वामी पर विश्वास करते हैं । उसके प्रेम में धोखा है, इसका उन्हें कुछ भी सन्देह नहीं है । वे धोखे में आकर मारे जाते हैं । और यह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य उनके साथ विश्वासघात करने में कुछ भी शंका लज्जा नहीं करता ।

स्नेह, सेवा, सहानुभूति और परोपकार सब धर्मों का चरम लक्ष्य है । इस तक पहुंचना ही सब मनुष्यों का कर्त्तव्य है । क्योंकि जो मनुष्य स्वयं जीता है और दुःख में औरों से यह आशा करता है कि और मेरी सेवा करें तो उसका अपना कर्त्तव्य भी तो दूसरे प्राणियों की सेवा करना तथा उन्हें जीवित रहने देना है । हम किसी को जीवन नहीं दे सकते तो हमें किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है ?

मांस खाने से तथा हिंसा करने से मनुष्य का हृदय निर्दयी और कठोर हो जाता है, जैसे कसाई को दया नहीं आती । सहानुभूति, प्रेम के लिये दूसरे के दुःख में दुखी होने वाला कोमल, संवेदनशील हृदय चाहिये । मांसाहारी का हृदय कठोर, निर्दयी हो जाता है । निर्दयता मनुष्य का स्वाभाविक गुण नहीं । इसलिये मांस खाने वालों की अपेक्षा मारनेवाले कसाई बहुत कम संख्या में होते हैं । एक हजार मांसाहारी लोगों के पीछे एक बूचड़ कसाई होता है जो जीवों का वध करता है । इसीलिये मांसाहारी लोगों को यह ज्ञान नहीं होता कि वे जो मांस खा रहे हैं, उसकी प्राप्ति के लिये कितना दुष्कृत्य, निर्दयतापूर्ण और बीभत्स अत्याचार किया गया है । बलवान् पशुओं का हृदय वध होने, चमड़ा उतारने, पेट से सब आंत आदि निकाल देने के पश्चात् भी बहुत देर तक धड़कता रहता है । वध होने के भयंकर दृश्य को बहुत थोड़े लोग देख सकते वा सहन कर सकते हैं । इसे देख लें तो आधे से अधिक मांस खाना छोड़ जायें । इसलिये मांस खाना और बात है तथा जीवों का वध करना और बात है । जब मांस बाजार में बिकता है तो वह मृत शरीर का मांस मिट्टी के रूप में ही दीखता है । खानेवालों के सन्मुख वधशाला का कष्ट अथवा संवेदना का दृश्य प्रस्तुत नहीं करता । नहीं तो मांसाहारी मांस खाना छोड़ देवें । कसाई का हृदय अत्यन्त कठोर और मृतप्रायः हो जाता है । वह मनुष्य को समय पड़ने पर मारने में देर नहीं लगाता । मांसाहारी भी शनैः शनैः निर्दयी हो जाता है । मानव तथा उसके गुण उससे विदा हो जाते हैं । इसलिये इस बुद्धिमान् प्राणी मनुष्य को केवल अपनी इन्द्रियों के सुख के लिये अथवा उदरपूर्ति के लिये अपने स्वाभाविक गुणों दया, प्रेम, सहानुभूति को तिलांजलि देकर निर्दोष जीवों का वध करना महापाप है । अतः मांसाहार से सर्वथा दूर रहना चाहिये । जो भोजन का कार्य अन्न, फल, फूल, शाक, सब्जी से पूर्ण हो सकता है और जो सुलभ, सस्ता, स्वास्थ्यप्रद तथा गुणकारी है उसके लिये व्यर्थ में अन्य प्राणियों को सताना, उनके प्राण ले लेना इस सर्वश्रेष्ठ कहे जानेवाले मनुष्य को कैसे शोभा देता है ? यह तो इसकी नृशंसता, निर्दयता और भयंकर अत्याचार का जीता जागता प्रत्यक्ष प्रमाण है ।

अतः इस अस्वाभाविक आहार मांस का मानव को सर्वथा तथा सर्वदा के लिये परित्याग कर देना चाहिये ।

 

मानव की शरीर रचना और भोजन

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लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

