अम्बेडकरवादी दावा :-
बुद्ध तर्क वादी ओर जिज्ञासा को शांत करने वाले व्यक्ति थे….अपने शिष्यों को भी तर्क करने ओर जिज्ञासु बनने का उपदेश देते थे …
दावे का भंडाफोड़ :-
एक समय मलयूक्ष्य पुत्त नामक किसी व्यक्ति ने महात्मा गौत्तम बुध्द से प्रश्न किया- भगवन क्या यह संसार अनादी व अन्नत है? यदि नही तो इसकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई?
लेकिन बुध्द ने उत्तर दिया – है मलयूक्ष्य पुत्त तुम आओ ओर मेरे शिष्य बन जाऔ,मै तुमको इस बात की शिक्षा दुंगा कि संसार नित्य है या नही|”
मलयूक्ष्य पुत्त ने कहा ” महाराज आपने ऐसा नही कहा|”(कि शिष्य बनने पर ही शंका दूर करोगे)
तो बुध्द बोले- तो फिर इस प्रश्न को पूछने का मुझसे साहस न करे| -(मझिम्म निकाय कुल मलूक्य वाद)
इससे निम्न बात स्पष्ट है कि बुध्द का सृष्टि ज्ञान शुन्य था …उनका मकसद केवल अपने अनुयायी बनाना था ..इसके अलावा पशु सुत्त ओर महा सोह सुत्त से पता चलता है कि वे अपने शिष्यो को भी जिज्ञासा प्रकट करने का उत्साह नही देते थे..
एक ओर बुध्दवादी कहते है कि बौध्द मत तर्को को प्राथमिकता देता है लेकिन यहा मलुक्य को बुध्द खुद चुप कर रहे है|
लेकिन बुध्द ने उत्तर दिया – है मलयूक्ष्य पुत्त तुम आओ ओर मेरे शिष्य बन जाऔ,मै तुमको इस बात की शिक्षा दुंगा कि संसार नित्य है या नही|”
मलयूक्ष्य पुत्त ने कहा ” महाराज आपने ऐसा नही कहा|”(कि शिष्य बनने पर ही शंका दूर करोगे)
तो बुध्द बोले- तो फिर इस प्रश्न को पूछने का मुझसे साहस न करे| -(मझिम्म निकाय कुल मलूक्य वाद)
इससे निम्न बात स्पष्ट है कि बुध्द का सृष्टि ज्ञान शुन्य था …उनका मकसद केवल अपने अनुयायी बनाना था ..इसके अलावा पशु सुत्त ओर महा सोह सुत्त से पता चलता है कि वे अपने शिष्यो को भी जिज्ञासा प्रकट करने का उत्साह नही देते थे..
एक ओर बुध्दवादी कहते है कि बौध्द मत तर्को को प्राथमिकता देता है लेकिन यहा मलुक्य को बुध्द खुद चुप कर रहे है|
अत स्पष्ट है की बुध तर्कवादी ओर जिज्ञासा शांत करने वाले व्यक्ति नही थे ….
सुत्तसार [मज्झिमनिकाय भाग-२] , चूलमालुक्यसुत्त, पृष्ठ-१४०
एक समय भगवान सावत्थी में अनाथपिण्डिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। मालुक्य-पुत्र ने वहाँ जाकर उनसे जानना चाहा कि जिन बातों को उन्होंने अ-व्याकृत कहा है (जैसे कि ‘लोकनित्य है,’ ‘लोक अनित्य है’, ‘लोक अंतवान है’, ‘लोक अनंत है’ इत्यादि) -इनके बारे में वह उसे साफ-साफ बतलाएँ कि वह इनके विषय में जानते भी हैं, अथवा नहीं।
…….
भगवान ने कहा कि चाहे लोक नित्य हो अथवा अनित्य, लोक अंतवान हो अथवा अनंत, जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, रोना-पीटना, दुःख, दौर्मनस्य, परेशानी ये सब तो हैं ही। मैं इसी जन्म में इनके विनाश का उपाय बतलाता हूँ।
उन्होंने आगे कहा कि मेरे द्वारा ‘अ-व्याकृत’ धर्म सार्थक एवं आदि-ब्रह्मचर्य के लिए उपयोगी नहीं हैं; ये न तो निर्वेद, न विराग, न निरोध, न उपशम, न अभिज्ञा, न संबोधि, न निर्वाण के लिए हैं। ……
…….
मेरे द्वारा ‘व्याकृत’ धर्म हैं-
1. ‘यह दुःख है’
2. ‘यह दुःख का समुदय है’
3. ‘यह दुःख का निरोध है’;
4. ‘यह दुःख का निरोध कराने वाली प्रतिपदा है’।
ये सार्थक एवं आदि-ब्रह्मचर्य के लिए उपयोगी हैं; ये निर्वेद, विराग, निरोध, उपशम, अभिज्ञा, संबोधि, निर्वाण के लिए हैं। अतः मेरे द्वारा ‘अ-व्याकृत’ को ‘अ-व्याकृत’ के तौर पर और ‘व्याकृत’ को ‘व्याकृत’ के तौर पर ग्रहण करना चाहिए।