मानव की शरीर रचना और भोजन

 

संसार में अनेक प्रकार के जीव देखने में आते हैं, जिनके भोजनों में विभिन्नता है । ध्यान से देखने पर पता चलता है कि भोजन की विभिन्नता के अनुसार ही उनकी शरीर रचना में भी विभिन्नता है ।

 

१. फलाहारी जीव

 

बन्दर, गुरिल्ला आति कन्द फूल ही खाते हैं ।

 

१ : इनके दाँत चपटे, एक दूसरे से मिले हुए और उनकी दाढ़ भोजन की पिसाई का कार्य करने योग्य होती है ।

 

२ : इनके जबड़े छोटे, तीनों ओर, सब ओर हिल सकने वाले अर्थात् ऊपर-नीचे, दायें-बायें, इधर-उधर हिलने वाले होते हैं ।

 

३ : ये घूंट भरकर जल पीते हैं ।

 

४ : शरीर के भाग हाथ पैर में गोल नखों वाली अंगुलियां होती हैं ।

 

५ : इनके पेट में अन्तड़ियां इनके शरीर की लम्बाई से बारह गुणी लम्बी होती हैं ।

 

२. वनस्पति खाने वाले जीव

 

घास-फूस आदि वनस्पति खाने वाले गाय, भैंस एवं घोड़ा आदि हैं ।

 

१. : इनके दांत चपटे, मिले हुए, किन्तु थोड़ी-थोड़ी दूर पर लगे हुए होते हैं । इनके जबड़े पिसाई-कुटाई करने के सर्वथा अयोग्य होते हैं ।

 

२. : जबड़े लम्बे तथा ऊपर-नीचे और इधर-उधर दायें-बायें हिलने वाले होते हैं ।

 

३. : ये घूंट भरकर जल पीते हैं ।

 

४. : इनके गोल नखदार खुर होते हैं ।

 

५. : इनके पेट की अन्तड़ियां अपने शरीर की अपेक्षा तीस गुणा लम्बी होती हैं ।

 

३. मांसाहारी जीव

 

जो केवल मांस खाते हैं उनमें शेर, चीता, भेड़िया आदि हैं ।

 

१. : इनके दांत लम्बे, नोक वाले, थोड़ी-थोड़ी दूर पर और दाढ़ें आरे के समान चीरने वाली होती हैं । जबड़े लम्बे तथा एक ओर (आगे को) कैंची के समान हिलने वाले होते हैं ।

 

२. : ये जीभ से जल पीते हैं तथा पीते समय लप-लप की आवाज सुनाई पड़ती है ।

 

३. : इनके हाथ-पाँव लम्बे, पंजे नोकदार नखों वाले होते हैं ।

 

४. : इनके पेट की अन्तड़ियां अपने शरीर की लम्बाई की अपेक्षा तीन गुनी लम्बी होती हैं ।

 

४. मिश्रितभोजी जीव

 
कुछ जीव दोनों प्रकार का मिला जुला भोजन करने वाले होते हैं, जैसे कुत्ता, बिल्ली आदि । इनके शरीर की रचना भी प्रायः मांसाहारी जीवों से मिलती जुलती है ।

 

 

मांसाहारी और निरामिषभोजी जीवों में अन्तर

मांसाहारी

शाकाहारी

१. रात को जागना और दिन में छिपकर रहना । १. रात को विश्राम करना और दिन में जागना ।
२. तेजी और बेचैनी का होना । २. तेजी और बेचैनी का न होना ।
३. अपना भोजन बिना चबाये निगल जाते हैं । ३. अपना भोजन चबा-चबाकर खाते हैं ।
४. दूसरों को सताना और मारकर खाना । ४. दयाभाव और दूसरे पर कृपा करना ।
५. अधिक परिश्रम के समय थकावट शीघ्र होती है और अधिक थक जाते हैं, जैसे शेर, चीता, भेड़िया आदि । ५. सन्तोष, सहनशीलता और परिश्रम से कार्य करना तथा अधिक थकावट से दूर रहना जैसे घोड़ा, हाथी, उंट, बैल आदि ।
६. मांसाहारी एक बार पेट भरकर खा लेते हैं और फिर एक सप्ताह वा इस से भी अधिक समय कु्छ नहीं खाते, सोये पड़े रहते हैं । ६. मनुष्य दिन में अनेक बार खाता है । घास और शाक सब्जी खाने वाले प्राणी दिन भर चरते, चुगते और जुगाली करते रहते हैं ।
७. मांसाहारी जीवों के चलने से आहट नहीं होती । ७. अन्न और घास खाने वालों के चलने से आहट होती है ।
८. मांसाहारी प्राणियों को रात के अंधेरे में दिखायी देता है । ८. अन्न और घास खाने वालों को रात के अंधेरे में दिखायी नहीं देता ।
९. मांसाहारी जीवों की अन्तड़ियों की लम्बाई अपने शरीर की लम्बाई से केवल तीन गुणी होती है । ९. फलाहारी जीवों की अन्तड़ियों की लम्बाई अपने शरीर की लम्बाई से बारह गुणी तथा घास फूस खाने वाले प्राणियों की अन्तड़ियां उनके शरीर से तीस गुनी तक होती हैं ।
१०. चलने फिरने से शीघ्र हांफते हैं । ११. दौड़ने से भी नहीं हांफते ।
११. मांसाहारी प्राणियों के वीर्य में बहुत अधिक दुर्गन्ध आती है । ११. अन्न खाने वाले तथा शाकाहारी प्राणियों के वीर्य में साधारणतया अधिक दुर्गन्ध नहीं आती ।
१२. मांसाहारी प्राणियों के बच्चों की आंखें जन्म के समय बन्द होती हैं जैसे शेर, चीते, कुत्ते, बिल्ली आदि के बच्चों की । १२. अन्न तथा शाकाहारी प्राणियों के बच्चों की आंखें जन्म के समय खुली रहती हैं जैसे मनुष्य, गाय, भेड़, बकरी आदि के बच्चों की ।
१३. मांसाहारी जीव अधिक भूख लगने पर अपने बच्चों को भी खा जाते हैं (फिर मांसाहारी मनुष्य इस कुप्रवृति से कैसे बच सकता है ?) जैसे सर्पिणी, जो बहुत अण्डे देती है, अपने बच्चों को अण्डों से निकलते ही खा जाती है । जो बच्चे अण्डों से निकलते ही भाग दौड़ कर इधर-उधर छिप जाते हैं, उनसे सांपों का वंश चलता है । १३. सब्जी खाने वाले प्राणी चाहे मनुष्य हों अथवा पशु, पक्षी, भूख से तड़फ कर भले ही मर जायें किन्तु अपने बच्चों की ओर कभी भी बुरी दृष्टि से नहीं देखते । सांप के समान मांसाहारी मनुष्य आदि दुर्भिक्ष में ऐसा कर्ते देख गये हैं कि वे भूख में अपने बच्चे को भून कर खा गये ।
१४. बिल्ली बिलाव से छिपकर बच्चे देती है और इन्हें छिपाकर रखती है । यदि बिलाव को बिल्ली के नर बच्चे मिल जायें तो उन्हें मार डालता है । मादा (स्त्री) बच्चों को छोड़ देता है, कुछ नहीं कहता । इसी प्रकार पक्षियों में तीतरी भी छिपकर अण्डे देती है । यदि नर तीतर अण्डों पर पहुंच जाये तो वह नर बच्चों के अण्डे तोड़ डालता है, मादा अंडों को रहने देता है । बिच्छू के बच्चे माता के ऊपर चढ़ जाते हैं । माता को खा कर बच्चे पल जाते हैं, माता मर जाती है । १४. शाकाहारी प्राणियों में न माता बच्चों को खाती है, न पिता बच्चों को मारता है । न बच्चे माता-पिता को मार कर खाते हैं ।
१५. मांसाहारी जीवों के घाव देरी से अच्छे होते हैं और ये अन्न वा शाक खाने वाले प्राणियों की अपेक्षा बहुत अधिक संख्या में घाव के कारण मरते हैं । १५. निरामिषभोजी शाकाहारी जीवों के घाव बहुत शीघ्र अच्छे हो जाते हैं और मांसाहारियों की अपेक्षा कम मरते हैं ।
१६. पक्वाशय (मेदा) बहुत सरल (सादा) जो बहुत तेज भोजन को बड़ा शीघ्र पचाने के योग्य होता है । जिगर अपने शरीर के अनुपात से बहुत बड़ा और इसमें पित्त बहुत अधिक होता है । मुंह में थूक की थैलियां बहुत छोटी, स्वच्छ जिह्वा, बच्चे को दूध पिलाने के स्तन पेट में । ये आगे की ओर तथा सब ओर देखते हैं १६. पक्वाशय (मेदा) चारा खाने वाला, जिसमें बहुत हल्की खुराक को धीरे धीरे पचाने के गुण हैं । जिगर अपने शरीर की अपेक्षा बहुत छोटा होता है । जिह्वा स्वच्छ, बच्चे को दूध पिलाने के स्तन छाती पर और प्राअणी साधारणतया आगे को देखते हैं और बिना गर्दन मोड़े इधर-उधर नहीं देख सकते ।
१७. मांसाहारी पशु पक्षिओं को नमक की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती । इन्हें बिना नमक के कोई कष्ट नहीं होता । १७. शाकाहारी प्राणी और मनुष्य सामान्य रूप से नमक खाये बिना जीवित नहीं रह सकते वा जीवन में कठिनाई अनुभव करते हैं ।

 

 

 


 

इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि मनुष्य की शरीर रचना तथा उपर्युक्त गुण, कर्म, स्वभावानुसार मनुष्य का स्वाभाविक भोजन माँस कदापि नहीं हो सकता । क्योंकि मनुष्य के शरीर की रचना भी उन प्राणियों से मिलती है जो अन्न, फल, शाक आदि खाते हैं । जैसे बन्दर, गोरेल्ला आदि, किन्तु मांसाहारी शेर, चीते, भेड़िया आदि से नहीं मिलती । बन्दर के शरीर की रचना और मनुष्य के शरीर की रचना परस्पर बहुत मिलती है, इसमें समता है । हाथ पैरों की समता और शरीर के दूसरे अंग, विशेषकर अन्तड़ियां पूर्णतया मनुष्य के समान हैं । मनुष्य की अन्तड़ियों की लम्बाई जिनमें से होकर भोजन पचते समय जाता है, घुमाव खाती हुई ३३ फुट के लगभग होती है । यद्यपि मांसाहारी जीवों की अन्तड़ियों में घुमाव तनिक भी नहीं होता । उनकी अन्तड़ियां लम्बी अथवा सीधी थैली सी होती हैं ।

 

मांसाहारी लोगों द्वारा हानि

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लेखक – स्वामी ओमानंद्जी सरस्वती 

मांसाहारी लोगों द्वारा हानि

 

मांसाहारी लोग उपकारी पशु पक्षियों का अपने स्वार्थवश नाश करके जगत् की बड़ी भारी हानि करते हैं । किसी कवि ने एक भजन द्वारा इसका बड़ा अच्छा दिग्दर्शन कराया है । श्री पूज्य स्वामी धर्मानन्द जी महाराज का यह बड़ा प्रिय भजन है । मांसाहार का खण्डन करते हुये वे इसे बहुत प्रेम से उत्सवों में गाया करते हैं

यह भजन वैदिक भावनाओं के अनुरूप है ।

(दोहा)

जो गल काटै और का अपना रहै कटाय ।

साईं के दरबार में बदला कहीं न जाय ॥

मांसाहारी लोगों ने भारत में विघ्न मचा दिये ॥टेक॥

गोमाता सा दुखी ना कोई, घी और दूध कहां से होई ।

सारा कर्म बलबुद्धि खोई, दुर्बल निपट बना दिये ।

दुष्टाचारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥१॥

हय श्वानों का पालन करते, गोरक्षा में चित्त न धरते ।

हिंसा करत जरा नहीं डरते, गल पर छुरी चला दिये ।

आफत तारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥२॥

जिनसे है दुनियां का पालन, उन्हें मार क्या सुख हो लालन ।

फंस गई प्रजा विपत के जाल, उत्तम पशु खपा दिये ।

क्या मन धारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥३॥

मृगों की डार नजर न आवें, दरियावों में मीन न पावें ।

मोर कहां से कूक सुनावें, मार मार के ढा दिये ।

विपता डारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥४॥

कबूतरों के गोल रहे ना, तीतर करत किलोल रहे ना ।

शुक मैना बेमोल रहे ना, हरियल गर्द मिला दिये ।

पंडुकी मारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥५॥

अजा, भेड़, दुम्बे ना छोड़े, उनके हो गये जग में तोड़े ।

कहां से बनेंगे ऊनी जोड़े, महंगे मोल बिका दिये ।

कीनी ख्वारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥६॥

पाढ़े नील गाय हन डारे, ससे स्यार मुर्ग गोह विचारे ।

गरीब कच्छप नटों ने मारे,ऐसे त्रास दिखा दिये ।

दुःख दे भारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥७॥

जब जब सब जन्तु निबड़ जायेंगे, सोचो तो फिर ये क्या खायेंगे ।

कह घीसा सब सुख नसायेंगे, सो कारण मैं गा दिये ।

सुन लई सारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥८॥

इसी प्रकार चौधरी घीसाराम जी (मेरठ निवासी) का एक अन्य भजन भी मांस भक्षण निषेध पर है । वह इस प्रकार है –

(दोहा)

बकरी खात पात है, ताकी काढ़ी खाल ।

जिसे वाम मारग कहें, विषय पाप का भोग ॥

मांस मांस सब एक से, क्या बकरी क्या गाय ।

यह जग अन्धा हो रहा, जान बूझ कर खाय ॥

टेक – नर दोजख में जाते हैं, बेखता जीव को मार के ।

और के गले पर छुरी धरे हैं, नहीं संग दिल दया करे हैं ।

पापी कुष्ठी होय मरे हैं, दिल से रहम बिसार के ।

गल अपना कटवाते हैं ॥१॥

जो गल काट के बहिश्त में जाना, काट कुटुम्ब को भी पहुंचाना ।

और खुदा को दोष लगाना, उसका नाम पुकार के ॥

दुःख देख न घबराते हैं ॥२॥

घास खांय सो गल कटवावें, मांस खाय वो किस घर जायें ।

समझें ना बहुविध समझावें, खुश होते सिर तार के ।

करनी का फल पाते हैं ॥३॥

मांस मांस सब हैं इकसारी, क्या बकरी क्या गाय बिचारी ।

जान बूझ खाते नर नारी, रूप दुष्ट का धार के ॥४॥

बढ़ जाते हैं रोग बदन में, ना कुछ ताकत बढ़ती तन में ।

हे ईश्वर दे ज्ञान उरन में, बख्शें ज्ञान विचार के ।

जन घीसा यश गाते हैं ॥५॥

उर्दू कविता

एक उर्दू के कवि ने अपने भावों को निम्न प्रकार से प्रकट करते हुये निर्दोष प्राणियों पर दया करने की याचना (अपील) ही है –
पशुओं की हड्डियों को अब ना तबर से तोड़ो ।

चिड़ियों को देख उड़ती, छर्रे न इन पे छोड़ो ॥

अजलूम जिसको देखो, उसकी मदद को दोड़ो ।

जख्मी के जख्म सी दो और टूटे उज्व जोड़ो ॥

बागों में बुलबुलों को फूलों को चूमने दो ।

चिड़ियों को आसमां में आजाद घूमने दो ॥

दुमही को यह दिया है इस होसिला प्रभु ने ।

जो रस्म अच्छी देखो, उसको लगो चलाने ।

लाखों ने मांस छोड़, सब्जी लगे हैं खाने ।

और प्रेम रस जल से हरजा लगे रचाने ॥

इन में भी जान समझ कर इन को जकात दे दो ।

यह काम धर्म का है, तुम इसमें साथ दे दो ॥

लेखक – स्वामी ओमानंद्जी सरस्वती 

 

 

 

 

वेद में मांस भक्षण निषेध

no meat in vedas

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

वेद में मांस भक्षण निषेध

वैसे तो मानने को वेद, धम्मपद, तौरेत, जबूर, इञ्जील, बाईबल और कुरान सभी धार्मिक ग्रन्थ माने जाते हैं । किन्तु वेद को छोड़कर सब अन्य ग्रन्थ भिन्न-भिन्न मत और सम्प्रदायों के हैं । इन सम्प्रदायों के पुराने से पुराने ग्रन्थ महाभारत काल से पीछे के ही हैं । इन की आयु चार हजार वर्ष से अधिक किसी की भी नहीं है । यथार्थ में ये ग्रन्थ धार्मिक ग्रन्थ की कोटि में नहीं आते । इनको किसी सम्प्रदाय विशेष का ग्रन्थ कहा जा सकता है, फिर भी इनके इन सम्प्रदायों में से भी अधिकतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों में मांस भक्षण का निषेध किया है । यथार्थ में सच्चे धर्म का आदि स्रोत वेद ही है । इसलिये मनु जी महाराज ने धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः धर्म को जानना चाहें, उनके लिये परम श्रुति अर्थात् वेद ही है, यह माना है ।

जब जब परमात्मा सृष्टि की रचना करता है, तब तब अपने परम पवित्र ज्ञान को प्राणिमात्र के कल्याण के लिये प्रकाशित करता है । वेद के किन्हीं एक दो सिद्धान्तों को पकड़ कर चतुर लोग अपने ग्रन्थों की रचना करके नये नये सम्प्रदायों और मतों को खड़ा कर लेते हैं और उन्हीं को धर्म का नाम दे देते हैं । यथार्थ में धर्म अनेक नहीं होते, धर्म और सत्य एक ही होता है । जैसे दो और दो चार ही होते हैं, न्यून वा अधिक नहीं होते । इसलिये महर्षि दयानन्द ने वेद सब विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ पुरुषों) का परम धर्म है यह लिखकर इस सत्यता पर अपनी मोहर लगाई है ।

बाह्य अन्धकार को दूर करने के लिये परम दयालु प्रभु ने जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश दिया है इसी प्रकार मानव के आन्तरिक अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिये ज्ञानरूप वेदज्योति का प्रकाश किया है । इस बात को सभी एकमत होकर स्वीकार करते हैं कि वेद सब से प्राचीन है । यहां तक कि विदेशी विद्वानों के मतानुसार भी संसार के पुस्तकालय में सब से प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ वेद ही माने जाते हैं । वहां लिखा है –

 

इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम् ।

त्वष्टुं प्रजानां प्रथम जनित्रमग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥

 (यजुर्वेद अ० १२, मन्त्र ४०)

इन ऊन रूपी बालों वाले भेड़, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालों को मत मार ।

यदि नो गां हमि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥

(अथर्ववेद १।१६।)

यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्त्ता न रहे । अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद भगवान् गोली से मारने की आज्ञा देता है ।

वेदों में मांस खाने का निषेध इस रूप में किया है । मांस बिना पशुहिंसा के प्राप्त नहीं होता है । अश्व, गौ, अजा (बकरी), अवि (भेड़) आदि नाम लेकर पशुमात्र की हिंसा का निषेध किया है और द्विपद शब्द से पक्षियों के मारने का भी निषेध है ।

पशुओं को पालने की आज्ञा सर्वत्र मिलती है –

यजमानस्य पशून् पाहि ।१॥१॥ (यजुर्वेद)

यजमान के पशुओं की रक्षा करो ।

मनुस्मृति के प्रमाण पहले दे चुके हैं । मांस न खाने का फल सौ अश्वमेध यज्ञों के समान बताया है ।

वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।

मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥मनु ५।५३॥

जो सौ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जीवन भर मांस नहीं खाता है, दोनों को समान फल मिलता है ।

याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है –

सर्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा ।

गृहेऽपि निवसन् विप्रो मुनिर्मांसविवर्जनात् ॥

(आचाराध्याय ७।१८०॥)

विद्वान् विप्र सर्वकामनाओं तथा अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त होता है । ऐसा गृहस्थी जो मांस नहीं खाता, वह घर पर रहता हुआ भी मुनि कहलाता है ।

इस युग के विधाता महर्षि दयानन्द ने मांस भक्षण का सर्वथा निषेध किया है । वे सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं –

१. : मद्य मांस आदि मादक द्रव्यों का पीना – ये स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं ।

२. : मद्य मांसादि के सेवन से अलग रहें ।

३. : जो मादक और हिंसा कारक (मांस) द्रव्य को छोड़ के भोजन करने हारे हों, वे हविर्भुज (हवन यज्ञशेष खाने वाले) हैं ।

४. : जब मांस का निषेध है तो सर्वत्र ही निषेध है ।

५. : हां, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य माँसाहारियों के हाथ के खाने में आर्यों को भी मद्य मांसादि खाना पीना अपराध पीछे लग पड़ता है ।

६. : इनके मद्य मांस आदि दोषों को छोड़ गुणों को ग्रहण करें ।

७. : हां, इतना अवश्य चाहिये कि मद्य मांस का ग्रहण कदापि भूल कर भी न करें ।

वेदादि शास्त्रों में मांस भक्षण और मद्य सेवन की आज्ञा कहीं नहीं, निषेध सर्वत्र है । जो मांस खाना कहीं टीकाओं में मिलता है, वह वाममार्गी टीकाकारों की लीला है, इसलिये उनको राक्षस कहना उचित है, परन्तु वेदों में मांस खाना नहीं लिखा ।

महाभारत में मांस भक्षण निषेध

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।

धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥

(शान्तिपर्व २६५।९॥)

सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि खाना धूर्तों ने प्रचलित किया है, वेद में इन पदार्थों के खाने-पीने का विधान नहीं है ।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः । (आदिपर्व ११।१३)

किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।

प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।

अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥

(कर्णपर्व ६९।२३)

मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।

यहाँ अहिंसा को सत्य से बढ़कर माना है । असत्य की अपेक्षा हिंसा से दूसरों को दुःख अधिक होता है क्योंकि सबको जीवन प्रिय है । इसीलिये यह महान् आश्चर्य है कि –

जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् ।

यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत् ॥

(शान्तिपर्व २५९।२२॥)

जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को कैसे मारता है । प्राणी जैसा अपने लिये चाहता है, वैसा दूसरों के लिये भी वह चाहे । कोई मनुष्य यह नहीं चाहता कि कोई हिंसक पशु वा मनुष्य मुझे, मेरे बालबच्चों, इष्टमित्रों वा सगे सम्बन्धियों को किसी प्रकार का कष्ट दे वा हानि पहुंचाये अथवा प्राण ले लेवे, वा इनका मांस खाये । एक कसाई जो प्रतिदिन सैंकड़ों वा सहस्रों प्राणियों के गले पर खञ्जर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूई चुभोयें तो वह इसे कभी भी सहन नहीं करेगा । फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे कहां से मिल गया ? प्राणियों का हिंसक कसाई महापापी होता है । महाभारत में कहा है –

घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते ।

यावन्ति तस्य रोमाणि तावदु वर्षाणि मञ्जति ॥

(अनुशासनपर्व ६४।४॥)

मारनेवाला, खानेवाला, सम्मति देनेवाला – ये सब उतने वर्ष दुःख में डूबे रहते हैं जितने कि मरने वाले पशु के रोम होते हैं । अर्थात् मांसाहारी घातकादि लोग बहुत जन्मों तक भयंकर दुःखों को भोगते रहते हैं । मनु महाराज के मतानुसार आठ कसाई इस महापातक के बदले दुःख भोगते हैं ।

हिंसा न करे

धर्मशीलो नरो विदानीहकोऽनहीकोऽपि वा ।

आत्मभूतः सदालोके चरेद् भूतान्यहिंसया ॥

(शान्तिपर्व २६५।८॥)

धार्मिक स्वभाववाला पुरुष इस लोक को चाहता हो वा न चाहता हो, सबको समान समझ कर किसी की हिंसा न करता हुआ संसार यात्रा करे । किसी को सताये नहीं ।

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे ।

हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें । इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत् समझकर सेवा करे, सुख देवे । इसी में जीवन की सफलता है । इसी से वह लोक और परलोक दोनों बनते हैं ।     

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती