शंका समाधान

(1) शंका :- यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

जिज्ञासा :- आचार्य जी, ‘‘समाधान – 93’’ में आपने जो दिया है, उसमें थोड़ी-सी शंका शेष रह गई है और वह यह है कि ईश्वर ने इस साकार जगत् की रचना प्रकृति के परमाणुओं से की है। इसका मतलब प्रकृति के परमाणुओं में साकारत्व का गुण है, तभी तो साकार जगत् बन पाया। पंचभौतिक तत्त्व भी प्रकृति के परमाणुओं से ही बने हैं, तो इन परमाणुओं से निराकार पदार्थ कैसे बन जाते हैं और फिर वे निराकार पदार्थ परस्पर मिलते हैं, तो आकार कैसे ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साकार कैसे बन जाते हैं? यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

निम्न बिन्दुओं पर भी स्थिति स्पष्ट करने का कष्ट करें-

(1) आपने आकाश निराकार बताया है। यह प्रकृति के परमाणुओं से बना है। इसी तरह वायु भी निराकार है, अग्नि जब प्रकट होती तब साकार होती है, अन्यथा निराकार। यह क्यों है?

(2) मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है और ईश्वर तथा जीव निराकार होते ही हैं। फिर निराकार प्रकृति से साकार जगत् कैसे बना?

(3) महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि साकार चीजें असीम नहीं होती, बल्कि जीवात्माएँ भी संया वाली हैं, चाहे वे मनुष्य की गिनती से बाहर हों। ऐसी अवस्था में आकाश या अवकाश रूप आकाश असीम है या ससीम है?

(4) वायु ससीम है या असीम?

(5) क्या ईश्वर के अतिरिक्त अन्य भी कोई तत्त्व ऐसा है, जो असीम हो?

कृपया, समाधान करने का कष्ट करें।

– इन्द्रसिंह पूर्व एस.डी.एम. 29- नई अनाज मण्डी, भिवानी (हरियाणा) चलभाषः – 9416057813

समाधानः परमेश्वर ने यह संसार अपने सामर्थ्य से मूल प्रकृति को लेकर बनाया है। संसार के बनाने में परमेश्वर निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण है। स्थूल जगत् के बनने की प्रक्रिया महर्षि कपिल ने अपने सांय दर्शन में दी है-

सत्त्वरजतमसां सायावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिद्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूलभूतानि……।।  सां.- 1.61

सत्त्व, रज, तम- इन तीन वस्तुओं से मिलकरजो एक संघात है, उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महतत्त्व बुद्धि, उस महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द , दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूल भूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और इन पाँच महाभूतों से यह दृश्य जगत्।

प्रकृति से जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह आकार वाला होता है, क्योंकि प्रकृति स्वयं आकार वाली है, जो गुण कारण में नहीं होते, वे कार्य में भी नहीं होते। यदि ऐसा होने लग जाये, तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो द्रव्यात्मक पदार्थों में कभी घट ही नहीं सकता। महर्षि दयानन्द ने भी प्रकृति को आकार वाला माना है। महर्षि लिखते हैं-‘‘…….वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।’’ – स. प्र. स. 8

आपने जो कहा कि ‘‘मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है।’’ यह विचार ऋषि के विचार से नहीं मिल रहा है। यदि ऐसा मान भी लें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति वाली बात हो जायेगी, जो कि युक्त नहीं है। ऊपर जो लिखा कि प्रकृति से उत्पन्न पदार्थ आकार वाले होते हैं, इस कथन से आकाश निराकार कैसे सिद्ध होगा- यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा। इसके लिए मेरा कथन है कि जो आपने परोपकारी के जिज्ञासा समाधान-93 की चर्चा की है, उसमें साकार निराकार की तीन परिभाषाएँ लिखी हैं, उनको यहाँ पुनः उद्धृत करता हूँ-

  1. साकार वह है, जो प्रकृति से बना हुआ, इसके अतिरिक्त निराकार।
  2. साकार वह, जिसमें रूप, रस, गन्धादि पाँचों गुण प्रकट हों, इससे भिन्न अर्थात् जिसमें पाँचों गुण प्रकट न हों, वह निराकार।
  3. साकार वह, जिसमें केवल रूप गुण प्रकट रूप में हो, अर्थात् जो आँखों से दिखाई दे वह साकार, इससे भिन्न निराकार।

इन परिभाषाओं के आधार से पहली परिभाषा के अनुसार देखें तो जो प्रकृति से बना आकाश है, वह भी साकार होगा। जहाँ आकाश को निराकार कहा है, वहाँ सापेक्ष रूप से कहा है। आकाश पाँच भूतों में सबसे सूक्ष्म है, उसको हम केवल शब्द  के आधार से अनुमान लगाकर जान पाते हैं। इसी प्रकार वायु को स्पर्श से जान पाते हैं। रूप क ी दृष्टि से तो ये निराकार ही कहलाएँगे।

हाँ, जिस अवकाश रूप आकाश की बात ऋषि करते हैं, जो कि प्रकृति से नहीं बना, वह तो निराकार ही है और यह अवकाश रूप आकाश असीम है। इन आकाश, वायु आदि के असीम-ससीम के विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये पदार्थ प्रकृति से बने होने केकारण ससीम हैं। शेष बाद में लिखेंगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(2) शंका :- जिज्ञासा- कुछ जिज्ञासायें मन में हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करेंः- 1-यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5- प्रत्याद्वार, 6-धारणा, 7-ध्यान एवं 8-समाधि। यह क्रम महर्षि पतञ्जलि ने योग दर्शन में दिया है। क्या यम-नियम का पालन करने वाला व्यक्ति भी सीधे ध्यान (7) अवस्था में पहुँचकर ध्यान का अयास कर सकता है? यदि कर सकता है तो फिर यम- नियम आदि की क्या आवश्यकता है? आखिर यह ‘‘ध्यान प्रशिक्षण योजना’’ जो परोपकारी पत्रिका मार्च (प्रथम) 2015 में प्रकाशित है व पहलेाी कई बार प्रकाशित/प्रचारित हुई है, क्या है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान– (क) ध्यान/उपासना के लिए यम-नियम रूप योगाङ्गों का अनुष्ठान अनिवार्य है। इसको महर्षि पतञ्जलि अपने योगदर्शन में कहते हैं। महर्षि दयानन्द नेाी इस तथ्य को अनिवार्य कहा है। महर्षि उपासना प्रकरण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते हैं- ‘……….इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ ऋषियों के इन मन्तव्यों से तो यही ज्ञात हो रहा है कि ध्यान-उपासना के लिए यम-नियम का पालन करना अनिवार्य है।

अब हम थोड़ा विचार इन आठ अङ्गों पर कर लेते हैं। इन योगाङ्गों की व्याया करते हुए प्रायः उपदेशक वर्ग इनक ो सीढ़ी की भाँति बताया करता है, अर्थात् जैसे ऊपर चढ़ने के लिए हम सीढ़ी का प्रयोग करते हैं। सीढ़ी से चढ़ने के लिए पहले हम प्रथम सीढ़ी पश्चात् दूसरी, तीसरी आदि का प्रयोग करते हैं, पहली से अन्तिम पर नहीं पहुँच जाते वहाँ तो क्रम है। ऐसे ही इन योगाङ्गों की व्याया की जाती है, अर्थात् पहले यम को सिद्ध करें फिर नियम को पश्चात् आसन को आदि।

किन्तु यह जो सीढ़ी की तरह कहना दिखाना है, युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि बिना यम-नियम के पालन से भी व्यक्ति आसन लगा सकता है, प्राणायाम कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो कोई आसन, प्राणायाम न कर सकता था, इसलिए यह सीढ़ी वाला उदाहरण योगाङ्गों में घटाना सर्वाथा युक्त नहीं है।

इसमें यह अवश्य समझना चाहिए कि व्यक्ति जितना-जितना यम-नियम का पालन करता जायेगा, वह उतना-उतना धारणा, ध्यान की ओर अग्रसर होता चला जायेगा। कोई यह न समझे कि जब इन यम-नियम को पूरी तरह सिद्ध कर लूँगा, तब ही ध्यान करुँगा। ध्यान का अयास यम-नियम की प्रारभिक अवस्था से किया जा सकता है। हाँ, ध्यान की ऊँची अवस्था तो यम-नियम के पूर्ण रूप से पालन करने पर ही होगी, किन्तु प्रारभ में भी जब व्यक्ति सात्विक भाव से युक्त होकर ध्यान करता है तो उसको भी प्रारभिक ध्यान का आनन्द तो आयेगा ही।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि सर्वथा यम-नियम से रहित व्यक्ति तो ध्यान नहीं कर सकता अपितु जो जितने अंश में इनका पालन करता है, वह इतने स्तर का ध्यान भी कर सकता है, किन्तु जिस ध्यान की बात महर्षि पतञ्जलि करते हैं, वह ध्यान तो नहीं होगा, फिर भी इस ध्यान को आप गौण रूप में तो देख ही सकते हैं।

आपने परोपकारिणी सभा की ध्यान पद्धति के विषय में पूछा है। इस विषय में आपको बता दें कि इस ध्यान पद्धति की योजना इस कारण बनी कि सब मत-सप्रदाय प्रायः अपने-अपने विचार से ध्यान करवाते हैं। हमारे आर्य समाज में संध्या की जाती है। संध्या के बहुत सारे मन्त्र हैं, इन मन्त्रों को सब कोई नहीं जानता। जो नहीं जानता वह भी वैदिक रीति से ध्यान, उपासना कर सके, उसके लिए यह ध्यानह-पद्धति विद्वानों ने मिलकर तैयार की है। इस ध्यान पद्धति में अवैदिक और सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी नहीं है। यह पद्धति ऋषियों की रीति अनुसार विद्वानों द्वारा निर्मित है। इस पद्धति से साधारण से साधारण व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है।

इस ध्यान-पद्धति का अनेक लोग लाभ उठा रहे हैं और जिन्होंने इसका प्रशिक्षण परोपकारिणी सभा से लिया है वे प्रशिक्षक होकर अन्यों को भी सिखा रहा है। इस प्रकार इससे अनेक जन उपकृत हो रहे हैं।

जैसे ऊपर कहा जा चुका है कि यह ध्यानह-पद्धति जन साधारण भी कर सके उसके लिए है। उन जन साधारण के लिए तो इस पद्धति को पर्याप्त कह सकते हैं किन्तु जो विशेष अध्यात्म के मार्ग में योग्यता रखते हैं, उनके लिए  कदाचित यह पर्याप्त न हो। यह ध्यान-पद्धति दो भागों में विभक्त कर रखी है, एक पन्द्रह मिनट की और दूसरी तीस मिनट की। जो लोग ध्यान करना चाहते हैं किन्तु विशेष योग्यता नहीं रखते, वे इस पन्द्रह मिनट की ध्यान- पद्धति का लाभ उठा सकते हैं और जो कुछ योग्य हैं, उनके लिए तीस मिनट की ये पद्धति है। वे इससे लाभ उठा सकते हैं। किन्तु जो विशेष योग्यता रखते हैं, वे महर्षि वर्णित उपासना प्रकरण व योग दर्शन के अनुसार अपने को प्रगति दे सकते हैं अथवा ध्यान योग शिविरों में इस विषय के योग्य विद्वानों के संग अपना परिष्कार कर सकते हैं। इस विषय में इतना ही।

(3) शंका :- महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अन्त समय में यह किस आशय से पूछा था कि ‘आज कौन-सा पक्ष, क्या तिथि और क्या वार है?’ अन्यत्र संस्कार विधि में भी तिथि व नक्षत्रादि का उल्लेख मिलता है। हमने एक वैद्य से सुना है कि ‘वैद्यक शास्त्रों’ में लिखा है कि औषिधियों का प्रभाव तिथि, नक्षत्र, पक्ष तथा उत्तरायण व दक्षिणायन में अलग-अलग पड़ता है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

महर्षि दयानन्द ने अन्त समय में जो तिथि वार आदि पूछे, वे सामान्यरूप से पूछे गये प्रतीत होते हैं। इसमें कोई बड़ा रहस्य हो ऐसा लग नहीं रहा। कई बार हम श्रद्धावशात् सामान्य को भी विशेष रूप में देखने का प्रयास करने लगते हैं और इस हमारे प्रयास में कहीं न कहीं पौराणिकता आ जाती है।

हाँ आपने जो औषधियों पर प्रभाव की बात कही वह तो सकती है, होती होगी।

(4) शंका :- इसी प्रकार गृहाश्रमविधि में या दुर्हार्दो युवतयो…… मन्त्र के अर्थ करते हुए अन्त में लिखते हैं- ‘…..वृद्ध स्त्रियाँ हों, वे इस वधू को शीघ्र तेज देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जावें, और फिर इसके पास कभी न आवें।’ यहाँ कभी न आवें का भाव समझ में नहीं आया।

समाधान कर्ता :- , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

(ग) गृहाश्रमप्रकरण में महर्षि ने जो अथर्ववेद का यह मन्त्र दिया है-

या दुर्हार्दो युवतयो याश्चेह जरतीरति।

वर्चो न्वस्यै सं दत्ताथास्तं विपरेतन।।

अर्थ- (याः) जो (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवाली अर्थात् दुष्टात्मा (युवतयः) जवान स्त्रियाँ (च) और (याः) जो (रह) इस स्थान में (जरती) बूढ़ी=वृद्ध स्त्रियाँ हों, वे (अपि) भी (अस्थै) इस वधू को (नू) शीघ्र (वर्चः) तेज (संदत्त) देवें (अथ) इसके पश्चात् (अस्तम्) अपने-अपने घर को (विपरेतन) चली जाएँ और फिर कभी इसके पास न आवें।

यहाँ प्रकरण विवाह और गृहाश्रम का है, जब नववधू से बहुत-सी स्त्रियाँ मिलने आती हैं, तब उनमें बहुत-सी कुलीन और कुछ मन्त्र में वर्णित दुष्ट हृदय वाली भी होती हैं। यहाँ उन दुष्ट हृदय वाली स्त्रियों की ओर संकेत किया है। यदि ऐसी स्त्रियाँ वधू के पास आवें तो वधू उनको महत्त्व न देवे। जब वधू उनको महत्त्व न देगी, तब उनका मान-समान न होगा अर्थात् उनका तेज ले लिया जायेगा और वहाँ लौट, वापस न आवेंगी। जब हम किसी को महत्त्व नहीं देते, तब सामने वाला उपेक्षित होकर श्रीहीन हो जाता है उसका तेज ले लिया जाता है। ऐसा यहाँ भी कुछ इसी प्रकार का है। मन्त्र में निर्देश किया है कि दुष्ट हृदय वाली स्त्रियाँ कुलीन स्त्रियों के पास कभी न आवें। जब उनके साथ उपेक्षा का बर्ताव किया जायेगा, तब वे उनके पास भी न आवेंगी। यही अभिप्राय प्रतीत हो रहा है। इस मन्त्र क विषय में विस्तार से जानने के लिए पं. मनसाराम जी  वैदिक तोप की पुस्तकें ‘‘पौराणिक पोप पर वैदिक तोप’’ पृष्ठ 366 से देखा जा सकता है।

(5) शंका :- महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संस्कार-विधि के सामान्य प्रकरण में आघारावाज्याहुति व आज्याभागाहुति देने से पूर्व लिखा है कि ‘स्रुवा को भर अँगूठा मध्यमा अनामिका से स्रुवा को पकड़ के…..’ कृपया बताएँ कि स्रुवा को इन तीन से ही क्यों पकड़ा जाए?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

(ख) स्रुवा को तीन अंगुलियों से पकड़ने का विधान महर्षि दयानन्द द्वारा ही वर्णित मिलता है, कहीं और स्थान पर इसका वर्णन हो ऐसा देखने में नहीं आया। तीन से पकड़े जाने का प्रयोजन क्या है, इसका भी वर्णन देखने को नहीं मिलता। हाँ अपनी कुछ संगतियाँ तो लगा सकते हैं। पाँचों अँगुलियों में एक-एक महाभूत कुछ लोग मानते हैं- इस आधार अँगुलियों की मुद्रा विशेष भी बनाई जाती हैं, जिससे कुछ शारीरिक प्रभाव पड़ता है। हो सकता है यहाँ भी वह प्रभाव होता हो, इस दृष्टि इन तीनों से स्रुवा पकड़ने लिए कहा हो। अथवा अन्य कोई प्रयोजन विद्वान् लोगों ने विचार किया हो तो हमें ज्ञात करावें।

(6) शंका :- श्रौत-यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक के पृष्ठ 177 व 178 पर श्रद्धेय युधिष्ठिर मीमांसक जी ने कश्यप-पुत्र असुर को इस पृथिवी का प्रथम शासक बताया है।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

श्रौत-यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक के पृष्ठ 177 व 178 पर श्रद्धेय युधिष्ठिर मीमांसक जी ने कश्यप-पुत्र असुर को इस पृथिवी का प्रथम शासक बताया है। साथ ही वे (तैत्तिरीय-संहिता 6-3-7-2 का सर्न्दा देकर) लिखते हैं कि पहले निश्चय ही यज्ञ असुरों में था….बाद में देवों के हाथ में आ गया……यहाी लिखा है कि असुरों का यज्ञ ध्वंसनात्मक (यज्ञ क्या ध्वंसनात्मक भी होता है) था । कृपया, इस पूरे प्रकरण का सही-सही भाव बताने का कष्ट करें।

 

समाधान– (क) शास्त्रों में यज्ञ का वर्णन विस्तार से मिलता है। यज्ञ का अर्थ करते समय ऋषियों ने व्यापक दृष्टि रखी है। यज्ञ केवल अग्निहोत्र ही नहीं है, अपितु इस ब्रह्माण्ड में जो हो रहा है वह भी यज्ञ ही है। प्रातः काल से ही सूर्य संसार को अपनी ऊर्जा देकर यज्ञ कर रहा होता है। रात्रि में चन्द्रमा अपना शीतल प्रकाश फैलाकर यज्ञ कर रहा होता है। इस प्रकार यज्ञ के व्यापक रूप को देख प्रलय और सृष्टि को भी यज्ञ का ही रूप दे डाला। प्रलय को ध्वंसनात्मक यज्ञ और सृष्टि उत्पत्ति को सृजनात्मक यज्ञ कहा गया है।

पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक ने इस को लेकर अपनी पुस्तक में विस्तार से वर्णन किया है। पाठकों की दृष्टि से उनके वचन ही यहाँ लिखते हैं- ‘‘यज्ञों के सबन्ध में कथानक वैदिक वाङ्मय में मिलता है वह दो प्रकार का है। एक सृष्टिगत आसुर और दैव यज्ञों के सबन्ध में, और दूसरा श्रोतसूत्रोक्त मानुष द्रव्य यज्ञों के सबन्ध में। दोनों के वर्णन में स्थान-स्थान पर देव और असुर शदों का प्रयोग मिलता है, अतः इन वचनों के विषय में बड़ी कठिनाई होती है। हम अपनी बुद्धि के अनुसार दोनों वचनों का विभाग करके लिखते हैं।’’

प्रस्तुत आसुर यज्ञों पर विचार करने से पूर्व यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि और प्रलय का चक्र सदा चलता ही रहता है। परन्तु जब वर्तमान सृष्टि के विषय में लिखना होता है तो भारतीय ग्रन्थकार वर्तमान सृष्टि से पूर्व जो प्रलयावस्था रही थी, उसका पहले संक्षेप से वर्णन करते हैं, पश्चात् सृष्टि के  सृजन का।

हमारे सौरमण्डल की स्थिति और प्रलय का काल  8 अरब 64 करोड़ वर्ष का है। इसमें 4 अरब 32 करोड़ वर्ष दिन अर्थात् सृष्टि का स्थिति काल और 4 अरब 32 करोड़ वर्ष रात्रि अर्थात् प्रलयकाल होता है। प्रलयकाल के आरा में आसुर=ध्वंसनात्मक प्रवृत्तियाँ उत्तरोतर वृद्धिगत होती है प्रलय के मध्य में पूर्णता को प्राप्त होने के पश्चात् दैवी प्रवृत्तियों का उत्तरोत्तर विकास होता है और आसुर प्रवृत्तियाँ घटती जाती हैं। इस कारण वर्तमान सृष्टि से पूर्व प्रलय काल में आसुर प्रवृत्तियों के कारण ध्वंसनात्मक यज्ञ हो रहे थे, अर्थात् प्रलयात्मक यज्ञ आसुर शक्तियों के पास था। इसी का निर्देश तैत्तिरीय संहिता 6.3.7.2 में किया है।

‘‘असुरेषु वै यज्ञ आसीत्, तं देवा तुष्णीं होमेनापवृञ्जन्।।’’ अर्थात् – पहले निश्चय ही यज्ञ असुरों में था। देवों ने उसे तूष्णीम् होम से काट लिया=छीन लिया। अभिप्राय स्पष्ट है कि जब प्रलयकाल में आसुरी शक्तियाँ प्रबल हो रही थीं, तब सर्गोन्मुखकाल में दैवी शक्तियों ने तूष्णीं=चुपचाप=शनैः-शनैः अपना कार्य=सर्जनरूप यज्ञ का आरा किया और शनैः-शनैः सर्जन प्रक्रिया बढ़ती गई। इस प्रकार यज्ञ असुरों से देवों के हाथ में आ गया।’’

इस पूरे प्रकरण में पं. युधिष्ठिर जी  यज्ञ को विस्तृत रूप में देख रहे हैं। प्रलय और निर्माण इन दोनों को यज्ञ रूप में देखा है। सृष्टि का प्रलय होना, क्षय होना जब प्रारभ होता है, तब उसको ध्वंसनात्मक यज्ञ कहा है। असुर बिगाड़ने वाले होते हैं बनाने वाले नहीं। इस आसुरी स्वभाव को देख सृष्टि प्रलयावस्था में आसुरी शक्तियों का प्रबल होना माना है। ये आसुरी शक्ति प्रलय काल के मध्य तक प्रबल रहती हैं और वे आसुरी शक्तियाँ इस जगत् को नष्ट करने में लगी रहती हैं, इसी को ध्वंसनात्मक यज्ञ कहा है।

प्रलय के मध्यकाल के बाद धीरे-धीरे देव अर्थात् दैवी शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। देव अर्थात् निर्माण करने वाली शक्तियाँ जो बनाने वाली, बिगाड़ने वाली नहीं। सृष्टि निर्माण से पहले ध्वंसनात्मक यज्ञ असुर कर रहे थे, उस यज्ञ को शनैः-शनै-धीरे-धीरे देवों ने ले लिया हैं अर्थात् निर्माण प्रक्रिया को आरा कर दिया। इस सृष्टि काल में दैवी शक्तियाँ कार्य करती हैं। इस प्रकार शास्त्र के आधार पर पं. मीमांसक जी  ने सृष्टि प्रलय और सृष्टि निर्माण को यज्ञ रूप में कहा है।

ये देवासुर प्रक्रिया हम अपने ऊपर, समाज, राष्ट्र में कहीं भी देख सकते हैं। हमारे मन में अच्छे-बुरे दोनों विचार चलते रहते हैं। मन के अन्दर कभी बुरे विचार अधिक प्रबल होते हैं, जिससे हम टूटते जाते हैं, क्षय को, पतन को प्राप्त होते हैं। ये आसुरी शक्ति का प्रााव है। और जब हम अच्छे विचारों से ओत-प्रोत होते हैं, तब हमारा निर्माण हो रहा होता है, उस समय हम पतन को प्राप्त न हो श्रेष्ठता को प्राप्त होते हैं। जैसे सृष्टि निर्माण और प्रलय प्रक्रिया में देव और असुर कोई व्यक्ति विशेष नहीं होते। वहाँ निर्माण और प्रलय में शक्ति विशेष लगती है, होती है, उसको देव और असुर कहा है, वैसे ही हमारे मन के अच्छे विचार देव हैं और बुरे विचार असुर। असुरों का काम पतनोन्मुख करना और देवों का काम उत्थान की ओर ले जाना है।

समाज राष्ट्र में भी दो प्रकार के मनुष्य देखे जाते हैं, सज्जन और दुर्जन। सज्जन देव हैं जो समाज राष्ट्र का भला चाहते हैं, भला करते हैं और  दुर्जन असुर हैं जो कि समाज राष्ट्र के निर्माण में बाधा डालते रहते हैं। इस प्रकार इसको भी यज्ञ रूप में देखा जा सकता है

लौकि क इतिहास की दृष्टि से पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी  इसी पुस्तक के पृष्ठ 180 पर लिखते हैं, ‘‘असुर आरभ में श्रेष्ठ चरित्रवान् थे। प्रजापति कश्यप ने इनकी श्रेष्ठता और ज्येष्ठता के कारण पृथिवी का शासन इन्हें दिया। इन्हीं असुरों ने वेद के अनुसार वर्णाश्रम-विभाग और यज्ञों का प्रवर्तन किया । शासन अथवा विशेषाधिकार मिल जाने पर अंकुश न रखा जाय तो मनुष्य की मति धीरे-धीरे विकृत होने लगती है। इसी सिद्धान्त के अनुसार असुरों में गिरावट आयी। असुर शद, जो पहले श्रेष्ठ अर्थ (असु+र=प्राणों से युक्त=बलवान्) का वाचक था, वह उनके  निकृष्ट आचरण से निकृष्ट का बोधक बन गया।………..‘पूर्वे देवाः’ यह असुरों के पर्यायवाची नामों में उपलध होता है।’’

यहाँ असुरों के श्रेष्ठ होने से प्रजापति ने उनको पृथिवी का शासन दिया ऐसा लिखा है, दूसरे स्थान पर स्वायंभुव मनु का पुत्र मरीचि प्रथम क्षत्रिय राजा हुआ- यह लिखा है। इन दोनों कथनों में विरोध दिख रहा है। इससे ऐसा विचार किया जा सकता है कि जो मीमांसक जी ने शास्त्र प्रमाणयुक्त लिखा है। वह क्षत्रिय राजा के विषय में न हो और जो दूसरा वचन है उससे तो स्पष्ट है ही की प्रथम क्षत्रिय राजा मरीचि हुआ। फिर भी यह इतिहास का विषय है, इसमें हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते।

यज्ञ ध्वंसनात्मक भी होता है उसका आलंकारिक रूप को सृष्टि प्रलय की स्थिति को उपरोक्त प्रकरण में हमने देखी। इतिहास में भी ध्वसनात्मक यज्ञ किये जाते रहे हैं। एक राजा दूसरे राजा हराने नष्ट करने के लिए इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन करता था। इस यज्ञ में उसको सफलता कितनी मिलती थी- यह तो कहा नहीं जा सकता, किन्तु ध्वंसनात्मक यज्ञ तो होता था। किसी को नष्ट करने के लिए ध्वसंनात्मक का प्रचलन था।

(7) शंका :- अग्नि, वायु…….इनको वेदों का ज्ञान किसने दिया। : आचार्य सोमदेव जी

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

जिज्ञासा ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (श्री घूडमल प्रहलाद कुमार आर्य धर्मार्थ न्यास) द्वारा प्रकाशित छप रहा था उसमें पेज नं. 24 पर लिखा है ब्रह्मा जी ने अग्नि, वायु, रवि व अङ्गिरा से वेद पढे।

इसका मतलब ही ब्रह्मा जी का जन्म अग्नि, वायु… आदि के बाद हुआ है।

(1) अग्नि, वायु…….इनको वेदों का ज्ञान किसने दिया।

(2) ओ3म् का जाप करके हम ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं उपनिषद में भी ओ3म्ाम् ब्रह्मा तीनों को एक ही बताया गया है। गीता में भी कृष्ण अर्जुन को कहते हैं ओ3म् का जप करके उस ब्रह्मा को प्राप्त कर,

जिज्ञासा यह है कि ओ3म् का जाप करके ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं । ब्रह्माजी से पहले अग्नि, वायु….आदि हुये क्योंकि ब्रह्माजी ने उनसे वेदों का ज्ञान प्राप्त किया, फिर जिसने अग्नि, वायु, रवि व अङ्गिरा को वेदों का ज्ञान दिया उसका जाप किस शब्द या श्लोक से करे क्योंकि सभी जगह तो ब्रह्मा जी का ही जिक्र आता है।

समाधान-(1) (क)किसी विषय को स्पष्ट समझने के लिए पूर्वापरप्रसंग को ठीक से जानना, विषय वस्तु वाले ग्रन्थ को सपूर्ण पढ़ना व उस ग्रन्थ के लेखक की अन्य कृतियाँ भी पढ़ना आवश्यक हो जाता है। इतना करने पर प्रायः हमें बात स्पष्ट समझ में आ जाती है इतना करने पर भी समझ में न आवे तो योग्य विद्वान् से पूछ कर स्पष्ट कर लें। बहुत कुछ जिज्ञासाओं का समाधान तो हमारे द्वारा ठीक प्रकार से अध्ययन करने में ही हो जाता है।

आपने जो संदर्भ दिया है वह संर्दा सर्वथा ठीक है भूल समझने की है, सर्वप्रथम वेद पढ़ने वाला ऋषि ब्रह्मा ही हुआ है। महर्षि ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा इन चारों ऋषियों से चारों वेद पढ़े। उन चारों ऋषियों को स्वयं परमात्मा ने वेद का ज्ञान दिया क्योंकि आदि सृष्टि में ये चार आत्माएँ अत्यन्त पवित्र थी। इनके अन्दर साक्षात् परमेश्वर से वेद ज्ञान ग्रहण करने की पात्रता थी। आपने जो पूछा हैं ‘इन चारों को ज्ञान किसने दिया’ उसका उत्तर यहाँ आ गया है।

ब्रह्मा व इन चार ऋषियों में ये भिन्नता है कि सीधा परमेश्वर से ज्ञान लेने की पात्रता इन चारों में थी जबकि ब्रह्माजी ने सीधा परमेश्वर से ज्ञान ग्रहण न कर ऋषियों से ग्रहण किया है।

आपने कहा अग्नि आदि ऋषि पहले हुए और ब्रह्मा जी बाद में हुए। इसके लिए महर्षि दयानन्द का कथन है कि ये सभी ऋषि आदि सृष्टि में हुए अर्थात् सृष्टि के प्रारभ में हुए।

(ख) आप भाषा के प्रयोग को समझें, भाषा में एक ही शब्द अनेक वस्तुओं का कहने वाला हो सकता है। जैसे एक ‘गो’ शब्द गाय, वहणी, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि को कहता है। वैसे ही ‘ब्रह्मा’ शब्द भी अनेक का द्योतक हो सकता है। जिस ब्रह्मा ने चारों वेद पढ़े वह एक व्यक्ति विशेष मनुष्य है। किन्तु जिस ब्रह्मा की उपासना करने का प्रसंग है वहाँ कोई मनुष्य रूपी व्यक्ति विशेष नहीं अपितु वहाँ तो उपासना परमेश्वर की करनी है और परमेश्वर के असंय नामों में एक नाम ‘ब्रह्मा’ भी है, जिसका अर्थ महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं- ‘‘(बृह् बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ब्रह्मा शब्द सिद्ध होता है। थोडखिंल जगन्निर्माणेन बर्हति (बृंहति) वर्द्धयति स ब्रह्मा, जो सपूर्ण जगत् को रचके बढ़ाता है इसलिए परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्मा’ है।’’ स.प्र.स. 1

ब्रह्मा परमेश्वर का एक नाम है, इसके अनेकों प्रमाण हैं-

स ब्रह्मा स विष्णुः………..।। कैवल्य उपनिषद् .1.8

इन्द्रो ब्रह्मेन्द्र……………।। ऋग्वेद 8.16.7

सोमं राजनं…………..ब्रह्माणंच बृहस्पतिम्।।

– साम. 1.1.10.1

ओं खं ब्रह्म।। यजु. 40.17

यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह।

ब्रह्मा मा तत्र नयतु ब्रह्मा ब्रह्म दधातु मे।।अथर्व-19.43.8

इन सभी वेद शास्त्रवचनों में ईश्वर का एक नाम ब्रह्म= ब्रह्मा कहा है। जिस परमेश्वर का ब्रह्मा नाम है,उस परमेश्वर का मुय नाम ‘ओ3म्’ है।  इस ‘ओ3म्’ के जप से परमेश्वर ब्रह्म की उपासना होती है न कि चारों वेद को पढ़ने वाले ब्रह्मा नाम वाले महर्षि की। यदि अध्ययन करने वाला प्रकरणविद् हो तो वह स्वयं समझ सकता है कि ‘ब्रह्मा’ शब्द परमेश्वर को कह रहा है या ऋषि रूप व्यक्ति विशेष को।

जिस परमेश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा ऋषियों को ज्ञान दिया उसकी उपासना ‘ओ3म्’ शब्द से करनी चाहिए अथवा परमेश्वर के जो अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर नाम हैं उनसेाी ईश्वर की उपासना की जा सकती है। जैसे न्यायकारी, दयालु, सर्वरक्षक, पवित्र आदि नामों से उपासना कर सकते हैं। मन्त्रों के माध्यम से भी परमेश्वर की उपासना की जाती है। जिस मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति हो, प्रार्थना हो उस मन्त्र से उपासना कर सकते हैं, जैसे गायत्री मन्त्रादि।

जो उपासना विषय में ब्रह्मा जी का जिक्र है वह मनुष्य रूपी ब्रह्मा का नहीं अपितु परमात्मा रूपी ब्रह्मा का जिक्र मानना चाहिए। महर्षि दयानन्द की यह बात सदा स्मरण रखें कि जहाँ भी उपासना करने की बात आती है वहाँ उपासनीय केवल परमात्मा ग्रहण करना चाहिए अन्य का नहीं। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

 

(8) शंका :- सृष्टि उत्पति : आचार्य सोमदेव जी

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

जिज्ञासा- सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में वर्णित मनुष्य जाति की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात तिबत में हुई, जिसमें श्रेष्ठ विद्वान् लोग आर्य और मूर्ख अनार्य (अनाड़ी) कहलाये। आर्य और अनार्य में सदा लड़ाई बखेड़ा होने के कारण आर्य लोग सर्व भूगोल में उत्तम इसाूखण्ड को जानकर सृष्टि की आदि के कुछ काल पश्चात् तिबत से सीधे इस देश में बस गये, जिसका नाम आर्यावर्त हुआ। इससे पूर्व इस देश का क ोई भी नाम नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे। अतः आर्य जाति का उद्गम व आदि उत्पत्ति-स्थल तिबत है और सभवतः वही हमारे चारों वेद का ईश्वरीय ज्ञान ऋषियों को प्राप्त हुआ। कृपया उक्त तथ्यों के प्रमाण से अवगत कराने का कष्ट करें। आज दिन भी तिबत में हमारे तीर्थ-स्थल कैलाश, मानसरोवर स्थित हैं। जहाँ  प्रतिवर्ष हजारों भारतवासी तीर्थ यात्रा व दर्शन हेतु जाते हैं। इस तरह सारा तिबत हमारा आदि जन्म स्थल है। अतः सारा तिबत हमारा (भारत का) है। चीन उस पर जबरन काबिज है।

समाधान महर्षि दयानन्द ने मानवोत्पत्ति तिबत पर कही है। महर्षि प्रश्न पूर्वक लिखते हैं- ‘‘मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई?

उत्तर – त्रिविष्टप अर्थात् जिसको तिबत कहते हैं।’’ आपने महर्षि के इस स्थल को लेकर प्रश्न पूछा है कि इसका आधार है या नहीं। इस विषय में जैसी जानकारी मुझे ‘सत्यार्थ भास्कर’ से प्राप्त हुई है, वैसा यहाँ लिखता हूँ।

जैसा बिना बीज के, निर्जीव रेत में जड़ और अंकुर नहीं फूटते। बीजाी अपने आप ही आप नहीं निकलता, किन्तु खोज करके लाया जाता है और अनुकूल स्थान पर बोया जाता है, जहाँ जलवायु पौधे के अनुकुल होता है, उसका खाद्य पर्याप्त मात्रा में मिलता है और आंधी-ओले से उसे सुरक्षित रखा जा सकता है। माली पहले एक क्यारी में पौध तैयार करता है फिर वहाँ से पौधे ले-लेकर यथास्थान सारी फुलवारी में रोपता है और आवश्यकतानुसार बाहर भी भेजता है। तात्पर्य यह है कि बीज सर्वत्र पैदा नहीं होता, एक ही स्थान से अन्यत्र फैलता है। इसी बीज क्षेत्र न्याय के अनुसार मनुष्य भी किसी एक ही स्थान पर पैदा हुआ और फिर संसार भर में फैल गया। प्रारभ में मनुष्य भी किसी एक ही स्थान पर पैदा हुआ और फिर संसार भर में फैल गया। प्रारभ में मनुष्य भी ऐसे स्थान पर हुआ होगा, जहाँ का जलवायु उसके अनुकूल हो, खाद्य सामग्री सुलभ हो और जहाँ वह अधिक से अधिक सुरक्षित रह सके। मनुष्य ही नहीं, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि के लिए भी ऐसा ही स्थान उपयुक्त होगा। आदि सृष्टि के लिए उपयुक्त स्थान की योग्यता –

  1. जो सबसे ऊँचा स्थान हो, 2. जहाँ सर्दी-गर्मी जुड़ती हो, 3. जहाँ मनुष्य के खाद्य फल वनस्पति आदि प्रचुरता से उपलध हों, 4. जिसके आसपास सब रंग-रूपों के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण हो, 5. जिसका नाम सबके स्मरण का विषय हो।

अब इन पाँचों बिन्दुओं को विस्तार से देखते हैं-

  1. 1. हिमालय निर्विवाद रूप से सबसे ऊँचा स्थान है। कहते हैं कि पहले सपूर्ण पृथिवी जलमग्न थी। उस जल से सबसे पहले वही भूमि निकली उसी में वनस्पति उत्पन्न हुई और उसी पर सबसे पहले मनुष्यादि प्राणियों की सृष्टि हुई।

2.संसार में ऋतुएँ चाहे कितनी कही जाएँ, किन्तु सर्दी और गर्मी दो उनमें मुय हैं। यही कारण है कि समस्त भूमण्डल में सर्द और गर्म दो ही प्रकार के देश पाये जाते हैं। कुछ प्रदेश दोनों के मिश्रण से बने पाये जाते हैं, तो भी दोनों में से एक की प्रधानता रहती है। कश्मीर, नेपाल, भूटान और तिबत आदि प्रदेश बसे हुए हैं, इनके निवासी उसी सर्दी-गर्मी का अनुभव करते हैं। इसलिए मानव-सृष्टि के लिए हिमालय ही सर्वाधिक उपयुक्त स्थान ठहरता है। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य के आदि युग में मानसरोवर के आसपास का क्षेत्र शीतोष्ण जलवायु युक्त था। भारतीय प्राचीन साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है।

  1. 3. मनुष्य का सर्वाधिक खाद्य दूध और फल है- पयः पशूनां रसमोषधीनाम्। दूध पशुओं से और फल वृक्षों से मिलते हैं। जब मनुष्य दूध और फल के बिना और पशु वनस्पति के बिना नहीं रह सकते तो मनुष्य ऐसे देश में उत्पन्न नहीं हो सकता, जहाँ ये पदार्थ उपलध न हों। हिमालय ऐसा स्थान है, जहाँ मनुष्य के लिए अपेक्षित समस्त पदार्थ सहज उपलध है।
  2. 4. मूल स्थान के आसपास ऐसी विस्तृत भूमि होनी चाहिए, जहाँ सब रंग-रूपों के विकास की स्थिति हो और जहाँ रहकर मनुष्य संसार भर में रहने की योग्यता प्राप्त करके पृथिवी में सर्वत्र फैल सके। हिमालय से लगता भारत ऐसा देश है, जहाँ सब छहों ऋतुएँ वर्तमान रहती हैं। इस सर्वगुण सपन्न देश में सब रंग रूप के आदमी निवास करते हैं। ऐसे देश के सामीप्य के कारण भी यही प्रतीत होता है कि हिमालय (तिबत) पर ही मनुष्य की आदि सृष्टि हुई।
  3. 5. सभी देशों में बसने वालों को किसी न किसी रूप में हिमालय की स्मृति बनी हुई है। भारतीय आर्यों को हिमालय से और ईरानी आर्यों को भारत से आने की स्मृति आज भी बनी हुई है। चरक संहिता के प्रमाण से सिद्ध है कि आर्य लोग हिमालय (तिबत) से ही भारत आये थे और बीमार होकर एक बार फिर अपने स्थान हिमालय को लौट गये थे। इतना ही नहीं, कुछ समय बाद उनके फिर लौटकर भारत में बसने का उल्लेख मिलता है। चरक संहिता में लिखा है-

ऋषयः खलु कदाचिच्छालीना यायावराश्च ग्रायौषध्याहाराः सन्तः सापन्निका मन्दचेष्टाश्च नातिकल्याश्च प्रायेण बभूवुः। ते सर्वा समिति कर्त्तव्यतानामसमर्थाः सन्तो ग्रायवासकृतमात्मदोषं मत्वा पूर्वनिवासमपगतग्रायदोषं शिवं पुण्यमुदारं मेध्यगयसुकृतिभिर्गङ्गाप्रभवममरगन्धर्व-किन्नरानुचरितमनेक रत्ननिचयमचिन्त्याद्भुतप्रभवं ब्रह्मर्षिसिद्धचरणानुचरितं दिव्यती र्थैषधिप्रभवमतिशरव्यं….. महर्षयः।। चिकित्सा स्थान. 4/3

इन चरक वचनों से मानव हिमालय पर था, बाद में मैदानी क्षेत्र में बस गया, यह वर्णन है। इनसे सिद्ध हो रहा है कि मानवोत्पत्ति सृष्टि के आरभ में हिमालय पर ही हुई।

हिमालय पर प्राणियों के शरीरांश बहुतायत से पाये जाते हैं। पृथिवी पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जो हिमालय स्थित प्राणियों के शेषांगों से अधिक पुराने चिह्न दे सके। इससे भी प्रमाणित होता है कि हिमालय पर मनुष्य से पहले उत्पन्न होने वाले और उनके जीवनाधार वृक्ष और गौ आदि पशु पूर्वातिपूर्व काल में उत्पन्न हो गये थे, अतएव हिमालय आदि सृष्टि उत्पन्न करने की पूर्ण योग्यता रखता है। (हिमालय पर)

प्रारभ में आर्य हिमालय तिबत में ही उनका मूल उत्पत्ति स्थान तिबत रहा, बाद में निचले मैदानी क्षेत्र आर्यावर्त में आकर बस गये। आर्यावर्त की सीमा महर्षि मनु ने लिखी है-

आ समुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः।। मनु. 2.22

अर्थात्- पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र पर्यन्त विद्यमान उत्तर में हिमालय और दक्षिण में स्थित विन्ध्याचल का मध्यवर्ती देश है, उसे विद्वान् लोग आर्यावर्त कहते हैं। इसी मनु के श्लोक के आधार पर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में आर्यावर्त देश की सीमा निर्धारण की है- ‘‘हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने प्रदेश हैं, उन सबको आर्यावर्त इसलिए कहते हैं कि यह आर्यावर्त देश देवों और विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहलाया।’’ आर्यावर्त की सीमा में हिमालय भी है और तिबत हिमालय पर है, इस आधार पर आप कह सकते हैं कि तिबत हम आर्यों का स्थान है। इस लेख में चरकादि का प्रमाण दिया है। ये प्रमाण आर्यों का मूल स्थान हिमालय को सिद्ध करते हैं। महर्षि का तो प्रत्यक्ष वचन है ही। यह तो निश्चित है कि तिबत पर चीन ने बलात् अधिकार जमा रखा है। जबकि अधिकार हम भारतीयों का होना चाहिए। ऐतिहासिक दृष्टि से भी और हमारी भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से भी। अलम्।

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(9) शंका :- 5. सन् 1875 के बाद अर्थात् 140 साल व्यतीत हो जाने के बाद भी विवाहदि संस्कार 90/95 प्रतिशत पौराणिक रीति से हो रहे हैं। यदि लग्न पत्रिका आदि की जरुरत पड़े तो वही हाथी की सूण्ड वाले गणेश की छपी मिलती है। क्या आर्य समाज कोई ऐसी योजना बना रहा है कि कम से कम जिला स्तर पर ऐसी पत्रिका या वैदिक कलेण्डर या पुरोहित उपलध हो जाए।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

(ङ) इस विषय में आर्य समाज का कुछ प्रयत्न तो रहा है, कहीं-कहीं आर्य समाजों में बिना गणेश की लग्न पत्रिका मन्त्रों से युक्त भी मिलती है। इसके लिए योजना हो सकती है जो कि शीर्षस्थ सभाओं की धर्मार्य सभा का कार्य है।

लग्न पत्रिका को तो आप व्यक्तिगत रूप से भी क्रियान्वित कर सकते हैं। कुछ काम हम अपने स्तर पराी कर सकते हैं, हमारे द्वारा किये जा सकते हैं। कुछ कार्य सभाएँ ही कर सकती हैं किन्तु सभाओं की आज कथा ही क्या कहें, इनको जो करना था 140 वर्षों में वह न कर कुछ और ही कर रही हैं जो कि आपको व अन्य संवेदनशील आर्यों को पीड़ित करती हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(10) शंका :- . क्या वर्तमान में अपने देश भारत या अन्यत्र कहीं भी पृथ्वी पर अध्ययन-अध्यापन की ऐसी व्यवस्था है, जहाँ पर चारों वेदों का ज्ञान कराया जाता हो। यदि हाँ तो कहाँ-कहाँ पर ऐसी व्यवस्था है। 4. आर्य समाज के धुंआधार प्रचार से और वेदों का डंका पीटने या बजाने से पौराणिक भी जाग्रत हो गए, तो अब आर्य सामाज के कितने केन्द्र चारों वेद पढ़ा रहे हैं और पौराणिकों के कितने केन्द्र हैं।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :-

समाधान :-

) वर्तमान में अपने देश व अन्यत्र चारों वेद पढ़ाने की व्यवस्था है या नहीं इस विषय में मैं नहीं जानता हाँ वर्तमान में आर्य समाज के वरिष्ठ विद्वान् आचार्य श्री सत्यानन्द वेदवागीश चारों वेदों को पढ़ाने का सामर्थ्य रखते हैं। उनसे एक युवा विद्वान् आचार्य सनतकुमार जी ने चारों वेद पढ़े हैं और वे अन्य को पढ़ाने का प्रयास करते हैं। किसी गुरुकुल संस्था आदि की जानकारी मुझे नहीं है। वेद कण्ठस्थ कराने वाली संस्थाएँ तो हैं जो कि प्रायः पौराणिकों की हैं। आपके बिन्दु 4 (घ) का उत्तर भी इसी में आ गया है।

(11) शंका :- 2. यदि चारों वेद संहिताएं विदेश से मंगवाए गए तो फिर यह क्यों कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द ने 2 वर्ष 10 महीने में अपने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेदों का अध्ययन किया और शंकाओं का समाधान किया। जब वेद मंगवाए ही बाद में हैं तो अपने गुरु जी से कैसे पढ़े? और यदि वेद पहले ही उपलध थे तो मंगवाने की क्या जरूरत थी। इससे यह भी प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द जी ने भी अपने गुरु जी के पास से शिक्षा पूरी करने के बाद ही चारों वेद पढ़े। गुरु जी के पास तो जो आधे अधूरे उपलध थे वे ही पढ़ पाए। फिर पूरे वेद बाद में पढ़े हैं तो स्वामी जी को पढ़ाने वाले अन्य कौन गुरु मिले जो स्वामी विरजानन्द जी से भी भली प्रकार पढ़ा सकते थे।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

ऊपर हमने देखा कि वेद हमारे पास पहले ही उपलध रहे हैं, यह भ्रान्ति फैलाई गई कि वेद जर्मन में थे भारत में नहीं। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से चारों वेद को पढ़ा यह वर्णन कहीं देखने को नहीं मिलता हाँ कुछ वक्ता लोग इस प्रकार की अप्रमाणिक बातें बोलते हैं। महर्षि ने गुरु विरजानन्द से 2 वर्ष 10 महीने में मुय रूप से व्याकरण महाभाष्य पढ़ा था। हाँ जहाँ कहीं व्याकरण में वेद का विषय आया है वहाँ गुरुवर ने वेद मन्त्रों के उद्धरण अवश्य दिये होंगे। इस विषय में डॉ. रामप्रकाश जी द्वारा लिखित ‘गुरु विरजानन्द दण्डी जीवन एवं दर्शन’ पुस्तक की पंक्तियाँ लिखता हूँः- ‘‘कुछ लेखक मानते हैं कि दयानन्द ने दण्डी जी से केवल व्याकरण पढ़ा और कुछ नहीं परन्तु यह कैसे सभव है कि जिस आर्ष अनार्ष ग्रन्थ निर्णय के लिए पूरा एक दशक (1859-1868) लगा दिया तथा किसी भी पण्डित से एतद् विषयक चर्चा अथवा शास्त्रार्थ का अवसर हाथ से न जाने दिया, वह चिन्तन वे अढ़ाई साल की लबी अवधि में अपनी आशा के केन्द्र बिन्दु दयानन्द से सांझा न करते। वे तो व्याकरण मात्र को मानते ही वेदादि के अध्ययन के लिए थे। अतः संहिता विशेष भले ही न पढ़ाई हो पर यत्र तत्र वेद से उदाहरण देकर व्याकरण समझाना तो स्वभाविक था। स्वामी दयानन्द ने भी गुरु से जितना पढ़ा, उससे कहीं अधिक सीखा। यद्यपि अभी वैदिक साहित्य का सपूर्ण ज्ञान करना शेष था परन्तु उन्हें आर्ष – अनार्ष ग्रन्थों के विवेक की सूझ अवश्य प्राप्त हुई।’’

इस समस्त कथन से ज्ञात हो रहा है कि महर्षि ने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेद संहिताओं का अध्ययन नहीं किया अपितु आंशिक रूपसे कुछ अध्ययन किया और मुय रूप से व्याकरण का अध्ययन किया। चारों वेदों का अध्ययन महर्षि ने व्यक्तिगत रूप से अपनी योग्यता के आधार पर स्वयं किया। इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि गुरु विरजानन्द के समय वेद आधे अधूरे थे, ऊपर इस विषय में लिखा जा चुका है।

(12) शंका :- काफी समय से यह पढ़ते और सुनते आए हैं कि पौराणिक लोग कहते थे कि वेदों को शंखासुर पाताल में लेकर घुस गए हैं, इसलिए अब शेष बचे 18 पुराणों से ही काम चलाओ। ऐसी स्थिति में स्वामी दयानन्द जी ने जर्मनी से चारों वेदों को मंगवा कर पण्डितों को दिखाया और सब को बताया। इससे पता चलता है कि स्वामी जी के आने, से पहले चारों वेद भारत में उपलध ही नहीं रह गए थे। इसीलिए तो विदेश से मंगवाने पड़े। अर्थात् आर्ष ग्रन्थों और इतिहास आदि में वेदों के नाम चर्चा ही थी और वे संहिताओं के रूप में उपलध नहीं थे। यह हमारी हालत हो चुकी थी। क्या यह बात ठीक है।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

-(क) वेदों के विषय में स्वार्थी लोगों ने जन सामान्य में भ्रान्ति फैला रखी थी। जैसे वेदों को शूद्र और स्त्री पढ़-सुन नहीं सकते । वेदों में केवल कर्मकाण्ड है, वेदों में मानवीय इतिहास है आदि-आदि के साथ यह भी भ्रान्ति फैलाई कि वेदों को शंखासुर राक्षस पाताल में ले गया। यह  भ्रान्तियाँ स्वार्थी लोगों के द्वारा फैलाई गई थीं। महर्षि दयानन्द ने इन सभी भ्रान्तियों को दूर किया। महर्षि ने वेद के प्रमाण से ही सिद्ध किया कि वेद के पढ़ने का अधिकार सभी को है, वेद का मुय निहितार्थ परमेश्वर है, वेद में किसीाी प्रकार का मानवीय इतिहास नहीं है। और वेद को हम भारतीयों के आलस्य प्रमाद रूपी शंखासुर ने पाताल में पहुँचा दिया। वेद के विषय में यह विशुद्ध स्पष्टीकरण महर्षि दयानन्द का ही था।

अब आपकी बात पर आते हैं, महर्षि दयानन्द ने जर्मन से चारों वेदों को मंगवाया………। उससे पहले हमारे यहाँ मूल वेद नहीं थे। यह बात अनेक वक्ता, विद्वान् बोलते व लिखते हैं। जब इस बात के वास्तविक तथ्य को देखते हैं तो कुछ और ज्ञात होता है। महर्षि ने जर्मन से वेद मंगवाया वह भी केवल ऋग्वेद, यह बात तो सत्य है किन्तु यह कहना की इससे पहले हमारे यहाँ वेद नहीं थे सर्वथा मिथ्या है। महर्षि के द्वारा जर्मन से मंगवाया हुआ वेद अपने यहाँ उपलध सहिंताओं से मिलान करने के लिए था। अन्यथा वेद तो अपने यहाँ विद्यमान थे ही। आज भी महर्षि दयानन्द के समय वा उनसे पूर्व की पाण्डुलिपियाँ उपलध होती हैं। महर्षि स्वयं अपने जन्मचरित्र में लिखते हैं- ‘‘और मुझको यजुर्वेद की संहिता का आरभ करा के उसमें प्रथम रुद्राध्याय पढ़ाया गया……। इस प्रकार 14 चौदहवें वर्ष की अवस्था के आरभ तक यजुर्वेद की संहिता सपूर्ण और कुछ अन्य वेदों कााी पाठ पूरा हो गया था। ’’ दयानन्द ग्रन्थ माला भाग 2. पृष्ठ 768 महर्षि के इन वचनों से ज्ञात होता है कि वेद अपने यहां पहले से विद्यमान रहे हैं।

दक्षिण के ब्राह्मणों में जो वेद कण्ठस्थ करने की परपरा आज भी है और महर्षि के समय में वा उनसे पूर्व भी थी। कण्ठ किये हुए वेद तो थे ही। जो वेद कण्ठस्थ करते थे निश्चित रूप से ये उनके पास वेद संहिताएँ रही होंगी। इसलिए यह कहना कि वेद महर्षि ने जर्मन से मंगवाये उससे पहले यहाँ वेद नहीं थे सर्वथा अनुचित है।

(13) शंका :- जिज्ञासा- यह पत्र मैं मन्त्रों में ‘‘स्वाहा’’ शद के अर्थ में शंका समाधान हेतु लिख रहा हूँ। प्रायः स्वाहा शद आहुति देते समय बोला जाता है किन्तु कुछ मन्त्रों में स्वभाविक रूप से स्वाहा शद का प्रयोग भी देखा है। अतः आप कृपया यथाशीघ्र स्वाहा शद की सभी प्रकार के विभिन्न अर्थ लिखने बताने की कृपा करें। धन्यवाद। – सुरेन्द्र कुमार आर्य।

समाधान कर्ता :- , विषय :-

समाधान :-

समाधान प्रायः यज्ञ में आहुति देते समय ‘स्वाहा’ शद का प्रयोग किया जाता है। यह स्वाहा शद मूल वेद मन्त्रों में भी अनेकत्र आया है। इस स्वाहा का जो अर्थ मुझे आप्त लोगों का मिला है वहा यहाँ लिख रहा हूँ-

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस स्वाहा शद की व्याया निरुक्त के आधार पर अपनी लघु पुस्तक पञ्चमहायज्ञविधि में सन्ध्योपासना के ‘‘चित्रंदेवानामुदगादनीकम्…….।’’ इस मन्त्र के अन्त में आये स्वाहा को लेकर की और महर्षि ने वेदभाष्य में भी जहाँ-जहाँ स्वाहा शद आया है वहाँ-वहाँ की है। यहाँ पहले पञ्चमहायज्ञविधि वाली व्याया देखते हैं-

‘‘स्वाहा अथात्र स्वाहाशदार्थे प्रमाणम् निरुक्तकारा आहुः- स्वाहाकृतयः स्वाहेत्येतत्सु आहेति वा, स्वा वागाहोति वा, स्वं प्राहेति वा, स्वाहुतं हविर्जुहातीति वा, तासामेषा भवति। – निरु. अ. 8/खं 20।।’’

‘‘स्वाहाशदस्यायमर्थः- (सु आहेति वा) सु सुठु कोमलं मधुंर कल्याणकरे प्रियं वचनं सर्वैर्मनुष्यैः सदा वक्तव्यम्। (स्वा वागाहेति ना) या स्वकीय वाग् ज्ञान मध्ये वर्त्तते, सा यदाह तदेव वागिन्द्रियेण सर्वदा वाच्यम्। (स्वं प्राहेति वा) स्वं स्वकीय पदार्थ प्रत्येव स्वत्वं वाच्यम् न पर पदार्थ प्रति चेति। (स्वाहुतं ह.) सुष्ठुरीत्या संस्कृत्य संस्कृत्य हविः सदाहोतव्यमिति स्वाहाशदस्यपर्य्यायार्याः स्वमेव पदार्थ प्रत्याह वयं सर्वदा सत्यं वदाम इति, न कदाचित् पर पदार्थ प्रति मिथ्या वदेमेति।’’ – पंचमहा.

अर्थात्- 1. जिस क्रिया के द्वारा सुन्दर मधुर कल्याणकर शद या वचन बोले जाते हैं, 2. अपनी वाणी के द्वारा वही वचन बोलना जो हृदय में है,3. अपने ही पदार्थ को अपना कहना दूसरे के पदार्थ में लालसा न करना, 4. सुसंस्कृत हवि सत्यवाणी, सत्य-आचरणयुक्त क्रिया, त्याग एवं सुखकारी क्रिया, सुसंस्कृत हवि प्रदान करने की क्रिया, प्रशंसायुक्त वाणी, अपने पदार्थ के प्रति सदा सच बोलना और दूसरे के पदार्थ के प्रति कभी मिथ्याभाषण न करना आदि स्वाहा के अर्थ हैं। निघण्टु में वाक् को स्वाहा कहा है।

पौराणिक लोग इस स्वाहा के इतने महत्वपूर्ण अर्थ को छोड़कर अपनी काल्पनिक कथा के अनुसार लेते हैं। भागवत पुराण के अनुसार स्वाहा दक्ष की कन्या और अग्नि की पत्नी है। ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड, स्वाहोपायान नामक अध्याय में स्वाहा की उत्पत्ति आदि को विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।

स्वाहा देवहविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु।

पिण्डदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा।।1.

प्रकृतेः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूणिणी ।

बभूव वाविका शक्तिरग्ने स्वाहा स्वकामिनी।।2.

ईषद् हास्यप्रसन्ननास्या भक्तानुग्रकातरा।

उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने । वरंश्रुणु।।3.

विधिस्तद्वचनं श्रुत्वा संभ्रमात् समुवाच ताम्।4.

त्वमग्नेर्दाहिका शक्तिर्भव पत्नी च सुन्दरी।

दग्धुं न शक्तस्त्वकृती हुताशश्च त्वया बिना।।5.

तन्नामोच्चार्य मन्त्रान्ते यो दास्यति हविर्णरः।

सुरेश्यस्तत् प्राप्नुवन्ति सुराः स्वानन्दपूर्वकम्।।6.

इन पुराण के श्लोकों में ‘स्वाहा’ को एक स्त्री के रूप में दर्शाया है। उसको अग्नि की पत्नी कहा है, जैसे अन्य देवियों की स्तुति पुराणों में मिलती है इन श्लोकों में भी स्वाहा रूप अग्नि की पत्नी की स्तुति की गई है। ऊपर जो सत्य शास्त्रोक्त अर्थ लिखा उससे यह पौराणिक मान्यता सर्वथा भिन्न व अवैदिक है।

महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य व अन्य ग्रन्थों में स्वाहा अर्थ लगभग तरेसठ (63)स्थलों पर आया है जो शास्त्र समत है। यहाँ महर्षि दयानन्द द्वारा कुछ और स्थलों पर स्वाहा के लिए किये गये अर्थों को लिखता हूँ-

‘‘सत्यभाषणयुक्ता वाक्, यच्छोभनं वचनं सत्यकथनं, स्वपदार्थान् प्रति ममत्ववचो, मन्त्रोच्चारणेन हवनं चेति स्वाहा-शदार्था विज्ञेयाः।’’ – यजुर्वेद 2.2

जो सत्यभाषणयुक्त वाणी, भ्रमोच्छेदन करने वाला सत्य कथन, अपने ही पदार्थों के प्रति ममत्व अर्थात् अपनी वस्तु को ही अपना कहना और मन्त्रोच्चार के साथ हवन आहुति देना ये सब स्वाहा के अर्थ हैं।

‘‘सुष्ठु जुहोति, गृहणाति, ददाति यथा क्रियया तथा, सुशिक्षितया वाचा, विद्याप्रकाशिकया वाण्या सत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टयावाचा।’’ – यजु. 4.6

जिस क्रिया के द्वारा अच्छे प्रकार ग्रहण किया और दिया जाता है, सुशिक्षा से युक्त, विद्या को प्रकाशित करने वाली, सत्य और प्रियता रूपी गुणों से विशिष्ट वाणी के द्वारा जो क्रिया की जाती है वह स्वाहा कहलाती है।

‘‘पुष्टायादि कारक घृतादि उत्तम पदार्थों के होम करने।’’ स.प्र.

‘‘सत्यमानं, सत्यभाषणं सत्याचरणं सत्यवचनश्रवणश्च’’ – ऋ. भा. भू.।

सत्य को मानना, सत्य भाषण करना, सत्य का आचरण करना और सत्यवचन का सुनना।

‘‘जैसा हृदय में ज्ञान वैसा वाणी से भाषण।’’

– आर्याभि.

ये सब महर्षि द्वारा किये गये स्वाहा के अर्थ हैं। अधिक जानने के लिए महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेद भाष्य व शतपथादि ग्रन्थों का अध्ययन करें। अलम्

– सोमदेव ऋषि उद्यान, अजमेर

(14) शंका :- जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’ पं. गभीर राई अग्निहोत्री, कोलाखाम, पोस्ट लावा बाजार- 734319, कालिपोङ

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

समाधानमहर्षि दयानन्द आर्यावर्त की उन्नति, सुख, समृद्धि का एक कारण यज्ञ को कहतेहैं। महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिखते हैं- ‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’ महर्षि ने यहाँ यज्ञ की महत्ता को प्रकट किया है। यज्ञ से रोग कैसे दूर होंगे? जब हवन की अग्नि में रोगनाशक पदार्थ डालेंगे तब रोग दूर होगें। यज्ञ में माँस आदि पदार्थ डालने से रोग दूर होकर कैसे कभी सुख की वृद्धि हो सकती है? उलटे मांसादि द्रव्य अग्नि में होम करने से तो रोग उत्पन्न हो दुःख की वृद्धि होगी। महर्षि होम से रोग दूर होना और सुख का बढ़ना देख रहे हैं। यज्ञ में मांसादि का डालना कब और क्यों हुआ वह अन्य पाठकों को दृष्टि में रखकर आगे लिखेगें। पहले आपकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। आपने जो यजुर्वेद 21 वें अध्याय के 40-42 मन्त्र उद्धृत किये हैं वह जो उन मन्त्रों का महर्षि ने भाष्य किया है सो ठीक है। इस भाष्य को देखने पर पौराणिकों जैसा भाष्य न लगकर अपितु और दृढ़ता से आर्ष भाष्य दिखता है। यहाँ पाठकों को दृष्टि में रखकर मन्त्र व उसका ऋषि भाष्य लिखते हैं।

(1) होता यक्षदाग्नि ँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाथंस्वाहा मेदसां पृथक् स्वाहा

छागमश्वियाम् स्वाहा मेषं सरस्वत्यै स्वाहाऽऋषभमिन्द्राय

…..पयः सोमः परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज।।

19.40

मन्त्रों को पूरा पदार्थ न लिखकर, जिन पर आपकी जिज्ञासा है उनका अर्थ व मन्त्रों का भावार्थ यहाँ लिखते हैं- (छागम्)  दुःख छेदन करने को (अश्वियाम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करने वालो से (स्वाहा) उत्तम रीति से (मेषम्)सेचन करने हारे को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए।

भावार्थइस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोप्मालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सबके उपकार को करते हैं वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं।

(2) होता यक्षदश्विनौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेताम्…

………मेषस्य वपाया मेदसो जुषताम् हविर्होतर्यज……..

….ऋषभस्य वपाया मेदसो जुषताम्……..   19.41

(छागस्य) बकरा, गौ, भैंस आदि पशु सबन्धी (वपाया) बीज बोने वा सूत के कपड़े आदि बनाने और (मेदसः) चिकने पदार्थ के (हविः) लेने देने योग्य व्यवहार का (जुषेताम्) सेवन करें…………(मेषस्य) मेढ़ा के (वपायाः) बीज को बढ़ाने वाली क्रिया और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) अग्नि में छोड़ने योग्य संस्कार किये हुए अन्न आदि पदार्थ (जुषताम्) सेवन करें…………(ऋषभस्य) बैल की (वपायाः) बढ़ाने वाली रीति और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) देने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करें।

भावार्थ जो मनुष्य पशुओं की संया और बल  को बढ़ाते हैं वे आपाी बलवान् होते और जो पशुओं से उत्पन्न हुए दूध और उससे उत्पन्न हुए  घी का सेवन करते वे कोमल स्वभाव वाले होते हैं और जो खेती करने आदि के लिए इन बैलों को युक्त करते हैं वे धनधान्य युक्त होते हैं।

(3)होता यक्षदश्विनौ सरस्वतीमिन्द्रम…छागैर्नमेषैर्ऋषभैः

सुता …………मधु पिवन्तु मदन्तु व्यन्तु होतर्यज।। 19.42

पदार्थ (छागैः) विनाश करने योग्य पदार्थों वा बकरा आदि पशुओं (न) जैसे तथा (मेषैः) देखने योग्य पदार्थों वा मेढ़ों (ऋषभैः) श्रेष्ठ पदार्थों वा बैलों (सुताः) जो अभिषेक को पाये हुए हों वे।

भावार्थजो संसार के पदार्थों की विद्या, सत्यवाणी और भली भांति रक्षा करने हारे राजा को पाकर पशुओं के दूध आदि पदार्थों से पुष्ट होते हैं वे अच्छे रसयुक्त अच्छे संस्कार किये हुए अन्न आदि जो सुपरीक्षित हों, उनको युक्ति के साथ खा और रसों को पी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के निमित्त अच्छा यत्न करते हैं, वे सदैव सुखी होते हैं।

यहाँ इन मन्त्रों के भाष्य और भावार्थ में कहीं भी पौराणिकता नहीं लग रही है। मन्त्रों में छाग, ऋ षभ, मेष आदि शद आये हैं, उनका महर्षि ने जो युक्त अर्थ था वह किया है। छाग का अर्थ लौकिक भाषा में बकरा होता है किन्तु महर्षि ने छाग का अर्थ दुःख छेदन किया है। मेष का अर्थ सामान्य भेड़ होता है, और महर्षि का अर्थ सेचन करने हारा है। ऐसे ही ऋषभ का सामान्य अर्थ बैल और महर्षि का अर्थ श्रेष्ठ पुरुषार्थ है। जब ऐसे पौराणिकता से परे होकर महर्षि ने वैदिक अर्थ किये हैं तब कै से कोई कह सकता है कि यह पौराणिकों जैसा भाष्य दिखता है। भेड़ बैल, बकरा आदि शद आने मात्र से पौराणिकों जैसा भाष्य नहीं हो जाता।

हाँ यदि महर्षि मन्त्र में आये हुए वपा और मेद का अर्थ चर्बी करके उसकी हवन में आहूति की बात कहते तो यह महर्षि का भाष्य अवश्य पौराणिकों वाला हो जाता किन्तु महर्षि ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा। अपितु वपा का अर्थ महर्षि बीज बढ़ाने वाली क्रिया करते हैं और मेद का अर्थ चिकना पदार्थ जो कि महर्षि ने मन्त्रों के भावार्थ में घी-दूध आदि पदार्थ लिखे हैं।

महर्षि का किया वेद भाष्य तो पौराणिकता से दूर वैदिक रीति का भाष्य है। जो पौराणिकों ने इन्हीं वेद मन्त्रों के अर्थ भेड़, बकरा, बैल आदि पशुओं के मांस को यज्ञ में डालना कर रखे थे, उनको महर्षि ने दूर कर शुद्ध भाष्य किया है। पौराणिक लोगों ने लोक प्रचलित अर्थ वेद के साथ जोड़कर भाष्य किया, जिससे इतना बड़ा अनर्थ हुआ कि संसार के जो सभी मनुष्य एक वेद मत को मानकर चल रहे थे, उसको छोड़ नये-नये मत बनाकर चलने लग गये। यह वही वेदमन्त्रों के अनर्थ करने का परिणाम था।

वपा और मेद का अर्थ चर्बी, वसा लोक में है जो कि यही अर्थ पौराणिकों ने लिया। पौराणिकों को ज्ञात नहीं की वेद में रूढ शद और अर्थों का प्रयोग नहीं है अपितु यौगिक शद और अर्थों का प्रयोग है जो कि महर्षि दयानन्द ने योगिक मानकर ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया है।

यज्ञ में मांस आदि का डालना महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्रह्मणों के आलस्य प्रमाद के कारण हुआ। महर्षि दयानन्द इस  विषय में कहते हैं- ‘‘परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या संदेह?………….।’’

जब ब्राह्मण विद्याहीन हुये तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में तो कथा ही क्या कहानी? जो परपरा से वेदादिशास्त्रों का अर्थ सहित पढ़ने का प्रचार था, वहाी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे। सो पाठ मात्र भी क्षत्रियों आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए, गुरु बन गये, तब छल-कपट-अधर्म भी उनमें बढ़ता चला।…….’’ स.प्र.स. 11।।

यज्ञ में मांसादि का कारण ब्राह्मणों का आलस्य प्रमाद व विषयासक्ति रहा है, यह मान्यता महर्षि दयानन्द की है जो युक्त है।

जब यज्ञों में अथवा यज्ञों के नाम पर पशु हिंसा का प्रचलन हुआ तो अश्वमेघ, गोमेध, नरमेध आदि यज्ञों का यथार्थ स्वरूप न रखकर उल्टा कर दिया अर्थात् अश्वमेघ यज्ञ जो चक्रवर्ती राजा करता था, इसमें इन पोप ब्राह्मणों ने घोड़े के मांस की आहुति का विधान यज्ञ कर दिया। ऐसे गोमेध जो कि गो का अर्थ इन्द्रियाँ अथवा पृथिवी था, जिसमें इन्द्रिय संयमन किया जाता था उस गोमेध यज्ञ में गाय के मांस का विधान इन तथाकथित ब्राह्मणों ने कर दिया। इसके विधान के लिए सूत्रग्रन्थों में ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रक्षेप कर दिया। यज्ञों के यथार्थ अर्थ, स्वरूप को समझकर जो पशु यज्ञ व यजमान् के उपकारक थे, उन पशुओं को मार-मारकर यज्ञकुण्डों में उनकी आहुति देने लगे। धीरे-धीरे अनाचार इतना बढ़ा कि वैदिक मन्त्रों का विनियोग यज्ञों में और उनके माध्यम से पशुहिंसा में होने लगा। जिस प्रकार के मन्त्र ऊपर दिये हैं ऐसे मन्त्रों का विनियोग ब्राह्मण वर्ग यज्ञ में पशुहिंसा के लिए करने लगे थे।

वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा विशेषण रूप में ‘अध्वर’ शद का प्रयोग सैकड़ों स्थानों पर आया है। निघण्टु में ‘ध्वृ’ धातु हिंसार्थक है। अध्वर शद में हिंसा का निषेध है अर्थात् नञ् पूवर्क ध्वृ धातु से अध्वर शद बना है। इस अध्वर शद का निर्वचन करते हुए महर्षि यास्क ने लिखा है- अध्वर इति यज्ञनाम-ध्वरहिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः। (निरुक्त-1.8)

अध्वर यज्ञ का नाम है, जिसका अर्थ हिंसा रहित है। अर्थात् जहाँ हिंसा नहीं होती वह अध्वर=यज्ञ कहलाता है। ऐेसे हिंसा रहित कर्म को भी इन पोपों ने महाहिंसा कारक बना दिया था।

मेध शद ‘मेधृ’ धातु से बना है। मेधृ– मेधाहिंसनयोः संगमे च यह धातुपाठ का सूत्र है। मेधृ धातु के बुद्धि को बढ़ाना, लोगों में एकता या प्रेम को बढ़ाना और हिंसा ये तीन अर्थ हैं। इन तीनों अर्थों में से पोप जी को हिंसा अर्थ पसन्द आया और इससे यज्ञ को भी हिंसक बना दिया। जिस धर्म और समाज में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था वहाँ यज्ञों हिंसा करना एक विडबना ही थी।

वेदों में अनेकत्र ऐसे वचन उपलध हैं जिसमें स्पष्ट ही पशु रक्षा का निर्देश है। यजुर्वेद के प्रारा में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहते हुए कहा है – ‘पशुन्पाहि’ पशु मात्र की रक्षा करो। इसी यजुर्वेद के मन्त्र 1.1 में गौ को ‘अघ्न्या’ न मारने योग्य कहा है। यजु. 6.11 में गृहस्थ को आदेश दिया है- ‘पशुंस्त्रायेथाम्’ पशुओं की रक्षा करो। 14.3 में कहा- ‘द्विपादवचतुष्पात् पाहि’ दो पैर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं की रक्षा करो। वेद में ऐसे-ऐसे निर्देश अनेक स्थलों पर हैं। जो वेद पशुओं की रक्षा करने का निर्देश देता हो उसमें पशुओं की हिंसा का अर्थ निकालना भी पशुता ही है।

महर्षि दयानन्द वेदों के अनुयायी थे। वेदों को सर्वोपरि प्रमाण मानते थे। महर्षि की वेदों के प्रति दृढ़ आस्था थी। और महर्षि ने वेदों को यथार्थ में समझा था। यथार्थरूप में वेद को समझने वाले ऋषि के वेद भाष्य में पौराणिकता कैसे हो सकती है, ऐसा होना सर्वथा असभव है। अस्तु

-ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(15) शंका :- (ङ) पंच भौतिक तत्वों में से एक आकाश भी है और भौतिक तत्व प्रकृति के परमाणुओं से बनते हैं, जिनसे पृथ्वी, सूर्यादि पूरा जगत् बनता है। यदि आकाश को निराकार कहा जाए, तो अभाव से भाव कैसे बनेगा। यदि आकाश साकार है तो ‘ओ3म् खम् ब्रह्म’ क्यों कहते हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करें।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

) आकाश को ऋषि दो प्रकार का मानते हैं, एक- जो शद तन्मात्रा से बना है, दूसरा- जो अवकाश रूप आकाश है। उपरोक्त आकार की परिभाषा 3 के आधार पर देखेंगे तो यह शद सूक्ष्म भूत से निर्मित आकाश भी निराकार कहलायेगा और दूसरा जो अवकाश रूप आकाश है वह तो है ही निराकार। यदि आप इस परिभाषा 3 को न मानकर 1 को माने तो भी कोई बाधा नहीं आयेगी क्योंकि अवकाश रूप आकाश तो निराकार है ही। यदि आप निराकार आकाश को लेकर ‘ओ3म् खं ब्रह्म’ को घटाना चाहते हैं तो इस प्रकार आपकी बात घट जायेगी।

किन्तु यहाँ ‘ओ3म् खं ब्रह्म’ में साकार निराकार को लेकर बात नहीं कही जा रही है, यहाँ तो ब्रह्म की विशालता को कहा जा रहा है कि वह ब्रह्म आकाश के समान व्यापक है, विशाल है, बड़ा है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि वह ब्रह्म आकाश के समान निराकार है। इस प्रकार यहाँ ब्रह्म की व्यापकता को जो आकाश की उपमा देकर कहा है वह उपमा दोनों आकाश से कही जा सकती है क्योंकि दोनों ही आकाश व्यापक है।

(16) शंका :- (घ) ईश्वर अनन्त, असीम है परन्तु आत्मा ससीम है, इसलिए अणुस्वरूप होने के कारण उसकी कुछ न कुछ लबाई-चौड़ाई तो होगी ही। इसलिए क्या उसे हम साकार नहीं कह सकते, क्योंकि उसकी सीमाएँ हैं? निराकार-साकार की परिभाषा क्या है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

(घ) आत्मा ससीम, अणुस्वरूप है, इस कारण उसकी कुछ न कुछ तो लबाई-चौड़ाई होगी ही इसलिए उसको साकार कह सकते हैं। यह कहने वाला इसी कारण उसको साकार मानता है तो वह मानता रहे क्योंकि ऐसा मानने वाला साकार-निराकार की परिभाषा ही नहीं जानता। वह तो महत्स्वरूप को निराकार और अणु स्वरूप को साकार मानता है, जो कि इस आधार पर साकार, निराकार की परिभाषा ठीक नहीं है।

(1) साकार वह है जो प्रकृति से बना हुआ है, इससे अतिरिक्त निराकार।

(2) साकार वह जिसमें रूप, रस, गन्ध आदि पाँचों गुण प्रकट हों, इनसे भिन्न अर्थात् जिसमें ये पाँचों प्रकट न हों, वह निराकार।

(3) साकार वह जिसमें रूप गुण प्रकट रूप में हो, इससे भिन्न निराकार।

उपरोक्त साकारा-निराकार की किसी भी परिभाषा से आत्मा साकार सिद्ध नहीं हो रहा और यदि इन परिभाषाओं

की अवहेलना करके कोई व्यक्ति आत्मा को साकार मानता है तो आत्मा सदा नित्य और चेतन सिद्ध न हो पायेगा जो कि वह सदा नित्य और चेतन है। इसलिए उपरोक्त ऋषि प्रमाणों व साकार-निराकार की परिभाषा के अनुसार आत्मा साकार नहीं अपितु निराकार ही है।

(17) शंका :- (ग) आत्मा निराकार है या साकार? आपने लिखा है कि निराकार है, तो क्या आप किसी आर्ष ग्रन्थ या वेद का प्रमाण इस बारे में दे सकते हैं, जैसे कि परमात्मा के बारे में अनेक दिए जा सकते हैं (वेद, उपनिषद, अन्य आर्ष ग्र्रन्थ)।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

(ग) आत्मा निराकार है वा साकार? मैंने अपने समाधान में आत्मा को निराकार लिखा, मेरे ऐसा लिखने पर आपने आर्ष प्रमाण माँगा है। मैं आपको आर्ष प्रमाण देने से पहले निवेदनपूर्वक पूछता हूँ कि क्या आपने साकार मानने वालों से और साकार के विषय में कोई एक-आध आर्ष प्रमाण प्राप्त किया? अस्तु।

आत्मा निराकार है इसके लिए मैंने पहले भी तीन आर्ष प्रमाण दिये थे। अब फिर लिखता हूँ- सत्यार्थप्रकाश, प्रकाशक- सत्यधर्म प्रकाशन, शोधकर्त्ता-समीक्षक- सपादक व भाष्यकार- डॉ. सुरेन्द्र कुमार, पृष्ठ- 557 व सत्यार्थप्रकाश, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, अजमेर, संस्करण 40वाँ, पृष्ठ- 551।

(1) ‘‘बदला दिये जावेंगे कर्मानुसार ।।और प्याले हैं भरे हुए।। जिन दिन खड़े होंगे रूह और फ़रिश्ते सफ़ बांधकर।।मं. 7/सि. 30/सू. 78/आ. 26/34/38 समीक्षा- यदि कर्मानुसार फल दिया जाता है तो…… और रूह निराकार होने से वहाँ खड़ी क्योंकर हो सकेगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 14

(2) ‘‘इसी प्रकार भक्तों की उपासना के लिए ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, ऐसा भी कुछ लोग कहते हैं, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है, वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं…… प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्य बुद्धि मनुष्य के विषय में रखते हैं।’’ देखें पूना प्रवचन व्या. 1

(3) ‘‘प्रश्न- मूर्त पदार्थों के बिना ध्यान कैसे करते बनेगा?

उत्तर – शद का आकार नहीं तो भी शद ध्यान में आता है वा नहीं? आकाश का आकार नहीं तो भी आकाश का ज्ञान करने में आता है वा नहीं? जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं?…….।’’ पूना प्रवचन व्या. 4

इन सभी स्थलों पर महर्षि ने आत्मा को निराकार लिखा और कहा है। महर्षि की इन बातों की कोई अवहेलना कर आत्मा साकार माने मनवावे तो उसका कौन क्या कर सकता है?

(18) शंका :- (ख) यदि आत्मा अर्थात् मैं या मेरा आत्मा स्थान बदलता है तो मुझे पता क्यों नहीं चलता। किसके बदलने से बदलता है, संचालन कौन करता है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

(ख) यदि आत्मा स्थान बदलता है तो हमें पता क्यों नहीं चलता? इसमें मैं इतना ही कहूँगा कि यह व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर ने ऐसी अवस्था कर रखी है कि आत्मा स्थान बदलता है। यहाँ व्यवस्था ईश्वर की है और संचालक स्वयं आत्मा है।

स्थान बदलता है तो हमें पता क्यों नहीं चलता? इसको तो आप छोड़िए कितनी सारी स्थूल बातों का ही हमें पता नहीं चल पा रहा। कैसे हमारे अन्दर भोजन विखण्डन हो रहा है, उससे रक्तादि का निर्माण कैसे हो रहा है, हमारे पूरे शरीर के ऊपर रोम-बाल कितने हैं, नेत्र की संरचना कैसी है और भी बहुत सारी स्थूल बातों को हम नहीं जान पा रहे, जान पाते। और फिर आत्मा का विषय तो अति सूक्ष्म है। हाँ, हो सकता है इस स्थान वाली स्थिति को योगी लोग जान लेते हों।

(19) शंका :- परोपकारी जुलाई प्रथम में जिज्ञासा नं. 2 का समाधान करते हुए यह तो बता दिया गया है कि आत्मा का शरीर में मुय निवास स्थान हृदय प्रदेश में ही है, परन्तु जिज्ञासु की इस जिज्ञासा का समाधान नहीं बताया गया कि सुषुप्ति, स्वप्न और जागृत अवस्था में शरीर में आत्मा एक ही स्थान पर रहती है या स्थान बदलती रहती है। यदि स्थान बदलती है तो क्यों?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान – आपने जो अपनी पीड़ा कही है वह युक्तियुक्त है। निश्चित रूप से जब एक ही बिन्दु पर दो विद्वान् भिन्न-भिन्न विचार प्रकट करते हैं तो सामान्य जन में भ्रान्ति उत्पन्न होती है। वह दोनों के प्रति विश्वास का भाव रखता है, ऐसा होते हुए वह सामान्य जन किसको नकारे वा किसको स्वीकारें। इस विषय में हमारा निवेदन है कि जब-जब ऐसी परिस्थिति बने तब-तब यह अवश्य देख लें कि किस विद्वान् की बात ऋषि समत है और किसकी बात ऋषियों से मेल नहीं रख पा रही। इन दोनों में जिस किसी की बात ऋषियों से प्रमाणित हो उसी विद्वान् की बात को सामान्य जन स्वीकार करें अन्य की नहीं। अस्तु।

अब मैं आपके एक-एक बिन्दु पर विचार करते हुए समाधान लिखता है-

(क) जुलाई प्रथम-2015 की जिज्ञासा-2 के समाधान में मैंने आत्मा का मुय स्थान इसलिए बताया क्योंकि जिज्ञासु आत्मा-परमात्मा को जानना चाहता है, सो इन दोनों का ज्ञान महर्षि दयानन्द के अनुसार हृदय प्रदेश में ही होता है। जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति में आत्मा के जो स्थान जिस उपनिषद् में कहे हैं, वे स्थान युक्ति व ऋषि दयानन्द के मन्तव्य से मेल नहीं रखते। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-

नेत्रस्थं जागरितं विद्यात् कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।

सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मुर्ध्नि संस्थितम्।।

अर्थात् जागृत अवस्था में आत्मा को नेत्र में जानें, स्वप्न में कण्ठ में रहता है, सुषुप्ति में हृदयस्थ रहता है और तुरीय अवस्था में आत्मा मूर्धा में निवास करता है।

महर्षि दयानन्द ने दश उपनिषदों को प्रमाण माना है, ग्यारहवें श्वेताश्वतर के प्रमाण भी महर्षि ने अपने ग्रन्थों में कहे हैं इसलिए इस उपनिषद् को भी मिलाकर ग्यारह उपनिषदें प्रामाणिक हैं। यह ब्रह्मोपनिषद् इन ग्यारह से अतिरिक्त है, इस उपनिषद् में पौराणिकता से युक्त बातें भी कही गई हैं जो कि आर्षानुकूल नहीं हैं।

उपरोक्त श्लोक में आत्मा के कहे गये स्थान कितने युक्त हैं, आप करके देखे, जागते हुए जब हमें भय, दुःख, अशान्ति वा प्रसन्नता की अनुभूति आँखों  में होती है वा ऋषि द्वारा वर्णित हृदय में। जब ये सारी अनुाूतियाँ हृदय में होती हैं तो आत्मा को वहीं मानना होगा, अर्थात् आत्मा का निवास स्थान हृदय है, इसलिए मैंने उस लेख में लिखा कि आत्मा का मुय निवास स्थान हृदय है। इसी प्रकार स्वप्न में भय अथवा प्रसन्नता अनुभूति कहाँ होती है, उसको देख विचार करें, वह अनुाूति भी हदृय में ही मिलेगी क्योंकि जहाँ आत्मा है, वहीं उसी स्थान पर प्रसन्नता-अप्रसन्नता की अनुभूति वह करता है। इस प्रकार यह कहना असंगत न होगा कि आत्मा का मूल निवास स्थान हृदय है।

(20) शंका :- क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- अवतारवाद

समाधान :-

ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं वे बाल बुद्धि लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकुल सभी शास्त्रों में परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है। एक स्थान विश्ेाष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शद प्रमाण और न ही युक्ति तर्क से। हाँ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– प. 31.3

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः।

जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि।।

– ऋ. 1.10.8

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिाते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है। और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविंर शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः।।

– य. 40.8

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है, इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोईाी प्रमाण ऐसा उपलध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौनसा ऊपर, कौनसा आसमान। क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी के लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैं।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं अर्थात् पृथिवी के ऊपरी भाग पर रहते हैं उनका आसमान उनके शिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है अर्थात् पृथिवी के निचलेााग में रहते हैं उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों को पैरों में आकाश होगा ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्य का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के शिर जिस ओर होंगे उनका आसमान उसी ओर होगा। ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा। इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है  न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि मेंाी होगा। यदि ऐसा होगा तो ईश्वराी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी बाल बुद्धि वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया कि जो ईश्वर सदा पवित्र रहने वाला है, इन ब्रह्माकुमारी वालों का ईश्वर गन्दगी से गन्दा हो जाता है। इनको यह नहीं पता कि यह गन्दगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक। परमेश्वर के अभौतिक ओर सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा। इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना मूर्खता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत, भविष्यत काल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो ऐसा नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होता हैं वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द उत्साह आदि प्रदान करता है। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया है यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी। किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष का भागी हो जायेगा क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हों, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी तो न्याय न हो सकेगा। जब कि परमेश्वर न्याय कारी है उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की यह मान्यता भी ईश्वर के स्वरूप से विपरीत तथा वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है। क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से शान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानाना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुय आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अयुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब धर्म के उत्थान और अर्धा के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है। अस्तु

इन उपरोक्त गीता के श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये कया लिखा –

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विध्ुारोहं कृतः पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवाः।

प्रापो गर्भभवं दुःख भुक्ष्ंव पापाज्जनार्दन।।

इन देवी भागवत के श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा अपतिु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को उसके दुराचार कर्म के कारण शाप दिया उनके शाप के प्रााव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके।

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे ।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अतवार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है अर्थात् इन बन्धन में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम्।।

– 4.21

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विाु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।

(21) शंका :- आचार्य सोमदेव समानीय आचार्य सोमदेव जी को मेरा सादर प्रणाम। जिज्ञासा- श्रद्धास्पद आचार्य जी! मैं उदालगुरी आर्यसमाज का पुरोहित हूँ। मैं 2012 जून महीने में अनुष्ठित योग-साधना-शिविर में उपस्थित रहकर एक सप्ताह तक योग-साधना आप ही से सीखकर आया हूँ। उसी समय से परोपकारिणी सभा की ओर से नियमित रूप से परोपकारी पत्रिका उदालगुरी आर्यसमाज को निःशुल्क मिल रही हूँ। सभा को उदालगुरी आर्यसमाज की ओर से धन्यवाद ज्ञापन करते हैं। आचार्य जी! मैं तीन साल से अन्य द्वारा पूछे गये जिज्ञासा-समाधान पढ़-पढ़ कर उपकृत होता आया हूँ। लेकिन आज मेरे मन में भी एक जिज्ञासा है, समाधान चाहता हूँ। प्रश्न- महोदय! यजुर्वेद के बारे में जानना था- प्रायः यजुर्वेद के बारे में शुक्ल और कृष्ण शद व्यवहार होता है। किन्तु मेरे पास जो वेद हैं, उसमें सिर्फ ‘यजुर्वेद’ लिखा हुआ है। कृष्ण-शुक्ल कुछ भी नहीं लिखा है। कोई पौराणिक पण्डित संकल्प पढ़ते समय ‘शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी’ ऐसााी पढ़ लेते हैं। कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें। – रुद्र शास्त्री, गाँव- गोलमागाँव, पो.जि.- उदालगुरी, आसाम

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

समाधान चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही कारण शुक्ल और कृष्ण कहने का है।

शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रयात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा।

महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है।

आपके प्रश्न का उत्तर तो इतने से ही है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है।

अब यजुर्वेद के विषय में कुछ और लिखते हैं। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातञ्जल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की।

यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कि कात्यायन श्रोतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- 1. बौधायन, 2. आपस्तब, 3. सत्यषाढ़ या हिरण्यकेशी, 4. वैखासन, 5. भारद्वाज, 6. वाधूल, 7. वाराह, 8. मानव श्रौतसूत्र।

महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर ने जीवों को गुण-गुणी के विज्ञान के उपदेश के लिए ऋग्वेद में सब पदार्थों की व्याया करके यजुर्वेद में यह उपदेश किया कि उन पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करने के लिए कर्म किस प्रकार करने चाहिए। उसके लिए जो-जो अङ्ग और जो-जो साधन उपेक्षित हैं, उन सबका प्रकाश यजुर्वेद में किया गया है। जब तक ज्ञान क्रियानिष्ठ नहीं होता, तब तक उससे श्रेष्ठ सुख कभी नहीं हो सकता। विज्ञान क्रिया में निमित्त बनता है, प्रकाशकारक होता है, अविद्या की निवृत्ति करता है, धर्म में प्रवृत्ति करता है और धर्म तथा पुरुषार्थ का मेल कराता है, जो-जो कर्म विज्ञाननिमित्तक होता है, वह-वह सुखजनक हो जाता है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि विज्ञानपूर्वक ही नित्य कर्मानुष्ठान करें। जीव चेतन होने से बिना कर्म किये नहीं रह सकता। कोई भी मनुष्य आत्मा मन, प्राण और इन्द्रियों के संचालन के बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। ‘यजुर्भिः यजन्ति’ इस प्रमाण से यजुर्वेद के मन्त्रों से यजन किया जाता है। जिससे मनुष्य ईश्वर का और धार्मिक विद्वानों का पूजा सत्कार करते हैं, पदार्थों के संगतिकरण द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि किया करते हैं, शुभ विद्या और शुभ गुणों का दान किया करते हैं, यथायोग्य सबके उपकार में शुभ व्यवहार में और विद्वानों में धनादि का व्यय करते हैं वह यजुः है।’’ इस प्रकार यजुर्वेद में मुय करके कर्मकाण्ड का विषय है। महर्षि ने इसी बात को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी कहा है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(22) शंका :- मेरा प्रश्न है कि ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार शरीर की चार अवस्था मानी गई हैं। सुषुप्ति, स्वप्न और जागृत व तुरीय। हम सामान्य पुरुषों की तुरिय न होकर अन्य तीन अवस्थाएँ मैं समझती हूँ। इन तीन अवस्थाओं में आत्मा का निवास कहाँ होता है। ये मेरी शंका है क्योंकि मैंने स्वाध्याय में पाया है- प्रथम आत्मा का ज्ञान होगा तो तभी ईश्वर का ज्ञान होगा, अन्यथा नहीं। त्रैतवाद का दूसरा अंग आत्मा ही है। अतः मैं आत्मा के विषय मैं पूरा-पूरा ज्ञान जानना चाहती हूँ। कृपया मुझे बताईये। – सुमित्रा आर्या, 961/10, आदर्श नगर, सोनीपत, हरियाणा।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

सत्यार्थप्रकाश के 9वें समुल्लास में महर्षि ने मुक्ति साधन कहे हैं, उन साधनों में तीन अवस्थाओं का वर्णन है- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति। वहाँ तुरीय को अवस्था न कहकर ऋषि ने चौथे शरीर रूप में वर्णन किया है। इस तुरीय शरीर की व्याया करते हुए महर्षि लिखते हैं – ‘‘तुरीय शरीर वह कहाता है, जिसमें समाधि से परमात्मा के आनन्दस्वरूप में जीव होते हैं। इसी समाधि संस्कारजन्य शुद्ध शरीर का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है।’’ इस प्रकार यह तुरीय अवस्था न होकर तुरीय शरीर है।

आप शरीर में आत्मा निवास को जानना चाहती हैं, इस विषय में उपनिषद् में लिखा हुआ कि उसका निवास स्थान हृदय है। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उपासना विषय में इस हृदय स्थान की व्याया स्पष्ट की है। यह भी लिखा है कि इसी हृदय प्रदेश में योगी जन अपने आत्मा का मेल परमात्मा से करते हैं। यह मेल जाग्रत अवस्था समाधि में होता है, सुषुप्ति में नहीं। इससे ज्ञात होता है कि आत्मा का शरीर में मुय निवास स्थान हृदय प्रदेश में ही है। इसकी अनुभूति आप स्वयं भी कर सकते हैं, जब हमें भय लगता है तो भय की अनुभूति न तो आँखों में होती न ही कण्ठ व अन्य स्थान पर, यह अनुभूति हृदय प्रदेश में ही होती है। क्योंकि वहाँ आत्मा रहता है, जो कि अनुभव करने वाला है। भय के समान सुख-दुःख आदिकी अनुभूति समझें।

रही आत्मा के स्वरूप की बात तो यह स्वरूप ऋषियों ने शास्त्र में वर्णित कर रखा है। जीवात्मा नित्य है, चेतन, अनादि, निराकार, अल्पज्ञ एकदेशीय, अल्पशक्तिवाला, जन्म-मरण में जाने आने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र, फल भोगने में परतन्त्र है इत्यादि स्वरूप आत्म का वर्णन मिलता है।

लिंग की दृष्टि से देखें तो आत्मा स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंग भेद नहीं। पुरुष का आत्मा अन्य जन्म में स्त्री शरीर में और स्त्री का आत्मा पुरुष शरीर में आता-जाता है, आ-जा सकता है। लिंग निर्धारण तो शरीर के आधार पर होता है, यथार्थ आत्मा का कोई लिंग नहीं है। इस प्रकार आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करें विस्तार से जानकारी मिलेगी। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

(23) शंका :- बहुतायत आर्य समाजों में यज्ञ के पश्चात् ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन…..’’का पाठ किय जाता है। शंका संया 1- यह श्लोक है या कि मन्त्र है? किसी आर्ष ग्रन्थ से उद्घृत किया गया है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान 1- यज्ञ के बाद प्रायः यज्ञ प्रार्थना व अन्य श्लोक, गीत आदि गाये जाते हैं, जा रहे हैं। अनेक बार समय का आाव होने पर भी ये प्रार्थना श्लोक आदि यज्ञ के समय को बढ़ा देते हैं, जिससे जो लेगा अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर यज्ञ करना चाहते हैं तो वे लोग इस लबी प्रक्रिया को देख पीछे हट जाते हैं।

आपको बात दें कि इस यज्ञ प्रक्रिया को ऋषि दयानन्द जितना सरल बना सकते थे, उतना सरल बनाकर गये हैं। इस सरलतम विधि से यज्ञ करते हैं तो अति व्यस्त व्यक्ति भी नित्य प्रति यज्ञार्थ 15-20 मिनट निकाल सकता है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ की पूर्ण आहुति के बाद कुछ करने को नहीं लिखा है, हाँ संस्कार विशेष में ‘वामदेव’ गान की तो बात महर्षि कहते हैं। फिर भी जिसके पास समय है, वह ये यज्ञ प्रार्थना आदि कर सकता है, इसके करने से कोई विशेष पुण्य मिलेगा अथवा न करने से पाप हो जायेगा ऐसी कोई बात प्रतीत नहीं होती।

अब आपकी बात पर आते हैं- आपने जो ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन…..’’ विषय में पूछा है कि यह मन्त्र है या श्लोक? तो हम आपको बता दें कि यह किसी वेद का मन्त्र नहीं है। यह तो पुराण का श्लोक है। गरुड़ पुराण  में श्लोक कुछ पाठ भेद से दिया गया है। पुराण में यह श्लोक इस रूप में है-

सर्वेषां मंगलं भूयात् सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्।।

– ग. पु. अ. 35.51

पुराण में ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ के स्थान पर ‘‘सर्वेषां मंगलं भूयात्’’ है। आपकी जिज्ञासा इस श्लोक के कविताशं पर है। आप ‘‘कोई न हो दुःखारी’’ का अर्थ ‘‘क ोई न हो दुःख का शत्रु’’ ऐसा निकाल रहे हैं अर्थात् इस अर्थ के अनुसार सभी दुःखी होवें, ऐसा अभिप्राय आयेगा। इस प्रकार का अर्थ करने में आपका हेतु है ‘पुजारी’ शद इस पुजारी शद का अर्थ आप पूजा का शत्रु कर रहे हैं और इसमें महर्षि दयानन्द का साक्ष्य भी दे रहे हैं। हम आपको बता दें ‘पुजारी’ शद का अर्थ तो ‘‘पूजा करने वाला’’ ही है। इसी अर्थ को ‘पुजारी’ शद लिए है, कहा जा रहा है। महर्षि ने जो अर्थ ‘पूजा का शत्रु’ किया है वह आजकल के पूजा करने वालों पर विनोद में (मजाक में) व्यंग किया है। मात्र वहाँ महर्षि विनोद में यह अर्थ कर रहे हैं, न कि यथार्थ में। यदि महर्षि से कोई यथार्थ में इसका अर्थ पूछता तो महर्षि ‘पूजा करने वाला’ इस अर्थ को ही कहते बताते क्योंकि इस शद का अर्थ ही यह है।

आपने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए ‘मुरारि’ शद दिया है, यह पहली  बार आपने ठीक लिखा किन्तु इससे आपकी बात सिद्ध न हुई तो इसको बिगाड़ कर ‘मुरारी’ लिख दिया, जो कि अयुक्त है। कहीं भी किसी भी कोश में आपको ‘मुरारि’ (मुर नामक दैत्य को मारने वाला= कृष्ण) के स्थान पर ‘मुरारी’ नहीं मिलेगा। इसलिए जिस बात को आप सिद्ध करना चाहते हैं, वह सिद्ध न होगी।

आपने यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया की मात्रा का भेद न करें। आप भाषा विज्ञान शद विज्ञान को जानेंगे-समझेंगे तो ऐसा भ्रम नहीं होगा। जो शद जैसा है, वह अपने उस स्वरूप के अनुसार, प्रकरण और प्रसंग अनुसार अर्थ देता है। ऐसा ही यहाँ भी समझें।

(24) शंका :- हमारे चार वेद हैं और वे चारों ज्ञान के भण्डार हैं, लेकिन श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवद्गीता में सामवेद को ही अपनी विभूति क्यों कहा है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

चारों वेद ज्ञान के भण्डार हैं, यह ठीक है, चारों ही वेदों का बराबर महत्व  है। वेदों के अपने विषय हैं- ज्ञान, कर्म, उपासना, विज्ञान, इनमें से किसी को सभी प्रिय हो सकते हैं और किसी को एक या दो। हो सकता है, जिस समय कृष्ण जी ने यह कहा, उस समय उनको उपासना प्रिय हो, जो कि सामवेद का विषय है।

आपको बता दें कि साम नाम केवल सामवेद का ही नहीं है, अपितु चारों वेदों में जो ऋचाएँ स्वर सहित गाई जाती हैं, उनका नाम साम है। इस आधार पर केवल सामवेद ही विभूति नहीं है, अपितु चारों वेदों में गायी जाने वाली सभी ऋचाएँ विभूति हैं। श्रीकृष्ण जी योगीराज थे, योगीजन उपासना प्रिय होते हैं, उपासना की दृष्टि से उन्होंने सामवेद को अधिक मह        व दिया होगा। अस्तु।

(25) शंका :- उपनिषद् ग्यारह हैं, उनके नाम मेरे पास हैं, लेकिन प्रत्येक उपनिषद् में किस-किस प्रकार का ज्ञान है, वह नहीं मिलता या प्राप्त है।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

आपने कहा ‘उपनिषदों में किस प्रकार का ज्ञान है? वह नहीं मिलता अर्थात् क्या विषय है, यह नहीं मिलता’ यह कहना उपयुक्त नहीं, क्योंकि उपनिषदों को पढ़ने से इनमें आये विषय का स्पष्ट ज्ञान होता है। उपनिषदों में मुख्य आत्मा-परमात्मा का विषय है। आत्मा व परमात्मा के स्वरूप को उपनिषद् बताते हैं। इनकी प्राप्ति कैसे होती है, यह उपनिषद् बताते हैं, प्रकृति का वर्णन भी उपनिषदों में आया है। पुनर्जन्म, सूक्ष्मशरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि इन सबके विषय में उपनिषद् वर्णन करते हैं। इतना सब उपनिषदों से ज्ञात होता है, इससे आप उपनिषदों के विषय को जान सकते हैं।

(26) शंका :- अब तक कितने मनु हुए हैं, उनके क्या नाम हैं, उनमें से प्रत्येक ने किस प्रकार का ज्ञान दिया? श्रीमद् भगवद्गीता में योगीराज श्रीकृष्ण ने चौदह मनु को रेफर किया है, परन्तु इससे अधिक कुछ नहीं कहा।

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

अब तक कितने मनु हुए? इस विषय में सर्वांशरूप से तो कुछ नहीं कह सकते। मनु नाम के कितने ऋषि वा मनुष्य हुए, यह कहना कठिन है। हाँ, मनुस्मृति के रचनाकार महर्षि मनु वा स्वायम्भुव मनु का इतिहास तो अनेकत्र उपलब्ध  होता है, जो कि आदि सृष्टि में हुए हैं, किन्तु और कितने तथा कौन-कौन नाम वाले मनु हुए, इसका इतिहास प्राप्त नहीं है। हाँ, अनार्ष ग्रन्थ भागवत पुराण में चौदह मनुओं का व उनके पुत्रादि का वर्णन मिलता है, किन्तु यह तो उनकी कल्पना ही लगती है।

मन्वन्तर रूपी काल के नाम तो उपलब्ध  हैं, जैसे दिनों के नाम रवि, सोम एवं महिनों के नाम चैत्र, ज्येष्ठ आदि हैं, उसी प्रकार चौदह मन्वन्तरों के भी नाम हैं- १. स्वायम्भुव, २. स्वरोचिष, ३. उ      ाम, ४. तामस, ५. रैवत, ६. चाक्षुष, ७. वैवस्वत, ८. सावर्णि, ९. दक्षसावर्णि, १०. ब्रह्मसावर्णि, ११. धर्मसावर्णि, १२. रुद्रसावर्णि, १३. देव सावर्णि, १४. इन्द्रसावर्णि। ये मनु हैं, अथवा ये चौदह मन्वन्तर के नाम हैं।

इस विषय में अनार्ष ग्रन्थ भागवत पुराण में लिखा है-

राजंश्चतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते।

प्रोक्तन्येभिर्मितः कल्पो युगसाहस्रपर्ययः।।

– ८.१३.३६

हे राजन! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों ही कालों में चलते रहते हैं। इन्हीं के द्वारा एक सहस्र चतुर्युगी वाले कल्प के समय की गणना की जाती है।

ये चौदह नाम मनु के मिलते हैं और ये समय (काल) के नाम हैं। काल जड़ है, चेतन नहीं है। जड़ होते हुए ये चेतन की भाँति किसी प्रकार का ज्ञान देने में असमर्थ हैं, ज्ञान नहीं दे सकते।

(27) शंका :- श्रुतियाँ कितनी हैं, उनके क्या-क्या नाम हैं, उनके लेखक/सृजन कर्ता कौन हैं, उनमें किस विषय का ज्ञान है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

महर्षि दयानन्द के अनुसार वेद को ही श्रुति कहते हैं, इस आधार पर श्रुतियों की संख्या चार ही रहेंगी अर्थात् श्रुतियाँ चार हैं। महर्षि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के वेदोत्पत्ति  विषय में प्रश्नोत्तर  पूर्वक लिखते हैं-

‘‘प्रश्न- वेद और श्रुति ये दो नाम ऋग्वेदादि संहिताओं के क्यों हुए हैं? उत्तर – अर्थभेद से। क्योंकि एक ‘विद’ धातु ज्ञानार्थ है, दूसरा ‘विद’ सत्तार्थ  है, तीसरे ‘विदलृ’ का अर्थ लाभ हैं, चौथे ‘विद’ का अर्थ विचार है। इन चार धातुओं से करण और अधिकरण कारक में ‘घञ्’ प्रत्यय करने से ‘वेद’ शब्द  सिद्ध होता है तथा ‘श्रु’ धातु श्रवण अर्थ में है। इससे करण कारक में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के होने से ‘श्रुति’ शब्द  सिद्ध होता है। जिनके पढ़ने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ़के विद्वान् होते हैं, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक सत्यासत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक्संहितादि का वेद नाम है। वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेके हम लोग पर्यन्त। जिससे सब विद्याओं को सुनते आते हैं, इससे वेदों का ‘श्रुति’ नाम पड़ा है, क्योंकि किसी ने वेदों के बनाने वाले देहधारी को साक्षात् कभी नहीं देखा। इस कारण से जाना गया कि वेद निराकार ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं और सुनते-सुनाते ही आज पर्यन्त सब लोग चले आते हैं।’’

महर्षि के इन वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि वेद ही श्रुति है। अब रही नाम की बात तो वह भी सरलता से पता चलता है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये श्रुतियों के नाम हैं।

इन श्रुतियों का सृजन कर्ता  कोई देहधारी मनुष्य नहीं था। इनका सृजन कर्ता  तो निराकार, सर्वज्ञ परमेश्वर ही है। इनका ज्ञान परमेश्वर ने आदि सृष्टि में ऋषियों को दिया। किन ऋषियों ने कब इस श्रुतिरूपी ज्ञान को लिपिबद्ध किया अर्थात् लिखा, इसका इतिहास प्राप्त नहीं है, अर्थात् हम यह नहीं बता सकते कि इनको लिखने वाले ऋषि कौन थे और इनको किस समय लिखा।

इनमें किस विषय का ज्ञान है, इसको विस्तार से जानने के लिए महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका का अध्ययन करें।

श्रुति के विषय में हमने महर्षि दयानन्द की मान्यता को रखा, जिसको हम भी स्वीकारते हैं। अब अन्य विद्वानों की मान्यता को यहाँ थोड़ा लिखते हैं। कुछ विद्वान् श्रुति से मन्त्र भाग व ब्राह्मण भाग दोनों लेते हैं, अर्थात् मूल वेद और उसके व्याख्या ग्रन्थ शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थ। उनका कहना है- ‘श्रूयतेऽनया सा श्रुतिः’ जिससे अर्थ को सुना जाये अर्थात् जाना जाये। ऐसी व्याख्या करके वे दोनों अर्थ ग्रहण करते हैं।

ऐसी मान्यता वाले विद्वान्, जब कभी श्रुति की बात आती है तो व्याख्यान ग्रन्थ ब्राह्मणों का भी प्रमाण मानते हैं, जबकि महर्षि दयानन्द श्रुति से वेद को प्रमाण मानते हैं। इस विषय में आर्यसमाज के योग्य विद्वान् पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने भी अपना विचार रखा है, वे लिखते हैं- ‘‘हमारे विचार से ‘श्रुति’ शब्द  का प्रधान अर्थ गुरु परम्परा से नियमतः अधीयमान मन्त्रों का ही है, परन्तु व्याख्येय-व्याख्यानसम्बन्ध रूप लक्षणा से इनका प्रयोग ब्राह्मण वचनों के लिए भी होता है।’’

(28) शंका :- ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके क्या नाम हैं, उनके रचयिता/लेखक कौन हैं, प्रत्येक ग्रन्थ में क्या ज्ञान है?

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

मुझे आपके व अन्य विद्वानों के लेख, जो कि परोपकारी पत्रिका में समय-समय पर प्रकाश्ति होते हैं, उनमें हमारी वैदिक संस्कृति से सम्बन्धित ग्रन्थों का सन्दर्भ दिया  जाता है। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उनके

बारे में अधिक ज्ञान नहीं रखता और कदाचित कोई इस प्रकार की पुस्तक भी नहीं है, जिसमें उन ग्रन्थों के नाम, उनके प्रकार, लेखक/रचयिता तथा उनमें क्या ज्ञान छिपा हुआ है, प्रकाशित हों।

मेरे प्रश्न इस प्रकार हैं-

१. ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके क्या नाम हैं, उनके रचयिता/लेखक कौन हैं, प्रत्येक ग्रन्थ में क्या ज्ञान है?

डॉ. वेदप्रकाश गुप्ता, एफ १-३-३, सेक्टर ३-४, ज्ञानदीप, वाशी, नवी मुम्बई-४००७०३

समाधानमानव संस्कृति, सभ्यता  व ज्ञान के भण्डार, वेद व वेदानुकूल ऋषियों के ग्रन्थ हैं। वेद स्वयं ईश्वर द्वारा बनाये हुए अपौरुषेय हैं, जिससे वे स्वतः प्रमाण हैं अर्थात् वेद के लिए स्वयं वेद ही प्रमाण हैं। जैसे सूर्य को दिखाने के लिए अन्य किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं होती, सूर्य तो अपने आप दिखने में समर्थ है, वैसे ही वेद को जानें।

वेद मन्त्र भाग हैं, मन्त्र संहिताएँ हैं अर्थात् मूल मन्त्र भाग वेद कहलाते हैं। उनके उन मन्त्रों के जो व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं। आप इन्हीं ब्राह्मण ग्रन्थों के विषय में जानना चाहते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके लेखक कौन हैं, उनके विषय क्या हैं, यह लिखने से पहले यह देख लेते हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थ किनको कहते हैं? इनकी अपर संज्ञाएँ क्या हैं आदि।

महर्षि दयानन्द ने ब्राह्मण ग्रन्थ बताने के लिए अपनी पुस्तक अनुभ्रमोच्छेदन में लिखा है- ‘‘जिससे ये ऐतरेय आदि ग्रन्थ ब्रह्म अर्थात् वेदों के व्याख्यान भाग हैं, अर्थात् ब्रह्मणां वेदानामिमानि व्याख्यानानि ब्राह्मणानि। अर्थात् शेष भूतानि सन्तीति।’’ इससे महर्षि कहना चाहते हैं कि जो ऐतरेय आदि वेद मन्त्रों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं, वे ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाते हैं।

और भी-‘‘वेद का अपर नाम ब्रह्म है। -शतपथ ७.१.१५ में कहा है- ‘‘ब्रह्म वै मन्त्रः’’, अतः वेद मन्त्रों की व्याख्या प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थों की ब्राह्मण संज्ञा है। ‘ब्रह्म’ श       द का अर्थ यज्ञ भी है। इस आधार पर मन्त्रों की व्याख्या करने के साथ-साथ यज्ञ में उनका विनियोग करने तथा कर्मकाण्ड की व्याख्या एवं विवरण प्रस्तुत करने के कारण भी उन्हें ब्राह्मण नाम से अभिहित किया गया है। भट्टभास्कर ने कर्मकाण्ड तथा मन्त्रों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थों क ो ब्राह्मण कहा है-

‘ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां व्याख्यानग्रन्थः’

– तै    िारीय संहिता १.५.१का भाष्य।’’ स.भा

ब्राह्मण ग्रन्थों के ही अपर नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी हैं। इन ब्राह्मण ग्रन्थों में जो (देवासुराः संप ाा आसन्) अर्थात् देव (विद्वान्) असुर (मूर्ख) ये दोनों युद्ध करने को तत्पर हुए थे- इत्यादि कथा भाग है, उसका इतिहास नाम है, जिसमें

‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’,

‘आत्मा वा इदमेकमेवाग्र आसीन्नान्यत् किंचन मिषत्’

‘आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास’,

‘इदं वा अग्रे नैव किंचिदासीत्।’

इस प्रकार के वर्णन पूर्वक जगत् की उत्प    िा को कहा है, वह भाग पुराण कहलाता है।

‘‘कतपा मन्त्रार्थसामर्थ्यप्रकाशकाः।’’ जो वेदमन्त्रों के अर्थ अर्थात् जिनमें द्रव्यों के सामर्थ्य का कथन किया है, उनका नाम कल्प है।

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य, जनक, गार्गी, मैत्रेयी आदि की कथाओं का नाम ‘गाथा’ है।

जिनमें नर अर्थात् मनुष्यों ने ईश्वर, धर्मादि पदार्थ विद्याओं और मनुष्यों की प्रशंसा की है, उनको नाराशंसी कहते हैं। यह वर्णन महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेद संज्ञा विचार प्रकरण में किया है।

अब आपके मूल प्रश्न पर आते हैं- ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं? आज वर्तमान में चार ब्राह्मण मुख्य रूप से प्रचलित हैं, किन्तु ब्राह्मणों की संख्या इतनी ही है, ऐसा नहीं है। विद्वानों का ऐसा मानना है कि वेद की सभी शाखाओं के अपने-अपने ब्राह्मण थे। उनमें से अनेकों के आज नाम तक ज्ञात नहीं हैं। जो ब्राह्मण आज उपल   ध हैं वे लगभग अठारह हैं और जो उपलध नहीं हैं, केवल जिनके नामों का पता मिलता है, उनकी संख्या लगभग इक्कीस है। इन ब्राह्मण ग्रन्थों, लेखकों अथवा प्रवक्ताओं के नाम कुछ को छोड़कर प्रायः नहीं मिलते हैं। इसमें कारण ऋषियों की यश कामना से रहितता होना लगता है।

प्रसिद्ध प्रचलित चार ब्राह्मण ऐतरेय, शतपथ, ताण्ड्य और गोपथ ब्राह्मण हैं। अब कौन-सा ब्राह्मण किस वेद का है, उस वेद के कितने ब्राह्मण हैं यह लिखते हैं। ऋग्वेद के मुख्य तीन ब्राह्मण हैं-

. ऐतरेय ब्राह्मण :इस ब्राह्मण का प्रवक्ता इतरा का पुत्र ऐतरेय महीदास था। इस ऐतरेय ब्राह्मण में आठ पंचिकाएँ हैं। प्रत्येक पंचिका में पाँच अध्याय हैं। सम्पूर्ण ब्राह्मण में चालीस अध्याय हैं।

. कौषीतकि ब्राह्मण :इस ग्रन्थ का परिमाण तीस अध्यायों का है। इस ग्रन्थ के प्रवचनक     र्ाा कौषीतकि अथवा शाङ्खायन इन दोनों में से कोई एक है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है।

. शाङ्खायन ब्राह्मणः इस ग्रन्थ में तीस अध्याय हैं। इस ग्रन्थ के नाम से पता लगता है कि इसके प्रणेता शाङ्खायन रहे होंगे।

यजुर्वेद के भी तीन ब्राह्मण उपल    ध होते हैं-

. माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण :यह ब्राह्मण सबसे अधिक प्रचलन में है । इसके नाम के अनुसार इसमें एक सौ अध्याय हैं। इस ब्राह्मण में चौदह काण्ड, एक सौ अध्याय, चार सौ अड़तीस ब्राह्मण और सात हजार छः सौ चौबीस कण्डिकाएँ हैं। इसका दूसरा नाम वाजसनेय ब्राह्मण भी मिलता है। इसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य रहे हैं।

. काण्व शतपथ ब्राह्मणः इस ब्राह्मण के काण्ड विभाग या वाक्य रचना के स्वतन्त्र भेद को छोड़कर यह ब्राह्मण माध्यन्दिन शतपथ के समान ही है। इसमें एक सौ चार अध्याय, चार सौ चवालीस ब्राह्मण और पाँच हजार आठ सौ पैंसठ कण्डिकाएँ हैं।

. कृष्ण यजुर्वेदीय तै       िारीय ब्राह्मणः इस ब्राह्मण का संकलन वेशम्पायन के शिष्य ति िारि ने किया था। इस ब्राह्मण में तीन अष्टक हैं।

सामवेद के ग्यारह ब्राह्मण मिलते हैं-

. ताण्ड्य ब्राह्मण-सामवेद का यह ब्राह्मण मुख्य रूप से प्रचलित है। इसका संकलन सामविधान ब्राह्मण (२.९३) के अनुसार ताण्डि नामक एक आचार्य ने किया था। इसमें पच्चीस प्रपाठक और तीन सौ सैंतालीस खण्ड हैं।

. षड्विंश ब्राह्मण-इस ब्राह्मण का संकलन भी विद्वान् लोग आचार्य ताण्डि अथवा उनके निकटवर्ती शिष्यों के द्वारा किया गया मानते हैं। इस ब्राह्मण में पाँच प्रपाठक और अड़तालीस खण्ड हैं।

. मन्त्र ब्राह्मण-इस ब्राह्मण का परिमाण दो प्रपाठकों और सोलह खण्डों का है।

. दैवत अथवा देवताध्याय ब्राह्मण-दैवत ब्राह्मण का दूसरा नाम देवताध्याय ब्राह्मण है। यह ब्राह्मण आकार की दृष्टि से छोटा-सा ही है, इसके केवल तीन खण्ड व बासठ कण्डिकाएँ हैं।

. आर्षेय ब्राह्मण-यह ब्राह्मण सामवेद की कौथुम शाखा को मानने वालों का ही है। इसमें सामवेद के सामगान के नामों का मुख्यतः वर्णन है। इसमें तीन प्रपाठक और बयासी खण्ड हैं।

. सामविधान ब्राह्मण-इस ब्राह्मण में अभिचार आदि कर्मों का बहुत वर्णन है। इसमें तीन प्रपाठक व पच्चीस खण्ड हैं।

. संहितोपनिषद् ब्राह्मण-यह बहुत छोटा-सा है। सारा ही एक प्रपाठक और पाँच खण्डों का है। इस ब्राह्मण में सामवेद के अरण्य गान व ग्रामगेय गान का वर्णन है।

. वंश ब्राह्मण-यह भी लघु ही है, केवल तीन खण्ड का ही है। इसमें सामवेद के आचार्यों की वंश परम्परा दी गई है।

. जैमिनीय ब्राह्मण-इस ब्राह्मण का संकलन महर्षि व्यास के प्रसिद्ध शिष्य सामवेद के आचार्य जैमिनी और उनके शिष्य तवलकार का किया हुआ है। इसके मुख्य तीन भाग है। पहले में तीन सौ साठ खण्ड, दूसरे में चार सौ सैंतीस  और तीसरे में तीन सौ पिच्चासी खण्ड हैं।

१०. जैमिनीय आर्षेय और ११. जैमिनीयोपनिषद्  ब्राह्मण-ये ग्यारह सामवेद के ब्राह्मण मिलते हैं।

अथर्ववेद का एक ही ब्राह्मण ‘गोपथ ब्राह्मण’उपल   ध होता है। इस ब्राह्मण के पूर्व और उ   ार दो भाग हैं। पूर्व भाग में पाँच प्रपाठक और उ    ार में छः प्रपाठक हैं, कुल मिलाकर ग्यारह प्रपाठक का यह ब्राह्मण है। इसमें एक ही स्थान पर बहुत यज्ञों के नाम लिखे हुए हैं। इसमें मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण का एक ही स्थान पर उल्लेख है। इसके पूर्व भाग में विपाट् नदी के मध्य में बड़ी-बड़ी शिलाओं पर वशिष्ठ के आश्रमों का वर्णन है। यह अनेक प्राचीन साम्राज्यों का कथन करता है। यही ब्राह्मण ओंकार की तीन मात्राओं का वर्णन करता है।

चारों वेदों के ये अठारह ब्राह्मण उपल       ध हैं। इनका विषय है- आत्मा का अस्तित्व और पुनर्जन्म, अमर आत्मा, परमेश्वर (प्रजापति), तीन लोक, मानव आयु व उसके पूर्ण भोगने के उपाय, सुखी गृहस्थ, गृहस्थ में स्त्री का स्थान, विवाह, सत्य, पाप का स्वरूप, यज्ञ का स्वरूप, यज्ञों के मुख्य भेद, यज्ञ तथा पाप विमोचन, यज्ञ और बलिदान व देवता, आपः (जल) का विषय, हिरण्यगर्भ= तेजोमय महद्अण्ड का वर्णन, अग्नि का स्वरूप, वृष्टि का वर्णन, वर्षा, समुद्र, सूर्य, प्राणायाम का कथन, पृथिवी का इतिहास अर्थात् आर्द्रा (शिथिल पृथिवी), आर्द्रा पृथिवी पर क्रमशः सृष्टियाँ – फेन, मृत ऊष, सिकता, शर्करा, अश्मा, अयः और हिरण्यम् औषधि वनस्पति का प्रादुर्भाव, आग्नेयी पृथिवी, अग्निगर्भा पृथिवी, परिमण्डला पृथिवी, अयस्मयी पृथिवी, सर्व राज्ञी पृथिवी आदि, अन्तरिक्ष मरुत, अन्तरिक्षस्थ पशु, धातुओं को टाँका लगाना, रेखागणित व स्वर्ग- ये इतने सारे इन ब्राह्मण ग्रन्थों के विषय हैं, अर्थात् इतने विषयों का ज्ञान कराने वाले ये हैं।

कुछ अनुपल ध ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम भी मिलते हैं, इनके विषय में विस्तार से जानने के लिए विद्वान् पण्डित भगवद्द   ा जी द्वारा लिखित विशेष ग्रन्थ ‘वैदिक वाङ्मय का इतिहास’ तृतीय खण्ड देखना चाहिए। हमने भी यह सब इसी ग्रन्थ को देखकर लिखा है।

आपके अन्य प्रश्नों के उत्तर  आगे लिखेंगे, अस्तु।

ऋषिउद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

(29) शंका :- मुक्ति किसे मिलेगी?

समाधान कर्ता :- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु , विषय :-

समाधान :-

इस विषय पर श्री स्वामी जी और सोमदेव जी तो लिखते ही रहते हैं। एक प्रेमी ने इस विषय में एक प्रश्न पूछा है, तो आस्तिक वेदाभिमानी होने से कुछ निवेदन करने का मुझे भी अधिकार है। उत्कृष्ट शंका समाधान में कहते हैं, यह घोषणा की गई कि मुक्ति केवल संन्यासी को ही मिल सकती है। प्रश्नकर्ता  ने इसके लिए वेद तथा ऋषि का प्रमाण माँगा है।

प्रश्नकर्ता की सेवा में नम्र निवेदन है कि स्वाध्याय तो कुमार अवस्था से ही करता चला आया हूँ। बहुत कुछ पढ़ा है और उससे भी अधिक सुना है, परन्तु मेरे सुनने व पढ़ने में तो उत्कृष्ट समाधान की बात की पुष्टि के लिए कभी कोई प्रमाण नहीं आया। स्वामी आत्मानन्द जी, वेदानन्द जी, प्रसिद्ध योगी महात्मा हरिराम जी, श्रद्धेय उपाध्याय जी, आचार्य उदयवीर जी को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

ऋषि-जीवन से मैं उपरोक्त कथन के तीन प्रमाण दे सकता हूँ। इनमें से एक स्वामी सर्वानन्द जी भी दिया करते थे। स्वामी सत्यानन्द जी आदि तीनों प्रमाण दिया करते थे। गृहस्थ में जाना यदि मुक्ति में बाधक व पाप है तो फिर गृहस्थ को धरती का स्वर्ग, सब आश्रमों का आधार क्यों कहा गया? ओ३म् के जप से ही मुक्ति हो जायेगी, यह कथन क्या मिथ्या है? आचार्य उदयवीर की कोटि के महापण्डित ने ऐसा लिखा है। मुक्ति सद्ज्ञान, सत्कर्मों व उपासना से ही होती है। सन्त तुकाराम जी ने भी लिखा है कि सत्कर्मों के बिना मुक्ति नहीं। स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज ने तो ‘सच्चिदानन्द’ के जप से मुक्ति की प्राप्ति को सम्भव बताया है। उपनिषदों में, दर्शनों में, मनुस्मृति में कहीं नहीं आता कि संन्यासी को ही मुक्ति मिल सकती है।

यह भी कहा जाता है कि चारों वेदों का, दर्शनों का, उपनिषदों का ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है। अरे भाई! परमात्मा ने तो सर्वकल्याण के लिए चार वेदों का प्रकाश किया। दर्शन आदि देना, क्या ईश्वर भूल गया था? इन्हें पहले ही दे देता। मेरा मत है कि उत्कृष्ट समाधान का कथन एक अति है।

(30) शंका :- प्रभु कैसे ज्ञान देता है

समाधान कर्ता :- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु , विषय :- vedic dharm

समाधान :-

प्रभु कैसे ज्ञान देता है?ः- परोपकारी के एक अंक में बताया था कि मेरे साठ वर्ष के ऊपर के सार्वजनिक जीवन में उदयपुर के आर्य पुरुष श्री प्रकाश जी श्रीमाली ने घर के बच्चों, बड़ों सबकी शंकायें पूछकर लिखलीं और पहली बार मुझे उनके प्रश्नों का उत्तर  देने का सुखद अनुभव हुआ। प्रधान जी के दस वर्ष के पौत्र ने ईश्वरीय ज्ञान के आविर्भाव पर प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछकर अपने संस्कारों व परिवार के वातावरण की मुझ पर अमिट छाप लगा दी।

उसका पूरक प्रश्न था कि सर्वव्यापक प्रभु बिना वाणी के हृदय में कैसे ज्ञान देता है?

स्वामी सत्यप्रकाश जी का उत्तर स्वामी सत्यप्रकाश जी के श्रीमुख से सुना अनूठा उत्तर जब मैंने दिया तो सारा परिवार झूम उठा। उस बालक की समझ में भी वेद का सिद्धान्त आ गया। स्वामी जी कहा करते थे- ‘‘आदि सृष्टि में प्रभु ने ऋषियों को कैसे ज्ञान दिया? कहा, जैसे वह आज देता है। आप एक ग्राम चीनी यहाँ रख दें। थोड़ी देर में कई चींटियाँ पंक्तिबद्ध यहाँ आ जायेंगी, परन्तु चीनी सरीखे नमक का एक बोरा यहाँ रख दें, एक भी चींटी पास नहीं आयेगी। चीनी व नमक का यह भेद उनको किसने सिखाया, पशुओं को स्वाभाविक ज्ञान उसी ईश्वर की देन है। उस प्रभु ने जीवन बिताने के लिए आवश्यक ज्ञान दिया है। ईश्वरीय ज्ञान के अनादित्व, ईश्वर के स्वरूप, उसकी दया व न्याय, कर्मफल सिद्धान्त, पाप का क्षमा होना, जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता, मांसाहार आदि पर जिस शैली में पं. चमूपति जी ने लिखा है, उसे जानने, समझने व समझाने का समाज में कोई सामूहिक प्रयास नहीं हुआ। पं. चमूपति जी की पुस्तकों को इस्लाम की विवेचना और आक्षेपों का उत्तर मात्र समझा गया।

(31) शंका :- नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- आर्य समाज

समाधान :-

नरक, स्वर्ग व मोक्ष  क्या हैं ?  – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मैं आपसे अपनी ही नहीं अपितु आम व्यक्तियों की जिज्ञासा हेतु कुछ जानना चाहता हूँ। कृपया समाधान कर कृतार्थ करें-

(क) तमाम कथावाचक, उपदेशक, साधु व सन्त नरक, स्वर्ग व मोक्ष की बातें करते हैं। आप इन को विस्तृत रूप से समझायें और अपने विचार दें।

समाधन– (क) वेद विरुद्ध मत-सम्प्रदायों ने अनेक मिथ्या कल्पना कर, उन कल्पनाओं को जन सामान्य में फैलाकर पूरे समाज को अविद्या अन्धकार में फँसा रखा है, जिससे जगत् में दुःख की ही वृद्धि हो रही है। ये मत-सम्प्रदाय ऊपर से अध्यात्म का आवरण अपने ऊपर डाले हुए मिलते हैं। यथार्थ में देखा जाये तो जो वेद के प्रतिकूल होगा वह अध्यात्म हो ही नहीं सकता। कहने को भले ही कहता रहे। महर्षि दयानन्द के काल में व उनसे पूर्व और आज वर्तमान में इन मत-सम्प्रदायों की संख्या देखी जाये तो हजारों से कम न होगी। उन हजारों में शैव, शाक्त, वैष्णव, वाममार्ग, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। महर्षि दयानन्द के समय से कुछ पूर्व स्वामी नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय, गुसाईं मत आदि और महर्षि के बाद राधास्वामी मत, ब्रह्माकुमारी मत, हंसा मत, सत्य सांई बाबा पंथ (दक्षिण वाले), आनन्द मार्ग, महेश योगी, माता अमृतानन्दमयी, डेरा सच्चा सौदा, आर्ट ऑफ लिविंग, निरंकारी, विहंगम योग, शिव बाबा आदि कितनों के नाम लिखें। ये सब अवैदिक मान्यता वाले हैं। इन्होंने अपने-अपने मत की पुस्तकें भी बना रखी हैं। इन पुस्तकों में इन मत वालों ने अपनी मनघड़न्त कल्पनाओं के आधार पर ही अधिक लिख रखा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आकाश में देवताओं का निवास स्थान, यमराज, यमदूत आदि की व्याख्याएँ अविद्यापरक ही हैं।

आपने स्वर्ग, नरक, मोक्ष के विषय में जो आज के तथाकथित उपदेशक, कथावाचक, साधु-सन्त कहते-बतलाते हैं, उसके सम्बन्ध में जानना चाहा है। यहाँ हम महर्षि की मान्यता को लिखते हैं व इन तथाकथित कथावाचकों की इन विषयों में क्या दृष्टि है उसको भी लिखते हैं। ‘‘स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह स्वर्ग कहाता है। नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको नरक कहते हैं।’’ आर्योद्दे. १४-१५ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में महर्षि इनके विषय में लिखते हैं- ‘‘स्वर्ग- नाम सुख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति का है। नरक- जो दुःख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति को प्राप्त होना है।’’ सत्यार्थप्रकाश ९वें सम्मुल्लास में महर्षि लिखते हैं- ‘‘…….सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फँसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है, स्व सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो यस्मिन् स नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति में आनन्द है, वही विशेष स्वर्ग कहाता है।’’

महर्षि की इन परिभाषाओं के आधार पर (परमेश्वर की प्राप्ति रूप विशेष स्वर्ग को छोड़) स्वर्ग-नरक किसी लोक विशेष या स्थान विशेष पर न होकर, जहाँ भी मनुष्य आदि प्राणी हैं, वहाँ हो सकते हैं। जो इस संसार में सब प्रकार से सम्पन्न है अर्थात् शारीरिक स्वस्थता, मन की प्रसन्नता, बन्धु जन आदि का अनुकूल मिलना, अनुकूल साधनों का मिलना, धन सम्प   िा पर्याप्त मिलना आदि है, जिसके पास ये सब हैं वह स्वर्ग में ही है। इसके विपरीत होना नरक है, नरक में रहना है। वह नरक भी इसी संसार में देखने को मिलता है।

नरक के विषय में किसी नीतिकार ने लिखा है

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।

नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दारिद्र्य, अपने स्वजनों से वैर-भाव, नीच-दुर्जनों का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में होते हैं। ये सब चिह्न इसी संसार में देखने को मिलते हैं। इस आधार पर स्वर्ग अथवा नरक के लिए कोई लोक पृथक् से हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। यह काल्पनिक ही सिद्ध हो रहा है।

जिस स्वर्ग लोक की कल्पना इन लोगों ने कर रखी है, वह तो इस पृथिवी पर रहने वाले एक साधन सम्पन्न व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।

मोक्ष निराकार परमेश्वर को प्राप्त कर, उसके आनन्द में रहने का नाम है अर्थात् जब जीव अपने अविद्यादि दोषों को सर्वथा नष्ट कर, शुद्ध ज्ञानी हो जाता है तब वह सब दुःखों से छूट कर परमेश्वर के आनन्द में मग्न रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। वहाँ आत्मा अपने शरीर रहित अपने शुद्ध स्वरूप में रहता है। कथावाचकों के मोक्ष की कल्पना और उसके साधनों की कल्पना सब मिथ्या है। किन्हीं का मोक्ष गोकुल में, किसी का विष्णु लोक क्षीरसागर में, किसी का श्रीपुर में, किसी का कैलाश पर्वत में, किसी का मोक्षशिला शिवपुर में, तो किसी का चौथे अथवा सातवें आसमान आदि पर। इस प्रकार के मोक्ष के उपाय भी मिथ्या एवं काल्पनिक हैं। जैसे-

गङ्गागङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।

– ब्रह्मपुराण. १७५.९२/पप.पु.उ. २३.२

अर्थात् जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहे, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णु-लोक अर्थात् वैकण्ठ को जाता है।

हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

अर्थात् हरि इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का महात्म्य है।

इसी तरह

प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति।

आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य प्रातः काल में शिव अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्मभर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है।

इस प्रकार के उपाय पाप छूटाने मोक्ष दिलाने के मिथ्या ग्रन्थों में लिखे हैं और इन्हीं प्रकार के उपाय आज का तथाकथित कथावाचक बता रहा है। पाठक स्वयं देखें, समझें कि ये उपाय पाप छुड़ाने वाले हैं या अधिक-अधिक पाप कराने वाले। भोली जनता इन साधनों से ही अपना कल्याण समझती है, जिससे लोक में अविद्या अन्धकार, अन्धविश्वास, पाखण्ड और अधिक फैल रहा है।

वेद व ऋषियों द्वारा मुक्ति व उसके उपाय ऐसे नहीं हैं। वहाँ तो सब बुरे कामों और जन्म-मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है। और ऐसी मुक्ति के उपाय महर्षि दयानन्द लिखते हैं ‘‘…..ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना, धर्म का आचरण और पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन (विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का संग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्मों का सेवन), सत्पुरुषों का संग और परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना तथा सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।’’ इन मुक्ति के साधनों को देख पाठक स्वयं विचार करें कि यथार्थ में मुक्ति के साधन, उपाय ये महर्षि द्वारा कहे गये हैं वा उपरोक्त मिथ्या ग्रन्थों व तथाकथित कथावाचकों द्वारा कहे गये हैं वे हैं। निश्चित रूप से ऋषि प्रतिपादित ही मुक्ति के उपाय हो सकते हैं, दूसरे नहीं।

मिथ्या पुराणों जैसी ही मुक्ति ईसाइयों व मुसलमानों की भी है। ईसाइयों के यहाँ खुदा का बेटा जिसे चाहे बन्धन में डलवा दे। ईसाई जगत् में तो जीवितों को मुक्ति के पासपोर्ट मिल जाते हैं। समय से पूर्व अपना स्थान सुरक्षित कराया जाता है। जितना कुछ चाहिए उससे पूर्व उतना धन चर्च के पोप को पूर्व में जमा कराया जाता है।

मुसलमानों के यहाँ भी ‘नजात’ होती है और वहाँ पहुँच कर सब सांसारिक ऐश परस्ती के साधन विद्यमान हैं, मोहम्मद की सिफारिश के बिना उसकी प्राप्ति नहीं है अर्थात् उन पर ईमान लाये बिना। कबाब, शराब, हूरें, गितमा आदि सभी ऐय्याशी के साधन मिलते हैं। क्या यह भी कभी मुक्ति कहला सकती है? अर्थात् ऐय्याशी करना कभी मुक्ति हो सकती है? इस मुक्ति पर मुसलमानों का विश्वास भी है। वे कहते हैं-

अल्लाह के पतले में वहदत के सिवाय क्या है।

जो कुछ हमें लेना है ले लेंगे मोहम्मद से।।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि जो वेद व ऋषि प्रतिपादित नरक, स्वर्ग व मोक्ष की परिभाषाएँ हैं, वही मान्य हैं इससे इतर नहीं। स्वर्ग व मोक्ष के उपाय भी वेद व ऋषियों द्वारा कहे गये ही उचित हैं। इन मिथ्या पुराणों व इनके कथावाचकों द्वारा कहे गये नहीं।

 

(32) शंका :- जिज्ञासा – मेरे मन में एक छोटी-सी शंका है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आगे स्वामी और बाद में सरस्वती क्यों लगाते थे स्वामी जी! उस का अर्थ क्या है? हमें बताईएगा। – एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- आर्य समाज

समाधान :-

समाधान-२ स्वामी दयानन्द सरस्वती जी आगे तो स्वामी इसलिए लगाते हैं क्योंकि वे संन्यासी थे, संन्यासी के लिए यह शब्द  आदर के लिए लगाया जाता है। यह शब्द  संन्यासी के लिए रुढ़ सा हो गया है। इसका अर्थ स्वत्वाधिकारी होता है अर्थात् अपने आपका अधिकारी चूंकि संन्यासी स्वत्वाधिकारी होता है इसलिए उनके नाम के आगे स्वामी लगाते हैं। स्वामी का एक अर्थ उच्च कोटि का धार्मिक पुरुष होता है।

दूसरी सरस्वती लगाने वाली बात- आचार्य शंकर से दस नामी संन्यासियों की परम्परा चली आयी है उनमें से एक सरस्वती भी है। स्वामी दयानन्द जी ने सरस्वती परम्परा वाले संन्यासी से संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी, इसलिए संन्यास गुरु परम्परा अनुसार स्वामी दयानन्द के पीछे (सरस्वती) लग गया। इस सरस्वती शब्द  का अर्थ महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में दिया है-

सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चित्तौ  सा सरस्वती।

जिसको विविध विज्ञान अर्थात् शब्द  सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत होवे उसको सरस्वती कहते हैं। विद्या, वाणी आदि का नाम भी सरस्वती है।

(33) शंका :- मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? किन-किन योनियों में प्रवेश करता है? क्या मनुष्य की आत्मा पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म लेने के बाद फिर लौट के मनुष्य योनियों में बनने का कितना समय लगता है? आत्मा माता-पिता के द्वारा गर्भधारण करने से शरीर धारण करता है यह मालूम है लेकिन आधुनिक पद्धतियों के द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगसि पद्धति, गर्भधारण पद्धति, स्पर्म बैंकिंग पद्धति आदि में आत्मा उतने दिनों तक स्टोर किया जाता है क्या? यह सारा विवरण परोपकारी में बताने का कष्ट करें। – एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान १ मृत्यु के  बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। किन्तु जैसा कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-

तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम्

उपसँ्हरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।।

– बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है। यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। आपने पूछा है- आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है, उसका भी हम यहाँ वर्णन करते हैं-

स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।।

– बृ. उ.४.४.१

अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।

एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।।

– बृ.उ. ४.४.२

अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इसप्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।

इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।

आपने पूछा किन-किन योनियों में प्रवेश करता है, इसका उत्तर  है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है-

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।

ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

– यजु. ४०.३

इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं। अस्तु।

(34) शंका :- सद्धर्मप्रचारक उर्दू हिन्दी का जन्म-भ्रान्ति निवारण-

समाधान कर्ता :- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु , विषय :- आर्य समाज

समाधान :-

किसी के लेख में यह छपा बताते हैं कि महात्मा मुंशीराम जी ने रात-रात में ‘सद्धर्मप्रचारक’ उर्दू साप्ताहिक को हिन्दी में कर दिया। एक प्रबुद्ध आर्य भाई ने चलभाष पर प्रश्न किया कि ‘सद्धर्मप्रचारक’ को हिन्दी में निकालने के महात्मा जी के साहसिक क्रान्तिकारी पग पर आप प्रामाणिक तथ्यपरक प्रकाश डालें। यह प्रश्न तो उन्हीं लेखक जी से पूछा जाता तो अच्छा होता तथापि मैं किसी आर्य भाई को निराश नहीं करता। कोई चार दिन पूर्व तड़प-झड़प लिखकर भेजी तो कुछ समाधान करते हुए लिखा कि स्मृति के आधार पर बहुत कुछ लिखा है। सद्धर्मप्रचारक की अन्तिम फाईल खोज कर कोई भूल मेरे लेख में होगी तो उसे फिर सुधार कर दूँगा।

अब चैन कहाँ? वह फाईल खोज निकाली। लीजिये! ‘सद्धर्मप्रचारक’ के जन्म-पुनर्जन्म का प्रामाणिक इतिहास। सुन-सुनाकर और कुछ कहानी को चटपटा बनाने वाले इतिहास को प्रदूषित करने का अवसर हाथ से जाने नहीं देते। अनजाने में भी इस पत्रिका के बारे में कई एक ने कई भ्रान्तियाँ फैला रखी हैं। आज यथासम्भव सब भ्रामक लेखों का निराकरण हो जायेगा।

महात्मा मुंशीराम जी ने रात-रात में अथवा एकदम ‘सद्धर्मप्रचारक’ उर्दू को हिन्दी में नहीं निकाला था। हाँ! जब निश्चय कर लिया तो फिर टले नहीं। घाटा, हानि का भय दिखाया गया परन्तु उन्होंने हानि लाभ की चिन्ता नहीं की, पग दृढ़ता से आगे धरते गये। ‘प्रचारक की काया पलट का दृढ़ निश्चय’ एक लम्बा लेख पाँच अक्टूबर सन् १९०६ के अंक में दिया था। यह मेरे सामने है। इसके बाद निरन्तर पाँच मास तक प्रायः प्रत्येक अंक में प्रचारक के हिन्दी संस्करण के बारे में विज्ञापन तथा लेख छपते रहे जो सब मेरे पास हैं। सद्धर्मप्रचारक के सम्पादकीय लेख एक ग्रन्थ के रूप में भी बाद में छपे थे जो इतिहास की धरोहर है और बहुत से तथ्यों पर जिससे प्रकाश पड़ता है। वह ग्रन्थ मेरे पास भी है और बन्धुवर सत्येन्द्रसिंह आर्य के पास भी है। विस्तारपूर्वक एतद्विषयक जानकारी इतिहास प्रेमी चाहेंगे तो फिर कभी यह सेवा भी की जा सकती है।

. डॉ. जे. जार्डन्स जी ने लिखा है कि उर्दू सद्धर्म-प्रचारक सन् १८८८-१९०७ तक निकलता रहा। यह सत्य नहीं है। लेखक से भूल हुई है। किसी ने कभी इस चूक पर दो शब्द  नहीं लिखे।

. स्वामी श्रद्धानन्द जी पर हिण्डौन से छपे ग्रन्थ में लिखा है कि उर्दू सद्धर्मप्रचारक का जन्म १९ फरवरी १८८९ में हुआ, यह भी सत्य नहीं। भ्रामक कथन है।

प्रबुद्ध पाठक नोट करें कि इस समय मेरे सामने सद्धर्म-प्रचारक का प्रथम अंक है। यह १३ अप्रैल सन् १८८९ को निकला था। तब इसके आठ ही पृष्ठ होते थे। एक ही वर्ष में पृष्ठ संख्या १६ और सन् १९०७ में १८ और कभी-कभी २२ पृष्ठ भी होते थे। मैंने सब अंक देखे हैं। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने भी सद्धर्मप्रचारक का जन्म वैशाखी (१३ अप्रैल) लिखा है।

. हिण्डौन वाले ग्रन्थ में इसके जन्म की एक और स्थान पर भी जन्म तिथि १९ फरवरी १८८९ छपी है जो ठीक नहीं है।

सेवा का एक अवसर मिला। भ्रम भञ्जन कर दिया। पूरी खोज करने में लगा तो पता चला कि अपने समय के प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् और पं. बाल शास्त्री काशी के शिष्य गोस्वामी घनश्याम मुलतान निवासी सद्धर्मप्रचारक उर्दू के नियमित लेखक थे। उनके कई लेख मिले हैं। इनको हिन्दी में अनूदित करके ‘परोपकारी’ में प्रकाशित करवा दिया जायेगा। वे ‘परोपकारी’ के भी तो लेखक रहे।

(35) शंका :- आर्य पत्रों की समाचार शैली कैसी थी?-

समाधान कर्ता :- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु , विषय :- आर्य समाज

समाधान :-

हरियाणा में एक आर्य प्रचारक के निधन पर शोक सभा में भाषण देने व भाग लेने वाले अनेक सज्जनों के नाम पत्र में पढ़े। मरने वाले के बारे में चार पंक्तियाँ भी नहीं छपी मिलीं। इसे नाम की भूख कहें या हमारे आज के पत्रों का घटिया स्तर? यत्न करूँगा कि सौ, सवा सौ वर्ष पुराने पत्रों में छपे समाचार दो-चार लेखों में दूँ। अब सिद्धान्त की बात नहीं होती, लीडर सूची समाचारों में होती है। यह बहुत दुःख का विषय है। पं. लेखराम जी तथा महात्मा मुंशीराम जी उत्सवों में विद्वानों के व्याख्यानों का सार दिया करते थे। सबसे अन्त में अपने भाषण की चर्चा किया करते थे। ‘आर्य समाचार’ मेरठ के प्रचार-समाचार पाठकों में उत्साह व जोश का संचार कर देते थे। आज के पत्र तो ‘लीडर नामा’ और व्यक्तियों के प्रचार को बढ़ाने वाले हैं। ‘सार्वदेशिक’ मासिक के १९३८-१९४६ तक के अंकों को देखिये….।

(36) शंका :- दक्षिण में प्रथम आर्य सत्याग्रहीः

समाधान कर्ता :- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु , विषय :- आर्य समाज

समाधान :-

गुंजोटी में एक भाई ने पूछा दक्षिण में बलिदान की अखण्ड परम्परा वीर वेदप्रकाश से आरम्भ हुई आपका यह कथन सत्य है। हैदराबाद सत्याग्रह का प्रथम सत्याग्रही कौन था? मैंने उ  ार दिया कि मैंने पहला सत्याग्रही कौन था, यह भी भलीप्रकार से लिखा व बताया है। धर्म दीवाने पं. त्रिलोकचन्द्र शास्त्री जी प्रथम सत्याग्रही थे जिन्हें श्याम भाई ने बहुत पहले दक्षिण में खींच लिया। कहाँ कादियाँ! और कहाँ शोलापुर!! स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने जेल नहीं जाने दिया। वह प्रचार तन्त्र के सेनापति बनाये गये। कवि ने इन रणवीरों के लिये ही तो लिखा हैः-

तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये,

हैरत में लोग रह गये दुनिया का दिल दहला दिया।

(37) शंका :- ईश्वर कब और क्या-क्या सहायता देता है, और क्या-क्या नहीं देता?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर बहुत प्रकार की सहायता देता है। एक तो सामान्य सहायता है, जो सबको दे रखी है। जिसने अच्छे कर्म किये हैं, उसको अच्छा फल, जिसने बुरा किया है, उसको बुरा फल देता है। अपने-अपने कर्मों का फल ईश्वर देता है। ये ईश्वर की सहायता है।
स ईश्वर की सहायता के बिना हम स्वयं अकेले अपने कर्मों का फल नहीं ले सकते। भगवान यूँ कहें कि अपना कर्म करो और अपने फल ले लो, मुझे बीच में क्यों चक्कर में डालते हो। क्या आप अपने कर्मों का फल स्वयं ले सकते हो? अपना कैरियर स्वयं बना सकते हो? न हम धरती अपने रहने के लिये बना सकते हैं, न हम स्वयं फल ले सकते। ईश्वर सबको न्यायानुसार सबके कर्मों के हिसाब से फल देते हैं। ये ईश्वर की सामान्य सहायता है जो सबको दी जाती है।
स जो विशेष-पुरूषार्थ करता है, उसको ईश्वर विशेष सहायता देते हैं। उसको ईश्वर विशेष आनंद देते हैं, विशेष सुख देते हैं, अंदर से उत्साह बढ़ाते हैं। उसकी बु(ि बढ़िया बना देते हैं। जैसे- जो विद्यार्थी अच्छी पढ़ाई करता है तो गुरूजी उसको विशेष सहायता देते हैं। उसको अतिरिक्त समय भी देते हैं कि- भई, ये मेहनती आदमी है। ईश्वर भी ज्ञान-विज्ञान बढ़ायेंगे, उत्साह बढ़ायेंगे, बु(ि बढ़ायेंगे और आनंद देंगे। ये ईश्वर की विशेष सहायता होगी। जो ईश्वर के आदेश का जितना अधिक पालन करेगा, ईश्वर उसको उतनी विशेष सहायता देगें।
स सूरज, चाँद, धरती, सितारे, अन्न, औषधि, वनस्पति, साग, फल, फूल, सब्जी, ये सारी चीजें ईश्वर ने बनाकर दे रखी हैं। ये सब ईश्वर की सहायता से हैं। उनके बिना हम कुछ नहीं कर सकते। न खा सकते हैं, न पी सकते हैं। इस प्रकार से ईश्वर हमारी सहायता करते हैं।

(38) शंका :- ईश्वर’ पहले से है।’आत्मा’ को किसने बनाया ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा को किसी ने नहीं बनाया। ईश्वर को भी किसी ने नहीं बनाया, दोनों हमेशा से हैं। स्वयं अपनी सत्ता से हैं। और एक तीसरी वस्तु-प्रकृति भी हमेशा से है। इस प्रकार से ये तीनों वस्तुएँ अनादि हैं। इन तीनों को किसी ने नहीं बनाया।

(39) शंका :- क्या मनुष्यों के अतिरिक्त कुत्ते आदि पशु-पक्षियों को भी कर्म करने की स्वतंत्रता है ? क्या इन्हें पुण्य पाप लगता है ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ। कुत्ते आदि अन्य प्राणियों को भी कर्म करने की चार- पॉच प्रतिशत स्वतन्त्रता है। मुख्य रूप से तो वह भोग योनि है। परन्तु गौण रूप से (थोड़ी सी( कर्म करने की स्वतंत्रता भी है। जैसे- पुलिस वाले कुत्ते को ट्रेनिंग देते हैं, और वो ट्रेन्ड कुत्ते चोरों को पकड़वा देते हैं। यह उनकी चार-पाँच पर्सेन्ट की स्वतंत्रता है और इसका उनको ईनाम मिलता है। अच्छा बढ़िया डबल रोटी, बिस्किट खाने को मिलता है। बढ़िया शैम्पू से नहाते हैं, बढ़िया सुविधाओं में रहते हैं।
स आप शांति से अपने रास्ते में जा रहे हैं और एक कुत्ता पीछे से चुप-चाप आता है और आपकी टांग पकड़ लेता है, काट लेता है। तो आप उसकी डंडे से पिटाई करते हैं न। उसने अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया, इसीलिये तो पिटाई हुई। उसने पाप किया, इसीलिए दण्ड मिला। पुलिस के कुत्ते ने चोर को पकड़वाया, पुण्य किया। इसलिए उसको ईनाम मिला। यह है कुत्ते आदि प्राणियों की कर्म करने की दो-चार-पाँच पर्सेन्ट की स्वतंत्रता।

(40) शंका :- मानव जीवन की सबसे बड़ी भूल कौन सी है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

संसार में पूर्ण सुख मानना, यह मानव जीवन की सबसे बड़ी भूल है। यहाँ पूर्ण सुख नहीं है, मगर हम पूर्ण सुख मान बैठे हैं। लोग यहाँ दुनिया में सुख ढूँढ़ते हैं, जो कि बिल्कुल नहीं मिलेगा। लोग दुनिया में न्याय ढूँढ़ते हैं, वो बिल्कुल नहीं मिलेगा। यहाँ तो कदम-कदम पर अन्याय होता है। भयंकर दुख भोगने पड़ते हैं। इसलिये सबसे बड़ी भूल यह मानना है कि- ‘संसार में सुख मिलेगा।’ इस बात को याद रखें और मोक्ष की तैयारी करें। हाँ, मोक्ष में अवश्य पूर्ण सुख मिलेगा।
संसार में मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है – भौतिक (प्राकृतिक( सुखों को लक्ष्य बनाना, मोक्ष को लक्ष्य नहीं बनाना। यही हमारे दःुखों का कारण है।

(41) शंका :- बौ(िक स्तर पर किसी भी जीव का या आकृति का पोस्टमार्टम कैसे किया जाता है, ताकि आकर्षण खत्म हो जाये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसके लिये कभी-कभी श्मशान घाट में जाया करें और वहाँ जलते हुये शव को देखा करें। इससे आपका आकर्षण कम हो जायेगा। दूसरा, कभी-कभी हॉस्पिटल में जाया करें, जहाँ रोगी पड़े रहते हैं। किसी की टाँग लटकी है, किसी का पाँव टूटा हुआ है, किसी का प्लास्टर चढ़ा हुआ है, किसी को कोई रोग है, किसी को कोई। वहाँ हॉस्पिटल में जाकर अपनी आँख से रोगियों को देखें। तीसरा, वो जो कहीं-कहीं हॉस्पिटल में हड्डियों वाले कंकाल होते हैं, उनको देखा करें। चौथा कभी-कभी मौका लग जाये, तो ऑपरेशन थियेटर में जाकर रोगियों का चीर-फाड़ वाला पेट का ऑपरेशन भी देखें। ऐसे दो-चार उपाय करें। और फिर चार, छह महीने में, सालभर में दो बार-चार बार इसको दोहरायें। और उस तरह के चित्र हमेशा दिमाग में रखें। उनको बार-बार दोहराते रहें। सारा आकर्षण खत्म हो जायेगा।

(42) शंका :- मेरा पड़ोसी प्रायः हर रोज बच्चों को भेजकर साइकिल, प्रेस, पंप, तेल, हल्दी, जीरा, कुकर आदि हमारे घर से मंगवाता है? अब मना करें, तो संबंध खराब होने का डरऋ और झूठ बोलकर मना करें, तो ईश्वर का डरऋ और दे दें, तो अंदर मन में दुःखऋ बताइये क्या करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आपका पड़ोसी जो बार-बार ये चीजें माँगता है, उसे एक-दो बार दे दो। बार- बार आये तो कहो- बस भैया, हमारे पास इतनी ही ताकत है। अब हम रोज-रोज नहीं दे सकते। तुम अपने पैसे कमाओ और अपना खाओ। वह नाराज होता है, तो होये। उसकी चिंता नहीं। हम स्वार्थी नहीं हैं, हम लोभी नहीं हैं। पड़ोसी की सहायता करनी चाहिये। जितनी शक्ति हो, जितना सामर्थ्य हो, उतनी पड़ोसी की सहायता करनी चाहिये। अब जब सामर्थ्य पूरा हो जाये, तो साफ बोल दो, कि भाई अब नहीं कर सकते। हमारी ताकत खत्म। अब तुम खुद कमाओ और खाओ। किसी और के पास जाओ। तुम खुद मेहनत क्यों नहीं करते? तुम्हारे भी तो हाथ हैं। हमारे दो हाथ हैं, तुम्हारे भी दो हाथ हैं। जब हम कमा सकते हैं तो तुम भी कमा सकते हो। अपना कमाओ और खाओ। प्रेम से कहो, झगड़ा नहीं करना। यदि अधिक नहीं कमा सकते, तो थोड़े में गुजारा करना सीखो । रोज-रोज माँगना तो अच्छा नहीं है।

(43) शंका :- रात्रि को केवल ढ़ाई-तीन घंटे नींद आती है। खाना, बिस्तर ठीक है। क्या तीन घंटे की नींद काफी है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ढाई-तीन घण्टे की नींद तो कम है। एक स्वस्थ वयस्म व्यक्ति को कम से कम 6-7 घण्टे तो अवश्य नींद लेनी चाहिए । अच्छी गहरी नींद आये, इसके लिये तीन काम करें। एक तो दिन में खूब मेहनत करें। शारीरिक, बौ(िक, मानसिक परिश्रम करें ताकि रात को थक जायें। आप अच्छी तरह से थक जायेंगे, तो बढ़िया नींद आएगी।
दूसरी बात है कि चिंता (टेंशन( कुछ नहीं करें, नहीं तो नींद नहीं आएगी। तीसरा- सोते समय बिस्तर पर लेटकर कोई चिंतन नहीं करना, कोई विचार नहीं उठाना, कोई योजना नहीं बनानी। अगर इस नियम का पालन करेंगे तो नींद बहुत अच्छी आएगी। और यदि सब विचारों को उठायेंगे, तो आपको नींद पर्याप्त नहीं आयेगी। जो योजना (प्लानिंग( बनानी है, चिंतन-विचार करना है, वह दिन में करो।
स्त्री को मुँह-हाथ धोकर, सोने से पूर्व बिस्तर पर बैठकर, पाँच-दस मिनट ईश्वर का ध्यान करो। उसके बाद तीन काम करने से बढ़िया नींद आएगी। पहला काम- लाइट बंद, दूसरा काम- आँख बंद, तीसरा काम- विचार बंद। ये तीन काम करो, बढ़िया नींद आएगी। विचार बंद करने के लिये उपाय है, ‘गायत्री मंत्र’ का पाठ। बिस्तर पर आप लेटकर, आँख बंद रखें। जब तक नींद न आये, तब तक गायत्री मंत्र का पाठ चालू रखें। ईश्वर का ही स्मरण करें। आपको अच्छी नींद आएगी।

(44) शंका :- हमने सुना है, मुक्त आत्मायें आपस में बातें करती हैं। लेकिन वे स्थूल शरीर के बिना कैसे बातें कर सकती हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

व्यक्ति शरीर के बंधन में होने पर शरीर, इन्द्रियों की सहायता से सारे काम करता है। मोक्ष में ये शरीर, इन्द्रियाँ नहीं रहते। मोक्ष में प्रकृति के बने साधन नहीं होते। वहाँ तो ईश्वर की शक्ति का सहयोग मिलता है। ईश्वर की शक्ति से मुक्त आत्मायें सब जगह घूमती हैं, देखती हैं, सुनती हैं, बातें करती हैं। जो भी मुक्ति का आनंद होता है, वो ईश्वर की शक्ति से भोगती हैं। मुक्त आत्मा, मुक्त आत्मा से बात करेगी, हमसे नहीं। और हम बु( आत्माएँ आपस में बात करेंगे, मुक्तात्माओं से नहीं । और हम बु( आत्माएँ आपस में बात करेंगे, मुक्तात्माओं से नहीं ।

(45) शंका :- क्या किसी भी धर्म, पंथ या देवी-देवता का मजाक उड़ाकर हम अपने आपको श्रेष्ठ कहलवा सकते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मजाक बिल्कुल नहीं उड़ाना चाहिये। पर सत्य कहने में कोई आपत्ति नहीं। अगर कोई व्यक्ति गलती कर रहा है, तो उसकी गलती बताने में कोई आपत्ति नहीं है। उसकी गलती (दोष( बतायेंगे। अपनी अच्छाई बतायेंगे। लोगों को उस बुराई से बचायेंगे। लोगों को भटकने से बचाने के लिये, अगर हम किसी का दोष बताते हैं, तो कोई आपत्ति नहीं। और मजाक उड़ाने के लिये खण्डन करते हैं, तो वो गलत है, अपराध है। ऐसा नहीं करना चाहिये । ऐसा करने से हम श्रेष्ठ नहीं कहला सकते ।

(46) शंका :- जब हम शिविर इत्यादि में आते हैं। तब सब कुछ अच्छा लगता है। क्रोध कम हो जाता है। लेकिन जब हम वापस सांसारिक-जीवन में जाते हैं, तो ऐसे नहीं जी पाते, क्या करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पहला उपाय तो यह है कि- सांसारिक जीवन में वापस मत जाओ, यहीं रहो। जब यहाँ शांति से जी रहे हो, तो क्यों जाओ बेकार दुनिया में? वहाँ काम, क्रोध, लोभ, ईष्या, द्वेष आदि सब झंझट हैं। इसलिए एक उपाय तो यह है, कि- ऐसे किसी भी आश्रम में रहो, जहाँ व्यवस्था मिले। यहाँ रहने की गारंटी मेरे अधिकार में नहीं है। अधिकारी हैं, उनसे पूछो, कि यहाँ के नियम क्या हैं? आपकी योग्यता यहाँ रहने की है या नहीं है। वो अधिकारी बतायेंगे। मैंने तो आपको सुझाव दिया, कि यदि ऐसा जीवन अच्छा लगता है, संसार में झंझट होता है, तो वो जीवन छोड़कर किसी भी आश्रम में रहो। जहाँ सुविधा, अनुकूलता हो, वहाँ रहो।
दूसरा- यहाँ से खूब तैयारी करके जाओ, खूब संकल्प करके जाओ, कि हम नगर के जीवन में जायेंगे, लेकिन यह छल-कपट नहीं करेंगे। फिर उसके हिसाब से वहाँ मेहनत करो। यहाँ से जब जायेंगे तो कुछ दिन तक तो आपका वो संकल्प टिकेगा और आप ठीक मेहनत करेंगे। शांति से जी लेंगे। कुछ महीने में आपकी बैटरी डाउन हो जाएगी, तो कुछ महीने बाद चार्जिंग के लिये अगले शिविर में फिर आओ और अपनी बैटरी चार्ज करो। फिर वापस जाओ।
तीसरा- कुछ महीने या वर्ष (जब तक आपकी सांसारिक जिम्मेदारी पूरी हो जाए, तब तक( शिविरों में आ-आकर वानप्रस्थी बनने की तैयारी करो । जब सांसारिक जिम्मेदारी भी पूरी हो जाए, वानप्रस्थी बनने की योग्यता भी बन जाये, तब वानप्रस्थी बनकर किसी आश्रम में रहना शुरु करो । इस प्रकार से दो-तीन विकल्प हैं, जो आपको ठीक लगे, उसको अपनाओ।

(47) शंका :- दस वर्ष के लड़के-लड़की ठीक से भोजन नहीं करते। इस तरह के बच्चों का मन ईश्वर में लगाने के लिये उन्हें कैसी शिक्षा दी जाये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ये समस्याएँ घर-घर में है। बच्चों से पूछो- क्या खाओगे बेटा? तो अधिकांश बच्चे बोलेंगे- आलू। अगर पूछें कि- अच्छा, यह बैगन खा लो। तो बच्चे बोलेंगे – न बैगन नहीं खाऊँगा, वो मुझे पसंद नहीं है। ऐसे नखरे घर-घर में बहुत हैं। तो बच्चों के नखरे नहीं सुनना। बच्चों की एक भी गलत बात नहीं माननी। बच्चो ठीक बात बोलें, तो सब मानो। भाई, टिंडे में, दूधी (घिया( में क्या तकलीफ है? इन्हें खाना स्वास्थ के लिये अच्छा है। नेत्र-ज्योति (आई-साइट( के लिये अच्छा है। पालक, मैथी, सरसों आदि-आदि जो हरी पत्ती वाले साग हैं, वो बच्चे नहीं खाते। इससे आई-साइट कमजोर हो जाएगी। छोटी उम्र में चश्मे लग जाएंगे। इसलिए उनको समझाओ और खिलाओ।
स हम भी छोटे बच्चे थे। एक दिन हमारे घर में टिंडे की सब्जी बनी। वो हमको अच्छी नहीं लगी तो हमने कहा- यह टिंडे की सब्जी हम नहीं खायेंगे। हमारे लिये दूसरी सब्जी बनाओ। माता जी ने कहा- बेटा, हमारे घर में एक ही सब्जी बनती है। खानी है तो खा ले, नहीं तो सो जा। बोलिये, क्या करेंगे? भूखे सो जायेंगे। हमको खानी पड़ी। एक दिन नखरा किया, दूसरे दिन किया। वो ही जवाब था कि आज तो बैगन की सब्जी बनी है, तुमको यही खानी पड़ेगी, नहीं खानी तो भूखे सो जाओ। यह घर है, कोई होटल नहीं है। तुम्हारे लिये दूसरी सब्जी नहीं बनेगी। दो दिन नखरा किया। तीसरे दिन अक्ल ठिकाने आ गयी। बस, सीख गये। तब से लेकर आज तक जो मिलता है, खाते हैं, सब खाते हैं, कोई नखरा नहीं। भगवान ने सारी सब्जियाँ हमारे स्वास्थ के लिये ही बनाई हैं। अच्छी बनाई हैं। बच्चों को समझाओ और बारह-तेरह साल की उम्र तक जबरदस्ती खिलाओ। तब तक उनको आदत हो जाएगी। आगे फिर अपने आप खायेंगे। उनको इस तरह से खिलाओ।
स ऐसे बच्चों या सभी बच्चों का मन ईश्वर में लगाने के लिये उन पर नियम लगाओ, कि सुबह शाम ईश्वर का ध्यान, यज्ञ, सन्ध्या, गायत्री मन्त्र का पाठ अवश्य करना पड़ेगा । जो नहीं करेगा, उसको नाश्ता, भोजन आदि नहीं मिलेगा। अच्छे खिलौने, फल, मिठाई, कम्प्यूटर आदि की सुविधा नहीं मिलेगी। जो करेगा, उसे सब सुविधाएँ और कभी-कभी विशेष इनाम भी मिलेगा बच्चों पर ऐसे नियम उनकी 12-13 वर्ष की उम्र तक जबरदस्ती लगायें । अन्यथा आपके बच्चे बिगड़ जाएँगे । भविष्य में वे स्वयं दुखी होंगे और सबको दुख देंगे ।

(48) शंका :- प्रणव’ का अर्थ क्या है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

प्रणव’ शब्द का अर्थ है, वह शब्द, जिससे ईश्वर की अच्छी प्रकार से स्तुति की जाये। और वह होती है ‘ओ३म्’ से। तो प्रणव का अर्थ हुआ- ‘ओ३म्’।
स इस ओम का जप करना चाहिये। ओम शब्द को बार-बार दोहराना चाहिये और अर्थ सहित दोहराना चाहिये। योग दर्शन के सूत्र 1/27 में लिखा है- ‘तस्य वाचकः प्रणवः’। ईश्वर का का नाम ओम है। अगले सूत्र 1/28 में लिखा है, ‘तज्जपस्तदर्थ भावनाम्’ अर्थात् ‘ओ३म्’ का जप अर्थ की भावना सहित करो।
स अर्थ की भावना क्या होती है? अर्थ की भावना करना, ट्रांसलेसन करना नहीं कहलाता। ‘सबकी रक्षा करने वाला’ यह तो ओ३म शब्द का अनुवाद हुआ। अर्थ भावना नहीं हुई। अर्थ भावना का मतलब है, वैसी हमारी मानसिकता (मेनटेलिटी( भी बननी चाहिए, कि ‘ईश्वर सबकी रक्षा करने वाला है। मन-बु(ि में ऐसा हमको प्रतीत होना चाहिए। वो है ‘अर्थ भावना’। मान लीजिए, आप में से एक व्यक्ति मंच पर आ गया। आप उनका परिचय नहीं जानते। पहले-पहले जब आप परिचय नहीं जानते, तो आपको क्या दिखेगा। यह एक व्यक्ति है। चालीस की उमर दिखती है। बस, इतना दिखता है। अब जब उसका यह परिचय कराया जाएगा, कि ये जो व्यक्ति आपके सामने बैठे हुए हैं, ये हाईकोर्ट के जज हैं, तो आपकी दृष्टि बदल जाएगी। अब आपको वो चालीस साल का जवान नहीं दिखेगा। अब वो कुछ और दिखेगा। अब जो कुछ आपको दिख रहा है, वो है ‘अर्थ भावना’। अब आपको वह सामान्य व्यक्ति नहीं दिख रहा है, उसमें एक न्यायाधीश दिख रहा है। हाईकोर्ट का उच्च स्तर का एक बु(िमान न्यायाधीश दिख रहा है। तो अब जो कुछ भी दिख रहा है, दरअसल वो है ‘अर्थ भावना’।
स ऐसे ही जब ओ३म् का जप करें, तो अर्थ की भावना सहित करें। हम कहते हैं, ‘ओम सर्वरक्षक’, तो ‘ईश्वर सर्वव्यापक निराकार होता हुआ सबकी रक्षा करता है,’ ऐसे भाव हमारे मन में होने चाहिए। जब हम कहेंगे, ‘ओ३म् आनंदः’ तो ‘ईश्वर आनंद का भंडार है’, ऐसा प्रतीत होना चाहिए। जैसे रसगुल्ले का नाम लेते ही, उसकी याद करते ही मस्तिष्क में विचार आता है – वाह! बहुत अच्छी वस्तु है, मिठाई है, खाने की चीज है। बहुत सुखदाई है। उससे हमको आनंद मिलता है। जैसे रसगुल्ले का स्मरण करने से आनंद मिलता है, ये प्रतीति होती है। ऐसे ही भगवान को आनंद स्वरूप कहेंगे। उसको भी आनंद का भंडार मानना चाहिए। ‘इससे हमको आनंद मिलेगा,’ इस तरह का भाव यदि हमारे मन में है, तो यह हुई- ‘अर्थ-भावना’। इस प्रकार से जप करना चाहिए।

(49) शंका :- ओ३म््’ का उच्चारण किस जगह और कितने समय पर किया जाना चाहिए। इसमें दिन और रात देखे जाते हैं या नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसमें स्थान और समय का कोई बन्धन नहीं है। क्या माता-पिता को याद करने में कोई स्थान, समय का बन्धन है! नहीं। ईश्वर भी तो हमारा माता-पिता है। ओ३म् भगवान का नाम है। ओ३म् का उच्चारण कहीं भी कर लो, कभी भी कर लो। भगवान को हमेशा याद रखना चाहिए। इसलिए ओ३म् का उच्चारण हमेशा कर सकते हैं। दिन में करो, रात में करो। भगवान का दरवाजा बंद होता ही नहीं है। वह चौबीस घंटे खुला रहता है।
वेद में तो एक ही देवता है। परमात्मा और ‘ओ३म्’ उसका नाम है। ईश्वर को ठीक से पहचानिये।
ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, निराकार है, उसकी कोई आकृति नहीं है। उसको प्राप्त करने के लिए कहीं दूर मक्का मदीना, वाराणसी और हरिद्वार में जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने घर में बैठकर शास्त्रों का
अध्ययन, मनन, स्वाध्याय कीजिए। हाँ, शिविर में जाइए। वेद के विद्वानों के पास जाइए। वहाँ सत्संग सुनिए। शंका- समाधान कीजिए। वेदानुकूल पठन-पाठन व्यवहार कीजिए। इससे हमारा कल्याण होगा। इधर-उधर व्यर्थ भटकने से कोई लाभ नहीं।

(50) शंका :- ईश्वर को ज्ञान से जानते हैं। और यह ईश्वर-ज्ञान सबके बस की बात नहीं है, तो क्या ईश्वर को जाने बिना केवल अच्छे कर्म करने से ‘मोक्ष’ की प्राप्ति की जा सकती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिल्कुल नहीं की जा सकती। ईश्वर को जाने बिना मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता। ईश्वर को जानना सबके लिए अनिवार्य (कम्पलसरी( है। सबके लिए मोक्ष प्राप्ति का एक ही मार्ग है, एक ही नियम है, किसी को कोई छूट-छाट नहीं है।
स चाहे लाख जन्म लो या करोड़ जन्म लो, जब तक वेद के अनुसार ईश्वर को नहीं जानेंगे, तब तक मोक्ष नहीं होने वाला। जो परीक्षा में अच्छा उत्तर लिखेगा, उसको अच्छे नंबर मिलेंगे। जो नहीं लिखेगा, नहीं मिलेंगे। वहाँ पर कोई कन्सेशन नहीं है। सबके ऊपर एक ही नियम लागू होगा। जी हाँ, वो तो न्याय की बात है। यहाँ संसार में तो अन्याय चलता है। भगवान के यहाँ अन्याय नहीं चलता, न्याय ही चलता है।

(51) शंका :- कठोर’ शब्द का क्या अर्थ है? कठोर शब्द का प्रयोग कब करना चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

कठोर शब्द अर्थात् जो सुनने में बुरा लगे, सुनने में अच्छा न लगे। जैसे एक व्यक्ति कुछ देर से आया। तो उसको हम कोमल शब्द कहेंगे। प्रेम से यूं बोलेंगे कि- ‘जी, आप देर से आये, थोड़ा जल्दी आते, तो अच्छा लगता।’ ऐसी भाषा बोलेंगे, तो यह ‘कोमल’ भाषा है। इसी को हम कठोर भाषा में बोलेंगे। ‘आपको समझ नहीं आती क्या। यहाँ पर कितनी बार बतायें, अब तक समझ में नहीं आई! लेट आते हो आप, क्या मजाक बनाा रखा है!’ ऐसे बोलेंगे, तो यह कठोर भाषा है। यह उसको अच्छी नहीं लगेगी। तो फिर कैसे बोलना चाहिये-
‘भाई, आपको जल्दी आना चाहिए, समय का पालन करना चाहिये, आप देर से आते हैं तो सबका नुकसान होता है।’ ऐसे प्रेम से भाषा बोलनी चाहिए।
किसी बच्चे को हमने प्रेमपूर्वक कुछ कार्य बतलाया, उसने नहीं सुना। फिर दो बार, तीन बार प्रेमपूर्वक कहा लेकिन उसने बात नहीं मानी। तब हमने जोर से कह दिया, अब तो मान गया। यह कठोर शब्द तो है, पर यह दण्ड-व्यवस्था है। अब यह सामान्य नियम नहीं है। सामान्य नियम यह है कि- पहली बार में आप ऐसा कठोर बोलते हैं, वो ठीक नहीं है। चार बार प्रेम से समझाने के बाद भी नहीं मानता, तो अब दण्ड दे सकते हैं। उससे कठोर बोल सकते हैं। और अगर दो बार कठोर भाषा बोली, तब भी नहीं सुधरा, तो दो थप्पड़ भी लगाओ, यह दण्ड हैं। दण्ड व्यवस्था अलग है, सामान्य व्यवहार अलग है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, उन्हें प्रेम की भाषा समझ में आती ही नहीं। जोर से बोल दो, तो तुरंत सुन लेते हैं। तो चाहे एक महीने तक प्रेमपूर्वक कहते रहो, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ, तो जो
सीधी-भाषा नहीं समझता। उसे कड़क भाषा बोलो, वो वही भाषा समझता है, इसलिए उससे वो ही भाषा बोलनी पड़ेगी।

(52) शंका :- जीवात्मा शरीर छोड़ने के वक्त कहाँ जाता है? और शरीर छोड़ने के बाद उसकी स्थिति, पुर्नजन्म कैसे होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जैसे ही आत्मा शरीर को छोड़ेगा, वैसे ही बेहोश हो जायेगा। उसको कोई होश नहीं, कोई शक्ति नहीं। अब आगे नहीं चल सकता। जीवात्मा स्थूल शरीर के बिना कुछ नहीं कर सकता।
स शरीर छोड़ते ही ईश्वर उसको पकड़ लेगा। वह ईश्वर के नियंत्रण में आ जायेगा। अब ईश्वर उसको ले जायेगा। उसके कर्मानुसार रूस में, जापान में, अमेरिका में जहाँ कहीं भी अगला जन्म देना होगा, अथवा भारत में ही कहीं अगला जन्म देना होगा, तो उसको वहाँ तक पहुँचायेगा। फिर वहाँ अगला जन्म देगा। उसके कर्मानुसार यह व्यवस्था रहती हैं।
स यह निश्चित है, कि- भूत-प्रेत बनके नहीं भटकेगा, किसी के शरीर में घुसकर उसको परेशान नहीं करेगा, यह पक्की बात है। यह शास्त्रों में लिखा है।
स फिर चौथा करो, दसवाँ करो, बारहवाँ करो, तेरहवाँ करो। कोई फर्क नहीं पड़ता। वो जो बचे हुए जीवित लोग हैं, वो अपने लिये करते हैं। अंतिम-संस्कार जिसको अंत्येष्टि कहते हैं। यह सोलह संस्कारों में अन्तिम है। तो ये शब्द ही कह रहा है कि अंत्येष्टि हो गयी यानि बात खत्म हो गयी। अंत्येष्टि के बाद मृतक के लिए हम कुछ नहीं कर सकते। आत्मा तो दूसरे जन्म में गया और उसका शरीर भी खत्म हो गया। सारे रिश्ते खत्म हो गये। उसके बाद हम उसके लिए कुछ नहीं कर सकते।

(53) शंका :- जीवात्मा को जीने की उत्कट इच्छा क्यों होती है? अथवा जीवात्मा को जीने के लिये कौन सा तत्त्व प्रेरित करता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जीवात्मा सुख चाहता है। यह सुख की इच्छा उसे जीने के लिये प्रेरित करती है। मुझे सुख मिलेगा, इसलिए जी रहा हूँ। सुख के लिए व्यक्ति जीता है। कभी-कभी उसके जीवन में दुख बढ़ जाता है, तब वो उस दुख से घबरा जाता है। जब उसको दिखता है कि, मेरे जीवन में सुख कहीं नहीं है, दुःख ही दुख है, तो फिर वो जीना नहीं चाहता, फिर वो कहीं नदी में कूद जाता है। कोई कुएं में कूद जाता है, कोई जहर पी लेता है, कोई ट्रेन के नीचे कट जाता है। फिर आत्महत्या (सोसाइड( कर लेता है। आत्महत्या नहीं करनी चाहिए। उस समस्या का हल ढूंढ लेना चाहिये। हर समस्या का हल होता है, समाधान होता है। उसको खोजने की आवश्यकता है। स्वयं आपको समझ में नहीं आता तो दूसरे व्यक्ति के पास जाइए, उससे सलाह सुझाव लीजिए, कि- मेरी समस्या का क्या समाधान है? कहीं न कहीं मिलेगा। सोसाइड करना पाप और अपराध है, भारतीय कानून में भी, ईश्वर के कानून में भी। जो कोई ऐसा करेगा, उसको दण्ड मिलेगा।

(54) शंका :- घर के बच्चे कैसे बिगड़ते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मान लीजिये छह वर्ष का एक छोटा बच्चा है। उसको एक दिन सर्दी, जुखाम हो गया, हल्का बुखार आ गया । और बाहर गली में आइसक्रीम बेचने वाला आया। उसने आवाज लगाई आइसक्रीम-आइसक्रीम। बच्चे ने सुन लिया, कि बाहर आइसक्रीम बेचने वाला आया है, तो बच्चे का मन करता ही है। वो अपनी माँ से कहेगा- मम्मी, मम्मी, मुझे आइसक्रीम दिलाओ, आइसक्रीम खानी है।
स माँ को पता है, कि आज इसकी तबियत ठीक नहीं है, इसको सर्दी-जुखाम है, बुखार है, आज तो आइसक्रीम नहीं खानी चाहिये, नही तो और अधिक रोगी हो जायेगा। इसलिए माँ ने मना कर दिया। बेटा आज आइसक्रीम नहीं मिलेगी, तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है। तीन दिन में ठीक हो जाओगे, फिर खिलायेंगे। अब यह बात बच्चे की समझ में थोड़े ही आती है, कि ‘आज मेरी तबियत ठीक नहीं है। मुझे नहीं खानी चाहिये।’ वो तो छोटा बच्चा है। उसका मन पर इतना नियंत्रण (कंट्रोल( नहीं है। वो तो कहता है, नहीं, मैं तो अभी आइसक्रीम खाऊँगा।’ वो नहीं समझता है, कि आज आइसक्रीम से नुकसान होगा। वो फिर दोबारा रट लगाता है, कि ‘नहीं-नहीं, मुझे तो आइसक्रीम खिलाओ।’ अब उसको खिलायेंगे, तो रोगी पड़ेगा। इसीलिये माँ ने दोबारा मना कर दिया, कि ‘नहीं बेटा, आज नहीं मिलेगी। तीसरी बार फिर माँगी। माँ ने फिर मना कर दिया। बच्चा रोने लगा, ‘मुझे तो आइसक्रीम चाहिये।’ जमकर रोना शुरू कर दिया।
स इतने में आई बच्चे की चाची। उसने पूछा, बेटा क्यों रोते हो। बच्चे ने कहा- ‘यह मम्मी बहुत खराब है।’ अच्छा क्यों क्या हुआ?’ मुझे आइसक्रीम नहीं खिलाती।’ अच्छा, मम्मी आइसक्रीम नहीं खिलाती। अच्छा चल, तू मेरे साथ चल। मैं तुझे आइसक्रीम खिलाती हूँ। वो चाची आकर के ले जायेगी और उसको बाहर जाकर के आइसक्रीम खिला देगी। समझ लेना, आपका बच्चा बिगड़ेगा। आपके हाथ में नहीं रहेगा। यह गलती की चाची ने। चाची को पहले पूछना चाहिये था, कि तुम्हारी माँ ने तुमको आइसक्रीम क्यों नहीं खिलाई। बिना पूछे ऐसे ही आकर मम्मी के ऊपर आरोप लगा दिया, ‘तुम्हारी मम्मी बहुत खराब है, बच्चों का इतना भी ध्यान नहीं देती। बच्चे रोते रहते हैं और उनको आइसक्रीम नहीं खिलातीं। अरे! आइसक्रीम ही तो है न, दो-चार-पाँच रुपये की आइसक्रीम होती है। पैसे किसलिए कमाते हैं। ये किस दिन काम आयेंगे।’ ऐसे उसने डाँट-फाँट शुरू कर दी। बच्चे की माँ से यह नहीं पूछा कि ‘तुमने बच्चे को आइसक्रीम क्यों नहीं खिलाई। बस यहाँ चाची मार खा गई। उसे पहले आकर पूछना चाहिये था, कि ‘आपने इस बच्चे को आइसक्रीम क्यों नहीं खिलाई।’ तो माँ बताती, कि ‘आज इसको सर्दी है, जुकाम है, बुखार है, इसीलिये आइसक्रीम नहीं खिलायी।’ पहले जानकारी करो। फिर चाहे, चाची खिलाये, चाहे दादी खिलाये, चाहे दादा खिलाये, चाहे चाचा। कोई भी आये, चाहे बच्चों का पिता जी आये। पहले वो माँ से पूछेगा, कि इसको आइसक्रीम क्यों नहीं खिलाई, और माँ बतायेगीं, सर्दी है, बुखार है, इसलिये नहीं खिलाई।’ सारी जानकारी करके अब बच्चे को सभी बड़े लोग एक ही जवाब दो- ‘बेटा तुम्हारी मम्मी बहुत अच्छी है। बहुत समझदार है। उसने आइसक्रीम नहीं खिलाई, बहुत अच्छा किया। आज तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है। आज तुमको आइसक्रीम नहीं मिलेगी।’ तो माँ ने भी मना किया, चाची ने भी मना किया। चाचा आया, तो उसने भी मना किया। अब बताइये बच्चा कहाँ जायेगा? उसको चुपचाप मन मारके रहना पड़ेगा। अगर आप इतना कर सकते हैं, तो समझ लो आपके बच्चे अच्छे बनेंगे, आपके नियंत्रण में रहेंगे। आपके अनुशासन में चलेंगे। अगर आप इतनी मेहनत नहीं कर सकते, जानकारी नहीं करते और खामखां बिना परीक्षण किये ऐसे दोष लगाते हैं चाची के ऊपर, माँ के ऊपर, पिता के ऊपर, तो समझ लेना बच्चे बिगड़ेंगे। माँ ने कह दिया, ‘बेटा परीक्षा आ रही है सर पे, बैठ के थोड़ी देर पढ़ लो। अचानक आए पिताजी। उन्होंने कुछ जानकारी की नहीं। और आते ही उसका विरोध कर दिया।’ क्या तुम सारा दिन बच्चे को पढ़ते ही रहने दोगी। कभी खेलने की छुट्टी भी तो दिया करो। पढ़-पढ़के पागल हो जायेंगे। जाओ बेटा, जाओ खेलो।’ पिताजी ने कह दिया जाओ खेलो। माँ कह रही है, बेटा पढ़ो। बच्चा किसकी बात सुनेगा? पिताजी की। क्योंकि उसको तो खेलना अच्छा लगता है। वो माँ की नहीं सुनेगा। और फिर माँ चिल्लायेगी- ‘देखो मेरा बेटा मेरी बात नहीं सुनता।’
स इस झंझट से बचने के लिये, अपने घर में विधान-सभा लगाओ। जैसे सब राज्यों (स्टेट( की अपनी-अपनी विधानसभा होती है। और जितने मंत्री लोग होते हैं, वहाँ सब बैठके बहस करते हैं, चर्चा करते हैं। समस्याओं को सुलझाते हैं, और सारे मिल करके एक कानून पास करते हैं। और फिर उस कानून को जनता पर लागू करते हैं। तब सरकार चलती है, तब शासन चलता है। जो घर के बड़े लोग हैं, माता-पिता, चाचा-चाची, दादा-दादी, ये सब घर के राजा लोग हैं। और बच्चे आपकी प्रजा हैं। अगर आपको प्रजा पर ठीक शासन करना है, तो घर के जितने बड़े लोग हैं, बैठ करके अपने घर में विधानसभा लगाओ। और बच्चों के लिये कानून पास करो। ‘इन बच्चों को क्या खिलाना, कब खिलाना, क्या नहीं खिलाना, कितना खिलाना, कैसे खिलाना, कब सुलाना, कब जगाना, कब स्कूल भेजना, कब खेलना, कब कूदना, कब टी.व्ही, देखना?’ यानि पूरा चौबीस घंटे का टाइम-टेबिल बनाओ।
स माँ कहती है, बच्चा दस बजे सो जायेगा। पिताजी कहते हैं, नहीं बारह बजे तक पढ़ेगा। गलत बात है। बच्चा आपके हाथ में नहीं रहेगा।
स पहले माता-पिता दोनों एक विचार तो बना लो। आपका खुद का एक विचार नहीं है। बच्चा किसकी सुनेगा! उसके मन में जो आयेगा, वो उसकी बात सुनेगा। आपकी बात नहीं सुनेगा। अगर माता-पिता में आपस में मतभेद हैं तो पहले बैठकर के अपने घर की विधानसभा में बहस कर लो। दस बजे सोना ठीक है या बारह बजे। दोनों पहले एक निर्णय कर लो। और फिर वो जो एक निर्णय स्वीकार हो जाये, फाइनल हो जाये। फिर उसको बच्चे पर लागू करो, दो अलग-अलग बात नहीं। एक मंत्री ने कहा कि जमीन के ऊपर तीस प्रतिशत टैक्स लगेगा। दूसरे मंत्री ने कहा नहीं-नहीं पच्चीस प्रतिशत टैक्स लगेगा। बोलो जनता किसकी बात सुनेगी? पच्चीस वाले की। तीस वाले की क्यों सुनेगी। फिर तीस वाला मंत्री चिल्लायेगा, ‘देखो साहब, यह जनता कैसी है, मेरी बात ही नहीं सुनती।’ आपकी बात तब सुनेगी, जब आप दोनों मंत्री एक बात बोलेंगे। तो बच्चे आपकी जनता हैं, आपकी प्रजा हैं। आप उनके शासक हैं, राजा हैं, माता-पिता, चाचा-चाची, दादा-दादी। आपको जो भी बच्चों को सिखाना है। उसका कानून बनाओ। और फिर सबके सब वो कानून बच्चों पर लागू करो। देखो आपके बच्चे कैसे नहीं बनते। हम गारंटी देते हैं, खूब बनेंगे। और आपने पालन नहीं किया, तो फिर वो खूब बिगड़ेंगे। और बिगाड़-बिगाड़ के हमारे पास ले आओगे। महाराज जी ये बच्चा बिगड़ गया है, अब आप सुधारो।’ बिगाड़ो आप, सुधारें हम। आपकी भी तो कुछ जिम्मेदारी है। आप भी तो कुछ मेहनत करो। हम तो करते ही हैं, आगे भी करेंगे।
स 24 घण्टे का टाइम टेबिल बनाओ। रात के दस बजे सोना है, और सुबह पाँच बजे उठ जाना है। इसके बाद कोई नहीं सोयेगा। आज संडे है, तो आठ बजे तक सोयेंगे। और स्कूल जाना है तो पाँच बजे उठेंगे। यह क्या मतलब हुआ भाई, सन्डे को तो स्कूल जाना नहीं, तो क्यों सोओ आठ बजे तक? क्या सन्डे को रोटी नहीं खाते? जब संडे को रोटी खाते हैं, तो आठ बजे तक क्यों सोयेंगे? ऐसे माता-पिता ने बिगाड़ रखा है बच्चों को। तो पहले माता-पिता को सुधरने की जरूरत है। पहले वो अपना कानून ठीक करें।
स सुबह जल्दी उठना इसलिए नहीं होता, कि हमको स्कूल जाना है। दरअसल, अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिये उठना है। स्कूल जाना, नहीं जाना, वो अलग विषय है। सबने सीख रखा है- ”अरली टू बैड, अरली टू राईज, मेक्स अ मैन, हेल्दी-वेल्दी एंड वाईज”। सबको पता है। लेकिन प्रैक्टिकल उल्टा है- ”लेट टू बेड, लेट टू राईज, मेक्स अ मैन, अनहैल्दी, अनवैल्दी अनवाईज।” रिजल्ट भी उल्टा ही आयेगा। अनहैल्दी (रोगी( पड़ेंगे। देखो पूरा देश रोगी हो गया, कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरा देश रोगी है। तभी तो जाते हैं स्वामी रामदेव जी के पास, सुबह-सुबह वो व्यायाम करवाते हैं न। आजकल लोग पाँच बजे टेलीविजन के सामने बैठ जाते हैं। थोड़ा एक्सरसाईज करें, तो ठीक हो जायेंगे। दूसरा परिणाम = अनवैल्दी यानि पैसे नहीं कमा सकता। और अनवाईज यानि बु(ि भी जायेगी। शरीर रोगी हो जायेगा, बु(ि भी जायेगी, तो फिर पैसा क्या कमायेंगे। तीनों जायेंगे। और आज तीनों बिगड़े हुये हैं। इसीलिये जल्दी सोयें, जल्दी उठें। जल्दी सोने का मतलब, दस बजे सोना। साढ़े नौ दस बजे तक सो जाओ। यह मेडिकल साइंस कह रहा है, मैं नहीं कह रहा हूँ। हाँ, मेरा कोई संदेश नहीं है, यह सब शास्त्रों का संदेश है। नौ, साढ़े नौ, दस बजे सो जाइये। जल्दी उठने का मतलब सुबह चार बजे, साढ़े चार, पाँच बजे तक उठ जाना । बस, पाँच के बाद नहीं। फिर देखो आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।
स जो बच्चे रात को देर तक पढ़ते हैं। रात को दस से लेकर बारह, एक, दो बजे तक पढ़ते हैं। क्या रात को पढ़ने से दिन अट्ठाइस घंटे का हो जाता है। दिन के घंटे तो चौबीस ही रहते हैं। आप दिन में पढ़ो, चाहे रात में, घंटे तो उतने ही रहने हैं। तो रात को क्यों पढ़ते हो, सुबह उठके पढ़ो न। पुराने समय में लोग जल्दी सोते थे, जल्दी उठते थे। सुबह-सुबह पढ़ते थे, उससे बहुत अच्छा याद होता था। सात घंटा आप नींद ले चुके हैं, तो आपका माइंड फ्रेश हो जायेगा। सुबह तरोताजा दिमाग के साथ पढ़ाई अच्छी होती है। अच्छा याद रहेगा। स्मृति अच्छी बनेंगी। और देर तक रात को जागेंगे, पढ़ाई अच्छी नहीं होगी, स्मृति अच्छी नहीं होगी। दिन-भर के थके हुए दिमाग से आप रात को पढ़ेंगे, तो पढ़ाई अच्छी नहीं होती। सुबह अच्छी होती है।
स इस तरह से अपना टाइम-टेबिल बनायें। बच्चों का चौबीस घंटे का समय-चक्र कागज पर लिखें। उनके कमरे में चिपका दें दीवार पर। कहें, यह तुम्हारा टाइम-टेबिल है, अब इसके हिसाब से चलना है। और जो पालन नहीं करेगा, उसको दंड मिलेगा।
स दंड के बिना कोई सुधरता नहीं है। यह बिलकुल सही नियम है। धरती पर बु(िमान लोगों ने प्रैक्टिकल करके, इसके बड़े अच्छे रिजल्ट देखे हैं। ये सिर्फ किताबी बातें नहीं हैं। आप दंड लागू करो। बच्चे फटाफट ठीक हो जायेंगे। माता-पिता दंड देना नहीं चाहते। वो डरते हैं। सोचते हैं कि बच्चे बीमार हो जायेंगे, दुःखी हो जायेंगे। ये भूखे रहेंगे तो कैसे गाड़ी चलेगी। आप दो बार, चार बार, दंड देकर तो देखो। फटाफट सीधे हो जायेंगे। अब मैं आपको अपने घर की बात सुना रहा हूँ। जब मैं छोटा बच्चा था। हमारे घर में ये सारे नियम चलते थे, जो मैंने अब तक आपको सुनाये। दस बजे सोना, सुबह पाँच बजे उठना। हम बचपन से ये काम करते रहे। हमको माता-पिता ने बचपन से सिखा दिया। दस बजे लाइट ऑफ हो जायेगी, कोई नहीं जगेगा। हमारे माता-पिता भी दस बजे सो जाते थे। यदि वो बारह बजे तक जागते होते, तब हम भी बारह बजे तक जागते होते।
स तो पहले आपको सुधरने की जरूरत है। पहले माता-पिता सुधरेंगे, तो बच्चे सुधरेंगे। गृहस्थ-आश्रम मौज-मस्ती के लिये नहीं है, तपस्या के लिये है। बच्चे ऐसे ही नहीं बनते। बहुत तप करना पड़ता है। हमारे माता-पिता ने यह तप किया। वो खुद सुबह चार बजे उठते थे। और हमको पाँच बजे उठाते थे। और पाँच बजे कैसे उठाते थे? पिताजी एक बार आवाज लगाते थे- ”हाँ बेटा, पाँच बज गये उठ जाओ।” अब दूसरी आवाज नहीं लगेगी। तुम्हारी मर्जी है, सोते रहो या उठो। और आज मैं देखता हूँ, आधे घंटे तक माता-पिता चिल्लाते रहते हैं, ‘बेटा उठो, उठो न।’ उठ रहा हूँ। यहाँ से उठके, वहाँ सो जायेगा। ‘बेटा स्कूल का टाइम हो रहा है, जल्दी उठो, नहाना भी है, स्कूल भी जाना है।” उठता हूँ, उठता हूँ, फिर यहाँ से उठेगा, वहाँ सो जायेगा। आधा-पौना घंटा तो उठाने में चला जाता है। इतना तो सीख लो कम से कम, यह आधे घंटे तक बच्चों को उठाना छोड़ दो। बिल्कुल नहीं उठाना। एक आवाज लगाना बस, बेटा पाँच बज गये उठ जाओ। न उठे, छोड़ दो, उसको सोने दो, लेट होगा न स्कूल जाने में। एक दिन स्कूल लेट जायेगा, वहाँ होगी पिटाई। फलस्वरूप दूसरे दिन से ठीक हो जायेगा।
स मैं कह रहा हूँ, ‘दंड के बिना कोई सुधरता नहीं।’ हमारे घर में सुबह छह बजे नहा-धोकर तैयार होके हवन में आना होता था। छह बजे जो हवन में नहीं आता था, उसे नाश्ता नहीं मिलता था, यानि नो ब्रेकफास्ट। भूखे जाओ स्कूल, नहीं मिलेगा नाश्ता। आपमें हिम्मत है, अपने बच्चे को बोल सकते हो, बेटा छह बजे नहा धोकर तैयार हो जाओ और हवन करना है, बिना हवन के नाश्ता नहीं मिलेगा। है हिम्मत? नहीं है। इसीलिये आपके बच्चे नहीं बनते। इतनी हिम्मत जगाओ, घर आपका है। आप घर के मालिक हैं, क्यों खिलाते हो बच्चे को रोटी। जब वो आपकी बात नहीं सुनता। रोटी कब खिलाओ, जब वो आपकी बात मानेगा। आजकल गड़बड़ मम्मी में है, और पापा में है। दोनों में गड़बड़ है। पहले वो सुधरने चाहिये। फिर शाम को हम खेलकूद के आये तो भूख लगी है। माता जी को बोला, ‘माता जी, भोजन चाहिये, तो माताजी कहती थीं- सन्ध्या की या नहीं । हम कहते-नहीं की । तो वे कहतीं -भाग जाओ यहाँ से, खाना नहीं मिलेगा, पहले सन्ध्या करो, फिर खाना मिलेगा।’ है इतनी हिम्मत आपके अंदर, जो अपने बच्चों को ऐसा बोल सकें। अगर इतनी हिम्मत नहीं है तो भूल जाओ। आपके बच्चे नहीं सुधरने वाले। अगर सुधारना चाहते हैं, तो इतनी हिम्मत बनाओ। सुबह हवन के बिना नाश्ता नहीं मिलेगा, पाँच बजे सुबह उठना पड़ेगा, रात को दस बजे सोना पड़ेगा। चौबीस घंटे का टाइम-टेबिल हमारे पिताजी ने बनाया, हमारे कमरे में चिपका दिया दीवार पर। और कह दिया, इसका पालन करना है। मेरे घर में रहना है तो यह करना पड़ेगा। नहीं तो दरवाजा खुला है, भाग जाओ यहाँ से। ये सब प्रैक्टिकल बातें हैं। हमारे घर में हो चुकी है। तब जाकर हम कुछ ज्ञानार्जन करके आपके सामने बैठकर बोल रहे हैं। इसके पीछे बहुत लंबी तपस्या है। माता-पिता की भी और कुछ हमारी भी। गुरूजनों की, परमात्मा की बहुत कृपा है। इस तरह से बच्चों का निर्माण होता है। आप लोग भी अपने बच्चों के निर्माण के लिये इस प्रकार से प्रयत्न करें ।

(55) शंका :- पन्द्रह साल का लड़का यदि दुष्ट व्यसन में पड़ जाये तो उसे कैसे सुधारा जा सकता है? कृपया विस्तार से बतलायें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पहले यह जान लें, कि सुधार और बिगाड़ का जो समय है, वो पन्द्रह साल के बाद नहीं है। दरअसल, उससे पहले है। अब तो घोड़ा हाथ से छूट गया। पन्द्रह साल का हो गया बेटा। अब तो गया हाथ से। इसका भी उत्तर बतायेंगे।
स जिनके बच्चे अभी पन्द्रह साल से छोटे हैं, वो लोग पहले ध्यान से सुनें। अगर आप अपने बच्चों को अनुशासन में रखना चाहते हैं। और उनको बुराईयों से, व्यसनों से बचाना चाहते हैं, अच्छी बात सिखाना चाहते हैं, अच्छा इंसान बनाना चाहते हैं, तो शुरु से ही सावधान हो जायें। सावधानी शुरू से होती है। जन्म से भी पहले से होती है।
स विवाह-संस्कार के बाद पहला संस्कार होता है- ‘गर्भाधान संस्कार।’ वहाँ से बच्चे को तैयारी शुरू होती है। बल्कि उससे भी पहले से होती है। शास्त्र का नियम तो यह है कि- पहले माता-पिता योजना बनाते हैं, कि हमको कैसी संतान चाहिये। उनके लिए मानसिक-संकल्प करते हैं। वो वैसी मानसिक तैयारी करते हैं। वैसी पुस्तकें पढ़ते हैं। वैसा खान-पान रखते हैं। इतनी तैयारी करके फिर वो ‘गर्भाधान-संस्कार’ करते हैं। तो उसी तरह की ‘आत्मा’ ईश्वर भेजता है। वहाँ से शुरूआत हो सकती है। लेकिन लोगों को पता नहीं है। अब कोई व्यक्ति गृहस्थ आश्रम के नियम जानते ही नहीं तो पालन क्या करेंगे?
स दरअसल, गृहस्थ आश्रम उत्तम संतान बनाने के लिये ही निर्धारित किया गया है, मौज-मस्ती के लिये नहीं। आज जितने लोग गृहस्थ में जाते हैं, शादी करते हैं, उनसे आप पूछो- आप शादी क्यों कर रहे हैं? उनके पास कोई उत्तर नहीं है। सारी दुनिया करती है, इसलिये हम भी कर रहे हैं, यह उनका जवाब है। हमारे माता-पिता का दबाव (प्रेशर( है। शादी करो, इसलिये कर रहे हैं। यह उत्तर है, उनके पास। गृहस्थ का उद्देश्य पता नहीं है।
स क्यों शादी करनी चाहिये, संतान कैसी बनानी चाहिये, संतान कैसे बनाई जाती है, कुछ पता नहीं। इसीलिये वो बच्चों को बिगाड़-बिगाड़ के रख देते हैं। सीखा ही नहीं, कि बच्चों को कैसे बनाया जाता है। यह बहुत बड़ा विज्ञान (साइंस( है। आप मकान बनाते हैं। उसके लिये कितनी मेहनत करते हैं। इंजीनियरिंग करते हैं, सिविल इंजीनियरिंग करते हैं। मकान बनाना सीखते हैं। और कितने सालों तक मेहनत करते हैं, तब जाके मकान ठीक से बनता है। यह तो जड़ वस्तु है। जड़ वस्तु को बनाने, सीखने के लिये कितनी मेहनत करते हैं। कितने सालों तक योजना बनाते हैं। कितनी प्रैक्टिस करते हैं, अभ्यास करते हैं। और एक बच्चे को अच्छा इन्सान बनाना है तो वो तो चेतन वस्तु है, वो तो मकान बनाने से हजार गुना कठिन है। और इंसान को अच्छा कैसे बनाया जाये, यह सीखते नहीं। किसी को पता नहीं। और इसीलिये बच्चों को बिगाड़ के रख देते हैं। और जब बच्चे बिगड़ जाते हैं तो फिर हमारे पास ले आते हैं- महाराज जी यह बच्चा बिगड़ गया, इसको सुधारो। बिगाड़ो आप, सुधारें हम। तो पहले आप बच्चों को बनाना सीख लो। बच्चे कैसे बनाये जाते हैं। इसके कैसे नियम होते हैं। कैसे पालन करना चाहिये।
स गर्भाधान-संस्कार से पहले तैयारी करो। हमको कैसा बच्चा चाहिये। हम उसको क्या बनाना चाहते हैं, पहले से योजना बनाओ। वैसी तैयारी करो, वैसी पुस्तकें पढ़ो। वैसा स्वाध्याय करो। ऐसे लोगों के साथ बैठो। ऐसा चिंतन करो। ऐसा खान-पान रखो। फिर आत्मा को बुलाओ। फिर ईश्वर आपके पास अच्छी आत्मा भेजेगा। और फिर उसको वैसे ही संस्कार देना। वैसा ही सोचना। वैसी ही बात सुनाना, वैसे ही लोरियाँ सुनाना। वैसी ही बातें सिखाना। फिर जब डेढ़-दो साल का बच्चा हो जाये, तब से वो समझने लगता है। फिर उसके सामने अच्छी-अच्छी बातें करना। उसको अच्छी-अच्छी चीज सिखाना। शिष्टाचार से वार्तालाप सिखाना। सभ्यता से उठना-बैठना सिखाना। लेन-देन सिखाना। और उसको धीरे – धीरे सब बातें समझाते जाना।
स उसके सामने झूठ नहीं बोलना। बहुत मातायें देखी गई हैं। जो बच्चों के सामने झूठ बोलती हैं। पिता भी कम नहीं हैं। वो भी बच्चे से झूठ बोलते हैं। और जब बच्चा सीख लेता है तो फिर कहते हैं- यह बच्चा कैसे बिगड़ गया। यह कहाँ से सीख आया झूठ बोलना। हमने तो नहीं सिखाया। अच्छा जी, आपने ही तो सिखाया था। आपको पता भी नहीं चला, कि आपने इसको झूठ बोलना कब सिखा दिया। कैसे सिखा दिया। कल्पना करो एक माता रसोई में काम करती हैं, वहाँ रसोई में चाकू रखा था। दो साल के बच्चे ने चाकू उठा लिया। बच्चा, तो अपनी मनमर्जी करता है। जैसा मन में आता है, वैसा ही करता है। माँ ने देखा, तो कहा बेटा, चाकू छोड़ दो। उसने चाकू नहीं छोड़ा, तो माँ ने उससे चाकू छीन लिया। और छीन करके पीठ के पीछे छुपा लिया। और कहा, वो कौआ ले गया। बोलो ऐसा करते हो या नहीं करते? करते हैं। आप समझते हो, यह बच्चा तो दो साल का है, यह नहीं समझेगा। हम तो इसको उल्लू बना लेंगे, इसको मूर्ख बना लेंगे। आपका यह सोचना गलत है। वो सब समझता है। हाँ बोल नहीं सकता। अभी वो बता नहीं सकता कि आपने झूठ बोला है। लेकिन वो समझ गया। वो देखता है, कि कौआ तो आया नहीं। ये कहते हैं, कौआ ले गया। पीठ के पीछे छुपाया और बोले कौआ ले गया। फिर उसने दूसरी चीज उठा ली, तो आपने फिर छीन ली, और पीठ के पीछे छिपाकर कहा, वो बंदर ले गया। न कौआ आया, और न बंदर आया। उसने देखा, कि मेरी माँ झूठ बोलती हैं। कभी कहती है, कौआ ले गया, और कभी कहती है, बंदर ले गया। न कौआ आया, न बंदर। झूठ बोलती है। माँ से बच्चे ने झूठ ‘बोलना’ सीख लिया।
स और दो महीने बाद क्या हुआ। बच्चे ने माचिस उठा ली। माँ बोली- नहीं-नहीं माचिस मत उठाओ। यह मुझे दे दो। अब वही बच्चा माचिस अपनी पीठ के पीछे छिपाकर जवाब देगा, माँ माचिस तो कौआ ले गया। मैंने ऐसा भी देखा है। माँ को बोलते देखा है। और फिर उसी मां के बच्चे को झूठ बोलते भी देखा है। अपनी आँख से देखा है। अब आपको समझ में आया, कि आपने अनजाने में क्या पढ़ा दिया। तो ऐसे नहीं पढ़ाना। आप खुद ही उनको बिगाड़ते हैं। खुद झूठ बोलते हैं। और फिर कहते हैं साहब! बच्चा बिगड़ गया। उसका दोषी और कोई नहीं है। आप हैं। तो ऐसी गलतियाँ न करें।
स उसको चाकू नहीं देना। सच बोल करके उससे चाकू ले लेना। झूठ बोलकर नहीं। चाकू उससे छीन लो। और कहो तुमको चाकू नहीं मिलेगा। चाकू हमारे पास है। हम नहीं देंगे। चाकू उठाके ऊपर रख दो। जहाँ उसका हाथ नहीं पहुँचे। चाकू नहीं मिलेगा। उसको प्रेम या गुस्से से डराते हुए समझायें तुम्हारा हाथ कट जायेगा, इसीलिये चाकू बिल्कुल नहीं मिलेगा। सच बोल करके उसको ब्रेक लगाओ। ब्लेड उठा लिया, ब्लेड छीन लो। तुम्हारा हाथ कट जायेगा। ब्लेड ऊँचा रख दो। ब्लेड नहीं मिलेगा। माचिस उठा ली। माचिस छीन लो, ऊपर रख दो। नहीं मिलेगी। ऐसे बच्चों को सच बोल करके सिखाओ। ये मातायें झूठ बोलती हैं, तो बच्चे झूठ पकड़ते हैं।
स और पिता लोग भी कम नहीं हैं। बच्चा हो गया पाँच-छह साल का। एक बार क्या हुआ, एक व्यापारी आया पैसा लेने। तो पिताजी ने दरवाजे में से देखा कि अरे! ये तो पैसे लेने आया है, और पैसे तो हैं नहीं। तो पिताजी ने बच्चे से कहा उसको जाकर के बोलो, पिताजी घर पर नहीं है। बच्चा बेचारा छोटा था। उसने जैसा सुना, वैसा बोल दिया। पिताजी कह रहे हैं, पिताजी घर पर नहीं हैं। तो वो व्यापारी जो आया था पैसे लेने के लिये, वो भी समझ गया पिताजी घर पर हैं या नहीं हैं।
स बाद में उस बच्चे ने सोचा, कि पिताजी तो घर में हैं। पिताजी घर में नहीं हैं, यह ये तो झूठ है। अब पिताजी ने तो उसको झूठ बोलना सिखा दिया। फलस्वरूप दो-तीन साल के अंदर वो बच्चा पिताजी को धोखा देने लग गया। दो-चार साल का और बड़ा हो गया। दसं में ग्यारह फिर और बड़ा- चौदह-पन्द्रह साल का हो गया। स्कूल जाता है। दोस्तों के साथ इधर-उधर घूमता रहता है। होमवर्क करता नहीं है, कभी गार्डन में टाइम बर्बाद करता है। तो कभी पिक्चर देखने चला जाता है। और शाम को घर आ जाता है फिर कहता है, मैं तो स्कूल गया था। मैं कहीं गार्डन में नहीं गया था। मैं कहीं पिक्चर देखने नहीं गया था। मैं तो स्कूल गया था। अब बोलो, किसने उसको झूठ बोलना सिखाया? उत्तर है माता-पिता ने। तो अगर आप ऐसी गलतियाँ करेंगे तो आपके बच्चे बिगड़ेंगे। इसलिए कृपया ऐसी गलतियाँ न करें। जो भी बच्चे को सिखाना है सच-सच सिखाओ। हमेशा सच बोलो।
स दस में से आठ बातें बच्चे आपके आचरण से सीखते हैं। आप जो करते हैं, बच्चे आपकी नकल करते हैं। दो बात केवल आपके उपदेश से सीखेंगे। बेटा यह अच्छी चीज है यह करो, ये खराब चीज है यह मत करो। बाकी तो आपके प्रैक्टिकल-जीवन में से सीखते हैं। आप सच बोलेंगे, तो आपके बच्चे सच बोलेंगे। आप झूठ बोलेंगे, तो आपके बच्चे झूठ बोलेंगे। तो बच्चे बिगड़ते हैं, उसके लिए सबसे बड़े दोषी उनके माता-पिता हैं।
स और तीसरा दोषी है, स्कूल का टीचर। आजकल टीचर अपना कर्तव्य छोड़ चुका है। केवल सिलेबस पढ़ा देने मात्र से अध्यापक की जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती। उसको चाल-चलन, व्यवहार, बोलना, सभ्यता और मॉरल-एजूकेशन भी देना चाहिये। यह भी टीचर की बड़ी जिम्मेदारी है। पहले के टीचर लोग ऐसा करते थे। लेकिन अब छोड़ दिया। इसलिये दुनिया बिगड़ गई।
स बच्चों के बिगाड़ के बहुत सारे कारण हैं। और भी कई कारण हैं। मैंने अभी केवल तीन मुख्य कारण बतलाये। तीन बड़े कारण हैं। एक माता, दूसरा पिता और तीसरा गुरू, (आचार्य, शिक्षक, टीचर स्कूल का( तो अगर यह तीनों अच्छे हैं। तो बच्चे अच्छे बनेंगे। अगर ये तीनों खराब हैं, तो बच्चे खराब बनेंगे। तो जिनके बच्चे अभी छोटे हैं, वो अभी से सावधान हो जायें। ऐसा कोई व्यवहार न करें, जिससे बच्चे का बिगाड़ हो।
स अपने व्यवहार को शु( रखें। मेरे पास आते हैं लोग, कहते हैं साहब! मेरे बच्चे रात को बारह बजे, एक बजे तक जागते हैं। मैंने पूछा, अच्छा आप कितने बजे तक जागते हैं। वे बोले, साहब मैं भी एक बजे सोता हूँ। मैंने कहा, जब आप एक बजे सोते हैं तो बच्चे दस बजे क्यों सोयेंगे? आप क्यों एक बजे तक जागते हो। आप भी दस बजे सोओ न, फिर देखो बच्चे क्यों नहीं सोयेंगे। तो पहले माता-पिता को अपने सुधार की जरूरत है, फिर बच्चे सुधरेंगे। मैंने कुछ मूल-मूल सि(ांत बतलाये, कि बच्चे का बिगाड़ और सुधार कैसे होता है। उस पर विशेष ध्यान दें। और जो बात आप अपने बच्चे को सिखाना चाहते हैं पहले खुद अपने जीवन में आचरण करें। जिस दोष से बच्चे को बचाना चाहते हैं, पहले स्वयं उस दोष को छोड़ें, स्वयं अच्छे कामों को करें। फिर आपका बच्चा अच्छे काम करेगा।
स पन्द्रह साल का लड़का हो गया, अब छोटा नहीं है, बड़ा हो गया। उसको जिस दुर्व्यसन से बचाना चाहते हैं। उस व्यसन की हानियाँ, नुकसान बतलायें। हानियों की सूची (लिस्ट( बनायें। उसमें लिख-लिखकर बतायें, कि यह आपने जो दुर्व्यसन पकड़ लिया है। ऐसा करने से ये हानियाँ होंगी। और उस दुर्व्यसन से बचकर ठीक काम करेंगे, तो उससे क्या लाभ होंगे? लाभ की दूसरी लिस्ट बनायें। और उससे कहें बेटा, ये जो सूचियाँ हैं, इनको हर रोज तीन बार, चार बार, पाँच बार रोज पढ़ना है। और कुछ नहीं करना, बस सूची को पढ़ना है। जैसे डॉक्टर लोग तीन बार दवा खिलाते हैं ना सुबह, दोपहर, शाम। वैसे ही यह तुम्हारी दवा है। तुमको तीन बार यह दवा खानी है। अर्थात् तीन बार यह सूचियाँ पढ़नी हैं। चार बार पढ़ो, पाँच बार पढ़ो, कोई नुकसान नहीं है। इसमें कोई ओवर डोज (अति( नहीं होती है। पाँच बार पढ़ेंगे जल्दी लाभ होगा। तीन बार पढ़ेंगे, तो कुछ देर लगेगी। तो उसको हानि और लाभ समझायें। उसकी बु(ि जागने लग जाएगी। बु(ि जाग्रत होने लग गयी, बु(ि विकसित होने लग गई। और अब शरीर भी बड़ा हो रहा है। साल दो साल में अच्छी ताकत आ जायेगी।
स जब बेटा-बेटी पन्द्रह साल के हो जायें, या उससे ऊपर सोलह-अठारह के हो जायें, तब उनको प्रेम से समझायें। बु(ि में डालें, कि यह जो तुम गलती करते हो, इससे क्या-क्या नुकसान हैं। और ऐसा नहीं करोगे, ठीक काम करोगे तो क्या-क्या फायदे हैं। यह उनको समझायें, बार-बार बतायें। और फिर उनके ऊपर छोड़ दें, कि तुम्हें अपना भविष्य अच्छा बनाना हो, तो ऐसा काम करो। और ये काम करोगे तो भविष्य खराब होगा। अब तुम जानो। हमने समझा दिया, हमारी ड्यूटी खत्म। यह पन्द्रह साल की उम्र वाले और उससे बड़ी उम्र वाले बच्चों के साथ व्यवहार होना चाहिये।
स और अगर बच्चे छोटे हैं, छोटे बच्चों का भी समझ लीजिये, कैसा होना चाहिये। छोटे बच्चे पाँच साल से कम उम्र वाले, दो साल, तीन साल, चार साल, छोटी उम्र के। उनको भी आप प्रेम से बतलायें, बेटा ऐसा करो। ऐसा मत करो। दो बार, पाँच बार, प्रेम से बतलाओ, नहीं मानते, थोड़ा-थोड़ा हल्की डाँट लगा सकते हैं। पर पाँच साल से कम उम्र वाले बच्चों की पिटाई नहीं करना। पीटना नहीं। पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की आप यदि पिटाई करेंगे, तो वे जिद्दी हो जायेंगे। अड़ियल हो जायेंगे, हठी हो जायेंगे। प्रेम से काम चलाओ, उनको कुछ खाने-पीने की चीज दो, कोई मिठाई दो, कोई फल दो। कोई और खाने की अच्छी चीज दो। कोई खिलौना दो और अपना काम चलाओ। जो काम करवाता है, वो काम करवाओ। उनको खिलाओ-पिलाओ और काम करवाओ,
स वही काम कराना है, जो आप चाहते हैं। हम बड़े हैं आपको पता है। क्या ठीक है, क्या गलत है। बच्चे छोटे हैं, उनको पता नहीं। वो तो अपनी मनमानी करेंगे। पर उनकी मनमानी बात नहीं माननी है। जो घर के बड़े लोग हैं, समझदार हैं, वो अपनी मनमानी करवायेंगे। जो उनको ठीक लगता है, वो करवायेंगे। प्यार से, डाँट से, खिला करके, कोई प्रलोभन दे के, कोई ईनाम देकर, जैसे भी।
स कभी-कभी ईनाम भी दिया, नहीं मानता। प्यार से समझाया, नहीं मानता। थोड़ी डाँट भी लगायी, नहीं मानता। छोटे-बच्चों के लिये बहुत बढ़िया उपाय है। जब ये उपाय काम नहीं करें, तो एक अंतिम उपाय है। छोटे बच्चों से बात करना बंद कर दें, बोलना बंद। उनसे कहो, बेटा यह काम करो। वो कहता है, हम नहीं करेंगे। तो बोलो- ठीक है, हम तुमसे बात नहीं करेंगे। ऐसे मुँह घुमाके बैठो। हम बात नहीं करेंगे। छोटे-बच्चे यह नहीं सहन कर सकते। पाँच साल से कम उम्र के बच्चे जब आपकी बात नहीं मानें, तो बोलो- तुम हमारी नहीं मानते, जाओ हम भी तुम्हारी नहीं मानते। हम बात नहीं करेंगे। ऐसे घूम के बैठ जाओ। दो मिनट में दिमाग ठीक हो जायेगा। फटाफट कहेंगे- हाँ-हाँ, आप जो कहोगे, हम करेंगे। वो सीधे हो जायेंगे।
स पाँच साल से बड़ी उम्र के बच्चों और बारह, अधिकतम तेरह तक की उम्र तक यानि पाँच से तेरह, इस ऐज ग्रुप में बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करें? इस पर चर्चा करते हैं।
स आप जो भी काम करवाना चाहते हैं, उसके बारे में, उससे होने वाले लाभ के बारे में उनको समझायें। प्यार से कहें- बेटा यह काम करो। कई तो चुपचाप मान लेंगे। कई अड़ियल होंगे, नहीं मानेंगे। तो दो बार, चार बार प्रेम से बतायें, नहीं मानते, फिर डाँट लगाओ, जबरदस्ती करवाओ। चलो करो, करना पड़ेगा। चलो जल्दी करो, फटाफट जल्दी करो। उनको ऐसे थोड़ा जबरदस्ती करवाओ। फिर कोई उससे भी नहीं मानेगा तो फिर उसको थप्पड़ लगाओ, कैसे नहीं करेगा। दो थप्पड़ लगेंगे। जल्दी काम करेगा। और थप्पड़ से भी बात नहीं बनी, तो खाना बंद। तुम हमारी बात नहीं मानोगे, शाम को खाना नहीं मिलेगा। खाना बंद कर दो। कैसे नहीं करेगा। बिलकुल करेगा। उसके खिलौने बंद कर दो। ‘तुम हमारी बात नहीं मानोगे, हम तुम्हारी बात नहीं मानेंगे। तुमको अच्छे खिलौने लाकर नहीं देंगे।’ ऐसे-ऐसे उन पर प्रतिबंध लगाओ। जो करवाना है, आप करवाओ। जो आपको ठीक लगता है, वो काम बच्चों से करवाओ। जो ठीक नहीं लगता, वो नहीं करवाना।
स बच्चे चाहे जो भी करें। जो भी मानें, कहें, उनकी गलत बात बिल्कुल नहीं सुननी। हाँ, जो उनकी उचित बात है, वो तो मानेंगे। अगर वो अनुचित बात कहते हैं, गलत बात कहते हैं, नहीं मानेंगे। रोते हैं, तो रोने दो। कोई चिंता नहीं। वो ही करवाना, जो आप चाहते हैं।
स अगर आपने बच्चों की उल्टी-सुल्टी मनमानी बातें स्वीकार करनी शुरू कर दी, फिर वो थोड़े दिनों में अच्छी तरह बिगड़ जायेंगे। फिर वो आपकी नहीं सुनेंगे। और अपनी सब मनमानी पूरी करवायेंगे। फिर आप कहेंगे, देखो साहब! ये कैसे बच्चे हो गये हमारे। हमने इनके ऊपर मेहनत की, इतना समय खर्च किया, इतने पैसे खर्च किये, दिन-रात पसीना बहाया और आज ये बड़े हो गये, हमारी बात ही नहीं सुनते। अरे! आपने स्वयं बिगाड़े। आपका दोष है। आपने बच्चों का संचालन करना सीखा नहीं। उनकी गलत बातें मानते रहे तो वो अपनी ही मनवायेंगे। आपकी बात नहीं सुनेंगे।
स घर-गृहस्थी वाले लोग, सि(ांत याद कर लें। ”बच्चों की गलत बात एक भी नहीं मानेंगे। सही बात सब मानेंगे।” बस, और मान लो कई-कई अड़ियल बच्चे होते हैं, बड़े ढीठ होते हैं, हठी होते हैं, इतना सब करने के बाद भी वे नहीं मानते। मान लो दस साल का बच्चा है। आपने कहा बेटा, यह काम करो- वो कहता है, मैं नहीं करूँगा। अब उसके लिये फाइनल (अंतिम( हथियार है, उसको धमकी लगाओ। यह घर हमारा है। तुमको इस घर में रहना है या नहीं रहना है? वो कहेगा- हाँ रहना है। रहना है, तो जो हम कहेंगे, वो करो। तुम नहीं करोगे, तो भाग जाओ यहाँ से। वो दरवाजा खुला है, भाग जाओ यहाँ से। हम नहीं रखते अपने घर में, निकल जाओ। उसको धमकी लगा दो, दस साल का बच्चा है, ग्यारह साल का है, बारह साल का है। आपकी धमकी सुनकर डर जायेगा। सीधा हो जायेगा। हाँ, एकाध होता है जो सचमुच भाग जाता है। इसीलिये मैंने बारह साल उम्र बताई है। बारह साल से कम उम्र का बच्चा घर छोड़ के नहीं भागेगा।
स यहाँ एक श्रोता ने कहा- हम तो बच्चे को समझाते और डाँडते हैं । परन्तु उसकी दादी बीच में आ जाती है। वह नहीं मानती। तब मैंने कहा- दादी नहीं मानती, दादी को अलग बैठाओ। उसको समझाओ। खराबी बच्चे में नहीं है। खराबी बच्चे की दादी में है। जो नहीं मानती, जो उसको बिगाड़ रही है।
स बच्चे को धमकी लगाओ, यह घर हमारा है। तुमको इस घर में रहना है। तो जो हम कहेंगे वो करना पड़ेगा। और नहीं तो भाग जाओ यहाँ से। ‘अब दस-बारह साल का बच्चा छोटा है। उसको पता है, मैं अकेला नहीं जी सकता। अभी मेरे पास इतनी बु(ि सामर्थ्य नहीं है, ताकत नहीं है, मैं अकेला नहीं जी सकता। अभी मुझे माता-पिता की जरूरत है। तो वो आपकी धमकी सुन करके, सीधा हो जायेगा। वो कहेगा- नहीं-नहीं मुझे यहाँ रहना है। तो बोलो, ‘जो हम कहेंगे वो करोगे।’ तो यह धमकी चलेगी, थप्पड़ चलेगा, मार-पीट चलेगी। डाँट-धमकी चलेगी, कब तक बारह-तेरह साल की उम्र तक।
स उसके बाद अब चौदह का हो गया, पन्द्रह का हो गया, सोलह-अठारह का हो गया, अब धमकी नहीं देना। अब तो वो भाग जायेगा। तेरह के बाद धमकी नहीं लगाना। बेटा-बेटी बड़े हो जायें, फिर धमकी नहीं लगाना, कि यह हमारा घर है, भाग जा यहाँ से।’ फिर तो भाग जायेगा।
स फिर वही जो पहले बताया था। फिर वो करना। अब उसको बु(ि से समझाओ। ‘बेटा! अब तुम बड़े हो गये, तुम समझदार हो गये, जवान हो गये। तुम्हारे पास ताकत भी आ गई। अक्ल भी आ गई। अब अपनी अक्ल से सोचो। सुझाव देना हमारा काम है। क्या करना है, क्या नहीं करना है, वो तुम जानो।’ उसके सर पर भार डालो। तो वो थोड़ा सावधान होकर सोचेगा।’ अच्छा, अगर मैं ऐसा करूँगा, तो मेरा भविष्य बिगड़ेगा। और ऐसा करूँगा तो ठीक हो जायेगा। तो अब मुझे देखना है, अपना भविष्य ठीक करना है।’ कि बिगाड़ना है। बस वो हानि और लाभ वाली लिस्ट पढ़वाओ, और वो स्वयं पढ़ करके, उसको समझ जायेगा, क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये। अगर आपने बारह-तेरह-चौदह-पन्द्रह साल तक बच्चे को बचपन से पूरी ट्रेनिंग ठीक-ठीक दी है। यह सही है, यह गलत है, यह करना है, यह नहीं करना है, इसमें लाभ है, इसमें हानि है। तो आगे फिर उसके निर्णय ठीक चलेंगे। और पहले ही पन्द्रह साल तक आपने उसको अच्छा प्रशिक्षण (ट्रेनिंग( नहीं दिया, सही गलत नहीं समझाया, हानि-लाभ नहीं बताया, उचित-अनुचित का पालन नहीं करवाया, तो आगे फिर उसके निर्णय वैसे ही उलट-पुलट होंगे। फिर आपको नुकसान होगा। तो इस तरह से बच्चों का नियंत्रण करें।

(56) शंका :- कृपया उपासना शब्द के अर्थ को ठीक से स्पष्ट करके समझाइये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उप+आसना त्र उपासना। सीधा-सीधा तो शब्दार्थ है- ‘पास में बैठना’ उप माने ‘पास’ और ‘आसन माने बैठना’। किसी वस्तु के पास श्र(ापूर्वक बैठना ही उसकी उपासना कहलाती है।
स अच्छा हम कैसी वस्तु के पास बैठेंगे, अच्छी वस्तु के या खराब वस्तु के? अच्छी वस्तु के पास बैठेंगे। तो उपासना का अर्थ हो गया अच्छी वस्तु के पास बैठना। अच्छा, जब अच्छी वस्तु के पास बैठेंगे तो उसका गुण हमें प्राप्त होगा या नहीं होगा? होगा न। तो अच्छी वस्तु के गुण को प्राप्त करना यह ‘उपासना’ का फल हो गया। और खराब वस्तु के पास आप बैठेंगे नहीं। कहीं कचरा पेटी में कूड़ा-कचरा पड़ा हो, दुर्गंध आदि आती हो तो वहाँ तो आप बैठेंगे नहीं। तो खराब वस्तु के पास कोई नहीं बैठना चाहता। जब उसके बैठेंगे नहीं, तो वहाँ की दुर्गंध को भी हम नहीं प्राप्त करेंगे। उस वस्तु को छोड़ देंगे। तो इतनी सारी बातें इस उपासना के अंतर्गत छिपी हुई हैं।
स अब शरीर से किसी वस्तु के पास बैठना, तो उपासना है ही । जैसे-अग्नि के पास बैठना। इसके अतिरिक्त दूसरी उपासना मानसिक है। अर्थात् मन से किसी वस्तु का चिन्तन करना, उसे प्रिय या सुखदाई मानना। यह भी उपासना है। यह मानसिक उपासना है। जैसे-मन से धन को या ईश्वर को प्रिय मानना । व्यक्ति सारा दिन या तो भौतिक वस्तुओं = (धन, भोजन, वस्त्र, सोना चाँदी आदि( की उपासना करता है, या जीवों = (भाई, बहिन, बेटा-बेटी, पत्नी, मित्र आदि( की उपासना करता है, या ईश्वर की । इन तीनों में से किसी न किसी की उपासना सारे दिन चलती रहती है।
स वेद आदि शास्त्रों के आधार पर )षियों का कथन यह है, कि -भौतिक वस्तुओं और जीवों की उपासना नहीं करनी चाहिये । इससे दुख मिलता है और व्यक्ति का बन्धन बना रहता है। इसके स्थान पर ईश्वर की उपासना करनी चाहिये। इससे व्यक्ति जीते जी आनन्दित रहता है, और उसका मोक्ष भी हो जाता है।

(57) शंका :- कर्म का फल भोगने के बाद संस्कार नष्ट हो जाते हैं या बने रहते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

संस्कार बने रहते हैं। फल तो भोग लिया, संस्कार बने रहेंगे। जैसे- एक व्यक्ति ने चोरी कर ली। चोरी करना कर्म है। अशुभ कर्म अर्थात् चोरी कर ली। पुलिस ने खोजबीन की। चोर मिल गया। चोरी का सामान भी बरामद हो गया। कोर्ट में केस हुआ। जज साहब ने कहा- छह महिने की जेल दी जायेगी। छह माह की जेल हो गई। यह उसका फल हो गया। छह माह बाद वो जेल से छूटकर बाहर आया। चोरी-कर्म का दंड (फल( क्या था? छह महिना जेल में रहना। फल भोग लिया। लेकिन जेल से छूटने के बाद जो चोरी करने का संस्कार है, वो अभी खत्म नहीं हुआ है। जो बिल्कुल पेशेवर (व्यावसायिक( चोर हैं, जिनका धंधा ही चोरी करने का है, वो जेल से छूटते ही चोरी करेंगे। उनको और कोई काम आता ही नहीं, कुछ सीखा ही नहीं, वे मेहनत करना जानते ही नहीं। बस, चोरी करना जानते हैं। तो वो बार-बार चोरी करते हैं। उससे उनको चोरी करने की जो आदत पड़ जाती है, इसका नाम है- संस्कार। तो यह संस्कार नहीं छूटा। चोरी कर ली, उसका दंड भी भोग लिया। छह मास जेल में भी रहा। पर अभी संस्कार नहीं छूटा। वो अभी बाकी है। बाहर जेल से आते ही फिर चोरी करेगा। इस गलत संस्कार को मिटाने के लिये अलग से मेहनत करनी पड़ेगी। उसके लिये संकल्प करना पड़ेगा, कि ‘अब बस, बहुत चोरी कर ली। अब नहीं करूँगा।’ ऐसा संकल्प करो। कुछ कष्ट उठाओ, थोड़ी तपस्या करो, तो वो संस्कार छूट जाएगा। वरना ऐसे नहीं छूटेगा।

(58) शंका :- वेद में विज्ञान है। लेकिन वेद पढ़े बिना कुछ देश या लोग वैज्ञानिक उन्नति कर रहे हैं, तो वेद पढ़ने की वैज्ञानिक दृष्टि से क्या आवश्यकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वेद की भाषा भी ईश्वर ने बनायी और उसमें व्याकरण के नियम भी साथ में थे। वेद में सारी सत्य विद्याओं का उपदेश है। महर्षि दयानंद जी ने लिखा है, वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। वेद में व्याकरण है, गणित है, भूगोल है, खगोल है, नौका विद्या, विज्ञान विद्या, वायरलेस विद्या, तार विद्या सब है।
स एक पुस्तक है-)ग्वेदादि, भाष्य भूमिका। इस पुस्तक को पढ़िये? आप को पता लगेगा कि वेदों में कैसी-कैसी विद्या है। सब तरह की सत्य-विद्या वेद में बतायी गयी है। फिर आगे )षियों ने एक-एक विद्या को छाँट-छाँट करके अलग-अलग ग्रंथ बना दिये, ताकि लोग आसानी से पढ़ सके, समझ सकें।
स देखिये, ये लोग जो समझ रहे हैं, कि वेद पढ़े बिना ही वैज्ञानिक लोग उन्नति कर रहे हैं, यह भ्रांति है। कोई भी वैज्ञानिक बिना वेद पढ़े विज्ञान की खोज नहीं कर सकता। )ग्वेदादि भाष्य भूमिका आदि ग्रंथों में महर्षि जी लिखते हैं, कि संसार में जितना भी सत्य फैला है, वह सब वेदों में से गया है। ‘कोई भी व्यक्ति वेद पढ़े बिना विद्वान नहीं हो सकता। अगर ईश्वर ने वेद न बनाये होते और वेदों को पढ़कर मनुष्य विद्वान न हुए होते तो कोई भी व्यक्ति नयी खोज-नया आविष्कार नहीं कर सकता। जैसे-मैंने अभी निवेदन किया। सृष्टि के आरभ में ईश्वर ने चार वेदों का ज्ञान चार )षियों को दिया। उन्होंने अन्य मनुष्यों को पढ़ाया । उन्होंने फिर अन्यों को पढ़ाया। इस प्रकार से पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ते पढ़ते आये। तब बु(िमान हुये। हमने बहुत कुछ गुरुओं से, अपने शिक्षकों से, अध्यापकों से पढ़ा।
स भाषा भले ही अंगेजी हो, जर्मन हो, फ्रेंच हो, लेटिन हो, जो भी हो, हमने वेद ही पढ़ा है। जो-जो सत्य विद्या पढ़ी, वो सब वेद है। भाषा बदल जाने से विद्या नहीं बदल जाती है। हिन्दी भाषा में गणित पढ़ाइये 5ग्8त्र40 ठीक है। अब इसको अंग्रेजी में पढ़ाइयें-”5 पदजव 8 मुनंस जव वितजल” । यहां पर भाषा बदल गई, लेकिन क्या गणित बदल गया? गणित तो वही है, चाहे आप हिन्दी में पढ़ाओ, अंग्रेजी में पढ़ाओ, चायनीज में पढ़ाओ, चाहे जपानी में पढ़ाओ, किसी भी भाषा में पढ़ाओ। तो जितने भी लोग सारी दुनिया भर में सत्य विद्या पढ़-पढ़ा रहे हैं, उनकी भाषाऐं अलग-अलग हैं। लेकिन वो सारी विद्या वेद में से गयी है। इसलिए दूसरी भाषाओं में दूसरी पुस्तकों के रूप में वो वेद ही पढ़ा रहे है। और गुरु से बिना पढ़े कोई साइंटिस्ट नहीं बन सकता। हजारों साल तक जंगली जीतियाँ, जंगली ही रहीं। उन्होंने कोई भी आविष्कार नहीं किया। कोई उनमें बु(ि का विकास नहीं कर पाये। अब उनमें से कुछ लोग नगर में आये या उनके लिये शिक्षा का प्रबंध किया गया, तो वो पढ़-लिखकर बु(िमान हो गये। जिस भी भाषा में व्यक्ति पढ़ता है, अगर वो सत्य पढ़ता है, सच्ची विद्या ही पढ़ता है, तो वो वेद ही पढ़ रहा हैं। भाषा बदल जाने से वेद नहीं बदलता। इसलिये संसार में जितने भी वैज्ञानिकों ने जितने भी आविष्कार किये, वे सब अपनी-अपनी भाषा में वेद = (सत्य विद्या( पढ़कर ही किये हैं ।

(59) शंका :- शास्त्रों के आधार पर प्रेम का अर्थ क्या होता है, क्या प्रेम और राग एक ही हैं या उसमें अंतर है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

प्रेम और राग में अंतर है। प्रेम का अर्थ है, रुचि, आकर्षण। ईश्वर में प्रेम होना चाहिए, ईश्वर में रुचि होनी चाहिये, ईश्वर में आकर्षण होना चाहिए। लेकिन जो राग है, राग में गड़बड़ है।
स राग में क्या गड़बड़ है? राग में आसक्ति (अटैचमेंट( है, वो अटैचमेन्ट अविद्या से पैदा होती है। जो रुचि, जो आकर्षण ‘अविद्या’ के कारण पैदा होती है, उसको बोलते हैं-‘राग’। और जो रुचि, जो आकर्षण ‘विद्या’ (तत्त्व ज्ञान( से पैदा होती है, उसको बोलते हैं-‘प्रेम’।
स प्रेम सबसे करना चाहिए। गाये से, घोड़े से, पशु-पक्षी, मनुष्य, ईश्वर सबसे प्रेम करना चाहिए। प्रेम करने का विधान है। अहिंसा का मतलब है, ‘सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करना।’
स प्रेम सबसे करना चाहिए, पर राग किसी से भी नहीं करना चाहिए। धन से, पुत्र से, परिवार से, संपत्ति से, मोटर-गाड़ी, सोने-चांदी आदि किसी भी चीज से राग नहीं करना चाहिए। राग, दुःख-दायक है। प्रेम, दुख दायक नहीं है। क्योंकि राग ‘अविद्या’ के कारण उत्पन्न होता है, और प्रेम ‘तत्त्व-ज्ञान’ के कारण उत्पन्न होता है। इसलिए दोनों में अंतर है।

(60) शंका :- वेद’ ईश्वर की वाणी है। ईश्वर ने इसके निर्माण में कैसे सहायता की?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वेद ईश्वर की वाणी है। इसको इस तरह से समझना चाहिए, कि मनुष्य बिना सिखाए नहीं सीखता। बचपन से माता-पिता ने हमकों उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना-फिरना, बोलना आदि सब बात सिखाई, तब जाकर हम सीख पाए। फिर स्कूल में गए। अनेक अध्यापकों, शिक्षकों ने हमें पढ़ाया-लिखाया, तब जाकर हमारी बु(ि का कुछ विकास हुआ।
स एक मनुष्य के बच्चे को जन्म से ही बड़े से कमरे में रख दिया जाए। जिसमें बहुत बड़ी लाइब्रेरी हो, और बहुत बड़ी-बड़ी मशीनें हों, कम्प्यूटर भी हो, सिखाने वाली सारी चीजें हों। और उसको शिक्षक, टीचर कुछ भी न दिया जाये। तो क्या वो सारी लाइब्रेरी की पुस्तकें पढ़कर विद्वान हो जायेगा? नहीं होगा न। तो इससे पता लगता है, कि जब तक शिक्षक-अध्यापक (टीचर( न मिलें, तब तक व्यक्ति का विकास नहीं होता।
स आप और हम, आज पढ़-लिखकर बु(िमान हो गये। हमें बु(िमान बनाया, हमारे अध्यापकों ने। हमारे अध्यापकों को बु(िमान बनाया उनके अध्यापकों ने। और उनको-उनके अध्यापकों ने। तो पीछे-पीछे चलते जाइये। सबसे पहले जो मनुष्य पैदा हुये, इनको बु(िमान किसने बनाया? उनको भी कोई अध्यापक-शिक्षक चाहिए। उनकी किसने विद्वान बनाया? ईश्वर ने। तो ईश्वर ने जो पहली पीढ़ी (फर्स्ट जनरेशन( को जो पढ़ा-लिखा कर विद्वान बनाया, वो ही चारों वेद थे। उन चार वेदों के माध्यम से ईश्वर ने पहले-पहले मनुष्य को पढ़ा करके बु(िमान बनाया।
स और फिर ईश्वर ने उनको पढ़ा कर, उनकी ड्यूटी लगा दी कि मैंने आपको पढ़ा दिया अब आप आगे वाली पीढ़ी को पढ़ाओ। फिर वो आगे-आगे गुरू-शिष्य परंपरा से पढ़ना-पढ़ाना चलता रहा, और आज तक हम पढ़ते चले आ रहे हैं। जब तक लोग ऐसे पढ़ते जायेंगे, तब तक लोग बु(िमान बनते जायेंगे। और जब पढ़ना-पढ़ाना छोड़ देंगे, फिर जंगलियों की तरह हो जायेंगे, पशुओं की तरह बन जायेंगे। तो ईश्वर ने सबसे पहले चार वेदों का उपदेश दिया। फिर उन्हीं चार वेदों से सब लोग बारी-बारी से पढ़कर बु(िमान हुए।
स अब प्रश्न यह रह जाता है, कि ईश्वर ने यह चार वेदों का उपदेश कैसे दिया। उसकी प(ति क्या है? इसको समझाते हैं। प्रश्न है – ईश्वर एक है या अनेक? उत्तर है-एक । अगला प्रश्न है, वह एक ईश्वर एक जगह पर रहता है, या सब जगह पर ? उत्तर है- सब जगह पर। अगर ईश्वर सब जगह रहता है तो हमारे अंदर भी है, बाहर भी है। तो शुरु-शुरु में जो हजारों मनुष्य पैदा हुए थे। उनमें जो बहुत अच्छे सबसे अधिक बु(िमान थे, सुपर जीनियस क्लास में चार व्यक्ति धरती पर भगवान ने सिलेक्ट कर लिये (चुन लिये( । उनको हम ‘)षि’ नाम से कहते हैं । )षि-सबसे अधिक बु(िमान व्यक्ति। वो इतने बु(िमान कहां से हो गये थे। वो पिछली सृष्टि के कर्म-फल के अनुसार बु(िमान थे, उनके ऐसे अच्छे कर्म थे। तब उन चार व्यक्तियों के मन में एक-एक वेद का उपदेश दिया। इस तरह से ईश्वर ने चार व्यक्तियों को चार वेदों का उपदेश उनके मन में दिया। क्योंकि ईश्वर उनके अंदर भी था और बाहर भी था।
स जब अंदर ही अंदर आपको बोलना हो, अपने मन में ही कोई बातचीत करनी हो, योजना बनानी हो, प्लानिंग करनी हो, तो बिना जबान हिलाये, आप मन-मन में खूब योजना बना सकते हैं। और जब ध्यान में बैठते हैं, तो बिना हिलाये चलाये, बिना जबान चलाये मन्त्रपाठ, अर्थ का विचार कर सकते हैं। तो ईश्वर भी उन चार व्यक्तियों के मन में था। और उनके अंदर बैठे भगवान ने चारों वेदों का उपदेश दे दिया और सारी बात अंदर ही अंदर सिखा दी। उसको न जबान की जरुरत पड़ी, न मुंह की जरुरत पड़ी, न होठ की जरुरत पड़ी। उन )षियों के नाम अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा थे। अग्नि को )ग्वेद का ज्ञान दिया। वायु को यजुर्वेद का, आदित्य को सामवेद का और अंगिरा को अथर्ववेद का। इस तरह ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद का ज्ञान दिया।

(61) शंका :- हिंसक प्राणियों साँप, बिच्छु, चींटी, काकरोच आदि के साथ कैसा व्यवहार करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जहां तक संभव हो, इनको न मारें। झाडू मारके इनको हटा दो, बाहर कर दो। घर में कौऐ घुसते हैं, कबूतर आते हैं, चिड़िया आती हैं, हम बाहर निकाल देते हैं। चोर आता है, उसको भी बाहर निकाल देते हैं। बिच्छू, साँप आयेगा, उसको भी बाहर निकाल देंगे, मारेंगे नहीं। जहाँ तक हो सके, इन प्राणियों को नहीं मारना चाहिए।
स लोग सांप को देखते ही मारते हैं। अगर उनसे पूछें कि क्यों भाई, क्यों मारते हो? तो जवाब देते हैं – ये साँप काट लेगा। हम अगर उनसे पूछें, कि अभी काटा तो नहीं न। तो फिर क्यों मारते हो? तो वे कहते हैं, कि साहब इसकी संभावना है।’ तो इसका जवाब है कि ‘संभावना के आधार पर आप किसी को दण्ड दे सकते हैं क्या? न्याय का नियम यह है, कि जब तक कोई अपराध न कर ले, तब तक उसे दण्ड नहीं दिया जा सकता है। हम रेल में चलते हैं, बस में चलते हैं, कितने सारे लागे चलते हैं, तो संभावना तो किसी की भी हो सकती है, कि कोई भी जेब काट सकता है। क्या बिना जेब काटे ऐसे केवल संभावना के आधार पर में सबको पकड़ के जेल के अंदर कर देंगे? ऐसा तो नहीं कर सकते। तो केवल संभावना के
आधार पर दंड नहीं दे सकते। जब तक कि वो अपराध न कर लें। ‘
स अपनी सुरक्षा रखो, खिड़कियों में जाली लगाओ, कौओं, कबूतर, चिड़ियों को मत घुसने दो। मच्छर काटते हैं, मच्छर दानी लगाओ, तो जहाँ तक हो सके, इनको नहीं मारना चाहिए। देखिए, चौबीस साल से हम जंगल में रहते हैं। (हम जंगल में जरूर रहते हैं पर पूरे जंगली नहीं हैं( यहां आस-पास में काफी सांप रहते हैं। और खूब सांप आगे-पीछे, इधर-उधर घूमते रहते हैं। तालाब की तरफ खूब साँप आते हैं। हमने आज तक एक भी सांप नहीं मारा और न साँप ने हमको काटा। हम उनको नहीं छेड़ते, वो हमको नहीं छेड़ते। वो चुपचाप चले जाते हैं। हम अपना चुप-चाप चले जाते हैं, कुछ भी नहीं करते। आप भी ऐसा ही करने का प्रयत्न करें।
स बिल्कुल इमरजेन्सी हो, बहुत मुसीबत आ रही हों, तो मजबूरी में उनको हटा सकते हैं। और मान लो, मारने की बहुत मजबूरी हो, और आपको ऐसा लगता हो कि साँप बिल्कुल आपके ऊपर आक्रमण करने को तैयार है । और आपको अपनी जान का खतरा है, तो आप भी मार सकते हैं, पर द्वेष के कारण नहीं मारना। अपनी रक्षा के लिए तो मारेंगे तो उसमें थोड़ा दण्ड तो मिलेगा, पर ज्यादा नहीं मिलेगा। द्वेष के कारण मारेंगे तो ज्यादा दण्ड मिलेगा। अपनी रक्षा करने का अधिकार सबको है, इस प्रकार से जहाँ तक संभव हो सके, वहाँ तक किसी को न मारें।

(62) शंका :- परमात्मा और जीव को पदार्थ क्यों कहा है, जबकि ये दोनों चेतन स्वरूप हैं, जड़ नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आजकल के स्कूल-कॉलेज में चार तरह का द्रव्य पढ़ाया जाता है- ठोस, द्रव, गैस और प्लाजमा। सॉलिड, लिक्विड़, गैस और प्लाजमा नामक, ये चार तरह की वस्तुए पढ़ाई जाती हैं। उनका नाम वस्तु है, पदार्थ है, द्रव्य है, चीज है। ‘जो स्थान घेरती है,’ जिसमें भार रहता है, वह वस्तु कहलाती है।’
स ईश्वर और जीव तो इस परिभाषा में आता ही नहीं। ईश्वर और जीव न तो ठोस है, न द्रव है, न गैस है, न प्लाजमा है । तो उसको वस्तु क्यों कहा, पदार्थ क्यों कहा? तो इस प्रश्न का उत्तर है कि ये जो सालिड, लिक्विड, गैस और प्लाजमा की परिभाषा है, ये केवल भौतिक-विज्ञान की परिभाषा है। ईश्वर और आत्मा भौतिक विज्ञान का विषय ही नहीं है, उसका क्षेत्र (फील्ड( ही नहीं है। वस्तुतः वो जितनी बात जानते हैं, उतनी ही की तो परिभाषा बनायेंगे। जबकि दर्शन और वेद की वस्तु की परिभाषा इससे और व्यापक है।
स दर्शन और वेद की परिभाषा है- ‘जिस तत्त्व में कुछ गुण हों अथवा क्रिया भी हो, उसे पदार्थ कहते हैं। पदार्थ, वस्तु, चीज उसका नाम हैं, जिसमें गुण हों, अथवा गुण के साथ-साथ क्रिया भी हो। क्रिया हो या न हो, वो वैकल्पिक (ऑप्शनल( है, लेकिन गुण अवश्य होना चाहिए। उसको द्रव्य या वस्तु कहते हैं।
स अब इस परिभाषा में देखिये कि-ईश्वर में कुछ गुण हैं, या नहीं? हैं न। तो ईश्वर एक वस्तु हो गयी। आत्मा में कुछ गुण हैं या नहीं है। इसलिए आत्मा भी एक वस्तु है। और प्रकृति में तो गुण हैं ही। प्रकृति में रूप, रस, गंध आदि गुण हैं ही। इसलिए प्रकृति भी एक वस्तु है। तो वेदों के अनुसार, )षियों के अनुसार तीन वस्तुऐं अनादि हैं- ईश्वर, आत्मा और प्रकृति। इसलिए ईश्वर और आत्मा भी वस्तु हैं।
स इस आधार पर हम यह कह सकते हैं, कि वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं-एक जड़ वस्तुएँ, दूसरी चेतन वस्तुऐं। तीन में से एक जड़ वस्तु हैं ‘प्रकृति’। और दो हैं-चेतन वस्तुऐं- ‘ईश्वर’ और ‘आत्मा’। इसलिए इन दोनों को भी हम वस्तु कह सकते हैं, पदार्थ कह सकते हैं, द्रव्य कह सकते हैं, चीज भी कह सकते हैं।

(63) शंका :- वास्तविक मृत्यु ईश्वर द्वारा लिखी जाती है, जो कि सौ वर्ष से कम नहीं है। क्या इससे कम जीवन देकर ईश्वर जीव को संसार में नहीं भेजता?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ इससे कम जीवन देकर भी भेजता है। कर्मानुसार ईश्वर आयु देता है । पहले लोग अच्छे काम करते थे, खान-पान ठीक था, व्यायाम भी ठीक था, ब्रम्हचर्य का पालन भी करते थे, दिनचर्या का पालन भी करते थे आदि आदि। लोग आयु बढ़ाने वाले कर्मों का आचरण करते थे तो भगवान सौ वर्ष की आयु देकर भेजता था। अब वो सारा कुछ बदल गया। खान-पान बिगड़ गया, जलवायु बिगड़ गया, दिनचर्या बिगड़ गई, ब्रह्मचर्य का पालन भी नहीं रहा। और भी कई चीजें बिगड़ गई। इसलिए भगवान अब सौ वर्ष की आयु देकर नहीं भेजता। किसी-किसी को देता है। जिससे के जैसे कर्म होते हैं, उसको वैसी आयु देता है, कम भी देकर भेजता है। पर जितनी आयु देकर भेजता है, उसकी भी गारंटी नहीं है, कि व्यक्ति उतने दिन जी लेगा। तब जी सकता है, जबकि वह दुर्घटनाओं से बचता रहे। एक्सीडेंट होता है, मर जाते हैं, पैदा होते ही मरते हैं, दो साल के भी मरते हैं। उनकी सुरक्षा-देखभाल ठीक से नहीं हो पायी। इंफेक्श्न हो गया, मर गये। एक की भूल के कारण दूसरे को नुकसान होता है। हम सड़क पर चलते हैं, ठीक-ठाक चलते हैं। पीछे से ट्रक, कार वाला आकर के हमको ठोकता है। उसकी गलती से हमको नुकसान होता है। ऐसे ही डॉक्टर की भूल से, नर्स की भूल से, मां-बाप की भूल से, बच्चे को नुकसान हो सकता है। उसकी मृत्यु हो सकती है, हाथ-पांव, टेढ़े-मेढ़े हो सकते है, कुछ भी हो सकता है।

(64) शंका :- व्याप्य-व्यापक संबंध का अर्थ समझने में आया। पर उसकी अनुभूति नहीं होती। इसके लिए क्या करना चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसके लिए अभ्यास करना चाहिए। रोज अभ्यास कीजिए। रोज ऐसे सोचिए जैसे आज हम यहां बैठे हैं। आपके आस-पास चारों तरफ हवा है। आप सोच सकते हैं न। क्योंकि हवा के साथ रहते हुये बहुत दिन हो गये और इसके बारे में बीस बार, पचास बार हमने सोचा भी है कि हवा हमारे चारों तरफ है। तो हवा हमारे चारों तरफ है, यह सोचना सरल है। इसका हमने बहुत बार अभ्यास किया है। ‘ईश्वर भी, हमारे चारों तरफ है, हमारे आस-पास है, जैसे हवा है।’ हमने इस बात का अभ्यास कम किया। अब इस बात का अभ्यास करें।
जैसे वायु हमारे चारों तरफ है, हमारे अंदर भी है, बाहर भी है, रोज सांस लेते हैं, हर समय लेते हैं। वायु अंदर भी जाती रहती है, बाहर भी आती रहती है। चारों तरफ वायु फैली हुई है। ऐसे ही ईश्वर के बारे में भी अभ्यास करें। ‘ईश्वर भी हमारे अंदर भी है और बाहर भी है। चारों तरफ फैला हुआ है ईश्वर। इसका रोज अभ्यास करेंगे। तो दो, चार, छः महीने में आपको थोड़ा-थोड़ा अनुभव होने लगेगा, कि हाँ ईश्वर हमारे अंदर-बाहर, आस-पास, ऊपर-नीचे, दांये-बांये है,’ सब जगह मौजूद है। जैसे वायु सब जगह है, जैसे आकाश सब जगह है। ऐसे ही ईश्वर का भी धीरे-धीरे अभ्यास होने से उसकी सर्वव्यापकता का या ईश्वर के साथ हमारे व्याप्ययय-व्यापक संबंध का अनुभव होने लगेगा।

(65) शंका :- हमारे देश में मूर्ति-पूजा कब से शुरू हुई? हम यदि मूर्ति-पूजा नहीं करते है लेकिन साथ के अन्य लोग कर रहे हैं, तो उनके साथ कैसे रहें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आप रेल यात्रा करते हैं, बस में चला करते हैं। जब आपके पड़ोस में बैठे लोग बीड़ी पीते हैं, तब क्या आप लाठी उठा लेते हैं? तब भी उनके साथ बैठे रहते हैं न। उनके बीडी, सिगरेट पीने को सहन करते हैं। और उनको समझाते हैं, कि भई बीड़ी मत पिओ। सामने नो स्मोकिंग लिखा है न। उनको बस समझा सकते हैं, लेकिन लाठी थोड़े मारेंगे। कुछ लोग समझदार होते हैं, मान लेते हैं। कुछ लोग अड़ियल होते हैं, वे नहीं मानते हैं। तब हम मुँह पर रूमाल डाल लेते हैं।
स संसार में बहुत तरह के लोग हैं। कोई मूर्ति पूजा करता है, कोई नास्तिक होता है, कोई झूठ बोलता है। हम उसको प्रेम से समझाऐंगे। समझ जाएगा, तो ठीक है। और नहीं समझेगा, तो अपनी आँखें बंद कर लेंगे।
स सवाल है कि मूर्ति पूजक हमारा लाइफ- पार्टनर ही हो, तब उसके साथ कैसे रहें? उसको भी आप समझाएँ। अगर वो मानता हो, तो बहुत अच्छा। और नहीं मानता हो, तो जब वो मूर्ति पूजा करें, तब आप दूसरी तरफ मुंह करके अपना ध्यान कर लेना। दोनों मिलकर खाऐंगे, एक ही घर में रहेंगे। प्रेम से समझाएँगे, तो कभी न कभी उसकी समझ में आएगा। समय ज्यादा लग सकता है, पर समझ में आएगा। इसलिए झगड़ा नहीं करना। हमारा काम प्र्रेम से समझाना है, उनसे झगड़ा करना नहीं। उनको समझ में आए तो ठीक, न समझ में आए, तो कोई बात नहीं।
स अगर प्र्रेम से समझाऐंगे, तो आज नहीं तो कुछ साल में, कभी न कभी उनको समझ में आ जाएगा। झगड़ा करेंगे, तो वह पचास साल में भी नहीं समझेगा। और आपका दुश्मन हो जाएगा। प्रेम से अगर उनको समझ में आता है, तो ठीक है। नहीं आता तो छोड़ दीजिए। लेकिन रहेंगे तो साथ में ही न उनके। वो भी रोटी खाते हैं, हम भी रोटी खाते हैं।
स मूर्ति पूजा जैनियों से शुरू हुई। और जैनियों का समय आज से लगभग चार हजार वर्ष पहले है। जैनियों ने शुरू की, फिर बौ(ों ने शुरू की, बौ( पैंतीस सौ वर्ष पहले हुये। तो लगभग साढ़े तीन, चार हजार वर्ष से भारत में मूर्ति पूजा शुरू हुई। और उनकी देखा-देखी अपने आर्य लोगों ने भी शुरू कर दी। उन्होंने अपनी देवी-देवताओं की, महापुरूषों की मूर्तियाँ बनाना शुरू कीं और पूजा शुरू कर दी। महाभारत से पहले धरती पर भारत में और विदेशों में कोई मूर्र्ति पूजा (बुतपरस्ती( नहीं थी।
स श्रीकृष्ण जी तो वेद के विद्वान थे। वे गुरूकुल में पढ़ने संदीपनी गुरू जी के पास गये थे। गीता में क्या लिखा हैः- ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृदयऽर्जुनतिष्ठति’, हे अर्जुन! ईश्वर तो सब प्राणियों के हृदय में रहता है। ‘तमेव शरणं गच्छ’, उसी की शरण में जा।’ यहाँ तो श्री कृष्ण जी कितनी अच्छी बात कह रहे हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है, अर्जुन तू उसकी शरण में जा। यह बात बिल्कुल ठीक है। वेद के अनुकूल है। श्रीकृष्ण जी महाराज की ऐसी बात तो माननी चाहिये। भगवान कभी आता-जाता नहीं। वह सर्वव्यापक है। कहाँ से आएगा और कहाँ जाएगा?
स वेद ईश्वर का वचन है, और ईश्वर सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ के वचन में कोई भूल नहीं है, कोई भ्राँति नही ंहै, कोई संशय नहीं है, कोई गड़बड़ नहीं है। चाहे कोई भी हो, परमात्मा से बड़ा तो कोई भी मनुष्य नहीं है।
स यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय में तीसरा मंत्र लिखा है – ‘न तस्ये प्रतिमा अस्ति’। ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं है। ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता।
स बहुत से लोग इसका अर्थ यह लेते हैं, कि जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म की वृ(ि होती है, तब-तब भगवान अवतार लेता है। तब जो भगवान का दर्शन करते हैं, उनकी मुक्ति हो जाती है। क्योंकि भगवान के दर्शन से ही मुक्ति होती है। अगर इसका यह ही अर्थ है, तब तो भगवान के दर्शन करने का बड़ा सरल उपाय है। क्या उपाय है? खूब पाप करो, खूब अधर्म करो ताकि जल्दी से जल्दी भगवान आयें और उनका दर्शन हो और हमारी मुक्ति हो जाए। क्या ये बात ठीक है? गलत है। पाप करने से कभी भी मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती। ‘पाप करने से मुक्ति होने’ की बात को कोई भी बु(िमान् व्यक्ति नहीं मानेगा। इसलिए अधर्म की वृ(ि होने पर भगवान नहीं आता।
स गीता के अंदर बहुत सारी अच्छी बातें है। परन्तु बहुत सी बातें इसमें गलत मिला दी गई हैं और उसकी परख हर व्यक्ति को नहीं है। सोने में कितनी मिलावट है, इसको हर व्यक्ति नहीं पहचान सकता। कौन पहचान सकता है? सुनार ही पहचान सकता है, कि इसमें कितनी खोट है, कितनी मिलावट है। शास्त्रों में भी बहुत सी मिलावट है। उसको हर व्यक्ति नहीं पकड़ सकता। जो उस विषय में अधिकारी है, वो ही पकड़ सकता है।
स आपको आश्चर्य की बात बताऊँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ अध्याय गीता का, जिसमें भगवान का विराट स्वरूप बतलाया है- मैं वेदों में सामवेद हूँ, फूलों में कमल का फूल हूँ, और सितारों में फलाना हूँ, )षियों में फलाना अगस्त हूँ, और ये और वो, जो भी विस्तार से लिखा है। इसी विराट स्वरूप में दसवें अध्याय के छत्तीसवें श्लोक में लिखा है कि- ‘द्यूतं छलयताम् अस्मि’ अर्थात् मैं छल कपट की विद्या में जुआ हूँ।’ अब गीता में तो लिखा है कि, भगवान छली-कपटी हैं आप मानेंगे, भगवान छली-कपटी है! या तो भगवान को छली-कपटी मानो, या कहो कि गीता में मिलावट है। बोलो क्या मानेंगे? मिलावट। बस हो गई बात खत्म। तो ऐसी-ऐसी गलत बातें उसमें डाल रखीं हैं। उनको आप हटा दीजिये। गीता में जितनी सही बात है, वो मान लीजिये।

(66) शंका :- इस जन्म में मांस और शराब बुरा समझते हुऐ हम नहीं खाते हैं या इन्हें बुरा मानकर खाना छोड़ दिया है। अगले जन्म में खाना-पीना नहीं चाहते, क्या ऐसा होगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ बिल्कुल हो जाएगा, आप इस जन्म में नहीं खाते और संकल्प भी करते हैं कि यह बहुत बुरी चीज है, हम आगे भी नहीं खायेंगे। तो अगले जन्म में आप नहीं खायेंगे। आपके खाने-पीने के संस्कार बनेंगे ही नहीं। और जो पहले कभी थोड़ा-बहुत खाया भी हो, तो अब उसका आपने प्रायश्चित् कर लिया, और पक्का संकल्प कर लिया कि जो खा लिया, सो खा लिया, वो तो गलती हो गई। अब ऐसी गलती आगे नहीं करेंगे। तो आगे योगदर्शन में एक शब्द लिखा है, दग्धबीज करना’-जिस कार्य को दोबारा करने की इच्छा कभी भी न हो, उसको बोलते हैं-दग्धबीज। तो इस जन्म में तो शायद आप नहीं खायेंगे। बस बात खत्म हो गई। आपको कोई जबर्दस्ती, खिलाये तो भी नहीं खायेंगे। संस्कार अभी तो दग्धबीज जैसा ही हो गया। और यदि बिल्कुल कभी भी इच्छा नहीं होगी खाने की, तो इस कारण से संस्कार दग्धबीज हो गया।

(67) शंका :- मन एक जड़ पदार्थ है । तो मन, शरीर में किस जगह पर रहता है, और मन को कैसे पकड़ा जाए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

रात्रि में जो हम शयनकालीन मंत्र पढ़ते हैं, …..(30.04( उन मंत्रों में एक शब्द आता है हृत्प्रतिष्ठम् । अंतिम छठे मंत्र में आता है न। ………………तो उससे पता लगता है, कि मन, हृदय में रहता है। वो विद्वान लोग कहते हैं, कि हृदय दो तरह का है। एक छाती में है, एक सर में है। तो अपने चिंतन से, व्यवहार से, सामान्य स्वभाव से हमको ऐसा लगता है कि मन मस्तिष्क वाले हृदय में रहना चाहिए। क्यों रहना चाहिए? मन का काम है- संकल्प-विकल्प, विचार करना। जो हम विचार करते हैं, वो तो मस्तिष्क से ही करते हैं। मन का जो कार्य है विचार करना। विचार करने में जो स्थूल शरीर का भाग है, वो ब्रेन (दिमाग( ही है। इसी से हम विचार करते हैं। आज की मेडीकल साइंस भी यही कहती है। इससे लगता है कि मन-मस्तिष्क में रहना चाहिए।
अगला प्रश्न है – उसको पकड़े कैसे? आंख बंद कर के बैठो और अपने मन के विचारों को पकड़ो। मेरे मन में कौन सा विचार आ रहा है? वस्तुतः आ नहीं रहा है, हम ही ला रहे हैं। हम कौन सा विचार ला रहे हैं। हम खाने-पीने का विचार ला रहे हैं, घूमने-फिरने का विचार ला रहे हैं, उस विचार को पकड़ लीजिए, बस मन पकड़ में आ गया। गाय के गले में रस्सी बंधी है। अगर गले की रस्सी पकड़ में आ जाए, तो गाय पकड़ में आ गई न। मन का काम क्या है-विचार करना। बाल्टी की तरह पकड़ में नहीं आयेगा वो। विचारों से ही पकड़ में आयेगा। विचारों को पकड़िये, मन आ गया हाथ में।

(68) शंका :- साठ वर्ष का पिता रिटायर्ड फौजी है। शराब की आदत है। सारी पेन्शन शराब में उड़ा देता है। क्या शराब छुड़ाने का कोई उपाय है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

शराब छुड़ाने के लिए सरकारी अस्पताल में संपर्क करें। कुछ प्राइवेट डॉक्टर्स भी होते हैं, कुछ सरकारी हॉस्पिटल होते हैं। वहाँ से आपको दवाई मिल जाएगी। शराब छूट सकती है। पिता को प्रेम से समझायें, बतायें। बु(िमत्ता से काम लेना अच्छा है। झगड़ा करना अच्छा नहीं है।

(69) शंका :- मृत शरीर को वैदिक धर्मानुसार जलाते हैं। कुछ वैज्ञानिक कहते है कि शरीर को गाड़ने से जमीन में अच्छी फसल तैयार होती है, और लकड़ी जो आजकल महंगी है, वो बच जाती है। कृपया इसकी विस्तृत जानकारी दें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मृत शरीर को गाड़ना अच्छा नहीं है। वेद के अनुकूल नहीं है। वेद में लिखा है – यजुर्वेद पढ़िये, चालीसवां अघ्याय है, उसमें लिखा है -भस्मान्तम शरीरम्। तो वेद में ईश्वर ने बताया है, सबसे बढ़िया तरीका है,अग्नि संस्कार करना।
स ईश्वर कहता है- शरीर को अन्त में भस्म करना चाहिए। यह शरीर का निपटाने का सबसे अच्छा तरीक है। मिटटी में गाड़ते है, तो जमीन खराब होती है। कब्रिस्तान में गाड़ते-गाड़ते इतनी जगह मुर्दों ने ले ली, कि जिन्दों के लिए जगह ही नही बची। जमीन दूषित होती है, खामखां जमीन घेर ली जाती है। सौ आदमी मर गए, तो मरे हुए लोग, सौ जीवित आदमियों के बराबर जगह घेर लेंगे। और अपने यहाँ अन्तिम संस्कार कराने में एक ही चिता पर सौ आदमी जला लो। एक जल गया, दूसरा जल गया, सौ जल गये उससे जमीन भी बचती है और उसका अच्छी तरह से निपटारा हो जाता है, जलाने से थोड़ी सी दुर्गन्ध भी फैलती है, उसके निवारण के लिए घी का प्रयोग करते हैं। तो उससे दुर्गन्ध का भी शु(िकरण हो जाता है।
स रही बात लकड़ी की । उसका उत्तर है- जितने पेड़ काटते है उतने पेड़ और लगाओ, लकड़ी की समस्या हल हो जाती है। फिर कहते हैं, लकड़ी मँहगी हो गई। मँहगाई का उत्तर है, कोई वस्तु यदि आवश्यक है, तो कितनी भी मँहगी हो जाए, उसका प्रयोग तो करेंगे ही । जैसे- पैट्रोल, डीजल, घी, तेल, गेहूँ, चावल आदि क्या मँहगे नहीं हो गये ? क्या उनका प्रयोग करना बन्द कर दिया? जब इनका प्रयोग कर रहे हैं, तो लकड़ी का भी करेंगे, चाहे जितनी भी मँहगी हो जाये।

(70) शंका :- समाधि अवस्था क्या है? हमने सुना है बहुत सारे संत ‘समाधि अवस्था’ में भगवान के पास गए। यह कैसे संभव है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधि अवस्था एक ऐसी अवस्था है, जिसमें हम योगदर्शन में बताई गई पांच प्रकार की प्रमाण आदि वृत्तियों को रोक लेते हैं। और ईश्वर की अनुभूति शुरू हो जाती है। ईश्वर का अनुभव प्राप्त हो जाता है। उससे हमें ज्ञान, आनन्द, बल आदि बहुत सारी चीजें मिल जाती है। इसका नाम है ‘समाधि’। ऐसी समाधि लगाकर बहुत सारे संत, महात्मा, )षि मुनि लोग ईश्वर के पास चले गए और जन्म-मरण के चक्कर से छूट गए अर्थात् उनका मोक्ष हो गया ।

(71) शंका :- आज वैज्ञानिकों ने जो ‘क्लोन’ बनाया है, क्या वो वैदिक-सि(ांत के अनुकूल है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अनुकूल नहीं है। क्लोन बनाऐंगे, डुप्लीकेट कॉपी हो जाएगी। डुप्लीकेट कॉपी होगी, तो झंझट हो जाएगा। चोरी कोई करेगा, और जेल में कोई दूसरा जाएगा। घोटाला कोई और करेगा, पकड़ा कोई और जाएगा। इसलिए यह क्लोन बनाना ठीक नहीं है।
स जुड़वां बच्चों (ट्विन्स( में शक्ल उतनी नहीं मिलती, जितनी क्लोन्स में मिलती है। ऐसे बहुत एक्सेप्शनल केसेस = (अपवाद( होंगे। दो भाई बिल्कुल एक जैसे शक्ल के हों, करोड़ों-अरबों में एक-आध केस = (घटना( ऐसा हो सकता है।
स और क्लोनिंग करके तो यहॉे हजारों गड़बड़ खड़े कर दिए जाएंगे। परीक्षा देने कोई और आएगा, नौकरी किसी और को मिलेगी। जो बेवकूफ होगा, वो परीक्षा देने नहीं जाएगा, उसकी जगह जो पढ़ा-लिखा बु(िमान होगा, उसको भेज देंगे। ऐसी बहुत सारी गड़बड़ियाँ होंगी। इसलिए क्लोनिंग करना ठीक नहीं है।

(72) शंका :- ईश्वर ने मांसाहारी योनियाँ क्यों बनाई? उन्हें इतना बलवान भी क्यों बनाया? उन्हें बलवान बनाकर क्या ईश्वर ने अत्याचारी का साथ देने के बराबर काम नहीं किया?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

शेर बनाया, भेडिया बनाया। ईश्वर ने उनको इतनी ताकत दी, कि वे खरगोश,हिरण आदि प्राणियों के उपर हमला कर उन्हें खा जातें हैं। भगवान ने बलवान का, अत्याचारी का साथ दिया, ऐसा लगता है। परन्तु भगवान ने जो किया, ठीक किया। उसकी पॉलिसी (नीति( को समझ पाना हमारे वश की बात नहीं है। जरा सोचिये शाकाहारी प्राणी घास-पात खाकर अपना जीवन जिऐंगे। और जब मर जाऐंगे, तो उनके शव (डेड बॉडीज( से दुर्र्गंध फैलती रहेगी। तो उनकी साफ-सफाई करने के लिए कुछ प्राणी ऐसे बना दिए, जो प्राणी मर-मरा जाऐं तो उनको खा जाओ ताकि शव साफ हो जाए और दुर्गंध न फैले, रोग न फैले। अब कितने प्राणी मर जाते है, जंगल में तो गि( खा जाते हैं, पक्षी खा जाते हैं। और ऐसे ही शेर, भेड़िया हैं, वो खा जाते हैं। आपके घरों में कहीं-कहीं कॉकरोच मर जाते हैं, तो चीटियाँ उठाकर ले जाती हैं, साफ-सफाई कर जाती है। छिपकलियाँ बना दी, मकड़ियाँ बना दी। प्राणी जगत के अंदर एक नियम चलता है – ‘जीवों वो जीवस्य भोजनम्’। एक जीव दूसरे जीव का भोजन है। यह सारी व्यवस्था ईश्वर ने की है, कुछ सोच-समझकर की होगी। हम नहीं समझ पा रहें हैं वो हमारी कमी है। पर ‘जीवो जीवस्य भोजनम्ः’ यह नियम सब प्राणियों पर लागू होता है, मनुष्यों पर भी। मनुष्यों का भोजन कौन सा जीव है?
ख् समाधान- आप भी शेर-भेड़िया मार-मारकर खाऐं, या गाय को बकरी को मार-मारकर खाऐं और कहें – ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ ऐसा नहीं है। मांस मनुष्य का भोजन नहीं है । मनुष्य का भोजन तो वनस्पति है। वनस्पति में भी जीव है। मनुष्यों के लिए इतना नियम लागू होता है, कि वह वनस्पति को ठीक तरह से विधिपूर्वक काटकर-पकाकर खा सकता है।

(73) शंका :- सृष्टि की शुरुआत में लोगों की भाषा कौन सी थी?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सृष्टि के आरंभ में लोगों की भाषा वैदिक ”संस्कृत” थी। सबसे पुरानी वैदिक संस्कृत” भाषा है। इससे पुरानी कोई भाषा है ही नहीं। ।
स वेद की भाषा तो सार्वकालिक है, सब कालों में लागू होती है। यह जो आजकल बोली जाने वाली संस्कृत है, वो भी वेद में से ही निकली है। बाकी सभी भाषाएँ संस्कृत के बाद में बनी।
स संस्कृत से ही तैयार हुई वेद भाषा है-नियमों की भाषा। वेद की भाषा, संविधान वाली भाषा है, जैसे-ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, सच बोलना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए। चोरी नहीं करनी चाहिए। झगड़ा नहीं करना चाहिए। और जब हम व्यवहार करते हैं, तो हमको तीन कालों में बदलकर वह भाषा बोलनी पड़ती है। मैंने सत्य बोला,-यह भूतकाल हो गया, मैं सत्य बोलता हूँ-अब वर्तमान काल हो गया। मैं सत्य बोलूंगा- यह भविष्यत् काल हो गया। तो ऐसे विधान की भाषा में और व्यवहार की भाषा में इतना अन्तर आ जाता है। इस तरह वेद की भाषा संविधान की भाषा है और व्यवहार की भाषा को तीन कालों से जोड़कर देखा जाता है। वेद की भाषा से हमारी बोलचाल की भाषा संस्कृत तैयार हुई।

(74) शंका :- मनुष्य श्रेष्ठ है, ऐसा शास्त्र कहता है पर जो हिंसा चोरी आदि बुरे काम करते हैं, उन्हें अच्छे-बुरे का पता नहीं चलता। उनके लिए क्या उपाय है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वैसे पता तो चलता है, लेकिन वो उस पर ध्यान नहीं देते। जब कोई आदमी बुरी योजना बनाता है, तो उसे अंदर से भय, शंका होती है। सबको होती है, सबको पता चलता हैं। उदाहरण के लिये यहां तक कि कुछ पशुओं को भी पता चलता है। आपके घर में रोज कोई बिल्ली निश्चित समय पर आती है, रसोई के बाहर उसका एक बर्तन रखा हुआ है और आप दूध डाल देते हैं। वह दूध पीती है रोज ! एक दिन आपने दूध नहीं डाला। आप किसी काम में व्यस्त थे। और बिल्ली अपने टाइम पर आ गयी। उसने अपना बर्तन देखा, कि उसमें दूध नहीं है। तो आज बिल्ली सोचती है कि आज यहाँ दूध नहीं मिला, तो अंदर घुस के पिऊं। लेकिन जब वो अंदर घुसने लगती है, तो चार बार सोचती है, जाऊं या नहीं जाऊं। इधर देखती है उधर देखती है, और पता करती है, कि कोई आ तो नहीं जायेगा। उसको भी पता चल रहा है कि आज मैं लाइन क्रॉस कर रहीं हूं। आज गड़बड़ है, आज रेड लाइट एरिये में जा रही हूँ। आज मेरी पिटाई हो सकती है। जब बिल्ली जैसे प्राणी को भी पता चलता है, कुत्ते को भी पता चलता है। तो इंसान को पता क्यों नहीं चलेगा, उसकी बु(ि तो उनसे ज्यादा है। तो पता तो सबको चलता है। पर लोग उस पर ध्यान नहीं देते हैं। बुरे विचार करते समय, बुरे काम करते समय, भय, शंका, लज्जा होती है, पर ध्यान नहीं देते। और बुरा काम कर डालते हैं। फिर उनको दंड भोगना पड़ता है। और अच्छा काम करते हैं, तो आनंद, उत्साह भी मिलता है। वो भी सबको पता चलता है। जो लोग इस परमात्मा की शिक्षा पर ध्यान देते हैं, वो दुःख से छूट जाते हैं । वो सदा अच्छे काम करते हैं और सुखी रहते हैं।
स तो यह जो शिक्षा मिलती है कि मन में जो भय, शंका, लज्जा और आनंद, उत्साह पैदा होता है, यह जीवात्मा की नहीं, बल्कि परमेश्वर की ओर से है। यह सब उसको पता चलता है। मोटा-मोटा तो इससे पता चल जाता है। और अच्छी तरह गहराई से जानना हो, तो उसके लिए वेद पढ़ना चाहिए।
स महर्षि मनु कहते हैं-धर्म को जो अच्छी तरह से जानना चाहते हैं, उनके लिए सबसे ऊंचा ग्रंथ, सबबे ऊंचा प्रमाण वेद है। तो वेद पढ़ के हम पता लगा सकते हैं, कि क्या अच्छा और क्या बुरा है? इसके अतिरिक्त वेदानुकूल )षियों के द्वारा बनाये हुए ग्रन्थां = (दर्शन शास्त्रों, उपनिषदों, सत्यार्थ प्रकाश आदि( से भी अच्छे बुरे = (सत्यासत्य( का पता चलता है। और जिन शु( अन्तःकरण वाले विद्वानों ने उक्त वेद व )षिकृत ग्रन्थों को अच्छी तरह से पढ़ा, समझा और आचरण किया हो, उनसे भी हमें अच्छे बुरे का ज्ञान हो सकता है।

(75) शंका :- क्या जन्म-दिवस (बर्थ डे( मनाना चाहिये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ, बिल्कुल मनाना चाहिये। कैसे मनाना चाहिये? केक काटना, मोमबत्ती जलाना, फूँक मारकर बुझाना, और हैप्पी बर्थडे टू यू, ऐसा नहीं। ऐसे नहीं मनाना चाहिये। ये तो वेस्टर्न कल्चर है, पश्चिमी सभ्यता है। भारतीय सभ्यता से जन्म दिन मनाना चाहिये। अपने घर में हवन करो। सब मित्र, संबंधी, रिश्तेदारों को बुलाओ, आज मेरा जन्म दिन है। बुलाओ और सबके सामने संकल्प लो, और सोचो, मेरा जन्म क्यों हुआ था? मैं किस काम के लिये दुनिया में आया हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा हूँ? बढ़ रहा हूँ तो ठीक है। थोड़ी और गति बढ़ाओ। और यदि नहीं बढ़ रहा हूँ, तो संकल्प लो, अब मैं अपने लक्ष्य की ओर बढूँगा। मेरा लक्ष्य क्या है- मोक्ष। ईश्वर प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति, जन्म-मरण से छूटना, यह सबके जीवन का लक्ष्य है। जिसको भी जन्म दिन मनाना हो, इस तरीके से मनाये। ऐसा संकल्प करें, कि आज मैं इस गुण को धारण करता हूँ और कम से कम एक दोष को छोड़ें। गुस्सा करना, झूठ बोलना, छल-कपट करना, हेरा-फेरी करना, जो भी हो, कोई भी एक दोष छोड़ें। एक जन्मदिन पर एक दोष छोड़ें और एक गुण को धारण करें। अगर आपने बीस साल जन्म दिन मनाया, तो देखिये बीस साल में कितनी अच्छी उन्नति हो जायेगी। बीस गुण आ जायेंगे, बीस दोष चले जायेंगे। यज्ञ करें, सब लोगों को इकट्ठा करें। और सबको अच्छी-अच्छी मिठाई खिलायें, आप भी खायें। इस तरह से जन्मदिन मनाना चाहिये।

(76) शंका :- क्या गंगा आदि नदियों मृत व्यक्ति की अस्थियाँ विसर्जन करने में जाना उचित नहीं है? यदि नहीं, तो फिर उन अस्थियाँ का क्या करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह उचित नहीं है। किसी शास्त्र में नहीं लिखा, कि हरिद्वार में जाओ, गंगा जी में उन अस्थियों को डालो, या नर्मदा जी में डालो, या और किसी नदी में डालो। ऐसा कोई विधान नहीं है। बल्कि उससे नुकसान होता है। जल अशु( होता है। लोग वहाँ पर स्नान करते हैं, उनके पाँव में हड्डी टकराती है, तो कितना खराब लगता है। उसका नाम हर की पेड़ी नही है, उसका नाम हाड़पेड़ी है। वहाँ पर हड्डियाँ, ही हड्डियाँ इतनी हड्डियाँ डाल दी गई, कि लोगों को स्नान करना कठिन हो गया। तो वहाँ नहीं डालना चाहिये, ऐसा कोई विधान नहीं है। तो फिर क्या करें? स्वामी दयानंद जी ने संस्कार-विधि में लिखा है, मृतक का अंतिम संस्कार करने के बाद उसकी अस्थियाँ चयन करके, त्र (इकट्ठी करके( कहीं कोने में गड्ढ़ा खोदकर के उसमें गाड़ देनी चाहिये। बस, और इसके बाद कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।

(77) शंका :- एक समय में एक ही प्रकार का प्राणायाम करना चाहिए। जैसे बाह्य प्राणायाम या आभ्यन्तर-प्राणायाम। दो या तीन प्रकार के प्राणायाम एक साथ क्यों नहीं करना चाहिए। क्या ऐसा करने से कोई हानि है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ ऐसा करने से हानि हो सकती है। एक समय में एक ही प्रकार का प्राणायाम करना चाहिए। यदि आपने बाह्य प्राणायाम किया, तो केवल बाह्य प्राणायाम ही करें। दो, तीन, चार, पांच, सात जितने भी करें, बाह्य प्राणायाम ही करें। फिर शाम को उपासना में आप दूसरा बदल सकते हैं। शाम को दो, तीन, चार, पांच अभ्यांतर प्राणायाम कर लें। एक ही समय की उपासना में दो बाह्य कर लिए, तीन आभ्यन्तर कर लिए ऐसा न करें।

(78) शंका :- लोग कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। और वही लोग कहते हैं, कि ईश्वर एक है। तो जब ईश्वर एक है, तो आत्मा में कैसे आ सकता है? आत्मा तो अनेक हैं। तो आत्मा, परमात्मा कैसे हैं, क्या परमात्मा खंडित-खंडित है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा और परमात्मा एक नहीं है। आत्मा अलग चीज है, परमात्मा अलग चीज है। परमात्मा एक है, और आत्मायें तो अनेक हैं, असंख्य हैं। हम तो गिन भी नहीं सकते हैं। ईश्वर तो गिन सकता है, कि कितनी आत्मायें है । आत्मा का टोटल नम्बर (कुल संख्या( ईश्वर को पता है। हमको नहीं पता है। आत्माओं की इतनी अधिक संख्या है, कि हम दिमाग लगायेंगे, तो भी फैल हो जायेंगे। हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
स ईश्वर और आत्मा दोनों अलग-अलग चीजें है, दोनों में अंतर है। कैसे अंतर है? इलेक्ट्रान और प्रोटॉन में अंतर है या नहीं। है यह कैसे पता चला? उनकी प्रॉपर्टीज (गुणधर्म( से। इलेक्ट्रान में निगेटिव चार्ज है, और प्रोटॉन में पोजिटिव चार्ज है। उसकी प्रोपर्टीज से पता लगता है, कि इलेक्ट्रान अलग चीज है, प्रोटॉन अलग चीज है। इसी तरह से आत्मा और ईश्वर इन दोनों की प्रॉपर्टीज भी अलग-अलग हैं। इनकी प्रोपर्टीज से पता लगता है कि ईश्वर अलग है, आत्मा अलग है। क्या अंतर हैं इनकी प्रॉर्टीज में।
स सोचिये, क्या ईश्वर कभी दुःखी होता है ? नहीं और आत्मा तो रोज दुःखी रहता है। इससे पता लगा दोनों अलग-अलग हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है, क्या जीवात्मा सर्वव्यापक है? नहीं। जीवात्मा एक स्थान पर रहता है। ईश्वर को सब कुछ मालूम है, क्या जीवात्मा को सब कुछ मालूम है? नहीं मालूम। जीवात्मा घोटाले करता है, क्या ईश्वर भी घोटाले करता है। यहां तो रोज अखबारों में घोटाले पढ़ते हैं। कोई चार सौ करोड़ खा गया, कोई नौ सौ करोड़ खा गया, कोई पन्द्रह हजार करोड़ खा गया। इसलिए जब दोनों की प्रॉर्टीज अलग-अलग है, तो दोनों चीजें अलग-अलग है। ईश्वर अलग है, आत्मा अलग है।
स ईश्वर एक है, और वो अखंड तत्त्व है। वो टुकड़े-टुकड़े नहीं है। जीवात्माएं अलग-अलग हैं। एक-एक आत्मायें भी स्वतंत्रता पूर्वक अखंड है। आत्मा भी कोई टुकड़ों (पार्टीकल्स( का कॉमबीनेशन नहीं है,= खंडों का समुदाय नहीं है। वो भी एक तत्त्व है। लेकिन आत्मा बहुत छोटा है, और ईश्वर बहुत बड़ा है। ईश्वर पूरे ब्रह्माण्ड में और उससे भी बाहर, बहुत दूर-दूर तक फैला हुआ है। इस प्रकार दोनों अलग-अलग है।

(79) शंका :- संस्कार-दोष और इन्द्रिय-दोष में क्या अंतर है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आपने सूत्र पढ़ा होगा : -इन्द्रिय दोषात् संस्कार दोषाच्चाविद्या। वैशेषिक. इन्द्रिय दोष का अर्थ है-इन्द्रियों में टूट-फूट, खराबी। आँख बिगड़ गई, आईसाइट कमजोर हो गई या आँख में कलर ब्लाइंडनेस (रंग ठीक न दिखना या रात को न दीखना( आदि कोई रोग हो गया, तो कलर नहीं पहचान पाते, रंगों में अन्तर नहीं समझ में आता। यह इन्द्रिय दोष है।
स संस्कार दोष यह है कि इन्द्रिय बिल्कुल ठीक है, पर वो संस्कार यानी आदत ऐसी पड़ी हुई है, कि इन्द्रिय से ठीक दिखते हुए भी हम आदत के वशीभूत होकर फिर वही गलती कर बैठते हैं। जैसे- चाय पीने की आदत पड़ गई। चाय पीते हैं, सुख मिलता है, फिर दोबारा पीते हैं, सुख मिलता है, फिर तीसरी बार पीते हैं, सुख मिलता है। सैकड़ों बार चाय पी-पीकर उसका जो सुख ले लिया, उससे मन के ऊपर जो छाप लगी कि चाय बहुत अच्छी थी, चाय पीने में बहुत मजा आता है, बढ़िया कड़क चाय होनी चाहिए । तो यह हो गया संस्कार।
स जब हम रोज चाय पीते हैं और एक दिन शिविर में आये तो यहाँ पर चाय नहीं मिली। अब आपको बड़ी बेचैनी होगी, कष्ट होगा। सोचेंगेः- क्या बात है, आज चाय नहीं मिली, क्या जंगल में फंस गए भई, इससे तो घर में ही अच्छे थे। अब यह दुःख हो रहा है न, यह संस्कार के कारण ही हो रहा है। इसका नाम है-संस्कार दुःख। वो चीज नहीं मिल पाई, तो उसके जो संस्कार पड़े हुए थे, अब वो दुःख दे रहे हैं। इसका नाम संस्कार दुःख है।
स और आँख में टूट-फूट हो गई, कान में खराबी आ गई, सुनाई नहीं देता, उसके कारण अविद्या पैदा हो गई, तो यह इन्द्रिय दोष के कारण अविद्या हुई। आदत के कारण चाय नहीं मिल रही है और फिर मन में अविद्या पैदा हो रही है, कि ‘चाय बहुत अच्छी (सुखदायक( है, चाय देते नहीं, ये लोग बड़े खराब है।’ अब ये जो अविद्या पैदा हो रही है, यह संस्कार दोष से हो रही है। यह दोनों में अंतर है।

(80) शंका :- श्रेष्ठ पुरूषों की संकट से ईश्वर तत्काल रक्षा करता है, या कुछ और है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर श्रेष्ठ पुरूषों की रक्षा तत्काल करता है। पर वो अंदर से उत्साह देकर, अंदर से कुछ सूझबूझ देकर, ज्ञान-विज्ञान देकर। ऐसे कोई दुष्ट व्यक्ति, श्रेष्ठ व्यक्ति पर हथियार उठाये, तलवार उठाये और ईश्वर यहाँ बीच में ढाल अड़ा दे, ईश्वर ऐसा नहीं करता। ऐसी प्रेरणा ईश्वर सबकी यथायोग्य रक्षा करता है। श्रेष्ठों की भी अन्यों की भी

(81) शंका :- चिंतन क्या है और यह कैसे किया जाता है। उसके लिये क्या-क्या चीजें आवश्यक हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

चिंतन का मतलब होता है किसी बात की गहराई में जाना। उसको कई प्रकार से सोचना। जैसे मान लीजिये, आपने प्रवचन में सुना अथवा किसी पुस्तक से पढ़ा कि- ‘एक ईश्वर है।’ ईश्वर कितने हैं?ं एक है। सभी लोग कहते हैं। आप बातचीत में किसी से भी पूछो, कि भगवान एक हैं या अनेक ? तो क्या उत्तर देगा -एक। फिर दूसरा सवाल पूछो वो एक भगवान एक जगह रहता है, या सब जगह। सब जगह ? सभी लोग यही कहेंगे- सब जगह। जब दो बात तो उन्होंने ठीक बोल दी, भगवान एक है और वह सब जगह रहता है। और जब तीसरा सवाल पूछेंगे, तो झगड़ा शुरू हो जायेगा। तीसरा सवाल यह है कि जो वस्तु सब जगह रहती है, क्या उसकी शक्ल होनी चाहिये या नहीं होनी चाहिये? नहीं होनी चाहिये। अब पूछो, आपके घर में शक्ल वाला भगवान रखा है या नहीं रखा है? रखा है। बस यही गड़बड़ है। जब ऐसी गड़बड़ सामने आये, तब चिन्तन की जरूरत है, तब सोचने की जरूरत है। इसकी गहराई में उतरो, अगर भगवान शक्ल वाला है तो वह सब जगह नहीं रह सकता । और अगर वह सब जगह रहता है, तो शक्ल वाला नहीं हो सकता। ऐसे बैठ करके विचार करना।
स दो पक्ष बनाकर के तर्क-वितर्क उठाना। फिर प्रश्न उठाना, फिर उसका उत्तर ढूंढना, फिर प्रश्न उठाना, फिर उत्तर ढूंढना। इसका नाम है ”चिन्तन”। इस चिन्तन के लिये पहली चीज है, अच्छी प्रकार ध्यान से प्रवचन सुनना। किसी वक्ता का प्रवचन पूरे ध्यान से सुनना। मन लगाकर सुनना, कि उसने क्या बोला। क्या-क्या शब्द बोले? क्या कहना चाहता है? उसके अभिप्राय को ठीक से समझना, पहली बात। और दूसरी बात-उसको थोड़ा दोहराना (रिवाइज( करना। सोचना, उसने क्या बोला था। उसके वचनों का अर्थ क्या था? और फिर तीसरी बात, ऐसे पक्ष-विपक्ष बनाकर के प्रश्न-उत्तर करना, और उस बात की गहराई में उतरना। और अंत में एक निर्णय पर पहुँचना। सारे प्रश्न-उत्तर करके अंत में सार क्या निकला। ईश्वर को शक्ल वाला मानें या नहीं। अगर वो एक है, यह हमने स्वीकार कर लिया। और यह भी स्वीकार कर लिया, कि वो सब जगह रहता है। तो फिर तीसरी बात अपने आप साफ है, जो चीज सब जगह रहती है, उसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। या तो कोई प्रमाण लाओ, कि अमुक वस्तु सब जगह रहती है, और उसकी शक्ल भी है। यदि कोई ऐसी वस्तु मिल जाये, कि वो सब जगह रहती है और उसकी भी फोटो (शक्ल( है। तब तो हम ईश्वर की फोटो (शक्ल( मान लेंगे। वो भी सब जगह रहता है, उसकी भी फोटो शक्ल है । यदि आप ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं ढूंढ पाये, कोई्र उदाहरण नहीं ढूंढ पाये, कि कोई वस्तु सब जगह है और शक्ल भी है। यदि नहीं ढूंढ पाये, तो इसका मतलब साफ है, कि ईश्वर सब जगह रहता है, इसलिए उसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। इसका नाम है- ‘चिन्तन’। इस तरह से करना चहिये। और जो अंत में सार निकले उसको स्वीकार करना चहिये। जब यह प्रमाण से सि( हो गया कि ईश्वर सब जगह रहता है, और उसकी कोई शक्ल, आकृति नहीं है। तो फिर उसको स्वीकार करो। आज के बाद शक्ल वाले की, फोटो वाले की पूजा नहीं करना। वो तो महापुरूषों की फोटो है। रखो घर में, कोई आपत्ति थोड़े ही है। फोटो रखना कोई बुरी बात थोड़े ही है। देखो हमने कितनी फोटो लगा रखी है यहाँ पर। अपने महापुरूषों की, दादा-परदादा की, बड़े-बुजुर्गों की फोटो लगानी चाहिये। देश के वीर पुरूषों की, महारानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस ऐसे-ऐसे वीर पुरूषों की फोटो लगानी चाहिये। अच्छे-अच्छे संत महात्मा, महर्षि दयानंद, महर्षि कणाद, महर्षि गौतम, महर्षि कपिल ऐसे-ऐसे साधु, संतों, )षियों के फोटो लगाने चाहिये। फोटो लगाने मं् कोई आपत्ति नहीं है। उनकी पूजा नहीं करनी, उन की आरती नहीं करनी, उनको खिलाना-पिलाना नहीं है। यह गड़बड़ है। बोलो, अग्नि सब जगह रहती है न। जब वो सब जगह रहती है तो उसकी आकार, आकृति कौन सी है। जो अग्नि लपटों के रूप में दिख रही है। वो सब जगह नहीं रहती। और जो सब जगह रहती है, वो दिखती नहीं। बताईये, आकार कहाँ हुआ? इसलिये दोनों में अंतर है। यह है चिन्तन का स्वरूप।

(82) शंका :- अनेकता में एकता कैसे हो सकती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिल्कुल नहीं हो सकती। अनेकता में एकता बिल्कुल नहीं हो सकती। अनेकता बिल्कुल अलग चीज है, एकता बिल्कुल अलग चीज है। दोनों में सौ प्रतिशत विरोध है। यह सब झूठ है, धोखा है। जनता को बेवकूफ बनाते हैं ये नेता लोग जो कहते हैं ‘अनेकता में एकता है।’ अनेकता में एकता कभी नहीं होती। अनेकता शब्द का अर्थ ही यह है – ‘जहाँ एकता न हो।’

(83) शंका :- मुझे पता है कि ईश्वर सर्वव्यापक और निराकार हैं और वही हमारे वास्तविक माता-पिता, पालक-पोषक और रक्षक हैं। फिर भी मैं ईश्वर को अपने माता-पिता की तरह प्रेम नहीं कर सकती। मुझे क्या करना चाहिये, जिससे मैं परमपिता परमात्मा को माता-पिता की तरह प्रेम कर सकूँ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बार-बार ईश्वर के बारे में चिंतन करें, बार-बार सोचें। हम जी रहें हैं। चौबीस घंटे वायु का प्रयोग करते हैं, श्वास लेते हैं। अगर पाँच मिनट शु( वायु न मिले, तो शायद हमारा शांतिपाठ हो जायेगा। हो जायेगा न। शु( वायु पाँच मिनट न मिले, तो शांतिपाठ (मृत्यु( हो जायेगा। जीना कठिन है। इस तरह से सोचिये । कौन है जो हमारे जीवन की रक्षा कर रहा है। एक-एक मिनट, एक-एक सेकंड कौन हमको यह शु( वायु (ऑक्सीजन( दे रहा है, जिसके कारण हम जी रहे हैं। कौन हमारे लिए हर एक )तु में अलग-अलग सब्जियाँ बनाकर भेज रहा है। अलग-अलग फल बनाकर भेज रहा है। अलग-अलग वनस्पतियाँ, औषधियाँ और तरह-तरह की चीजें बनाकर भेज रहा है। ऐसे ईश्वर के गुणों पर विचार करें। कौन है, जो हमारे कर्मों का हिसाब रख रहा है। एक-एक कर्म का हिसाब रखता है। चौबीस घंटे में हम पता नहीं कितने कर्म करते हैं मन से, वाणी से, शरीर से। कौन है, जो हमारे सारे कर्मों का हिसाब रखता है? कौन है, जो हम पर अन्याय करने वालों को दण्ड देता है? उन अन्यायकारियों से जो हमको नुकसान होता है, हानि होती है, उस नुकसान की पूर्ति करता है, हमारी क्षतिपूर्ति करता है। कम्पन्सेशन देता है। वो कौन है? मनुष्यों में तो कोई नहीं दिखता। और हम जो अच्छे कर्म करते हैं, उन अच्छे कर्मों का फल हमको कौन देता है? हमें मनुष्य जन्म देता है, आगे बार-बार देता है। अनादिकाल से दे रहा है और भविष्य में अनंतकाल तक देता रहेगा। इतने अच्छे-अच्छे लोग संसार में जिसने उत्पन्न किये हैं। अच्छे-अच्छे धार्मिक लोग, देशभक्त लोग, ईमानदार लोग, वीरपुरूष, ऐसे अच्छे-अच्छे साधु, संत, महात्मा, विद्वान लोग, जो धर्म की रक्षा करते हैं, देश की रक्षा करते हैं, दूसरों को सुख देते हैं। सब दुनिया का भला करते हैं। कौन है, उनको भेजने वाला। और यह सब करके भी वो भगवान हमसे कितनी फीस लेता है, कितना शुल्क लेता है? कुछ नहीं। इस तरह से बार-बार सोचें, तो आपके मन में प्रेम बढ़ेगा, रूचि बढ़ेगी। और माता-पिता वाले उदाहरण की बात थी, तो वैसे भी सोचें। जैसे छोटा बच्चा होता है, पन्द्रह दिन का, एक महीने का। उसका सारा काम उसकी माँ ही करती है। खिलाना, पिलाना, सुलाना, जगाना, नहलाना, धुलाना सारा काम उसकी माँ ही करती है। उस बच्चे को तो कुछ होश ही नहीं, वो कुछ कर नहीं सकता। तो उस तरह से भी सोचें। जैसे माता छोटे बालक की सब प्रकार से रक्षा करती है, उसका सारा ध्यान रखती है। ऐसे ही हम छोटे बच्चे की तरह हैं। हमारी बु(ि क्या है, कुछ भी नहीं है। क्या खाना, क्या नहीं खाना, कुछ भी पता नहीं। उल्टा-सीधा खाते रहते हैं। शरीर को बिगाड़ते रहते हैं। और एक लंबी सीमा तक ईश्वर हमारी रक्षा करता रहता है, रोगों से बचाता रहता है। इतनी व्यवस्था उसने हमारे शरीर में कर रखी है। और जब बहुत ज्यादा सीमा पार हो जाती है, अतिक्रमण बहुत हो जाता है, तब जाकर के भगवान हमारे शरीर में कुछ छोटा सा रोग पैदा करता है। और वो भी सावधान करने के लिये। सावधान! बहुत लापरवाही कर ली, जागो, लापरवाही मत करो। जानकारी करो, क्या खाना, क्या नहीं खाना। और उस हिसाब से खाओ-पिओ, और अपने शरीर की रक्षा करो। तो इस तरह से हम बहुत कम जानते हैं। कैसे जीना चाहिये, कैसे सोचना चाहिये, कैसे बोलना चाहिये, कैसे व्यवहार करना चाहिये, कैसे उठना-बैठना चाहिये, बहुत कम जानते हैं। और फिर भी ईश्वर हमको पता नहीं अंदर से कैसे-कैसे सूचना देता रहता है चौबीस घंटे यह उसकी बड़ी कृपा है। इस तरह जब हम सोचते हैं तो हमें लगता है कि हम वैसे ही बच्चे हैं, पन्द्रह दिन के, एक महीने के, दो महीने के और हमारी सब रक्षा भगवान ही कर रहा है। कब, कैसी बु(ि देता है, कब क्या अंदर से सुझाव देता है, और जब हम उसकी बात मान लेते हैं, तो हमारा बहुत अच्छा काम निपट जाता है। हमारा बहुत अच्छा भला हो जाता है। हम अनेक आपत्तियों से, दुर्घटनाओं से बच जाते हैं। इस तरह से सोचें। तो माता-पिता की तरह हमारे अंदर भी रूचि आयेगी, कि जैसे हम माता-पिता को चाहते हैं, उनसे प्रेम करते हैं, उनका उपकार समझते हैं, ऐसे हम ईश्वर का भी उपकार समझेंगे। ऐसा बार-बार सोचें। तो हम उनसे माता-पिता की तरह प्रेम करने की स्थिति भी प्राप्त कर लेंगे।

(84) शंका :- क्या जब हम समाधि अवस्था प्राप्त करें तब ही ईश्वर का अनुभव होगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ, ईश्वर का अनुभव, जो सूक्ष्म अनुभव है, जिसको समाधि कहते हैं, समाधि-प्रत्यक्ष कहते हैं, वो तो समाधि लगाने पर ही होगा। परंतु उससे पहले भी कुछ मोटे स्तर का अनुभव हो सकता है। और वैसे बहुत सारे लोगों को होता भी है, पर वो ध्यान नहीं देते, ध्यान कम देते हैं। कैसे होता है ईश्वर का अनुभव? पहले भी मैंने कहा था, कि जब हम बुरा काम करने की बात सोचते हैं, तो मन में भय, शंका, लज्जा होती है। होती है कि नहीं होती? होती है न। यह जीवात्मा की ओर से नहीं है। यह ईश्वर की ओर से है। ये ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के सातवें समुल्लास में लिखा है। इस तरह से हम अपने अंदर ईश्वर को अनुभव कर सकते हैं। जब हम अच्छी योजना बनाते हैं, तब आनंद, उत्साह, निर्भयता, ये अंदर से प्रतीत होता तो है। तो महर्षि दयानंद जी लिखते हैं यह ईश्वर का अनुभव है यह एक मोटे स्तर का आंतरिक अनुभव है। और एक दूसरा स्थूल-बाह्य अनुभव भी है, वो कौन सा है। इस प्रसंग में सातवें समुल्लास में लिखा है, गुणों को देखकर गुणी का प्रत्यक्ष होता है। प्रसंग यह चल रहा है, आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सि(ि कैसे करते हो? तो उत्तर दिया है, कि सब प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से हम ईश्वर की सि(ी करते हैं। तो प्रत्यक्ष प्रमाण के प्रसंग में महर्षि दयानंद जी ने लिखा है, कि गुणों के माध्यम से गुणी का प्रत्यक्ष होता है। उदाहरण के लिये जैसे यह पृथ्वी है। पृथ्वी एक गुणी है, एक द्रव्य है। और इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि-आदि ये गुण हैं। जब हम पृथ्वी का प्रत्यक्ष करते हैं, तो आँख से देखकर के रूप के माध्यम से पृथ्वी का प्रत्यक्ष करते हैं या इसकी (मिट्टी की( गंध आती है, तो गंध से हम पृथ्वी का प्रत्यक्ष करते हैं। अथवा हाथ से छूकर के स्पर्श गुण से प्रत्यक्ष करते हैं। इससे पता चला कि किसी पदार्थ का जो प्रत्यक्ष है, वो उस पदार्थ के गुणों के माध्यम से होता है। तो यह उदाहरण देकर महर्षि दयानंद जी आगे कहते हैं कि इस सृष्टि में ईश्वर के ‘रचना आदि गुण’ इस सृष्टि में देखिये । सूर्य ईश्वर द्वारा रचित पदार्थ है, चंद्रमा ईश्वर की रचना है, पृथ्वी ईश्वर द्वारा रचित पदार्थ है, और फल-फूल, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी, प्राणियों के शरीर, ये किसने बनाये? ईश्वर ने। तो सृष्टि के पदार्थो में ईश्वर की रचना आदि गुणों को सृष्टि में देखो और इस रचना गुण से इनके रचनाकार ईश्वर का प्रत्यक्ष करो। तो यदि हम इन पदार्थों की रचना को ध्यान से देखेंगे, तो भी हमको मोटे स्तर पर ईश्वर का अनुभव होगा, कि हाँ,कोई न कोई है, जो फूल बनाता है, कलियाँ बनाता है, वनस्पतियाँ बनाता है, पेड़-पौधे बनाता है, और साग-सब्जी बनाता है, प्राणियों के शरीर बनाता है, सूरज-चाँद-धरती बनाता है, कोई न कोई है। इस तरह से मोटे स्तर का प्रत्यक्ष, बिना समाधि के भी हो सकता है। तो यह है दो प्रकार का प्रत्यक्ष। एक तो रचना आदि गुणों को देखकर ईश्वर का मोटा स्तर का अनुभव, और दूसरा अंदर वाला। अर्थात् भय, शंका, लज्जा के माध्यम से ईश्वर का अनुभव। यह दो तरह का अनुभव तो सबको हो सकता है। थोड़ा सा ध्यान देंगे, तो सबको हो जायेगा। बाकी तीसरा समाधि वाला सूक्ष्म है, कठिन है । इसलिए वो लंबे समय के बाद होगा।

(85) शंका :- क्या कुसंस्कार से आत्मा दबता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ, कुसंस्कारों से आत्मा दबता है, आत्मा की अवनति होती है। इसलिये कुसंस्कारों का विरोध करना चाहिये।

(86) शंका :- ध्यान करते समय किस चीज या आकृति का मन में ध्यान किया जाये? उस चीज को या नाम को या भगवान का कहाँ पर ध्यान लगाया जाये। उसका स्थान और उसका स्वरूप बताने की कृपा करें तथा किस आसन में तथा किस समय ध्यान किया जाये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिये, आसन तो यह है, जिसमें हम चौकड़ी मार के बैठें हैं। यह है ‘सरल आसन’, सबसे आसान। इस आसन में भी आप ध्यान कर सकते हैं। फिर एक है ‘स्वस्तिक आसन। ‘ दाँये पाँव को उठाकर के बाँये पाँव की पिंडली पर उल्टा रख लें और बाँये पाँव को इस दाँये पाँव की पिंडली के नीचे रख दें, उल्टा करके। और कमर सीधी, गर्दन सीधी, भुजायें सीधी। यह हो गया स्वस्तिक आसन। इसमें भी बैठ सकते हैं। यह भी सरल है। फिर थोड़ा कठिन ‘पद्मासन’ है। दायाँ पाँव ऊपर उठाओ, बांयी जंघा पर रखो। फिर बाँया पाँव उठाकर दांयी जंघा पर रखो। अब यह थोड़ा कठिन है। इसको ‘पद्मासन’ कहते हैं। किसी-किसी को इसमें बैठने का अभ्यास हो तो इसमें भी ध्यान कर ले और नहीं हो तो कोई बात नहीं।
ध्यान का समय आपकी इच्छा पर है। सुबह चार बजे बैठें, पाँच बजे बैठें, छह बजे बैठें, सात बजे बैठें। दिन निकलने से पहले कर लें, तो अच्छा है। उस समय शोर-शराबा नहीं होता। शांति होती है तो मन अच्छा लगेगा। आसानी से
ध्यान होगा। शाम को भी सूर्यास्त के आसपास का समय ध्यान करने के लिए अच्छा है। इसके अलावा यदि मजबूरी है, जैसे कि कोई आठ बजे ऑफिस से घर आता है तो आठ बजे कर लो। कोई सात बजे आता है तो सात बजे कर लो। नौ बजे आता है तो नौ बजे कर लो और उसको टाइम ही नहीं मिलता है, तो रात को खाना खाके सोने से पहले कर लो। कुछ तो करो, कभी भी ध्यान करो। ध्यान जरूरी है। अगर प्रॉपर टाइम पर बैठ सकते हैं तो बहुत अच्छा है। सही समय सुबह सूर्योदय से पहले और शाम को सूर्यास्त के आसपास है। यदि सही अनुकूल समय नहीं मिलता तो आगे-पीछे करें।
जहाँ आपको मन एकाग्र करने में सुविधा हो, वहाँ पर ध्यान करें। अधिकांश लोगों को मस्तक के बीच में, मन एकाग्र करने में सुविधा रहती है, आसानी होती है। वे आँख बंद करके अपनी अंर्तदृष्टि से मस्तक के बीच के स्थान को देखें। और रूप, रंग, आकृति, लाइट, कुछ नहीं देखनी, सब हटा दीजिये। बिल्कुल अंधेरा बनाईये, जैसे रात को अंधेरा होता है, ऐसा खूब गहरा अंधेरा अपने मन में देखिये। फिर अंधेरे के बाद एक लंबा चौड़ा विस्तृत आकाश देखिये। खाली-खाली स्थान और अंधेरा ये दो चीजें देखिये। यह हो गई ध्यान की तैयारी। अब ईश्वर का ध्यान शुरू करेंगे। पर ध्यान का ‘प्रैक्टिकल’ करने से पहले होती है ‘थ्योरी’। पहले थ्योरोटिकल समझ लो, कि ईश्वर कैसा है? लोगों को यहीं झगड़ा है बहुत। अच्छा यह बताइये, ईश्वर एक है या अनेक? एक है, बस है याद रखना। अब ये प्रैक्टिकल के लिए पहले हम थ्योरी तैयार कर रहे हैं। पहले थ्योरी ठीक करेंगे, फिर प्रैक्टिकल करेंगे। तो ईश्वर एक है। दूसरी बात- एक ईश्वर एक जगह पर रहता है, या सब जगह रहता है? सब जगह रहता है। जो वस्तु सब जगह रहती है, क्या उसकी शक्ल, फोटो, आकृति होनी चाहिये या नहीं होनी चाहिये? नहीं होनी चाहिये। अब देखो, बात साफ हो रही है न। हमारी यह थ्योरी तैयार हो रही है। ईश्वर एक है, वो सब जगह रहता है, उसकी कोई शक्ल नहीं है, वो निराकार है। तीन बात साफ हो गई। मेरे साथ दोहराईये पहली बात क्या थी? ईश्वर एक है। दूसरी बात- ईश्वर सब जगह रहता है और तीसरी बात- ईश्वर निराकार है। अब चौथी बात- ईश्वर चेतन है या जड़? चेतन है। तो यह चौथी बात दिमाग में रखनी है कि ईश्वर चेतन है। गॉड इज ओमनीशियन्ट, ईश्वर सर्वज्ञ है, वो सब कुछ जानता है। वो ईंट, पत्थर की तरह, दीवार की तरह जड़ नहीं है। हमारी आपकी तरह चेतन है, सोचता है, समझता है, सबको देखता है, सुनता है, सबके कर्मों का हिसाब रखता है। तो चौथी बात ईश्वर चेतन है। और पाँचवी बात- ईश्वर में आनंद है या नहीं है? है। बस पाँच बात तैयार रखो, ये थ्योरी हो गई। ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, निराकार है, चेतन है, आनंदस्वरूप है। यह थ्योरी तैयार करके और फिर ध्यान करेंगे। हमने ध्यान के लिए मन को एकाग्र किया और ऐसा सोचा कि चारों तरफ खूब गहरा अंधेरा है, और शून्य आकाश है। कुछ नहीं। इतनी तैयारी करने के बाद अब वो पाँच बातें यहाँ दोहरायेंगे। इस पूरे आकाश में एक ईश्वर है और वो पूरे आकाश में सर्वव्यापक है, फैला हुआ है। वो निराकार है उसकी कोई आकृति नहीं है, कोई शेप नहीं, कोई कलर नहीं, कोई फोटो नहीं, कुछ नहीं वो चेतन है। और आनंद का भंडार है। जैसे समुद्र में पानी ही पानी होता है, ऐसे ही ईश्वर में आनंद ही आनंद है। इस तरह से बैठकर पाँच बातें दोहरायें और फिर ईश्वर का ही चिंतन करें। दूसरी बात बीच में नहीं घुसनी चाहिये। खाने-पीने की बात, शॉपिंग की बात, टेलीफोन की बात, बच्चे के स्कूल की फीस की बात, लड़ाई-झगड़े की बात, मुकदमे की बात बीच में कोई नहीं आनी चाहिये। बस यही पॉच बातें दोहराइये। और फिर इसके बाद ओ३म् का जप कर सकते हैं। ओ३म् का जप अर्थ सहित करें। केवल ओ३म् शब्द बोलें, फिर उसका अर्थ बोलें। दूसरा विकल्प है- ओ३म् के साथ ईश्वर का एक गुण जोड़ दें। जैसे- ‘ओ३म् आनंदः’। यह एक मंत्र हो गया। इस तरह से मंत्र बोलें, फिर उसका अर्थ बोलें। तीसरा विकल्प- फिर गायत्री मंत्र का पाठ करें, वो भी अर्थ सहित करें। चौंथा विकल्प- वैदिक संध्या के मंत्रों से ईश्वर का ध्यान करें। मंत्र भी बोलें। मन में, एक-एक शब्द का अर्थ भी दोहरायें, और फिर उसका भावार्थ भी दोहरायें। इस तरह से ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। कोई लाइट, कोई आकृति, कोई फोटो, कोई गुरू जी का चित्र कुछ नहीं रखना। कई लोग गुरूजी का ही ध्यान करते हैं। कोई उनका फोटो लगा लेता है, उसको देखता रहता है। फिर आँख बंद करके उसी का ध्यान करता रहता है। ये आपको मुक्ति नहीं दिलाने वाले। ये जो शरीरधारी हैं,
गुरू इनमें से कोई आपको मुक्ति दिलाने वाला नहीं है। ये सब मनुष्य लोग
हैं। इनमें से कोई परमात्मा नहीं, किसी के पास शक्ति नहीं, किसी के अधिकार में मोक्ष नहीं। मोक्ष केवल सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान परमात्मा के हाथ में है। अगर आपको मोक्ष चाहिये, आनंद चाहिये तो जैसे अभी हमने थ्योरी पर विचार किया, ऐसे ही ईश्वर का ध्यान करना है और किसी का नहीं।

(87) शंका :- ऐसा हम सुनते हैं, कि- सत्य आचरण करने वालों से ईश्वर प्रसन्न होता है। किन्तु देखा गया है कि असामाजिक तत्त्व, असत्य आचरण करने वाले लोग ज्यादा सुखी हैं। आध्यात्मिक सत्य आचरण करने वाले लोगों को कष्ट अधिक सहन करना पड़ता है। ऐसे समय में ईश्वर के अस्तित्त्व पर संदेह हो जाता है। मोक्ष मिलेगा, जब मिलेगा, तब मिलेगा। लेकिन आज तो भगवान के न्याय कार्य के ऊपर से विश्वास उठ जाता है। कृपया इस स्थिति पर मार्गदर्शन करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम देखते हैं कि सच्चा आदमी, ईमानदार आदमी दुनिया में ज्यादा मार खा रहा है। उसको धन भी कम मिलता है, सम्मान भी कम मिलता है,। गालियां भी पड़ती है, झूठे आरोप भी लगते हैं। और ऑफिस में लोग उसको परेशान भी खूब करते हैं। गंदे व्यापार में भी उसकी पिटाई ज्यादा होती है। हम यह भी देखते हैं, कि जो बेईमान है, छली-कपटी, धोखेबाज, चालाक आदमी है, वो दूसरों से छीन-झपट के खा जाता है। और वो खूब पैसे वाला, संपन्न दिखता है, सुखी दिखता है। तो ऐसी स्थिति में ईश्वर के अस्तित्त्व पर शंका तो होती है।
स उसका समाधान यह है, कि एक बार तो मार खानी पड़ेगी। चाहे इस जन्म में खाओ या अगले जन्म में खाओ। इस जन्म में हम मनुष्य बनकर इन संसार के लोगों की मार खा लेंगे। अगर ईमानदारी से चलेंगे, तो संसार के लोगों की मार खायेंगे। पर ईश्वर की मार से बच जायेंगे। आगे जन्म बढ़िया हो जायेगा। यदि बेईमानी करेंगे, छल-कपट करेंगे, धोखेबाजी करेंगे तो लोगों से शायद कम मार खायेंगे, लेकिन फिर आगे चलकर ईश्वर की मार खानी पड़ेगी। हमें सूअर, गधा, कुत्ता, बिल्ली बनना पड़ेगा ।
स अब आप सोच लीजिए, कि दोनों में से कौन सी मार खानी है। कोई एक तो खानी पड़ेगी। आप ईमानदारी से चलकर लोगों की मार खा लें, या बेईमानी करके ईश्वर की मार खा लें। विचारणीय यह है कि कौन सी मार सस्ती है।
स विचारेंगे तो पता चलेगा कि – लोगों की मार खानी सस्ती है। इसीलिए ईमानदारी से चलना चाहिए। लोग थोड़ा परेशान करेंगे। उसको सहन करने के तीन शब्द आपको दे दिये- कोई बात नहीं। इससे आपको शक्ति मिलेगी और आप लोगों की मार खा लेंगे, आसानी से सह लेंगे। पर इसके परिणाम स्वरुप आपका अगला जन्म अच्छा होगा। आगे अच्छे मनुष्य बनेंगे और ऐसे पुरुषार्थ कर-कर के मोक्ष भी हो जायेगा। इसलिए ईमानदारी से चलना ज्यादा अच्छा है।
स जो बेईमानी करते हैं, वो बड़े सुखी दिखते हैं। वो केवल सुखी दिखते हैं, लेकिन सुखी हैं नहीं सुखी। ऊपर-ऊपर से सुखी दिखते हैं केवल। हम बड़े-बड़े करोड़ पति, अरब पति, सेठों के यहां पर भी जाते हैं। और वो स्वयं हाथ जोड़कर के बोलते हैं, कि महाराज जी। आप बहुत सुखी हो, हम बहुत दुखी हैं।’ तो वो सुखी केवल बाहर से दिखते हैं। अंदर से बेचारे बहुत दुःखी हैं। उनके मन में हमारे प्रति श्र(ा है, इसलिए अपने दिल की बात वो सबको नहीं बताते, हमको बताते है। वे आपको नहीं बतायेंगे। कुछ पूर्वजन्म के भी कर्म है, इस जन्म के भी है, दोनों मिलजुल कर के वो इतने संपन्न हो जाते हैं। परन्तु वे पैसे के कारण बहुत सुखी नहीं हैं। आपको केवल सुखी दिखते हैं।
स सुख तो अंदर की (मन की( चीज है, बाहर की चीज नहीं है। बाहर तो आपको मोटर-गाड़ी दिखती है, धन दिखता है, भवन दिखता है, सोना-चांदी दिखता है। बाहर की चीजें अच्छी-अच्छी चमकीली दिखती हैं। उन चीजों से कोई सुख नहीं होता है।
स देखिये, हम जंगल में रहते हैं, यह मकान भी हमारा नहीं है। यह संसार वालों का है। हम तो यहां मेहमान के तौर पर रहते हैं। हमारे पास कुछ नहीं है। कोई बैंक-बैलेंस नहीं, कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं। और आप बताइये, हम कितने सुखी हैं। खूब आनंद से रहते हैं, विद्या पढ़ते हैं, योगाभ्यास करते हैं, समाज की सेवा करते हैं, निष्काम भाव से करते हैं, खूब भगवान हमको सुख देता है। जो भी संपत्ति है, सब समाज की है। और भगवान की है और फिर भी हम बहुत सुखी हैं। उनके पास खूब संपत्ति है, फिर भी बेचारे दुःखी हैं। सि(ांत की बात यह है कि-केवल संपत्ति होने से कोई सुखी नहीं होता। सुखी होता है-विद्या से, सत्संग से, वैराग्य से, आचरण से। इन चीजों से व्यक्ति सुखी होता है। तो वो लोग सुखी जरूर दिखते हैं, हैं नहीं।
स एक बात इसमें आई है, कि कोई अच्छा ईमानदार आदमी दुखी होता है तो ईश्वर के न्यायकारी होने पर शंका होती है। इसका उत्तर यह है, कि जो अच्छे लोग मेहनत और ईमानदारी से काम कर रहे हैं, उनको जो दुःख भोगने पड़े रहे हैं, वो दुख उनको ईश्वर दे रहा है या समाज के लोग दे रहे हैं। समाज के लोग। तो फिर समाज के लोग अन्यायकारी हुये, ईश्वर कहां अन्यायकारी हुआ। ईश्वर पर शंका क्यों? ईश्वर ने थोड़े ही किया अन्याय। वो अन्याय तो समाज के लोगों ने किया। उसका दण्ड उनको मिलेगा। ईश्वर तो पूर्ण न्यायकारी है। वो तो जब फल देता है, ठीक न्याय से ही देता है। अन्याय का जो रूप दिख रहा है, यह तो ईश्वर का किया हुआ है ही नहीं। फिर ईश्वर पर हम क्यों शंका करें। इसीलिए ईश्वर पर शंका नहीं करनी चाहिए। संसार के प्राणियों को देखिये, पता चल जाता है। ईश्वर ने कैसा बढ़िया न्याय किया। जो अच्छे काम करते हैं, उनको मनुष्य बनाता है। और जो बुरे काम करते हैं, उनको कौआ, कबूतर, गिलहरी, सूअर, बंदर इत्यादि बना देता है।

(88) शंका :- योग में मन के सभी विचारों को पूरी तरह से नहीं रोक पाते हैं तो क्या उन विचारों को रोककर दूसरी ओर लगाना है। मार्गदर्शन कीजिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ योगाभ्यास में मन के सारे विचारों को नहीं रोकना है। कुछ विचार रोक दनते हैं, कुछ चालू रखने हैं । संसार के विचारों को बंद कर देना है और ईश्वर के विचारों को चालू रखना है। सारे विचारों को बिल्कुल बंद कर दें, विचारशून्य हो जाएँ। यह शुरू में बहुत कठिन है। सांसारिक विचारों को बंद कर दीजिए। खाना-पीना, घूमना-फिरना, शापिंग वगैरेह के सारे विचार बंद। ईश्वर के विचार को मन में चालू रखिए। तो इसका नाम-योग है। तो यह कर सकते हैं। है तो यह भी कठिन, लेकिन अभ्यास करेंगे तो यह हो जाएगा।

(89) शंका :- हर नया कर्म करते समय मन में पहले शंका उत्पन्न होती है और उसके साथ बाद में भय भी उत्पन्न होता है। ऐसा क्यों?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

:- कोई भी नया काम करते हैं तो मन में शंका उत्पन्न होती है, कि-यह ठीक है या गलत। और भय भी लगता है, कि करुँ या न करुँ। अर्थात् सफलता मिलेगी या नहीं ।
स इसका कारण यह है, कि कर्मों के संबंध में हमारी जानकारी कम है। अच्छे से पता नहीं रहता, कि यह काम ठीक है या गलत है। इसलिए हमको शंका होती है, कि करुँ या न करुँ। अथवा हमको जानकारी भी है, कि यह काम ठीक है। और फिर भी हमको शंका होती है। इसका कारण यह हो सकता है, कि आत्मविश्वास की कमी है। हमको अपने पर ही शंका है-पता नहीं कर पाऊँगा या नहीं कर पाऊँगा? फेल तो नहीं हो जाऊँगा? इन दो कारणों को दूर कर दें। यह काम करना ही है, यह काम ठीक है, इसकी जानकारी वेद आदि ग्रंथों से होगी। ईश्वर का बताया हुआ वेद, वही हमारा असली संविधान है। वहाँ से पता लगा लेंगे, कि बात सही है या गलत। इससे आपकी शंका दूर हो जाएगी।
स और दूसरा, अपने अन्दर आत्मविश्वास पैदा कीजिए, कान्फीडेंस लाइए, कि-यह काम ठीक है, मेरी क्षमता के अनुरूप है, मैं यह कर सकता हूँ, मुझमें इतनी क्षमता है। भगवान ने मुझे बहुत शक्ति दी है। बहुत विद्या दी है, बु(ि दी है, इसलिए कर सकता हूँ । तो आप खुद करेंगे। न कोई शंका होगी, न कोई भय लगेगा, कुछ नहीं होगा।
स काम गलत हो, तो डिसीजन (निर्णय( ले लीजिए, कि नहीं करना। यह कानून के विरू( है। करूंगा तो दण्ड मिलेगा। बस सारी शंका, भय खत्म।

(90) शंका :- आपने कहा था कि ईश्वर का रंग, रुप आकार कुछ नहीं है। तो ध्यान करते समय निराकार ईश्वर का ध्यान कैसे करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ध्यान करने के लिए ईश्वर की आकृति आवश्यक नहीं है, बिना आकृति के भी ध्यान हो सकता है। आप लोग सुख का ध्यान करते हैं कि सुख मिलना चाहिए। सुख का ध्यान करते हैं न, तो क्या सुख की आकृति बनाकर ध्यान करते हैं या बिना आकृति बनाए? हम बिना आकृति बनाए ध्यान करते हैं और दुःख का भी ध्यान करते हैं, कि ‘हे भगवान दुःख न आ जाए।’ रोज ध्यान करते हैं, लेकिन दुःख की कोई आकृति नहीं बनाते। इसलिए ध्यान करने के लिए आकृति बनाना आवश्यक नहीं है।
पृथ्वी के अन्दर गुरूत्वाकर्षण (ग्रबिटेशन फोर्स( की कोई आकृति है क्या? उसकी शक्ल, कोई रूप, रंग, कलर, कुछ नहीं है। फिर भी देखो निराकार स्वरुप में उसको लोग पढ़ते भी हैं, पढ़ाते भी हैं, समझाते भी हैं और सारे व्यवहार भी चल रहे हैं। कोई भी साइंटिस्ट (वैज्ञानिक( यह नहीं कहता, कि ग्रेविटेश्न फोर्स की कोई पीली आकृति है, लाल आकृति है या किस रंग की है? और सब मानते हैं, पढ़ते हैं, पढ़ाते भी हैं। ऐसी पता नहीं कितनी चीजे हैं, जिनका कोई रूप, रंग, आकृति नहीं है, फिर भी उनको सब स्वीकार करते हैं। उनको मानते हैं उनके आधार पर सारा व्यवहार भी चलता है।
एक्स-रे नहीं दिखती, अल्फा-रे नहीं दिखती, बीटा-रे नहीं दिखती, गामा रेज नहीं दिखती, ग्रेविटेशन फोर्स नहीं दिखती, इनफ्रारेड लाईट नहीं दिखती, अल्ट्रासाउण्ड नहीं दिखती, पता नहीं कितनी चीजें हैं, जो नहीं दिखती। रेडियो और टेलीविजन का प्रसारण हो रहा है कि नहीं ? यहाँ उनकी किरणे हैं कि नहीं? जो सारे चैनल चल रहे, इस समय भी तो चल रहे हैं न। तो यहाँ पर उनकी सारी किरणें हैं, पर ये नहीं दिखतीं। ऐसी बहुत सारी चीजें हैं, जो होती है, अपना-अपना काम करती है और दिखती एक भी नहीं। और वो सब माननी पड़ती है। ईश्वर भी ऐसा है, कि कोई आकृति नहीं है। बिना आकृति के ही उसका ध्यान करेंगे, धीरे-धीरे अभ्यास करेंगे हो जाएगा ।

(91) शंका :- ‘दण्ड देते समय वाणी में क्रोध लाना पड़े तो लाएँ, किन्तु मन में क्रोध न लाएँ”-ऐसा करना अहिंसा है, ऐसा आपने बतलाया, किन्तु ये असत्य है, क्योंकि मन और वचन की एकरूपता नहीं रही?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह तो सत्य है कि एक व्यक्ति के मन में आ गया कि मैं फलां पड़ोसी की टांग तोड़ दूंगा और वाणी से भी उसने अपने दोस्त को बोल दिया कि इस पड़ोसी की टांग तोड़ दूंगा और शरीर से वह उसकी टांग तोड़ दे, तो तीनों में एकरूपता हो गई। तीनों में एकरूपता होते हुए भी यह अहिंसा नहीं है, यह हिंसा है।
स सत्य का यह अर्थ नहीं है कि मात्र तीनों में एकरुपता हो। मात्र एकरुपता होना, सत्य नहीं कहलाता। उसका प्रयोजन अहिंसा होना चािहए। अहिंसा आदि 5 यम और शौच आदि 5 नियम हैं।
स अहिंसा के संबंध में व्यास भाष्य में लिखा है- उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलाः तत्सि(िपरतयैव प्रतिपाद्यन्ते। अर्थात् बाकी के नौ यम-नियम अहिंसा मूलक हैं। उनका प्रयोग इस ढंग से करना है, कि उनसे अहिंसा की रक्षा होनी चाहिए। हिंसा नहीं होनी चाहिए। अहिंसा का पालन करना हमारा मुख्य प्रयोजन है। अहिंसा का व्यवहार करने के लिए यदि हमको मन और वाणी में कुछ अंतर भी करना पड़े तो कर सकते हैं। प्रयोजन अगर हमारा अहिंसा करना है, दूसरों को धोखा देना नहीं है। जब दूसरे को धोखा दे रहे हैं, तो वो हिंसा और असत्य होता है।
स बच्चे ने जैसे- गड़बड़ कर दी। उसे बार-बार समझाया, लेकिन नहीं मानता। अब उसको ठीक करना है तो हम ऊपर से तो डाँट लगायेंगे, पर मन में उसके प्रति प्रेम-भाव बनाये रखेंगे। अगर मन में प्रेम नहीं है और मार-पीट देंगे, तो ज्यादा पीट देंगे, अन्याय कर देंगे। उसका हाथ-पाँव टूट जाएगा, तो जीवन भर के लिए विकलांग हो जाएगा। ऐसा नहीं करना है। यदि हम ऊपर से डाँटते नहीं, तो वो सुधरेगा भी नहीं। इस सुधार के लिए ऊपर-ऊपर से डाँटना भी है। पर मन में प्रेम-भाव रखना है। इसका नाम अहिंसा है।
स यहां पर दण्ड का प्रयोजन है-सुधार करना। अपना गुस्सा ठंडा करना बिलकुल नहीं। दण्ड इसलिए दिया जाता है, कि बस अपराधी का सुधार हो जाए। न्यायाधीश महोदय कोर्ट में बैठकर के मुकद्मे सुनते हैं, और फिर अपराधियों को दण्ड देते हैं। छः मास की जेल, एक वर्ष की जेल, दो वर्ष की जेल और किसी को फांसी तक भी देते हैं। क्यों जी, क्या जज साहब अपना गुस्सा ठंडा करने के लिए फांसी देते है? वो तो अपराधी केस सुधार के लिए दण्ड देते हैं। ऐसे ही माता-पिता के मन में बच्चे का हित करना ही है। वो मन में हित की भावना रखें, और ऊपर से डाँट लगाएं, ऐसा शास्त्रों में विधान हैं।

(92) शंका :- हमारे निवास स्थान पर मुण्डकोपनिषद् का एक श्लोक लिखा है, जिसमें ओ३म् को धनुष, आत्मा को तीर और ब्रह्म को लक्ष्य बताया गया है। कृपया इसे स्पष्ट करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

दृष्टांत है- मान लीजिए, एक व्यक्ति धनुष बाण ले करके तीर को लकड़ी के खंबे में ठोकना चाहता है। उसकी ऐसी इच्छा है। जैसे बाहर से एक दृष्टांत समझाने के लिए बताया, कि एक लकडी का खम्भा है, वो है- लक्ष्य। और उस लकडी के खम्भे में क्या फेंकना है? तीर। और फेंकने के लिए साधन क्या है? धनुष। ठीक है, तो तीन बात हो गईं। एक तीर, एक धनुष और एक लक्ष्य। ऐसे ही ब्रह्म लक्ष्य है, ब्रह्म तल्लक्ष्य मुच्यते। प्रणव त्र (ओ३म्( धनुष के समान है। ‘प्रणवो धनुः शरो हि आत्मा’- आत्मा जो है, वो तो तीर के समान है। जैसे धनुष में तीर को देखते हैं, और फिर धनुष की रस्सी खींच करके, और तीर को छोड़ करके लक्ष्य तक पहुँंचा देते है। ऐसे ही ओ३म् है- धनुष, धनुष के समान। और जो आत्मा है, वो तीर (ऐरो( के समान है। और ब्रह्म जो है, वो टारगेट है, वो लक्ष्य है। तो ओ३म् के मंत्र से आत्मा का तीर छोड़ो और ब्रह्म में फिट कर दो। यह उस वचन का अभिप्राय है।

(93) शंका :- जब संसार प्रलय-अवस्था में चला जाता है, तब परमात्मा कुछ करता है या निठल्ला बैठा रहता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जब संसार प्रलय अवस्था में चला जाता है तो ईश्वर निठल्ला नहीं बैठता। जो आत्मायें मुक्ति में जा चुकी हैं, उनको आनंद देता रहता है। उसका यह काम होता है। बाकि जो ब( आत्माऐं हैं, वे प्रलय अवस्था में पड़ी रहती हैं, सोती रहती हैं, विश्राम करती है। ईश्वर बिल्कुल निठल्ला नहीं होता, वो काम करता रहता है। उस समय उसका थोड़ा काम तो घट ही जाता है, क्योंकि तब उसको सृष्टि चलाने का भार नहीं रहता। लेकिन आप ऐसा मत समझिये, कि उसकी मुसीबत छूट गई। इतने दिन छुट्टी हो गई। दरअसल, ऐसा नहीं है। वो सृष्टि चला दे, तब भी उसे भार नहीं पड़ता। सहज स्वभाव से बड़ी आसनी से वो सृष्टि का संचालन करता है। जैसे हम आँखें झपकाते रहते हैं, दिन भर आँख झपकाते हैं, कोई भार लगता है क्या? पता भी नहीं चलता। तो भगवान के लिए सृष्टि का संचालन करना ऐसा ही काम है। जैसे हम श्वास-प्रश्वास लेते-छोड़ते हैं। कोई भारी काम नहीं है। इसीलिए भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता। सृष्टि हो या प्रलय हो, उसको कोई भार नहीं लगता। बस इतना है, कि सृष्टि चलती है, जीवात्मा को कर्मफल देता है, सृष्टि की व्यवस्था करता रहता है। और अगर प्रलय हो जाती है, तो मुक्त आत्माओं को आनंद देता रहता है। उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। सृष्टि या प्रलय होने पर हमको फर्क पड़ता है।

(94) शंका :- मोक्ष की अवस्था में जीवात्मा को देखने, सुनने आदि के लिए, नेत्र, श्रोत्र बिना शरीर कैसे मिलते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा के पास अपनी देखने,सुनने की शक्तियाँ हैं, परंतु वो बहुत कमजोर हैं। केवल अपनी शक्तियों से वो देख-सुन नहीं पाता। जब बंधन में आता है, तो प्राकृतिक शरीर की सहायता से, इन्द्रियों से वो काम करता है। जीवात्मा जब मोक्ष में जाता है, तो ईश्वर उसको अपनी शक्ति देता है। जैसे छोटा बच्चा चल नहीं पाता, तो माँ उसको गोद में उठा लेती है। और माँ की गोद में बैठकर फिर वह यात्रा करता है। उसके पास शक्ति कम है, इसलिए तब माँ उसकी सहायता करती है, और उसका काम पूरा हो जाता है। ऐसे ही ईश्वर आत्मा को मोक्ष में देखने के लिए, सुनने के लिए, सारे काम करने के लिए अपनी शक्ति दे देता है।

(95) शंका :- सृष्टि केवल एक है या बहुत सारी हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वैसे तो ‘सृष्टि’ शब्द का अर्थ ही पूरा ‘ब्रह्मंड’ है। पूछना यह चाहिए था, कि सौर मंडल एक है, या बहुत सारे हैं। सृष्टि तो एक ही है। पूरा ब्रह्माण्ड एक सृष्टि है। इसमें बहुत सारे सौर मंडल हैं। उनमें से एक हमारा यह सौर मंडल है, जिसमें हम रहते हैं। एक सूर्य और उसका परिवार, यह हुआ एक सौर मंडल। अरबों तारे त्र (अरबों सूर्य( और उनके परिवार। यानि अरबों की संख्या में सौर मंडल एक आकाशगंगा में हैं। और ब्रह्माण्ड में ऐसी-ऐसी अरबों आकाशगंगाऐं हैं। तो इतना विशाल यह ब्रह्माण्ड है। इसे हम समग्रतः सृष्टि कह सकते हैं। सृष्टि शब्द से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का ग्रहण हो जाएगा। पूरी सृष्टि एक ही है।

(96) शंका :- जीवात्मा निराकार है या साकार? इस प्रश्न के उत्तर में आपने जीवात्मा को निराकार बतलाया था और कहा था कि वो चेतन है। जो चेतन होता है, वो निराकार होता है और जो जड़ होता है वो साकार होता है। अब प्रश्न बना कि ईश्वर निराकार होने से एक है, परंतु जीवात्मा निराकार होने से अनेक क्यों है? क्या कठोपनिषद् के आचार्य ने जीवात्मा को आकारवान माना है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

निराकार होने से वो वस्तु एक ही होगी, ऐसा कोई नियम नहीं है, और न ही मैंने ऐसा बताया। निराकार होने से वो चेतन है, यह तो मैंने बताया था। ईश्वर निराकार है, वो चेतन है। जीवात्मा निराकार है, वो भी चेतन है। ये दोनों निराकार हैं, दोनों चेतन हैं। दूसरी बात यह है कि- निराकार वस्तु एक भी हो सकती है, अनेक भी हो सकती हैं। जीवात्मा अनेक हैं और ईश्वर एक है। ईश्वर स्वभाव से एक है और जीवात्मा स्वभाव से अनेक हैं। जिस वस्तु का जो स्वभाव होता है, उसके स्वभाव पर ‘क्यों’ का प्रश्न करना अनुचित है। स्वभाव है, सो है। स्वभाव का मतलब क्या हुआ? ‘स्व’ ‘भाव’, यानि उसकी ओरीजिनैलटी, वो उसका स्वभाव है। अनादिकाल से उसका वैसा ही धर्म है। जो है सो है, अब हम उसमें तोड़-मरोड़ कैसे कर सकते हैं। हमने कहा था- जो निराकार है, वो चेतन है, जिसका आकार है, वो जड़ है। बताइये नियम कहाँ टूटा। पृथवीजड़ है, पृथवी का आकार है, कहाँ नियम टूटा। वायु और आकाश भी जड़ हैं। उनका आकार भी सूक्ष्म है, हम इनको आँखों से देख नहीं सकते। वायु और आकाश तो स्थूल भूत हैं। अभी इससे छोटी सूक्ष्म चीजें और बहुत सारी हैं। मन है, इन्द्रियाँ हैं, बु(ि है। बिल्कुल नीचे चले जाओ, सत्त्व, रज और तम नामक प्रकृति के मूल तत्त्व, वो भी साकार हैं। पर उनमें आकार सूक्ष्म है। इनको आँखों से नहीं देख सकते, माइक्रोस्कोप से भी नहीं देख सकते। फिर भी वो साकार हैं। सत्यार्थ-प्रकाश में महर्षि दयानंद जी ने लिखा है- यदि प्रकृति निराकार होती, तो उस निराकार प्रकृति से साकार जगत कैसे बनता? जगत साकार है या निराकार? साकार है न। जब साकार जगत है तो प्रकृति भी साकार होगी। जैसे गुण कारण द्रव्य में होते हैं, वैसे कार्य द्रव्य में आते हैं। यह नियम है। प्रकृति साकार है इसलिये जगत साकार है। भले ही प्रकृति का आकार सूक्ष्म है, वो हमको इन आँखों से नहीं दिखता, तो भी साकार है। आत्मा एक नहीं अनेक है, पर वो निराकार होने से चेतन है। और ईश्वर भी निराकार होन से चेतन है। सूक्ष्म शरीर जड़ है। वो निराकार नहीं है। वह साकार है। पर वो सूक्ष्म इतना है, कि हम आँख से नहीं देख पाते। जिन चीजों को हम आँख से देख नहीं पाते, उनको मोटी भाषा में निराकार कह देते हैं। वास्तव में वो पूरी तरह निराकार नहीं है। पूरी तरह निराकार वस्तुयें वो ही हैं, जो ‘चेतन’ वस्तुएं हैं।
।प्रकृति साकार है। परन्तु जड़ होने से वह बन्धन का अनुभव नहीं करती। इसलिये प्रकृति की मुक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जीवात्मायें निराकार हैं और वे बंधन में आती रहती हैं। इसलिये उनको मुक्ति की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर निराकार है, परन्तु योगदर्शन व्यास-भाष्य में लिखा है, कि ईश्वर तो हमेशा से ही मुक्त है। वो बंधन में आया ही नहीं। इसलिए उसके लिये कैसे कहेंगे, कि उसको मुक्ति की आवश्यकता है। उसको आवश्यकता नहीं है, वो पहले से ही मुक्त है। अनादिकाल से मुक्त है, आज भी मुक्त है और आगे अनंतकाल तक मुक्त रहेगा। इसलिये ईश्वर को तो मुक्ति की आवश्यकता नहीं है। जीवात्माओं को ही मुक्ति की आवश्यकता है, क्योंकि वो बंधन में आते रहते हैं।

(97) शंका :- जब शरीर जड़ है, तो इसकी पीड़ा हमें क्यों होती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अच्छा जब आपकी कार टूटती है तो किसको पीड़ा होती है? मकान गिर जाता है, तो किसको पीड़ा होती है? आपको ही होती है न। वो जड़ है। जड़ मकान टूटने पर, जड़ कार के टूटने पर भी आपको पीड़ा होती है। इसलिये होती है कि क्योंकि आपका उससे कोई संबंध है। और जापान में भूकंप आये, पाकिस्तान में भूकंप आये तब पीड़ा नहीं होती। क्योंकि उससे आपका संबंध नहीं है। यहाँ सवाल जड़ और चेतन का नहीं है, सवाल तो संबंध का है। जिस वस्तु से हमारा संबंध है, उस वस्तु के टूटने-फूटने, नष्ट होने पर हमको कष्ट होता है, वो वस्तु चाहे जड़ हो, चाहे जो भी हो। मकान जड़ है, कार भी जड़ है, वो टूट जाते हैं तो पीड़ा होती है, क्योंकि वो हमारी कार है। ऐसे ही यह शरीर हमारा है। शरीर जड़ है, और शरीर में चोट लगती है तो हमको कष्ट होता है। कष्ट तो चेतन को ही होना है। जड़ वस्तु तो सुख-दुख को महसूस करती नहीं। चेतन हैं हम (आत्मा(, इसलिए हमको ही कष्ट होता है। तो अब शरीर को जो सामान्य चोट लगती है, उतना कष्ट तो हम सहन भी कर लेंगे। पर ज्यादा गहरी चोट लगेगी, तो उस कष्ट को रोकने का हमारा सामर्थ्य नहीं है। इसलिये हमको न चाहते हुए भी वो कष्ट भोगना पड़ता है। जैसे- सर दुख रहा है, पेट दुख रहा है, बुखार आ गया, तो उस कष्ट को हम रोक नहीं पाते, जीवात्मा में इतनी शक्ति नहीं है। इसलिये उसको भोगना पड़ता है। और फिर दवाई-चिकित्सा करते हैं तो वो रोग हट जाता है, वो कष्ट मिट जाता है। सार यह हुआ – शरीर के साथ हमारा संबंध होने के कारण हमें पीड़ा होती है।

(98) शंका :- जैसे कार आदि जड़ वस्तु और आँख, हाथ आदि अपने जड़ अंगों को एक बार नियंत्रित करने पर, वो पर्याप्त समय तक नियंत्रित रहते हैं। परंतु मन, जो कि जड़ है, उसको एक बार नियंत्रित करने पर भी वो बार-बार अनियंत्रित होकर हमारे ध्यान में बाधा डालता ही रहता है, ऐसा क्यों? कृपा करके समझा दें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

एक व्यक्ति कार चला रहा है। और वो कार चलाते-चलाते एक्सीलेटर पर पाँव रखता है। और एक्सीलेटर को थोड़ा दबाता है तो कार भागती है। फिर पाँव थोड़ा पीछे खींच लेता है, तो स्पीड कम हो जाती है। और वो बार-बार ऐसे एक्सीलेटर दबाता रहे तो कार फिर ऐसे ही चलेगी न। झटके मार-मार के, फिर चलेगी, फिर स्लो हो जायेगी, फिर चलेगी, फिर स्लो हो जायेगी। अब बताइये, इसमें किसका दोष है। कार का दोष है , कि ड्रायवर का दोष है। तो आप मन को ऐसे ही करते रहते हैं। उसको बार-बार एक्सीलेटर देते रहते हैं। और कहते हैं -साहब, यह ज्यादा परेशान करता है। वास्तव में मन परेशान नहीं करता है। आप ही उसको भगाते रहते हैं। आप उसमें विचार उठाते रहते हैं, वो भागता रहता है। जैसे ‘कार’ जड़ है वैसे ही ‘मन’ जड़ है।
स गलती हमारी है। हमने मन को ठीक तरह से चलाना सीखा नहीं। अब मन को चलाना भी सीख लीजिये और मन को रोकना भी सीख लीजिये। तो यह समस्या हल हो जायेगी। मन कैसे चलता है, मन में विचार कैसे आते हैं। पहला कारण है- ‘इच्छा’ और दूसरा कारण है- ‘प्रयत्न’। तो लोग जब ध्यान में बैठते हैं, वो मन में दुनिया भर की इच्छायें पैदा करते रहते हैं। कपड़े खरीदने हैं, शॉपिंग में जाना है, फलानी पार्टी में जाना है, बच्चे की स्कूल की फीस भरनी है, कोर्ट में झगड़ा चल रहा है। वो तरह-तरह की इच्छायें पैदा करते रहते हैं। और फिर उन बातों का याद करने का प्रयत्न करते रहते हैं। इच्छा करते रहते हैं, प्रयत्न करते रहते हैं, तो मन में विचार उठते रहते हैं।
स आप उन सब बातों को याद करने की इच्छा को बंद कर दो। और उन सब बातों को याद करने का प्रयत्न बंद कर दो। इच्छा भी नहीं करनी, प्रयत्न भी नहीं करना। इस तरह कोई विचार नहीं आयेगा। मन बिल्कुल आपकी इच्छा के अनुसार चलेगा।
स अगर एक मिनट का प्रयोग करना हो तो अभी कर लो। हाँ जी करेगें। आप आसन लगाइये, कमर सीधी, गर्दन सीधी, आँखे बंद। पूरी सावधानी के साथ मेरी बात को सुनें, और मन में वैसा ही सोचने का प्रयत्न करें। कल्पना कीजिये, आप अपने घर में बैठे हैं। अपने ड्राइंग रूम में, जहाँ आपके अतिथि लोग आकर बैठते हैं, उस कमरे में बैठे हैं। आपके सामने टेबल पर अखबार पड़ा है। आपने अखबार उठाया और उसकी हेडलाइन पढ़नी शुरू की। कश्मीर में बम विस्फोटः चार मृत, अठारह घायल। दूसरा समाचार- महाराष्ट्र के एक गाँव में चोरी। पाँच लाख की संपत्ति चोर लूट कर ले गये। आपने समाचार पढ़ा। इतने में दरवाजे पर घंटी बजी। आपने अखबार छोड़ दिया, उठकर के बाहर गये, दरवाजा खोला। आपके एक मित्र आये। आपने उनको नमस्ते किया, कहा-आइये, स्वागत है, बहुत दिनों बाद मिले। उनको प्रेम से अंदर लेकर आये। वहीं पर बैठाया, ड्राइंग रूम में। हालचाल पूछा, सब ठीक-ठाक है? हाँ ठीक-ठाक है। फिर उनको बैठाकर आप रसोई में गये। एक डिब्बे में से आपने चार लड्डू निकाले, प्लेट में लड्डू रखे। दो गिलास पानी भरा, और ट्रे में पानी का गिलास और लड्डू की प्लेट ले आये। उन आये हुये मित्र को लड्डू खिलाया, एक लड्डू मित्र ने खाया, एक लड्डू आपने खाया। दोनों ने थोड़ा-थोड़ा पानी पिया। दस मिनट कुछ बातचीत हुई, कुछ चर्चा हुई, उसके बाद वो मित्र जाने लगे। तो आपने प्रेम से विदाई दी। और उनको बाहर दरवाजे तक छोड़कर आये। बस, अब आप आँखें खोल सकते हैं। अब बताइये, आपने अपने मित्र को लड्डू खिलाया, कि नहीं खिलाया। खिलाया। और आपने खाया कि नहीं खाया, खाया न। अब बताइये, दूसरा विचार क्यों नहीं आया। अब नहीं आया न। अब वही विचार आया। अब तो दूसरा विचार नहीं आया। और ध्यान में दूसरा विचार क्यों आता है।
स कारण पहले मैं बता चुका हूँ। लड्डू खाने में रूचि है, ईश्वर में रूचि नहीं है, गड़बड़ी यह है। लड्डू खा रखा है, पानी पी रखा है, मित्र को देख रखा है, अपना घर भी मालूम है, ड्राइंग रूम भी पता है, न्यूज पेपर भी रोज पढ़ते हैं। इन सब से हम परिचित हैं और इन चीजों में, कार्यों में खूब रूचि है। इसलिये वहाँ पर मन खूब लगता है। और ईश्वर में रूचि नहीं, ईश्वर का महत्व नहीं जानते, ईश्वर के प्रति श्र(ा कम है, इसलिये ईश्वर का विचार मन में नहीं टिकता है। तो इस प्रयोग से पता चला, कि हमारी इच्छा से, हमारे प्रयत्न से ही मन में विचार उठते हैं। बस, तो ईश्वर के प्रति इच्छा पैदा करो, ईश्वर के प्रति रूचि बनाओ और उसको स्मरण करने का प्रयत्न करो। तो यह मन ठीक-ठाक चलेगा। कार की तरह चलेगा। फिर दूसरी बात नहीं उठायेंगे, ईश्वर की बात उठायेंगे।

(99) शंका :- क्या ईश्वर दयालु है और हम सबका भला चाहता है, तो उसने जीव को काम करने में स्वतंत्र क्यों बनाया? उसने सभी को सुबु(ि क्यों नहीं दी, ताकि कोई बुरा काम कर ही न सके?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

प्रश्न है, कि ईश्वर ने हमको स्वतंत्र क्यों बनाया? इसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने हमको स्वतंत्र नहीं बनाया है। बल्कि जीवात्मा स्वभाव से ही स्वतंत्र है। ईश्वर ने उसको छूट नहीं दी है। वह अनादिकाल से स्वतंत्र है। जब वह स्वभाव से स्वतंत्र है तो ईश्वर उसकी स्वतंत्रता में बाधक क्यों बने? यह तो अन्याय है। जो अनादिकाल से हमारा गुण-कर्म- स्वभाव है, ईश्वर उस पर लगाम (ब्रेक( क्यों लगाये, उस पर प्रतिबंध क्यों लगाये? तो जीव स्वभाव से स्वतंत्र है, इसीलिये वो स्वतंत्रता से कर्म करता है।
स हाँ, फल भोगने में वो परतंत्र है। इसलिये वेद में ईश्वर क्या कहता है कि- ”सच बोलो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, दान दो, सेवा करो, परोपकार करो, अच्छे काम करो”। यह सब ईश्वर का आदेश नहीं है, बल्कि ये उसके सुझाव (सजेशन( हैं। ईश्वर कहता है ये अच्छे काम हैं, इन्हें करो। और ये बुरे काम हैं, इन्हें मत करो। अच्छे करोगे, तो ‘ईनाम’ दूँगा। बुरे करोगे, तो ‘दंड’ दूँगा। आपकी इच्छा है, जो चाहे सो करो। इस तरह फल भोगने में आप परतंत्र हैं।
स अगर ऐसे ईश्वर हमको स्वतंत्र ही न छोड़े, हमारी स्वतन्त्रता पर प्रतिबंध लगा दें, तो फिर हम बुरे काम कर ही नहीं पायेंगे। और बुरे नहीं कर पायेंगे, तो फिर सृष्टि बनाने का उद्देश्य ही क्या रहा? अगर एक विद्यार्थी को कहा जाय, कि आप यहाँ बैठो और तीन घंटे परीक्षा दो और परीक्षा में हम जो कहेंगे, वो ही लिखना है, अपनी मर्जी से कुछ नहीं लिखना। तो बताइये परीक्षा का लाभ क्या रहा, परीक्षा का उद्देश्य ही क्या रहा? जब कोई उद्देश्य ही नहीं रहा, तो सब बेकार है। तो फिर परीक्षा क्यों हुई? जब विद्यार्थी अपनी मर्जी से कुछ लिख ही नहीं सकता, तो फिर परीक्षा व्यर्थ हुई? यही तो परीक्षा है, कि उसको छूट दी जाये। वो जो चाहे सो लिखे, बाद में अगर गलत लिखा पायेगा, तो आप उसके नंबर भले ही काट लेना, पर उसको अभी तो लिखने दो, तभी तो वो परीक्षा है। इसलिये संसार में, यह जीवन भी एक परीक्षा है। जैसे कॉलेज और स्कूल की तीन घंटे की परीक्षा होती है। ऐसे ही यह जीवन की भी तीन घंटे की परीक्षा है। स्कूल, कॉलेज की परीक्षा में तीन घंटे (180 मिनिट( का समय होता है। जबकि हमारे जीवन की परीक्षा में घंटा कई वर्षों का होता है।
स पहला घंटा- बचपन है, दूसरा घंटा- जवानी है, और तीसरा घंटा- बुढ़ापा है। उसके बाद मृत्यु की घंटी बजने वाली है। उसके बाद नंबर मिलेंगे। अच्छे उत्तर लिखे अर्थात् अच्छे कर्म किये, तो अच्छा जन्म, और बुरे उत्तर लिखे अर्थात् बुरे कर्म किये, तो बुरा जन्म मिलेगा। स्कूल की परीक्षा में ईश्वर वाली परीक्षा में एक और अन्तर भी है। स्कूल की परीक्षा में तीन घंटे पूरे होने के बाद परीक्षा पूरी हो जाती है। तब घंटी बजती है। घंटी के बाद गणना (मार्किंग( होती है। बीच में मार्किंग नहीं होती। तीन घंटा जब तक पूरा न हो जाये तब तक नंबरिंग नहीं होती। परन्तु जीवन की परीक्षा में तो बीच में भी मार्किंग होती है। बीच में ही नम्बर मिलने शुरू हो जाते है। तात्पर्य है कि चालू (इसी( जीवन में ही कुछ कर्मों का फल मिलना शुरू हो जाता है। बचे हुये कर्मों का फल अगले जन्मों में धीरे- धीरे मिलता रहता है। जैसे ईश्वर की फल देने की व्यवस्था होती है, उसी के अनुसार फल मिलता रहता है। इसलिये ईश्वर ने हमको ‘स्वतंत्र’ छोड़ रखा है। वो हमारा स्वाभाविक धर्म है, हमारा स्वाभाविक अधिकार है। ईश्वर सबको अच्छी बु(ि देता है। सुझाव तो अच्छा ही देता है। फिर हमारी मर्जी है, हम उसे सुनें या नहीं सुनें।

(100) शंका :- क्या ब्रह्माण्ड में इस दुनिया के अलावा कहीं और भी ऐसी दुनिया है, जैसी इस पृथ्वी पर है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिल्कुल है। इसमें कोई शंका नहीं है।
स सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में इस बारे में लिखा है। ईश्वर सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ का कोई भी कार्य व्यर्थ नहीं होता। आप और हम, जो थोड़ी-बहुत बु(ि रखते हैं, जब भी कोई काम करते हैं, तो सोच-समझकर करते हैं। हम कोई फालतू काम नहीं करते। अगर कोई काम करने से कुछ भी लाभ नहीं है, तो हम बिल्कुल नहीं करेंगे। जब हम इतनी छोटी बु(ि रखने वाले होकर भी, व्यर्थ में कोई काम नहीं करते, तो इतनी बड़ी सृष्टि बनाने वाला सर्वज्ञ ईश्वर ऐसा क्यों करेगा। ब्रह्माण्ड में अरबों-खरबों आकाशगंगायें हैं। एक-एक आकाशगंगा में खरबों-खरबों तारे हैं, उनके अपने-अपने सोलर सिस्टम्स है। तो सवाल उठता है, कि इतनी लंबी-चौड़ी दुनिया जो ईश्वर ने बनाई है, क्या यह व्यर्थ में बनाई है? अगर यहाँ प्राणी न रहते हों, तो इतनी बड़ी सृष्टि बनाना व्यर्थ है। हमारे इस सौर मंडल में कम से कम एक पृथ्वी पर तो जीवन है। यह प्रत्यक्ष दिख रहा है। मंगल पर जीवन नहीं मिला, बृहस्पति पर नहीं मिला, शुक्र पर नहीं मिला, बुध पर नहीं मिला, शनि पर नहीं मिला, न सही। विभिन्न ग्रहों में से एक ग्रह ‘पृथ्वी’ पर तो जीवन है। तो इसी हिसाब से अनुमान लगा लीजिये कि जैसे इस एक सौरमंडल में कम से कम एक पृथ्वी पर जीवन है। ऐसे ही प्रत्येक सौरमंडल में कम से कम एक ग्रह में तो निःसंदेह जीवन होना ही चाहिये, अन्यथा वो बनाना व्यर्थ है। तो अनुमान-प्रमाण से सि( होता है, कि और भी करोड़ों अरबों पृथ्वियाँ हैं। वहाँ भी हमारे जैसे ही मनुष्य, पशु-पक्षी, आदि प्राणी रहते होंगे। वहाँ भी इसी ईश्वर का शासन चलता होगा। वहाँ भी ऐसे ही चार ‘वेद’ होंगे, जैसे हमारी इस धरती पर है।

(101) शंका :- किसी को मारना जीव-हत्या कहलाती है। कीड़े, मच्छर, मक्खियाँ जानबूझकर या अनजाने में मारे जाते हैं, तो क्या ये भी जीव-हत्या कही जाएगी?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ, बिल्कुल कही जायेगी, क्यों नहीं कही जाएगी। आप मक्खी, मच्छर मारेंगे, तो फिर हत्या तो कही ही जायेगी। ध्यान में बैठते हैं, एक मक्खी आ गई। कान में गुनगुनाती है, तो आप हटा देते हैं। फिर बैठते हैं, तो वो फिर आती है। मक्खी में इतनी बु(ि थोड़ी है, कि आप हटाना चाहते हैं, तो वो हट जाए। वो तो बार-बार आती है। फिर व्यक्ति को गुस्सा आता है, तो वो फिर क्या करता है? सोचता है- अच्छा देखता हूँ कि वो फिर कैसे आती है। अब मक्खी आई, यूं मारेगा। मच्छर आया, यूँ मारेगा। वो हिंसा है, पाप है। चाहे जानबूझकर मारे, चाहे अनजाने में मारे, पाप तो पाप ही है। अनजाने में किए गए पाप का दंड थोड़ा कम होता है। जानबूझकर करेंगे, तो दंड अधिक मिलेगा। अरे, मक्खी परेशान करती है, तो हटा दो। आप कमरे में मक्खी-मच्छर को क्यों आने देते हैं। कमरे मे जाली लगाओ। दरवाजे बंद रखो। खिडकी में जाली लगाओ। मच्छरदानी लगाओ, मच्छर नहीं आने दो। उसका उपाय करो। मारेंगे तो हिंसा होगी, पाप लगेगा।
अगर बिना मारे काम चलता है, तो क्यों मारें। हमारी आदत खराब हो जाएगी। जानबूझकर मारेंगे, क्रोधपूर्वक मारेंगे, तो निःसंदेह हिंसा के भागी बनेंगे। दुष्ट को दंड देने का विधान जरूर है, पर यदि आपने क्रोधपूर्वक दंड दिया, तो आप हिंसक हो जाऐंगे। न्यायाधीश जो दंड देता है, वो क्रोध करके नहीं देता। दुष्ट को दंड देता है, पर बिना क्रोध किए। ऐसे ही आप मक्खी को हटा दें। बिना क्रोध किए। मच्छर को हटा दें। और कभी बहुत समझाने के बाद भी मच्छर नहीं मानता। बार-बार समझा दिया, मच्छर हटता ही नहीं। मक्खी को समझा दिया, लेकिन वो हटती ही नहीं। अब उसको दंड देना है। मान लो, चलो मारना ही है, तो बिना क्रोध किए मारो, तब तो ठीक है। जब आप क्रोध में आ के मारते हैं, तो हिंसा हो जाती है। अपने स्वभाव को बिगड़ने नहीं देना। क्रोध मत करना। क्रोध पूर्वक नहीं मारना। अब ऐसा करने में आपको कई साल लग जायेंगे। करो परिश्रम, क्रोध को जीतने के लिये।

(102) शंका :- जब हम वैदिक गणना के अनुसार इस संसार की आयु एक अरब 96 करोड़, इतना वर्ष कहते हैं, तो यह गणना हमारी पृथ्वी अर्थात् सौरमंडल की है अथवा समस्त दृश्य-अदृश्य ब्रह्माण्ड की?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका उत्तर है, इस पृथ्वी की गणना तो यह है ही। इस पृथ्वी को उत्पन्न हुये इतना समय हो गया। महर्षि दयानंद जी के ग्रन्थों को देखने से पता चलता है, कि महर्षि दयानन्द जी पूरे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक साथ मानते हैं और पूरे ब्रह्माण्ड की प्रलय भी एक साथ मानते हैं। )ग्वेद भाष्य-भूमिका आदि जो ग्रंथ हैं, उनके आधार पर ऐसा लगता है, कि यह सारे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का काल है।

(103) शंका :- ईश्वर, उपासना करना कठिन लगता है। जबकि हम दिनभर मन में सांसारिक बातें खूब सोचते हैं। वह सरल लगता है। ऐसा क्यों है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम जिस कार्य का अधिक अभ्यास करते हैं, वो कार्य हमारे लिये सरल हो जाता है। आपने देखा होगा कि कुछ लोग शारीरिक कार्य करते हैं, कोई पैकिंग का कार्य करता है। फटाफट वस्तु उठाई, डिब्बे में डाली। डिब्बे में पैक की और भेज दी। मातायें स्वेटर बुनती हैं, उनको अभ्यास हो जाता है तो फटाफट स्वेटर बुनती हैं, जल्दी-जल्दी सलाई चलती है। तात्पर्य है- जिस कार्य को हम अभ्यास में ले आते हैं, वो कार्य तीव्रता और सरलता से होता है। और जिस कार्य का अभ्यास नहीं होता, वो कार्य मंद गति से होता है और कठिन लगता है। जब कहा जाता है कि- मन में मंत्रोच्चारण करो, वेद मंत्रों को याद करो, ईश्वर की उपासना करो। आपने इसका अभ्यास बहुत कम किया है, इसलिये आपको यह कठिन लगता है। और मन में दिनभर उल्टे- सीधे विचार करते रहते हैं, उसका अभ्यास सारे दिन किया है। बहुत किया है, इसलिये वो सरल लगता है। तो चाहे अच्छी बात हो, या बुरी बात हो, मन में खूब तेजी से होती रहती है। सांसारिक बातें खूब चलती रहती हैं, इसलिए वो सरल लगती हैं। उसका लम्बे समय तक अभ्यास किया गया। और ईश्वर उपासना का, मंत्रोच्चारण का, उनके अर्थों को याद करने का अभ्यास नहीं किया, इसलिये वो कठिन जान पड़ता है। यह अंतर है दोनों में। यदि ईश्वर उपासना के मंत्रों का आप बार-बार अभ्यास करें, तो कुछ समय के बाद वो भी आपको सरल लगेंगे। फिर कठिनाई नहीं आयेगी, अभ्यास की बात है, और दूसरी बात है, वैराग्य की। संसार में राग-द्वेष बहुत अधिक है। वैराग्य है या नहीं। ईश्वर में रुचि है या बहुत कम है। इसलिये इश्वरोपासना करना कठिन लगता है। संसार में राग-द्वेष अधिक होने के कारण सांसारिक विचार उठाना सरल लगता है।

(104) शंका :- ईश्वर को पाने के लिए क्या यह आवश्यक है कि संध्या, उपासना आदि संस्कृत में बोलकर की जाये। अब अगर वेद हिन्दी में लिखे गये हैं, तो मंत्र भी हिन्दी में होंगे। इसलिए संध्या उपासना भी क्या हिन्दी में की जा सकती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आदि सृष्टि में ईश्वर ने संस्कृत भाषा में वेदों का ज्ञान दिया। वेद संस्कृत में थे। तब एक ही भाषा थी, दूसरी कोई भाषा नहीं थी। उस समय संस्कृत में ही लोग बोलते थे, संस्कृत में ही व्यवहार करते थे, संस्कृत में ही वेद मंत्रों के आधार पर ईश्वर की उपासना चलती थी। अब भले ही उसके हिन्दी भाष्य बन गये हैं। परन्तु मूल, मूल ही होता है और भाष्य, भाष्य ही होता है। ईश्वर उपासना मूल मंत्रों से संस्कृत में ही की जानी चाहिए। बाद में आप हिन्दी अनुवाद भले ही कर लें। अगर मूल संस्कृत छूट गई, तो मूल मंत्र छूट जायेगा। और यदि मंत्र छूट गया, तो किसी भी उपासना करने वाले को उपासना करनी ही नहीं आयेगी, वो भटक जायेगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी एक पुस्तक में विदेश की घटना लिखी है। विदेश में एक गड़रिया भेड़, बकरी चराने वाला था। और वो बड़ा ईश्वर भक्त था। वहां ठंड बहुत होती थी। वो ओवरकोट पहनकर के भेड़ चराने बाहर जाता था। एक दिन वो पहाड़ पर जाकर के भगवान से प्रार्थना कर रहा था- ”ऐ भगवान! मेरी बहुत इच्छा है, कि मैं तुम्हारी बहुत सेवा करूं। भगवान, तुम मुझे कभी मिल जाओ, तो तुम्हारी बहुत सेवा करूंगा। जैसे मैं इन भेड़-बकरियों को चराता हूँ। और इन भेड़-बकरियों में कीड़े भी होते हैं, और वो कीड़े मेरे कोट में चिपक जाते हैं। मैं उन्हें साफ करता रहता हॅूँ। तुम भी भेड़-बकरी चराते होगे, तुम्हारे भी कोट में कीड़े चिपक जाते होंगे। तुम मुझे कभी मिल जाओ, तो ऐसी सेवा करुँ, कि एकदम बढ़िया पूरा कोट साफ कर दूँ।” अब बताइये, संस्कृत वेद मंत्र छोड़ दिया, तो परिणाम क्या निकला। लोग क्या समझेंगे, कि भगवान भी हमारी तरह ही भेड़-बकरी चरा रहा है। इस तरह भगवान का ही स्वरुप समझ में नहीं आयेगा, और लोग भटक जायेंगे। इसलिए वेद मंत्रों से उपासना करनी चाहिए, ताकि पता चले, भगवान कोई भेड़-बकरी चराने वाला गड़रिया नहीं है। भगवान सर्वव्यापक है, सर्वशक्तिमान है, कभी शरीर धारण नहीं करता। तो ईश्वर का स्वरुप ठीक बचा रहेगा और उसकी उपासना ठीक हो सकेगी। इसलिए वेद मंत्रों से उपासना करनी चाहिए। आज जो लोग मूर्तियों की पूजा कब्रों की पूजा कर रहे हैं। यह वेद मन्त्रों से ईश्वर उपासना छोड़ देने का ही परिणाम है। देख लीजिये, संसार ईश्वर के सही मार्ग से भटके गया या नहीं!

(105) शंका :- किस प्रकार के कर्मों के आधार पर स्त्री या पुरूष का जन्म मिलता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

भई ये पूरे-पूरे तो मुझे भी समझ में नहीं आये, तो मैं कैसे बताऊँ आपको कि कौन से कर्म करेंगे तो स्त्री बनेंगे, और कौन से कर्म करेंगे तो पुरूष बनेंगे। मुझे इतना समझ में आया कि बस अच्छे से अच्छा कर्म करो। अब भगवान बना देगा, जो बना देगा।
स कई लोगों के दिमाग में यह बात बैठी हुई है, कि स्त्री जन्म अच्छा है। कई लोगों के दिमाग में यह बात बैठी है, कि पुरूष जन्म अच्छा है। जो सत्य है, वो सत्य है। सत्य को जानना चाहिये, समझना चाहिये और सत्य को खुलकर स्वीकार करना चाहिये, उससे हमारी उन्नति होती है।
सवैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों एक ही योनि में हैं, मनुष्य योनि में। मनुष्य योनि की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। इसमें कोई ऊँचा-नीचा नहीं है। क्या स्त्रियों का बस में, रेल में आधा टिकिट लगता है और पुरूषों का पूरा लगता है? इस हिसाब से दोनों भारत के समान नागरिक हैं। सबको समान अधिकार है, वोट देने का अधिकार बराबर है। पाकिस्तान में स्त्रियों का आधा वोट है, वो मुझे पता है। वो गलत बात है। यह वेद के अनुसार अन्याय है। वेद में स्त्री और पुरूष दोनों को बराबर बताया है।
स हाँ, किसी व्यावहारिक दृष्टि से किसी-किसी क्षेत्र में स्त्रियाँ ऊपर हैं, पुरूष छोटे हैं। किसी क्षेत्र में पुरूष बड़े हैं तो स्त्रियाँ छोटी हैं। वो अलग-अलग क्षेत्र हैं। कौन सा क्षेत्र है इसमें? वेद कहता है- जब बालक के साथ माता-पिता का संबंध हो, तो माता बड़ी और पिता छोटा। माता का नंबर पहला, माता सबसे पहला गुरू है। अगर पहला गुरू बु(िमान हो, तो बच्चा बु(िमान बनेगा। और पहला गुरू ही मूर्ख हो तो बच्चा मूर्ख बनेगा। तो पहला गुरू माता है, तो माता का नंबर पहला। यहाँ पुरूष छोटा और स्त्री बड़ी। यह एक क्षेत्र है।
स और दूसरा क्षेत्र है, पति-पत्नी का। जब पति-पत्नी का आपस में संबंध हो, तो वहाँ पति बड़ा और पत्नी छोटी, वहाँ यह नियम है। अब बताइये क्या चाहिये आपको, एक तरफ ये (पुरूष( बड़े हैं, एक तरफ ये (स्त्रियाँ( बड़े हैं, दोनों बराबर हो गये, बात खत्म। झगड़ा-वगड़ा कुछ नहीं।
स हाँ, यह ठीक है। कहीं व्यावहारिक दृष्टि से कुछ समस्यायें पुरूषों के साथ कम हैं, और स्त्रियों के साथ कुछ अधिक हैं। कुछ हमारी जिम्मेदारियाँ रहती हैं व्यवहार की। तो उसमें स्त्रियों पर बंधन अधिक रहते हैं, पुरूषों पर उतने नहीं होते हैं। पुरूष तो अकेला घूम लेगा, खा लेगा, कहीं रात को दो बजे प्लेटफार्म पर सो जायेगा, कोई पूछने वाला नहीं। वो तो अकेला ही पूरे देशभर में घूम आयेगा। पर स्त्रियों को इतनी सुविधा नहीं है। उस दृष्टि से हमको स्वीकार करना पड़ता है। बाकी तो मनुष्यता की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। इसमें कोई ज्यादा हीन भावना (इंफीरियरिटी कॉम्पलेक्स( की जरूरत नहीं है।
स स्त्रियाँ बेशक पढ़ सकती हैं। वेद में लिखा है, ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में लिखा है, महर्षि दयानंद जी ने लिखा- अगर ईश्वर का प्रयोजन स्त्रियों को पढ़ाने में न होता, तो इनके शरीर में आँख और कान क्यों रखता। वे भी वेद पढ़ सकती हैं, वे भी वैराग्य प्राप्त कर सकती हैं, वे भी संन्यास ले सकती हैं। पर वे संन्यास लेती नहीं, झगड़े करती हैं, संन्यास नहीं लेती, तो हम क्या करें। ये प्रायः झगड़ा ज्यादा करती हैं, राग-द्वेष ज्यादा करती हैं, पढ़ाई करती नहीं हैं, दोष इनका है। बाकी इनका चाँस पूरा है। छूट पूरी है, ये भी पढ़ें, वेद पढ़ें। ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् अर्थात् अथर्ववेद में लिखा है कि- ”कन्या को भी ब्रह्म्चर्य का पालन करके, वेद पढ़ने का पूरा अधिकार है। और विद्या पढ़कर फिर विवाह करना चाहिये।” तो छूट सबको है सारी। बाकी कोई करें या न करें, वो उसकी मर्जी।

(106) शंका :- मृत्यु के उपरांत मस्तिष्क भस्म हो जाता है, हृदय भी भस्म हो जाता है, फिर इसमें संस्कार कैसे संचित रह सकते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ये जो ‘संस्कार’ जमा होते हैं वो ‘मन’ में होते हैं। मन ‘सूक्ष्म शरीर’ का भाग है। वो अलग है। और हमारा यह मस्तिष्क ‘स्थूल शरीर’ का भाग है। यह उससे अलग है। और यह हृदय भी स्थूल शरीर का भाग है। जब मृतक का अंतिम संस्कार करते हैं अर्थात् अग्नि-संस्कार करते हैं तो स्थूल शरीर वाला मस्तिष्क जल जायेगा, हृदय भी जल जायेगा, और पूरा स्थूल शरीर भी जल जायेगा पर ‘मन’ नहीं जलेगा। मन तो आत्मा के साथ अगले जन्म में चला जायेगा। सस्ंकार जमा हुये थे, आत्मा और मन में। इसलिये ‘संस्कार’ आत्मा और मन के साथ चले जाते हैं। इस प्रकार से संस्कार पुर्नजन्म में चले जायेंगे।

(107) शंका :- ईश्वर और जीव दोनों चेतन हैं। जीव में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, क्रिया, सुख-दुःख आदि गुण हैं, क्या ईश्वर में भी ये गुण होते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ, देखिये विचार कर लेते हैं। ईश्वर में, इच्छा होती है। अच्छा तो यह बताइये, कि ईश्वर सृष्टि बनाता है तो बिना इच्छा के बनाता है क्या? आप जो मकान बनाते हैं, रोटी बनाते हैं, तो क्या बिना इच्छा के बनाते हैं, या इच्छा होने पर बनाते हैं? नहीं। जब आप इच्छा होने पर ही काम करते हैं तो ईश्वर भी इच्छा होने पर ही काम करता है।
स शास्त्रों में लिखा भी है कि ईश्वर में इच्छा होती है। पर वैसी इच्छा नहीं होती, जैसी कि जीवों की इच्छा होती है। ईश्वर की इच्छा में और जीवों की इच्छा में मूलभूत फर्क है। क्या अंतर है?
स जीवों की इच्छा दो प्रकार की होती है। एक, अपनी कमी को पूरा करने के लिये और एक, दूसरे के भले के लिये। जीवों को आनंद चाहिये, सुख चाहिये, रोटी चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये। कुछ कमी है हमारे पास, इसलिये हमको अपनी कमी की पूर्ति करने के लिये भी इच्छा होती है और दूसरों की सेवा के लिये भी हमारी इच्छा होती है। हम दूसरों की सेवा भी करते हैं।
स ईश्वर में दो तरह की इच्छा नहीं है। ईश्वर में केवल एक ही प्रकार की इच्छा है- कौन सी? दूसरों के भले की। पहले वाली इच्छा ईश्वर में नहीं है। क्योंकि ईश्वर में स्वयं में कोई कमी नहीं है। जब कमी ही नहीं है तो कमी को पूरा करने का प्रश्न ही कहाँ से आयेगा। परंतु ईश्वर में इच्छा तो है। ईश्वर में परोपकार की इच्छा है। ईश्वर सबका भला करना चाहता है। ‘ईश्वर क्या चाहता है’, सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है, कि ईश्वर सबके लिए सुख और सबकी उन्नति चाहता है।
स क्या ईश्वर में द्वेष भी है। जी हाँ। परन्तु द्वेष क्या होता है, पहले इसको समझ लीजिये। अनिच्छा का नाम द्वेष है। मैं यह चीज नहीं चाहता, मुझे इसकी इच्छा नहीं है, इसका नाम है- द्वेष। तो ईश्वर को पाप-कर्मों से द्वेष है। समझ में आया। क्या ईश्वर पाप करना चाहता है? नहीं चाहता। तो ईश्वर को पाप से, अन्याय से, बुराई से इन सब चीजों से द्वेष है।
स ध्यान दीजियेगा, द्वेष दो प्रकार का होता है। एक द्वेष ऐसा होता है जिससे व्यक्ति दुःखी हो जाता है। और एक द्वेष ऐसा होता है जिससे व्यक्ति दुःखी नहीं होता। एक मनुष्य को एक कुत्ते ने काट लिया, तो उस मनुष्य को कुत्ते से द्वेष होता है, उस पर क्रोध आता है, गुस्सा आता है और वह उससे परेशान रहता है, उससे बदला लेने की बात सोचता है, दुःखी होता है। मनुष्य ऐसे दुःखी हो जाता है। ईश्वर ऐसे दुःखी नहीं होता। ईश्वर का द्वेष दूसरे प्रकार का है। बस वो यह चाहता है, कि मनुष्य को पाप नहीं करना चाहिये, बुराई से बचना चाहिये। बस, इतना ही उसमें द्वेष है। लेकिन इस द्वेष के कारण ईश्वर दुःखी नहीं होता।
स टाइमिंग ईश्वर ने डिसाइड की है कि इतने समय के बाद में प्रलय करूँगा, और इतने समय के बाद दोबारा सृष्टि बनाऊँगा। वो ईश्वर बनायेगा, अपने आप होगा नहीं, ईश्वर करेगा। जैसे हम अपनी योजना बनाते हैं। कल हम ये काम करेंगे, परसों ये काम करेंगे, एक वर्ष तक ये जॉब करेंगे, फिर अगले वर्ष ये जॉब करेंगे। और जैसे हम अपनी योजना बनाते हैं, वैसे ही ईश्वर भी अपनी योजना बनाता है।
स साइंस वालों में और आध्यात्म वालों में यही तो फर्क है। साइंस वाले कहते हैं- सृष्टि बनती है। हम कहते हैं- नहीं, सृष्टि बनती नहीं है बनाई जाती है। ईश्वर का द्वेष दुःखदायक नहीं है। जो स्वभाव से उसका गुण है, वो तो रहेगा।
स सोचियेगा, चिंतन कीजियेगा, जरूरी नहीं है, कि सारी बात आज ही समझ में आ जायेगी। जो बात मुझे चालीस साल में समझ में आई, वो बात आपको चालीस मिनट में कैसे समझ में आ जायेगी? आपको भी मेहनत करनी पड़ेगी, तब जाकर समझ में आयेगी।
स दरअसल जो ईश्वर की इच्छा है, उस बारे में स्वामी दयानंद जी का अभिप्राय स्पष्ट है। पर लोग इसका उल्टा अर्थ यह करते हैं-‘हे ईश्वर! अब मैंने काम किया सो किया, अब मैं मर रहा हूँ, तो तुम्हारी यही इच्छा है, कि मैं मर जाऊँ, तो बस ठीक है, मैं मरता हूँ। तुम्हारी ये इच्छा पूरी हो।’ लोग ऐसा अर्थ करते हैं, यह गलत है। ईश्वर की इच्छा नहीं थी कि स्वामी दयानंद जी मर जायें। ईश्वर की इच्छा थी, कि वेद का प्रचार होना चाहिये, और स्वामी दयानंद जी तो वेद का प्रचार कर रहे थे, वो क्यों मर जायें। और मर जायें, तो ईश्वर की इच्छा के विरू( बात है। यह अनाड़ी लोग ऐसी व्याख्या करते हैं। यह उसका अर्थ नहीं है। सही अर्थ यह है- ईश्वर की इच्छा है, सबकी भलाई और सबकी उन्नति हो। वस्तुतः स्वामी दयानंद का यह विचार है, जो सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है। तो स्वामी दयानंद के इस सि(ांत के अनुसार उस वाक्य का अर्थ लगाइये। स्वामी दयानंद जी ने कहा- ‘मेरा जितना जीवन था मैंने काम किया। देश की, धर्म की सेवा की, और अब मैं शरीर छोड़ के जा रहा हूँ। और ईश्वर की इच्छा है, कि सबको सुख मिले, सबकी उन्नति हो, तो मैंने जितना किया सो किया। बाकी ये दुनिया वाले लोग अब ईश्वर की इच्छा को पूरा करें। सबकी उन्नति करें, सबकी भलाई करें। यह है उसका सही अर्थ। ईश्वर में इच्छा है, द्वेष है, प्रयत्न है। ईश्वर सृष्टि बनाता है, उसमें प्रयत्न है। क्रिया भी है।
स और रही बात फिर सुख-दुःख की। हाँ ईश्वर में सुख तो है, ईश्वर हमेशा आनंद में रहता है। उपनिषद्कार ने लिखा है- ‘रसो वैसः’ स्वर्यस्य च केवलं -अर्थात् जिसमें केवल सुख ही है, दुखः बिल्कुल नहीं है, ऐसा है वह ईश्वर। ईश्वर आनंद स्वरूप है। आनन्दं ब्रहाणों विद्वान् -अर्थात् ईश्वर के आनंद को जानकर के मनुष्य (जीवात्मा( भी सुखी हो जाता है। ऐसे-ऐसे वेद में भी बहुत से मंत्र आते हैं। जिनमें ईश्वर को आनंद स्वरूप बताया गया है। जैस कि रसेन तृप्जः न कुतश्चनोनः ।। अर्थात् ईश्वर आनन्द से परिपूर्ण है, उसमें कोई भी कमी नहीं है। तो ईश्वर में आनंद तो है, पर वो दुःखी नहीं है। दुःख कभी नहीं भोगता। दुःख से हमेशा परे है। इस-इस प्रकार से ईश्वर में भी ये गुण मानने चाहिये।

(108) शंका :- क्या गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण का है। यदि है, तो यु( स्थल में इतना अठारह अध्यायों का उपदेश कैसे संभव है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका उत्तर है कि- जितना लंबा उपदेश आज गीता में उपलब्ध है, यह सारा का सारा उपदेश श्रीकृष्ण जी का नहीं है। और व्यावहारिक दृष्टि से यु( के मैदान में इतना लंबा उपदेश संभव भी नहीं है। महाभारत में मूल श्लोक दस हजार थे, और आज मिलते हैं- एक लाख। नब्बे हजार श्लोंको की तो महाभारत में मिलावट है। और महाभारत के ही एक हिस्से का नाम गीता है। गीता कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है, अलग पुस्तक नहीं है। देखिये महाभारत के अंदर अठारह भाग हैं। इन भागों को ‘पर्व’ नाम से कहा गया है। अठारह पवरें में एक छठा पर्व है, जिसका नाम है- ‘भीष्म पर्व’। इस भीष्म पर्व के अठारह अध्यायों का नाम गीता है। जब महाभारत में इतनी मिलावट है, तो गीता में भी उतने ही प्रतिशत (परसेन्ट( मिलावट गिन लो। जब वहाँ दस हजार के एक लाख श्लोक हो गये, मतलब उससे नौ गुनी मिलावट हो गई, तो गीता में भी नौ गुनी मिलावट है। अब जितने श्लोक आजकल गीता में मिलते हैं। उनका दस प्रतिशत निकाल लो, कितना हुआ? साठ-सत्तर श्लोक बनेंगे। बस असली गीता इतनी ही थी। साठ-सत्तर श्लोक का उपदेश था, और वो पन्द्रह-बीस मिनट में हो सकता है। श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को भ्रांति होने पर पन्द्रह -बीस मिनट का उपदेश दिया, उसका दिमाग ठीक हो गया, और उसने कहा- लाओ मेरा गांडीव धनुष, मैं अभी कौरवों को ठीक करता हूँ। हो गई गीता पूरी। और कुछ नहीं है। बाकी सब बाद की मिलावट है, यानि प्रक्षेप है।

(109) शंका :- जीवात्मा’ का स्थान मनुष्य ‘शरीर’ के अंदर कहाँ है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

कठोपनिषद् में लिखा है, कि- ‘हृदि ह्येष आत्मा’ अर्थात् आत्मा हृदय में रहता है। लेकिन वो हमेशा एक जगह नहीं रहता। उपनिषदों में अनेक स्थानों पर ऐसी चर्चा आती है। जीवात्मा चौबीस घंटे एक जगह नहीं रहता, वो स्थान भी बदलता रहता है। जैसे आप अपने घर में क्या एक ही कमरे में बैठे रहते हैं, बदलते रहते हैं न। कभी बेडरूम में चले गए, कभी किचन में चले गए, कभी बाथरूम में चले गए, कभी ड्राइंगरूम में चले गए। ऐसे ही यह शरीर जीवात्मा का घर है। वो जब इच्छा होती है, तो अपनी जगह बदल लेता है।
जीवात्मा के सोने के लिए लिखा है, कि हृदय में से बहुत सारी नाड़ियाँ निकलती हैं, उनमें से एक नाड़ी का नाम है- ‘पुरीतत’। जब जीवात्मा सोता है, तो पुरीतत नाम की नाड़ी में जाकर सोता है, यह उसका बेडरूम है। एक उपनिषद् है- ”ऐतरेय’ उपनिषद्, उसमें जीवात्मा के स्थान की चर्चा आई है। उसमें एक वाक्य लिखा है- ‘त्रयः आवसथाः’ अर्थात् जीवात्मा के शरीर में निवास के तीन स्थान हैं- ‘त्रयः’ तीन। फिर आगे लिखा है-‘अयं आवसथ, अयं आवसथ, अयं आवसथा।’ इसका मतलब होता है- यह स्थान है, यह स्थान है और यह स्थान है। अब कौन सा स्थान है, उसका नाम तो लिखा नहीं। दरअसल, विद्यार्थियों को कोई गुरूजी पढ़ा रहे होंगे, जैसे अब आप मेरे सामने बैठे हैं। और मैं कहूँ देखो, जीवात्मा शरीर में तीन जगह रहता है, एक यहाँ रहता है, एक यहाँ रहता है, और एक यहाँ रहता है। अब मैंने ऐसे इशारे से बता दिया और नाम नहीं बोला, तो किसी लिखने वाले ने यूँ का यूँ लिख दिया, कि- यहाँ रहता है, यहाँ रहता है, यहाँ रहता है। अब भई! सामने दिखता हो तो समझ भी जाए, किताब में लिखने से क्या पता चले, कि कहाँ रहता है? ‘यहाँ’ का मतलब क्या? इसलिए पता नहीं चला, कहाँ रहता है। पर तीन जगह लिखा है, यह तो स्पष्ट है। तीन जगह कौन सी? यह स्पष्ट नहीं है।
जीवात्मा के तीन अलग-अलग स्थान हैं। जाग्रत में जीवात्मा कहीं और होता है, स्वप्न में कहीं और होता है, सुषुप्ति में कहीं और होता है। मतलब स्थान बदलता रहता है। इतनी बात तो स्पष्ट है।
एक उपनिषद् है- ‘ब्रह्मोपनिषद्’। वैसे तो वो प्रमाणिक उपनिषद् नहीं है। पर कुछ लोग दूसरे उपनिषदों को भी पढ़ लेते हैं। कुछ अच्छी बातें वहाँ भी मिल जाती हैं। ‘ब्रह्मोपनिषद््’ में एक जगह पर आत्मा के तीन स्थान बताए गए- एक नेत्र, एक कंठ, और एक हृदय। ये तीन स्थान उसमें नामपूर्वक लिखें हैं। वैसे प्रमाणिक तो नहीं है, फिर भी हो सकता है, वो भी अनुकूल हो। इसलिए कुछ कह नहीं सकते, लेकिन जीवात्मा जगह बदलता है, इसमें कोई संशय नहीं है।

(110) शंका :- जीवात्मा एक शरीर को छोड़ दे, तो दूसरे शरीर में जाने के लिए उसको कितना समय लगता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उपनिषद् में लिखा है, कि एक कीड़ा अपने दो अगले पाँव उठाकर के ऐसे रख देता है और पीछे के पाँव उठा करके यूँ आगे चलता रहता है। जैसे वो अगले पाँव उठाकर यूँ चलता है, बस इतनी देर में जीवात्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेता है।
मोटे-तौर पर यह मानना चाहिए कि उसको बहुत ज्यादा देर नहीं लगती, क्योंकि हर आत्मा का कर्मों का बही-खाता (एकाउंट( तैयार ही रहता है।

(111) शंका :- चारों युग की गणना कीजिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सबसे छोटा कलियुग है, जिसमें चार लाख बत्तीस हजार वर्ष, द्वापर युग में इससे दोगुने- आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष, त्रेता युग में इससे तीन गुना- बारह लाख छियान्नवे हजार वर्ष, और सतयुग में इससे चार गुना- सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष होते हैं। इन चारों को जोड़ देंगे, तो तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष हुए। यह एक चतुर्युगी हो गई। एक सृष्टिकाल में एक हजार चतुर्युगी होती हैं। तो इसको एक हजार से गुणा करेंगे, तो चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों की संख्या होती है। एक हजार बार इस सृष्टिकाल में चतुर्युगियों की पुनरावृत्ति (रिपीट( होती है। यह चारों युगों के वर्षों की उपयुक्त संख्या है।

(112) शंका :- ईश्वर ने मनुष्य को कैसा रूप धारण करके ज्ञान दिया, मनुष्य रूप से या आकाशवाणी से। कृपया समाधान किया जाए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर ने मनुष्य रूप धारण करके वेदों का ज्ञान नहीं दिया। ईश्वर सर्वव्यापक है। सर्वव्यापक ईश्वर हमारे अन्दर है। वह चार )षियों के अंदर भी था। अन्दर ही अंदर ईश्वर ने उनको सारा पाठ पढ़ा दिया। जैसे आप अभी भी आंख बंद करके बैठ सकते हैं। मन में अन्दर ही अन्दर सोचते रहिए,आपको बोलने की जरूरत नहीं, जुबान हिलाने की आवश्यकता नहीं। आप अंदर ही अंदर सारी बातें करते रहें। घंटो तक बैठें रहिए, चिंतन-मनन करते रहिए। ऐसे ही ईश्वर ने चार )षियों के अंदर ही अंदर सारी पिक्चर दिखा दी। और चारों वेद पढ़ा दिये।
जैसे- )ग्वेद का यह सबसे पहला मन्त्र है-
ओ३म् अग्निमीउे पुरोहिंत यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधारतमम्।।
ईश्वर ने यह मन्त्र भी पढ़ा (सिखा( दिया। इसका अर्थ- (शब्दानुसार( भी सिखा दिया। इसका पिक्चर- (चित्र( भी दिखा दिया। क्योंकि बिना पिक्चर दिखाए व्यक्ति को अर्थ समझ में नहीं आता। आप छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाइए स्कूल में। ए फॉर एपल, बी फॉर बॉल। सी फॉर कैट, डी फॅार डॉल। न तो कैट दिखाइयेगा, न तो डॉल दिखाइयेगा। क्या उनकी समझ में आ जाएगा, कि एप्पल क्या होता है? आपको चार्ट दिखाना पड़ेगा, या प्रेक्टिकली एपल लाना होगा। ‘ए’ फॉर एपल होता है, वो तब समझ में आएगा। उसका फोटो भी बताना पड़ता है। उसे शब्द भी सिखाना पडता है। ईश्वर ने ‘अग्निमीडे पुरोहितम्’ शब्द भी सिखा दिए, और आँख बंद करने पर पूरी फिल्म दिखा दी। अग्नि इसको बोलते है, स्तुति ऐसे की जाती है। इसी प्रकार से वेद के अन्य मन्त्रों के अर्थ भी चित्र सहित समझाये जैसे- देखो, खेती ऐसी की जाती है, ऐसे हल चलाया जाता है। इस तरह की पूरी फिल्म दिखा दी। उसको बोलते हैं- वेद का ज्ञान। ईश्वर अंदर ही वेद का ज्ञान दे देता है, मनुष्य रूप धारण नहीं करता।

(113) शंका :- वेद की उत्पत्ति कैसे हुई?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आदि सृष्टि में भगवान ने चार )षियों को चार वेदों का ज्ञान दिया। पहले धरती से वनस्पतियाँ, कीड़े-मकोड़े तैयार हुए, बाद में मनुष्य उत्पन्न हुए। उनमें भी जो सबसे अधिक बु(िमान थे, उनका नाम था )षि। इन चार )षियों के नाम थे- 1. अग्नि, 2. वायु, 3. आदित्य, 4. अंगिरा। इन चार में से एक-एक )षि )षियों को ईश्वर ने एक-एक वेद का ज्ञान दिया।
ईश्वर सर्वव्यापक (व्उदपचतमेमदज( है। वह )षियों के हृदय में भी था। आपको अपने ही अन्दर कुछ बातचीत करनी है, कुछ योजना बनानी है, तो आप बिना जबान हिलाये, मन में शब्दोच्चारण कर सकते हैं। उन चार )षियों के अन्दर बैठे हुए ईश्वर ने चार )षियों को वेद का ज्ञान दे दिया। जैसे आपको अपने आपसे बात करने के लिए चमड़े की जबान की जरूरत नहीं पड़ती, वैसे ही अपने अन्दर बात करने के लिए ईश्वर को बाहर से कान में बोलने की जरूरत नहीं पड़ती।
चार )षियों ने ईश्वर से मंत्र सीख लिये। उनके अर्थों का चित्र भी देख लिया। जिस तरह सिनेमा में पर्दे पर चित्र देखते हैं, उसी तरह मन रूपी पर्दे (स्क्रीन( पर आँख बंद करके सारे अर्थ समझ लिये।
जैसे वेद में कहा है कि- खेती करो। खेती कैसे करें, उसकी पिक्चर भगवान ने मन रूपी स्क्रीन पर बनाई। जैसे आप टेलीविजन में देखते हैं- हल बनाना, हल को बैल से जोड़ना, हल चलाना, फिर पानी डालना, घास काटना, फसल काटना। अगर भगवान यह पिक्चर नहीं दिखाते, सिर्फ वेद मंत्र पढ़वाते, मंत्र रटाते, उसका शाब्दिक अनुवाद करवाते तो भी इतने मात्र सिखाने से बात समझ में नहीं आती, जब तक कि उसका चित्र अर्थ सहित नहीं समझाया जाये। जैसे कि कक्षा में बच्चे को जब क, ख, ग सिखाते हैं। ”क” से कबूतर अपने बच्चे को रटाते हैं। फिर कबूतर लिखकर बना देते हैं। अगर कबूतर का फोटो नहीं दिखाया तो बच्चा कभी नहीं समझ पायेगा, कि कबूतर किसको कहते हैं। ऐसे ही भगवान ने सूर्य का चित्र दिखा दिया, अग्नि जलती हुई दिखा दी और बता दिया कि यह सूर्य है, यह अग्नि है। और चार )षियों की ड्यूटी लगा दी, कि भाई, मैंने तुम्हें सिखा दिया, अब आगे इन हज∙ारों लोगों को तुम सिखाओ। तब से यह पढ़ने-पढ़ाने की परम्परा चल रही है।

(114) शंका :- ईश्वर निराकार है, तो योग द्वारा ईश्वर का किस रूप में साक्षात्कार होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर निराकार है, तो निराकार स्वरूप में ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है। अगर लाल टोपी होगी, तो किस रंग की दिखाई देगी? लाल दिखेगी। इसी तरह से जो वस्तु जैसी होगी, ठीक वैसी वो साक्षात्कार के समय दिखती है। ईश्वर निराकार है, तो निराकार दिखाई देगा। आनंद स्वरूप है, तो आनंद स्वरूप दिखाई देगा, अर्थात् उसकी वैसी अनुभूति होगी। उसकी आकृति- (शेप( दिखाई नहीं देगी। ईश्वर की आकृति तो है ही नहीं। बिना आकृति के ही, उसकी अनुभूति ही, उसका साक्षात्कार है। साक्षात्कार का नियम यह है, कि- जिस-जिस द्रव्य में, जो-जो गुण होते हैं, उन्हीं-उन्हीं गुणों के माध्यम से, उस-उस द्रव्य का साक्षात्कार होता है। नीला वस्त्र नीले रंग का और पीला वस्त्र पीले रंग का दिखाई देगा। यही उसका साक्षात्कार है। अब प्रारंभिक स्तर पर योगी भी आंख खोलकर ईश्वर साक्षात्कार नहीं कर सकता। पहले-पहले योगी को भी आंख बंद करके ही अभ्यास करना पड़ता है। और फिर लंबे-काल तक अभ्यास कर करके वो इतना कुशल हो जाता है, कि आंख खोलकर भी वह सर्वव्यापक ईश्वर का अनुभव कर सकता है। आंख खुली रहेगी, आंख से उसको बाहर का दृश्य दिखाई नहीं देगा। वो ईश्वर को देखेगा। कभी-कभी सामान्य व्यक्ति भी ऐसा अनुभव करता है। जैसे कि- एक व्यक्ति आँख खोलकर बैठा था। उसके सामने से एक दूसरा व्यक्ति निकल गया। लोग पूछते हैं- ‘यह कौन कौन गया’? वह बोला- पता नहीं साहब। अरे! आप तो आंख खोलकर बैठे थे, आपको पता नहीं चला? उसने कहा, बिल्कुल पता नहीं चला। आँखे भले खुली थी। मैं आंख के साथ नहीं था, मैं कहीं और था। सोच कुछ और रहा था। इसलिए कौन सामने से निकल गया, मुझे पता ही नहीं चला। तो ऐसे ही कुशल योगी व्यक्ति, आँख भले खोलकर रखे, पर वो आंख से देखता नहीं। अर्थात् ईश्वर का अनुभव करता है।

(115) शंका :- समाधि लगने पर अर्न्तज्ञान प्राप्त होता है। )षि-काल में )षि लोग अर्न्तज्ञान से कैसा जानते थे?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

लोगों को आंतरिक ज्ञान होता था। उदाहरण कोई भी सौ प्रतिशत साध्य के समान नहीं होता, यह नियम है। उदाहरण मोटे स्तर का होता है, और किसी अंश को समझाने के लिए होता है। आंतरिक ज्ञान कैसा होता है, इसे एक उदाहरण से ऐसे समझें? मान लीजिए, आप बिस्तर पर लेट गए। आंख बंद हो गई और गहरी नींद तो आई ही नहीं। नींद में शुरू हो गया स्वप्न। तो जब आप स्वप्न देखते हैं, तब आंखें तो बंद रहती हैं, फिर भी आपको अंदर से ज्ञान होता है। स्वप्न में चित्र दिखते हैं- एक महल है। उसमें बहुत से नौकर-चाकर हैं, बहुत सुुंदर सजा हुआ है। बाहर चौकीदार खड़े हैं, अंदर राजा है। वो आराम से राजमहल में बैठा है। सभा लगी हुई है, बहुत सारे लोग उसकी सेवा कर रहे है। अब देखिए, स्वप्न में अन्दर से ज्ञान हो रहा है या नहीं? जैसे स्वप्न में अंदर से ज्ञान होता है, ऐसे ही )षियों को समाधि में अंदर से ज्ञान होता है। समाधि में जो ज्ञान प्राप्त होता है, वो ईश्वर की ओर से होता है। और स्वप्न में तो हमारे अपने संस्कार होते हैं, जिनको हम स्मृति के रूप में,चित्र के रूप में देखते हैं। इस तरह से )षियों को आंतरिक ज्ञान होता है।

(116) शंका :- कृपया गुणकर्म स्वभाव की परिभाषाएँं बतलाइए। तीनों में क्या भेद है? ईश्वर के गुण-कर्म स्वभाव अलग-अलग बताइए। क्योंकि इनके ओवरलेपिंग होने के कारण कन्फ्यूजन रहता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सही बात है। देखिए, कर्म तो स्पष्ट है। कर्म कहते हैं- क्रिया (एक्शन( को। एक मजदूर ने ईटें उठाकर यहाँ डाल दी। मिस्त्री ने ईटों पर ईट रखके,मसाला डालकर दीवार खड़ी कर दी। यह तो कर्म है। यहाँ स्पष्ट है, कि क्रिया हो रही है, उसका नाम है-कर्म। अब विचारने के लिए दो बातें बची-गुण और स्वभाव।
स्वभाव का अर्थ होता है- ‘स्व’ का भाव, अर्थात् किसी द्रव्य के अपने गुण। जैसे-अग्नि में गर्मी। यह गर्मी, अग्नि का अपना गुण है, इसे ‘स्वभाव’ कहेंगे। ‘गुण’ किसी दूसरे द्रव्य से उधार लिया हुआ भी हो सकता है। जैसे- यदि पानी को अग्नि के सम्पर्क से गर्म कर दिया जाये, तो गर्म पानी में ‘गर्मी’ पानी का ‘गुण’ तो कहलाएगा, परन्तु उसका ‘स्वभाव’ नहीं। क्योंकि वह गर्मी, पानी ने अग्नि से उधार ले रखी है। इस प्रकार से- जो किसी द्रव्य की विशेषता केवल अपनी है, उसे ‘स्वभाव’ कह देंगे। और जो बाहर से ले रखी है, उसको ‘गुण’ कह देंगें। गुण और स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं है। स्वभाव में भी गुण ही होते हैं। अंतर केवल इतना है, कि किसी द्रव्य के अपने गुण हैं, पर्सनल प्रापर्टी है ‘स्वभाव’। और यदि किसी दूसरे द्रव्य से उधार ले रखे हों, उन्हें हम ‘गुण’ कह देंगे। गुण-कर्म स्वभाव की यह एक मोटी-मोटी परिभाषा हो गई।
अब ईश्वर की बात करते हैं। क्या ईश्वर कोई गुण दूसरे पदार्थ से भी
धारण करता है, उधार लेता है? नहीं लेता। ईश्वर के जितने भी गुण हैं, वे सारे उसके अपने हैं। इसलिए ईश्वर के संबंध में ‘गुण और स्वभाव’ में कोई अंतर नहीं।
और कर्म तो स्पष्ट ही है। ईश्वर सृष्टि बनाता है, न्याय करता है। लोगों को मनुष्य, पशु-पक्षी बनाता है- ये कर्म हैं। ईश्वर वेद का उपदेश देता है। उपदेश देना एक कर्म है। ईश्वर कर्म से अलग नहीं है। तो सार यह हुआ, कि ईश्वर के गुण और स्वभाव में अंतर नहीं है। परन्तु मनुष्यों में गुण और स्वभाव का अंतर दिखता है। जैसे जीवात्मा में इच्छा गुण है। कुछ इच्छाऐं ऐसी हैं, जो हमारी अपनी हैं, स्वाभाविक इच्छाऐं हैं- वह हमारा स्वभाव है। कुछ इच्छाऐें ऐसी हैं, जो किन्हीं कारणों से उत्पन्न हो गर्ईं, और वो हट भी जायेंगी। उदाहरण के लिए, सुख प्राप्ति की इच्छा है। सुख मिलना चाहिए। यह तो स्वाभाविक इच्छा है। लेकिन खीर, पूड़ी, हलवा,लड्डू की इच्छा स्वाभाविक नहीं है। जब तक खीर, पूड़ी, हलवा में आपको सुख दिखता है, तब तक वह इच्छा रहेगी। जब उसमें दुःख दिखने लगेगा, वह इच्छा समाप्त हो जाएगी। जो नैमित्तिक इच्छाऐं हैं, उन्हें ‘गुण’ कहेंगे। नैमित्तिक यानी किन्हीं कारणों से जो इच्छाऐं पैदा हो गईं, तो वह ‘इच्छा’ गुण कहलाएगा। और जो सदा से अपना गुण हैं, उसका नाम ‘स्वभाव’ है। जो अनादिकाल से जीव का अपना है। इच्छा है, प्रयत्न है, जो हमेशा से उसके अपने हैं, वह स्वभाव है। और जो किन्ही कारणों से उसमें आ जाते हैं, पैदा हो जाते हैं, तो वो है- ‘गुण’। जीवात्मा में ऐसी बात मिल जाएगी, प्रकृति में भी ऐसी बात मिल जाएगी। जैसे अभी बताया था- प्रश्न है- अग्नि के अंदर गर्मी अपनी है या बाहर से ले रखी है। उत्तर है- वह उसकी अपनी गर्मी है। जब चूल्हे के ऊपर पतीला रखकर पानी गर्म करते हैं, तो अब पानी में जो गर्मी आई वो पानी की अपनी है या अग्नि से ली हुई है? उत्तर है- अग्नि से ली हुई है। तो अब देखिए प्रकृति के अन्दर दोनों बातें देख रहे हैं। गर्मी, तापमान अग्नि का अपना है, इसलिए स्वभाव है। और पानी में वो अग्नि से आया हुआ है, इसलिये नैमित्तिक गुण है।
इस तरह हम गुण, स्वभाव, कर्म में अंतर समझ सकते हैं। ईश्वर के मामले में तो गुण और स्वभाव दोनों एक ही जैसे दिखते हैं। उनमें कोई अंतर समझ में नहीं आया। किसी द्रव्य में जो स्वाभाविक गुण होता है, वो उसे कभी नहीं छोड़ता। जो है, वह स्वाभाविक है। अग्नि का गुण गर्मी है, तो क्या वो अग्नि को कभी छोड़ देगी? नहीं छोड़ेगी। स्वाभाविक गुण कभी किसी द्रव्य को नहीं छोड़ता।
अब राग-द्वेष भी जीवात्मा का स्वाभाविक गुण त्र (दोष( मान लें, तो उसको छोड़ेंगे ही नहीं। नहीं छूटेगा, तो मुक्ति नहीं हो सकती। तो मुक्ति होगी, कि नहीं होगी, क्या समझते हैं? होगी न। तभी मुक्ति होगी, जब राग-द्वेष छूट जाऐंगे। राग-द्वेष छूट जाऐगे तो यह स्वाभाविक गुण नहीं हुआ बल्कि नैमित्तिक हुआ।

(117) शंका :- आपने कहा, ईश्वर निराकार है। परछाई (प्रतिबिंब( का आकार दिखता तो है, लेकिन परछाई, (प्रतिबिंब( पकड़ नहीं सकते? फिर हम निराकार ईश्वर को कैसे पकड़ेंगे?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर के प्रतिबिंब को पकड़ नहीं सकते। यह तो अलग बात है। परछाई को पकड़ने की बात तो बाद में। पहले बने तो परछाई। परछाई बनती है साकार वस्तु की। ईश्वर है ही निराकार, तो परछाई बनेगी ही नहीं। अगर परछाई बनेगी ही नहीं, तो उसका प्रतिबिंब सि( ही नहीं होता, तो उसे पकड़ने का प्रश्न ही नहीं है। इसलिए न तो ईश्वर की परछाई है, न ही उसकी परछाई पकड़नी है। निराकार त्र (साक्षात्कार करना( है। और वह होगा, अष्टांग योग से। उसे करें। ईश्वर को पकड़ना। जीव अलग है, ईश्वर अलग है। ईश्वर निराकार है और जीव भी निराकार है।

(118) शंका :- भारत में महिला और पुरुष दोनों को समान दर्जा प्राप्त है। लेकिन विवाह के बाद महिलाओं के पास मंगलसूत्र और सिंदूर रहता है। वो उनकी विवाहित होने की पहचान है। लेकिन विवाहित पुरूषों की क्या पहचान है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिये पुरुषों के पास भी पहचान है। पर आजकल लोगों ने उनकी पहचान बिगाड़ दी है। हमारे वैदिक शास्त्रों के अनुसार विवाह से पूर्व श्रृंगार करने का अधिकार न पुरुष को है और न स्त्री को। जब विवाह होता है, उस दिन उनको श्रृंगार का अधिकार मिलता है। मातायें श्रृंगार कर लेती हैं, बिंदी लगा लेती हैं, सिंदुर लगा लेती हैं और आभूषण आदि पहन लेती हैं। विवाहित पुरुषों को भी अधिकार मिलता है, कि हाथ में अंगूठी पहनो, गले में चेन पहनो। ये श्रृंगार के साधन हैं। इससे पता लगता है कि यह विवाहित पुरुष है। जिसके हाथ में अंगूठी नहीं है, गले में चेन नहीं है, इसका मतलब है कि वो व्यक्ति अविवाहित है। अब तो अविवाहित लोग भी अंगूठी पहन लेते हैं, चेन पहन लेते हैं। लोगों लोगों ने पहचान में बिगाड़ कर दिया। यह लोगों का दोष है। लोगों को पहचान में बिगाड़ नहीं करना चाहिए। जब श्रृंगार का अधिकार मिले, तभी करना चाहिए, उससे पहले नहीं।

(119) शंका :- आदिकाल से सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय होता चला आ रहा है, तो क्या इससे यह मान सकते हैं कि उत्पत्ति व प्रलय का जो क्रम है, कभी उसकी शुरूआत हुई होगी, और इसका अन्त भी आएगा, क्योंकि हर कार्य की शुरूआत और अन्त होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वर्तमान सृष्टि उत्पन्न हुई, वर्तमान सृष्टि का अन्त होगा। इससे पहले एक सृष्टि थी, उसके पहले भी एक सृष्टि थी, उससे पहले भी थी। जितना पीछे-पीछे चलते जाएँगे, पीछे-पीछे, उतनी सृष्टियाँ पाते जायेंगे। सृष्टि और प्रलय का यह जो क्रम है, इसका कोई प्रारंभ नहीं है। ‘पहली सृष्टि’ नाम की कोई चीज नहीं थी। जब भगवान ने ‘पहली बार’ सृष्टि बनाई हो, ऐसी कोई सृष्टि नहीं है। यह अनादिकाल से सृष्टि बन रही है, इस बार भी बनी है। ‘प्रथम सृष्टि’ कोई नहीं है। यह बात बु(ि में बड़ी मुश्किल से बैठती है, कम बैठती है। अच्छा एक सिरे की बात समझ में नहीं आई, दूसरे सिरे की बात करेंगे, तो शायद समझ में आ जाये। वर्तमान में यह सृष्टि चल रही है, इसका विनाश हो जाएगा, यानि प्रलय हो जाएगा। उस प्रलय के बाद फिर यह सृष्टि बनेगी। और फिर अगली दूसरी सृष्टि का प्रलय होगा। फिर तीसरी बनेगी, उसका प्रलय होगा। इस प्रकार भविष्य में नई सृष्टियाँ बनती रहेंगी, प्रलय होते रहेंगे। क्या भविष्य में यह बनने-बिगड़ने का क्रम समाप्त हो जाएगा? नहीं होगा। भविष्य में कभी इसका अन्त नहीं होगा। बनती रहेगी, बिगड़ती रहेगी। इसका क्रम कभी समाप्त नहीं होगा। अब नियम क्या कहता है, ‘जिस वस्तु का आरम्भ होता है, उस वस्तु का अन्त होता है।’ अब इस बात को उलटकर बोलिए। ‘जिसका आरंभ नहीं होता, उसका अंत भी नहीं होता।’ इस आधार पर आपने स्वीकार किया, कि सृष्टि-प्रलय का भविष्य में अन्त नहीं होगा। इस तरह दूसरी बात अपने आप सि( हो गई, ‘जब अन्त नहीं है, तो आरंभ भी नहीं है।’ अगर भविष्य में इस सृष्टि-प्रलय का क्रम कभी समाप्त नहीं होगा, तो भूतकाल में भी इसका आरंभ नहीं हुआ होगा। इसलिए बनने-बिगड़ने का क्रम न कभी आरम्भ हुआ, और न कभी समाप्त होगा। थोड़ा गहराई से बैठकर मनन करेंगे, तो अच्छी तरह स्पष्ट हो जाएगा।

(120) शंका :- आत्मा के संयोग से ‘जड़-शरीर’ चेतन लगता है। ‘चेतन-ईश्वर’ जड़ पदार्थों, जैसे कि- दीवार, पत्थर आदि में है, तो ये चेतन क्यों नहीं दिखते?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जड़ वस्तु स्वयं क्रिया नहीं करती। शरीर जड़ है, वो स्वयं हिलता-डुलता, चलता-फिरता नहीं है। जब ‘आत्मा’ शरीर में जाता है, तब चेतन आत्मा की प्रेरणा से शरीर क्रिया करता है। ऐसे ही दीवार के परमाणुओं में क्रिया हो रही है। सब जगह परमाणु (एटम( घूम रहे हैं। एटम कौन घुमा रहा है? ईश्वर। ईश्वर के संयोग से वहाँ भी क्रिया हो रही है। अनार में हो रही है, केले के अंदर हो रही है, हर वस्तु में हो रही है। जितने एटम्स घूम रहे हैं, उन्हें तो ईश्वर घुमा रहा है। लेकिन जैसे शरीर में हाथ हिलता दिखता है, वैसे दीवार हिलती नहीं दिखती। दीवार हिलती, तो सभी भाग जाते। सोचते कि- कहीं वो हमारे सिर पर न गिर जाये। इसलिए वो ऐसी हिलती हुई नहीं दिखती, चुपचाप स्थिर है। लेकिन उसके अंदर क्रिया होती है। सूर्य में, पृथ्वी में, चाँद में, तारों में, यानि हर वस्तु में ऐसी क्रिया हो रही है। और वो क्रिया चेतन ईश्वर के संयोग से है। चेतन-ईश्वर उसमें क्रिया करता है। वस्तुतः हर वस्तु क्रियाशील है। एक साइंटिस्ट से पूछिये- वो बताएगा, कि क्या क्रिया हो रही है। सेव में, केले में क्रिया होती है। सेव रखा-रखा सड़ जाता है। आपको हिलता तो नहीं दिखता, मगर सड़ जाता है। ऐसा इसलिये, क्योंकि इसके परमाणुओं में सूक्ष्म-रूप से आंतरिक क्रिया होती है। इलेक्ट्रॉन्स घूमते रहते हैं, एटम्स सारे घूमते रहते हैं, जिसके कारण उसमें वृ(ि-हृास होता रहता है। सेव, केले में यह क्रिया तीव्र होती है। सेव, केला दो-तीन दिन में सड़ जाएगा। दीवार में ये क्रिया उतनी तीव्र नहीं होती, उससे बहुत कम होती है। दीवार को टूटने में सौ-दो सौ साल लग जाते हैं। इसमें ज्यादा समय लगता है। प्रत्येक पत्थर, दीवार आदि पदार्थों में गति क्रिया होने के कारण ही वे पदार्थ धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। और यदि आप यह चाहते हैं, कि दीवार आदि पदार्थ भी चेतन ईश्वर के कारण चलने फिरने लगें, (जैसे-आत्मा के कारण शरीर चलता फिरता है( तो व्यवहार करना कठिन हो जाएगा। क्योंकि ईश्वर तो सभी वस्तुओं में है। तब सभी चीजें चलने लगेंगी। तो आप अपना सामान त्र (रुपये, सोना, चाँदी, बर्तन, बिस्तर आदि( जहाँ रखकर ऑफिस जाएँगे। और जब शाम को ऑफिस से लौटकर आयेंगे, तब आपका सामान आपको वहाँ मिलेगा नहीं, जहाँ आप रखकर गये थे। सुबह से शाम तक आपका मकान त्र (घर( भी 5-7 किलोमीटर दूर चला गया होगा। तब बताइये, आपका जीवन-व्यवहार कैसे चल पाएगा।

(121) शंका :- यदि मांसाहार का निषेध कर दिया जाये, तो मांस पर निर्भर लोगों की रोजी-रोटी का क्या प्रबंध है। वो क्या करेंगे?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बहुत सारे लोग चोरी करते हैं, बहुत सारे लोग डकैती भी करते हैं, तो क्या आप यह कहेंगे, ‘कि चोरी डकैती यदि बंद कर दी जाये, तो उनके धंधे का क्या होगा? चोरी, डकैती उनका धंधा है। उनकी रोजी-रोटी मारी जायेगी। चोरी डकैती वो बंद कैसे कर सकते हैं।’ चालू रखो। चालू रखो। चलेगा क्या?
धन्धा कौन सा करना, व्यवसाय कौन सा करना। वो भी ईश्वर ने बता रखा है। अच्छा धन्धा करो, अच्छा व्यवसाय करो। लूट-मार वाला नहीं, चोरी-डकैती वाला नहीं। मांसाहार का धन्धा ही गलत है। वो धन्धा ही कानून के विरू( है। वो बंद करना पड़ेगा। गेहूं पैदा करो, अनाज पैदा करो, खेती करो, व्यापार करो, मेहनत करो, मकान बनाओ, कपड़ा बेचो, रोटी बेचो, मिठाई बेचो। दुनिया भर की चीजें हैं, एक मांस ही बस है क्या खाने के लिये। चीन देश वाले अपने आप को बौ( मानते हैं। और बौ(ों का नारा क्या है-अहिंसा परमो धर्मः। और व्यवहार में देखो तो- हिंसा परमोधरमः। चीन वालों ने एक भी प्राणी नहीं छोड़ा, सब खा जाते हैं। कछुए, केकड़े, सांप, बिच्छू सब खा जाते हैं, कुछ नहीं छोड़ा। बताईये, यह अपने आप को अहिंसावादी कहते हैं। तो क्या खाना, क्या नहीं खाना यह भी वेद में बताया है। उदाहरण के लिये- आप एक मोटरसाइकिल खरीदकर लाये उसमें कौन सा फ्यूल डालें, पेट्रोल डालें, डीजल डालें, या कैरोसीन डालें, यह कौन डिसाईड करेगा। कस्टमर करेगा या कंपनी। कंपनी डिसाईड करेगी न, जिस इंजीनियर ने इंजन डिजाइन किया है, वही डिसाईड करेगा, इसमें कौन सा फ्यूल डालना है। ठीक है। मान लीजिये, मोटरसाइकिल का नाम हीरो-होण्डा है। अब आपको पता लग गया इसमें कौन सा फ्यूल डलेगा। फ्रेश पेट्रोल डलेगा। न डीजल डलेगा, न कैरोसीन डलेगा। और पेट्रोल में भी ऑइल मिक्स नहीं करना। फ्रेश पेट्रोल ही टन्की में डलेगा। तो यह डिसीजन किसने लिया? उस इंजन के डिजाईन करने वाले इंजीनियर ने। उसको पता है, कि मैंने कैसा इंजन बनाया है, इसमें कौन सा फ्यूल डालना है। ठीक इसी तरह से, यह जो हमारा मनुष्य शरीर है, यह भी एक मशीन है। और इसके अंदर पाचन संस्थान भी एक इंजन है। तो इस पाचन संस्थान में कौन सा फ्यूल त्र (भोजन( डालना है, यह कौन डिसाईड करेगा। हम करेंगे या इसका इंजीनियर। इसका इंजीनियर करेगा, जिसने ये बॉडी (शरीर( बनाई है। यह शरीर किसने बनाया, ईश्वर ने। तो यह ईश्वर डिसाइड करेगा, कि हमको क्या खाना है, और क्या नहीं खाना। इस इंजन में कौन सा फ्यूल डालना। तो वेद में ईश्वर ने शाकाहारी भोजन खाने को बताया हे। जो मैंने पहले आपको मंत्र भी सुना दिये, बहुत से प्रमाण सुना दिये, यजुर्वेद के, अथर्ववेद के। तो जब ईश्वर कहता है- शाकाहारी भोजन खाने के लिये यह इंजन डिसाइड किया गया है। अगर आप इसमें मांस डालोगे, तो बिल्कुल वैसी ही बात है, कि हीरो-होण्डा मोटरसाइकिल के अंदर आप डीजल भरते हैं। तो इंजन का सत्यानाश हो जायेगा। मांस खाना, शराब पीना और अण्डे खाना, ये सब मनुष्य शरीर में डालना। इसका अर्थ है, कि ‘पेट्रोल’ इंजन के अंदर ‘डीजल’ फ्यूल डालना। वो उसका विनाश करेगा। इसलिये मनुष्य को मांस आदि नहीं खाना चाहिये।

(122) शंका :- आप कहते हैं, कि क्रोध नहीं आना चाहिए। परशुराम, द्रोणाचार्य जैसे तपस्वी लोग क्रोधी थे फिर भी दुनिया उनकी पूजा क्यों करती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हर व्यक्ति में गुण भी होते हैं, दोष भी होते हैं। परशुराम में कुछ गुण भी थे, और दोष भी थे। और द्रोणाचार्य में गुण भी थे, और दोष भी थे। गुणों की पूजा होती है, दोषों की पूजा नहीं होती है। कोई भी व्यक्ति इसलिए परशुराम या द्रोणचार्य की पूजा नहीं करता, कि वे महाक्रोधी थे। उनकी पूजा इसलिये होती है क्योंकि उनमें योग्यता थी। वे विद्वान थे, धनुर्धारी थे, बलवान थे और बड़े वीर थे। किसी भी व्यक्ति की, उसके दोषों के कारण कभी पूजा नहीं होती। रावण के पास बहुत सारे गुण थे, इसलिये दक्षिण भारत के लोग रावण का सम्मान करते हैं। संस्कृत साहित्य में एक कहावत है- ‘गुणाः पूजा स्थानम्”। अर्थात् गुण पूजा का स्थान है, व्यक्ति नहीं। गुण जिस व्यक्ति में होते हैं, उस व्यक्ति की पूजा हो जाती है। वो पूजा वास्तव में व्यक्ति की नहीं है, गुणों की पूजा है। दोषों की कभी पूजा नहीं होती। दोषों का हमेशा अपमान ही होता है। परशुराम द्रोणाचार्य के अंदर कुछ गुण थे, इसलिए उनकी पूजा होती हैं। जो दोष थे, उनके कारण पूजा नहीं होती है।

(123) शंका :- ‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन। जैसा पिये पानी, वैसी बने वाणी। जैसा करे संग, वैसा चढ़े रंग।” तो मित्रों के, रिश्तेदारों आदि के घर में भ्रष्टाचार का धन आता है और वहाँ जाना ही होता है। वहाँ का अन्न, पानी ग्रहण न करने पर संबंध बिगड़ते हैं। और यदि स्वीकार करेंगे, तो मन बिगड़ेगा। बताइये क्या करना चाहिये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आपके मित्र-संबंधी, रिश्तेदार जिनके बारे में आपने यह प्रश्न लिखा है, कि वो चोरी से, बेईमानी से, भ्रष्टाचार से धन कमाते हैं? क्या वो सारा सौ प्रतिशत धन चोरी, बेईमानी से कमाते हैं या फिर कुछ मेहनत, ईमानदारी से भी कमाते हैं। कुछ तो मेहनत से कमाते हैं, कुछ तो ईमानदारी का होता है। मित्रों के यहाँ और रिश्तेदारी में, आना-जाना, खाना-पीना सब कुछ करना पड़ता है। तो जब आपको वहाँ खाना-पीना पड़े तो उनकी जो मेहनत और ईमानदारी की कमाई है, उसमें से खा लेना। बेईमानी वाला छोड़ देना, वो मत खाना। आपका मन भी नहीं बिगड़ेगा और रिश्ता भी नहीं बिगड़ेगा, दोनों ठीक बने रहेंगे। समाधान तो यही है।
इसे और स्पष्ट समझने के लिये एक अन्य उदाहरण देता हूँ। एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा – ‘ सेठ लोगों का धन कुछ ईमानदारी का और कुछ बेईमानी का (मिला-जुला( होता है। अतः उन सेठों से दान लेना उचित है ? मैंने कहा- ‘हाँ, दान लेना चाहिये। दान देना एक पुण्य कर्म है। कोई सेठ पुण्य कमाना चाहे तो क्या उसे पुण्य कमाने का अधिकार नहीं है। यदि है तो वह दान देगा, और संस्था लेगी। वह व्यक्ति बोला- ‘सेठ का धन तो मिला-जुला है। संस्था उससे दान लेगी, तो संस्था वालों में भी बेईमानी का दोष आ जायेगा।’ मैंने कहा- क्या कोई व्यक्ति अपने जीवन में सारे कर्म अच्छे ही करता है या कुछ बुरे भी करता है? यदि दोनों प्रकार के करता है तो सेठ जो दान देता है, वह अच्छा कर्म है। और व्यापार में जो थोड़ी बहुत बेईमानी करता है, वह बुरा कर्म है। वह अलग कर्म है। बुरे कर्म का दण्ड उसे भोगना पड़ेगा। आप इन दोनों कर्मो को मिश्रित (मिक्स( मत करिये। सेठ कर्म करने में स्वतंत्र है। वह कुछ काम अच्छे भी करता है और कुछ बुरे भी करता है। ऐसे ही सभी लोग करते हैं। आपको पाप तो तब लगेगा, जब आप मित्रों-संबंधियों के घर जाकर उनकी वस्तुयें चुराकर खायेगें। तब वह बुरा कर्म होगा। यदि वे लोग प्रेमपूर्वक, श्रृ(ापूर्वक आपको भोजन आदि खिलाते हैं, और आप खाते हैं, तो इसमें कोई बुराई नहीं है।

(124) शंका :- द्रोपदी का चीरहरण चुपचाप देखते रहना, क्या भीष्मपितामह जैसे महान व्यक्ति की कमजोरी नहीं दर्शाता? कहते है, कि कौरवों का अन्न खाने से उनकी बु(ि मलीन हो गई थी। हम भी इतना दूषित भोजन खाते हैं, तो क्या हमारी बु(ि भी मलीन हो गई है। फिर योग धर्म कैसे असर करेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

महाभारत’ में नौ सौ प्रतिशत मिलावट है। जैसे एक आदमी ने दस हजार रुपये घर से लेकर के व्यापार किया। और उसने कुल मिलाकर के एक लाख रुपये कमाया। उसने नौ सौ प्रतिशत लाभ कमाया। महाभारत की स्थिति भी ऐसी ही है। उसमें मूल श्लोक केवल दस हजार थे। व्यास जी ने जब महाभारत का इतिहास लिखा था तब इसका नाम था-‘जय। फिर फिर बाद में हुआ-‘भारत’। तब इसका नाम ‘महाभारत’ नहीं था। चीन का इतिहास ‘चायना’ के नाम से प्रस्तुत है। जापान का इतिहास ‘जापान’ के नाम से और भारत का इतिहास ‘भारत’ के नाम से। तो पहले जब मूल रुप से इतिहास लिखा था तब उसमें केवल 10,000 श्लोक थे। और बाद में जब इतिहास की कथा होने लगी। तो कुछ दो, चार, पांच, दस पंडितों ने अपनी कथायें शुरु की और दो श्लोक एक ने डाले, दो दूसरे ने डाले, दो तीसरे ने डाले और वो बढ़ते-बढ़ते आज एक लाख श्लोक हो गए। तो कितनी मिलावट हुई, नौ सौ प्रतिशत। 90 हजार मनगढंत श्लोक इसमें जोड़ दिये गये। अब जो घटना आती है, कि द्रोपदी का चीर हरण हुआ। हमको तो यह सरासर मिलावट दिखती है, ऐसा कुछ हुआ नहीं। ऐसा हो भी नहीं सकता।
यह बेकार की बात पढ़ते हैं, लिखते हैं और टीवी सीरियल में भी दिखा दिया इन्होंने। सब झूठ बाते हैं। आप कल्पना तो करके देखिये, कि- क्या ऐसा हो सकता है। आपके मोहल्ले में, आपकी नजर में एक सामान्य स्तर का व्यक्ति ऑटो-रिक्शा चलाता है। पाँचवी-छटवीं कक्षा पढ़ा हुआ है। कल्पना कीजिए- उसकी पत्नी को कोई आदमी पकड़ ले, और उसके कपड़े खींचने लगे तो क्या वो देखता रहेगा? वो लड़ मरेगा। वो कहेगा- पहले मुझसे बात करो, बाद में इसको हाथ लगाना। मेरे जिन्दा रहते तुम इसको हाथ नहीं लगा सकते। इसकी रक्षा की जिम्मेदारी मैंने ली है। पहले मुझसे दो-दो हाथ करो बाद में इधर बात करना। तो वो पांच-पांडव बड़े राजा लोग थे। बड़े वीर धर्नुधारी, बड़े पहलवान, कितने विद्वान और कितने मल्ल स्तर के लोग थे भीम जैसे, अर्जुन जैसे। वो क्या मुंह देखते होंगे? कल्पना तो करके देखो, कितनी झूठ बात है। एक रिक्शा ड्राईवर भी ऐसी बात को सहन नहीं कर सकता, कि कोई उसकी पत्नी को हाथ लगाये। वो पांच बड़े पढ़े-लिखे, बलवान, यो(ा महापुरूष कैसे सहन करेंगे, कि उनके देखते-देखते कोई उनकी घर की स्त्री को हाथ लगाये। इसलिए चीरहरण तो बिल्कुल कोरी कल्पना है। यह जुआ खेलने की घटना में भी घोटाला है। बहुत कपोल कल्पनायें हैं। जुआ में रुपया हार जाये, जमीन हार जाये, तो बात कुछ समझ में आती है। लेकिन पत्नी को हार जाये, दिमाग में बैठता नहीं है। पत्नी जुअे में, दाव में लगायी जाती है क्या? वो कोई संपत्ति है, कोई जड़ संपत्ति है, कोई सोना-चांदी है? वो चेतन व्यक्ति है। चेतन व्यक्ति को कोई भी जुअें में दाव पर नहीं लगा सकता। कानून का नियम है। महारभारत में इतनी मिलावट है, जैसे एक किलो दाल में नौ किलो कंकड़। असली दाल ढूँढने में कितनी मेहनत करनी पड़ेगी। दो-चार मिनिट में फैसला नहीं होगा। पर बैठकर के रिसर्च करनी पड़ेगी। तब पता लगेगा। ये सब बातें काल्पनिक है, झूठ बाते हैं। इसलिए इन्हें बु(ि स्वीकार नहीं करती।
अगला प्रश्न है, कि ‘भीष्म, दुर्योधन का अन्न खाते थे, जिससे बु(ि भ्रष्ट हो गई। इसलिए उसका विरोध नहीं कर पाये। हम भी तो दूषित अन्न खा रहे हैं, तो हमारी बु(ि पर योग का असर कैसे होगा?’ उसका उत्तर यह है, कि यदि हम अच्छा अन्न खायेंगे, अच्छी मेहनत से कमायेंगे, ईमानदारी से कमायेंगे और शु( भोजन खायेंगे। मांस-अण्डे आदि नहीं खायेंगे, सात्विक भोजन खायेंगे, तो योग का असर होगा। जितना पुरुषार्थ करेंगे, उतना लाभ होगा।

(125) शंका :- पुरुषार्थ-चतुष्ट्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। इसमें ‘काम’ से क्या अभिप्राय है। क्या मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रारंभ के तीन पुरूषार्थ साधने आवश्यक हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

काम’ का मतलब है-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना। ‘धर्म’ है- वेद के अनुसार आचरण करना। ‘अर्थ’ है- वेदानुसार आचरण करके
धनादि प्राप्त करना यानि ईमानदारी और मेहनत से धन कमाना।’ और उससे खाना-पीना, रोटी-कपड़ा, मकान आदि का प्रबंध करना ‘काम’ है। जब धर्म, अर्थ और काम, ये तीनों चीजें सि( हो जायेंगी, तब उसके बाद ही ‘मोक्ष’ मिलेगा। जो व्यक्ति ‘धर्म’ का आचरण नहीं करता, वो ‘अर्थ’ नहीं प्राप्त कर सकता, वो काम की पूर्ति भी नहीं कर सकता और उसको ‘मोक्ष’ भी नहीं मिल पायेगा। जो ये तीन ठीक कर लेगा, उसका मोक्ष भी हो जायेगा।

(126) शंका :- सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व-हितकारी नियम पालन में स्वतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें। इस नियम का क्या अर्थ है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व-हितकारी नियम पालन में स्वतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें। इस नियम का क्या अर्थ है?

(127) शंका :- जब ध्यान में बैठा जाये, तो क्या देखने का प्रयत्न किया जाये। अंधकार, प्रकाश, ओम, प्रतीक या कुछ और?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

तो देखिये! यह लम्बा-चौड़ा विषय है। और हर व्यक्ति का स्तर एक जैसा नहीं होता है। अलग-अलग स्तर के व्यक्ति के लिये अलग-अलग प्रकार के अभ्यास हैं। पहले-पहले आँख खोलकर के भी आप किसी वस्तु को देख सकते हैं। ऐसा पांच दिन, दस दिन, पन्द्रह दिन करें, बहुत दिन नहीं करें। दीवार पर एक ओम अक्षर लिख लीजिये और उस ओम को देखिये। स्थिर दृष्टि से दस-पांच दिन उसको देखिये। पाँच मिनट, दस मिनट रोज देखिये। तो देखते-देखते आपको दृष्टि स्थिर करने का अभ्यास हो जायेगा। उसके बाद फिर इस अभ्यास को बन्द कर देंगे। अगला अभ्यास करेंगे।
फिर आंख बंद करके मन के अंदर कोई प्रकाश, कोई सूर्य, कोई चन्द्रमा, कोई दीपक इस तरह की कोई प्रकाश वाली वस्तु को देखेंगे। आँख बंद करके पांच दिन, दस दिन, पन्द्रह दिन तक देखेंगे, इससे अधिक नहीं। नहीं तो फिर उसी अभ्यास में चिपक जायेंगे, उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जायेगा। यह प्रारंभिक अभ्यास है। पहले आंख खोलकर करें, फिर आंख बंद करके करें। आँख बन्द करके कोई प्रकाश देंखे, कोई दीपक देखें, कोई चन्द्रमा देखें, फिर धीरे-धीरे और अगला अभ्यास शुरू करें।
धीरे- धीरे सब प्रकाश को समाप्त कर दें। जैसे मान लीजिये-अमावस्या की रात है, तो उस दिन चन्द्रमा भी नहीं होता और रात को सूरज भी नहीं दिखता। और मान लीजिये कि- खूब गहरे बादल छाये हुये हैं, तो तारे भी नहीं दिखेंगे, उनका भी प्रकाश नहीं है। और यह जो सरकारी बिजली आती है, वो भी बंद। अब तो सब तरफ घुप्प अंधेरा हो जायेगा। फिर ऐसा देंखें, सब तरफ से अंधकार ही अंधकार, कोई प्रकाश नहीं। मन में ऐसा देखेंगे, तो क्या होगा? आपको केवल यह आकाश दिखाई देगा, शून्य आकाश। इस शून्य आकाश में अब ईश्वर का विचार करेंगे। ईश्वर एक देशीय है, या सर्वव्यापक? सर्वव्यापक है। यह सि(ांत की बात है। तो जब ध्यान में बैठेंगे, तब सि(ांत का क्रियात्मक रूप देखेंगे। उसको प्रैक्टिकल करेंगे, कि ईश्वर सर्वव्यापक है। जैसे आकाश दूर तक फैला हुआ है और आकाश की कोई आकृति नहीं है अर्थात् आकाश निराकार है। जैसे आकाश दूर तक फैला हुआ है, निराकार है, ऐसे ही ईश्वर भी आकाश के समान दूर तक फैला हुआ है। और वो भी निराकार है। उसकी भी कोई आकृति नहीं है। तब ऐसे ईश्वर का ध्यान करेंगे, तो आपको सफलता मिलेगी।

(128) शंका :- वेद के होते हुए भी ‘गीता’ का उपदेश देने का क्या प्रयोजन है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

गीता बहुत अच्छी पुस्तक है, उसमें बहुत सारी बातें ठीक हैं। वे वेद व्यास जी की लिखी है। उसमें श्रीकृष्ण जी का उपदेश है। जो व्यक्ति कर्तव्य से विमुख हो गया, उसको कर्तव्य परायण बनाने के लिये ग्रन्थ है। व्यक्ति उसको पढ़ के जोश में आयेगा और अपना काम शुरू कर देगा। बस गीता का इतना ही प्रयोजन है।
स गीता का उपदेश किसने दिया था? श्रीकृष्ण जी ने। किसको दिया था? अर्जुन को। कहाँ पर दिया था? यु( के मैदान में। क्यों दिया था? अर्जुन बेचारा ढ़ीला पड़ गया था। ये सारे चाचा-मामा, ताऊ सामने खड़े हैं। इनको मारूंगा, तो मुझे पाप लगेगा, मुझे तो नरक में जाना पड़ेगा। मैं नहीं लडूंगा। वो बेचारा घबरा गया, उसको भ्रान्ति हो गई, उसने हथियार छोड़ दिये।
स इस स्थिति में श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को उपदेश दिया। क्या उपदेश दिया? अर्जुन देख, इस समय तेरी बु(ि काम नहीं कर रही। तुझे भ्रान्ति हो गई है। तू यह समझता है कि ये चाचा-मामा, ताऊ सारे मार डालूंगा, तो पाप लगेगा। तुझे पाप नहीं लगेगा। मैं ठीक होश में हूँ और जो कहता हूँ, मेरी बात सुन। तेरी बु(ि इस समय ठीक काम नहीं कर रही है। तू इनको मार, तुझे कोई पाप नहीं लगेगा।
स क्यों मार? क्षत्रिय का धर्म क्या है? जो अन्याय के विरू( लड़ता है, वो क्षत्रिय कहलाता है। जो अन्यायी का विनाश करे, वो क्षत्रिय है। अब ये सारे जितने लोग खड़े हैं, सब अन्याय के पक्ष में हैं, तो इनको मारना तेरा धर्म है। अब तू अपने धर्म का पालन नहीं करेगा, तो लोग क्या कहेंगे, कि अर्जुन तो कायर था, मैदान में पीठ दिखाकर भाग गया, हथियार छोड़कर भाग गया। क्षत्रिय तो अपने धर्म का पालन करता है। अन्यायकारियों को मारना, यह क्षत्रिय का धर्म है। तू क्षत्रिय है, उठा अपने तीर-तलवार और मार इन लोगों को। फिर तुझे क्यूं लगता है, कि मैं इन चाचा-मामा, ताऊ को मारूंगा, तो मुझे पाप लगेगा।
स अब यह तो प्रासंगिक बात आ गई कि चाचा-मामा, ताऊ, गुरू, रिश्तेदार जो भी हैं, ये तो आत्मायें हैं। रिश्ता किन से है, आत्माओं से है, या शरीर से है? रिश्ता तो आत्माओं से है, और आत्मा तो मरती नहीं। फिर तू क्यों डरता है, किसको मार डालेगा, कोई नहीं मरने वाला। यह तो प्रासंगिक बात थी, जो उसकी भ्रान्ति दूर करने के लिये कहना पड़ी। और लोगों ने इसी को ऊंचा चढ़ा दिया। आत्मा अजर-अमर है, इसको जान लो, इसका साक्षात्कार करो, इसी से मुक्ति हो जाती है। यह कोई ‘ मुक्ति प्राप्ति के लिये उपदेश नहीं था। यह तो एक ढ़ीले-ढ़ाले क्षत्रिय को जोश दिलाने वाला ग्रन्थ था। और कृष्ण जी ने बड़ी बु(िमत्ता से उपदेश दिया और वे अपने कार्य में सफल हो गये। अर्जुन की भ्रान्ति दूर हो गई और उसने कहा, ”ठीक है गुरूजी, बात मेरी समझ में आ गई। मैं लडूंगा। योगेश्वर, मेरी बु(ि ठीक हो गई, अब सारी भ्रान्ति दूर हो गई। अब आप जो कहते हो, मैं वही करूंगा। लाओ, मेरा हथियार कहाँ है।” तो यह थी गीता। यह इतिहास का ग्रन्थ है, क्षत्रियों का ग्रन्थ है। उस भावना से गीता को पढ़िये।
स आपको पता है कि गीता कहाँ से निकली? ‘उपनिषद’ में से। उसके महत्व में यही तो लिखा है न। गीता जो है, उपनिषद का सार है। और उपनिषद कहाँ से आये? वो वेद का सार हैं। इस तरह गीता तो सार का भी सार है। सार का सार पढ़ेंगे, तो थोड़ी जानकारी होगी। ओरिजनल टैक्स्टबुक पढ़ेंगे, तो आपकी नॉलेज अच्छी होगी। वेद ओरिजनल टैक्स्टबुक है, वो ईश्वर ने दिया। और उसका सार उपनिषद् है। और उसका भी सार गीता है।
स यदि मोक्ष में जाना हो, तो उसके लिये दर्शन है, उपनिषद है, वेद हैं, इन ग्रन्थों को पढ़िये। तब आपका मोक्ष होने वाला है।
स ‘टैक्स्टबुक’ पढ़ने से अधिक अच्छी जानकारी होती है या ट्वेन्टी इम्पोर्टेन्ट क्वेश्चन पढ़ने से ज्यादा अधिक जानकारी होती है? ‘टैक्स्टबुक’ पढ़ने से अच्छी नॉलेज होती है। गीता कोई टैक्सबुक है क्या? गीता तो ‘ट्वेन्टी इम्पॉर्टेन्ट क्वेश्चन’ सीरीज है। ओरिजनल टैक्स्टबुक को पढ़िये, वो ‘वेद’ है। वेद पढ़िये, फिर आपका नॉलेज अच्छा होगा और फिर आप मोक्ष में जा सकते हैं।
स कुछ गड़बड़ बातें बाद में लोगों ने इसमें मिक्स कर दीं। उनको अलग कर दीजिये और जो अच्छी बातें हैं, उन्हें स्वीकार कीजिये।

(129) शंका :- क्या व्यक्ति को बुरे कर्म करने के पश्चात अन्य सभी योनियों को भोगना पड़ेगा अथवा कुछ योनियों के पश्चात् वापस मानव जन्म मिलेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

एक व्यक्ति ने 20 हजार रुपये की चोरी की, दूसरे व्यक्ति ने दो अरब रुपये की चोरी की। चोरी दोनों ने की, इसलिए दोनों अपराधी हैं। निःसंदेह दोनों को दण्ड मिलेगा।
क्या दण्ड की मात्रा दोनों की समान रहेगी, या कम अधिक? दण्ड की मात्रा कम-अधिक होगी। क्योंकि दोनों को बराबर दण्ड दिया जाये, तो यह न्याय थोड़े ही होगा, यह तो अन्याय होगा। एक ने अपराध थोड़ा किया, तो उसको थोड़ा दण्ड। और एक ने अधिक अपराध किया, तो उसको अधिक दण्ड, यह न्याय है। किसी ने 20 हजार पाप किये, किसी ने 50 हजार पाप किये। और दोनों को ही 84 लाख योनियों में डाल दें, तो फिर यह न्याय कहां होगा? जिसने जितना अपराध किया, उतनी ही योनियों में जायेगा, दण्ड भोगेगा, धक्का खायेगा और लोटकर वापस मनुष्य बनेगा। जिसने थोड़ा अपराध किया, वह थोड़ी योनियों में धक्का खायेगा। जिसने ज्यादा अपराध किये, वो ज्यादा योनियों में जायेगा। इसलिये सब को 84 लाख योनियों में नहीं जाना। यही न्याय है।

(130) शंका :- क्या हजारों वैज्ञानिकों की तुलना में एक ब्रह्मवेत्ता द्वारा संसार का उपकार अधिक होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ! बिल्कुल अधिक होता है। ये सैकड़ों वैज्ञानिक मिलकर के विज्ञान के अविष्कार तो कर देंगे और अच्छी चीजें भी बनायेंगे, बना भी रहे हैं। इन्होंने बड़ा अच्छा परिश्रम किया, हम इनकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन जो मनुष्य की मूल आवश्यकता है, उसकी पूर्ति वैज्ञानिक लोग नहीं कर सकते। ये रेडिया बना देंगे, टेलीवीजन बना देंगे, सैटेलाईट बना देंगे, कम्प्यूटर बना देंगे, मोबाईल फोन बना देंगे, सारी सुविधा दिला देंगे, पर व्यक्ति को इससे आगे शांति भी चाहिये। वो शांति ये नहीं दिला सकते। वो इनके बस की बात नहीं है। हजारों वैज्ञानिक भी मिलकर के मनुष्य की अंतिम इच्छा को पूर्ण नहीं कर सकते लेकिन एक ब्रह्मवेत्ता कर सकता है। वो लोगों को शांति दिला सकता है। उसके पास समाधान है। जैसे एक विद्यार्थी गया था काकरिया तालाब में डूबने के लिये, तो एक वृ( व्यक्ति ने उसको समझा दिया न, और उसको समझ में आ गई बात। फिर उसने मरना कैन्सिल कर दिया। तो ऐसे ही एक ब्रह्मवेत्ता लोगों की आखिरी इच्छा पूर्ण कर सकता है।
जब तक व्यक्ति के पास शांति नहीं है, तब-तक उसके पास सारे साधन होते हुये भी उसका जीवन व्यर्थ है। वेद आदि शास्त्र, )षि मुनि लोग इस बात को मानते हैं, कि यदि आपके पास शांति है, तो सब कुछ है। और शांति नहीं है, तो कुछ भी नहीं है। भौतिक साधन कितने भी हों, उससे आपका जीवन संतुष्ट नहीं होगा, तृप्त नहीं होगा। और फिर अन्त में लोगों को वहीं समाधान दिखता है- जापान वाला। आत्महत्या कैसे करें?

(131) शंका :- योगाभ्यास को कष्ट न समझकर करें, तो क्या उसमें सफलता मिल सकती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिल्कुल मिल सकती है। योगाभ्यास को कष्ट मानकर के मत कीजिये, तपस्या मानकर के कीजिये, तो आपको सफलता मिलेगी। कष्ट मानकर करेंगे, तो सफलता नहीं मिलेगी। आप योगाभ्यास को कष्ट मानकर करेंगे, तो मन में खिन्नता हो जायेगी, मन चंचल हो जायेगा, अस्थिर हो जायेगा, तो सफलता नहीं मिलेगी। तपस्या मानकर करेंगे तो मन में प्रसन्नता होगी, शांति और स्थिरता होगी और आप योगाभ्यास में सफल हो जायेंगे।

(132) शंका :- जहाँ अपना अनुभव काम नहीं कर पा रहा हो, स्थिति डावाँडोल हो रही हो, तब योगाभ्यासी किसके आधार पर दृढ होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

तो इसका उत्तर यही है, कि अपने से जो अधिक अनुभवी लोग हैं, अपने से जो अधिक योग्य हैं, प्राचीन काल के )षि मुनि हैं और वेद हैं, उन ग्रन्थों को देखना चाहिये। महान् पुरूषों को देखना चाहिये, कि वे लोग ऐसी परिस्थिति में क्या करते थे। शास्त्र क्या बोलते हैं, कि जब हमारी स्थिति खराब हो रही हो, तब ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिये। उन प्राचीन )षि मुनियों के जीवन वृत्तान्त से, उनके इतिहास से, उनकी दिनचर्या से, उनकी शैली से हमें पता चल जायेगा, कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये।

(133) शंका :- हमारा ज्ञान सत्य है, या नहीं। यह जानने के लिये अपने ज्ञान की तुलना किसके ज्ञान के साथ करनी चाहिये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम कोई बात समझ रहे हैं। वो ठीक समझ रहे हैं, या गलत समझ रहे हैं, इसका निर्णय करने के लिये अपने ज्ञान की तुलना वेद के साथ करनी चाहिये। अथवा अन्य प्रमाणों के साथ करनी चाहिये। प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण आदि-आदि प्रमाणों से तुलना करनी चाहिये, कि मैं तो यह समझ रहा हूँ, और इस बारे में शब्द प्रमाण क्या कह रहा है, वेद क्या कह रहा है, )षि लोग क्या कह रहे है। यदि वे भी वही कुछ कह रहे हैं, जो मैं समझ रहा हूँ, तो मेरा ज्ञान ठीक है। और वेद कुछ और कह रहा है, और मैं कुछ और समझ रहा हूँ, तो इसका मतलब गड़बड़ है। गड़बड़ कहाँ है, मुझमें या वेद में? मुझमें गड़बड़ है, वेद झूठा नहीं है। हमारे समझने में भूल हो सकती है, ईश्वर के कहने में भूल नहीं है। इस प्रकार अपने ज्ञान का निर्णय करने के लिये वेद से तुलना करो, )षियों के ग्रन्थों से तुलना करो तो पता चल जायेगा कि हम ठीक ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं अथवा हम गड़बड़ (भ्रान्ति( में है।

(134) शंका :- श्रीराम ने बाली का वध छुपकर के किया, और छुपकर के दुश्मन को मारना या किसी को मारना, यह तो गद्दारी है। ऐसा कुछ लोग कहते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जब यु( के नियमों का उल्लंघन किया जाये अथवा जो विधि-विधान है, कानून है, जो हमारा कर्तव्य है, हम उसको भंग करते हैं, तो उसका नाम गद्दारी है, उसका नाम देशद्रोह है। यु( में तो रणनीति में कई तरह के नियम होते हैं। उसमें सामने से भी हमला होता है, छुपकर के भी होता है। दुष्ट के साथ तो छुपकर के ही व्यवहार किया जाता है, यह तो यु( का नियम है। श्रीराम जी ने यु( के नियम का पालन किया, उल्लंघन नहीं किया। इसलिये उनको गद्दार नहीं कह सकते। जब श्रीराम जी ने तीर मार दिया, और फिर श्रीराम जी सामने आ गये, तो बाली ने पूछा कि- भई! श्रीराम जी आपने मुझको छुपकर के मारा, यह तो आपने ठीक नहीं किया। यह तो नियम का उल्लंघन किया। आपने मुझे किस अधिकार से मारा? आपको लड़ना था तो मेरे सामने आकर लड़ते, तो पता चलता कि कितने क्षत्रिय हो। छुपकर के मारा, यह तो आपने नियम तोड़ दिया। उस समय श्रीरामचंद्र जी ने क्या उत्तर दिया। श्रीराम ने कहा, कि हम जिस परिवार से आये हैं, जिस वंश के हैं, उस वंश का इस धरती पर चक्रवर्ती शासन है। इस समय महाराजा भरत चक्रवर्ती राजा हैं। तुम महाराजा भरत के अंतर्गत उनके अधीन हो। महाराजा भरत के अंतर्गत रहते हुए तुमने अपने भाई पर अन्याय किया है, अत्याचार किया है। पहले गलती तुमने की है। और हम महाराजा भरत की ओर से तुमको दंड देने आये हैं। हमने दंड देकर के न्याय किया है। हमने कोई छल-कपट नहीं किया, कोई धोखा नहीं दिया। यह श्रीराम ने ऐसा न्यायपूर्ण उत्तर दिया। इसलिये उन्हें गद्दार कहना गलत है।

(135) शंका :- यदि मन जड़ है, तो ‘मन’ बंधन और ‘मोक्ष’ का कारण कैसे है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

क्यों जी, कारण बनने में क्या दिक्कत है मन को। अच्छा ये बताईयेः- खीर, पुड़ी, हलवा जड़ है या चेतन? जड़ है न। तो ये चीजें आप खाते-पीते हैं, उसमें सुख लेते हैं, तो वो आपके बंधन का कारण बनती है। जब ये खीर-पुड़ी, हलवा, मिठाई आदि जड़-वस्तुएँ आपके बंधन का कारण हो सकती हैं, तो मन भी जड़ है, वो बंधन का कारण क्यों नहीं हो सकता? एक शास्त्र में तो लिखा ही है ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। इस बात का अभिप्राय यह मत समझना कि जड़-वस्तु हमको अपनी स्वतंत्रता से बांध लेती है। शायद प्रश्न पूछने वाले इस भावना से पूछ रहे हैं, कि जड़-वस्तुएँ हमको कैसे बाँध लेगी? जड़-वस्तु होकर के भी हमें बाँध लेती है, पर वो हमें बाँधने में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। यदि हम बंधना चाहें, तो वो हमको बाँध सकती है। यदि हम नहीं बंधना चाहें तो नहीं बाँध सकती।
उदाहरण- एक व्यक्ति ठंडी के मौसम में सो रहा था। उठने का समय हो गया, और वो उठ नहीं रहा था। तो उसके घर के दूसरे व्यक्ति ने कहा- भई उठो, क्या बात है ऑफिस नहीं जाना है क्या? वो कहता है- जी मैं क्या करूँ, मैं तो उठना चाहता हूँ, पर यह रजाई मुझे नहीं छोड़ती। अब बताईये, रजाई नहीं छोड़ती या वो रजाई को नहीं छोड़ रहा। और बोलता क्या है, यह रजाई मुझे नहीं छोड़ती। ठीक इसी तरह से मन सीधा-सीधा बंधन का कारण नहीं है। न मन सीधा-सीधा मोक्ष का कारण है। बंधन और मोक्ष का कारण सीधा-सीधा तो जीवात्मा है। जीवात्मा अगर मोक्ष में जाना चाहे, तो मन उसको मोक्ष में जाने के लिए पूरा सहयोग देगा। और जीवात्मा बंधन में ही रहना चाहता है, वो मोक्ष में जाना ही नहीं चाहता, तो फिर मन उसको बंधन में डाल देगा। मन का कोई दोष नहीं है। मन एक जड़ वस्तु है, फिर भी वो इस नाम से कह दिया जाता है। जैसे यह कह दिया जाता है, कि मेरी तो इच्छा है, पर यह रजाई मुझे नहीं छोड़ रही। जैसे वो मोटी सी बात कह दी, ऐसे ही ये मोटी सी बात है। मन का संचालन आत्मा के अधीन है। आत्मा चाहेगा, तो मन से बंधन अथवा मोक्ष दोनों कर सकता है।

(136) शंका :- ईश्वर ने सृष्टि बनाई, यह कैसे सि( करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिये, तीन पदार्थ हैं- एक ईश्वर, एक जीवात्मा,एक प्रकृति। इन तीनों के बारे में विचार करेंगे, बारी-बारी से चिंतन करेंगे। फिर कोई न कोई निर्णय हो जाएगा।
पहला प्रश्न- क्या जीवात्मा सृष्टि बना सकता है। उत्तर है- जीवात्मा सृष्टि को नहीं बना सकता। तारों को नहीं बना सकता, पृथ्वी को नहीं बना सकता। यह उसके वश की बात नहीं है। उसमें इतनी शक्ति, बु(ि व योग्यता ही नहीं है। तो तीन में से एक का निर्णय तो हो गया, कि जीवात्मा सृष्टि नहीं बना सकता।
दूसरा प्रश्न- क्या प्रकृति स्वयं पृथ्वी बना सकती है? उत्तर है- कभी नहीं बना सकती। क्योंकि उसमें अक्ल ही नहीं है। सृष्टि की रचना को देखने से पता चलता है, कि कितनी बु(िमत्ता का इसमें प्रयोग किया गया है। बहुत बु(िमता से व्यवस्थित पृथ्वी बनी हुई है। किसी भी पेड़-पत्त्ते को देख लीजिए। वनस्पति शास्त्र पढ़िये। ऊँचे नीचे वृक्षों की रचना को देखिए, तो आपको पता चलेगा, कि कितनी व्यवस्थित है। शरीर विज्ञान पढ़िये। शरीर रचना को देखिए, कि वो कितनी व्यवस्थित है। नस, नाड़ियाँ, पाचन तंत्र, तंत्रिका तन्त्र आदि, सारे सिस्टम कितने व्यवस्थित हैं। इनमें जो इतनी व्यवस्था है- इसको प्रकृति अपने आप नहीं बना सकती। उसमें इतनी अक्ल नहीं है। तीन में से दो का निर्णय हो गया। न तो जीवात्मा बना सकता है। उसमें इतनी विद्या और शक्ति नहीं है। न तो प्रकृति स्वयं बना सकती है, क्योंकि उसमें तो बिल्कुल अक्ल ही नहीं है। अब तीन में से दो का निर्णय हो गया। बाकी कौन बचा? जो बचा है, वही सृष्टिकर्ता है। इसमें वही है- परिशेष न्याय। यानी बचे हुए पदार्थ का नियम। तो तीन में से दो बातें कैंसिल हो गयीं। जीव और प्रकृति ने सृष्टि नहीं बनाई। बाकी ‘ईश्वर’ बचा, उसी ने जगत बनाया। यह अनुमान प्रमाण से सि( हो गया, कि ईश्वर ने ही ‘सृष्टि’ बनाई है। उसमें इतनी बु(ि और इतनी शक्ति है, कि वह अकेला ही सारी सृष्टि बना देता है।
ईश्वर की सि(ि प्रत्यक्ष प्रमाण से कैसे करेंगे? उत्तर है, कि- एक होता है, ‘बाह्य प्रत्यक्ष’, और एक होता है, ‘आंतरिक प्रत्यक्ष’। जब कोई व्यक्ति अच्छा काम करने लगता है, तो उसको अपने अंदर से आनंद, उत्साह, निर्भयता जैसे अनुकूल भाव महसूस होते हैं। और जब बुरा काम करने की योजना बनाता है, तब अंदर से भय, शंका, लज्जा का अनुभव होता है। ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में लिखा है- यह जीवात्मा की ओर से नहीं, परमेश्वर की ओर से है। अब अगर हमको भय, शंका लज्जा का अनुभव होता है, तो यह प्रत्यक्ष अनुभव है। यह किसकी ओर से है? ईश्वर की ओर से है। यह ईश्वर का आंतरिक प्रत्यक्ष है। परन्तु स्थूल (मोटे( स्तर का प्रत्यक्ष है। इसके बाद का सूक्ष्म प्रत्यक्ष भी होता है, जो सारे जीवों को नहीं होता है। स्थूल प्रत्यक्ष का अनुभव तो सभी लोग कर सकते हैं। जो बुरा काम करेगा, उसके अन्दर भय, शंका, लज्जा होगी। ईश्वर अपना सिग्नल भेज रहा है, कि गलत काम कर रहे हो। यह है- रेड सिग्नल, यानि खतरा है। मत करो। तो इस तरह ईश्वर का आंतरिक स्थूल अनुभव हो सकता है। विशेष सूक्ष्म प्रत्यक्ष करना हो, तो ‘समाधि’ लगाइये। समाधि में ईश्वर का विशेष- (सूक्ष्म( अनुभव या प्रत्यक्ष होता है। उसमें ईश्वर से आनन्द, ज्ञान, बल आदि मिलता है। अब समाधि का अनुभव हम आपको शब्दों से नहीं बता सकते। क्योंकि यह अन्दर से स्वयं ही अनुभव करने की वस्तु है। उदाहरण के लिए, जब आपने रसगुल्ला खाया, तब उसमें कैसा टेस्ट लगा? बढ़िया लगा। आप कैसे समझाओगे? नहीं समझा सकते। आप सभी यही कहेंगे, कि ‘बड़ा अच्छा है, बड़ा स्वादिष्ट है, बहुत मीठा है।’ इतना कहने से क्या मुझे समझ में आ गया, कि यह कैसा स्वाद है। जब आप रसगुल्लों जैसी स्थूल वस्तु का स्वाद नहीं समझा सकते, तो हम आपको भगवान जैसी सूक्ष्म वस्तु का आनंद कैसे समझाऐंगे? वो तो और बहुत कठिन है। तो शास्त्रकार लिखते हैं- ”न शक्यते वर्णयितुं गिरा”अर्थात् वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ”स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते।”
अंतःकरण से, अन्दर से ही ईश्वरानुभूति का आनन्द महसूस होता है। उसको हम अन्दर से ही अनुभव कर सकते हैं, वाणी से नहीं समझा सकते। वाणी से सिर्फ इतना ही बोल सकते हैं- बहुत बढ़िया होता है, बहुत अच्छा है, बहुत आनंद आता है। वाणी से इससे अधिक नहीं कह सकते। तो ईश्वर का आन्तरिक सूक्ष्म प्रत्यक्ष कैसा होता है, समाधि लगाओ तब ही पता चलेगा।

(137) शंका :- समाधि की प्राप्ति में गुरू का कितना सहयोग चाहिये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधि की प्राप्ति में ‘गुरू’ का उतना ही सहयोग चाहिए, जितना कि वैज्ञानिक (साइंटिस्ट( बनने के लिए साइंस टीचर का चाहिए। जैसे साइंस टीचर के बिना कोई व्यक्ति साइंटिस्ट नहीं बन सकता, वैसे ही बिना गुरू के ‘समाधि’ की उपलब्धि संभव नहीं है। वस्तुतः सामान्य नियम तो यही है। हालांकि इसके अपवाद भी हो सकते हैं। कोई ऐसा भी हो सकता है, जो पूर्व जन्म के संस्कार और विद्या लेकर आया हो, वह किसी मनुष्य को गुरू बनाये बिना ही पूर्व संचित विद्या से पुरूषार्थ करके और ईश्वर रूपी गुरू की सहायता से समाधि को प्राप्त कर ले। दरअसल,अपवाद (एक्सेप्शन( हर जगह होते हैं। इसलिए यदि किसी को मनुष्य शरीरधारी गुरू के बिना समाधि प्राप्त हो जाए, तो वह अपवाद की श्रेणी में रखा जाएगा। लेकिन यह सामान्य यही नियम नहीं है। सामान्य नियम तो यही है, कि जैसे गणित पढ़ाने के लिए,साइंस पढ़ाने के लिए,कॉमर्स पढ़ाने के लिए अध्यापक, शिक्षक चाहिए। वैसे ही योग समाधि के लिए भी देहधारी शिक्षक चाहिए,गुरूजी चाहिए।

(138) शंका :- मोक्ष में आत्मा के साथ में मन, बु(ि, चित्त, कारण शरीर आदि रहते हैं या नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मोक्ष में ये प्राकृतिक शरीर, मन, बु(ि, चित्त, इन्द्रियाँ, यह स्थूल शरीर, कोई भी साथ में नहीं रहता। प्रकृति से बना कोई भी शरीर मोक्ष में नहीं रहता। कारण शरीर भी प्राकृतिक है। सत्त्व, रजस, और तमस जो मूल प्रकृति है, उसका नाम ही कारण शरीर है। वो भी साथ नहीं रहता। कोई प्राकृतिक शरीर साथ नहीं रहता मोक्ष में। जीवात्मा के 24 शु( गुण सत्यार्थ-प्रकाश के नौंवे समुल्लास में लिखे हैं। वो साथ रहते हैं। और ईश्वर का आनंद मिलता है। ईश्वर के मुक्तात्मा के साथ होता है। बस मोक्ष में इतना ही होता है। प्रकृति या प्राकृतिक संबंध नहीं होता। जीवात्मा मुक्ति में परमात्मा की शक्ति से सुनेगा, देखेगा, सारे काम करेगा। जीवात्मा और परमात्मा दोनों अलग-अलग हैं। दोनों की शक्ति अलग है। ईश्वर की शक्ति के सहयोग से ‘मुक्त-आत्मा’ सारे काम करता है। मोक्ष में प्रकृति वाला मन नहीं रहता है। सत्यार्थ प्रकाश का नौंवा समुल्लास पढ़िये। उसमें जीवात्मा की चौबीस शक्तियाँ लिखी हैं। उसमें जीवात्मा की एक मनन शक्ति भी है। वो मनन शक्ति से मनन करेगा, घ्राण शक्ति से सूंघेगा, दर्शन शक्ति से देखेगा, श्रवण शक्ति से सुनेगा। पर उसकी अपनी शक्ति बहुत कम है। जीवात्मा केवल अपनी शक्ति से मुक्ति में सारे काम नहीं कर सकता। उसमें ईश्वर की शक्ति और साथ उसके जुड़ेगी

(139) शंका :- स्वार्थ की व्याख्या करें? कृपया तीन-चार व्यावहारिक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

स्वार्थ का मतलब होता है- केवल अपने लाभ की बात सोचना, दूसरों के लाभ और भले की बात नहीं सोचना। इसको बोलते हैं ‘स्वार्थ’। यह मोटी सी परिभाषा है। पहला उदाहरण- खाने का नंबर आया, तो मुझे खाना मिलना चाहिये, दूसरों को मिले या न मिले, उसकी परवाह नहीं है। यह स्वार्थ की बात है। सोने की बारी आयी, मेरा बिस्तर बढ़िया होना चाहिये, मेरी जगह साफ-सुथरी, पंखे के नीचे होनी चाहिये, दूसरे को पंखे की हवा मिले या न मिले, मुझे कोई मतलब नहीं। यह स्वार्थ की बात है। धंधे व्यापार के क्षेत्र में- मेरी दुकान चलनी चाहिये, दूसरे की चले न चले। यह स्वार्थ की बात है। तो ऐसे आप कितने ही उदाहरण बनाते जायें। खाने में, पीने में, घूमने में, सोने में, जागने में, सुविधा में, बिस्तर में, कपड़ों में। जब केवल व्यक्ति अपने ही मतलब की बात सोचता है, अपने ही लाभ की बात सोचता है, दूसरों के लाभ और भले लिये कुछ नहीं सोचता, तो इसको स्वार्थ कहते हैं। जब व्यक्ति अपने लिये और दूसरों के लिये, यानी दोनों के लिये सोचता है, औरों को भी मिले, मुझे भी मिले, तो वो ठीक बात है, वो स्वार्थ की बात नहीं है, वो परोपकार की बात है। मेरा भी काम चले, दूसरों का भी चले। मैं पढूँ, दूसरे भी पढ़ें। मैं भी सुखी रहूँ, दूसरे भी सुखी रहें। मुझे भी खाने को मिले, दूसरों को भी मिले। मुझे भी सोने की जगह मिले, दूसरों को भी मिले। मैं भी दुःख से छूटूँ, दूसरा भी छूटे। ऐसे सोचना चाहिये।

(140) शंका :- किसी ने चोरी की और भगवान ने नहीं देखा। क्या यह हो सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान-ऐसा नहीं हो सकता, कि किसी ने चोरी की और भगवान ने उसे देखा नहीं। भगवान सब जगह रहता है और सबको देखता है। जो भी चोरी करता है, भगवान उसे देखता है। फिर उसके कर्मों के खाते में जमा कर देता है। और समय आने पर उसको दण्ड भी देता है।

(141) शंका :- मोक्ष में जीवात्मा आनंद का अनुभव कैसे करता है। क्या वह समझता है, कि आनंद प्राप्त कर रहा है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ बिल्कुल, मोक्ष में उसको पूरा अच्छी तरह अनुभव होता है, कि मैं आनंद प्राप्त कर रहा हूँ। जैसे- आपके सामने प्लेट में रसगुल्ले रखे हैं, और आप जाग रहे हैं, अच्छी तरह होश में हैं। आप जब रसगुल्ले खा रहे हैं, तो आपको पता चलता है, कि रसगुल्ले का स्वाद ले रहे हैं। जैसे आप जागृत अवस्था में रसगुल्ले, मिठाई खाते हैं, उसका स्वाद मिलता है, सुख मिलता है। और आप समझ रहे हैं कि हम रसगुल्ले का स्वाद ले रहे हैं, उसका सुख भोग रहे हैं। ऐसे ही मोक्ष में जीवात्मा को पूरा-पूरा होश रहता है। उसे पूरा-पूरा पता चलता है, कि हम ईश्वर का आनंद ले रहे हैं। ईश्वर का आनंद उसको मिलता रहता है। और वो ठीक ऐसे ही समझता है, जैसे हम जागृत अवस्था में यहाँ संसार में समझते हैं, कि हम सुख भोग रहे हैं। यह मोक्ष में जीवात्मा द्वारा आनंद भोगने की स्थिति है।

(142) शंका :- हम अध्यापक हैं, और हमारे विद्यार्थी बार-बार कहने पर भी मानते नहीं, तो हमें गुस्सा आता है। क्या यह सही है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

विद्यार्थी नहीं मानते, तो न मानें। विद्यार्थी नहीं सुधरते तो न सुधरें। लेकिन क्रोध कर हम नहीं बिगड़ेंगे। हम बिगड़ने के लिये नहीं आये। हम सुधरने के लिये आये हैं। विद्यार्थी भी सुधरने के लिये आयें। वो सुधरते हैं, तो बहुत अच्छी बात है। और नहीं सुधरते, तो उनसे कह दो अपने घर जाओ, दूसरी संस्था में जाओ, कहीं भी जाओ। हमें मत बिगाड़ो, हम नहीं बिगड़ेंगे। इसलिये हमें क्रोध नहीं करना है।

(143) शंका :- शंका-प्रकृति तीन तत्त्वों का समुदाय है? इनमें सत्त्व प्रकाशशील, सुखस्वरूप, रजोगुण क्रियाशील, तमोगुण स्थितिशील है। प्रकृति से बने संसार अर्थात् विकृति में ये तीनों गुणों को देखकर ऐसा संदेह होता है कि ये गुण ही स्वयं विकृति करते हैं। फिर सृष्टि निर्माण में ईश्वर की क्या और क्यों आवश्यकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

शंका-प्रकृति तीन तत्त्वों का समुदाय है? इनमें सत्त्व प्रकाशशील, सुखस्वरूप, रजोगुण क्रियाशील, तमोगुण स्थितिशील है। प्रकृति से बने संसार अर्थात् विकृति में ये तीनों गुणों को देखकर ऐसा संदेह होता है कि ये गुण ही स्वयं विकृति करते हैं। फिर सृष्टि निर्माण में ईश्वर की क्या और क्यों आवश्यकता है?

(144) शंका :- मोक्ष की इच्छा एक कामना है, मोक्ष की कामना से किया हुआ निष्काम कर्म सकाम हो सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पूछना शायद ऐसा चाहते हैं कि मोक्ष की कामना भी तो एक कामना है? यदि मोक्ष की कामना से कर्म किया गया, तो फिर वो निष्काम कर्म कैसे हुआ? कामना तो उसमें भी है। महर्षि दयानंद जी ने )ग्वेदादि भाष्य भूमिका में परिभाषा लिखी है कि- ”परमेश्वर प्राप्ति या मोक्ष प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर जो कर्म किये जाते हैं, उसका नाम ही निष्काम कर्म है।” बिना कामना के तो कर्म हो ही नहीं सकता, वह असंभव है। व्यक्ति जो भी क्रिया करता है, वो कामनापूर्ण ही होती है। यह बात ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखी है। हमें पता भी नहीं चलता कि हमने कितनी बार आंख बंद की और कितनी बार खोली। वो भी जब बिना इच्छा के नहीं होती। तब यज्ञ करना, दान देना, सेवा करना, प्रचार करना आदि इतने बड़े-बड़े काम बिना इच्छा के कैसे हो सकते हैं? नहीं हो सकते। कामना तो जरूर है, पर कामनाओं में अंतर है। लौकिक सुख की कामना किया तो वह सकाम कर्म है। और मोक्ष सुख की कामना से कर्म किया तो निष्काम कर्म है। ऐसा जानना चाहिये।

(145) शंका :- जो संन्यासी होते हैं, उनका मुख्य लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना अथवा समाधि प्राप्त करना होता है। एक योगाभ्यासी बनने के लिये हमें लोभ, मोह, लालच नहीं करना चाहिये। सवाल उठता है, कि क्या ईश्वर को प्राप्त करना लोभ, मोह, लालच नहीं है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर को प्राप्त करना या मोक्ष प्राप्त करना, कोई लोभ नहीं है। लोभ की परिभाषा अलग है। जब परिभाषा पकड़ लेंगे, तो प्रश्न स्वतः सुलझ जायेगा। दो साबुन खरीदो और तीसरा मुफ्त में, यह लोभ है। आप बिना कर्म किये वस्तु प्राप्त करना चाहते हैं। कर्म तो किया आपने दो साबुन का और प्राप्त करना चाहते हैं तीन। तो बिना पुरूषार्थ किए, बिना कर्म किये, बिना पेमेंट किये, बिना पैसा दिये, आप जो मुफ्त में लेना चाहते हैं, उसका नाम है-लोभ।
जो संन्यासी बनता है, ईश्वर प्राप्त करना चाहता है, मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, तो क्या वो मुफ्त में प्राप्त करना चाहता है या पुरूषार्थ करके प्राप्त करना चाहता है? पुरूषार्थ करके। तो लोभी नहीं हुआ। बिना पुरूषार्थ किए वह मोक्ष प्राप्त करना चाहे, तब तो वो लोभ है। लेकिन वो तो पुरूषार्थ करता है, पूरी मेहनत करता है।
और यह नियम है, कि जो पुरूषार्थ करेगा, उसको फल अवश्य मिलेगा। जैसा कर्म, वैसा फल। ईश्वर न्यायकारी है, फल तो देगा। तो यदि पुरूषार्थ करके कोई व्यक्ति धन प्राप्त करना चाहता है, तो यह न्याय की बात है, उचित बात है,
धर्म की बात है। तो करो पुरूषार्थ, क्योंकि इसमें तो कोई आपत्ति नहीं है। वैसे ही कोई पुरूषार्थ करके ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, तो यह न्याय की बात है, वो लोभ नहीं है। इसलिये ईश्वर प्राप्ति करना या मोक्ष प्राप्ति करना कोई लोभ नहीं है, कोई अधर्म नहीं है, कोई अन्याय नहीं है। यह बिल्कुल उचित है। ऐसा आप भी कर सकते हैं। इसलिए जोर लगाओ, संन्यासी बनो।
संन्यासी बनने से तो लोगों को डर लगता है, कि हमको संन्यासी बनवा देंगे, घर छुड़वा देंगे। मोक्ष में जाने के लिये संन्यास लेना अनिवार्य (कम्पलसरी( है। आज लो, बीस जन्म बाद लो, पचास जन्म के बाद लो, लेना तो पड़ेगा और कोई रास्ता नहीं है।
मोक्ष का रास्ता क्या है? पहले मनुष्य का जन्म धारण करो। और फिर मनुष्यों में ऊँचे-ऊँचे स्तर के मनुष्य बनते जाओ, ऊँची-ऊँची योग्यता प्राप्त करते जाओ। पहले शूद्र के यहाँ जन्म हो गया। फिर पुरूषार्थ करके हमने अच्छे कर्म किये, मेहनत की, तो वैश्य के गुणकर्म को धारण कर लिया, फिर वैश्य बन गये। जन्म की बात नहीं कर रहा हूँ, वर्ण-व्यवस्था गुण कर्मों से है, जन्म से नहीं। वैश्य वाली योग्यता प्राप्त कर ली, उसके बाद फिर और ऊँचे उठे, क्षत्रिय बन गये। फिर और ऊँचे उठे, ब्राह्मण बन गये। फिर ब्राह्मणों में भी और ऊँचे ब्राह्मण बन गये। फिर उनमें भी और ऊँचे उठे, संन्यासी बन गये। और संन्यास के बाद फिर मोक्ष होता है। यह है क्रम। मोक्ष में जाने की प(ति इस प्रकार से है। तो जो-जो मोक्ष में जाना चाहते हैं, उनको यह सब क्रम अपनाना पड़ेगा। योग्यता बनानी पड़ेगी, ब्राह्मण बनना पड़ेगा, संन्यासी बनना पड़ेगा, घर छोड़ना पड़ेगा, संसार छोड़ना पड़ेगा, तब मोक्ष होगा। मेरा प्रवचन सुनकर के, आप जोश में आकर, कल ही घर मत छोड़ देना। करना यही पड़ेगा, लेकिन कब करें? उसके लिए तैयारी करनी पड़ेगी, योग्यता बनानी पड़ेगी। आपको घर छोड़ने की तैयारी करने में पाँच-दस वर्ष निकल जायेंगे। आज से आप सोचना शुरू करें, कि हमें घर छोड़ना है, हमें वानप्रस्थ लेना है, हमें संन्यास लेना है, योग्यता बनानी है। तो उसमें भी पाँच-दस वर्ष निकल जायेंगे। इसलिये जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिये। होश में रहकर बु(िमत्ता से अपने सामर्थ्य को ध्यान में रखकर के करना चाहिये। तैयारी जरूर कर सकते हैं। तैयारी तो आप आज से भी शुरू कर सकते हैं, कि हम समय आने पर योग्यता बनाकर वानप्रस्थ लेंगे, संन्यास लेंगे।

(146) शंका :- सर्वार्न्तयामी’ का अर्थ क्या है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सर्व’ यानि सभी में, ‘अर्न्तयामी’ अर्थात् अन्दर रहकर नियंत्रण करने वाला। जो सबके अन्दर रहता है, मन की सारी बातें जानता है और नियंत्रण करता है, यह सभी बातें सर्वार्न्तयामी से जुड़ी हुई हैं। ‘ईश्वर’ सर्वार्न्तयामी है। जब व्यक्ति बुरी योजना बनाता है, तो ईश्वर अन्दर से भय, लज्जा व शंका उत्पन्न करता है और वह बुरा काम करने से रोकता है। यही ईश्वर का नियंत्रण है। इसके विपरीत, जब व्यक्ति अच्छी योजना बनाता है, तो ईश्वर आनंद व उत्साह देता है, प्रोत्साहित करता है। सर्वार्न्तयामी ईश्वर हाथ पकड़कर किसी काम से नहीं रोकता, बल्कि मानसिक रूप से ही बुरा काम करने की मनाही करता है और सही काम के लिए प्रेरित करता है। यही उसका ‘सर्वान्तर्यामी’ रूप है।

(147) शंका :- मुझे गुस्सा बहुत आता है। कृपया उपाय बतलायें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

गुस्सा बहुत आता है तो उसका उपाय तो दर्शन योग महाविद्यालय से प्रकाशित पर्चे में लिखा है। क्रोध को कैसे दूर करें, इस संबंध में उसमें बहुत सारे उपाय लिखे हैं।
क्रोध कम करने का मोटा सा उपाय दोहरा देता हूँ। क्रोध को दूर करने का सबसे बढ़िया उपाय है- अपनी इच्छाओं को कम करें। आप दूसरों से उम्मीद रखते हैं कि यह व्यक्ति मेरे साथ ऐसा व्यवहार करेगा, इसको मेरे साथ ऐसा करना चाहिये। यह जो उम्मीद रखते हैं, इसको कम करें। जितनी इच्छायें बढ़ायेंगे, जितनी उम्मीदें बढ़ायेंगे, दूसरों से उतना दुःख बढ़ेगा। कैसे बढ़ेगा? दो वाक्यों में समझ लीजिये। क्या हमारी सारी इच्छायें पूरी हो सकती हैं? नहीं न। जितनी इच्छायें पूरी होती जायेंगी, वो समाप्त होती जायेंगी या बढ़ती जायेंगी? वे तो और बढ़ती जायेंगी और सारी तो पूरी होंगी नहीं। बताइये, वो अधूरी इच्छा आपको सुख देंगी कि दुःख देंगी? बस, वो दुःख देंगी, उससे फिर आपका क्रोध बढ़ेगा। इसलिए उपाय क्या हुआ? अपनी इच्छाओं को कम करें।
हमेशा एक सा नहीं सोचें। पॉजिटिव भी सोचें, कुछ-कुछ नेगेटिव भी सोचें। यह काम जरूर हो जायेगा, यह व्यक्ति हमारा काम जरूर करेगा और इस दिन तो कर ही देगा, ऐसा कभी नहीं सोचना। ऐसा भी हो सकता है कि काम न हो। इसलिए दोनों संभावनायें हैं तो दोनों क्यों नहीं सोचें? किसी ने हमारा काम कर दिया, तो ठीक। और नहीं किया तो यह शब्द दोहरायें- ”कोई बात नहीं”। इससे आपको गुस्सा नहीं आएगा या कम आएगा।
एक ही व्यक्ति पर पूरी तरह से आधारित मत रहिये। एक ही व्यक्ति पर पूरा भरोसा मत रखिये। अगर वो धोखा दे गया तो आपको बहुत मुश्किल हो जायेगी। उसका दूसरा विकल्प (ऑप्शन( अपने दिमाग में रखिये। इधर से काम नहीं हुआ तो दूसरे से, दूसरे से नहीं हुआ तो तीसरे से काम करायेंगे। इसी प्रकार चौथा, पाँचवा, छठा ऑप्शन रखिये। कहीं न कहीं तो काम हो ही जायेगा। अगर आपने अपने मन में चार, पाँच, छह ऑप्शन रख लिये कि यहाँ से नहीं तो वहाँ से, कहीं से तो काम होगा।
मान लीजिये कि- छह में से कहीं भी काम नहीं हुआ, तो एक सातवाँ ऑप्शन और भी रखिये अपने दिमाग में। वह ऑप्शन है- नहीं हुआ तो न सही, हम इसके बिना ही जी लेंगे। अगर यह सातवाँ ऑप्शन आपके दिमाग में है तो आपको कोई दुःखी कर ही नहीं सकता। आप कभी दुःखी नहीं होंगे और कभी क्रोध नहीं करेंगे। इस तरह से आप क्रोध को जीत सकते हैं।

(148) शंका :- कृपया द्वेष के पर्यायवाची बतलायें। द्वेष का अर्थ, बुरा लगना, अच्छा न लगना, घृणा करना, विरोधी समझना, गलत भावना बना लेना, क्या ठीक है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिये, द्वेष के पर्यायवाची कई हो सकते हैं और इनके स्वरूप भी छोटे-बड़े हो सकते हैं। द्वेष का मोटा सा अर्थ है, अच्छा न लगना। जब हमारे मन में दूसरे व्यक्ति के प्रति क्रोध आता है, जलन होती है, उसका नाम भी द्वेष है। किसी ने हमारी थोड़ी सी बेइज्जती कर दी और हमारे मन में इच्छा हो गई कि- ”अब इससे बदला लेंगे, इसका भी दिमाग दुरूस्त कर देंगे, यह अपने आपको क्या समझता है, मेरा भी अवसर आने दो, इसको दिन के तारे दिखा दूँगा।” व्यक्ति मन में ऐसा सोचता है और जलता-भुनता रहता है। इसका नाम नैमित्तिक द्वेष है। मन में अगर जलन होती है, गुस्सा आता है, बदला लेने की भावना आती है, मार डालने की इच्छा होती है तो यह नैमित्तिक द्वेष है। यह तो अभ्यास से हट जायेगा।
एक द्वेष का बहुत सूक्ष्म स्वरूप भी है ‘कोई चीज पसंद न आना’ वो स्वाभाविक है, वो हटेगा नहीं। यह तो जीवात्मा में सदा ही रहेगा। यह जीवात्मा का नित्य गुण है। हम अल्पज्ञ हैं, अल्प शक्तिमान हैं और हमारी रुचि हर वस्तु में हो भी नहीं सकती। कोई जरूरी थोड़े ही है कि हर चीज हमको अच्छी लगे। आपको खाने में हर आइटम पसंद नहीं आती हर सब्जी आप रुचिपूर्वक नहीं खाते। कोई खाते हैं, कोई नहीं खाते। यह तो स्वाभाविक बात है।

(149) शंका :- तेजो असि तेजो महि घेही’। इस मंत्र में हमने ईश्वर से क्रोध की और सहन-शक्ति की भी प्रार्थना की है। जो दोनों मुझे विरू(ार्थी लगते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अन्याय के प्रति पराक्रम दिखाकर, क्रोध करना चाहिये अर्थात् विरोध करना चाहिये या फिर अन्याय को सह लेना चाहिये? यह बहुत अच्छा प्रश्न है। दोनों अवसरों पर दोनों काम करने चाहिये। छोटा-मोटा अन्याय हो तो सह लेना चाहिये। बड़ी गड़बड़ हो और बिल्कुल हमारी जान पर आ गयी हो तो फिर अपनी रक्षा भी करनी चाहिये।
लड़ाई-झगड़ा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। व्यर्थ में किसी को मारना-पीटना, किसी को परेशान करना, किसी को दुःख देना हमारा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं। पर अपने जीवन की रक्षा करना तो हमारा अधिकार है। अपने जीवन की रक्षा तो हम करेंगे। महर्षि दयानंद जी का ही उदाहरण ले लीजिये। लोगों ने उन पर पत्थर फेंके, साँप फेंके, झूठे आरोप लगाए, बहुत उलटे- सीधे काम किये। कई बार जहर भी पिलाया तब भी उन्होंने कहा- ”चलो जाने दो, कोई बात नहीं”। अपनी रक्षा उन्होंने कर ली, अपना बचाव कर लिया, मारने की बात नहीं की थी। एक बार कुछ लोग जंगल में देवी के मंदिर में ले गए और वहाँ उनकी बलि चढ़ाने की तैयारी थी। वो जा तो नहीं रहे थे लेकिन ऐसे ही उनको बहका करके ले गए और वो चले गए तो वहाँ जाकर देखा, अरे यहाँ तो मामला गड़बड़ है। यह तो तलवार लेकर खड़ा है, मुझे मारेगा। तो वो फटाफट दीवार कूदकर भाग गए। देखो, उन्होंने अपनी रक्षा कर ली या नहीं। इसलिये अपनी रक्षा कर लेनी चाहिये, उसमें कोई आपत्ति नहीं है। वो तो हमारा जन्मसि( अधिकार है। भगवान ने भी छूट दे रखी है और सरकार ने भी छूट दे रखी है। अपनी रक्षा पूरी करो लेकिन खामखाँ दूसरे से झगड़ा मत करो। इस तरह से सहन भी करना चाहिये।
अगर हम सहन नहीं करेंगे तो फिर मनुष्य, मनुष्य नहीं रहेगा। फिर तो वो मशीन की तरह हो जाएगा। जैसे बिजली की मशीन थोड़ा सा भी उसको छू दो तो फट से करेंट मारती है। हम भी अगर कोई थोड़ा सा बस में, भीड़-भाड़ में पाँव पर पाँव रख दें और हम उसको दो थप्पड़ मारते हैं तो हम भी मशीन की तरह हो जायेंगे। फिर हम इंसान थोड़े रहेंगे। बस में भीड़ होती है, रेल में भीड़ होती है, बाजार में भीड़ होती है। कोई चलते-चलते थोड़ा सा टकरा गया, किसी का हाथ टकरा गया तो वहाँ तो ऐसा ही बोलना पड़ेगा कि- कोई बात नहीं, जाने दो, भीड़-भाड़ है, हो जाता है ऐसा। वहां तो सहन ही करना पड़ेगा। अगर कोई जबरन हमें परेशान करे तो फिर अपनी रक्षा भी करनी चाहिये। इतने कमजोर भी नहीं बनना चाहिये। फिर भी क्रोध करना तो ठीक नहीं है। क्योंकि क्रोध की अवस्था में बु(ि ठीक काम नहीं करती और व्यक्ति गलत काम कर बैठता है, जिससे उसकी हानि होती है।
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि’। प्रार्थना इसलिये करें, क्योंकि यहाँ पर ‘क्रोध’ का अर्थ ‘क्रोध’ नहीं है। जो प्रचलित अर्थ में क्रोध है, वह अर्थ नहीं है। यहाँ पर क्रोध का अर्थ है, ‘जो बुरे काम हैं, उनसे बचकर रहें।’ यदि हम उनसे बचकर नहीं रहेंगें तो बुरे काम हम सीख लेंगें और करने लगेंगें। तो यहाँ गौण अर्थ में क्रोध शब्द का प्रयोग है कि- बुरे कामों पर क्रोध करें, अर्थात बुरे काम न करें, उनसे घृणा (परहेज( करें, उनसे दूर रहें, उनसे बचकर रहें। क्रोध शब्द का अर्थ यह है।
साधारण व्यक्ति जब यह प्रार्थना करे तो इसका अर्थ यह है – मैं बुरे कामों का विरोध करूं अर्थात् मंस बुरे काम न करूं। बुरे लोगों से बचकर रहूँ, ताकि मेरा जीवन ठीक-ठाक चले।
इसका दूसरा अर्थ यह है कि जो राजा है, क्षत्रिय है, वह यह प्रार्थना करे- ‘हे ईश्वर! आप दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं। मुझे भी शक्ति दो, ताकि मैं इस धरती के सारे दुष्टों को ठीक कर दूँ। इन दुष्टों को दण्ड दूं ताकि ये जनता को परेशान न कर सकें। राजा की ओर से यह प्रार्थना है। राजा अपनी प्रार्थना करे।

(150) शंका :- हम लोग बेल्ट, जूता, चप्पल आदि चमड़े से बनी वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, तो क्या ये अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यदि जूता, चप्पल, बेल्ट इत्यादि चीजें प्राणियों को मार-मारकर बनाई जाती है, तो वो परोक्ष रूप से हिंसा है। यदि गांव में हम देखते है, कि कोई व्यक्ति चमड़े का काम करता है या स्वाभाविक मृत्यु से कोई पशु मर गया, वह उसका चमड़ा उतार अगर लाए, उससे जूते बना दिये, और उसका उपयोग करते हैं, तो कोई हिंसा नहीं। वेद में लिखा है – प्राणियों की हिंसा न करो, स्वाभाविक रूप से जो गाय-भैस मर जाते हैं, उसका चमड़ा उतारकर जूते बना लो, बेल्ट बना लो, और चीजें बना लो, तो उसमें हिंसा नहीं है। हाँ, चमड़े के लिए ही प्राणियों को मारा जाता है, तो वो हिंसा है। हमें इन सबसे बचना चाहिए। गाय दूध देना बंद कर दे, तो उसको मारकर खाना या उसको मारकर चमड़ा बनाना, यह हिंसा होगी।
मान लीजिए, हमारे दादा जी बूढ़े हो गए, अब वे काम नहीं कर सकते, कुछ पैसे नहीं कमाते। तो क्या दादाजी को मार देना चाहिए? यह कोई बात है भला? दादाजी हैं, या जो भी बड़े हैं, उनकी सेवा करो। गाय-भैंस ने पन्द्रह बीस साल दूध दिया, अब बूढ़ी हो गई, दूध नहीं दे सकती, तो कोई बात नहीं। उसने पंद्रह साल हमारी सेवा की, तो अब बुढ़ापे में हमको उसकी सेवा करनी चाहिए। चारा खिलाओ, उसकी रक्षा करो। उसको मारना नहीं है।

(151) शंका :- राजनीतिज्ञों की अहिंसा किस कोटि में रखनी चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आपके घर का व्यक्तिगत सवाल हो तो ठीक है। जैसे कि एक व्यक्ति ने आपको झापड़ मार दिया, आपके साथ धोखा कर दिया, उसे आप सहन कर सकते हैं। पर समाज के लिये, देश के लिये आप इस तरह से काम नहीं कर सकते हैं। देश किसी एक व्यक्ति की जागीर नहीं है। पहले इस बात को अच्छी तरह समझना।
राजनीति के नियम अलग हैं, और आध्यात्मिक-क्षेत्र के नियम अलग हैं। अन्याय को सहन करना, ब्राह्मण के लिए गुण है। लेकिन अन्याय को सहना करना, क्षत्रिय के लिए दोष है। इसलिए दोनों के नियम अलग-अलग हैं। अन्याय को अगर क्षत्रिय (सेना( सहना शुरु कर दें तो अहिंसा की रक्षा नहीं हो सकेगी।
अगर विदेशी शत्रु हमारे देश में घुस जायें और वो कहें कि हम तो तुम्हारे देश में शासन करेंगे। और हम कहें- ‘हाँ-हाँ ठीक है, तुम कर लो मगर हम तुमसे लडेंगे नहीं, हम तुमको कुछ नहीं कहेंगे, तुम हमारे देश में शासन कर लो, हम तुम्हारे गुलाम बनके रहेंगे, तुम हमारी शिक्षा, धर्म, माँ और बहनों को भ्रष्ट करोगे तो भी हम तुमसे लड़ेंगे नहीं क्योंकि हम तो अहिंसावादी हैं, हमे तो अहिंसा का पालन करना है।’
‘राजनीति’ एक अलग चीज है, ‘आध्यात्म’ एक अलग चीज है। अंहिसा, सत्य, आदि के जो उपदेश चल रहे हैं, यह आध्यात्मिक क्षेत्र की बातें हैं। गांधी जी की जो अहिंसा है, इस तरह की अहिंसा राजनीतिक क्षेत्र में नहीं चलती है। यह जो अहिंसा की बात है, आध्यात्मिक-क्षेत्र की बात है, राजनैतिक क्षेत्र इससे अलग है। उसमें तो राजनीति के नियमों से ही चलना पड़ता है। राजनीति में तो न्याय चलता है। वहाँ पर दण्ड चलता है। राजनीति में ऐसा थोड़े चलता है। यह तो हमारा देश है, हम इसके मालिक हैं। तुम यहाँ से बाहर निकलो। कोई किसी को हाथ जोड़कर यह कहे कि- अच्छा जी, तुम चले जाओ। क्या ऐसे कोई चला जाता है? केवल हाथ जोड़ने से अंग्रेज नहीं चले गए। यह ध्यान रखने वाली बात है कि जब क्रांतिकारियों ने अपने दल बनाये और धड़ाधड़ काकोरी-कांड किये और जबरदस्त सेनायें बनाईं, आजाद हिन्द सेना बनायी और अंग्रेजों को यहां रहना फायदेमंद नहीं लगा, तब जाकर अंग्रेजों का दिमाग ठिकाने आया। देश आजाद ऐसे ही नहीं हुआ। बहुत से देशभक्तों ने अपना जीवन बलिदान किया। तब जाकर के हमारा देश स्वतंत्र हुआ। सत्य, अहिंसा की जो आध्यात्मिक चर्चा है, यह आध्यात्मिक क्षेत्र में ठीक है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा इस रूप में नहीं चलता। वहाँ तो न्याय चलता।
जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हो गया, और यह निर्णय हो गया, कि हिन्दु लोग इधर आ जायेंगे और मुस्लिम-लोग उधर चले जायेंगे। तो भी गांधी जी ने कह दिया, कि चलो ‘कोई बात नहीं’, इनको इधर ही रहने दो। यह ‘कोई बात नहीं’ राजनीति में नहीं चलता। वहां तो, न्याय चलता है। चलो, ‘कोई बात नहीं’, यह नियम आध्यात्मिक क्षेत्र में चलता है। राजनीति में इस नियम को लागू करने का परिणाम अच्छा नहीं होता। गाँधीजी की जो अच्छी बात है,ं वो अच्छी बात सीख लो तो कोई बात नहीं। पर जो दोष हैं, उनको छोड़ देना चाहिये। उसको नहीं अपनाना चाहिये।

(152) शंका :- व्यक्ति किसी डेढ़ साल की बच्ची के साथ बलात्कार कर जान से मार देता है। वो पकड़ा जाता है। जज उसकी सजा फांसी के रूप में देता है। यह हिंसा है या अहिंसा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका उत्तर यह है, कि यह अहिंसा है। हमेशा याद रखें- जो न्याय है, वह अहिंसा है। और जो अन्याय है, वह हिंसा है। अगर जज उसको मृत्युदण्ड देता है, तो बहुत अच्छा करता है। यह न्याय है, अहिंसा है। हमारा शास्त्र यह कहता है, कि उसको यह दण्ड सड़क पर, चौराहे पर देना चाहिए। आजकल की भाषा में बोलें, तो दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम में बहुत से लोगों को बुलाना चाहिए। पचहत्तर हजार लोग उसमें बैठ सकते हैं। सबके सामने उसको फांसी दो। और उसका लाइव टेलीकास्ट करो। जैसे पूरे देश में क्रिकेट मैच का लाइव टेलीकास्ट करते हैं, वैसा उसका प्रसारण होना चाहिए। पूरे भारत के लोगों को दिखाओ, कि ऐसे अपराध करने वालों को क्या दण्ड दिया जाता है। ऐसे पाँच-दस लोगों को फांसी मिल जावे, तो पन्द्रह दिन के अन्दर ऐसे अपराध बंद हो जाएँगे। फांसी मिलेगी पन्द्रह लोगों को, और लाखों लोग इससे सुधर जाएँगे। महर्षि मनु जी का, वेद का यह संविधान है कि अपराधी को कठोर दण्ड देना चाहिए। एक-दो, पाँच-पन्द्रह को मिलेगा, लेकिन करोड़ों लोग सुधर जाएँगे। इसलिए वह न्याय है, अहिंसा है।

(153) शंका :- कीट, पतंग, मच्छर को लार्बा-ट्रीटमेन्ट से विनिष्ट करते हैं। यह कर्म करना चाहिये या नहीं, और इस कर्म का फल क्या होगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यदि मक्खी, मच्छर हमें परेशान करते हैं, तो हमें इनसे अपनी रक्षा करनी चाहिये। जैसे कोई पाकिस्तानी आतंकवादी हमारे देश में घुस आये, तो क्या हम उससे अपनी रक्षा नहीं करेंगे? करेंगे न। अपनी रक्षा करने का हमको अधिकार है, तो खिड़कियाँ, दरवाजे अच्छी तरह से बन्द रखें। वहाँ जाली लगायें, ताकि मच्छर अंदर न घुसें। कीट, पतंग, मच्छर तरह-तरह की बीमारियाँं अथवा रोग न फैला सकें।
स जहाँ तक हो सके, बिना मारे काम चलता हो, तो इनको न मारें। मान लीजिये, एक मच्छर हमारे हाथ में आकर बैठ गया। तो पहली बार उसको सूचना दें, वार्निंग दें, कि जाओ-जाओ, यहाँ मत काटो। ये हमारा हाथ तुम्हारे काटने के लिये नहीं है। कंधे पर आये,कान पर आये, कहीं भी आये, बैठे और काटने लगे तो एक बार, दो बार उसको वार्निंग देनी चाहिये, कि जाओ भाई! जाओ तुम्हारे खाने के लिये बाहर कूड़ा कचरा बहुत है, जाओ वो खाओ। हमारा शरीर तुम्हारे खाने के लिये नहीं है। यदि फिर भी वह नहीं मानता, आकर बार-बार बैठता है, तो दण्ड व्यवस्था लागू होती है। अब उसको दण्ड दे सकते है। अब आके बैठता है तीसरी बार, चौंथी बार तो अब उसको हल्के से मारना। एकदम जोर से नहीं। दण्ड देते समय द्वेष नहीं आना चाहिये। अगर आपने जोर से मारा, तो इसका मतलब मन में द्वेष आया। ध्यान रहे- द्वेष नहीं करना, गुस्सा नहीं करना। उसको प्रेम से दण्ड देना, जाओ भई! तुमको तीन बार समझाया, तुम नहीं जाते। इसलिए अब दण्ड मिलेगा। अब उसको ऐसे प्रेम से मारो। जाओ छुट्टी।
स और अगर कैमिकल छिड़कने पड़ते हैं, तो वह भी मजबूरी की बात है। तो उसमें थोड़ा बहुत पाप भी लगेगा। दो, चार, पांच, दस पर्सेन्ट, तो कोई बात नहीं, भोग लेंगे।
स अगर जीना है, तो प्राणियों को कुछ तो कष्ट देना ही पड़ता है। हमारे शास्त्रों में लिखा है, कि मनुष्य दूसरे प्राणियों को दुःख दिए बिना जी नहीं सकता। कुछ न कुछ तो हमारे कारण दूसरों को दुःख होता ही है। अपनी जान बचाने के लिए, अपनी रक्षा के लिए कुछ न कुछ तो दूसरों को कष्ट देना ही पड़ता है। जो मजबूरी है, सो ठीक है। मजबूरी मानकर करेंगे, जानबूझकर नहीं, द्वेष भाव से नहीं, अपनी रक्षा की भावना से करना चाहिए।
स कीड़ों से बचाने के लिए किसान कुछ दवाइयाँ छिड़कते है। उससे बहुत से कीड़े मरते हैं, तो उसमें दोष तो लगता है। यह ठीक बात है। लेकिन उस फसल की रक्षा करने से मनुष्य आदि प्राणियों को खाने को भोजन मिलता है। इससे उनके जीवन की रक्षा भी होती है। कुछ हानि होती है, और बहुत सारा पुण्य मिलता है। इस प्रकार से इसको मिश्रित कर्म कहते है।
स इसका प्रायश्चित्त यह है कि कुछ प्राणियों को खाने को भी दो। जैसे कौवे आते हैं, कबूतर आते हैं, वे खेत में फसल खाते हैं, तो उनको खाने भी दो। उनके कोई अलग से फैक्ट्री, कारखाने, व्यापार तो है नहीं। वो बेचारे प्राणी कहाँ खाएंगे? यहीं तो खाएंगे। भगवान ने जो फसल पैदा की है, वह मनुष्य के लिए भी है और कौवों-कबूतरों के लिए भी है। उनको भी खाने दो। वे इतना नहीं खा लेंगे कि मनुष्य के लिए कुछ भी न बचे। थोड़ा वो भी खाएं, थोड़ा हम भी खाएं। पंच महायज्ञ है। उसमें जो बलि वैश्वदेव यज्ञ है, वह एक प्रकार से प्रायश्चित्त के रूप में हैं। आप उनका अनुष्ठान करें।
फिर दो-पांच पर्सेन्ट जो दण्ड मिलेगा, भोग लेंगे। क्या दण्ड होगा, पूरा-पूरा तो हम नहीं कह सकते। थोड़ा बहुत, जो भी दण्ड होगा,भोग लेंगे।

(154) शंका :- किसी ने वृक्ष को योनि माना है और किसी ने नहीं माना है, इसमें से कौन सा पक्ष सत्य है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जिसने वृक्ष को योनि माना है, उसका पक्ष ठीक है। वृक्ष एक योनि है, कर्मों का फल है। यह ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के नौवें समुल्लास में लिखा है, कि जो व्यक्ति शरीर से पाप करता है, चोरी आदि बुरे कर्म करता है, उसको वृक्ष का जन्म मिलता है। यह शारीरिक अपराधों का दंड है।
वृक्ष में भी आत्मा है। जैसे मनुष्यों में आत्मा होती है, वैसे ही वृक्षों में भी आत्मा होती है। जैसे मनुष्यों से उसी जाति की, उसी नस्ल की आगे वृ(ि होती है, ऐसे ही वृक्षों में भी होती है। इससे सि( होता है कि उनमें भी जीवन है, उनमें भी आत्मा है।
वस्तुतः वो भी पूर्वकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं। कर्मफल तो सुख-दुःख का अनुभव करना है। अगर यह माना जाये, कि वृक्ष सुख-दुःख अनुभव नहीं करते, तो फिर वो कर्मफल (योनि( नहीं मानी जायेगी। कर्मफल तो वृक्ष अनुभव करते हैं। वृक्ष, पेड़-पौधे, वनस्पति आदि भोग योनि हैं। इनके अन्दर इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि सारे गुण होते हैं। लेकिन वे थोड़ी बेहोशी की अवस्था में है, नशे में हैं, पर आत्मा तो है न उनमें। अगर उनमें कुछ भी कष्ट न माना जाये, जीरो कष्ट मान लें, फिर वो व्यवस्था फेल हो जायेगी, कि कर्मफल नहीं हुआ। वृक्षों के बारे में महर्षि मनु जी ने लिखा है कि- अन्तः संज्ञा भवन्त्येते। सुख दुःखसमन्विताः।
अर्थात् वे वृक्षादि सुख-दुःख से युक्त हैं। वे आंतरिक सुख-दुख भोगते हैं, लेकिन बाहर के स्थूल सुख-दुःख नहीं भोगते। जैसे कुत्ते को डंडा मारो, तो वह चिल्लाता है और भागकर अपनी जान बचाने की कोशिश करता है। वृक्ष को डंडा मारो, तो वह चिल्लायेगा नहीं, भागेगा नहीं, जान बचाने की कोशिश नहीं करेगा। इस प्रकार पशुओं और वृक्षों की बाहरी क्रियाओं में तो अंतर हैं, लेकिन अंदर से बेचारों (वृक्षों( को वहाँ खड़ा करके रखा गया है। वृक्ष मनुष्यादि प्राणियों के समान भाग नहीं सकता, चल नहीं सकता, कुछ कर्म नहीं कर सकता, आँख नहीं खोल सकता, सुन नहीं सकता, देख नहीं सकता। यह सारा दुःख तो उसको आंतरिक रूप से भोगना ही पड़ेगा। नहीं तो कर्मफल क्या हुआ? वो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था है। इसलिए वो ही जाने।

(155) शंका :- क्या वृक्षों में ज्ञान भी होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ, वृक्षों में ज्ञान होता है। अब देखिये, एक चीकू का वृक्ष है और एक नीबू का वृक्ष है। मान लीजिये दोनों पास-पास हैं। तो चीकू का वृक्ष जमीन में से अपने अनुकूल भोजन खींचेगा और नीबू का वृक्ष जमीन में से अपने अनुकूल भोजन खींचेगा। उनमें अपने अनुकूल भोजन ग्रहण करने का ज्ञान है। यदि वृक्ष में ज्ञान ही नहीं है, कि मेरे अनुकूल कौन सा भोजन है, तो कैसे खींचेगा? इससे पता चलता है, कि उसमें ज्ञान है, कि ‘पृथ्वी में से मुझे कौन से परमाणु खींचने हैं, कौन से मेरे अनुकूल हैं।’ चीकू का पौधा, नींबू का पौधा, मिर्ची का पौधा, सबको पता है, कि मुझे कौन से परमाणु खींचने हैं। जैसे गाय और घोड़े को पता है, कि मुझे क्या खाना है और क्या नहीं खाना। गाय के आगे घास रख दीजिये, खा लेगी। और माँस रख दीजिये, नहीं खायेगी। कुत्ते के सामने आप माँस रख दीजिये, खा लेगा और रोटी रख दीजिये, खा लेगा और घास का गठ्ठर रख दीजिये, नहीं खायेगा। कुत्ता कभी-कभी घास खाता है। उसका पेट खराब हो, तो वो कभी-कभी उल्टी करने के लिये खाता है, भोजन के तौर पर नहीं खाता। वृक्ष को भी पता है, मुझे क्या खाना है और क्या नहीं खाना है अर्थात् उसमें ज्ञान है।

(156) शंका :- शंका- वृक्ष में जीवन है या नहीं है? क्या वनस्पति में आत्मा होती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वृक्ष साँस लेता है, वृक्ष जीवित रहता है, और मिट्टी, पानी खुराक भी लेता है, धूप भी लेता है। और फिर उसके बाद जैसे मनुष्यों से आगे मनुष्य पैदा होते हैं, गाय-घोड़े से गाय-घोड़े पैदा होते हैं, वैसे ही वृक्षों से आगे वृक्ष भी पैदा होते हैं। वैसे ही वनस्पतियों की भी नस्ल से आगे वैसी ही नस्ल चलती हैं। उनकी पीढ़ी (जनरेशन( भी आगे चलती है। संतति-उत्पत्ति भी होती है। जैसे आलू से आलू होता है, टमाटर से टमाटर होता है, गेहूँ से गेहूँ होता है। ये सारे लक्षण जीवन को सि( करते हैं।
और यदि जीवन है, तो वहाँ आत्मा है। जैसे मनुष्य जीवित रहता है, सांस लेता है, वैसे ही वनस्पतियाँ भी सांस लेती है, अतः उनमें भी जीवन होता है। इनमें आत्मा होती है, ऐसा ही मानना चाहिये।

(157) शंका :- एक की जमीन पर दूसरा ताकतवर होने के नाते कब्जा कर ले। तो क्या साधक वही तीन शब्द कहकर छोड़ दें कि ‘कोई बात नहीं’, अथवा फिर क्या करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यदि किसी ने हमारी जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया है, तो उसे प्राप्त करने के लिये हर संभव कोशिश तो करनी ही चाहिये। प्रेम से, सभ्यता से, ठीक-ठाक शांतिपूर्वक बातचीत से अपनी जमीन को वापस ले सकते हो, तो ले लो। पूरा प्रयास करने पर भी अगर वो हाथ में नहीं आती है और उसके बिना भी हमारा काम चलता है और अगर हमें मोक्ष में जाना है, तो फिर झगड़ा नहीं करना चाहिये। फिर कोई जमीन खाये तो खाये, कोई चिंता नहीं। आपको अगले जन्म में दे देगा न्यायकारी ईश्वर। और मोक्ष में नहीं जाना है, तो फिर तो बहुत से रास्ते खुले हैं। लाठी उठाओ, गोली चलाओ, पिस्तौल उठाओ, कोर्ट में जाओ, जेल में जाओ, कुछ भी करो। लेकिन मोक्ष में जाना है तो झगड़े से बचना पड़ेगा।

(158) शंका :- क्या सृष्टि के आदि में जितनी आत्मायें थी, उतनी ही आज हैं अथवा कम या ज्यादा होती रहती हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मायें उतनी ही हैं, न कम होती हैं, न बढ़ती हैं। कम तो तब होंगी, जब मर जावें। जब मर जायेंगी, तो कम हो जायेंगी। और आत्मा बढ़ेंगी तब, जब नई पैदा होंगी। नई पैदा हो आत्मायें, तो बढ़ जायेंगी। क्या आत्मा पैदा होती हैं, और क्या आत्मायें मरती हैं? आत्मा न मरती हैं, न जन्म लेती हैं। वे उतनी की उतनी ही रहेंगी। इसलिये आत्मायें उतनी ही हैं। अनादिकाल से जितनी थीं, उतनी ही आज हैं। अनन्त काल तक आगे भी उतनी ही रहेंगी, न घटेंगी, न बढ़ेंगी।

(159) शंका :- आत्मा’ अणु के बराबर होती है जबकि चेतना हमारे सारे शरीर में व्याप्त है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा ‘अणु-स्वरूप’ मतलब बहुत सूक्ष्म होती है। जीवात्मा बहुत छोटा है।
चेतना तो सारे शरीर में व्याप्त है। सिर से पाँव तक हमें सब जगह अनुभूति होती है। अनुभूति सारे शरीर में होती है, ईश्वर ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है। आत्मा एक ही स्थान पर रहता है, और नस-नाड़ियों के माध्यम से और तंत्रिका-तंत्र के माध्यम से शरीर में अनुभूतियों की व्यवस्था कर रखी है। जैसे- एक फैक्ट्री का मालिक अपने कार्यालय में- (एक जगह( बैठा रहता है। और उसने फैक्ट्री के अलग-अलग दो कमरों में वीडियो कैमरे लगा रखे हैं। उन कैमरों की सहायता से वह एक जगह बैठकर फैक्ट्री के अनेक कमरों की जानकारी करता रहता है। इसी प्रकार से मन है, बु(ि है, इंद्रियाँ हैं, इन सारे उपकरणों के माध्यम से जीवात्मा को एक ही स्थान पर रहते हुए भी पूरे शरीर की बहुत सारी मोटी-मोटी अनुभूतियाँ हो जाती है, लेकिन सारी नहीं। आपको पेट में क्या रोग हो रहा है? आपको पता नहीं है। जब वो काफी बढ़ जाता है, दर्द होने लगता है, तो जाते हैं, डॉक्टर साहब के पास। फिर वो चेकअप करते हैं, और बताते हैं कि साहब, ये बीमारी तो तीन साल से चल रही है। आपने चेकअप ही नहीं कराया, इसलिए तीन साल बाद पता चला। इस तरह आत्मा को सब बातों का पता नहीं चलता, मोटी-मोटी अनुभूतियाँ अवश्य हो जाती हैं। कहीं पेट दुख रहा है, पाँव दुख रहा है, सर दुख रहा है, जो भी हो रहा है, वह मोटा-मोटा पता चलता है। वो ईश्वर की व्यवस्था है।

(160) शंका :- आत्मा का क्या परिमाण है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा बहुत छोटा है यह इतना छोटा है कि ऐसे-ऐसे जीव-जन्तुओं में भी आत्मा होता है जिन्हें हम आंख से देख नहीं सकते, कभी-कभी माइक्रोस्कोप से भी नहीं देख पाते।

(161) शंका :- जीवात्मा का स्वरूप क्या है? क्या जीवात्मा निराकार है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा ‘अणु-स्वरूप’ मतलब बहुत सूक्ष्म होती है। आत्मा एक जगह रहती है। वह स्थान नहीं घेरती। जीवात्मा निराकार है। नियम सुन लीजिये। जो वस्तु चेतन होती है, वो निराकार होती है। ईश्वर चेतन है या जड़? चेतन। ईश्वर साकार है या निराकार? निराकार। ईश्वर चेतन है, ईश्वर निराकार है। जीवात्मा चेतन है या जड़? उत्तर है- चेतन है। तो वो भी निराकार है, जैसे ईश्वर। और यह प्रकृति जड़ है या चेतन? जड़। प्रकृति जड़ है, तो वो साकार है। दोनों नियम साफ हैं। जो वस्तु चेतन होती है, वो निराकार होती है। जो वस्तु जड़ होती है, वो साकार होती है। प्रकृति जड़ है, वो साकार है। ईश्वर और जीव चेतन हैं, वो दोनों निराकार हैं। मन, आदि जड़ होने के कारण सब साकार हैं। इनका आकार बहुत छोटा है। हम देख नहीं पाते, वो अलग चीज है। लेकिन हैं ये सब साकार। प्रकृति- (सत्त्व, रज, तम( वो भी जड़ हैं, वो भी साकार हैं।
महर्षि दयानंद जी ने ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में लिखा है कि- साकार वस्तु से ही साकार वस्तु उत्पन्न हो सकती है। निराकार से साकार नहीं हो सकती। एक संदर्भ में लिखा है- जहाँ पर ये लोग मानते हैं, कि यह जगत ईश्वर का ही रूपांतर है, मतलब ईश्वर से ही यह जगत बना है, इस जगत का रॉ-मटेरियल ईश्वर है। इसके संदर्भ में महर्षि दयांनद जी ने लिखा, कि- ईश्वर साकार है या निराकार? यदि ईश्वर निराकार है, और जगत का उपादान कारण ईश्वर होवे, तो जगत भी निराकार होना चाहिये, परंतु जगत तो साकार है। इससे सि( हुआ, कि इसका रॉ-मटेरियल भी साकार है। जगत साकार है, यह प्रत्यक्ष है। इससे अनुमान हुआ, कि जो इसका उपादान कारण प्रकृति है, वो भी साकार है। उसी प्रकृति से- (साकार सत्, रज, तम से( ही मन, इन्द्रियाँ, बु(ि, शरीर आदि सब पदार्थ बने हैं। इसलिये मन, बु(ि, इन्द्रियाँ जड़ भी हैं, साकार भी हैं।

(162) शंका :- मैं नेत्रहीन हूँ, पर स्वप्न क्यों आते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अनेक जन्मों के संस्कार इस जन्म में साथ में आते हैं। अब संस्कार से ही स्वप्न पैदा होता है। स्वप्न की उत्पत्ति संस्कारों से होती है। अब यह तो मेरा अनुभव नहीं है। मैं सीधा-सीधा प्रत्यक्ष नहीं कह सकता, कि पूर्वजन्म के संस्कारों से भी स्वप्न आते हैं, या नहीं आते। आपको रूप का स्वप्न नहीं आता, इससे यह संभावना लगती है, कि पूर्वजन्म के संस्कार से स्वप्न नहीं आ रहा क्योंकि पूर्वजन्म में तो आपकी आँख ठीक-ठाक रही होगी। यह तो इसी जन्म में बिगड़ी है। या ऐसा मान लिया जाए, पिछले बीस जन्म से बिगड़ी है। ऐसा तो नहीं मान सकते न। आँख से उस समय तो आपने दृश्य देखे होंगे। वो संस्कार इस जन्म में साथ में चले आए। पर इस जन्म में आपको रूप का दर्शन नहीं हुआ और आपको रूप का स्वप्न भी नहीं आया। आपकी इस बात से यह लगता है, कि पूर्वजन्मों के संस्कारों से इस जन्म में स्वप्न नहीं आ रहे। सुनकर तथा अन्य इन्द्रियों के विषयों को भोगने भी संस्कार बनते हैं, और उन संस्कारों से स्वप्न आते हैं। यह बात है। जो आपके प्रश्न का उत्तर है।

(163) शंका :- मृत्यु से भय क्यों लगता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मृत्यु से भय का कारण है- ‘अविद्या’। सवाल उठता है, कि इस अविद्या को कैसे दूर करें? बताइये, आप शरीर हैं या आत्मा? आत्मा। क्या आत्मा का जन्म होता है? नहीं। आत्मा का जन्म नहीं होता। क्या आत्मा मरती है? नहीं मरती। आत्मा का जन्म भी नहीं होता और आत्मा मरती भी नहीं, तो फिर मरने से डरना क्यों? मृत्यु से डर तो इसलिये लगता है, कि हम शरीर को आत्मा समझने की भूल करते हैं, यह गड़बड़ है। यह सबकी समस्या है।
सब लोग शरीर को आत्मा मानते हैं, यही अविद्या है। इस अविद्या को दूर करें। ‘शरीर’ अलग है, ‘आत्मा’ अलग है। शरीर का जन्म होता है, शरीर की मृत्यु होती है। आत्मा का जन्म नहीं होता, आत्मा की मृत्यु नहीं होती है। और हम शरीर नहीं हैं, हम तो हैं आत्मा। तो फिर मरने से क्या डरना? मौत आएगी, तो आएगी।
हम आत्मा हैं, शरीर हमारी गाड़ी है, आत्मा इस शरीर में बैठा है। आत्मा शरीर में बैठने से, वो दो चीज नहीं हो जाता। जैसे आप कार में बैठ गए तो क्या आप दो चीज बन गए? आप कार में बैठ गए तो केवल इतना ही तो है, कि आप कार में बैठे हैं। बैठ गए, फिर उतर जायेंगे, अलग हो जायेंगे। ऐसे ही ‘आत्मा’ शरीर में बैठा है, फिर छोड़कर अलग हो जाएगा। इतनी सी बात है। कार में बैठने से व्यक्ति कार नहीं बनता, यथावत् दोनों का संयुक्त स्वरूप नहीं हो जाता। ऐसे ही आत्मा के शरीर में बैठने से शरीर और आत्मा दोनों का मिश्रित (मिक्स( स्वरूप नहीं हो जाता है। हम शरीर को आत्मा मानते हैं अथवा दोनों को मिलाकर एक चीज मानते हैं, यही तो अविद्या है। इसी अविद्या के कारण मृत्यु से डर लगता है।

(164) शंका :- वृक्षों’ के अंदर ‘जीवात्मा’ कहाँ रहता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका उत्तर है- वृक्षों की जड़ में। जब तक वृक्ष की जड़ सलामत है, तब तक वृक्ष जीवित है। यदि जड़ को उखाड़ दिया जाये, तो फिर वह मर गया। ऊपर से काटते-छाँटते रहो, लेकिन जड़ पर प्रहार मत करो। कई बार ऊपर से वृक्षों को काट देते हैं, लेकिन वो मरते नहीं, फिर दोबारा खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब जीवात्मा वृक्ष की जड़ में होना चाहिए।

(165) शंका :- वृक्ष में भी आत्मा है तो वनस्पति खाना, प्रयोग में लाना ठीक नहीं है, उसे हम किस अधिकार से दण्डित करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिये! वनस्पति, पेड़-पौधों में हम यह मानकर चलते हैं, कि इनमें जीव है, आत्मा है। कारण कि, उसके सारे जीवन व्यवहार से ऐसा पता चलता है। वनस्पति भी सांस लेते हैं, इनमें भी रीजेनरेशन होता है। जैसे मनुष्य में होता है, गाय, घोड़ों, पशु-पक्षियों में होता है, वैसे ही पेड़-पौधों में भी होता है। इसलिए हम मान लेते हैं, कि इनमें जीवात्मा है।
अब रही बात यह, कि पेड़-पौधों को, वनस्पतियों को, फल-फूल, अनाज को खाये, काटें, तो इसमें पाप लगता है या नहीं लगता है? तो इसका उत्तर यह है, कि इसमें पाप नहीं लगता।
बहुत से लोग शंका करते हैं, कि क्यों जी! गाय-घोड़े में आत्मा है, उसको मार के खाते हैं, तो उसमें तो पाप लगता है। इन पौधों में भी आत्मा है। जब इनको काट कूट कर खायेंगे, तो इनमें पाप क्यों नहीं लगता। मैंने कहा कि साइंस के सि(ान्तों पर तो यह प्रश्न ही नहीं उठा सकते, कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, इनको काट के खायें, तो हमको पाप लगेगा कि नहीं लगेगा। विज्ञान के सि(ान्तों के अनुसार तो आत्मा की सत्ता का कोई उल्लेख उनकी किताबों में नहीं है।
आध्यात्मिक शास्त्रों (वेद आदि( के आधार पर आपका प्रश्न हो सकता है, कि इनमें आत्मा मानते हैं, तो इनको खायेंगे, तो पाप लगेगा कि नहीं लगेगा? जिस किताब के आधार पर आपका प्रश्न है, उसी किताब से उसका उत्तर भी मिलेगा। तो क्या उत्तर मिलेगा? यर्जुवेद में लिखा है- ‘गोधूमाश्च, यवाश्च तिलाश्च, माशाश्च”- गेहूं खाओ, तिल खाओ, उड़द खाओ, जौ खाओ, घी-दूध खाओ, दही खाओ, मक्खन खाओ, मलाई खाओ, मिठाई खाओ, गाय का घी खाओ, दूध पियो। ”सं सिंचामि गवां क्षीरम्” भगवान कहते हैं- गाय का दूध पियो, घी खाओ, मक्खन खाओ, गेहूं का प्रयोग करो, सब अनाज का प्रयोग करो। ”रसम् ओषधीनाम्” औषधियों का रस निकाल-निकाल करके पियो। हमने कहा कि हमारा जो
धर्मशास्त्र है, वह तो हमको छूट देता है, कि औषधियों का प्रयोग कर सकते हैं, वनस्पतियों का प्रयोग कर सकते हैं। जब कानून हमें इजाजत देता है, वो हमें छूट देता है, कि इसका प्रयोग कर सकते हैं। इसलिये सब्जी-भाजी, गेहूँ-चावल खाना अपराध नहीं है, कोई पाप नहीं है, कोई हिंसा नहीं है। और जो भेड़-बकरियों में आत्मा है, उसको मार के खायेंगे, तब उसमें पाप है। क्योंकि किताब- (वेदादि( में लिखा है- ”अविं मा हिंसीः” भेड़ को मत मारो, ”अजाम् माँ हिंसीः, गां मां हिंसीः बकरी,” गाय को मत मारो। ”शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे” दो पांव वाले मनुष्यों का कल्याण हो, चार पांव वाले गाय आदि प्राणियों का कल्याण हो। उनको मारके नहीं खा सकते।”मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्” तो हमारे शास्त्र में लिखा है- गाय-घोड़ों को नहीं मारो, उनको मारेंगे, तो पाप लगेगा। और वनस्पतियों को खाओ, उनको खायेंगे, तो कोई पाप नहीं लगेगा। ईश्वर के कानून का पालन करना पाप नहीं है। ईश्वर के कानून का उल्लंघन करना पाप है।

(166) शंका :- बेटा अपने पिता पर न्यायपूर्वक क्रोध करता है, वह हिंसा है या अहिंसा है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अगर न्यायपूर्वक कोई बात कहनी है, तो क्रोध में नहीं कहें। क्रोध में कोई बात कहना तो हिंसा है। वही बात प्रेम से भी की जा सकती है। पिताजी को प्रेम से कहें, कि आपकी यह बात ठीक नहीं है। हम यह नहीं करेंगे। हम इसे नहीं स्वीकारेंगे।
इसी तरह नौकर को अपने मालिक पर क्रोध करने का अधिकार नहीं है। नौकर को अगर मालिक की बात गलत लगती है, तो वह प्रेम से बोल दे, कि यह काम ठीक नहीं है। मैं नहीं करूँगा। मालिक नौकर को नौकरी से निकाल सकता है। अगर इतनी हिम्मत है, तो कह सकते हैं, कि मैं नौकरी नहीं करूँगा।

(167) शंका :- कृषि करने के दौरान केंचुआ आदि छोटे जीवों की मृत्यु हो जाती है। फिर हम हिंसावादी हुए कि नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

कृषि करने से लाभ भी होता है, बहुत सा पुण्य भी मिलता है। खाने को बहुत सा अन्न मिलता है, बहुत से प्राणियों की रक्षा होती है। कृषि करने से कुछ प्राणी मर भी जाते हैं, इससे हिंसा भी होती है।
स इस प्रकार कृषि से कुछ पुण्य होता है और कुछ पाप होता है। इसलिए कृषि को मिश्रित-कर्म कहा जाता है।
स अगर आप मिश्रित कर्म के फल से बचना चाहते हैं, तो खेती छोड़ दें। दूसरा खेती करेगा, जिसको करनी हो। हर व्यक्ति एक ही काम करे, यह आवश्यक नहीं है। अपनी रुचि के अनुसार वह अपना व्यवसाय चुन ले। जिसकी जैसी रुचि होगी, वह वैसा काम करेगा। योग्यता भी हो, और रुचि भी हो, तभी काम को करना चाहिए।

(168) शंका :- पाकिस्तानी हमारे जवानों को बार-बार धोखे से मारते हैं, क्या हमें उनको नहीं मारना चाहिए? मारना हिंसा है, तो क्या करे?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पाकिस्तानी लोग हमारे जवानों को मारते हैं तो हमारे जवान भी उनको मारेंगे, वे चुपचाप क्यों बैठेंगे? ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। सेना विभाग क्षत्रियों का है। कोई विदेशी शत्रु हमारे घर में घुसेगा, तो क्षत्रिय उसको नहीं घुसने देंगे, उसको दण्ड देंगे।
पाकिस्तानी हमारे देश में घुसता है, तो क्या यह न्याय है या अन्याय? अन्याय है न। अन्याय का विरोध करना, यह न्याय है। वो हमारे देश में क्यों घुसता है? आप अपने घर में रहो, हम अपने घर में रहेंगे। आप जबरदस्ती हमारे घर में घुसेंगे, तो हम उसका प्रतिकार करेंगे। यह हमारा जन्मसि( अधिकार है। यह हमारी मातृ-भूमि है। इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, हमारा धर्म है। कोई भी विदेशी शत्रु हमारे घर में घुसेगा, हम उसका दिमाग ठीक कर देंगे। हम उसको मार-पीट कर बाहर निकाल देंगे। और ज्यादा गड़बड़ करेगा, तो पूरा ही मार डालेंगे। इसका नाम हिंसा नहीं है। इसका नाम अहिंसा है। हिंसा के विरु( व्यवहार अहिंसा है।
वह अन्यायपूर्वक हमारे देश में घुसता है। इसलिए हिंसा तो उसने की, हमने थोड़े की। हमने तो उस हिंसा का विरोध किया, तो वह अहिंसा हुई।
यह काम क्षत्रिय विभाग को दे देंगे, वो अपना काम करता रहेगा। हम अपने योगाभ्यास में, अपने क्षेत्र में काम करेंगे। इस तरह से इसका उत्तर समझना चाहिये।

(169) शंका :- योगदर्शन में’अहिंसा’ का क्या अर्थ है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

किसी से भी वैर-भाव नहीं रखना, द्वेष नहीं करना, बिना किसी अपराध के, कठोर भाषा नहीं बोलना, किसी पर अत्याचार नहीं करना, अन्याय नहीं करना, अहिंसा का यह मतलब है।

(170) शंका :- आयुर्वेद में लिखा है, कि ‘मांस खिलाओ और वह वैद्य माँस खिलाये, तो क्या उसको पाप नहीं लगेगा।’

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आयुर्वेद में भी मिलावट है। आयुर्वेद कौन से ग्रन्थ का उपवेद है? वेद का है न। तो आयुर्वेद का बेस तो वेद है। अब बेसिक ग्रन्थ वेद को देखो। क्या उसमें मांस खाने को लिखा है। हाँ या न? नहीं। जब नहीं लिखा वेद में मांस खिलाना, तो क्यों खिलायें। तो इससे पता चला कि आयुर्वेद में मिलावट है। वो आयुर्वेद का अपना सि(ांत है ही नहीं।
स आयुर्वेद के अंदर, चरक के अंदर, राजयक्ष्मा रोग की उत्पत्ति क्या लिखी है। चन्द्रमा की सत्ताइस कन्यायें थीं। और उसके कारण वो रोग हुआ। क्या गप्पें मार रहे हैं। क्या चन्द्रमा की सत्ताइस कन्यायें हो सकती हैं। ऐसी-ऐसी कत्थकड़ आयुर्वेद के अंदर, बिना सिर पैर की बातें मिला दी हैं। तो माँस खाने का विधान चाहे वो चरक में हो, चाहे अन्य ब्राह्मण ग्रन्थ में हो, वो सब बाद की मिलावट है। वो वेद के अनुकूल नहीं है।
स वेद के अंदर व्यक्ति को शाकाहारी भोजन खाने का विधान किया है। यजुर्वेद का मंत्र हैः- ‘गोधूमाश्च यवाश्च तिलाश्च माशाश्च’ अथर्ववेद का मंत्र हैः- रसमोषधीनाम् अर्थात् औषधियों का रस पियो। ‘सं सिंचामि गवां क्षीरम्’ अर्थात् ईश्वर कहता है, कि मैं मनुष्यों के लिये गाय का दूध दे रहा हूँ, गाय का दूध पियो, यह अथर्ववेद में लिखा हैः- ‘पृषदाज्यम्’- ‘प्रसादायम्’ घी खाओ, दही खाओ, मक्खन खाओ, मलाई खाओ, शाकाहारी भोजन खाओ। वेद का यह सि(ान्त है। तो जो आयुर्वेद में मांस खाने का लिखा है, वह मिलावट है।
स जब वेद कहता है, ‘मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षत्ताम् क्षन्ताम्’ सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखो। भेड़-बकरी मार के खायेंगे, तो मित्र को कोई मारता है क्या? इसलिये वे सब गड़बड़ बातें हैं, उनको छोड़ देना चाहिये।
स शरीर में मांस की कमी हो गई तो मांसवर्धक शाकाहारी भोजन बहुत मिलता है, जो मांस की वृ(ि करता है। आप घी खाईये, मक्खन, मलाई, मिठाई, केला, आलू, अरबी आदि लीजिये, देखिये मांस बढ़ जायेगा। अच्छा खुश रहिये और थोड़ा अच्छे से सो जाईये। खूब खाए और खूब सोए, देखो आदमी मोटा हो जायेगा। खामख्वाह कुढ़ता रहे, दुःखी होता रहे, तो सारी चरबी उतर जायेगी, कमजोर पड़ जायेगा, घिस जायेगा। आयुर्वेद में अपने शाकाहारी तरीके से भी शरीर की वृ(ि, विकास बहुत लिखा है। उस हिसाब से हमको करना चाहिये।

(171) शंका :- हमें किस सीमा तक सहनशील होना चाहिऐ और कब प्रतिकार करना चाहिए? यदि कोई माता-पिता का अपमान करे तो क्या सहन करना उचित होगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका उत्तर यह है कि कोई हमारे ऊपर छोटा-मोटा आरोप लगाए तो हमें उसको सहन कर लेना चाहिए। कोई माता-पिता का अपमान करे तो उसको रोकना चाहिए। उसको सहन नहीं करना चाहिए। उसको सावधान करना चाहिए किः- ”तुम ऐसा गलत काम मत करो, अपनी सीमा में रहो।” हमें इतने कायर, कमजोर भी नहीं बनना चाहिए कि कोई अगर एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो कि, हाँ भई, ले मार। ऐसा नहीं चलता है। स्वाभिमान से जीना चाहिए।
स हमारा उद्देश्य किसी से झगड़ना नहीं है। हम किसी को परेशान नहीं करना चाहते, पर कम से कम कोई हमें भी तो परेशान न करे। आप सम्मान से जियो, हमको भी जीने दो।
स हम आपको तंग नहीं करते तो आप हमको क्यों तंग करते हो? आप अपने ढंग से जीयो, हम अपने ढंग से जीएंगे। आप हमारे माता-पिता का अपमान करेंगे, यह नहीं चलेगा। आपको हम टोकेंगे, सावधान कर देंगे।

(172) शंका :- रोग दूर करने के लिए और स्वच्छता के लिए आज कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल अनिवार्य हो गया है, क्या ऐसा करना भी हिंसा करना होगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आप अपनी जीवन रक्षा के लिये कीड़े-मकोड़े आदि प्राणियों को मारते हैं। दरअसल, वह हिंसा तो है ही। उसका थोड़ा बहुत दोष भी लगेगा। यह अलग बात है कि आप खेती करते हैं, बहुत सा अनाज उत्पन्न करते हैं, उससे बहुत से प्राणियों की रक्षा करते हैं, उससे पुण्य भी मिलेगा। पर जितना-जितना प्राणियों को दुःख देते हैं, उतना-उतना हिंसा भी मानी जायेगी।

(173) शंका :- दुष्ट-प्रकृति के लोग हमारे साथ हिंसा कर दें, तो किस-किस अवस्था में हम कैसा-कैसा व्यवहार करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पहले से सावधानी रखें।
स अच्छे-बुरे लोगों की पहचान करें, कि कौन व्यक्ति अच्छे स्वभाव का है, कौन व्यक्ति खराब स्वभाव का है। अगर इस दुनिया में ठीक तरह से जीना है, तो हमको अच्छे-बुरे की पहचान करना सीखना पड़ेगा।
जो अच्छे स्वभाव का है, उसके साथ मित्रता रखें, उससे दोस्ती रखें, उसके साथ उठना-बैठना रखें, लेन-देन का व्यवहार रखें। जो खराब स्वभाव के लोग हैं, उनसे दूर रहें, बच के रहें, उनसे झगड़ा भी नहीं करना और उनसे रिश्ता भी नहीं रखना। उनसे अलग ही रहें। अच्छे लोगों से मित्रता बनायें, खराब लोगों से दूर रहें।
स और फिर भी मान लो, कोई ऊँचा-नीचा व्यवहार कर दे, और थोड़ा-बहुत नुकसान कर भी दे, तब भी उस पर गुस्सा नहीं करना, क्रोध नहीं करना, चुपचाप कन्नी-काटकर अपना बचाव कर लेना। दुष्टों से झगड़ा नहीं करना, जहाँ तक हो सके झगड़े से बचने की कोशिश करना।
स जिनको आध्यात्म में विशेष उन्नति करनी है, उनको इस तरह से व्यवहार करना पड़ेगा। वे इस तरह से नहीं करेंगे, लड़ाई-झगड़ा करेंगे, कोर्ट-केस करेंगे तो क्या कोर्ट में हमेशा ही न्याय मिलता है? नहीं मिलता। कोर्ट में जाने से कोई विशेष लाभ नहीं। वहाँ दस साल तक केस चलेगा, आपका सारा समय बेकार चला जायेगा, पैसा चला जायेगा। और तब तक के लिए टेंशन हो जायेगी, वो अलग। लाभ कुछ होगा नहीं। तो फिर व्यर्थ में इतना समय, पैसा और बु(ि क्यों खर्च करें? ईश्वर की कोर्ट में केस डाल दें, वही ठीक है। ”ईश्वर न्याय करेगा।” बस ये तीन शब्द बोलो और अपना मस्त रहो। शांति से अपना योगाभ्यास करो।
स छोटी-मोटी बात हो, तो उसके लिये एक और सूत्र है, वो भी तीन शब्द का है- ”कोई बात नहीं”। यानि छोटी-मोटी बात हो तो, बोलो- कोई बात नहीं। और अगर बड़ी बात हो, और हम उससे लड़ नहीं सकते, न्याय नहीं ले सकते, न्याय कोर्ट में नहीं मिलता। तो बस फिर ईश्वर के न्यायालय में केस डाल दो, ‘ईश्वर न्याय करेगा’।
स रोज संध्या में आप एक मंत्र बोलते हैं -”जो हम पर अन्याय करता है, द्वेष करता है, हम उसको ईश्वर के न्यायालय में छोड़ते हैं।” लेकिन दिक्कत यह है, कि हम सिर्फ बोलते ही बोलते हैं, छोड़ते कहाँ हैं? छोड़ते तो हैं ही नहीं। अगर ईश्वर के न्याय पर छोड़ देंगे तो मस्त रहेंगे, कोई टेंशन नहीं है, खूब आनंद से जियो।
स सावधान रहो, दुर्घटना से बचो, खराब लोगों से बच के जियो, यही तरीका है और कोई रास्ता नहीं है। बचो न, इसलिये तो कह रहा हूँ। अत्याचारी को ठीक करने के लिये दूसरे बहुत से क्षत्रिय लोग बैठे हैं। वो यह काम कर लेंगे। लेकिन आप इस काम में लगे रहेंगे, तो आपका योगाभ्यास रह जायेगा।
स और आप पिछले जन्मों में यही तो करते चले आ रहे हैं। पिछले जन्मों में यही तो करते थे, और क्या किया? भई, कब तक करेंगे, ऐसे तो हर जन्म में लाखों झगड़ालू लोग आपको मिलेंगे। आप किस-किस से निपटेंगे। हर आदमी झगड़ने को तैयार बैठा है। किस-किस से झगड़ा करेंगे और कब तक करेंगे? यहाँ तो झगड़े का कोई अंत नहीं है। इसीलिये तो अब तक यहाँ बैठे हैं, वरना अब तक ‘मोक्ष’ में चले जाते। पिछले जन्मों में योगाभ्यास किया होता, तो मोक्ष में चले जाते। पिछले जन्मों में लोगों से लड़ते रहे, इससे लड़ाई की, उससे लड़ाई की, इसीलिए तो यहाँ बैठे हैं। कम से कम अब तो मोक्ष की तैयारी करो।
स परिस्थितियों को सहन करो, अपना बचाव करो, झगड़ा मत करो, द्वेष मत करो, चुपचाप कन्नी-काटकर मोक्ष में सरक जाओ। यहाँ जितनी देर लगायेंगे, उतने ज्यादा दुःख भोगने पड़ेंगे। मैंने तो बता दिया, आगे जैसा आपको ठीक लगे, वैसा करो। मेरी समझ में तो आ गया, कि ‘यहाँ दुनिया में बार-बार जन्म लेना कोई समझदारी का काम नहीं है, इसलिये मैं तो जा रहा हूँ मोक्ष में। आपको चलना हो तो स्वागत है। मुझे यहाँ नहीं रहना। मुझे यहाँ बार-बार जन्म लेना ठीक नहीं लगता। आप भी मेरे साथ चलो। आओ, मोक्ष की यात्रा में बड़ा आनंद मिलेगा।’
स यदि आप सेना में हैं, पुलिस में हैं, तो सहन करना आपके लिये अपराध है। अगर आप सेना में, पुलिस में नहीं हैं, तो फिर कोई अपराध नहीं है। राजा और क्षत्रियों के लिए अपराध है कि वे अन्याय को सहन करें। अत्याचारी को सबक सिखाना उनका कर्तव्य है। आप अधिक से अधिक किसी पुलिस वाले को जाकर सूचना दे सकते हैं, आपका कर्तव्य पूरा। आप पूरे केस में लड़ेंगे, तो आप यहीं रह जायेंगे। फिर मोक्ष नहीं हो पायेंगे।
स अगर आपको मोक्ष में जाना है, तो शास्त्र कहता है- ब्राह्मण बनो। सहन करना ब्राह्मण के लिये धर्म है। मनु जी के अनुसार धर्म का दसवां लक्षण है- ‘अक्रोधो’। दशकं धर्मलक्षमणम् । क्रोध नहीं करना, क्षमा करना, सहन करना, यह ब्राह्मण का तो गुण है, और क्षत्रिय के लिये दोष है। क्षत्रिय व्यक्ति अगर अपराध को सहन करता है, अन्याय को सहन करता है तो उसके लिये यह कार्य दोष है। ब्राह्मण के लिये यह गुण है, वो सहन करेगा, तो उसे मोक्ष मिलेगा। यदि क्षत्रिय अपराध को सहन करता है, और अन्याय का विरोध नहीं करता है, तो उसको नरक मिलेगा, उसको दण्ड मिलेगा।
स एक व्यक्ति ने पूछा- सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। इसका क्या अर्थ है? तो मैंने उसको उत्तर दिया कि- यथायोग्य व्यवहार का मतलब यह नहीं कि मारामारी करो। लोग इसका गलत अर्थ करते हैं। नियम है कि- ‘सबके साथ प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य बरतना चाहिये।’ अब ‘यथायोग्य’ शब्द इस नियम में, इस अर्थ (सेंस( में नहीं है, कि कोई मारामारी करे, तो उससे डबल मारामारी करो। यथायोग्य का अर्थ है, कि जो हमारे सामने पात्र है, जो व्यक्ति हमसे छोटा है, बड़ा है, बराबर का है, किस स्तर (लेवल( का है, उसके साथ उस स्तर (लेवल( का व्यवहार करो। जब प्रीतिपूर्वक व्यवहार करना है, धर्मानुसार व्यवहार करना है तो फिर मारामारी कहाँ से आ गई? हम राजा नहीं हैं, हम क्षत्रिय नहीं हैं। यह नियम क्षत्रियों के लिये नहीं बनाया गया। यह नियम तो सबके लिये है। जहाँ क्षत्रियों का प्रसंग हो, वहाँ पर यथायोग्य का अर्थ यह होगा कि कोई ब्राह्मण है, कोई परोपकारी व्यक्ति है, उसका सम्मान करो और कोई दुष्ट, डाकू, चोर है, उसकी पिटाई करो, और उसको जेल में डालो। यह क्षत्रियों के लिये उपदेश है। लेकिन यह नियम केवल क्षत्रियों के लिये नहीं है। यह नियम तो सबके लिये है। इसका अर्थ यह है कि सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करो, यदि हमसे बड़ा है तो उसका आदर सम्मान करो, बराबर का है तो बराबर वाला व्यवहार करो, और छोटा है, तो उसको आशीर्वाद दो, स्नेह, प्रेम से उसको खाने-पीने को दो, खुश रखो। यह है- यथायोग्य व्यवहार।

(174) शंका :- व्यक्ति के साथ कब तक संयमित व्यवहार करें? वह भी घर का ही सदस्य हो तो?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जब तक आपकी सहनशक्ति हो, तब तक निभाओ और अपनी सहन शक्ति को बढ़ाओ। आजकल लोगों में सहनशक्ति बहुत घट गई है। तीस-चालीस साल पहले लोगों में जितनी सहन शक्ति थी, क्या आज उतनी है? नहीं है। आज सहनशक्ति घट गई है। गड़बड़ हमारी तरफ से है। अपनी सहनशक्ति को बढ़ाइए।
स आप भौतिक साधनों का जितना अधिक प्रयोग करेंगे, आपकी सहनशक्ति उतनी अधिक घटती जाएगी। जितना हमारा जीवन विलासितापूर्ण होता जाएगा, उतनी सहनशक्ति कम होती जाएगी।
पिछले तीस-चालीस साल में भौतिक साधन बहुत बढ़ गए हैं। सड़कें बहुत बढ़ गईं, मोटर-गाड़ियाँ बढ़ गई, टेलीफोन बढ़ गए, बिजली बढ़ गई और मशीनें बढ़ गई यानि सारे भोग के साधन बढ़ गए और लोग इन भोग-साधनों के आदी हो गये। इसलिए सहनशक्ति घट गई।
स जीवन चलाने के लिए, देश की सेवा करने के लिए इन भोतिक चीजों का उपयोग करें तो कोई आपत्ति नहीं। सुख लेने के लिए आप इन वस्तुओं का उपयोग नहीं करना। अगर सुख के लिए इन चीजों का प्रयोग करेंगे तो आपकी सहनशक्ति घट जाएगी। लगातार इन चीजों का प्रयोग न करें। कभी प्रयोग करें, कभी नहीं करें। जानबूझकर बीच-बीच में प्रयोग छोड़ दें। पाँच दिन प्रयोग करें, एक दिन न करें तो आपकी क्षमता बनी रहेगी।
स दूसरी बात यह है कि, यह ना मानें कि भौतिक साधनों में ही अंतिम सुख है। आज लोगों ने यह मान लिया है कि- ”धन-संपत्ति आदि भौतिक साधनों में अंतिम सुख है, जैसे-तैसे करके इन साधनों को प्राप्त करो, जिसके पास
धन-संपत्ति अधिक से अधिक होगी, वो अधिक से अधिक सुखी होगा।” यह मान्यता गलत है। इस गलत मान्यता से लोगों के जीवन की दिशा बदल चुकी है। सब लोग भोग साधनों के पीछे भाग रहे हैं और सहनशक्ति को छोड़ते जा रहे हैं।
स जिन कार्यों से व्यक्ति के जीवन में शांति थी, सुख था, चैन था, आनंद था, वो कार्य उसने छोड़ दिए। ईश्वर की भक्ति करना, यज्ञ करना, दान देना, सेवा करना, बड़ों का आदर करना, इन कार्यों से हमारे जीवन में शांति थी। आज वे काम तो लगभग छूटते जा रहे हैं। आज पूछो कि- आप हवन करते हैं, आप भगवान का ध्यान करते हैं, आप बच्चों को बिठा करके अच्छी बाते सिखाते हैं, आप बड़ों की कुछ सेवा करते हैं? तो वे कहते हैं- साहब, समय नहीं मिलता।
स उनके पास धंधा करने के लिए बहुत समय है, व्यापार करने के लिए बहुत समय है, शॉपिंग करने के लिये बहुत समय है, गप्पें मारने के लिए बहुत समय है। वे घंटों तक मोबाईल फोन पर चिपके रहेंगे, लेकिन अच्छे काम के लिए समय नहीं है और इधर-उधर के कामों में फालतू समय गंवाते रहते हैं। शांति देने वाले काम तो छोड़ दिए, तो फिर शांति कहां से मिलेगी? इसलिए जो शांति देने वाले काम हैं, मन को प्रसन्न करने वाले काम हैं, उन कामों को करें, सहनशक्ति बढ़ाएं।
स जब तक सहनशक्ति है, तब तक अपने परिवार वाले के साथ निभाएं। तब तक उसके साथ मिलके रहें, उसको बार-बार समझाएं, सहन करें। जब बिलकुल ऐसी परिस्थिति आ जाए कि वो पत्थर उठाकर सर फोड़ने को तैयार हो जाए, तब चुपचाप नमस्ते कर दें। फिर उससे अलग हो जाएं। यह बिल्कुल आखिरी सीमा है।
छोटी-मोटी बात हो तो ऐसा मन में बोलें- ”कोई बात नहीं”। और बड़ी बात हो तो वोलें-”ईश्वर न्याय करेगा”। इससे आपकी सहनशक्ति बढ़ेगी। ये आपकी सहनशक्ति बढ़ाने वाले सूत्र हैं।

(175) शंका :- क्या कोई आत्मा अन्य आत्मा में प्रवेश कर उस जीवात्मा को प्रभावित करके सता सकता है। क्या मृत शरीर में अन्य आत्मा घुस सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका उत्तर है- नहीं। ये भूत-प्रेत (घोस्ट( की मान्यता बिल्कुल गलत है।
स किसी जीवित शरीर में कोई आत्मा, भूत-प्रेत बनकर घुस जाये और उसको परेशान करे, ऐसा कभी नहीं हो सकता। किसी मृत शरीर में कोई आत्मा घुस जाए और वो शरीर चल पड़े और सारे काम शुरू कर दे, ऐसा भी नहीं हो सकता।
स कभी-कभी मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति अस्वाभाविक क्रियाऐं करने लगते हैं। जो आत्मा के बारे में ठीक से नहीं जानते-समझते, वे मानते हैं, कि हममें कोई भूत-प्रेत घुस गया है। दरअसल, कोई भूत-प्रेत नहीं घुसता। यह केवल भ्रांति की बात है। इस भ्रांति से दूर रहिए। भ्
स भूत-प्रेत होता ही नहीं है। जो नहीं मानते, उनको कोई नहीं सताता। जो लोग मानते हैं, उनको यह सताता है। केवल मन का भूत है, मन की कल्पना है, भ्रम है, और कुछ नहीं। यह मानसिक रोग है, इसकी चिकित्सा कराओ।
स भूत लगना केवल मनोवैज्ञानिक-रोग की स्थिति है। जिसमें व्यक्ति रोग से ग्रस्त होकर विक्षिप्त-अवस्था में कुछ का कुछ बोलने लगता है।
स भूत-प्रेत उतारने वाले को ओझा कहते हैं। गुजरात में भुआ कहते हैं। ओझा या भुआ उस पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं और उसको कहते हैं, अब तुम ठीक हो गए और वो भी मान लेता है, कि हाँ मैं ठीक हो गया। उसका भूत-प्र्रेत सब निकल गया। भूत-प्र्रेत कुछ नहीं होता। इसलिये इसके चक्कर में नहीं आना।
स मैं पिछले बीस वर्षों से यह चैलेंज करता आ रहा हूँ। अगर कोई भूत-प्रेत उतारने या डालने वाला व्यक्ति यह दावा करता है, कि मैं भूत-प्र्रेत डाल सकता हूँ, निकाल सकता हूँ, तो मेरे शरीर में एक भूत-प्र्रेत डाल दो। मैं सामने से ऑफर करता हूँ। उसको मेरी तरफ से एक लाख रुपये ईनाम। और जो नुकसान होगा, वो मेरा। उसके ऊपर कोई आपत्ति नहीं। कोर्ट में चलेंगे, मजिस्ट्रेट साहब के सामने कॉन्ट्रेक्ट साईन करेंगे। दो गवाह उनके, दो गवाह हमारे। चाहो तो प्रयोग कर लो। अगर मेरे शरीर में भूत डाल दे, तो लाख रूपए ईनाम। और अगर नहीं डाल सका तो पांच लाख रुपये जुर्माना भरो। वन-वे ट्रेफिक नहीं चलेगा। बीस साल हो गए मुझे चैलेन्ज करते हुए। अब तक तो मेरे सामने कोई नहीं आया है, जो भूत-प्रेत डाल दे। इसलिए व्यर्थ की बात है, इसको छोड़ दीजिए।
स जैसे एक आत्मा शरीरधारी है। वो अपनी आत्मा दूसरे शरीर में प्रविष्ट करा दे, यह संभव नहीं। सवाल है कि एक शरीरधारी जीवात्मा दूसरे जीवित शरीर में अपनी आत्मा को डालेगा कि मृत शरीर में? मृत में डालेगा न, जीवित में तो नहीं डालेगा। चलो एक बात तो कैंसिल हुई कि वो जीवित शरीर में तो नहीं घुसेगा। अब मृत शरीर में डाले तो इसमें कौन सी समझदारी है? मृत शरीर तो पहले ही सड़-गल जायेगा। आप कहो कि सड़ा-गला नहीं है, अभी-अभी बिलकुल ताजा मरा है। बेचारे को ढूँढ़ना पड़ेगा ताकि कोई ताजा मरा हुआ शरीर मिले तो वह अपनी आत्मा को उसमें डाले। उसमें डालने से उसको लाभ क्या है? कोई लाभ नहीं है, और इतनी क्षमता भी नहीं है कि वह अपनी आत्मा मृत शरीर में से निकाल कर वापस अपने शरीर में डाल दे। अगर वो योगी अपनी आत्मा को निकालकर उस मृत शरीर में डालेगा, तो उसका अपना शरीर मर जायेगा। और एक बार निकल गया, तो वापस आने की कला उसको आती नहीं। यह परकाया प्रवेश आदि की बातें सब कहानियाँ हैं। इनमें विश्वास नहीं करना चाहिये। न इससे कोई लाभ है। ऐसी इतिहास में पता नहीं कितनी कहानियाँ आती हैं। भूत-प्रेत की कहानियों की कमी नहीं है। टेलीविजन में भी बहुत से हॉरर सीरियल भूत-प्रेतों के आते हैं। वो सब झूठ बात है। संसार में सच्चा-झूठा दोनों चलता है।
स मरने के बाद आत्मा इधर-उधर नहीं भटकती। मृत्यु के बाद जीवात्मा ईश्वर के नियंत्रण में चला आता है। अब उसके कर्मानुसार अगला जन्म कहाँ देना है, ईश्वर उसकी व्यवस्था करेगा। मान लीजिये एक व्यक्ति की भारत में मृत्यु हुई। अगला जन्म उसको देना है जापान में। तो भारत से लेकर जापान तक की यात्रा वह जीवात्मा स्वयं नहीं करेगा, बल्कि ईश्वर उसको लेकर जाएगा। मरने के बाद जीवात्मा को तो होश ही नहीं होता है। अगला जन्म कहाँ लेना है- उसके वश की बात थोड़े ही है। फल देने वाला न्यायाधीश ‘ईश्वर’ है। ईश्वर बताएगा कि उसको कहाँ जाना है। और वो खुद पहुँचाता है। ईश्वर यमदूत नहीं रखता, असिस्टेंट नहीं रखता। वो अपना काम खुद करता है, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है। ईश्वर उसको पहुँचाता है, जहाँ पहुँचाना है।
स एक शरीर की आत्मा दूसरे शरीर में नहीं जाती है। हाँ, अगर आत्मा ने एक बार शरीर छोड़ दिया तो फिर छोड़ दिया। आत्मा वापस उसमें नहीं जा सकती। उसको वापस जाने का तरीका नहीं मालूम। जो आत्मा शरीर छोड़ दे, उसको वापस दोबारा उस शरीर में डाल दे, ईश्वर ऐसा काम नहीं करता है। अगर एक आत्मा ने एक शरीर छोड़ दिया तो दूसरे जन्म में फिर उसका नया शरीर बनेगा, उस शरीर में ही जायेगी।

(176) शंका :- कारण-शरीर’ और ‘सूक्ष्म-शरीर’ कैसे बनते हैं। और आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध कब तक रहता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है।
स अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कुर्ता (कपड़ा( पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। स्थूल शरीर है कुर्ता, सूक्ष्म शरीर है धागा, और कारण शरीर है- रूई।
स जो संबंध कुर्ते, धागे और रूई में है, वो ही संबंध इन तीनों शरीर में है। क्या रूई के बिना धागा बन जायेगा, और क्या धागे के बिना कुर्ता बनेगा? कारण शरीर के बिना सूक्ष्म शरीर नहीं बनेगा। सूक्ष्म शरीर के बिना स्थूल शरीर नहीं बनेगा। कहा हैः- कारण शरीर प्रकृति सत्त्वरजसतमः। सत्त्व, रज और तम से अठारह चीजें बनी। उसका नाम है- सूक्ष्म शरीर।
स सृष्टि के आरंभ में जब भगवान ने ये सारी दुनिया बनायी तो कारण शरीर प्रकृति से अठारह पदार्थ उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- बु(ि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा। इनका नाम सूक्ष्म शरीर है। ये सारे पदार्थ प्रकृति से बनते हैं। रूप,रस, गंध आदि पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत बनते हैं। जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश, इन पाँच महाभूतों के नाम है। इन्हीं पाँच पदार्थों का समुदाय ये स्थूल शरीर है। जो आपको आँख से दिखता है, वो स्थूल रूप। तो ये इन तीनों का संबंध है।
स जब तक जीवात्मा पुर्नजन्म धारण करेगा, यानी एक शरीर छोड़ दिया, दूसरा शरीर धारण कर लिया, तो स्थूल शरीर छूट जायेगा। अतः मृत्यु होने पर ये छूट जायेगा। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर, ये दोनों जीवात्मा के साथ जुड़े रहेंगे। पुर्नजन्म हुआ फिर नया स्थूल शरीर मिल गया, फिर अगला शरीर, फिर अगला। जब तक मुक्ति नहीं होगी तब तक सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर साथ रहेगा। जब मुक्ति हो जायेगी तब तीनों शरीर छूट जायेंगे। धागा वही रहता है, कुर्ते बदलते रहते हैं।
स सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर तब तक साथ रहेंगे, जब तक पुर्नजन्म होता रहेगा। जब मोक्ष हो जायेगा तब तीनों दूर हो जायेंगे। अथवा मोक्ष नहीं हुआ और आ गई प्रलय तो प्रलय में तीनों शरीर छूट जायेगा। स्थूल शरीर तो वैसे ही थोड़े-थोड़े दिनों में छूटते रहता हैं। तब सूक्ष्म शरीर भी टूट-फूट कर नष्ट हो जायेगा और कारण शरीर रूपी प्रकृति बचेगी। सूक्ष्म शरीर वापस टूट-फूट कर कारण शरीर के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। जैसे मिट्टी का हमने ढ़ेला लिया और उसकी ईंट पका ली और फिर ईंट तोड़कर वापस मिट्टी बना दी, तो वापस ये मिट्टी बन गई यानि कारण शरीर बन गया। जीवात्मा प्रलय के समय तो अलग हो गया पर मुक्ति नहीं मिली। फिर एक नयी सृष्टि बनेगी, तो उसके साथ जीवात्मा को ईश्वर फिर दोबारा जोड़ देगा। तब तक वह बंधन की स्थिति में है। जब तक मोक्ष न हो जाये अथवा प्रलय न हो जाये तब तक ये दोनों शरीर आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे। मोक्ष में या प्रलय में ये छूट जायेंगे। मोक्ष होने पर तो फिर हजारों सृष्टियों तक ये तीनों शरीर फिर जुड़ते नहीं हैं।
स अब रही बात राग और द्वेष की। राग और द्वेष भी जीवात्मा की शक्ति है। राग और द्वेष दो प्रकार का है :- एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक। जो स्वाभाविक राग-द्वेष है, वो जीवात्मा से नहीं छूटेगा। वो मुक्ति में भी जीवात्मा में रहेगा। और स्वाभाविक राग-द्वेष में रहते-रहते मुक्ति हो जायेगी। इसमें कोई आपत्ति नहीं है, कोई बाधा नहीं है। जो नैमित्तिक राग-द्वेष है, वो बाधक है। उसे हटाना पड़ेगा, मुक्ति में वो छूट जायेगा।
स स्वाभाविक राग-द्वेष क्या है? और नैमित्तिक राग-द्वेष क्या है? उत्तर है कि जीवात्मा को हमेशा सुख चाहिये। यह उसको सूक्ष्म राग है। ये स्वाभाविक राग है। ये मुक्ति में बाधक नहीं है। जीवात्मा को दुःख कभी भी नहीं चाहिये। दुःख में उसको स्वाभाविक द्वेष है। ये भी मुक्ति में बाधक नहीं। ये स्वाभाविक राग और द्वेष रहेंगे, मुक्ति हो जायेगी। कोई परवाह नहीं।
स अमुक व्यक्ति ने मेरी हानि कर दी, मैं उसकी गर्दन तोडूँगा, ये सोचना नैमित्तिक द्वेष है। खीर, पूड़ी, लड्डू, हलुआ मुझे मिलना चाहिये, मुझे अधिक मिलना चाहिये, उसको कम, ये सोच नैमित्तिक राग है। ये मुक्ति में बाधक है। ये हट जायेगा, फिर मुक्ति होगी। इसके रहते मुक्ति नहीं होगी। इसको छोड़ देंगे तो मुक्ति हो जायेगी।

(177) शंका :- मन जड़ है। इसमें क्षण-क्षण में अलग-अलग स्मृति व विचार उठते हैं और वह इधर-उधर दौड़ता है, यह कैसे?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

घर में बिजली काम कर रही है। जिस बिजली से हमारे साधन काम कर रहे हैं जैसे कि- माइक्रोफोन चल रहा है, ट्यूबलाइट्स जल रही हैं, पंखे चल रहे हैं, कारखानों में मशीनें चल रही हैं। बताइये कि यह जो बिजली है, यह जड़ है या चेतन? जड़ है। और अगर हम बिजली के तार का यहाँ से लेकर के दिल्ली तक पूरा कनेक्शन लगा दें, और यहाँ से बटन ऑन कर दें, तो करंट कितनी देर में दिल्ली पहुँच जायेगा? एक सेकंड से भी पहले पहुँच जायेगा। बिजली एक सेकंड में एक लाख, छियासी हजार, दो सौ मील चली जाती है। और दिल्ली तो मात्र एक हजार किलोमीटर ही है।
स जड़ होते हुए भी, बिजली कितनी चंचल है, कितनी तीव्रता से काम करती है। जब बिजली जड़ होते हुए इतनी तीव्रता से चल सकती है, तो फिर मन भी जड़ है, तो वो तीव्रता से काम क्यों नहीं कर सकता?
स मन की अपनी गति है, घोड़े की अपनी गति है, शरीर की अपनी गति है। वस्तुतः हर चीज की अपनी अलग-अलग गति है। शरीर इतनी तेज नहीं दौड़ सकता, स्कूटर शरीर से ज्यादा तेज दौड़ सकता है। स्कूटर से कार ज्यादा तेज दौड़ सकती है, और कार से विमान और तेज चल सकता है। मन की भी अपनी गति है, वो बहुत तेज चलता है, फटाफट विचार करता है। भगवान ने मन के अंदर ऐसी क्षमता दी है, कि जीवात्मा मन से जल्दी-जल्दी विचार कर सके। यदि इतनी जल्दी विचार न कर सके, तो उसके सांसारिक व्यवहार सि( न हों।
स पायलट विमान चलाता है, और विमान की गति आप जानते हैं, वो आठ सौ, एक हजार, बारह सौ, पन्द्रह सौ किलोमीटर प्रति घंटे की तेजी (स्पीड( से चलता है। मान लो, दो हजार किलोमीटर प्रति घंटे की गति से विमान चलता है, तो जो पायलट उसको चला रहा है, उसका दिमाग विमान से तीव्र चलना चाहिये या
धीमे चलना चाहिये? तीव्र चलना चाहिये। तभी तो वो विमान को नियंत्रित कर पायेगा, नहीं तो दुर्घटनाग्रस्त हो जायेगा। दिमाग तेज चलेगा, तभी तो वो सामने आने वाली वस्तुओं से बचा पायेगा, नहीं तो टकरा जायेगा।
स भगवान ने मन इसलिये तीव्रता से कार्य करने वाला बनाया, कि हम विमान को भी चला सकें, हम रॉकेट भी चला सकें, हम सेटेलाइट भी चला सकें, हम कम्प्यूटर भी चला सकें, तीव्रता से काम करने वाली मशीनों पर नियंत्रण कर सकें। और ऐसे ही समाधि भी लगा सकें, उसके लिए भी मन तीव्र गति वाला होना चाहिये।
स मन जड़ होते हुये भी बहुत तीव्रता से कार्य करता है, बिल्कुल बिजली की तरह। बिजली बहुत तीव्र गति से चलती है। और यहाँ से एक सेकंड में अमेरिका तक, लंदन तक पहुँच जायेगी, पर है जड़। मन भी ऐसा ही है। आत्मा उसको चलाता है। और वो एक-एक क्षण में फटाफट विचार बदलता है, स्मृतियाँ उठाता है, स्मृतियाँ बदलता रहता है। आत्मा चेतन है, वो उसको चलाता है। मन में इतनी क्षमता है, कि वो ये सब कार्य इतनी तेजी से कर सकता है।

(178) शंका :- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरू( मन की इन पांच अवस्थाओं को समझाने की कृपा करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मन एक है, उसकी पाँच अवस्थायें हैं। जो समय-समय पर ऑटोमेटिक रूप से मौसम के कारण, खान-पान आदि परिस्थितियों के कारण, घटनाओं के कारणऋ और कुछ हमारे अपने विचारों से बदलती रहती हैं। इसलिए हमको सावधानी से प्रयोग करना है और अच्छी से अच्छी अवस्था बना के रखनी है।
1. क्षिप्त अवस्था :- मन की पहली अवस्था है- क्षिप्त अवस्था। क्षिप्त का अर्थ है-मन की चंचल स्थिति, चंचल अवस्था।
स मन की जब चंचल अवस्था होती है, उसका नाम है- क्षिप्त-अवस्था। हम मन में जल्दी-जल्दी विचारों को बदलते रहते हैं। आप पांच मिनिट बैठिये। मन में देखिए, आप फटाफट पचास विचार उठा लेंगे। वहाँ जाना है, यह करना है, उसको यह बोलना, उससे यह लेना है, उसको वो देना है, ये खरीदना है, वो काम करना है, अभी यह कर लूँ, यह खा लूँ, फिर वहाँ सो जाऊँ, फिर यूँ बात कर लूँ। फटाफट विचार बदलते रहना मन की ‘क्षिप्त-अवस्था’ है।
स क्षिप्त अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। चंचल-अवस्था में व्यक्ति जल्दी-जल्दी मन में विचार बदलता है, वो जल्दी-जल्दी स्मृतियाँ उठाता है। कभी इसको याद किया, कभी उसको याद किया, कभी और चीज याद की, कभी और चीज याद की।
2. मूढ़ अवस्था – दूसरी अवस्था है-मूढ़ अवस्था। जब तमोगुण का प्रभाव अधिक होता है, तब मूढ़ अवस्था उत्पन्न होती है। मूर्च्छा जैसी, थोड़ी नशीली, नशे जैसी अवस्था या तमोगुणी अवस्था मूढ़़ता प्रधान अवस्था है।
जैसे-थोड़ी नींद सी आ रही है, झटके आ रहे हैं, आलस्य आ रहा है। या कोई शराब पी लेता है तो नशे की स्थिति हो जाती है। ये सारी मूढ़-अवस्था कहलाती है। उस समय व्यक्ति का मन पूरा स्वस्थ नहीं होता। बु(ि काम नहीं करती, समझ नहीं आता है, उसको पता नहीं चलता, कि क्या करना, क्या नहीं करना। इस तरह की जो स्थिति है, उसको ‘मूढ़-अवस्था’ कहते हैं।
3. विक्षिप्त अवस्था- फिर तीसरी है- विक्षिप्त अवस्था। विक्षिप्त अवस्था में सत्त्वगुण प्रभावशील होता है, सत्त्व गुण प्रधान होता है। लेकिन बीच-बीच में रजोगुण और तमोगुण स्थिति को बिगाड़ते रहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति ध्यान में दो-चार मिनट बैठा, उसका मन ठीक लगा। उसका मन थोड़ा-थोड़ा टिकने लगता है, फिर किसी कारण से वो ध्यान टूट जाता है, इसलिए उसकी एकाग्रता बिगड़ जाती है। इसको बोलते हैं-‘विक्षिप्त अवस्था’।
दो-चार मिनट बाद उसने फिर कोई वृत्ति उठा ली और वो स्थिति बिगड़ गई। इस बिगड़ी हुई अवस्था का नाम है- विक्षिप्त। विक्षिप्त का अर्थ ‘बिगड़ा हुआ’ होता है। इस तरह रजोगुण के कारण ध्यान की अवस्था जब बिगड़ती है, मन की शांत-स्थिर अवस्था जब बिगड़ती है, तब उसका नाम है- ‘विक्षिप्त अवस्था’।
4. एकाग्र अवस्था- फिर चौथी है- एकाग्र अवस्था। जिसमें पूरा सत्त्वगुण का प्रभाव होता है। अब रज और तम पूरे चुपचाप बैठ गए, ठंडे हो गए। अब वो बीच में गड़बड़ नहीं कर सकते। मन के ऊपर आत्मा का पूरा प्रभाव है, पूरा कंट्रोल है, पूरा नियंत्रण है।
स ‘एकाग्र-अवस्था’ का मतलब है, कि मन अब पूरा नियंत्रण में आ गया, पूरा अधिकार में आ गया। मन अब हमारी इच्छा के विरु( कहीं इधर-उधर नहीं जाता। जैसे पहले लगता था, कि हम विचार उठाना नहीं चाहते, फिर भी आ जाते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। अब तो हम जो चाहते हैं, वही विचार लाते हैं। इस अवस्था का नाम है-‘एकाग्र -अवस्था’।
स अब ”दिल है, कि मानता नहीं” वाली शिकायत खत्म हो गई। पहले शिकायत थी न, दिल है कि मानता नहीं, वो क्षिप्त अवस्था थी। और अब दिल पूरा मान लेता है, सौ प्रतिशत कंट्रोल में आ जाता है। इस अवस्था का नाम है- एकाग्र अवस्था। यानि अब सत्त्वगुण प्रबल है। व्यक्ति का मन के ऊपर वैसा ही कंट्रोल है, जैसा कार वाले का कार के ऊपर है। ऐसा ही आत्मा का मन के ऊपर जब पूरा कंट्रोल होता है, तो वो ‘एकाग्र-अवस्था’ है।
स इस अवस्था में जीवात्मा को समाधि में अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति होती है और सूक्ष्म प्राकृतिक तत्त्वों की भी अनुभूति होती है। इस चौथी अवस्था में प्राकृतिक तत्त्वों और आत्मा, इन दो चीजों का अनुभव होता है। इसका नाम एकाग्र अवस्था। इस अवस्था में एक समाधि होती है, उसको बोलते हैं-‘संप्रज्ञात- समाधि’ ।
5. निरू(-अवस्था :-मन की पाँचवी अवस्था है- निरू( अवस्था। यह एकाग्र अवस्था से भी और ऊंची अवस्था है। इसमें भी मन पर पूरा नियंत्रण होता है। इसमें भी एकाग्र की तरह से ही मन पर पूरा कंट्रोल है तो एकाग्र में और निरू( में अंतर क्या है? अंतर इतना है, एकाग्र अवस्था में प्राकृतिक तत्त्वों और जीवात्मा, इन दो चीजों की अनुभूति होती है। लेकिन इस अवस्था में समाधि का विषय बदल जाता है। असंप्रज्ञात समाधि यानी निरू( अवस्था में ‘ईश्वर’ का अनुभव होता है। जब ईश्वर की अनुभूति होती है, उस अवस्था का नाम है- निरू( अवस्था। और उस समय जो समाधि होती है, उसका नाम है- ‘असंप्रज्ञात-समाधि’।
स इस तरह से मन की ये पांच अवस्थाऐं हैं। इनमें से चौथी और पांचवी एकाग्र और निरू(, इन दो अवस्थाओं में समाधि होती है, बाकी तीन में समाधि नहीं है।
स क्षिप्त और मूढ़ अवस्था तो खराब ही है। उनसे अच्छी तो है विक्षिप्त अवस्था। और इससे अच्छी है चौथी- एकाग्र अवस्था। और सबसे अच्छी है- निरू( अवस्था।
स योगाभ्यास में यही करना है। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ अर्थात् मन के विचारों को रोको। जैसे-जैसे रोकते जाएंगे, वैसे-वैसे हमारी स्थिति ऊँची-ऊँची होती जाएगी। जैसे-जैसे थोड़े-थोड़े विचार रुकेंगे, तो विक्षिप्त अवस्था आ जाएगी और जब पूरे विचार रोक देंगे तो समाधि शुरू हो जाएगी अर्थात एकाग्र अवस्था आ जाएगी। फिर ईश्वर की अनुभूति हो जाएगी, तो निरू( अवस्था आएगी। इस तरह से मन की बात समझनी चाहिए। मन एक ही है, दो तीन नहीं।

(179) शंका :- रजोगुण से चंचलता होती है, तमोगुण से मूढ़ता होती है, तो विक्षिप्त अवस्था किस गुण से होती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

विक्षिप्त अवस्था में थोड़ा सत्त्व गुण होता है, जिसके कारण कुछ स्थिरता होती है।
स आप सोचेंगे स्थिरता तो तमोगुण से होती है, और हमने कहा कि- विक्षिप्त अवस्था में स्थिरता सत्त्वगुण से होती है। दरअसल, तमोगुण की स्थिरता अलग प्रकार की है। तमोगुण की स्थिति में मन में विचार आता है, कि ‘घंटी बज गई, उठो भई उठने का समय हो गया है, और तमोगुण के प्रभाव से व्यक्ति कहता है- पड़े रहो, थके हुए पड़े रहो, सोते रहो, उठना ही नही, जल्दी नहीं है, रोज ही तो उठते हैं, एक दिन नहीं उठेंगे तो क्या फर्क पड़ेगा।’ पड़े रहो वाली, यह जो स्थिरता है, वो तमोगुण की है।
स सत्त्वगुण के कारण से जो स्थिरता होती है, वो अलग है। उसका नाम है- एकाग्रता, यानी एक विषय में मन का टिक जाना। मन एक जगह पर ज्ञानपूर्वक टिका रहे, वो स्थिरता सत्त्वगुण की है। दोनों में यही अंतर है।
स सत्त्वगुण के कारण जब मन एक विषय में टिक गया, तो कुछ देर के बाद रजोगुण बीच में कूद पड़ा और जो टिका हुआ मन था, उसको उखाड़ दिया। वो विक्षिप्त अवस्था हो गई या तमोगुण बीच में कूद गया, तो उसके प्रभाव से आलस्य आ गया, नींद आ गई या उसके कारण कोई और गड़बड़ी खड़ी हो गई।
स जब सत्त्वगुण के कारण जो मन टिका हुआ था, वो उखड़ जायेगा, उसको हम विक्षिप्त अवस्था बोलते हैं।
स सार यह निकला कि विक्षिप्त अवस्था कभी रजोगुण के कारण, और कभी तमोगुण के कारण भी होती रहती है।

(180) शंका :- क्या सूक्ष्म-इच्छाएँ ‘सब-कांशियस-माइंड’ में उत्पन्न होती हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह ‘सब-कांशियस’ माइंड क्या है? आजकल के साइकोलॉजी वाले कितने सारे माइंड पढ़ाते हैं। दरअसल, इनको ठीक से पता नहीं है। ये लोग नहीं जानते, कि माइंड इज वन, ऑनली वन। हमारे शरीर में, एक आत्मा के साथ केवल एक ही मन है। मन दो-तीन-चार नहीं हैं, लेकिन ये दो-तीन-चार पढ़ाते हैं। एक सब-कांशियस माइंड है, एक कांशियस माइंड है, एक अनकांशियस माइंड है। जबकि मन एक ही है।
स हालांकि मन की अवस्थायें (स्टेट्स ऑफ माइन्ड( पाँच हैं। इनके नाम ‘योग-दर्शन’ के व्यास-भाष्य में लिखे हैं। मन की पहली अवस्था का नाम है- क्षिप्त। दूसरी का नाम है- मूढ़। तीसरी का नाम है- विक्षिप्त। चौथी का नाम है- एकाग्र। पाँचवी अवस्था का नाम है- निरू(।
स प्रकृति में तीन प्रकार के तत्त्व (द्रव्य( हैं, जिनको गुण कहते हैं। उनके नाम हैं- सत्त्व गुण, रजोगुण, तमोगुण। इस प्रकृति के इन सबसे छोटे-छोटे कणों (सत्त्व, रज और तम( का अपना-अपना अलग-अलग स्वभाव है।
स सत्त्व गुण का स्वभाव यह है, कि वो शांति देता है, सुख देता है, जिससे मन में स्थिरता होती है। जब मन में सत्त्वगुण प्रबल होता है, सत्त्वगुण का प्रभाव अधिक होता है, तो हमको शांति महसूस होती है, अच्छा लगता है, सुख लगता है। मन में सेवा और परोपकार के, दान के, दया के अच्छे-अच्छे भाव आते हैं।
स जब रजोगुण बलवान हो जाता है और अपना प्रभाव शुरू करता है, तो चंचलता और अशांति आती है। इससे मन में काम्पटीशन की भावना आती है, स्वार्थ की भावना आती है, छीना-झपटी की भावना आती है, हेरा-फेरी, निंदा-चुगली और गड़बड़ करने की इच्छा होती है।
स जब तमोगुण प्रबल होता है, तब बहुत बुरे काम करने की इच्छा होती है। मसलन, चोरी करना, डकैती करना, स्मगलिंग करना, ब्लैक मार्केटिंग करना, हत्यायें करना, आतंकवाद फैलाना इत्यादि।
इन गुणों का प्रभाव हमेशा एक सा नहीं रहता, बल्कि बदलता रहता है। इन गुणों के प्रभाव के बदलते रहने से ये अवस्थायें बदलती रहती हैं। कभी क्षिप्त अवस्था आती है, कभी मूढ़ अवस्था आती है। जिसको आप अनकांशियस माइंड कहते हैं, वास्तव में वो चित्त की मूढ़ अवस्था है। मन कोई दो तीन नहीं हैं।

(181) शंका :- सूक्ष्म-इच्छाओं’ से आपका क्या तात्पर्य है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम जो विचार उठाते हैं, वे या तो ‘सूक्ष्म-इच्छाओं’ से उठाते हैं या ‘स्थूल- इच्छाओं’ से उठाते हैं।
स अब प्रश्न उठता है, कि सूक्ष्म-इच्छाओं से क्या तात्पर्य है? सूक्ष्म इच्छाओं से तात्पर्य है कि- आपने मन में कोई इच्छा रखी हुई है, लेकिन वो आज आपको समझ में नहीं आ रही है, दस साल के बाद में समझ में आएगी। जिस इच्छा से आपने मुम्बई चौपाटी की स्मृति उठाई थी, या जिस इच्छा से आपने दिल्ली का चिड़ियाघर याद किया था, वो है- ‘सूक्ष्म इच्छा’। जो आज समझ में नहीं आ रही। लेकिन जब व्यक्ति लंबा अभ्यास करेगा, तो उसको धीरे-धीरे पकड़ में आएगा कि हाँ, ये छोटी-छोटी सूक्ष्म इच्छाएं भी मैं ही उठाता हूँ। वो बहुत हल्की इच्छाएं होती हैं, जो पहले-पहले समझ में नहीं आती, बाद में समझ आती हैं। एक मोटा उदाहरण देता हूँ –
आपने बचपन में जब पहली-पहली बार साईकिल चलाना सीखा, तो सिखाने वाले व्यक्ति ने आपको साईकिल पर बैठा दिया, हाथ में हैंडल पकड़ा दिया और कहा कि- देखो, नजर सामने रखना, पाँव की तरफ नहीं देखना, पैडल मारते जाना और हैंडल सीधा रखना, टेढ़ा नहीं करना, नहीं तो साइकिल गिर जाएगी। ऐसे-ऐसे उसने आपको संकेत बताये, दिशा-निर्देश दिए और आपको साईकिल पर बैठाकर धक्का मार दिया और कहा- चलाओ। उसने धक्का मारा तो आपने भी दो-चार पैडल मारे। चूंकि पहला दिन था, अभ्यास तो था नहीं। इसलिये आपने वही गलती की, जो उसने मना की थी। उसने कहा था कि- सड़क पर देखना और आपने पैडल की तरफ देखा। उसने कहा था, कि हैंडल सीधा रखना और आपने हैंडल टेढ़ा कर दिया। फिर क्या हुआ? गिर गए। जब गिर गए तो सिखाने वाले ने पूछा- तुमने साईकिल क्यों गिराई? पहले दिन व्यक्ति यही कहता है कि- साहब! मैंने साईकिल बिल्कुल नहीं गिराई, यह अपने आप गिरी है। छह महीना अभ्यास करने के बाद वो नहीं कहता है कि यह साईकिल अपने आप गिरती है। उसको छह महीने बाद उसको समझ में आता है, कि पहले दिन भी जो साईकिल गिरी थी, तो मैंने ही गिराई थी। यह अपने आप नहीं गिरती। अब छह महीने में अभ्यास हो गया। अब क्यों नहीं गिरती? क्योंकि अब मेरी प्रैक्टिस हो गई है, अब मैंने संभालना सीख लिया है। पहले नहीं संभाल सकता था, योग्यता नहीं थी, शक्ति नहीं थी, सामर्थ्य नहीं था, ज्ञान-विज्ञान नहीं था। जैसे साईकिल चलाने वाले को पहले दिन नहीं समझ में आता, छह महीने बाद समझ में आता है। ठीक इसी तरह से आज आपकी योग्यता कम है। आज आप मन में जो विचार उठाते हैं, वो जिन सूक्ष्म इच्छाओं से उठाते हैं, वो सूक्ष्म इच्छाएं आप आज नहीं पकड़ सकते। आज उन्हें पकड़ने की योग्यता नहीं है। दस साल, पन्द्रह साल मेहनत करेंगे और पकड़ने की कोशिश करेंगे, कि मन में कौन सा विचार उठ रहा है। तब जाकर उसको अच्छी तरह पकड़ेंगे। इस तरह धीरे-धीरे समझ में आएगा, कुल मिलाकर यह लंबे समय में समझ में आएगा कि जो भी विचार उठ रहा है, मैं ही उठा रहा हूँ।
स जो इच्छाएं आज आप नहीं पकड़ पा रहे हैं, वो हैं- ‘सूक्ष्म इच्छाएं’। और जो इच्छाएँ आप आज ही पकड़ पा रहे हैं, कि हाँ, यह विचार मैंने उठाया, वो है- ‘स्थूल इच्छा’। उस स्थूल इच्छा के कारण आपने उस विचार को उठाया। मान लीजिये, आप प्रतिदिन शाम को 6 बजे ध्यान में बैठते हैं। एक दिन दोपहर 3 बजे एक विशेष व्यक्ति ने आपको फोन से कहा- ‘मैं आज रात को 8 बजे आपसे मिलने आऊँगा। उस दिन शाम को 6 बजे आप ध्यान में उस व्यक्ति के स्वागत की तैयारियाँ करेंगे, कि उसे बिठाना है, क्या खिलाना है, क्या बातें करनी हैं। उस दिन रात को आठ बजे जो व्यक्ति मिलने आयेगा, उसके लिए शाम को छह बजे ध्यान में आपने जो स्वागत की तैयारियाँ की हैं, वह आपकी स्थूल इच्छा थी, उसके कारण आपने सब तैयारी की। तो इस तरह से इच्छायें, ‘सूक्ष्म-इच्छाएं’ और ‘स्थूल-इच्छाएं’ दोनों तरह की होती हैं।

(182) शंका :- क्या कोई व्यक्ति दूसरे के मन को नियंत्रित करके चला सकता है? यदि हाँ, तो बिना आत्मा के प्रवेश के यह कैसे संभव है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई श्र(ालु व्यक्ति अपने गुरूजी में बहुत श्र(ा रखता है, उनके वचनों का पालन करता है, उनको आदर्श मानता है। गुरूजी जो कहते हैं, वह श्र(ालु व्यक्ति उसको मानता है। ऐसा हो सकता है। परन्तु इस प्रक्रिया में श्र(ालु का मन रहेगा उसी के आधीन। गुरूजी पर श्र(ा होने के कारण, वह अपने मन को उनके निर्देशानुसार चला देगा।
इस प्रक्रिया में गुरूजी का आत्मा उनके अपने शरीर में और श्र(ालु का आत्मा उसके अपने शरीर में ही रहेगा। दोनों आत्माएँ अलग-अलग शरीर में रहेंगी। इसी प्रकार से एक आत्मा दूसरे के मन को नियंत्रित करके कुछ-कुछ तो चला सकता है पर पूरी तरह से नहीं। क्योंकि प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। और प्रत्येक व्यक्ति का मन पूरा-पूरा आत्मा के आधीन है, दूसरे के आधीन नहीं। जैसे सेनाधिकारी का आत्मा, सेनाधिकारी के शरीर में रहेगा, सैनिक के शरीर में नहीं घुस जाएगा। दोनों का आत्मा अलग-अलग है। दोनों का आत्मा अपने-अपने शरीर में रहेगा। केवल निर्देश से, संकेत से वो दूसरे व्यक्ति का थोड़ा सा नियंत्रण कर सकता है, लेकिन पूरा नियंत्रण नहीं कर सकता।

(183) शंका :- शरीर, आत्मा और मन इनमें क्या संबंध है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उपनिषदों में बतलाया है- शरीर एक रथ के समान है। पहले रथ होते थे, आजकल कार होती है। तो चलो कार के उदाहरण से बताएगे। जैसे शरीर है, वैसे कार है। कार में पाँच चीजें हैं। कार का यात्री सेठ-एक, ड्राईवर-दो, स्टेयरिंग-तीन, पहिए-चार और सड़कें पांच। ऐसे ही शरीर में यात्री के समान आत्मा, ड्राइवर के समान बु(ि, स्टेयरिंग-व्हील के समान मन, पहियों के समान इंद्रियाँ और सड़कों के समान विषय हैं। इस तरह से इनमें सम्बन्ध समझना चाहिए।

(184) शंका :- क्या हम किसी को अपने वश में कर सकते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ, कर तो सकते हैं, परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप किसी को अपने वश में क्यों करना चाहते हैं? अगर कोई आपको अपने वश में कर ले, तो क्या आपको ठीक लगेगा? इसलिये दूसरे को वश में करने की बात न सोचें। वैसे जो चतुर लोग होते हैं, चालाक लोग होते हैं, वे दूसरों को वश में कर लेते हैं। पर दूसरे को वश में करना अच्छी बात नहीं है। ‘आत्मा’ स्वभाव से स्वतंत्र है, उसको ‘स्वतंत्र’ ही रहने देना चाहिये।
किसी के वश में वे लोग हो सकते हैं जिनमें ‘आत्मविश्वास’ की कमी होती है, सेल्फ कॉन्फीडेन्स, विल पॉवर की कमी होती है। आप अपना सेल्फ कॉन्फीडेन्स बनाकर रखें। दूसरे के वश में नहीं हों और खामखां किसी को अपने वश में करने की बात भी न सोचें।

(185) शंका :- दूसरे को प्रसन्न करने के लिये असत्य न बोलें। किन्तु असत्य बोलने से यदि दर्द ठीक हो जाता है, तो डॉक्टर को असत्य बोलने में क्या आपत्ति है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

डॉक्टर के झूठ बोलने से रोगी ठीक हो जाता है, तो फिर इसमें क्या दिक्कत है।’ यह बड़ा भयंकर प्रश्न है। बहुत लोग इस पर बहस करते हैं, और वो झूठ बोलने की पुष्टि करते हैं। अब इसका उत्तर सुनिये-
स एक डॉक्टर ने रोगी का परीक्षण कर लिया और देख लिया कि यह बूढ़ा व्यक्ति है, और इसके लक्षण बता रहे हैं, तीन दिन से आगे नहीं जियेगा। तो रोगी पूछता है, कि ‘डॉक्टर साहब मैं ठीक तो हो जाऊँगा?’
स ऐसी `िस्थ्ति में झूठ की पुष्टि करने वाले लोग कहते हैं, कि डॉक्टर को रोगी के सामने तो ऐसा ही कहना चाहिये ‘हाँ, हाँ, तुम ठीक हो जाओगे, तुम्हें कुछ नहीं होगा।’ ये झूठ बोलना चाहिये। और रोगी के कमरे से बाहर जाके, जो उसके घर के बाकी पांच-छहः सदस्य हैं, उनको सच बताना चाहिये, कि ‘देखिये भई! ये तीन दिन का मेहमान है, इससे जो वसीयत करवानी है, वो करवा लो, फिर मत कहना कि हमें बताया नहीं था। जिस रिश्तेदार को बुलाना हो बुला लो।’ रोगी के सामने झूठ बोलो, कि हाँ, तुम ठीक हो जाओगे और दूसरे कमरे में जाके सच बताओ, ऐसा झूठे लोग कहते हैं।
स हम कहते हैं,यह गलत है। रोगी के सामने झूठ क्यों बोलना? इससे नुकसान होता है। क्या नुकसान होता है? इससे बाकी लोग क्या सोचेंगे, कि यह डॉक्टर कैसा है? रोगी के सामने झूठ बोलता है, बाकी लोगों के सामने सच बोलता है। जो घर के बाकी छह सदस्य हैं, वो तो यही सोचेंगे न कि यह डॉक्टर रोगी के सामने तो झूठ बोलता है। रोगी को सच नहीं बताता। और बाकी लोगों को सच बताता है। उन छह व्यक्तियों के मन पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ेगा। पड़ेगा कि नहीं पड़ेगा? पड़ेगा न। उसका विश्वास खत्म होगा न।
स अब चलो, वो तो बूढ़ा व्यक्ति था। वो तो तीन दिन के बाद मरने ही वाला था, सो मर गया। जो घर के छह सदस्य बाकी बचे थे, उनमें से एक बत्तीस साल का जवान था। वो दो महीने के बाद, बीमार हो गया। अब उसी फैमिली डॉक्टर को फिर बुलाया गया। वो आया, उसने उस रोगी को देखा, और कहा ‘तुम ठीक हो जाओगे, तुम्हें कुछ नहीं होगा।’ अब वो रोगी क्या सोचेगा?
स वो सोचेगा, ये डॉक्टर झूठ बोलता है। मेरे दादा को भी यही कहता रहा, कि तुम बच जाओगे, तुम्हें कुछ नहीं होगा। मुझे भी कह रहा है कि तुम बच जाओगे, तुम्हें कुछ नहीं होगा। अब मैं भी मरूंगा।’ वो न मरता हो, तो भी मरेगा। उसका विश्वास खत्म। उसके दिमाग पर यह असर हो चुका है, कि यह डॉक्टर रोगी के सामने झूठ बोलता है, बाकी लोगों के सामने ठीक बोलता है। मैं इस समय रोगी हूँ। मुझे यह झूठ बोल रहा है। बताईये लाभ हुआ, कि हानि हुई।
स वो बूढ़ा व्यक्ति तो बेचारा तीन दिन बाद मरने ही वाला था। अगर डॉक्टर वहाँ सच बोलता तो छह व्यक्तियों का (घर के छह सदस्यों का( डॉक्टर पर विश्वास बना रहता। डॉक्टर के ऊपर वो लोग सच्चा विश्वास करते कि डॉक्टर जो कहता है, सच कहता है। झूठ बोल के वह डॉक्टर न तो रोगी को बचा पाया और उधर छह व्यक्तियों का विश्वास भी खोया। ऐसी स्थिति में लाभ तो कुछ हुआ नहीं, हानि ही हुई। रोगी तो झूठ बोलने पर भी बचा नहीं। इसलिये डॉक्टर को झूठ नहीं बोलना चाहिये, सच बोलना चाहिये।
स एक दिन मैं ऐसे ही कह रहा था। एक व्यक्ति थोड़ा अड़ियल टाइप का था। वो खड़ा होकर बोला, ‘तो आप यह कहना चाहते हैं, कि डॉक्टर को यूं साफ-साफ कह देना चाहिये, अब तुम मरने वाले हो। ऐसा बोल देना चाहिये।’ मैंने कहा- नहीं। ऐसा क्यों बोलें? मनु जी कहते हैं- ‘सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात’ अर्थात् सच बोलना चाहिये, मीठा बोलना चाहिये। कड़वा नहीं बोलना चाहिये।
स उसने पूछा- कैसे बोलना चाहिये? मैंने कहा ऐसे बोलना चाहिये कि – ‘देखो भाई, तुम्हारी कितनी उम्र हो गई? छियत्तर साल। अच्छा देखो, छियत्तर साल उम्र हो गई, खा लिया, पी लिया, सारी दुनिया देख ली। देख ली न? हाँ, देख ली। कोई आदमी हमेशा जीता है क्या? यहां किससे बात चल रही है? रोगी से। किसकी बात चल रही है? डॉक्टर की। तो डॉक्टर उस रोगी को पूछता है? कोई आदमी हमेशा जीता है क्या? तो वो रोगी कहेगा, नहीं। रामचन्द्र जी चले गये न, हाँ चले गये। कृष्ण जी महाराज, और सिकन्दर, वो भी चले गये। हम और तुम भी सब चले जायेंगे, सबको मरना है, बारी-बारी से सबका नंबर लगेगा। अब खा लिया, पी लिया, देख ली दुनिया। छियत्तर साल हो गये, बस दो-चार दिन की बात है। अब तैयारी कर लो, उसके बाद शांतिपाठ होने वाला है।’ उसको अच्छी तरह से, सच बात बताओ, प्रेम से बताओ, सीधी-सीधी बात बताओ, झूठ क्यों बोलो।
स उस व्यक्ति ने पूछा- यदि डॉक्टर द्वारा सच बोलने से रोगी को हार्ट अटैक आ जाये, और रोगी उसी समय मर जाये, तो? तब मैंने उत्तर दियाः- उसको अटैक आ जाये, तो उसका जिम्मेदार डॉक्टर नहीं है। वेदो में डॉक्टर के लिए ‘झूठ बोलना’ नहीं लिखा है, ‘सत्य बोलना’ ही लिखा है। उनके कारण डॉक्टर क्यों झूठ बोले। डॉक्टर क्यों पाप का भागी बने? झूठ बोलेंगे तो दण्ड मिलेगा। हमने ठेका लिया है क्या झूठ बोलने का। हमको भगवान ने कहा है, सच बोलो। हम तो सच बोलेंगे। तुम्हारी गलती का दण्ड हम क्यों भोगें।
स पता है क्यों रिश्तेदार बोलते हैं डॉक्टर को, कि ‘आप रोगी को सच नहीं बताना, उसको झूठ बोलना’?उसका उत्तर सुनिये- आज छियत्तर साल की उम्र हो गई। बचपन से लेकर के बुढ़ापे तक किसी आदमी ने उस रोगी को मरना नहीं सिखाया। एक दिन भी यह पाठ नहीं पढ़ाया, कि हमको मरना है। एक न एक दिन शरीर और संसार छोड़कर जाना है। यह पाठ कोई नहीं पढ़ाता। अब देखो, उसने आज तक मरने की तैयारी ही नहीं की। और आज अचानक उसको डॉक्टर कहे कि ‘भई! देखो, अब दो-चार दिन में शांतिपाठ होने वाला है।’ तो उसको हार्टअटैक आने ही वाला है, झटका तो लगेगा ही। तो यह गलती उन लोगों की है। क्यों नहीं उसको बचपन से मरना सिखाया। उसको ‘मरना है’, ऐसा पढ़ाओ। एक न एक दिन सबको मरना है। अगर उसको बचपन से यह पाठ सिखाया गया होता, तो आज डॉक्टर प्रेम से सच बोलता और उसको जरा भी अटैक नहीं आता। खूब आराम से रोगी सत्य सुनता और कहता, ‘ठीक है, बचपन से सुनते चले आ रहे हैं। अब जाने की तैयारी है, तो जाएँगे।’
मैं आपको अपनी बात सुनाता हूँ। मैं अठारह-उन्नीस साल पहले यहाँ आर्यवन में आया। अचानक एक रात को मुझे पेट में दर्द हो गया। अपेंडिक्साइटिस हो गया। रात को दो बजे फोन करके डॉक्टर को बुलाया। दिसम्बर का महीना था। रात को दो बजे डॉक्टर साहब आये और उन्होंने कुछ इंजेक्शन दिया, कोई दवाई दी, डॉक्टर साहब कहने लगे कि सुबह इनको हॉस्पिटल में ले जाओ, इनका अपेंडिसाइटिस का प्राब्लम है। मुश्किल से थोड़ी नींद आयी। सुबह चार-पांच बजे तक सोया। सुबह हॉस्पिटल में डॉक्टर साहब ने मेरा चैकअप किया। फिर उन्होंने कहा ‘जी, दवाई से कोशिश करते हैं। एक दिन में ठीक हो जाये तो ठीक है, नहीं तो ऑपरेशन करना पड़ेगा। यहाँ आर्यवन से एक आदमी (अटेंन्डेन्ट( मेरे साथ वहाँ सेवा के लिये हॉस्पिटल में गया था। मैंने उस अटेण्डेण्ट से पूछा, ‘डॉक्टर साहब ने क्या बताया?’ तो उन्होंने कहा, ‘जी एक दिन तो दवाई देकर देखेंगे और नहीं ठीक हुआ, तो फिर ऑपरेशन करेंगे।’ मैंने कहा- ठीक है। अब जब अगले दिन ऑपरेशन का नंबर आया तो जो मेरा अटेन्डेन्ट था, वो बेचारा रोने लगा। मैं तो ठीक-ठाक बैठा हूँ। रोगी मैं हूँ और वो अटेन्डेन्ट रो रहा है कि, स्वामी जी आपका ऑपरेशन होगा। मैंने कहा – तुम क्यों रो रहे हो। ऑपरेशन तो मेरा होगा, तुम्हारा तो कुछ नहीं होगा। मेरा अधिक से अधिक क्या होगा, मर ही तो जाऊँगा, और क्या होगा। मर जाऊँगा, तो दूसरा जन्म लूंगा, कोई आत्मा मरती है क्या? इतने साल हो गये गुरूजी से सुनते-सुनते, अब तक क्या सीखा? अब तक इतना भी नहीं समझ में आया, कि ‘मैं आत्मा हूँ, मैं अजर-अमर हूँ, शरीर ही तो मरता रहता है। एक शरीर छोड़ देंगे, दूसरा मिल जायगा,और क्या होगा? फिर तुम चिंता मत करो, खुश रहो। मरूंगा तो मैं मरूंगा, तुम क्यों दुखी हो रहे हो?’ अटेंडेंट को रोगी को समझाना चाहिये, लेकिन यहाँ उल्टा रोगी अटेंडेंट को समझा रहा है।
ऐसे अगर किसी व्यक्ति को बचपन से सिखाया जाये कि हमको हमेशा नहीं जीना है, एक न एक दिन मरना ही पड़ेगा तो वो क्यों दुःखी होगा और क्यों उसको अटैक आयेगा? रोगी के सामने बिल्कुल सच बोलो, कुछ नहीं होगा। झूठ बोलेंगे, तो डॉक्टर को पाप लगेगा। इसलिये डॉक्टर को सच बोलना चाहिये।
स आज डॉक्टर जो झूठ बोलते हैं, वो रोगी के परिवार वालों की वजह से, समाज वालों की वजह से उनको झूठ बोलना पड़ता है। वो नहीं चाहते हैं झूठ बोलना, सच बताना चाहते हैं। पर परिवार वालों की वजह से डॉक्टरों को झूठ बोलना पड़ता है।
स तो हम सब लोगों से यह कहना चाहते हैं, जीना भी सीखो, मरना भी सीखो और सबको सिखाओ। केवल जीना ही मत सिखाओ, यह मत सोचो कि हम सदा जीयेंगे। यह भी सोचो, हमको मरना भी है। मरना क्या है? कपड़ा बदलना, और क्या है? लोग गीता की बात करते हैं। दुनियाभर में गीता का प्रचार कर दिया। इतने बार श्लोक पढ़ लिया, अब तक समझ में नहीं आया कि, जैसे कपड़े बदलते हैं, वैसे शरीर बदलना है। और क्या है? दूसरा शरीर मिल जायेगा।
स और हम तो कहते हैं, जितना जल्दी शरीरों का चक्कर छूट जाये, उतना ही अच्छा है। यहाँ तो दुःख का कारण ही शरीर बताया है। भविष्य में जितने भी शरीर धारण करेंगे, तब तक दुःख ही भोगना पड़ेगा। अगर दुःखों से छूटना है, तो मोक्ष प्राप्त करो। उसके लिये शरीर की वैसे ही जरूरत नहीं। अच्छा है, छूट जायेगा, तो किस्सा ही खत्म हो जायेगा।
यह झूठ बोलने-बुलवाने का दोष उन लोगों पर है, जिन्होंने रोगी को मरना नहीं सिखाया। अगर बचपन से सिखाया होता, तो रोगी तिल-तिल करके नहीं मरता, खुशी से मरता।
स अब दुनिया झूठ बोल-बोल के व्यक्ति को झूठ सुनने का आदी बना दे और हम भी उसके कारण झूठ बोलने लगें, यूं लोगों को अगर खुश करने लगें, तो हमको सब जगह पूरे दिन सुबह से रात तक झूठ ही बोलना पड़ेगा। फिर हम सच बोल ही नहीं पायेंगे। तो गल्तियाँ वो करें और उसका दण्ड हम भोगें। हम ऐसा क्यों करें ?
स इसलिये हमको सच बोलना है, थोड़ा अच्छे ढंग से बोलना है, मीठे ढंग से बोलना है। और लोगों को यह भी सिखाना है साथ-साथ, क्या? कि सब लोगों को मरना भी सिखाओ, केवल जीना मत सिखाओ। सबको यह पाठ पढ़ाओ, एक दिन हमको यह शरीर छोड़ के जाना है। यह भी साथ-साथ सिखाते रहेंगे तो धीरे-धीरे यह समस्या हल हो जायेगी। और अगर यही मानते रहे, कि लोगों ने ऐसा कर रखा है, हमको ऐसा करना ही पड़ेगा, फिर तो कभी भी सत्यवादी नहीं बन सकते, कभी मोक्ष में नहीं जा सकते, हमेशा पाप लगता ही रहेगा।

(186) शंका :- कहते हैं ”’सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम” ? अर्थात् सत्य बोलें, मीठा बोलें, कड़वा सत्य न बोलें। तो शंका यह है, कि क्या अपवाद रूप में ‘झूठ बोलना’ भी धर्म हो सकता है? ख् समाधान- वेदों में कहा है ”सत्यं वक्ष्यामि नानृतम्” और मनु महाराज कहते हैं ”’सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम” ? अर्थात् सत्य बोलें, मीठा बोलें, कड़वा सत्य न बोलें। तो शंका यह है, कि मनुजी के अनुसार- सत्य न बोलें। अर्थात् क्या अपवाद रूप में ‘झूठ बोलना’ भी धर्म हो सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आपने मनु जी की बात पर पूरा ध्यान नहीं दिया। मनुजी ने यह नहीं कहा- ‘सत्य न बोलें।’ बल्कि यह कहा- ‘कड़वा सत्य न बोलें’। अर्थात् सत्य ही बोलें, परन्तु मीठा बना कर बोलें। उन्होंने इसी श्लोक के दूसरे भाग में कहा है- ‘प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः।’ अर्थात् मीठा तो बोलें, परन्तु झूठ न बोलें। यही वेदों का प्राचीन धर्म है। देखिये, झूठ बोलने को मना किया है। इसलिए वेद में और मनु जी में कोई विरोध नहीं है।
स इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। और ना ही ‘झूठ बोलना’ अपवाद रूप में धर्म हो सकता है। झूठ बोलने को अपवाद रूप में भी धर्म नहीं माना है। क्योंकि जिसका अपवाद है, वो धर्म नहीं हो सकता। इसमें तो आपकी यह मान्यता सामने आ रही है कि सत्य का भी अपवाद होता है। तो कौन सा अपवाद है सत्य का? कोई नहीं। सत्य और झूठ, ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। इसलिए दोनों धर्म नहीं हो सकते। अतः सत्य बोलना रूपी धर्म का कोई अपवाद नहीं है। इसलिये सत्य बोलना ही धर्म है।
स व्यवहार भानु में लिखा है- ‘न हि सत्यात् परोधर्मो नासत्यात् पातकं परम्’ अर्थात् सत्य से बढ़कर कोई ऊँचा धर्म नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई गिरा हुआ पाप नहीं है। सबसे घटिया पाप है- ‘झूठ बोलना’। सबसे बढ़िया पुण्य, सबसे ऊँचा धर्म- ‘सत्य बोलना’। सत्य बोलने वाला तो मोक्ष में चला जाता है। और झूठ बोलने वाला नरक में चला जाता है। इसलिये सत्य बोलना पूरा धर्म है, उसका कोई अपवाद नहीं है।

(187) शंका :- अपने देश-धर्म के लिये झूठ बोलना पाप है या नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

झूठ बोलना तो पाप ही है। चाहे देश के लिये बोलो या धर्म के लिये बोलो। दोष तो लगेगा ही।
स यह ‘मिश्रित-कर्म’ माना जायेगा। यदि आपके झूठ बोलने से देश की रक्षा होती है, देश का भला होता है, तो ठीक है, जितना भला होता है, उतना पुण्य। और जितना झूठ बोला, उसका पाप। यह मिश्रित कर्म कहलाता है।
स वेदों में केवल राजा को आपत्ति काल में झूठ बोलने की छूट है। और वह भी प्रजा की रक्षा करने के लिये, अपने स्वार्थ की सि(ि के लिये नहीं। जैसे कि- राजा गुप्तचर विभाग (ब्ण्प्ण्क्ए ब्ण्ठण्प्( रखे। चोर, डाकू, आतंकवादियों को पकड़ने और दंडित करने और देश की रक्षा करने के लिये छल-कपट का प्रयोग करें। केवल क्षत्रियों को छूट है, आम जनता को नहीं। दुष्टों को मारने के लिए क्षत्रियों को थोड़ी सी छूट दी गई है। उसको भी दोषयुक्त माना है, पूर्ण शु( तो उसको भी नहीं माना।
स उसको भी इसीलिये दोषयुक्त माना, कि जो उन्होंने झूठ, छल-कपट का प्रयोग किया। इससे उनका मोक्ष रूक जायेगा। उनको मोक्ष नहीं मिलेगा।
स इसलिये राजाओं को राजगद्दी छोड़नी पड़ी। आप इतिहास को उठाकर देखें। राजा जनक ने राजगद्दी छोड़ दी। राजा भरत ने राजगद्दी छोड़ दी। राजा अशोक ने राजगद्दी छोड़ दी और ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिलते हैं। कई राजा लोग अपनी गद्दी छोड़ के गये। क्योंकि उनको समझ में आ गया, कि राजा बने रहते हुये हमारा मोक्ष होने वाला नहीं है।
स गाय की रक्षा के लिए जाओ, हड़ताल करो। रेलवे वाले कर्मचारी रेल की स्ट्राइक, बस वाले कर्मचारी बस की स्ट्राइक, यूनिवर्सटी वाले विद्यार्थी यूनिवर्सटी की स्ट्राइक करते हैं, तो गौ की रक्षा के लिए आप हड़ताल क्यों नहीं करते? उसके लिए अनशन करो, हड़ताल करो। आंदोलन करोगे, सरकार झुकेगी। यदि उसको वोट चाहिए, तो सब कुछ मानेगी। परन्तु आम जनता झूठ बोले, यह बात वेद विरू( है। यह बात उन स्वार्थी लोगों ने समाज में फैलाई है, जो स्वयं झूठे हैं, झूठ से प्रेम करते हैं। झूठ को प्रोत्साहन देने बाले ऐसे लोगों को ईश्वर दण्ड देगा।

(188) शंका :- एक कसाई गाय को ले जा रहा है। गाय दौड़ गई और एक साधक ने देख लिया। अब गाय की जान बचानी है, तो साधक सच बोले या झूठ बोले?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इस स्थिति में साधक को क्या करना चाहिए, इसके तीन-चार उत्तर हैं।
पहला उत्तर यह है, कि मौन रहेगा, तो भी कसाई गाय को नहीं छोड़ेगा। चौराहे पर जो साधक बैठा है। मान लीजिये वह ब्राह्मण है, और उसने देख लिया है कि- गाय इस तरफ गई है, और उसके पीछे कसाई आ रहा है। वह ब्राह्मण आने वाले कसाई को उपदेश दे। उसको यह समझाए, कि गाय को मत मारो, गाय को मारना अच्छा नहीं है। गाय जिएगी, तो तुम भी जिओगे। कसाई से वह पूछे, कि- तुम्हें दूध, घी, मक्खन, मलाई, पनीर, बर्फी, खोवा खाने को चाहिए, कि नहीं चाहिए? कसाई कहेगा- चाहिए। अरे भाई! तुमको ये सब चाहिए। और अगर गाय मर जाएगी, तो तुमको ये सब कहाँ से मिलेंगे? इसलिये गाय को मत मारो। यह किसका उत्तर है? ब्राह्मण का।
दूसरा उत्तर- मान लीजिए, चौराहे पर बैठा हुआ व्यक्ति क्षत्रिय है। कसाई ने पूछा- बोलो गाय कहाँ गई? तो क्षत्रिय कहेगा- आओ सामने अखाड़े में, तुम गाय को मारोगे? पहले हमसे दो-दो हाथ करो। मेरे होते हुए तुम गाय को हाथ लगाओगे! जहाँ से आए हो, वहीं चले जाओ, नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। क्षत्रिय है, तो ऐसा बोलना चाहिए। झूठ क्यों बोलेगा?
तीसरा उत्तर- मान लीजिए वैश्य है, लड़ भी नहीं सकता, इतनी बु(ि भी नहीं है, समझा भी नहीं सकता। तो वो कहेगा- देखो भाई तुम गाय को मारते हो, गाय को मारने से तुमको क्या मिलेगा? कसाई कहेगा- हजार रुपया मिलेगा। वैश्य कहेगा- ये हजार रुपये ले लो, गाय हमारी हो गई। गाय हमने खरीद ली, तुमको हजार रुपये मिल गए। अब गाय को मत मारो, जाओ।
अगर गाय की रक्षा करनी हो, तो थोड़ी सी ताकत लगानी पड़ेगी। झूठ नहीं बोलना है।
चौथा उत्तर- मान लीजिए, चौराहे पर बैठा हुआ व्यक्ति शूद्र है। न तो वो ब्राह्मण है, न वो क्षत्रिय है, न वैश्य है। न वो उपदेश दे सकता है, न लड़ सकता है, न पैसा दे सकता है। यदि कसाई आता है, तो वह वहाँ से उठकर भाग जाये। क्षत्रियों के मोहल्ले में जाकर सूचना दे, कि- देखो-देखो कसाई आ रहा है, गाय को मार डालेगा, उसकी रक्षा करो। क्या शूद्र इतना भी नहीं कर सकता?
स हम बचपन से अपने पाठ्यक्रम में पढ़ते आ रहे हैं, कि- ”भारत की सीमा पर चीन के सैनिक घुस आए। गाँव के बच्चे जो बॉर्डर पर रहते थे, उन्होंने चीन के पाँच-सात सैनिक घुसते देखे। बच्चों ने भागे-भागे जाकर भारतीय सेना की चौकी पर सूचना दी, कि फलाने बॉर्डर से विदेशी सैनिक घुस आए, जाओ देश की रक्षा करो।”
इतने छोटे-छोटे बच्चे, पाँच साल के आठ साल के बच्चे दौड़कर सैनिकों को इतनी सूचना दे सकते हैं। तो एक चालीस साल का शूद्र क्या इतना निकम्मा है, कि वह यह भी नहीं कर सकता, कि जाये और क्षत्रिय को सूचना दे, कि गाय खतरे में है।
स कभी भी झूठ नहीं बोलने का, सच बोलो। हिम्मत से मुकाबला करना। वेद में कहीं नहीं लिखा है, झूठ बोलने को। ”हन्ति रक्षो हन्ति असद् वदन्तम्।” ये अथर्ववेद का मन्त्र है। ‘हन्ति असद् वदन्तम्’ जो झूठ बोलता है, भगवान उसको दण्ड देता है। ”सत्यम वक्ष्यामि नानृतम्” यह भी अथर्ववेद का मंत्र है। इस मंत्र का अर्थ है कि ‘सच बोलूँगा, झूठ नहीं बोलूँगा।’ झूठ बोलने का विधान कहीं नहीं है।

(189) शंका :- जब मैं ‘ध्यान’ में बैठता हूँ तो स्तुति,प्रार्थना,उपासना करते समय ‘रोना’ आता है? ऐसा क्यों होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

व्यक्ति के अंदर अच्छे संस्कार भी होते हैं और बुरे संस्कार भी।
स जब व्यक्ति अच्छे संस्कार को जगाकर भगवान की स्तुति प्रार्थना-उपासना करता है तो कभी-कभी आतंरिक भावनाएँ जागती हैं। गहरी भावुकता के उन क्षणों में कभी-कभी रोना आ जाता है। उसको एहसास होता है कि, ओह! मैने इतना समय व्यर्थ में खो दिया। मैं संसार के चक्कर में पड़ा रहा। भगवान को याद ही नहीं किया। अब जाकर मुझे होश आया, कि भगवान तो इतना मूल्यवान है।
स व्यक्ति सोचता है :- बहुत साल हो गए, पहले से अगर भगवान का ध्यान करता होता, तो मुझे बहुत आनंद मिलता। अब उसको प्रायश्चित्त होता है, पश्चाताप होता है। इस कारण उसको कभी-कभी रोना आता है, आँसू आते हैं। यह कोई बुरी बात नहीं है। ऐसे ही और भी कारण हो सकते हैं।
आँसू खुशी में भी आते हैं। भगवान का ध्यान करने से आनंद मिलता है। सात्त्विक वृत्ति बढ़ती है, उससे भी आंसू आते हैं। उनके पीछे पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड( यही रहती है, कि आज मुझे इतना आनंद मिला। यह अब तक मैने क्यों खोया। खुशी के आंसू के पीछे यही कारण होता है। व्यक्ति सोचता है, कि अब ठीक रास्ते पर आ गया हूँ तो उसमें प्रायश्चित्त का भाव जाग्रत होता है। जिससे आँसू आ जाते हैं। वो कोई बुरी बात नहीं है।
स शुरू में अगर ऐसा हो, दो, पाँच, सात दिन या पंद्रह दिन तो कोई आपत्ति नहीं है। धीरे-धीरे जब व्यक्ति अभ्यास करता जाएगा, तो वो रोना बंद हो जाएगा। आँसू आने बंद हो जाऐंगे। और व्यक्ति में स्थिरता आ जाएगी।

(190) शंका :- यज्ञ करने से योगाभ्यास में क्या सहायता मिलती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इस संदर्भ में यह जानना चाहिए कि ‘यज्ञ’ करने से व्यक्ति के अंदर ‘त्याग’ की वृत्ति आती है।
स यज्ञ के मंत्रों में हम बोलते हैं- ”इदं अग्नये स्वाहा”। ”इदम् अग्नये, इदन्नमम”, अर्थात् यह मेरा नहीं है। यह भगवान का दिया हुआ है। तो पहले तो केवल आहुति के बारे में कहते हैं। अब इस भावना को और आगे बढ़ाकर हमको यहाँ तक पहुँचना है, कि मेरे पास जितनी भी सम्पत्ति है, ये सब भगवान की है। फिर उससे और आगे बढ़ते हैं, कि यह मेरा शरीर भी मेरा नहीं है। जो बु(ि मेरे पास है, विद्या मेरे पास है और जो भी कुछ मेरे पास है, वो सब मेरा नहीं है। सब भगवान का दिया हुआ है। यज्ञ करने से यह भावना, सेवा व त्याग की वृत्ति हमारे अंदर आती है।
स बढ़ते-बढ़ते जब संपूर्ण भावना आ जाती है, तब यज्ञ का प्रयोजन सम्पन्ना हो जाता है। उसका उद्देश्य पूरा हो जाता है। त्याग और सेवा की भावना जब आ जाए तो यज्ञों को पूरा मान लिया जाता है। फिर उस व्यक्ति को यज्ञ छुड़वा देते हैं। कहते हैं- भाई! अब यज्ञ से तुमको जो चीज सीखनी थी, सीख ली। अब सब छोड़ दो। अब यह बात पूरी उसके जीवन में उतर गई तो फिर उसको ‘संन्यास आश्रम’ में प्रवेश दे देते हैं। अब उसके लिए यज्ञ बंद हो जाता है।
स अब उसने सब कुछ उद्देश्य के लिए यानि धर्म के लिए अर्पित कर दिया। अब उसके पास कुछ है ही नहीं, तो कैसे बोले, किस वस्तु के लिए कहे- ‘इदन्नमम’। हाँ, फिर उसका ‘अध्यात्मिक-यज्ञ’ चलता है, जबकि ‘भौतिक-यज्ञ’ बंद हो जाता है। इस प्रकार यज्ञ करने से आध्यात्मिक लाभ होता है। इसलिए यज्ञ करना चाहिए। तीन आश्रम वालों के लिए यज्ञ करने का विधान इसीलिए रखा गया है।

(191) शंका :- क्या घर में धर्मपत्नी के साथ किया गया हवन ही ”सम्पूर्ण-यज्ञ” कहलाता है। ‘यज्ञ’ करने से क्या ‘लाभ’ होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पति-पत्नी दोनों को साथ में बैठकर हवन करना चाहिए। तभी यज्ञ समग्र रूप से संपन्न माना जाता है। जब घर में भोजन सभी लोग मिलकर करते हैं, तो हवन भी सभी को करना चाहिए। आजकल तो बच्चे भी घर पर ही रहते हैं। गुरूकुल में बहुत कम लोग बच्चे भेजते हैं। उनको भी हवन करना चाहिए। हर व्यक्ति को हवन करना चाहिए।
यज्ञ करने से उत्तम मनुष्य का जन्म मिलता है। जो लोग उत्तम मनुष्य बनना चाहते हैं, उन्हें यज्ञ करना अनिवार्य है। आप ईश्वर को कैसा मानते हैं, न्यायकारी या अन्यायकारी? न्यायकारी मानते हैं न। तो न्याय के कुछ नियम हैंः-
पहला नियम- अच्छे कर्म का फल अच्छा, बुरे कर्म का फल बुरा। और सबसे अच्छे कर्म का सबसे अच्छा फल।
दूसरा नियम- कर्म नहीं, तो फल नहीं।
तीसरा नियम- जो व्यक्ति कर्म करे, उसी को फल।
चौथा नियम है- पहले कर्म, बाद में फल।
पाँचवाँ नियम- कर्म करेगा, तो फल अवश्य मिलेगा।
सारे प्राणियों में से सबसे अच्छा प्राणी कौन? मनुष्य। मनुष्यों में भी उत्तम कौन? अच्छे विद्वान्, धार्मिक माता-पिता के घर जन्म मिलना। तो सबसे अच्छा फल हुआ- ‘उत्तम मनुष्य जन्म’। यहाँ एक बात तो पकड़ में आ गई, कि नियम कहता है कि- सबसे अच्छे कर्म का, सबसे अच्छा फल। सबसे अच्छा फल है- ‘उत्तम मनुष्य जन्म’। यदि सबसे अच्छा फल प्राप्त करना हो, तो कर्म कैसा करना होगा? ‘सबसे अच्छा’।
सबसे अच्छा कर्म क्या? ‘यज्ञ करना।’ कैसे? अच्छा तो आप ही बताइये। मैं कुछ अच्छे कर्मों का उदाहरण देता हूँ। (क( किसी को भोजन खिलना। (ख( पानी पिलाना। (ग( वस्त्र दान करना। (घ( शु( वायु देना। इनमें से सबसे अच्छा कर्म कौन सा है? शु( वायु देना। शु( वायु दी जाती है, यज्ञ करने से। इस प्रकार से सबसे अच्छा कर्म हुआ- यज्ञ करना। तो बात समझ में आ गई, कि अगर उत्तम मनुष्य बनना हो, तो सबसे अच्छा कर्म करना होगा। सबसे अच्छा कर्म है- यज्ञ करना। इसलिए मैंने कहा था, जो यज्ञ करेगा वो मनुष्य बनेगा। इसके अतिरिक्त मन की शु(ि, त्याग की भावना, संगठन, अनुशासन की वृ(ि, प्रेम, बड़ों का सम्मान करने की भावना की वृ(ि इत्यादि अनेक लाभ यज्ञ करने से होते हैं।

(192) शंका :- माँसाहार पाप है और लाश खाने के समान है। आजकल दुनिया में अधिकांश लोगों को ऐसा करते देखते हैं, तो क्या उनको मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आपने बिल्कुल ठीक कहा। ऐसे लोगों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। मांस, अंडे खाने वाले, भ्रष्टाचार करने वाले इनको किसी को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। यम नियम में खान-पान की शु(ि, मन की शु(ि, अंदर- बाहर की शु(ि, अहिंसादि, ये बातें बताई गई हैं। यह सब करना ही पड़ेगा, तभी मोक्ष होगा।

(193) शंका :- यदि मनुष्य पुरुषार्थ करता है और उसका फल नहीं मिला अथवा न्यून मिला तो दोषी कौन है, भाग्य या हम?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका समाधान हैः-
स यदि मनुष्य पुरुषार्थ करता है और उसका फल नहीं मिलता या कम मिलता है, तो निःसंदेह फल देने वाला दोषी है।
स यहाँ समाज ने आपको पूरा फल नहीं दिया। नहीं दिया तो कोई बात नहीं, आपका कर्म बेकार नहीं जाएगा। अगर समाज ने, राजा ने, पंचायत ने, आपको कर्म का पूरा फल नहीं दिया और आपका फल बच गया, तो अंत में आपका फल ईश्वर देगा। उस पर पूरा-पक्का विश्वास करें। आपको फल मिलेगा, फल कहीं नहीं जाएगा।
स लोग क्या सोचते हैं? हमने अच्छे काम किए, इतनी समाज की सेवा की, इतना दान दिया, इतना पुण्य किया और हमको फल तो मिला ही नहीं। अच्छे कर्म का फल नहीं मिला तो शोर मचाते हैंः- देखो साहब! हमारा कर्म बेकार गया, हमारा फल नहीं मिला।
स वे यह नहीं सोचते कि उन्होंने जो बुरे कर्म किए, उसका फल भी तो नहीं मिला। जो गड़बड़ की, जो गलती की, उसका दंड अभी नहीं मिला, तो क्या आगे भविष्य में मिलेगा या नहीं मिलेगा? उसके बारे में आप शोर नहीं करते कि दण्ड क्यों नहीं मिला अभी तक?
अगर बुरा फल मिलेगा तो अच्छा भी मिलेगा। दोनों मिलेंगे, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।
स आपको अच्छा फल चाहिए कि बुरा? अच्छा चाहिए न। इसलिए अच्छा काम करो, बुरा काम नहीं करना, नहीं तो दंड मिलेगा। बार-बार दोहराता हूँ कि – “दंड के बिना कोई सुधरने वाला नहीं है।” दंड को हमेशा याद रखें, तो ही सुधार होगा।

(194) शंका :- क्या कभी चर-अचर जीव जब मनुष्य योनि में थे, एक से अधिक बार मोक्ष भोग चुके हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सभी जीवात्माएं चाहे चर-अचर जिस भी योनि में रहें, वो चाहे वृक्ष आदि में हो, चाहे मनुष्य आदि में हों, किसी में भी हों, वो एक से अधिक बार मोक्ष भोग चुके हैं। वेद, उपनिषद्, दर्शन से यह पता चल जाता है।
स यह बताइए- जीवात्मा अनादि है या किसी काल-विशेष में उत्पन्ना हुआ था? उत्तर है – जीवात्मा अनादि है।
स यह सृष्टि भी अनादि है या किसी दिन पहली बार बनी थी? उत्तर है – सृष्टि अनादि है। यह सृष्टि खत्म होने वाली नहीं है। सांख्य-दर्शन में कपिल मुनि जी ने एक सूत्र बनाया – ‘इदानीमिव सर्वत्र नात्यंतोच्छेदः’ अर्थात जैसे इस समय सृष्टि चल रही है, ऐसे ही हमेशा चलती रहती है। यह कभी भी पूरी तरह बंद नहीं होती।
स अनादि में तो इनफाइनाइट (अनन्त( टाइम है। कोई प्रारंभ ही नहीं, कितना लंबा समय है। इतने लंबे समय में कितनी ही बार जा चुके मोक्ष में, एक बार क्यों? आगे भविष्य में कितने ही बार जायेंगे, आगे भी अनंतकाल है। टाइम की कोई सीमा नहीं है, न भूतकाल में, न भविष्य में। भूतकाल में कितनी ही बार हम मोक्ष में जा चुके हैं और कितनी ही बार भविष्य में फिर जाएंगे।
स सभी जीवात्मा एक जैसे हैं। सबका स्वरूप मूल रूप से समान है। जिस काम को एक जीवात्मा कर सकता है, उस काम को दूसरा भी कर सकता है। अगर एक आत्मा ‘महर्षि दयानंद’ बन सकता है तो आप भी बन सकते हैं। मैं भी बन सकता हूँ। बारी-बारी से सब बन जाएंगे। एक व्यक्ति एम.ए. कर सकता है तो दूसरा क्यों नहीं कर सकता है? दूसरा भी कर सकता है, तीसरा भी कर सकता है। जो पुरुषार्थ करेगा, वह एम.ए. कर लेगा, पी.एच.डी कर लेगा, एम.एस.सी. कर लेगा, एम.टेक हो जाएगा, एम.बी.ए हो जाएगा, डॉक्टर भी बन सकता है, मोक्ष में भी जा सकता है। बारी-बारी से सब मोक्ष में जाएंगे।
स इतना मूर्ख कोई जीवात्मा नहीं है कि वो अनंतकाल तक मार खाता ही रहे और कभी भी उसको अक्ल नहीं आए। कितनी मार खाएगा, उसकी भी लिमिट रहती है। बहुत मार खाएगा, फिर खा-खा के थक जाएगा। फिर उसको अक्ल आ जाएगी कि- भई, मैं दुनिया में अब थक गया हूँ। अब और जन्म नहीं चाहिए। हर एक को अक्ल आ जाएगी, तो बारी-बारी से सब मोक्ष में जाएंगे।
स हमारी बु(ि भी बढ़ती-घटती है, धीरे-धीरे बु(ि का विकास होता है। आज से दस वर्ष पहले क्या आपका ज्ञान इतना ही था जितना कि आज है? बढ़ गया न, और अगले दस साल में और कितना बढ़ जाएगा। ऐसे पुरुषार्थ करने से, अनुभव से, ज्ञान का स्तर बढ़ता है। आप में पुरुषार्थ की और थोड़ी ज्ञान-विज्ञान की कमी भी है। ज्ञान बढ़ेगा और व्यक्ति पुरुषार्थ करेगा तो आगे बढ़ जाएगा। और फिर ऐसा भी होता है कि ज्ञान बढ़ने के बाद भी व्यक्ति आलसी-प्रमादी हो सकता है। लेकिन अंत में पुरुषार्थ तो उसे करना पड़ेगा।
स ऐसा भी होता है कि व्यक्ति ने कुछ पुरुषार्थ किया, उसकी गति कम है। उसको थोड़ा ज्ञान हुआ, कुछ-कुछ समझ में आया फिर आगे पुरुषार्थ नहीं किया। एक व्यक्ति पुरुषार्थ तो बहुत करता है, पर बु(िपूर्वक नहीं करता, बु(ि भी साथ में चाहिए। कितने ही लोग खूब मेहनत करते 1हैं। पर धंधे में बु(ि से काम नहीं करते, इसलिए बहुत नहीं कमा पाते। कई लोग बु(ि से काम लेते हैं, मेहनत कम करते हैं, वो बहुत कमा लेते हैं। इसलिए बु(ि और पुरूषार्थ दोनों चाहिए। ऐसे दोनों को मिलाकर साथ चलेंगे तो फिर जल्दी विकास होगा।
‘जड़ बु(ि’ का मतलब जिसकी बु(ि तीव्र (ैींतच( नहीं है यानी कम बु(ि वाला है, उसका पिछला संस्कार कमजोर है, इच्छा होने पर भी वह विशेष प्रगति नहीं कर पाता तो वह कम प्रगति (प्रोग्रेस( करेगा। उसे अधिक समय लगेगा, पर सीख तो जाएगा। सीखने में रोक-टोक नहीं है। सब सीख सकते हैं।

(195) शंका :- कोई धनी व्यक्ति जो कि गरीबों का खून चूसकर धन एकत्र करता है, यदि कोई व्यक्ति उसे लूटकर वोधन गरीबों में बाँट देता है तो क्या उसे भी ईश्वर के द्वारा दंड मिलेगा? इन दोनों में से अधिक दंड किसको मिलेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

गरीबों का शोषण करना, खून चूसना यह भी एक अपराध है। सेठ ने जो अपराध किया, उसका दंड सेठ को मिलेगा।
स किसी ने सेठ का धन लूट लिया, वह भी अपराध है। उसे लूटने का भी दंड मिलेगा।
वह सेठ खून चूसता है या जो भी करता है, इसका जिम्मेदार दूसरा व्यक्ति नहीं है। इसका जिम्मेदार वही व्यक्ति है, जो शोषण कर रहा है। आपको यह अधिकार नहीं है कि आप सेठ की संपत्ति को लूट (चोर( लें।
स यह राजा (सरकार( का काम है या परमात्मा का काम है, वो उसको दंड देगा। दूसरा व्यक्ति कानून हाथ में नहीं ले सकता।
स दूसरा व्यक्ति अगर गरीबों को दान देना चाहता है तो अपना धन कमाकर दान दे। उसे किसने रोका है? लूट करके दान देना उसका अधिकार नहीं है। अपना धन कमाओ और गरीब को दो, कौन रोकता है?
स दान देना ‘शुभ कर्म’ है, लूटमार करना ‘अशुभ कर्म’ है। दोनों कर्म अलग-अलग हैं। दोनों का अलग-अलग फल है। अब किसको अधिक दंड मिलेगा, यह तो भगवान जाने। पूरा-पूरा हमको नहीं मालूम।

(196) शंका :- आपने कहा था, हम लोग मोक्ष से धरती पर आए हैं। अगर हमें फिर मोक्ष मिले तो हमें मोक्ष में भी इस बात का भय, दुःख, चिंता लगी रहेगी कि हम कहीं वापस धरती पर न चले जाएं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

चिंता बिलकुल नहीं लगेगी। एक व्यक्ति ने अहमदाबाद से दिल्ली तक रेलवे आरक्षण कराया। उसको सीट मिल गई। उसको पता है कि मैं अहमदाबाद से बैठूँगा और दिल्ली स्टेशन पर जाकर मुझे रेलगाड़ी छोड़ देनी है। जैसे-जैसे दिल्ली का स्टेशन नजदीक आएगा तो क्या उसकी चिंता बढ़ती है? नहीं न। तो मोक्ष में भी चिंता क्यों बढ़ेगी? उसको पता है कि इतने समय का मोक्ष है और अब इतना समय पूरा होने वाला है। जब रेलगाड़ी छोड़ने में आपको चिंता नहीं है तो मोक्ष छोड़ने में भला क्यों चिंता होगी?
अगर आप बु(िमान हैं और न्याय से चलते हैं तो आपको चिंता नहीं होगी। अगर आप पक्षपाती हैं, अन्याय प्रिय हैं तो आपको चिंता होगी। मोक्ष वाला व्यक्ति पक्षपाती तो होता नहीं है। वो तो न्यायप्रिय होता है और वो न्याय से चलता है। भई जितना कर्म किया था, उसका फल पूरा हो गया, फिर कर्म करो, फिर मोक्ष में आ जाना। इसलिए कोई चिंता नहीं होगी।

(197) शंका :- क्या मोक्ष के बाद जन्म होता है? यदि हाँ, तो जब हमें फिर से सांसारिक दुःख उठाने पड़ेंगे तो फिर मोक्ष का लाभ ही क्या रहा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मुझे भी स्वीकार है कि मोक्ष से वापस तो लौटना पड़ेगा। मोक्ष से लौट कर फिर जन्म लेंगे तो पुनः दुःख आ जायेंगे। आप कहते हैं कि – ”जब लौट कर वापस आएंगे तो फिर मोक्ष में जाने का फायदा ही क्या हुआ?”इस शंका का उत्तर हैः-
स मेरा एक प्रश्न है – दोपहर में भूख लगी तो आपने खाना खा लिया। क्या शाम को भूख नहीं लगेगी? यदि शाम को भूख लगेगी, तो फिर दोपहर में खाने का क्या लाभ हुआ? खाना, खाना बेकार हुआ न। बताइए, खाना खाया आपने, वो उपयोगी हुआ कि बेकार गया? उपयोगी हुआ। कारण कि, इससे छह घंटे तक उस भूख के दुःख से छुटकारा हो गया। दोपहर बारह बजे भूख लगी तो आपने यह सोचकर भोजन किया कि शाम को फिर भूख लगेगी तो फिर खा लेंगे। अभी छह घंटे तो कम से कम इस भूख से जान छूटे।
स अगर छह घंटे तक भूख के दुःख से छुटकारा पाने के लिए आप भोजन करते हैं, तो इकतीस नील दस खरब चालीस अरब वर्षों तक दुःख से छुटकारा पाने के लिए (मोक्ष के लिए( प्रयास क्यों न करें? करना चाहिए। इसलिए मोक्ष के लिए अभी प्रयास करो।
स जब दोबारा भूख लगेगी तो दोबारा खा लेंगे, और जब दोबारा मोक्ष से लौट कर आएंगे तो दोबारा फिर चले जाएंगे।
स ऐसा तो नहीं है कि मोक्ष केवल एक ही बार मिलेगा, फिर मिलेगा ही नहीं। भगवान ने कोई रोका थोड़े ही है। वो कहता है- दोबारा फिर कर्म करो, फिर आ जाना मोक्ष में। दोबारा रास्ता खुला है। हम बार-बार मोक्ष में जाएंगे और वहाँ अपना कर्मफल भोगेंगे और फिर वापस आ जाएंगे। फिर दोबारा कर्म करेंगे, फिर चले जाएंगे। इसलिए बार-बार मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।

(198) शंका :- एक महिला ने अपने पति की क्रूरता एवं अत्याचार से लाचार होकर एक रात मौका देखकर उसकी हत्या कर दी। उसके अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं बचा था। क्या उसे परमात्मा दंड देगा, जो सजा यहाँ काट ली, क्या वह कम हो जाएगी?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इस शंका का उत्तर हैः-
स वैसे तो यह वेद सम्मत नहीं है कि पत्नी, पति के अत्याचारों से परेशान हो जाए तो रात को गंडासा लेके उसे काट दे, कोई हथियार लेकर उसको मार डाले। पति को मारना तो नहीं चाहिए।
स अगर पति के अत्याचारों से परेशान है तो वो राजा को शिकायत करे, कोर्ट में जाए कि, साहब मेरा पति मुझे परेशान करता है, उसको ठीक करें, न्याय करें। दरअसल,पत्नी को ऐसा करना चाहिए।
स यदि पत्नी ने पति की हत्या कर ही दी तो फिर अपराध तो किया है, अतः उसका दंड भी मिलेगा। अब क्या दंड मिलेगा ? यह तो पूरा-पूरा भगवान ही जाने, हम पूरा-पूरा नहीं समझ पाएंगें। कर्मफल बड़ा विचित्र है, बड़ा कठिन है, गंभीर है।
स यहाँ प्रश्न यह किया है कि अगर उसको जो सजा यहाँ मिलती है और वो काट ली तो क्या वो कम (माइनस( हो जाएगी? मान लीजिए, दस रुपये का दंड उसको ईश्वर के न्याय के अनुसार मिलना चाहिए और यहाँ सरकार ने छह रुपए का दंड (दुःख( दे दिया तो बाकी बचा चार रुपया। बस चार रुपए भगवान उसको दंड दे देगा। वो छह रुपए कम क्यों हुआ? दंड भोग लिया न, भोगना ही तो था। दस का भोगना था, छह का भोग लिया, अब चार बाकी बच गया। चार और मिल जाएगा। इस तरह से एक अपराध का दंड एक ही बार मिलता है, यह न्याय कहलाता है।

(199) शंका :- यह कैसे साबित हो कि अच्छे कार्य करने से व्यक्ति मोक्ष में जाता है? क्या अभी तक कोई भी व्यक्ति मोक्ष में गया है? अगर हाँ तो आपको कैसे ज्ञान हुआ कि वो व्यक्ति मोक्ष में गया है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम सब के सब मोक्ष में जा चुके हैं और सारे मोक्ष में से लौटकर आए हैं। यही शास्त्र भी कहता है, वेद भी कहता है कि अच्छे काम करो, निष्काम कर्म करो और मोक्ष में जाओ।
प्रश्न है – इसका पता कैसे चलेगा? आपको भी बता देता हूँ। आपको भी पता चलेगा, मुझे भी और सबको पता चलेगा। जो व्यक्ति मोक्ष में जा रहा है, वो स्वयं ज्ञान रखता है कि अब मेरा मोक्ष होगा या अभी और जन्म होगा। उसकी कसौटी यही है कि-
स ”अगर आपके मन में सांसारिक सुख भोगने की सारी इच्छाएं समाप्त हो गईं हैं तो आपका मोक्ष हो जाएगा।”
अगर ऐसा लगता है कि अभी और सांसारिक सुख भोगने की इच्छा बाकी है तो समझ लेना अभी और जन्म लेना पड़ेगा। यह कसौटी वेद, योग दर्शनादि शास्त्रों में लिखी है। वहाँ से हमें ज्ञान हुआ।
स अब हर एक को अपना-अपना तो पता चलता ही है। जब भूख लग रही है तो आपको पता चलता है और खाना खाते हैं, पूरा पेट भर जाता है तो आपको पता चलता है कि अब पेट भर गया है, अब और नहीं खाना। ऐसे ही इच्छाएँ समाप्त हो गईं, यह भी पता चलेगा। अब और सांसारिक सुख नहीं भोगना, पूरा हो गया, बस तब समझ लेना कि मुझे अब मोक्ष मिल जाएगा।
स अगर अनादिकाल से आज तक एक भी मोक्ष में नहीं गया, ऐसा मानो तो, भविष्य में क्या कोई जा पाएगा? भविष्य में भी नहीं जाएगा। इसका मतलब है, भगवान यह झूठ बोलता है कि तुम मोक्ष में जाओ। लेकिन ऐसा तो नहीं है। भगवान सच बोलता है।
भगवान कहता है कि पुरुषार्थ करो और मोक्ष में जाओ। इसका मतलब मोक्ष में जाना संभव है। अगर संभव है तो पहले भी बहुत सारे लोग गए और आगे भी लोग जाएंगें। आप भी गए थे, हम भी गए थे, और फिर जाएंगे। जोर लगाएंगे तो जाएंगे।
स यह ‘संन्यास’ किसलिए लिया जाता है? क्या व्यापार करने के लिए, पैसे कमाने के लिए? नहीं, संन्यास का एक ही उद्देश्य हैः- ”मोक्ष में जाना”। संन्यास के बाद फिर मोक्ष होता है। संन्यासी बनने से तो लोगों को डर लगता है कि हमको संन्यासी बनवा कर घर छुड़वा देंगे। मोक्ष में जाने के लिए संन्यास लेना अनिवार्य (कम्पलसरी( है। आज लो, बीस जन्म बाद लो, पचास जन्म के बाद लो, लेना तो पड़ेगा और कोई रास्ता नहीं है।
मुझे मोक्ष में जाना है, दुनिया में नहीं रहना है। मेरी समझ में आ गया। आप भी प्रयास करें, आपको भी समझ में आएगा।
स हमारे गुरुजी कहते हैं – स्वार्थी मत बनना। औरों को भी साथ लेकर जाना। इसलिए मेरी ड्यूटी लगा रखी है, जाओ प्रचार करो। दूसरे लोगों को भी साथ लेते चलो, अकेले मोक्ष में मत जाना।
स घर छोड़ना पड़ेगा, संसार छोड़ना पड़ेगा, तब मोक्ष होगा। मेरा प्रवचन सुनकर के, आप जोश में आकर, कल ही घर मत छोड़ देना। अंततः करना यही पड़ेगा, लेकिन कब करें? उसके लिए तैयारी करनी पड़ेगी, योग्यता बनानी पड़ेगी।
स आज से आप सोचना शुरु करें कि हमें घर छोड़ना है, हमें वानप्रस्थ लेना है, हमें संन्यास लेना है, योग्यता बनानी है। आपको घर छोड़ने की तैयारी करने में भी पाँच-दस वर्ष निकल जाएंगे। इसलिए जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए। होश में रहकर बु(िमत्ता से अपने सामर्थ्य को ध्यान में रखकर के करना चाहिए। तैयारी तो आप आज से भी शुरु कर सकते हैं, कि हम समय आने पर योग्यता बनाकर वानप्रस्थ लेंगे, संन्यास लेंगे।

(200) शंका :- ईश्वर के द्वारा संसार बनाने से पूर्व जीव ने कर्म कहाँ किए, कर्मफल के लिये जगत् कैसे बनाया?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ईश्वर ने जब यह जगत् बनाया तो जिन कर्मों का फल सृष्टि के आरंभ में दिया, वो कर्म हमने इससे पिछली सृष्टि में किए थे। अब आप यह पूछेंगे कि जब पिछली सृष्टि बनाई तब कर्म कहाँ से आए? उत्तर है कि उससे पिछली सृष्टि से आए। इसी प्रकार से उसके पीछे चलते जाओ।
एक व्यक्ति ने पूछा कि जब भगवान ने पहली बार सृष्टि बनाई, तब कर्म कहाँ से आए तो मैंने कहा – पहली बार सृष्टि बनाई ही नहीं। अब यह उत्तर समझ में नहीं आया, टेढ़ा है न ! इस बात को समझना कठिन है।
पहली बार ईश्वर ने सृष्टि कभी बनाई ही नहीं। यह अनादिकाल से चल रही है। तीन वस्तुएँ अनादि हैं- ईश्वर, जीव, प्रकृति। यह सबसे पहला सि(ांत (प्रायमरी लॉ( है। अगर यह समझ में आएगा तो आगे बहुत सी बातें समझ में आ जाएंगी। अगर यह समझ में नहीं आएगा तो कुछ समझ में नहीं आएगा।
ईश्वर ने पहली बार कभी भी सृष्टि नहीं बनाई। अनादिकाल से ईश्वर सृष्टि बना रहा है और जीवात्मा अनादिकाल से कर्म कर रहा है और प्रकृति भोग दे रही है। प्रकृति हमारे कर्मों का फल हमको भुगवा रही है। तीनों अनादिकाल से चल रहे हैं।
विपक्ष को सोचने से बात जल्दी समझ में आती है। यह भी एक समझने का तरीका है। कल्पना कीजिए कि – पहली बार ईश्वर ने सृष्टि बनाई। जब पहली बार बनाई, तो ईश्वर केवल मनुष्य बनाएगा या गाय-घोड़ा भी बनाएगा? अकेला मनुष्य बनाएगा तो अकेला मनुष्य तो जी नहीं सकता। उसको गाय भी चाहिए, घोड़ा भी चाहिए, गधा भी चाहिए, गेहूँ भी चाहिए, चना भी चाहिए। मनुष्य का जीवन ठीक-ठाक चलाने के लिए ईश्वर भेड़-बकरी, गाय, गधा-घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, गेहूँ, चना, सब बनाएगा। ऐसी स्थिति में प्रश्न होगा कि पहली बार ईश्वर ने किसी को मनुष्य बना दिया, किसी को बिल्ली बना दिया, किसी को कुत्ता बना दिया, किसी को वृक्ष बना दिया, तो बिना कर्म के उसने फल दिया कि नहीं दिया? इससे तो यह भी मानना पड़ेगा कि ईश्वर ने पहली बार बिना कर्म के फल दिया। और यदि यह मान लिया कि पहली बार ईश्वर ने बिना कर्म के फल दिया तो यह प्रश्न होगा – क्या ईश्वर न्यायकारी हुआ कि अन्यायकारी हुआ? तब तो वह अन्यायकारी हुआ। जब पहली बार सृष्टि बनाते ही ईश्वर अन्यायकारी हो गया तो दूसरी बार क्या न्यायकारी रहेगा? फिर तीसरी बार क्या हम उस पर भरोसा करेंगे? क्या वह हमारे साथ न्याय करेगा? क्या आप लोग ईश्वर को अन्यायकारी मानने के लिए तैयार हैं। नहीं हैं न। इससे सि( हुआ कि ईश्वर ने पहली बार सृष्टि नहीं बनाई।
ईश्वर न्यायकारी तभी बना रहेगा, जब कर्म के आधार पर फल मिलें और कर्म कहाँ से आएगा? वो पीछे से आएगा और पीछे से पीछे, पीछे से पीछे सृष्टि और कर्म मानेंगे, तब तो ईश्वर न्यायकारी बना रहेगा अन्यथा अन्यायकारी मानना पड़ेगा। तो ऐसा सोचेंगे तो थोड़ा समझ में आएगा।

(201) शंका :- 98. शंका- जब मनुष्य अच्छे कर्म करता है, ईश्वर की भक्ति करता है तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष के समय के बाद वो फिर जन्म लेता है और अच्छे कर्म करता है तो भगवान का मनुष्य को बार-बार जीवन देने का क्या उद्देश्य है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मनुष्य को बार-बार जन्म देना भगवान का उद्देश्य नहीं है। उसका उद्देश्य तो ‘मोक्ष’ में भेजना है। पर जब हम मोक्ष वाले कर्म ही नहीं करेंगे, तो भगवान क्यों मोक्ष में डाल देगा? कमी हमारी ओर से है, भगवान की ओर से नहीं। भगवान ने तो कह रखा है, ‘ब्रह्मलोक’ में जाओ, ‘मोक्ष’ में जाओ, यहाँ संसार में मत पड़े रहो, यहाँ तो दुःख भोगना पड़ेगा।
यह हमारी गड़बड़ है, हमारी कमी है। हम मोक्ष के लिए काम नहीं करते, बल्कि पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा के लिए काम करते हैं। इसलिए भगवान हमको बार-बार जन्म देता है।
मोक्ष पाना हमारे हाथ में है, मोक्ष वाले कर्म करेंगे, तो मोक्ष मिल जाएगा। जैसे परीक्षा में अच्छे अंक लाना विद्यार्थी के हाथ में है। परीक्षक तो केवल निर्णायक है। इसी प्रकार से संसार में जन्म लेना या मोक्ष प्राप्त करना हमारे हाथ में है। ईश्वर तो केवल फलदाता निर्णायक है।

(202) शंका :- जब प्रारब्ध से किसी कर्म का फल रोग के रूप में मिलना ही है, कर्म का दंड मिला है तो उसे भोगें, रोगी बने रहें, इलाज क्यों करवाते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

भगवान ने हमको ‘कर्म-दंड’ के रूप में रोग दिया है और भगवान ने ही कहा कि इस रोग की चिकित्सा भी करवा लेना। रोगी हो जाएं, तो फिर चिकित्सा करवाएं। चिकित्सा के लिए हजारों प्रकार की औषधियाँ, वनस्पतियाँ भगवान ने बनाई हैं।
हम कर्म गड़बड़ करते हैं तो दंड मिलेगा और दंड मिलेगा तो फिर चिकित्सा कराकर और आगे अवसर भी तो मिलना चाहिए। यदि रोगी हो गए और चिकित्सा नहीं कराई तो मर जाएंगे और मर गए तो फिर आगे ‘मोक्ष’ के लिए अवसर आपको मिल नहीं पाएगा। इसलिए रोग की चिकित्सा भी करवानी चाहिए।

(203) शंका :- मन में आते हुए विचारों को कैसे रोकें? संध्या, ध्यान आदि में अनेक विचारों से एकाग्रता टूट जाती है। क्या करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मन में विचारों की उत्पत्ति के दो कारण है- ‘इच्छा’ और ‘प्रयत्न’। विचारों को रोकने का उपाय यही है, कि- इच्छा को रोक दीजिए और प्रयत्न को रोक दीजिये। इससे मन में आने वाले विचार रुक जाएँगे।
स योगदर्शन में पतंजलि महाराज ने दूसरे दो शब्दों का प्रयोग किया। पहला है- ‘वैराग्य’ और दूसरा है- ‘अभ्यास’। वृत्तियों (विचारों( को रोकने के लिए बस ये दो उपाय अभ्यास और वैराग्य हैं।
स लंबे समय तक दीर्घकाल तक अभ्यास में जुटे रहिये। निरंतर अभ्यास कीजिए। धीरे-धीरे मन एकाग्र होता जाएगा। जो विचार हम उठा लेते हैं, उन्हें मन से हटाते जाइये। इस तरह धीरे- धीरे अभ्यास करेंगे तो लाभ होगा। और थोड़ा वैराग्य बढ़ाइये। वैराग्य का मतलब- संसार से राग भी नहीं और द्वेष भी नहीं करना। इन दोनों से बचना।
स राग से कैसे बचें? संसार की वस्तुओं में सुख न लेवें। इससे धीरे-धीरे राग कम हो जाएगा। द्वेष से कैसे बचें? किसी भी परिस्थिति में दुःखी न हों। कैसे? जब छोटी-मोटी प्रतिकूल घटना हो, तब सोचें- ‘कोई बात नहीं’। जब बड़ी घटना होवे, तब अपनी रक्षा का पूर्ण प्रयत्न तो अवश्य करें। फिर भी यदि संसार में न्याय न मिल पाए, तब सोचें- ‘ईश्वर न्याय करेगा।’ इस प्रकार से ‘अभ्यास’ और ‘वैराग्य’ दो उपाय हैं। इनसे वृत्तियों को रोका जा सकता है।

(204) शंका :- प्राणी-मात्र को कर्म के अनुसार दुःख मिलना लिखा ही है तो फिर उनको दुःख भोगने देना चाहिए। तो शास्त्रों में क्यों लिखा है कि प्राणी-मात्र की सेवा, सहायता करनी चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

कल्पना करो कि, अपने कर्मानुसार हम भी कहीं दुःख में फँस गए, तब हम क्या चाहेंगे? तब हम यही चाहेंगे कि दूसरा व्यक्ति हमारी सहायता कर दे, हम भले ही दुःख में फँस गए। जब हम चाहेंगे कि दूसरा व्यक्ति हमारी सहायता करे, तो हमको भी दूसरे की सहायता करनी चाहिए। हम भी अपने कर्मानुसार दुःख में फँसेंगे, वो भी अपने कर्मानुसार दुःख में फँसा है।
स जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। यह धर्म की बात है, मनुष्यता की बात है। इसलिए हमें दूसरों की सहायता करनी चाहिए।
स ईश्वर ने उसके कर्मानुसार उसको दुःख दिया। किसी को विकलांग बना दिया, किसी को रोगी बना दिया। कर्म के अनुसार दुःख देना, यह ईश्वर का काम है। ईश्वर ने अपना काम किया।
जिस ईश्वर ने व्यक्ति को कर्मानुसार दुःख दिया, उसी ईश्वर ने हमको यह सुझाव दिया कि, भई इस रोगी की, इस मुसीबत के मारे की सहायता करना। ईश्वर के आदेश का पालन करना हमारा धर्म है। इसलिये कोई दुःख में फँस जाए, आपत्ति में फँस जाए, तो उसकी सेवा-सहायता जरूर करनी चाहिए।
स ईश्वर के दंड विधान में बाधा उत्पन्ना करना तब होता, जब ईश्वर मना कर देता कि रोगी की सहायता मत करो। और फिर भी हम ऐसा करते। यह उसके काम में दखलंदाजी होती। पर जब ईश्वर स्वयं ही कह रहा है कि, ”तुम इसकी सहायता करो।” इसलिए उसके काम में हमने कोई गड़बड़ नहीं की, बल्कि उसके आदेश का पालन किया। अपराधी को दंड देना ईश्वर का काम है और दंड मिलने के बाद उसकी सहायता करना हमारा काम है। क्योंकि यह काम हमको ईश्वर ने बताया है। ऐसा करने में कोई आपत्ति नहीं है।
स और एक बात जो खास समझने की है कि – जो भी दुःख हमें प्राप्त होते हैं, वे सब हमारे कर्मों का फल नहीं है। कुछ दुःख हमारे कर्मों का फल है, कुछ अन्याय से भी हमको भोगने पड़ते हैं। दूसरे व्यक्तियों या प्राणियों के द्वारा अन्याय हो सकता है। प्राकृतिक दुर्घटनाओं से भी हमको दुः़ख भोगने पड़ते हैं। अतः सहायता करना कोई अपराध नहीं है।

(205) शंका :- आत्मा ही मन में विचार उठाती है और जीवात्मा शु(-स्वरूप होती है, तो फिर मन में चोरी-व्यभिचार, हिंसा, असत्य आदि अनुचित अशु( विचार क्यों आते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

प्रश्न का भाव है कि आत्मा मन के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करता है। आत्मा शु( है, बु( है, तो मन में अच्छे ही विचार आने चाहिये। तो हमारे मन में बुरे विचार क्यों आते हैं? यदि विचार आत्मा से उठते हैं तो यह हर समय सुविचारों को ही क्यों नहीं उठाता, क्योंकि आत्मा को पवित्र बताया गया है?
स इसके बहुत सारे कारण हैं। बुरे विचार क्यों आते हैं, इसका एक मुख्य कारण हैं, हमारे अपने संस्कार। आत्मा यद्यपि स्वरूप से शु( व पवित्र है। शु( होते हुये भी, उसे जो ज्ञान है, वह कुछ शु( है, कुछ अशु( है। यानी कुछ तो विद्या है और कुछ उसमें अविद्या (उलटा ज्ञान( भी है। अनेक जन्मों की अविद्या हमारे अंदर चली आ रही है। अविद्या नाम का एक दोष है, जो जीवात्मा के साथ जुड़ जाता है। अविद्या (उल्टे ज्ञान( के कारण वो मलीन हो जाता है। अपनी इच्छा से वो खराब काम नहीं करना चाहता, गलती नहीं करना चाहता। स्वयं तो वो अच्छी बात ही चाहता है, सुख ही चाहता है, अच्छे काम ही करना चाहता है। लेकिन जब यह अविद्या ऊपर से चिपक जाती है, तो उसके कारण यह जीवात्मा गड़बड़ विचार (उल्टी सोच( करता है। इसी अविद्या के दोष के कारण वो अच्छे विचार भी उठा लेता है और बुरे विचार भी उठा लेता है। अविद्या के कारण उसमें राग और द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं।
स अविद्या के प्रभाव से प्रेरित होकर जीवात्मा झूठ बोलता है, चोरी करता है, व्यभिचार करता है, अन्याय करता है, शोषण करता है, छल-कपट करता है, हिंसा करता है, निंदा- चुगली करता है।
अविद्या जीवात्मा को लपेट लेती है, क्योंकि जीवात्मा अल्पज्ञ है।
स ईश्वर सर्वज्ञ है, उसको अविद्या नहीं लपेट सकती, उसको अविद्या नहीं दबा सकती। वो इतना मजबूत है, कि अविद्या उसे नहीं सताती। जीवात्मा बेचारा कमजोर है, इसलिए अविद्या उसको आकर दबा लेती है, वो बेचारा पिट जाता है। इस प्रकार अविद्या के नीचे दबकर जीवात्मा उलटे-सीधे काम करता है। उस अविद्या के कारण, उन संस्कारों के कारण जीवात्मा बुरे विचार भी करता है।
स इस प्रकार कुछ विद्या भी है और कुछ अविद्या भी है। यह दोनों नैमित्तिक हैं यानि यह बाहर से आती हैं। कहीं अड़ोस-पड़ोस के लोगों से कुछ बुरी बातें सीख लेता है। उसके कारण बुरे विचार करता है। कुछ टेलीवीजन से, कुछ कंप्यूटर से, कुछ टेलीफोन-मोबाईल से, कुछ इंटरनेट से, कुछ पढ़ाई लिखाई के सिलेबस से, कुछ मित्र-मण्डली से, कुछ सरकार के कानूनों से, ऐसे बहुत सारे कारण हैं, जिनसे व्यक्ति बुरे विचार भी कर लेता है।
स प्राकृतिक रजोगुण, तमोगुण की वजह से जीवात्मा में यह अविद्या, राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इस गड़बड़ी के कारण कभी-कभी वो बुरे विचार भी उठा लेता है, बुरे काम भी कर लेता है, गलत भाषा भी बोल देता है।
स जब व्यक्ति अविद्या को दूर कर लेता है तो हर समय सुविचार ही उठाता है। इसलिए कोशिश करनी चाहिये, कि उन बुरे विचारों से बचें। उन बुरे विचारों को रोकें। अच्छे विचार करें, अच्छी भाषा बोलें, अच्छे कर्म करें। ऐसा हमको पूरा प्रयत्न करना चाहिये। इसका उपाय है-वेदों का अध्ययन, ईश्वर का ध्यान और निष्काम सेवा करना।

(206) शंका :- क्या ‘मन’ पर पड़े ‘संस्कारों’ के विरू( भी ‘आत्मा’ कार्य कर सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिल्कुल कर सकता है।
स मन में जो संस्कार है, वो कहता है, चोरी कर लो। आत्मा कहता है- नहीं। आप उसके सामने अड़ जाओ। ठीक वैसे ही जैसे अभिमानी आदमी अड़ जाता है।
स संस्कार अपना स्वभाव जरूर दिखायेंगे। आलंबन उपस्थित होने पर संस्कार जागेंगे। मान लो, अभी आपकी आइसक्रीम खाने की इच्छ नहीं है। लेकिन यदि सामने प्लेट में आइसक्रीम परोस दी जाये, तो इच्छा जाग जायेगी। आइसक्रीम आलंबन है, जिसके सामने उपस्थित होने पर संस्कार जागता और आइसक्रीम खाने की प्रेरणा देता है। उस संस्कार को दबाना, उससे लड़ना, यह आत्मा का काम है। यदि वो चाहे, जोर लगाये, तो वो लड़ सकता है, दबा सकता है, उससे जीत सकता है। इसमें कोई शंका की बात नहीं है। इसी का नाम ‘पुरूषार्थ’ है।
स दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा बलवान पुरूषार्थ है। इसलिये पुरूषार्थ करो, इन संस्कारों को दबाओ, इनको मारो। दो में से एक को मार खानी पड़ेगी। अब विकल्प-चयन आपके हाथ में है।

(207) शंका :- चित्त परिवर्तनशील है। कभी सत्त्व गुण, कभी तमोगुण, कभी रजोगुण प्रधान होता रहता है। क्या खान-पान से ऐसा होता है? कहते हैं- ‘जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन’।

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह बात ठीक है। चित्त परिवर्तनशील है। इस पर खान-पान का असर पड़ता है।
स अगर कोई व्यक्ति शराब पी लेगा, कोई भांग खा लेगा, तो उसका असर होगा। तब चित्त तामसिक हो जाएगा। कोई तेज मिर्ची मसाले खाएगा, तो उसका असर होगा। उनका चित्त फिर उतना सात्त्विक नहीं रहेगा, बिगड़ जाएगा। राजसिक भोजन खाएगा-पिएगा, मन बिगड जाएगा। मन में चंचलता आएगी।
स इसलिए सात्त्विक भोजन खाना चाहिए। घी, दूध, फल, मिठाई, शु(, साफ भोजन खायें। उचित मात्रा में खाएँ। दो सूत्र याद रखें-
पहला- थोड़ा खाओ, सुखी रहो।
दूसरा- थोड़ा खाओ, लंबा जीओ।
इस तरह से चलेंगे तो मन ठीक रहेगा। योगाभ्यास ठीक चलेगा और व्यक्ति सुख से जीएगा।
स मन सृष्टि के आरंभ में एक बार उत्पन्न होता है, और शीघ्र नष्ट नहीं होता। ईश्वर ने एक बार मन को बना दिया, अब वो प्रलय काल तक चलेगा। वही मन हर जन्म में बार-बार चलता रहेगा। उसमें थोडी बहुत घिसावट होती है। जो चीज बनती है, वह बिगड़ती ही है, यह नियम है। चित्त भी उत्पन्न हुआ है, तो इसमें भी थोड़ी-थोड़ी घिसावट अवश्य होगी। परन्तु इसमें घिसावट की दर (मात्रा या गति( बहुत कम है।
स चित्त या मन दो ही अवस्थाओं में पूरी तरह नष्ट होता है। या तो उसका मोक्ष हो जाए या तो प्रलय हो जाए। तब आत्मा से मन अलग हो जाएगा। अन्यथा सृष्टि के प्रारंभ से अंत तक वही एक मन आत्मा के साथ हर जन्म में चलता रहेगा।
स जब सृष्टि का प्रलय होगा, तो हर चीज जो बनती है, वो टूटेगी। इसलिए मन भी टूटेगा, बु(ि भी टूटेगी। सब चीजें नष्ट हो जाएँगी। नई सृष्टि में फिर दोबारा बनेगी। प्रकृति वाला मन मोक्ष में साथ में नहीं जाएगा।

(208) शंका :- मन, बु(ि और अहंकार क्या काम करते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मन दो काम करता है। मन से संकल्प-विकल्प करते हैं। संकल्प पॉजीटिव थॉट है, विकल्प- नेगेटिव थॉट है। जब सकारात्मक विचार करते हैं तो उसका नाम है- ‘संकल्प’। जब उससे विपरीत विचार करते हैं तो उसका नाम है- ‘विकल्प’। दोनों तरह के विचार होते हैं। उनको करने का साधन है ‘मन’। उदाहरण के लिये जब आपको योग शिविर की सूचना मिली थी तो आपने सोचा होगा कि, शिविर में जाऊँ या नहीं जाऊँ। शिविर में जाऊँ – यह संकल्प है। नहीं जाऊँ – यह विकल्प है। जब तक ये दो विचार रहेंगे,तब तक इस विचार को करने का साधन है- ‘मन’। तब इसका नाम ‘मन’ होता है।
स जब यही मन पुरानी घटनाओं को स्मरण करने में सहयोग देता है, स्मृतियाँ उत्पन्न करता है, तब इसको ‘चित्त’ कहते हैं। जैसे कम्प्यूटर के अंदर हार्डडिस्क होती है और उसके अंदर बहुत सी फाइल सेव कर एकत्र कर देते हैं। और हम आवश्यकता अनुरूप जो चाहें वो फाइल खोल लेते हैं। इसी प्रकार मन भी हार्डडिस्क के समान है। उसमें बहुत सारे संस्कार जमा रहते हैं। जिसे कम्प्युटर की भाषा में ‘फाइल’ कहते हैं, उसे ही हम आध्यात्मिक भाषा में ‘संस्कार’ कहते हैं। मन में जमा संस्कारों में से जो संस्कार हम उठाना चाहें, जो स्मृति लाना चाहें, वो हम ले आते हैं। वो फाइल खुल जाती है अर्थात् वो संस्कार जाग जाते हैं। और हमें वो चीज स्मरण आती है। इस प्रकार जब स्मरण करने का काम करते हैं, तब इसका नाम चित्त होता है। ये दोनों काम एक ही वस्तु करती है। बु(ि इससे अलग पदार्थ है।
स आपके मन में दो विचार थे, कि योग शिविर में जाऊँ या नहीं जाऊँ? आपको दो में से एक निर्णय लेना पड़ा कि जाऊँ या नहीं जाऊँ। आपने अंतिम निर्णय ले लिया कि जाऊँगा। वहाँ जाने से मुझे कुछ लाभ होगा इसलिये शिविर में जाऊँगा। जब आपने यह डिसीजन लिया, दो में से एक फाइनल हो गया, कि मैं जाऊँगा, वो बु(ि की सहायता से हुआ। बु(ि का काम है – निर्णय दिलवाना, निर्णय लेने में सहयोग देना। बु(ि निर्णय लेने का साधन है। जैसे आँख देखने का साधन है। आँख के बिना आप नहीं देख सकते हैं, मन के बिना विचार नहीं कर सकते, ऐसे ही बु(ि के बिना डिसीजन नहीं ले सकते। इस प्रकार मन का काम अलग है, बु(ि का काम अलग है। ये दो अलग-अलग साधन है। दोनों अंतःकरण हैं।
स तीसरा साधन है – अहंकार। अहंकार का काम है- आत्मा को अपनी अस्तित्त्व की अनुभूति कराना। आँख के बिना आप देख नहीं सकते। कान के बिना आप सुन नहीं सकते। अहंकार के बिना आप ये अनुभव नहीं कर सकते कि- मैं हूँ । सबको अनुभूति होती है कि- मैं हूँ। ऐसा तो कोई भी नहीं है जिसको ये लगता हो कि मैं नहीं हूँ। मैं हूँ, ये अनुभूति हमे अहंकार नामक पदार्थ करायेगा। जीवात्मा को उसकी सहायता मिलेगी तो व्यक्ति अनुभव करेगा कि, मैं हूँ। जब अहंकार भी नहीं रहे या अहंकार का काम बंद हो जाये या वो आत्मा से अलग हो जाये, तो आत्मा को भी अनुभूति नहीं होगी कि, मैं हूँ।

(209) शंका :- क्या मन जड़ है, उसका आकार कितना है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मन जड़ है। यह प्रकृति से बना है। प्रकृति’ सत्त्व, रज, तम के समूह का नाम है। सबसे छोटे तीन प्रकार के परमाणु (स्मॉलेस्ट पॉर्टिकल-तत्त्व( का नाम है- ‘प्रकृति’। उससे महत्त्त्व यानी’बु(ि’ बनी। बु(ि से हम निर्णय लेते हैं। महत से एक और ‘अन्तःकरण’ बना। जिसका नाम है- ‘अहंकार’। अहंकार से हम अपने अस्तित्त्व की अनुभूति करते हैं। इस अहंकार से फिर पाँच तन्मात्राएं और दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ पहली बाह्य और दूसरी आंतरिक इन्द्रिय बनीं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्म इन्द्रियाँ बाह्य इन्द्रियाँ कहलाती हैं। और आन्तरिक इंद्रिय है- ‘मन’। यह मन प्रकृति से बना है। सांख्य दर्शन के सूत्र (1/615( और योग दर्शन के सूत्र (1/2( के व्यास भाष्य में इस बारे में बतलाया गया है।
स चित्त नामक पदार्थ यानि मन, सत्त्व, रज, तम नामक तीन गुणों से बना हुआ है। तीन गुणों के स्वभाव वाला होने से मन त्रिगुणात्मक है। मन जड़ है, यह इसका प्रमाण हैं।
स मन का आकार बहुत छोटा है। यह माइक्रोस्कोप से भी नहीं दिखता है। यह इतना छोटा है कि आप इलेक्ट्रो-माइक्रोस्कोप से देखेंगे, तो भी नहीं दिखने वाला।
स जब आत्मा शरीर छोड़कर के पुर्नजन्म में जायेगा, तो यह ‘मन’ उसके साथ चला जायेगा। अर्थात् पूरा सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ जाएगा। पाँच इन्द्रियाँ भी जायेंगी, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन, एक बु(ि, एक अहंकार और पाँच तनमात्रायेंऋ ये अठारहण चीजें ‘आत्मा’ के साथ चली जायेंगी। इन अठारह चीजों का नाम है- ‘सूक्ष्म शरीर’। यह सूक्ष्म शरीर इस चेतन आत्मा के साथ हर बार पुर्नजन्म में चलता रहता है। जब तक मुक्ति न हो जाये तब तक यह पूरा सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ चलेगा।
स जब आत्मा स्थूल शरीर छोड़कर जाती है तो यह सूक्ष्म शरीर कहाँ चला गया, किसी को पता नहीं चलता। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह कितना सूक्ष्म होगा। इसको आप लोहे के बॉक्स में बंद करो, काँच की पेटी में बंद करो, ये कहीं नहीं रुकने वाला, सब तोड़-फोड़ के निकल जायेगा। तोड़-फोड़ का मतलब यह नहीं कि काँच फट जायेगा। ऐसा कुछ नहीं होगा, वो चुप-चाप निकल जायेगा। ये इतना छोटा है कि उसमें से पार हो जाता है।

(210) शंका :- कृपया बु(ि, मन के बारे में विश्लेषण कीजिये?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बु(ि और मन दो अलग-अलग वस्तुएं हैं। ये दोनों अंतःकरण कहलाते हैं। अंतःकरण का आशय शरीर के अंदर काम करने वाले साधन से है। ‘अंतः’ अर्थात् ‘अंदर’ और ‘करण’ अर्थात् ‘साधन’ (काम करने के साधन(।
कुछ बाह्य करण हैं। ये शरीर से बाहर काम करने के साधन हैं। पाँव, आँख आदि-आदि ये जो इन्द्रियाँ हैं, ये बाह्य करण है।
स ‘मन-बु(ि’ ये दो अंतःकरण हैं। इसके साथ एक और अंतःकरण भी है, उसका नाम है ‘अहंकार’। इस प्रकार अंतःकरण की कुल संख्या तीन है, और नाम चार हैं। मन और चित्त एक ही चीज के दो नाम हैं। दूसरी चीज- बु(ि है और तीसरी चीज- अहंकार है। चीजें तीन, नाम चार।

(211) शंका :- आपके अनुसार हमें परमात्मा का साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए, परंतु शहीद भगत सिंह और अन्य स्वतंत्रता सेनानी अगर वैराग्य वाले रास्ते पर चलते, तो क्या हमें स्वतंत्रता मिलती?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ये पूछना चाहते हैं कि मैं उपासना के मार्ग पर चलकर परमपिता को प्राप्त करूँ या फिर भारत वर्ष के इतिहास तथा ज्ञान-गौरव की रक्षा के लिए राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुरीतियों को समाप्त करने के लिये क्राँति का मार्ग अपनाऊँ? उत्तर हैः-
स जिस समय हमारा देश परतंत्र था, पराधीन था, और महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, ये सब लोग देश रक्षा के लिए चले। इन्होंने त्याग किया, बलिदान किया। उस समय देश में ब्राह्मण, संन्यासी, उपदेशक, वेद को पढ़ाने वाले भी थे और धोबी, नाई और मिठाई बनाने वाले हलवाई भी थे।
क्या उस परतन्त्रता के समय में धोबियों, नाइयों, हलवाइयों ने अपने-अपने कार्य छोड़ दिए थे? क्या वे सब स्वतन्त्रता की लड़ाई में कूद पड़े थे? नहीं न ! तो जब धोबी, नाई, हलवाई आदि अपना काम नहीं छोड़ते, तो ब्राह्मण अपना काम क्यों छोड़ें ? यदि ब्राह्मण अपना काम छोड़कर क्षत्रिय का काम शुरु कर देता है, तो यह बु(िमत्ता नहीं है। यह ब्राह्मण की उन्नाति नहीं, पतन है।
स शहीद भगत सिंह आदि लोग यदि वैराग्य के रास्ते पर चलते, तो हमें स्वतंत्रता नहीं मिलती। ये बात सत्य है। परंतु यदि महर्षि दयानंद जैसे ब्राह्मण संन्यासी न होते, तब भी स्वतंत्रता नहीं मिलती। इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि सभी लोग चाहिए।
स भगत सिंह आदि ब्राह्मण व संन्यासी क्यों नहीं बन पाए? उनके पूर्व जन्मों के इतने वैराग्य, विद्या आदि के संस्कार नहीं थे। क्षत्रियत्व के संस्कार तो थे। इसलिए क्षत्रिय बनकर उन्होंने देश की रक्षा की। अपनी योग्यता और संस्कारों के अनुसार उन्होंने बहुत अच्छा काम किया।
स यह मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। अंतिम लक्ष्य तो मोक्ष (सब दुःखों से छूटना एवं आनंद की प्राप्ति( है। इसलिए वही प्राप्त करना चाहिए। क्षत्रिय बनकर देश की रक्षा करना, इसमें बाधक नहीं है, बल्कि एक मध्यगत स्तर है।
स वास्तव में समाज को सबकी जरूरत है। ब्राह्मण भी चाहिए, क्षत्रिय भी चाहिए, वैश्य भी चाहिए। आपको अपनी क्षमता (कैपेसिटी( और अपनी योग्यता देखनी है कि, आप इनमें से क्या बन सकते हैं ?
(1( पहली प्राथमिकता है – ब्राह्मण बनने की। आज सच्चा ब्राह्मण नहीं मिलता। आज जितने ब्राह्मण हैं, एकाध को छोड़ दो, बाकी लगभग सब के सब व्यापारी बन गये हैं। सब दुकान खोलकर पैसे कमाने में लगे हैं। आज अच्छे ब्राह्मण नहीं मिलते, इसलिए यह देश और दुनिया बिगड़ गयी।
स देश को बचाने के लिए जितनी राजाओं, क्षत्रियों, वीरों की आवश्यकता है, उससे कहीं ज्यादा आवश्यकता सच्चे ब्राह्मणों की है। जो सच्चे देशभक्त, ईमानदार, सच्चे ब्राह्मण और ईश्वर भक्त हों, पहला नंबर उनका है। वो देश को बचा सकते हैं।
स आप अपनी क्षमता को देखें। अगर आप ब्राह्मण बन सकते हैं तो प्रथम वरीयता (फर्स्ट प्रिफरेन्स( है- ब्राह्मण बनिए।
(2( अगर इतनी क्षमता, इतनी सामर्थ्य नहीं है, बु(ि नहीं चलती, इतनी मेहनत नहीं कर सकते, विद्या नहीं पढ़ सकते, तो द्वितीय विकल्प है- अच्छे क्षत्रिय बनिए। फिर वीरों का मार्ग अपनाओ। सेनाओं में जाओ और देश की रक्षा करो।
(3( यदि उतनी भी क्षमता नहीं है तो फिर वैश्य बनिए। पैसे कमाइए और दान दीजिए। अब लोग पैसे तो कमाते हैं, मगर दान नहीं देते। फिर भला देश की रक्षा कैसे होगी?
स मैं जब कहता हूँ कि, ‘अपरिग्रह’ का पालन करो, बहुत पैसे मत कमाओ।” तो फिर लोग कहते हैं – ”जी देखो, वेद में लिखा है कि ‘शतहस्त समाहर’ यानी खूब कमाओ, सौ हाथों से कमाओ।” मैं कहता हूँ – ”हाँ, बिल्कुल लिखा है, पर इसके आगे क्या लिखा है, वो भी तो पढ़ो।” वेद में ‘शतहस्त समाहर’ के आगे लिखा है कि- “सहस्रहस्त संकिर” यानी सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों में बाँटो। लोग आधा पढ़ लेते हैं कि, चारों ओर से कमाओ और अगला पढ़ते नहीं। फिर ऐसे थोड़े ही देश चलता है। ऐसे देश की रक्षा नहीं होती।
स मोक्ष केवल ब्राह्मण को और संन्यासी को मिलेगा। अगर मोक्ष में जाना है, तो ब्राह्मण बनना पड़ेगा। यही एक ही रास्ता है। “नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय” अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इसलिए अपनी-अपनी योग्यता बढ़ाओ, तपस्या करो, विद्या पढ़ो, ब्राह्मण बनो और विद्या का प्रचार-प्रसार करो। फिर वैराग्य बढ़ाओ, फिर संन्यासी बनो, तब कहीं मोक्ष का रास्ता खुलेगा। ऐसे नहीं खुलेगा, यह ध्यान रखना।
स पहले बता रहा हूँ। घर छोड़े बिना किसी का मोक्ष होने वाला नहीं। अनेक पंडित लोग जनता को खुश करने के लिए बोलते हैं कि- ”साहब, घर में बैठे-बैठे भी गृहस्थ आश्रम से सीधा मोक्ष हो सकता है।”
वे बिल्कुल झूठ बोलते हैं। ऐसा कहीं नहीं लिखा।
”मोक्ष केवल अति उग्र तपश्चरण करने वाले संन्यासियों का ही होता है, अन्यों का नहीं। ”आपको मोक्ष में जाना है, तो संन्यासी बनना पड़ेगा। घर में बैठे-बैठे मोक्ष हो जाता, तो मैं ही घर क्यों छोड़ता ? और भूतकाल में लाखों संन्यासी घर क्यों छोड़ते?

(212) शंका :- आपने कहा था कि पचास प्रतिशत पाप और पचास प्रतिशत पुण्य हैं, तो साधारण मनुष्य का जन्म मिलता है। लेकिन यदि चपरासी, मजदूर आदि के यहाँ जन्म लेने के बाद चपरासी को एक करोड़ की लॉटरी लग जाए तो, इसे क्या समझना?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जन्म होने के बाद चपरासी को एक करोड़ की लॉटरी लग जाए, तो उसको आधिभौतिक सुख मिलेगा।
स पहली बात-एक करोड़ की लॉटरी लगना कोई कर्म-फल नहीं था। बालक को ईश्वर ने जिस माता-पिता के यहाँ भेजा, उस दिन माता-पिता की जो स्थिति है, वहाँ तक तो उसका कर्मफल है। उसके बाद उसमें बिगाड़ भी हो सकता है, सुधार भी हो सकता है।
मान लीजिए, एक अच्छे सेठ के यहाँ एक आत्मा को ईश्वर ने भेजा। जिस समय आत्मा को सेठ के परिवार में भेजा, उस समय सेठ बहुत संपन्ना था। और उसके दो तीन दिनों बाद बेचारे का दिवाला पिट जाने से वो गरीब हो गया। जिस समय ईश्वर ने आत्मा को उस परिवार में भेजा उस समय उस बालक के कर्मफल के अनुसार भेजा। आगे को घट भी सकता है, बढ़ भी सकता है। उसकी गारंटी कुछ नहीं।
स दूसरी बात-लॉटरी खरीदना तो जुआ है। वेद में ‘जुआ खेलना’ मना किया गया है। अतः जुए से जो पैसा मिलता है, वह कोई अच्छे कर्म का फल नहीं है। जबकि लोग यह समझते हैं, कि लॉटरी लगने पर मिलने वाला धन किसी पिछले शुभ कर्म का फल है। ऐसा समझना गलत है।

(213) शंका :- मनुष्य का जन्म पहला है कि अन्य प्राणियों का?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उत्तर यह है कि पहला जन्म कोई नहीं। पहला जन्म मानते ही भयंकर समस्या उत्पन्ना होगी। मान लो, ईश्वर ने किसी आत्मा
को पहला जन्म दिया, तो प्रश्न होगा कि, कर्म के आधार पर देगा या बिना कर्म के आधार पर देगा? अगर पहला जन्म दिया तो कर्म कहाँ से आ गया? पिछले कर्म के आधार पर तो पीछे कर्म हुआ न, तो वो पहला जन्म नहीं हुआ न। बस यही उत्तर है। पहला जन्म कोई नहीं है।
जब भी जन्म मिलेगा वो कर्म के आधार पर मिलेगा। और वो कर्म कहाँ से आएगा, उससे पिछले जन्म का। और उससे पिछले जन्म में जो कर्म आया, वो कहाँॅ से आया, उससे पिछले का। उससे पिछले का, उससे पिछले का। इसलिए पहला जन्म कोई नहीं है।

(214) शंका :- जो मनुष्य जन्म से ही अपाहिज होता है, मंद-बु(ि होता है। जिसका दुःख पैदा होने वाली संतान और माता-पिता दोनों को मिलता है। तो यह किसका कर्मफल है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह माता-पिता और संतान, तीनों का कर्मफल है। इसीलिए जन्म से ही व्यक्ति विकलांग और मंद-बु(ि हुआ। तीनों के कर्म आपस में मिलते-जुलते हैं। इसलिए ईश्वर ने सोच-समझकर ऐसी संतान, ऐसे माता-पिता के यहाँ भेजी है। संतान के भी कर्म खराब हैं, उसको विकलांग बनाना है और माता-पिता के भी खराब हैं, उनको विकलांग संतान देनी है। तो तीनों मिलके अपना कर्मफल भोगेंगे। यह परमात्मा का कर्मफल विधान है। इसका प्रमाण ‘न्याय-दर्शन’ में लिखा है।

(215) शंका :- मिश्रित कर्म’ क्या है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जब किसी कर्म में कुछ अंश तो अच्छाई का, और कुछ अंश बुराई का हो, यानी दोनों इकट्ठे होते हैं, तो उसको मिश्रित-कर्म कहते हैं।
एक उदाहरण सुनिए – एक परिवार में सब लोग घर में रात को खाना खा चुके थे। इतने में अचानक दरवाजे पर घंटी बजी। जब दरवाजा खोला तो अपना एक रिश्तेदार बड़ी दूर से आ रहा था। वो रात को साढ़े दस बजे अचानक आ गया। उसने पहले दूरभाष के द्वारा अपने आने की सूचना भी नहीं दी।। आकर बोला – ”देखो जी, मेरी गाड़ी लेट हो गई, मेरे पास रास्ते में खाना था, वो भी खत्म हो गया। और मुझे जोर से भूख लगी है, मेरे मोबाइल फोन की बैटरी डाउन हो गई, मैं सूचना भी नहीं दे पाया। मेरे लिए खाना लाओ, नहीं तो रात को नींद नहीं आएगी।”
वह कितने बजे रात को बोला? साढ़े दस बजे। खाना खत्म हो गया था। अब बताइए, फिर दोबारा दाल बनाओ, रोटी बनाओ, सब्जी बनाओ, खाना बनाते-खिलाते रात को बजेंगे साढ़े बारह। सब काम निपटाने में एक भी बज सकता है।
रिश्तेदार है, भूखा तो सुला ही नहीं सकते। रिश्तेदार आपको भी तंग करेगा कि – ”मुझे खाने को दो, मुझे नींद नहीं आ रही है, मैं करूँ क्या। बाजार में अब क्या मिलेगा, साढ़े दस बज रहे हैं, सब दुकानें बंद हो गई।” व्यक्ति मन में क्या सोचता है? कैसे लोग हैं, पहले से बताते भी नहीं हैं। हम पहले से बनाकर रखते। अब रात के साढ़े दस बजे आकर कहते हैं – ”जी खाना खिलाओ।”
अगर रिश्तेदार को खाना नहीं खिलाया तो ‘अशुभ-कर्म’ है। और खिलाया तो खिलाने के दो ऑप्शन हैं – जो यजमान रात को नए सिरे से भोजन पकाएगा वह या तो खुश होकर के खिलाएगा या दुःखी होकर खिलाएगा? अगर खुश होकर खिलाएगा, तो यह होगा ‘शुभ-कर्म’। और अगर दुःखी होकर खिलाएगा, तो यह होगा ‘मिश्रित- कर्म’। खाना खिलाया, यह तो अच्छी बात है। लेकिन दुःखी होकर के खाना खिलाया, यह बुरी बात है। दोनों मिक्स हो गई न। उतना पुण्य माइनस हो जाएगा, उतना पुण्य कट जाएगा। आप सोच लेना, फिर जैसा करना हो।

(216) शंका :- क्रियात्मक-योगाभ्यास नामक पुस्तक में आया है कि बिना ‘ईश्वर दर्शन’ के ‘अज्ञान’ का नाश नहीं होगा। योगाभ्यास तथा ज्ञान के बिना ईश्वर-दर्शन संभव नहीं है। लेकिन ईश्वर के ज्ञान के पश्चात् भी कोई सूक्ष्म-अज्ञान आत्मा से लिपटा रहता है। ऐेसा क्यों?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिए, एक कहावत आपने सुनी होगी, कि पैसा पैसे को कमाता है। अगर आपके पास पांच-सात लाख रूपये हैं, तो आप आगे बिजनेस करके ज्यादा पैसा कमा सकते हैं। यदि आपके पास पूँजी (कैपिटल( ही नहीं, तो आप निवेश (इन्वेस्टमेंट( कैसे करेंगे? बिजनेस में लाभ (प्रॉफिट( क्या कमायेंगें? नहीं कमा सकते। तो व्यापार में धन कमाने के लिए, पहले इन्वेस्टमेंट करने के लिए कुछ राशि होनी चाहिए। वो राशि आगे नई राशि को कमा सकती है।
इसी प्रकार से कुछ ज्ञान पहले हमारे पास होगा। उस ज्ञान से पुरूषार्थ करके हम ईश्वर का दर्शन कर सकते हैं। अब जब ईश्वर का दर्शन हो जाएगा, तो उससे नया ज्ञान मिलेगा, जो अविद्या आदि क्लेशों को नष्ट करेगा। दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। पहले ज्ञान, फिर ईश्वर का दर्शन होगा। फिर ईश्वर दर्शन से प्राप्त हुए नये ज्ञान की प्राप्ति से अविद्या आदि का नाश होगा।
हर एक की योग्यता अलग-अलग है। कोई एक ही जन्म में टाटा-बिरला बन सकता है। किसी को पचास जन्म भी लग जायेंगे। वो अपनी-अपनी योग्यता व पुरूषार्थ की बात है। इसी प्रकार से मोक्ष-प्राप्ति की बात भी समझनी चाहिये। कोई ऐसा भी हो सकता है, जो इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर ले। कोई हो सकता है कि- पांच जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सके और किसी को पचास जन्म भी लग जायें। वो हर एक की योग्यता और पुरूषार्थ की अलग-अलग स्थिति पर निर्भर है।

(217) शंका :- कोई व्यक्ति शादी करके मोक्ष को प्राप्त कर सकता है या नहीं? श्री राम और कृष्ण जी भी तो गृहस्थ ही थे। फिर उनको योगी क्यों कहा गया है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह निर्विवाद है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों क्षत्रिय थे। दोनों ने महाभारत यु( किया और करवाया जिसमें सैकड़ों, हजारों लोग मरे।
स ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के पाँचवे समुल्लास में महर्षि दयानंद जी लिखते हैं कि – ”मोक्ष केवल संन्यासी का होता है, और किसी का नहीं होता। और संन्यास लेने का अधिकार मुख्य रूप से ब्राह्मण को है।” तो दो बातें हो गईं, मोक्ष के लिए संन्यास जरूरी है और संन्यास के लिए ब्राह्मण बनना जरूरी है।
स अब यह बताइए कि श्रीकृष्ण जी ब्राह्मण थे, या क्षत्रिय थे? क्षत्रिय थे। फिर वो बाद में संन्यासी बने या नहीं बने? नहीं बने।
स रही बात श्रीराम और श्रीकृष्ण जी को योगी क्यों कहा गया है? इसका उत्तर है, कि वे गृहस्थ होते हुए भी योगाभ्यास (ईश्वर का ध्यान( करते थे।
स श्री कृष्ण को योगेश्वर कहते हैं। योगेश्वर का मतलब योगाभ्यास करते थे, योग-विद्या जानते थे, अभ्यास (प्रैक्टिकल( करते थे, सत्तर-अस्सी प्रतिशत तक पहुँचे, अभी बीस प्रतिशत बाकी था, सौ प्रतिशत तक नहीं पहुँचे। जो व्यक्ति गणित (मैथ्स( में एम.एस.सी कर लें, क्या उसको गणितज्ञ (मैथेमेटिशियन( नहीं कहेंगे? गणितज्ञ तो कहेंगे, पर अभी उसने मैथ्स में पी.एच.डी. नहीं की। वो थोड़ी बाकी है।
स श्रीकृष्ण जी ने सत्तर-अस्सी प्रतिशत योग्यता बनाई, दस-बीस प्रतिशत बाकी थी। इसलिये उस जन्म में तो उनकी मुक्ति नहीं हुई। वो योग्यता अगले जन्म में, या और एक दो जन्म के बाद, उन्होंने पूरी कर ली होगी। जब पूरी कर ली तो उसके बाद मोक्ष हो सकता है।
स वीरगति का क्या अर्थ है? वीरगति का अर्थ-अच्छे जन्म की प्राप्ति। अगले जन्म में अच्छा उत्तम फल प्राप्त करना, यह वीरगति है।
जो क्षत्रिय अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अर्थात् न्याय की रक्षा के लिए लड़ते हुये यु( में जाकर के शहीद हो जाता है, फिर चाहे हारे या जीते, उससे कोई मतलब नहीं है। उसने अपना कर्तव्य पूरा किया, वो वीरगति को प्राप्त होगा। उसको आगे अच्छा फल मिलेगा। उसने कर्तव्य का पूरा पालन किया। कोई पाप नहीं किया, बुरा काम नहीं किया, यह तो हमने बिल्कुल स्वीकार किया।
स मोक्ष की योग्यता पूरी हो जाना, यह एक अलग बात है। उसके लिए ब्राह्मण के बाद फिर संन्यासी बनना अनिवार्य है। ब्राह्मणत्व और संन्यास जब तक हम धारण नहीं करते, तब तक मोक्ष नहीं होगा। इससे पहले मोक्ष नहीं होने वाला। यह सब करने का उद्देश्य पाँच क्लेशों का नाश करना है। संन्यासी बनने के बाद समाधि लगाकर के अविद्या आदि पाँच क्लेश पूरे नष्ट होने चाहिए। यह योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि का कहना है। जब तक पाँच क्लेश पूरे नष्ट नहीं होंगे, किसी का मोक्ष होने वाला नहीं है।
स यूँ तो सारे सम्प्रदाय वाले भ्राँति में हैं। वो सारे यह समझते हैं कि हमारा मोक्ष हो जाएगा, लेकिन हो थोड़ी जाएगा।
श्रीकृष्ण ने अच्छे काम किए, कर्तव्य का पालन किया, धर्म की रक्षा की, अन्याय का विरोध किया, तो इनको अगला जन्म बहुत अच्छा मिला, यहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ तक हमें स्वीकार है। आगे एक-दो जन्म और जोर लगाया होगा और फिर मोक्ष हो गया होगा। इसको मानने में आपत्ति नहीं है।
स श्रीराम जी का भी वही उत्तर है। श्रीराम जी भी क्षत्रिय थे, वो भी ब्राह्मण पूरे नहीं बने। उन्होंने अयोध्या में तीस वर्ष तक राज्य किया और उसके बाद उन्होंने वानप्रस्थ लिया। वानप्रस्थ श्रीराम ने भी लिया, वानप्रस्थ श्रीकृष्ण जी ने भी लिया, दोनों ने लिया। पर संन्यासी दोनों में से कोई भी नहीं बन पाया।
स कोई व्यक्ति गृहस्थ में जाकर के भी मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। पर उसको गृहस्थ के नियमों का पालन करना पड़ेगा।
स प्रश्न में यह तो लिखा है कि राम और कृष्ण गृहस्थ थे। लेकिन यह नहीं लिखा कि वो कैसे गृहस्थ थे। यह नहीं पता लोगों को। आपको पता है, रामचन्द्र जी ने शादी करने के बाद कितने वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया? चौदह वर्ष वनवास में रहे, पत्नी साथ में थी। बताइए, कितनी संतान उत्पन्ना की? एक भी नहीं।
चौदह वर्ष तक श्रीराम ने गृहस्थ होते हुए, पत्नी साथ रखते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया। ऐसे ही श्रीकृष्ण जी ने भी शादी के बाद बारह साल तक तपस्या की, ब्रह्मचर्य की साधना की।
स बात करते हैं कि वो गृहस्थ थे। भई! गृहस्थ थे, तो उनके जैसे गृहस्थ बनो, फिर तो ठीक है। गृहस्थ बनकर भी उन जैसे आचरण करें। ऐसे गृहस्थ आप बनना चाहें तो स्वागत है, खूब बनो। और उसके बाद फिर देश-
धर्म के लिय एक अच्छी बढ़िया संतान उत्पन्ना करो। उस संतान का अच्छी तरह पालन करें, उसको विद्वान बनायें, धार्मिक बनाएं, सदाचारी, ईश्वर भक्त, ईमानदार बनाएं।
स श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों राजा थे, दोनों क्षत्रिय थे। और पूरा जीवन न्याय के लिए लड़ते थे। धर्म की रक्षा की, न्याय की रक्षा की, ऐसे आदर्श गृहस्थ बनना हो तो स्वागत है, खूब बनो।
स लोग यह तो याद रखते हैं कि राम और कृष्ण गृहस्थी थे, यह भूल जाते हैं कि उन्होंने वानप्रस्थ भी लिया। आज वानप्रस्थ कोई लेता नहीं? आपको वानप्रस्थ लेना पड़ेगा, तपस्या करनी पड़ेगी, साधना करनी पड़ेगी, वैराग्य ऊँचा उठाना पड़ेगा।
स उसके बाद संन्यास लेना पड़ेगा। और संन्यास के बाद पाँच क्लेश राग-द्वेष नष्ट करने पड़ेंगे। तब जाकर मोक्ष होगा। तो यह कठिन काम है, लंबा काम है पर असंभव नहीं है। गृहस्थी बनने के बाद भी इस तरह से चलेंगे तो मोक्ष हो सकता है।
स यदि ब्रह्मचर्य से सीधे संन्यासी बनेंगे तो थोड़ा आसान पड़ेगा। गृहस्थी में से होकर जाएंगे तो थोड़ा कठिन पड़ेगा। संभव तो है, पर आज कोई इतना काम करने के लिए तैयार नहीं। ऐसा माहौल भी नहीं, ऐसा राजा भी नहीं, ऐसी प्रजा भी नहीं, ऐसा सहयोग भी नहीं, सारा ही कुछ उल्टा है। तो आज के माहौल में गृहस्थ बनकर मोक्ष प्राप्त करना बहुत कठिन है। फिर भी चलो इस बार जो हुआ, सो हुआ, अगली बार अगले जन्म के लिए तैयारी करो।
स आजकल के लोग तो यह सोचते हैं, कि गृहस्थाश्रम मौज-मस्ती के लिए है। योगाभ्यास (ईश्वर-भक्ति या ध्यान( तो बुढ़ापे में करने की चीज है। ऐसा सोचना गलत है। और कितने ही लोग तो बुढ़ापे में भी ईश्वर का ध्यान नहीं करते, जीवन का बचा-खुचा समय (बुढ़ापा( भी ताश खेलकर नष्ट कर देते हैं। इसका दण्ड तो उनको भोगना ही पड़ेगा।

(218) शंका :- स्वामी सत्यपति जी ने इतने अच्छे कर्म किए, फिर भी उन्हें रोगों से क्यों पीड़ित होना पड़ रहा है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उन्होंने अपनी ओर से तो अच्छे कर्म किए। पर क्या दूसरों ने भी उनके साथ अच्छे कर्म किए? क्या उनको वैसी सारी अनुकूलताएं मिलीं, जैसी मिलनी चाहिए? नहीं मिलीं। बहुत सारे कारण होते हैंः-
स अपने कारण से भी कहीं-कहीं गलतियाँ होती हैं। व्यक्ति अपने खराब कर्मों के कारण रोगी या दुःखी हो सकता है। भारत- पाकिस्तान जब से डिवाइड हुआ, तब से स्वामी सत्यपति जी ने अपना जीवन बदला। उसके बाद तो उन्होंने अच्छे-अच्छे काम किए, इसमें कोई संशय नहीं है। पर उसके पहले का जीवन गुरुजी बताते हैं,पहले कुछ अनपढ़ थे, स्कूल में गये नहीं, पशु चराते थे और बचपन में कुछ गलतियाँ, कमियाँ हो सकती हैं। कुछ उसका परिणाम है।
स दूसरों के अन्याय से उसको परेशानी भोगनी पड़ सकती है। जैसे स्वामी दयानंद ने अच्छा काम किया, वेद का प्रचार किया। फिर भी कितने लोगों ने उनको पत्थर मारे, जहर खिलाया, साँप फेंके, कितने आरोप लगाए। ये कोई उनके अच्छे कर्मों का फल थोड़े ही था। यह तो ईर्ष्यालु लोगों का अन्याय था। कितनी बार लोगों ने जहर पिला दिया धोखे से। इस प्रकार दूसरों के अन्याय से भी हमको परेशानी होती है, कष्ट होता है, रोग आ जाते हैं, दुःख आ जाते हैं।
कुछ बाद में जो स्वामी सत्यपति जी को खाने-पीने की
सुविधा मिलनी चाहिए थी, वो ठीक तरह से नहीं मिली।
स हो सकता है कोई पैतृक-दोष भी हो। जो आनुवांशिक (जेनेटिक( बोलते हैं, हेरीडिटी से सम्बन्धित। हमारे पैतृक-दोष के कारण भी कुछ रोग और दोष आ सकते हैं। कुछ वो कारण भी हो सकते हैं। यह जो हेरीडिटी से आ रहा है, यह प्रारब्ध है। ऐसा नहीं होता कि पिछले जन्म के कर्मों का फल आज अचानक से ईश्वर यूँ चिपका दें। प्रारब्ध का जो फल है, वो हेरीडिटी से मिलेगा, पैतृक रोगों के रूप में मिलेगा, वहीं से आएगा जेनेटिकली।
स कहीं प्राकृतिक कारणों से भी हमको रोग और दुःख आ सकते हैं। और बहुत सारे कारण हैं।
इस जन्म के दुःख के तीन कारण है :- अपनी गलतियाँ, दूसरों के द्वारा किया गया अन्याय और प्राकृतिक दुर्घटनाएं। आनुवांशिक को मिलाकर, दुःख के चार कारण हो सकते हैं। इनमें से कौन सा कारण कितना रोग या दुःख उत्पन्ना कर रहा है, यह पूरा-पूरा जानना-समझना और कहना बहुत कठिन है।

(219) शंका :- किस प्रकार के कर्मों के आधार पर स्त्री या पुरुष का जन्म मिलता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

भई, ये पूरे-पूरे तो मुझे भी समझ में नहीं आए, तो मैं आपको कैसे बताऊँ कि कौन से कर्म करेंगे तो स्त्री बनेंगे, और कौन से कर्म करेंगे तो पुरुष बनेंगे। मुझे इतना समझ में आया कि बस अच्छे से अच्छा कर्म करो। अब भगवान जो बनाना होगा, बना देगा।
कई लोगों के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि, स्त्री जन्म अच्छा है। कई लोगों के दिमाग में यह बात बैठी है कि पुरुष जन्म अच्छा है। जो सत्य है, वो सत्य है। सत्य को जानना-समझना चाहिए और सत्य को खुलकर स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि उससे हमारी उन्नाति होती है।
स वैसे तो स्त्री और पुरुष दोनों एक ही योनि में हैं, मनुष्य योनि में। मनुष्य योनि की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। इसमें कोई ऊँचा-नीचा नहीं है। क्या स्त्रियों का बस में आधा टिकट लगता है और पुरुषों का पूरा लगता है? नहीं न। इस हिसाब से दोनों भारत के समान नागरिक हैं। दोनों को समान
अधिकार है, वोट देने का अधिकार बराबर है। अधिकार की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। जहाँं स्त्रियों का आधा वोट है, वह गलत बात है। यह वेद के अनुसार अन्याय है। वेद में स्त्री और पुरुष दोनों को बराबर बताया है। अधिकार तो दोनों का एक दूसरे पर बराबर होता है।
व्यावहारिक दृष्टि से किसी-किसी क्षेत्र में स्त्रियाँ ऊपर हैं, पुरुष छोटे हैं। किसी क्षेत्र में पुरुष बड़े हैं तो स्त्रियाँ छोटी हैं। वो अलग-अलग क्षेत्र हैं। कौन सा क्षेत्र है इसमें? अब ये जानेः-
स वेद कहता है – जब बालक के साथ माता-पिता का संबंध हो, तो माता बड़ी और पिता छोटा। माता का नंबर पहला, माता सबसे पहली गुरु है। अगर पहली गुरु बु(िमान हो, तो बच्चा बु(िमान बनेगा। और पहली गुरु ही मूर्ख हो तो बच्चा मूर्ख बनेगा।
स शास्त्रों में स्त्री को ‘पूज्य’ कहा है। उसे अधिक सम्मान देने का विधान है। यहाँ पुरुष छोटा और स्त्री बड़ी। यह एक क्षेत्र है।
स और दूसरा क्षेत्र है, पति-पत्नी का। जब पति-पत्नी का आपस में संबंध हो, तो वहाँ पति बड़ा और पत्नी छोटी। वहाँ यह नियम है। अब बताइए, क्या चाहिए आपको, एक तरफ पुरुष बड़े हैं, एक तरफ स्त्रियाँ बड़ी हैं।
स हाँ, यह ठीक है कि कहीं व्यावहारिक दृष्टि से कुछ समस्याएं पुरुषों के साथ कम हैं, और स्त्रियों के साथ कुछ अधिक हैं। कुछ हमारी जिम्मेदारियाँ रहती हैं व्यवहार की। उसमें स्त्रियों पर बंधन अधिक रहते हैं, पुरुषों
पर उतने नहीं होते हैं। स्त्रियों का जीवन अधिक बाधित रहता है। इनको माँ बनना पड़ता, पुरुष तो बनेगा नहीं। शु(ि की दृष्टि से स्त्री का शरीर ज्यादा गंदा होता है। महीने के कुछ दिन शारीरिक दृष्टि से विवशता रहती है। पुरुष का शरीर अधिक सख्त और बलवान होता है, स्त्री में कोमलता होती है। वातावरण को सहन करने की क्षमता पुरुष में अधिक होती है। पुरुष अधिक कार्य कर सकता है। स्त्री का शरीर जल्दी विकसित होता है और बीस-पच्चीस साल के बाद शिथिल हो जाता लेकिन पुरुषों में चालीस साल तक बढ़ता है। इसलिए विद्या आदि पढ़ने का अवसर पुरुष मे अधिक होगा। ं
स पुरुष तो अकेला घूम लेगा, खा लेगा, कहीं रात को दो बजे प्लेटफार्म पर सो जाएगा, उससे कोई पूछने वाला नहीं। वो तो अकेला ही पूरे देशभर में घूम आएगा। पर स्त्रियों को इतनी सुविधा नहीं है। उस दृष्टि से हमको स्वीकार करना पड़ता है। बाकी तो मनुष्यता की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। इसमें कोई ज्यादा हीन भावना (इंफीरियरटी कॉम्पलेक्स( की जरूरत नहीं है।
स आयु के कारण अनुभव में भेद होता है। पति अधिक आयु का होता है। इसलिए उसका अनुभव ज्यादा होता है। परीक्षाफल की दृष्टि से स्त्री आगे है क्योंकि पुरुष उतनी मेहनत नहीं करते। इतिहास देखेंगे तो पुरुष ज्यादा विद्वान रहे हैं। विद्या का आरम्भ हमेशा पुरुषों से हुआ है। वेद हमेशा )षि (पुरुष( को ईश्वर देता है।
स वेद में लिखा है, स्त्रियाँ बेशक पढ़ सकती हैं। ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में महर्षि दयानंद जी ने लिखा – अगर ईश्वर का प्रयोजन स्त्रियों को पढ़ाने में न होता, तो इनके शरीर में आँख और कान क्यों रखता। वे भी वेद पढ़ सकती हैं, वे भी वैराग्य प्राप्त कर सकती हैं, वे भी संन्यास ले सकती हैं। पर वे प्रायः संन्यास लेती नहीं, झगड़े करती हैं, तो हम क्या करें? वे प्रायः झगड़ा ज्यादा करती हैं, राग-द्वेष ज्यादा करती हैं, वेद पढ़ती नहीं हैं, तो दोष इनका है। बाकी इनका चाँस पूरा है।
”ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्” अर्थात् अथर्ववेद में लिखा है कि – ”कन्या को भी ब्रह्मचर्य का पालन करके, वेद पढ़ने का पूरा अधिकार है। और विद्या पढ़कर फिर विवाह करना चाहिए।” तो छूट सबको है, बाकी कोई करे या न करे, वो उसकी मर्जी।
स सामान्यतः पुरुष स्त्री नहीं बनना चाहता, लेकिन स्त्री पुरुष बनना चाहती हैं। इस दृष्टि से पुरुष कुछ बड़ा सि( होता है।

(220) शंका :- क्या मनुष्यों के अतिरिक्त कुत्ते आदि पशु-पक्षियों को भी कर्म करने की स्वतंत्रता है? क्या इन्हें पुण्य-पाप लगता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ। कुत्ते आदि अन्य प्राणियों को भी कर्म करने की थोड़ी स्वतन्त्रता है। मुख्य रूप से तो वह भोग-योनि है। परन्तु गौण रूप से (थोड़ी सी( कर्म करने की स्वतंत्रता भी है। जैसे – पुलिस वाले कुत्ते को ट्रेनिंग देते हैं, और वो ट्रेन्ड कुत्ते चोरों को पकड़वा देते हैं। यह उनकी कुछ प्रतिशत की स्वतंत्रता है और इसका उनको ईनाम मिलता है। अच्छी बढ़िया डबल रोटी, बिस्किट खाने को मिलता है। बढ़िया शैम्पू से नहाते हैं, बढ़िया सुविधाओं में रहते हैं।
आप शाँति से अपने रास्ते में जा रहे हैं और एक कुत्ता पीछे से चुपचाप आता है और आपकी टांग पकड़ लेता है, काट लेता है तो आप उसकी डंडे से पिटाई करते हैं न। उसने अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया, इसीलिए तो पिटाई हुई। उसने पाप किया, इसीलिए दण्ड मिला। पुलिस के कुत्ते ने चोर को पकड़वाया, पुण्य किया। इसलिए उसको ईनाम मिला। यह है कुत्ते आदि प्राणियों की कर्म करने की दो-चार-पांच प्रतिशत की स्वतंत्रता।

(221) शंका :- क्या पूर्व जन्म के संस्कार से कोई चार-पांच साल का बच्चा, पच्चीस-तीस साल के साधक जितनी योग्यता प्राप्त कर सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अपवाद के रूप में कभी-कभी ऐसा हो सकता है। यह पूर्व जन्म के संस्कारों व विद्या पर निर्भर है। पूर्व जन्म के संस्कार व विद्या इतने प्रबल हों कि पांच साल के बच्चे को पच्चीस-तीस नहीं, तो बारह-पंद्रह साल के बच्चे जितनी योग्यता प्राप्त हो जाए। वह और मेहनत करे, तो आठ-दस साल की उम्र में पच्चीस-तीस वर्ष के बराबर योग्यता अर्जित कर सकता है।

(222) शंका :- क्या अपनी योगशक्ति के द्वारा योगी शक्तिपात का प्रयोग कर वेदार्थ संबंधी ज्ञान संक्रमित कर सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

शक्तिपात के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान कराने की बात मेरी दृष्टि में ठीक नहीं है।
वेदार्थ ज्ञान करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने दो विकल्प ‘)ग्वेदादिभाष्य- भूमिका’ के पठनपाठन-विषय के अन्त में बताए हैंः-
1. व्याकरण अष्टाध्यायी धातुपाठ उणादिगण – चार ब्राह्मण इन सब ग्रन्थों को क्रम से पढ़ के।
2. अथवा जिन्होंने उन सम्पूर्ण ग्रन्थों को पढ़ के जो सत्य-सत्य वेद व्याख्यान किए हों, उनको देख के वेद का अर्थ यथावत् जान लेवें।
यहाँ शक्तिपात से वेदार्थ ज्ञान का उल्लेख कहीं भी नहीं है।

(223) शंका :- क्या यह बात सत्य है कि अभिमन्यु माँ के पेट में ही चक्रव्यूह के अंदर जाना सीख गया था?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

माता के गर्भ में रहते हुए, पूरी बात वह नहीं सीख पाया। माता के गर्भ में रहते हुए उसके कुछ-न-कुछ संस्कार जरूर पड़ते हैं। इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
‘संस्कार विधि’ नामक पुस्तक को पढ़ने से आपको पता चलेगा कि गर्भावस्था में भी बालक पर संस्कार पड़ते हैं। इसलिए माता को कैसे उठना-बैठना, खाना-पीना, बोलना, लिखना-पढ़ना चाहिए, क्या दृश्य देखना चाहिए, क्या नहीं देखना चाहिए, कैसे सोचना चाहिए, कैसे नहीं सोचना चाहिए?
गर्भावस्था से बालक का निर्माण शुरु हो जाता है। उसका प्रभाव पड़ता है। बालक बड़ा होता जाता है, जन्म लेता है। फिर जैसे-जैसे चलना-फिरना सीखता है, उसके विकास के लिए, उसकी बु(ि के विकास के लिए, उसके शरीर के विकास के लिए, उसकी सेहत के लिए बहुत सारे संस्कार होते हैं। तो ये संस्कार जरूर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। बाकी यह बात सत्य है कि छोटी उम्र में उसने चक्रव्यूह में घुसना सीख लिया था।
हमारे शास्त्रों में यह भी कहा है कि विद्यार्थी जब गुरुजी के पास जाता है, तो वो भी गुरुजी के गर्भ में रहता है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में ऐसी चर्चा आती है। गुरुजी के गर्भ में रहने का मतलब गुरुजी की सुरक्षा में रहता है, उनके अनुशासन में चलता है। वे जैसा सिखाते हैं, वैसा सीखता है। अभिमन्यु को छोटी उम्र में माता-पिता ने जो बातें सिखाई, उससे उसने चक्रव्यूह में घुसना सीख लिया। कुछ गर्भावस्था में और कुछ जन्म लेने के बाद में। इस तरह से उसने छोटी उम्र में सीखा। यह है इस वाक्य का अभिप्राय।

(224) शंका :- वरदान या श्राप देना क्या संभव है? नहीं, तो फिर वह क्या है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वरदान और श्राप देना संभव है। पर वैसा नहीं जैसा आपने पुराणों में पढ़ रखा है, या पौराणिक कथाओं में सुन रखा है कि – ” जाओ, तुम्हें कोई नहीं मार सकेगा, तुम अमर हो गए हो।” सृष्टि के नियम के विरु( वरदान गलत हैं। ऐसे वरदान नहीं होते हैं।
प्रकृति के नियम से विरु( जो बातें हैं, इस तरह का न वरदान होता है और न श्राप होता है। सृष्टि नियम के अनुकूल वरदान भी होता है और श्राप भी होता है।
वरदान किसको कहते हैं? आशीर्वाद का नाम वरदान हैं। )षि-मुनि जी क्या कहते हैंः-
“अभिवादनशीलस्य नित्यं वृ(ोपसेविनः।
चत्वारि तस्य बर्(न्त आयुर्विद्या यशो बलम्।।”
यह वरदान है कि – ”जो बड़ों का आदर सम्मान करते हैं, माता-पिता को, गुरुजनों को नमस्ते करते हैं, उनके आदेश का पालन करते हैं, उनकी सेवा करते हैं, उनकी चार चीजें बढ़ती हैं। वे हैं – आयु, विद्या, यश और बल।” माता-पिता उनको आशीर्वाद देते हैं, गुरुजन आशीर्वाद देते हैं कि बड़ी उम्र वाले हो, खूब फलो-फूलो, आगे बढ़ो, उन्नाति करो, सुखी रहो। ऐसा वरदान ठीक है।
श्राप क्या है? एक व्यक्ति ने अपराध किया और उसको कहा- देख, तूने अपराध किया है, तुझे दंड मिलेगा। इसे जेल में डाल देना चाहिए। ऐसे ही किसी ने उसको डाँट लगा दी। अब फिर वह बाद में पकड़ा भी गया, उस पर केस चला और उसको जेल भी हो गयी। उसका श्राप सि( हो गया। उसने सच बात कही।
अपराधी को अपराध से बचाने के लिए अथवा उसको समझाने के लिए व्यक्ति उसको डाँटता है, रोकता है। फिर भी वह नहीं मानता है तो फिर उसको कहता है कि – देख तू नहीं मानता, तुझे दंड मिलेगा। और वो तो होता ही है।
कुछ काल्पनिक श्राप ऐसे भी बोले जाते हैं। एक मनुष्य था, वह गड़बड़ यानी बुरे काम करता था, उसको श्राप दिया – तू अभी-अभी यहाँ पर सुअर बन जा, तू अभी-अभी इसी जन्म में कुत्ता बन जा। ऐसा संभव नहीं होगा।
व्यक्ति इसी जन्म में तो कुत्ता नहीं बन सकता। हाँ, मरने के बाद भले ही वह बन जाए। भगवान उसको कर्म के अनुसार दंड दे देंगे, वो अलग बात है, पर जीते जी इसी जन्म में उसको तोड़-मरोड़ कर बिल्ली, कुत्ता नहीं बनाया जा सकता। इस तरह के कोई श्राप आपने कथाओं में सुने हों तो वो गलत हैं।

(225) शंका :- अकाल मृत्यु हो जाती है, तो उसका जन्म कब होता है, और किस योनि में होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उत्तर यह है कि जब भी किसी की मृत्यु होती है, चाहे अकाल-मृत्यु हो या काल-मृत्यु हो, उसका जन्म तुरंत होता है। उसके कर्मानुसार जहाँ उसके कर्म का फल बनता है, न्याय के अनुसार ईश्वर उसको तुरंत अगला जन्म देता है।
प्रश्न यह है कि – अगला जन्म किस योनि में होता है? उत्तर यह है कि- जैसे उसके कर्म, वैसा जन्म होता है। अगला जन्म लेने के जैसे कर्म है, उस योनि में उसका जन्म हो जाएगा। इस तरह से यह कर्मों का फल हैं। वह कठिन विषय है। इसको बार-बार पढ़ना, सुनना, चिंतन करना, मनन करना, ऐसा करेंगे तो धीरे- धीरे कुछ समझ में आएगा।

(226) शंका :- जीवात्मा शरीर छोड़ने के वक्त कहाँ जाता है? और शरीर छोड़ने के बाद उसकी स्थिति, पुर्नजन्म कैसे होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जैसे ही आत्मा शरीर को छोड़ेगा, वैसे ही बेहोश हो जाएगा। उसको कोई होश नहीं, कोई शक्ति नहीं। अब आत्मा आगे नहीं चल सकता। जीवात्मा स्थूल शरीर के बिना कुछ नहीं कर सकता।
स शरीर छोड़ते ही ईश्वर उसको पकड़ लेगा। वह ईश्वर के नियंत्रण में आ जाएगा। अब ईश्वर उसको ले जाएगा।
ईश्वर उसके कर्मानुसार रूस में, जापान में, अमेरिका में जहाँ कहीं भी अगला जन्म देना होगा, अथवा भारत में ही कहीं अगला जन्म देना होगा, तो उसको वहाँ तक पहुँचाएगा। फिर वहाँ अगला जन्म देगा। उसके कर्मानुसार यह व्यवस्था रहती हैं।
स यह निश्चित है कि – आत्मा भूत-प्रेत बनके नहीं भटकेगा, किसी के शरीर में घुसकर उसको परेशान नहीं करेगा, यह पक्की बात है। यह शास्त्रों में लिखा है।
स अंतिम-संस्कार जिसको अंत्येष्टि कहते हैं। यह सोलह संस्कारों में अन्तिम है। ये शब्द ही कह रहा है कि अंत्येष्टि हो गयी यानि कि बात खत्म हो गयी। अंत्येष्टि के बाद मृतक के लिए हम कुछ नहीं कर सकते। आत्मा तो दूसरे जन्म में गया और उसका शरीर भी खत्म हो गया, सारे रिश्ते खत्म हो गये। फिर चौथा करो, दसवाँ करो, बारहवाँ करो, तेरहवाँ करो। वो जो बचे हुए जीवित लोग हैं, वो अपने लिए करते हैं, मृतक के फायदे के लिए नहीं।

(227) शंका :- ईश्वर, मनुष्य जीवन का निर्माण क्यों करता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मनुष्य जीवन का निर्माण, ईश्वर मोक्ष प्राप्ति कराने के लिए करता है। मनुष्य अपने पिछले कर्मों का फल भोग ले, और आगे पुरुषार्थ करके मोक्ष को प्राप्त कर ले। इसलिए मनुष्य को ईश्वर ने बनाया।
हम मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी अगर मोक्ष के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते, मोक्ष की ओर दो-चार कदम आगे नहीं बढ़ाते, तो फिर हमारा जीवन सफल नहीं है। मनुष्य जन्म की सार्थकता यही है, कि कुछ तो मोक्ष की ओर हम आगे बढ़ें।
जिस काम के लिए भगवान ने जन्म दिया, वो काम तो हमने किया ही नहीं। खाया-पिया और सो गए। इतना तो और प्राणी भी करते हैं। इसलिए अगर मनुष्य जन्म मिला है तो इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए।

(228) शंका :- कर्म का फल भोगने के बाद संस्कार नष्ट हो जाते हैं या बने रहते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

संस्कार बने रहते हैं। इसे समझेंः-
स एक व्यक्ति ने चोरी कर ली। चोरी करना अशुभ कर्म है। पुलिस ने खोजबीन की। चोर मिल गया। चोरी का सामान भी बरामद हो गया। कोर्ट में केस हुआ। जज साहब ने कहा- छह महीने की जेल दी जाएगी। छह माह की जेल हो गई। यह उसका फल हो गया। छह माह बाद वो जेल से छूटकर बाहर आया। चोरी-कर्म का दंड (फल( क्या था? छह महीना जेल में रहना। फल भोग लिया।
स फल तो भोग लिया, संस्कार बने रहेंगे। जैसे-जेल से छूटने के बाद जो चोरी करने का संस्कार है, वो अभी खत्म नहीं हुआ है। जो बिल्कुल पेशेवर (व्यावसायिक( चोर हैं, जिनका धंधा ही चोरी करने का है, वो जेल से छूटते ही चोरी करेंगे। उनको और कोई काम आता ही नहीं, कुछ सीखा ही नहीं, वे मेहनत करना जानते ही नहीं। बस, चोरी करना जानते हैं। वे बार-बार चोरी करते हैं। उससे उनको चोरी करने की जो आदत पड़ जाती है, इसका नाम है – संस्कार। तो यह संस्कार नहीं छूटा।
स इस गलत संस्कार को मिटाने के लिए अलग से मेहनत करनी पड़ेगी। उसके लिए संकल्प करना पड़ेगा कि ‘अब बस, बहुत चोरी कर ली। अब नहीं करूँगा।’ ऐसा संकल्प करेगा, कुछ कष्ट उठाएगा, थोड़ी तपस्या करेगा, तो वो संस्कार छूट जाएगा। वरना ऐसे नहीं छूटेगा।

(229) शंका :- संस्कार-विधि में बालक के जात-कर्म संस्कार के समय, तिथि और तिथि के देवता, नक्षत्र और नक्षत्र के देवता की आहुति का विधान किया गया है। उन्होंने लिखा है-गृहस्थ व्यक्ति यदि दैनिक यज्ञ नहीं कर सकता है, तो कम से कम पूर्णिमा व अमावस्या के दिन यज्ञ अवश्य करे। इन दो विशेष दिनों का क्या महत्व है? क्या चंद्रमा का घटना और बढ़ना हमारे जीवन पर प्रभाव डालता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सत्यार्थ प्रकाश’ में बिल्कुल ठीक लिखा है कि ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव नहीं होता, इसलिए बालक की जन्मपत्री नहीं बनवानी चाहिए। उसका नाम शोक-पत्र है। आपकी जन्मपत्री में ऐसा कुछ नहीं लिखा कि कल आपका भविष्य कैसा होगा।
और रही बात कि ‘संस्कार विधि’ में तिथि और नक्षत्र के देवता आदि के लिए आहुति देना लिखा है। उसका अर्थ यह नहीं है कि उन तिथि के देवता, नक्षत्र और नक्षत्र के देवता को यदि हम आहुति देंगे, तो ये देवता प्रसन्ना हो जाएंगे और हमारा भविष्य अच्छा बना देंगे। इतिहास की रक्षा के लिए, यह विधान किया गया है, कि उस दिन क्या तिथि थी, उस दिन नक्षत्र कौन सा था। पृथ्वी और ग्रहों की स्थिति क्या थी? इतिहास के स्मरण के लिए यह काम करना चाहिए।
पहले लोग तिथि और नक्षत्र आदि के हिसाब से इतिहास लिखते थे। आज तो अंग्रेजी तारीख में लिखते हैं, जैसे – 26 जनवरी 1902, 25 फरवरी 1925, इससे तारीख पता चलती है, कि इस व्यक्ति का जन्म कब हुआ था, कितने साल पहले हुआ था, आज क्या उम्र है। वह केवल इतिहास की रक्षा के लिए है। उससे हमारा भविष्य सुधरता हो, ऐसी कोई बात नहीं।
अब रही बात कि गृहस्थ व्यक्ति को प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिए। तो वो बिल्कुल ठीक लिखा है। फिर लिखा है, आपत्तिकाल में यदि वो न कर सके। मान लो गरीब आदमी है, हर रोज हवन करने के लिए साधन नहीं है, तो कोई बात नहीं। ऐसा व्यक्ति पूर्णिमा और अमावस्या यानी पन्द्रह दिन में एक बार तो कम से कम अवश्य करे। उसके लिए यह विकल्प दिया है। कुछ न करने से, कुछ करना अच्छा है। किस दिन करें, तो एक दिन बता दिया। आजकल तो लोग संडे की छुट्टी मनाते हैं। पुराने समय में यह संडे की छुट्टी नहीं होती थी। पूर्णिमा की, अमावस्या की, और अष्टमी की, ऐसे महीने की चार छुट्टियाँ होती थीं। एक पूर्णिमा, एक अमावस्या और शुक्ल पक्ष में एक अष्टमी, कृष्ण पक्ष में एक अष्टमी आएगी। तो स्वामी दयानन्द जी ने यूँ कह दिया, कि पूर्णिमा और अमावस्या में हवन कर लो, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है।
समुद्र में ज्वार-भाटा तो रोज चढ़ता-घटता है। वो तो रोज चलता है। लेकिन अमावस्या और पूर्णिमा को चन्द्रमा का कुछ विशेष आकर्षण होता है। इसलिए उस दिन ज्वार-भाटा कुछ तेज आता है। तो उसी हिसाब से हमारे जीवन पर ज्वार-भाटे का असर होता है, वो तो ठीक है। वो तो प्राकृतिक घटना है। उसमें कोई आपत्ति नहीं।
ज्वार-भाटे का ऐसा कोई सूक्ष्म प्रभाव नहीं है कि, वह पूर्णिमा को किसी व्यक्ति का व्यापार बहुत अच्छा बना दे, दूसरे का व्यापार बिगाड़ दे। जैसा ये हस्तरेखा, भविष्य-फल वाले लोग बताते हैं। वो सब गड़बड़ है।

(230) शंका :- अच्छे या बुरे कर्मों का फल अगले जन्म में ही मिलता है, इसी जन्म में क्यों नहीं मिलता?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अच्छे कर्मों और बुरे कर्मों का फल इस जन्म में भी मिलता है। आपको याद है दिल्ली के दो गड़बड़ व्यक्ति थे, जिनका नाम था रंगा और बिल्ला। रंगा-बिल्ला को इसी जन्म में सजा मिली या नहीं मिली? इंदिरा
गाँधी जी का हत्यारा बेअंत सिंह, उसको इसी जन्म में दण्ड मिला कि नहीं मिला? और आप छब्बीस जनवरी को देखिए, कितने वीर सैनिकों को पुरस्कार मिलते हैं, परमवीर चक्र, अशोक चक्र आदि-आदि चक्र मिलते हैं। तो यह देखो, इसी जन्म में कर्म किया, इसी जन्म में फल मिला। आप लोग इसी जन्म में मेहनत करते हैं, और इसी जन्म में खूब वेतन कमाते हैं। व्यापारी लोग व्यापार में पैसे कमाते हैं। इसी जन्म में कर्म करते हैं, इसी जन्म में फल मिलता है। खूब मिलता है।
कर्मों का फल इस जन्म में भी मिलता है। ऐसा नहीं है कि, सारा अगले जन्म में ही मिलता है। कुछ यहाँ मिलता है, कुछ आगे मिलता है।

(231) शंका :- क्या किसी मंत्र के जाप से या यज्ञ करने से कष्ट दूर हो सकते हैं? जबकि सुना यह जाता है – ”अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्।”

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह बात ठीक है कि हमने जो कर्म किए हैं, उनके फल तो हमें भोगने ही पड़ेंगे। रही बात यह कि, क्या मंत्र के जाप से अथवा यज्ञ करने से कष्ट दूर हो सकते हैं? उत्तर यह है कि-
(1) हम यज्ञ करेंगे, मंत्र का जाप करेंगे, तो भगवान हमको सहनशक्ति देगा। सहनशक्ति से कष्ट हमारे लिए हल्का हो जाएगा। कष्ट भोगना तो पड़ेगा, पर वह उतना भारी नहीं रहेगा।
स्वामी दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि – ईश्वर की उपासना से इतना बल प्राप्त होगा कि पहाड़ जैसा दुःख भी राई जैसा प्रतीत होगा। जो दुःख आएगा, वो तो भोगना पड़ेगा। लेकिन वह दुःख इतना भारी नहीं लगेगा, हल्का लगेगा। आराम से निपट जाएगा।
(2) मंत्र के जाप से आगे के लिए बु(ि अच्छी हो जाएगी। फिर हम और अधिक अच्छे-अच्छे काम करेंगे। आगे अपराध करेंगे नहीं, तो आने वाले कष्ट टल जाएंगे। क्योंकि आगे अपराध ही नहीं करेंगे, तो पाप का दंड क्यों मिलेगा? इसलिए मंत्र जाप करना चाहिए, यज्ञ करना चाहिए।
60. शंका- कहा जाता है कि गायत्री मंत्र का एक लाख जाप करने वाला चोरी, ब्रह्महत्या, गुरु पत्नी के साथ व्यभिचार आदि पापकर्म से मुक्त होता है, कृपया मार्गदर्शन करें?
ख् समाधान- यह बात जिन भी ग्रंथों में आप पढ़ते-देखतें हैं, वो बात सत्य नहीं है। वेदानुकूल नहीं है, तर्क के भी विरु( है, )षियों के भी विरु( है। कारण किः-
स गायत्री मंत्र का पाठ करना एक अच्छा काम है। चोरी करना- यह बुरा काम है। अच्छे काम से बुरा काम कैंन्सिल नहीं होता।
मान लीजिए, लोग नाव में बैठकर नदी पार कर रहे थे। नाव में पानी भर जाने से नाव उलट गई। एक बड़ा अच्छा तैरने वाला था। उसने डूबने वाले बीस लोगों को बचा लिया। सरकार को सूचना मिली। सरकार ने कहा – आपको ईनाम मिलेगा।
स अब एक हफ्ते के बाद जिसने बीस लोगों की जान बचाई थी, उसी व्यक्ति ने एक आदमी को मार दिया। वो सरकार के पास गया और बोला – देखिए जी, मैने बीस लोगों की जान बचाई है, और एक को जान से मारा है। सीधे बीस में से एक को घटाकर के उन्नाीस का ईनाम दे दीजिए। तो क्या सरकार मान लेगी? नहीं मानेगी न। सरकार ने कहा – बीस की जान बचाई, उसका अलग ईनाम मिलेगा। और एक को मारा, उसका दण्ड अलग मिलेगा। बीस में से एक कैन्सिल नहीं होता है। जब सरकार कैन्सिल नहीं करती,तो भगवान क्यों करेगा?आपने एक लाख गायत्री जप किया, उसका अलग फल मिलेगा। चोरी की, उसका अलग दण्ड मिलेगा। इसलिए दोनों कर्मों का फल अलग-अलग है।

(232) शंका :- आज सुबह हम ध्यान में मन नहीं लगा पाए। जब गुरुजी ने कहा कि – अपनी हथेलियाँ घर्षण करके आँखों में लगाओ, उसी समय मैंने कल्पना में देखा कि हम हवन में बैठे हैं और एक लड़की आई और रखा हुआ दीपक बुझा दिया। तब से मेरा मन परेशान है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसमें परेशान होने की बात नहीं है। कभी – कभी मन में ऊँचे-नीचे ख्याल आते रहते हैं। हम मनुष्यों का मन अच्छा भी सोचता है, बुरा भी सोचता है। मन पॉजीटिव भी सोचता है, नेगेटिव भी सोचता है। मन में जो विचार चलते रहते हैं, वे कभी-कभी कल्पना में आ जाते हैं। इसलिए यदि सहसा ऐसा कोई विचार कौंध गया तो उससे घबराने या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
इससे ऐसा संकेत नहीं समझना चाहिए कि उसने दीपक बुझा दिया तो कोई अनिष्ट या दुर्घटना हो जाएगी। यह तो संयोग की बात है। दुनिया में घटनाएं-दुर्घटनाएं होती रहती हैं। पर दीपक बुझाने से उसका कोई सीधा लेना-देना नहीं है।

(233) शंका :- डिस्कवरी चैनल में भूत-प्रेत की कथाएं और कथित घटनाओं का ब्यौरा दे रहे हैं। सारे घटित दृश्य भी दिखाते हैं। क्या यह असत्य है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ, भूत-प्रेत की सब बातें असत्य हैं। ऐसे बहुत कार्यक्रम देखे गए, पकड़े गए जो बिलकुल झूठे और नकली थे,उन पर कोर्ट-केसेस भी किए गए। अहमदाबाद कोर्ट के एक वकील साहब ने मुझे ऐसी एक फिल्म दिखाई और बताया कि हमने इन लोगों पर कोर्ट-केस किया है। ये जनता को बहकाते हैं। झूठ का प्रयोग करते हैं। बड़ी चालाकी से ये लोग काम करते हैं। आम जनता समझ नहीं पाती।
ये बस चालाकी है, धोखा है, असत्य है। ऐसे लोगों की लपेट में नहीं आना चाहिए।

(234) शंका :- क्या झाड़-फूँक करने वाले बाबाजी अथवा टोटके आदि करने वाले बाबाजी सब कोरा ढोंग मात्र हैं। तो फिर झाडू मारने से मिर्गी कैसे भाग गई?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ऐसा तो हो नहीं सकता। ऐसे किस्सों के हमने परीक्षण भी करवाए हैं। यहाँ ध्यान रखेंः-
स इसमें कुछ अंश मानसिक-रोग का होता है। वो झाड़फूँक से ठीक हो जाता है। क्योंकि झाड़फूँक भी एक मानसिक-चिकित्सा है।
स जो शारीरिक रोग है, वो शारीरिक चिकित्सा करवाने से ही ठीक होता है। इसलिए यह झाड़फूँक करवाने से अधिक लाभ नहीं है। उससे पाखण्ड को बढ़ावा भी मिलता है। इसलिए उसके चक्कर में नहीं आना।
स मानसिक रोग की ‘मानसिक-चिकित्सा’ही करें। और ‘मानसिक- चिकित्सा’ की सबसे बढ़िया प(ति ‘अष्टांग योग’ है। मन के विचारों को रोको, शु( चिंतन करो, ईश्वर, जीव, प्रकृति का विचार करो और करने योग्य कार्य को करो, न करने योग्य कार्य को मत करो, इस तरह से मानसिक-चिकित्सा होती है। यह सबसे उत्तम प(ति है।

(235) शंका :- क्या जादूगरी आँखों का धोखा होता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ है, क्योंकिः-
स एक नियम है – ‘कारण और कार्य का सि(ांत’। घर में आटा नहीं होगा तो क्या रोटी बनेगी? नहीं। अगर लकड़ी नहीं होगी तो क्या फर्नीचर बनेगा? नहीं। यह ‘कारण-कार्य सि(ांत’ है। इसी तरह से मैं जेब में हाथ डालूँ और बिल्ली निकल आए तो इसका मतलब जेब में बिल्ली थी। बस, इसी का नाम जादूगरी है। वो थी कहीं न कहीं, इधर-उधर छुपा रखी थी।
स सृष्टि के कारण-कार्य सि(ांत के बिना कुछ नहीं हो सकता। सृष्टि का नियम है। एक नियम याद कर लीजिए – सृष्टि क्रम के विरु( कोई कार्य नहीं हो सकता, और यहाँ तक मैं कह दूँ कि – ईश्वर भी नहीं कर सकता, मनुष्य तो क्या करेगा।
अच्छा बताइए, अग्नि गरम है। क्या इस गरम अग्नि को ईश्वर ठंडा कर सकता है? नहीं। ईश्वर भी ठंडा नहीं कर सकता, सृष्टि नियम के विरु( कार्य ईश्वर भी नहीं कर सकता, तो ये मनुष्य लोग क्या करेंगे। इतने में ही आप समझ लीजिए कि यह सब चालाकी और धोखा है।
स कारण-कार्य सि(ांत के विरु( जादूगरी कुछ चीज नहीं, केवल आँखों का धोखा है। सब चालाकी और धोखेबाजी है। हर आदमी पकड़ नहीं पाता, वो ऐसी चतुराई से काम कर लेते हैं।
स जादूगरी में या तो हाथ की सफाई होती है या कोई साइंस की बात होती है।
ऐसे दो चार हाथ जादूगरी के मैं भी जानता हूँ। मंत्र बोलकर मैं आग लगाना जानता हूँ। पर वो कोई जादूगरी नहीं है। आग लगाने वाले कहते हैं – यह गाय का घी है और मैं अभी कटोरी में घी टपकाऊँगा और मंत्र बोलूँगा और इसमें आग लग जाएगी।
असल में उस चम्मच में गाय का घी नहीं होता। वो ग्लिसरीन होती है। एक दूसरी पोटैशियम परमैग्नेट (लाल दवा) होती है। वो दाँत के डॉक्टर कुल्ला करने के लिए देते हैं। पोटैशियम परमैग्नेट का पाउडर कटोरी में पहले से रखा होता है। वो जनता को दिखता नहीं और वो ऊपर से दो बूँद ग्लिसरीन टपका देते हैं। जब तक मंत्र बोलते हैं, तब तक उन दोनों में रिएक्शन हो जाता है। पोटैशियम परमैग्नेट में दो बूँद ग्लिसरीन टपकायेंगे तो उसमें आग लगेगी। वो लोग यह चतुराई करते हैं।
स मंत्र बोलने से कोई आग नहीं लगती। अगर मंत्र बोलने से आग लगती हो तो पहले मन्त्र बोलने वाले के मुँह में लगनी चाहिए। पर मुँह में लगती नहीं।
स ऐसे ही भूत-प्रेत की बात करते हैं। कहते हैं कि – शीशी के अंदर मैंने भूत-प्रेत बंद कर रखा है। छोटी सी एक शीशी (दो ढ़ाई इंच की शीशी) का ढक्कन खोल देंगे और हॉरिजोंटल (आड़ी) स्थिति में उस शीशी को रखेंगे। हम चॉक से बोर्ड पर लिखते हैं। उस चॉक के टुकड़े को उस शीशी के मुँह पर रख देंगे और फिर किसी व्यक्ति को बुलाएंगे। कहेंगे कि – ”आइए, जरा फूँक मारकर, हवा मारकर इस टुकड़े को इस शीशी के अंदर डालिए।” जब वो फूँक मारकर अंदर डालने का प्रयास करेगा तो वो चॉक का टुकड़ा अन्दर नहीं जाएगा बल्कि बाहर गिरेगा। जब वो बाहर गिरेगा तो कहेगा- ”इसमें मैंने एक भूत आत्मा, प्रेत-आत्मा बंद कर रखी है, वो इसको बाहर फेंकती है, अंदर घुसने नहीं देती।” यह सब चालाकी है, झूठ है, धोखा है। अब उस शीशी को आप वर्टीकल (सीधी) खड़ी कर दीजिए। अब वही टुकड़ा डालिए, तो वो तुरंत अंदर चला जाएगा। अब क्यों चला गया। ऐसे क्यों नहीं जा रहा था? यह साइंस की बात है।
चॉक का टुकड़ा भारी है, हवा उससे हल्की है। जब शीशीे हॉरिजोन्टल रखी जाती है, फिर वहाँ चॉक का टुकड़ा रखते हैं और जब हम चॉक के टुकड़े को अंदर फेंकने के लिए फूंक मारते हैं तो हवा हल्की होने की वजह से वो टुकड़े से पहले अंदर चली जाती है। बाहर की हवा शीशी के अंदर जाती है और अंदर की हवा धक्का खाकर बाहर आती है। जब अंदर की हवा बाहर आती है तो बाहर आती हवा के धक्के से टुकड़ा बाहर ही तो गिरेगा, अंदर थोड़े ही जाएगा। जब शीशी सीधी खड़ी कर देते हैं और तब वो टुकड़ा रखते हैं तो तुरंत अन्दर चला जाता है। अब वहाँ ग्रेविटेशन-फोर्स (गुरुत्वाकर्षण) का नियम लागू होता है। कहाँ गया भूत-प्रेत? खामखां धोखा है। जादूगरी के चक्कर में नहीं आना।

(236) शंका :- क्या आप मेरा भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल बता सकते हैं? अगर नहीं बता सकते, तो क्या आप ऐसे महानुभाव को जानते हैं, जो ऐसा करने में सक्षम है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

कोई नहीं बता सकता, क्योंकि कोई जानता ही नहीं है। हाँ, मोटा-मोटा तो मैं बता सकता हूँ।
भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों के बारे में सुनिए। जिस व्यक्ति का यह प्रश्न है, वह वर्तमान काल में इस शिविर में, यहाँ आर्यवन में आया हुआ है। यह वर्तमान काल बता दिया न। भूत काल में उसके अंदर कुछ अच्छे संस्कार थे, इसलिए वह यहाँ इस शिविर में आया। अच्छे संस्कार नहीं होते, तो वह यहाँ आता ही नहीं। अब भविष्य काल सुनिए- अगर वो ऐसे ही शिविर में आता रहेगा, तो उसकी मुक्ति हो जाएगी। ठीक हो गया। तो वर्तमान,भूत, भविष्य की बात इतनी है।
भूतकाल को जानने से कोई लाभ नहीं है। जो बीत गया सो बीत गया। और वर्तमान में क्या हो रहा है, यह तो आप जानते ही हैं। इसको जानने से भी कोई लाभ नहीं है। एक भविष्यकाल की बात रही – अगर आप पुरुषार्थी, बु(िमान और ईमानदार हैं, तो आप का भविष्य उज्जवल है, बस। अगर आप में आलसीपन, बु(िहीनता और बेईमानी आ गयी, तो आपका भविष्य खराब है। बस, इस एक बात में सब बात आ जाती है।

(237) शंका :- ‘ज्योतिषम् नेत्रमुच्यते” अर्थात् वेद के ज्ञान प्राप्ति का साधन ज्योतिष नेत्र (आँख) रूप से है, और ज्योतिष वेद का अंग है, तो ज्योतिष का उपयोग आधिदैविक,आधिभौतिक, आध्यात्मिक पापों से छुड़ाने में क्या हो सकता है? वेद के ज्योतिष को कृपया समझाएँ।

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान- ”ज्योतिषम् नेत्रमुच्यते”-इसका अर्थ होता है कि वेद को समझने के लिए, सृष्टि को समझने के लिए ‘ज्योतिष शास्त्र’ को जानना आवश्यक है। ज्योतिष का मतलब जानिएः-
स ‘ज्योति’ का अर्थ होता है-‘प्रकाश’ और ज्योतिष शास्त्र का अर्थ होता है-प्रकाशवाले पिण्डों की गतिविधियों को बताने वाला शास्त्र। जैसे सूर्य, ज्योति-पिण्ड है, प्रकाश का पिण्ड है। यह प्रकाश फेंकता है। इसी तरह से एक सूर्य, दो सूर्य, तीन सूर्य, हजारों सूर्य, ग्रह और उपग्रह आदि चीजों की गतिविधियों को बताने वाला शास्त्र है – ‘ज्योतिष शास्त्र’। जो ज्योतिष शास्त्र को जानता है, सूर्य नक्षत्र आदि की गतिविधियों को जानता है, भूगोल-खगोल-शास्त्र को जानता है, वो व्यक्ति वेद को ठीक-ठीक समझ सकता है। ”ज्योतिषम् नेत्रमुच्यते”-इसका तात्पर्य इस तरह से है।
स एक और ज्योतिष, जो फलित ज्योतिष के नाम से आजकल प्रचलित है-जैसे हस्त-रेखा विज्ञान, भविष्य-फल, राशि-फल, जन्म-कुण्डली, इनसे हम किसी का भविष्य नहीं बता सकते। कोई किसी का भविष्य जानता ही नहीं।
स जन्मकुंडली मिलाते हैं, कुंडली मिलाकर के विवाह करते हैं। अच्छा तो भई, कुण्डली मिलाकर विवाह किया तो, शादी के बाद झगड़ा क्यों हुआ, तलाक क्यों हुआ? भविष्यफल बताकर वो बेकार जनता की बु(ि खराब करते हैं। उनकी इन बातों में कुछ भी नहीं रखा है, सब व्यर्थ की बातें हैं।
स राम और रावण की एक ही राशि थी, पर देखो दोनों का हाल क्या हुआ? लाखों साल हो गए हैं लेकिन लोग एक को तो दीप जला रहे हैं, और दूसरे को गालियां मिल रही हैं। कंस और कृष्ण की भी एक ही राशि थी। अब उनका भी इतिहास देख लो कि दोनों में कितना फर्क है? कंस को गालियाँ पड़ती है, कृष्ण जी के गीत गा रहे हैं लोग।
ये जो जन्म कुंडली बनाते हैं और ग्रहों का फल बताते हैं, यह सब भी बेकार है, झूठ है। जैसे राशियाँ बारह हैं, इसी तरह से ये नौं ग्रह मानते हैं। इनको तो ग्रहों का भी पता नहीं। नौं ग्रहों कीे गिनती में भी नौं में से पाँच गलती करते हैं। कैसे?
स ये नौं ग्रह ऐसे गिनाते है, एक ग्रह मानतें है, सूर्य। अब बताइए, सूर्य भी कोई ग्रह है क्या? वो तो नक्षत्र है। जो स्वयं प्रकाश फेंकता है, जिसका अपना प्रकाश हो, उसे कहते है ‘नक्षत्र’। सूर्य तो स्वयं अपना प्रकाश फेंकता है, तो सूर्य नक्षत्र है, ग्रह नहीं है। यह है एक गलती।
स दूसरी भूल चन्द्रमा को ये ग्रह बताते हैं। चन्द्रमा ग्रह नहीं, उपग्रह है। जो नक्षत्र के चारों ओर चक्कर लगाए, उसको बोलते हैं ‘ग्रह’। और जो ग्रह के चारों ओर चक्कर लगाए, उसको कहते हैं ‘उपग्रह’। तो सूर्य नक्षत्र है, हमारी पृथ्वी ग्रह है, चन्द्र हमारी पृथ्वी का उपग्रह है। जो हमारी पृथ्वी के चारों तरफ चक्कर लगाता है। दो भूल हो गईं।
स तीसरी भूल-पृथ्वी ग्रह है, जिसका हम पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। लेकिन नौं ग्रहों में से पृथ्वी ग्रह का नाम ही गायब है। एक आदमी बारह फीट की ऊँचाई से गिरे, तो हड्डी टूटेगी कि नहीं टूटेगी? तुरंत प्रभाव पड़ेगा पृथ्वी का। लेकिन उसका नाम ही गायब है।
स चौथी और पाँचवी गलती है – ज्योतिष वाले राहु और केतु नामक दो ग्रह बताते है। और इन्हीं से सबसे अधिक डराते हैं। वस्तुतः राहु-केतु नाम का कोई ग्रह है ही नहीं दुनिया में। इसलिए ग्रहों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
स पुरुषार्थ से सारी चीजें सि( हो जाती हैं। पुरुषार्थ ही इस दुनिया में सब कामना पूरी करता है। पुरुषार्थ करो, भविष्य अच्छा है। तीन बातें सीख लेनी चाहिए-पुरुषार्थ, बु(िमत्ता और ईमानदारी। आपका भविष्य बहुत अच्छा है।
स भाग्य तो एक बार जन्म से मिल गया, सो मिल गया। बाकी तो पुरुषार्थ बलवान है। भाग्य से भी बलवान है। पुरुषार्थ अच्छा है, तो भविष्य भी अच्छा है। और पुरुषार्थ खराब है, तो भाग्य भी सो जाएगा। भविष्य जानने के लिए किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। देखो, हम किसी से अपना भविष्य पूछते नहीं।
स लोग पता नहीं क्या-क्या अंगूठियाँ पहनते हैं – लाल, पीली, नीली। हमने आज तक कोई अंगूठी नहीं पहनी। हम कोई हार गलें में नहीं पहनते। तीन सौ पैसठ दिन हमारा धंधा (समाज सेवा कार्य) खूब चलता है। इतना चलता है, कि हमको हाथ जोड़कर माफी माँगनी पड़ती है कि साहब, टाइम नहीं है।
स यहाँ एक श्रोता ने प्रश्न किया – ”हमने सुना है, कि ईश्वर का नाम भी राहु और केतु है। क्या यह सच है?” तो मैंने उत्तर दिया – हाँ, राहु-केतु ईश्वर के दो नाम हैं, यह बात सत्य है पर ज्योतिषियों ने लोगों को डराने के लिए दो ग्रह कल्पित कर रखें है। ऐसे कोई ग्रह नहीं होते।
अ संपादकीय टिप्पणी-समाज की सुख-शाँति मे बाधा पहॅुचाने बाले लोग ‘लोक कण्टक’ कहलाते हैं। ‘लोक कण्टक’ यानी काँटे की तरह चुभकर पीड़ा देने बाले। ‘मनुस्मृति’ ( नवम अध्याय का श्लोक 258 से 261) में लिखा है कि – मंगलादेश वृत्ताः’ यानी तुम्हे पुत्र या धन की प्राप्ति होगी, जो ऐसा कहने बाले हैं, ‘ईक्षणिकेः सह’ यानी जो हाथ आदि देखकर भविष्य बताकर धन ठगने बाले हैं, उनको ‘लोक कण्टक’ यानी प्रजाओं को पीड़ित करने बाले चोर समझें। फिर ‘प्रोत्साद्य’ यानी उन्हे पकड़कर (वशमानयेत) यानी उन्हें काराग्रह में रखें।

(238) शंका :- क्या किसी मंत्र के जाप से या यज्ञ करने से कष्ट दूर हो सकते हैं? जबकि सुना यह जाता है- अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्।

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह बात ठीक है, कि हमने जो कर्म किये हैं, उनके फल तो हमें भोगने ही पड़ेंगे। रही बात यह कि क्या मंत्र के जाप से अथवा यज्ञ करने से कष्ट दूर हो सकते हैं? उत्तर यह है कि- हम यज्ञ करेंगे, मंत्र का जाप करेंगे, तो भगवान हमको सहनशक्ति देगा। सहनशक्ति से कष्ट हमारे लिये हल्का हो जायेगा। कष्ट भोगना तो पड़ेगा, पर उतना भारी नहीं रहेगा। स्वामी दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं, कि- ईश्वर की उपासना से इतना बल प्राप्त होगा, कि पहाड़ जैसा दुःख भी राई जैसा प्रतीत होगा। जो दुःख आयेगा, वो तो भोगना पड़ेगा। लेकिन वह दुःख इतना भारी नहीं लगेगा, हल्का लगेगा। आराम से निपट जायेगा और आगे के लिये बु(ि अच्छी हो जायेगी। फिर हम और अधिक अच्छे-अच्छे काम करेंगे और आगे अपराध करेंगे नहीं, तो आने वाले कष्ट टल जायेंगे। क्योंकि आगे अपराध ही नहीं करेंगे, तो पाप का दंड क्यों मिलेगा? इसलिये मंत्र जाप करना चाहिये, यज्ञ करना चाहिये।

(239) शंका :- क्या जाति, आयु, भोग निश्चित हैं, या इन्हें घटाया- बढ़ाया जा सकता है। इसकी सीमा क्या होगी?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जाति तो निश्चित है, बीच में जाति नहीं बदलेगी। आयु और भोग अवश्य बदल सकते हैं।
स जन्म के समय कुछ आयु और भोग ईश्वर ने हमको दिये। ये पिछले जन्मों के कर्मों के आधार पर दिए। वो भी सीमित (लिमिटेड) हैं।
स एक बात और, इस जन्म के नए कर्मों से हम अपनी आयु को बढ़ा भी सकते हैं।
कल्पना कीजिए, परमात्मा ने हमारे शरीर में जन्म के समय इतनी शक्ति भर दी कि अगर सामान्य रूप से हम उसको खर्च करते रहें, तो हम अस्सी साल तक जी सकते हैं। यह अस्सी साल का जीवन हमारे पिछले कर्मों का फल, इतनी आयु है। अब हम इसको कैसे बढ़ाएंगे?
अखबार में विज्ञापन आते हैं। विज्ञापन के नीचे एक स्टार लगा के लिखा रहता है – ‘कंडीशन्स एप्लाइ’ (शर्ते लागू)। भगवान भी हमारे कर्मानुसार हमको जाति, आयु, भोग देता है। वह कहता है कि जाति तो पूरे जीवन भर नहीं बदलेगी। लेकिन भोग और आयु बदल सकते हैं। परन्तु “कंडीशन्स एप्लाइ।” वो कंडीशन्स हैः- ‘अगर आप भोग बढ़ाने वाले नए कर्म करोगे, तो भोग बढ़ जाएंगे।’ अगर नहीं करोगे, तो भोग नहीं बढ़ेगा। आयु बढ़ाने वाले कर्म करोगे, तो आयु बढ़ेगी। और वैसे कर्म नहीं करोगे, तो आयु नहीं बढ़ेगी। वो कंडीशन्स पर डिपेन्ड करता है। भोग बढ़ भी सकते हैं, घट भी सकते हैं।
स आयु कैसे घटती-बढ़ती है, जानिए। मान लो, मैंने पाँच सौ रुपए की घड़ी बाजार से खरीदी। कम्पनी वालों ने कहा कि – ”भाई, इस घड़ी की तीन साल की गारंटी है। लेकिन यह गारंटी हम इस शर्त पर देते हैं कि आप इस घड़ी को ठीक तरह से इस्तेमाल करेंगे। इसे संभालकर प्रयोग करेंगे।”
अब आप घड़ी रेल की पटरी पर रख देंगे या हथौड़ा लेकर उस पर ठोंक देंगे, तो गारंटी क्या होगी? फिर एक सेकेंड की भी गारंटी नहीं है। घड़ी को दुर्घटना से बचाओ, धूप में मत फेंको, पानी में मत फेंको, सड़क पर मत फेंको, संभाल कर प्रयोग करो, तो यह तीन साल तक चलेगी। लेकिन तीन साल पूरे होते ही इसमें विस्फोट होने वाला नहीं है। इसके टुकड़े-टुकड़े भी नहीं होंगे। अच्छे ढंग से चलाओ तो घड़ी चार साल भी चलेगी। और वेल मेन्टेन करो, तो पाँच साल भी चलेगी। शरीर भी इसी प्रकार का है, यह भी भगवान की दी हुई एक मशीन है।
भगवान कहता है कि – तुम्हारे शरीर में मैंने अस्सी साल तक जीने की शक्ति भर दी है। अस्सी साल की गारंटी है। परन्तु याद रखो- “कंडीशन्स एप्लाइ”। आप जहर पी लोगे, आप रेल या ट्रक के आगे खड़े हो जाओगे, नदी में गिर जाओगे, तो कोई गारंटी नहीं। संभल के चलेंगे, तो अस्सी साल जिएंगे। फिर इस जन्म के नये कर्म करो, जैसे- व्यायाम करो, खान-पान ठीक रखो, संयम से खाओ, सात्त्विक भोजन खाओ, समय पर खाओ, अपने शरीर की प्रकृति के अनुकूल खाओ, मात्रा से थोड़ा कम खाओ, अधिक मत खाओ, रात को जल्दी सोओ, सुबह जल्दी उठो, ब्रह्मचर्य का पालन करो, ईश्वर की उपासना करो, दिनचर्या का पालन करो, )तुचर्या का पालन करो। इससे आपकी आयु बीस साल बढ़ जाएगी, सौ साल जी लेंगे। ऐसे आयु बढ़ती है।
स इस जन्म के नए कर्मों से हम अपनी आयु को घटा भी सकते हैं। अगर शराब पियो, माँस-अंडे खाओ, उल्टे-सीधे काम करो, बुरे विचार करो, देर तक जागते रहो, देर तक सोते रहो, भ्रष्ट आचरण करो, अच्छे काम मत करो और बुरे काम करो तो आपकी आयु घट जाएगी। बीस साल कम हो जाएगी, अस्सी साल वाले का बीस साल पहले ही शांति-पाठ हो जाएगा। साठ साल में उसका जीवन पूरा हो जाएगा। यदि सामने वाला गोली मारे या कहीं ट्रेन-एक्सीडेंट की लपेट में आ गए, तो आयु तुरंत घट जाएगी। इस तरह से हमारी आयु घटती है और बढ़ती है।
स अब भोग की बात जानिए। जन्म से जिस माता-पिता के घर में जन्म मिला, उनके पास अच्छी सम्पत्ति थी। इसलिए हमको पूर्वजन्म के कर्मों से अच्छा भोग मिल गया। अच्छी सम्पत्ति मिल गई।
स भोग घटते कैसे हैं? आगे इस जन्म के नए कर्म जैसे – हमने पढ़ाई नहीं की, अपनी बु(ि नहीं बढ़ाई, विकास नहीं किया,धन-संपत्ति को नहीं संभाल सके, जुआ सट्टे में, शराब में, इधर- उधर दूसरे उल्टे-सीधे कामों में संपत्ति खो दी, कोई दूसरे लोग छीन-छान के ले गए, तो हमारे भोग घट गए।
स भोग बढ़ते कैसे हैं? जिस परिवार में हमको जन्म मिला। जो जन्म से पैतृक संपत्ति मिली। उससे हमने पढ़ाई-लिखाई की, बु(ि का विकास किया। खूब अच्छी तरह से मेहनत की और खूब धन कमा लिया। अच्छी-अच्छी सुविधाएं घर में इकट्ठी कर लीं। इस प्रकार से हमारे इस जन्म के नए कर्मों से हमारे भोग बढ़ गए।

(240) शंका :- सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा।।” (योग.2/13) इस सूत्र में आए भोग के विषय में जानना चाहता हूँ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

योग दर्शन के इस सूत्र में आए जाति, आयु और भोग के बारे मैं थोड़ा सा संक्षिप्त वर्णन कर देता हूँः-
(1) जाति का मतलब है – शरीर। मनुष्य का शरीर, गाय का शरीर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, हाथी, बंदर, मच्छर, मक्खी, सुअर आदि किसी का भी शरीर, यह है जाति।
स जाति एक बार जन्म से मिल गयी, तो मृत्युपर्यंत वो बीच में नहीं बदलती। जाति तो निश्चित है। भगवान ने हमारे कर्मानुसार हमको जन्म से जो जाति दे दी, वो जीवन भर रहेगी।
‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ में स्वामी दयानंद जी ने जाति की परिभाषा लिखी है। जो जन्म से मरणपर्यंत बदलती नहीं, उसको जाति कहते हैं। मनुष्य का शरीर मिला, तो पूरे जीवन भर जीते जी मनुष्य ही रहेगा, बीच में उसको तोड़-मरोड़कर कुत्ता, बिल्ली नहीं बना सकते।
स अगले जन्म में जाति (शरीर) बदल सकती है। बीच में जाति नहीं बदलेगी। आयु और भोग अवश्य बदल सकते हैं।
(2) आयु का मतलब – जीने का समय, जीने का काल।
स कर्मानुसार ईश्वर आयु देता है। पहले लोग अच्छे काम करते थे, खान-पान ठीक था, व्यायाम भी ठीक था, ब्रह्मचर्य का पालन भी करते थे, दिनचर्या का पालन भी करते थे, आदि आदि। लोग आयु बढ़ाने वाले कर्मों का आचरण करते थे तो भगवान सौ वर्ष की आयु देकर भेजता था। अब वो सारा कुछ बदल गया। खान-पान बिगड़ गया, जलवायु बिगड़ गई, दिनचर्या बिगड़ गई, ब्रह्मचर्य का पालन भी नहीं रहा और भी कई चीजें बिगड़ गईं। इसलिए भगवान अब सौ वर्ष की आयु देकर नहीं भेजता।
भगवान किसी-किसी को सौ वर्ष की आयु देता है। जिसके जैसे कर्म होते हैं, उसको वैसी आयु देता है, कम भी देकर भेजता है। जैसा शरीर होगा, उसी के अनुसार आयु मिलेगी। मनुष्य शरीर मिला, तो मनुष्य शरीर में जितनी क्षमता है, उतनी आयु मिल जाएगी।
स आयु भी हर एक व्यक्ति की अलग-अलग है। किसी का शरीर मजबूत है, तो वो अस्सी साल तक जीएगा। किसी का शरीर कमजोर है, वो सत्तर साल जीएगा। किसी का और कमजोर है, तो उसका साठ में ही शांतिपाठ हो जाएगा।
स एक तो जन्म से आयु प्राप्त हुई। जन्म से जैसा, जितना बलवान शरीर मिला। यह तो है, पिछले जन्म के कर्मों का फल। मान लीजिए, किसी व्यक्ति को जन्म से ऐसा शरीर मिला कि यदि कोई दुर्घटना न होए, और ठीक-ठाक सामान्य रूप से जीता रहे, तो उसमें इतनी ताकत है कि वह सत्तर साल तक जी सकता है। तो यह आयु तो पिछले कर्मों से उसको मिली।
स भगवान जितनी आयु देकर भेजता है, उसकी भी गारंटी नहीं है, कि व्यक्ति उतने दिन जी ही लेगा। व्यक्ति तब जी सकता है, जबकि वह दुर्घटनाओं से बचता रहे। एक्सीडेंट होता है, मर जाते हैं। पैदा होते ही मरते हैं, दो साल के भी मरते हैं। उनकी सुरक्षा-देखभाल ठीक से नहीं हो पायी। इंफेक्शन हो गया, मर गए।
स कोई अच्छी तरह व्यायाम करके शरीर को बलवान बना लेगा, तो आयु बढ़ भी सकती है। अब अगर वह नया व्यायाम करके, पुरुषार्थ करके, ब्रह्मचर्य का पालन करके, ठीक खान-पान रखकर के, रोगों से बचता रहा, दुर्घटनाओं से बचता रहा, तो उसकी आयु दस-बीस वर्ष और बढ़ सकती है। सत्तर की थी, लेकिन वो नब्बे तक जी लिया। जो बीस वर्ष आयु बढ़ गई, यह इस जीवन के नए कर्मों का फल है।
स इसी प्रकार से नए कर्मों से आयु को घटाया भी जा सकता है। कोई शराब पीने लगा, माँस अंडे खाने लगा, नशा करने लगा तो सत्तर से पचास में ही पूरा हो जाएगा। और अगर दुर्घटना हो गई, तो कभी भी मर सकता है।
एक की भूल के कारण दूसरे को नुकसान होता है। हम सड़क पर ठीक-ठाक चलते हैं। पीछे से ट्रक, कार वाला आकर के हमको ठोंकता है। उसकी गलती से हमको नुकसान होता है। ऐसे ही डॉक्टर की भूल से, नर्स की भूल से, मां-बाप की भूल से, बच्चे को नुकसान हो सकता है। उसकी मृत्यु हो सकती है, हाथ-पाँव, टेढ़े-मेढ़े हो सकते हैं, कुछ भी हो सकता है। विमान दुर्घटना में मारा गया, कुँए में कूद गया, उसने बिजली का तार पकड़ लिया, जहर पी लिया, कहीं ट्रेन की दुर्घटना में मारा गया, कुछ भी हो सकता है। दुर्घटनाओं के कारण आयु कभी भी नष्ट हो सकती है। और यदि दुर्घटनाएं नहीं हुईं, तो अपने नये कर्मों से आयु को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। यह हो गई आयु की बात।
(3) अब तीसरी बात है-भोग। भोग का अर्थ होता है – ‘सेवन करने योग्य पदार्थ’, सुख-दुःख को भोगने के साधन। जैसे -धन-संपत्ति, मकान, मोटर-गाड़ी, अन्न, वस्त्र, सोना-चाँदी फ्रिज, टी.वी., रेडियो इत्यादि। ये जितने सुख-दुःख भोगने के साधन हैं, इनका नाम है – भोग।
स भोग भी इसी प्रकार से घटाया-बढ़ाया जा सकता है। मान लीजिए, एक व्यक्ति के पिछले कर्म बहुत अच्छे नहीं थे, इसलिए जन्म से उसको सामान्य गरीब परिवार में जन्म मिला। पाँच साल की उम्र तक जो घर की सामान्य सुविधाएं थी, उतनी ही मिलीं। अधिक अच्छा खानपान, अधिक अच्छे वस्त्र, अधिक सुविधा नहीं मिली। पाँच साल की उम्र में वह व्यक्ति स्कूल में पढ़ने के लिए गया। पढ़-लिखकर उसने खूब पुरुषार्थ किया। बु(िमान हो गया, एम.ए., पी.एच.डी हो गया। आगे चलकर उसको नौकरी भी मिल गयी। उसको अच्छा वेतन मिलने लगा। उसने खूब धन कमा लिया। धीरे-धीरे उसने अपना मकान भी अच्छा बना लिया। फिर धीरे-धीरे और अच्छा कमाकर के मोटरकार भी खरीद ली। ऐसे उसने भोग के साधन बढ़ा लिए।
गरीब आदमी मेहनत करके नए पुरुषार्थ से भोग के साधन बढ़ा सकता है, उसमें वृ(ि और परिवर्तन कर सकता है।
स इसके विपरीत भी हो सकता है। किसी बच्चे के पिछले जन्म के कर्म अच्छे थे। उसको सेठ के घर जन्म मिला। जन्म से उसको खाने-पीने, भोगने की बढ़िया सुविधाएं मिलीं। लेकिन आगे जब वो विद्यार्थी बनकर स्कूल में पढ़ने गया, तब उसने मेहनत नहीं की, पुरुषार्थ नहीं किया, बु(ि का विकास नहीं किया। जो जन्म से प्राप्त घर की संपत्ति थी, वो भी शराब पीने में, इधर-उधर यार-दोस्तों के साथ घूमने-फिरने में, मौज-मस्ती में नष्ट कर दी।
बु(ि का विकास किया नहीं, तो वो धीरे-धीरे नीचे आ जाएगा। जो संपत्ति पास में थी, वो भी खो बैठेगा।
इस प्रकार से “सुख-दुःख को भोगने के साधन”, भोग कहलाते हैं। वो घटाए जा सकते हैं, बढ़ाए जा सकते हैं। इन साधनों को कोई छीन के भी ले जा सकता है, और कभी-कभी कोई दे भी सकता है।

(241) शंका :- जब तक हम स्थूल (शारीरिक, वाचनिक) रूप से किसी पर प्रभाव नहीं डालते, तब तक गुनाह नहीं हो सकता। मन में एक पल के लिए बुरा विचार आया और अगले ही पल विचार बदल गया। तो विचार मात्र से पाप क्यों माना जाए अर्थात् बिना क्रिया के परिणाम या फल कैसे ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हमने मन में कुछ बुरा विचार किया और अगले ही पल उस विचार को बदल दिया, यानि कोई बुरा विचार किया, लेकिन उसकी क्रिया नहीं की और फिर वो बुरा विचार मन से हटा दिया। हमारे विचारमात्र से कोई प्रभावित या सुखी-दुःखी नहीं होता तो इसमें पाप क्यों माना जाए? यह प्रश्न है।
स भले ही हमारे बुरे विचार से दूसरों का कोई नुकसान नहीं हुआ, वाणी से हमने कुछ नहीं कहा, शरीर से किसी पर कोई अत्याचार नहीं किया, केवल मन ही मन में बुरा सोचा। इससे दूसरों को तो प्रत्यक्ष रूप से कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन हमारा नुकसान जरूर हुआ।
अगर हम गलत योजना बनाते हैं, बुरी योजना बनाते हैं, तो इससे हमारे संस्कार अवश्य बिगड़ेंगे और आगे हम भविष्य में भी गलत योजनायें बनायेंगे और गलत काम करेंगे। हर बार ऐसा थोड़े होगा कि हमने योजना बनाई, और बदल दी। हर बार बदलेंगे नहीं। कई बार तो कर ही डालेंगे। तो हमारे विचार, संस्कार न बिगड़ें, इसलिए हमको मन मे भी बुरी बात नहीं सोचनी चाहिए।
यहाँ एक और सावधानी रखने की बात यह है कि, मानसिक कर्म में दो स्थितियाँ हैं। एक स्थिति में तो केवल ‘विचार’ मात्र है, वो कर्म नहीं माना जायेगा। जबकि दूसरी स्थिति में, वो ‘कर्म’ भी माना जायेगा।
स पहली स्थिति क्या है? एक व्यक्ति ने मन में सोचा- झूठ बोलूँ, या नहीं बोलूँ? यहाँ दिमाग में दो पक्ष हैं कि, मैं झूठ बोलूँ, या फिर नहीं बोलूँ? यहाँ तक तो इसका नाम है – ‘विचार’। अभी यह कर्म नहीं बना। इसका कोई दंड नहीं है।
स अगर दो निर्णयों में से एक निर्णय कर लिया कि ‘आज झूठ बोलूँगा’। ऐसा निर्णय कर दिया, तो यह ‘कर्म’ बन गया। इसका दंड जरूर मिलेगा। ‘आज चोरी करूँगा’, यदि मन में यह फैसला कर लिया, फिर बाद में चाहे हम शरीर से न करें, यानी योजना बदल दें, लेकिन एक बार योजना बन गई, निर्णय कर लिया कि आज चोरी करनी है, तो वो कर्म बन जाएगा, इसलिए इसका दंड भी अवश्य मिलेगा। यह ‘मानसिक-कर्म’ है। इसका ‘मानसिक-दंड’ मिलेगा। इससे हमारे संस्कार बिगड़ेंगे।
स सावधानी रखें और गलत योजनाएं कतई नहीं बनाएं। विचार गलत आते हैं, अच्छे आते हैं, वो आते ही रहते हैं। वो कोई बड़ी बात नहीं है। मन में उठने वाले प्रत्येक विचार का सतत परीक्षण और निरीक्षण करें कि, मैंने जो विचार उठाया, वह ठीक है या गलत ? गलत है, तो उस पर लगाम (ब्रेक) लगाएं। उसको तुरंत निकाल दें।
स जो ठीक विचार हैं, उनको मन में रखें। ठीक विचारों के अनुसार ही ‘योजनाएं’ बनाएं और सिर्फ योजनाएं ही नहीं बनाएं ‘आचरण’ भी करें। बहुत सारे लोग सिर्फ योजनाएं ही बनाते रहते हैं, उसके अनुसार काम नहीं करते। उससे कोई विशेष लाभ नहीं है, विशेष उन्नाति नहीं है।

(242) शंका :- छोटी बच्ची के साथ दुष्कर्म करना, छोटे बच्चों को पकड़कर अंग काटना, भीख मँगवाना आदि करने वालों के विरु( भगवान अपनी शक्ति क्यों नहीं दिखाता? उन बच्चों ने क्या अपराध किया?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

एक सि(ांत है कि, व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है। अगर कोई व्यक्ति चोरी करता है, डकैती करता है, लूटमार करता है, शोषण करता है, अंग-भंग करता है, अन्याय करता है, और ईश्वर उसका हाथ पकड़ ले तो क्या तब वो स्वतंत्र माना जाएगा? नहीं माना जाएगा।
स चाहे चोरी, अन्याय, शोषण या लूटमार कुछ भी करो। व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है। इसलिए ईश्वर तत्काल उस समय हाथ नहीं पकड़ता।
तीन घंटे की परीक्षा है। विद्यार्थी को प्रश्न-पत्र दे दिया। तीन घण्टे तक कुछ भी सही-गलत लिखो। मान लो, अध्यापक ने वहीं चक्कर मारते-मारते देख लिया कि वह गलत उत्तर लिख रहा है तो क्या अध्यापक उसका हाथ पकड़ लेगा कि तुम गलत मत लिखो? तीन घंटे तक आप (विद्यार्थी) कुछ भी लिखो, आपकी मर्जी। इसी प्रकार से व्यक्ति कुछ भी करे, ईश्वर वहाँ अपनी शक्ति नहीं दिखाता।
स कर्म करने में हम ‘स्वतंत्र’ हैं, फल भोगने में ‘परतंत्र’ हैं। जब फल देने का समय आता है, तब ईश्वर फल देता है। जैसे तीन घंटे पूरे होंगे, तभी तो नंबर मिलेंगे, बीच में नम्बर नहीं मिलते। बीच में उसका हाथ नहीं पकड़ा जाता है। उसके बाद में उत्तर पुस्तिका हमारे (परीक्षक के) पास में आएगी, फिर हमारी (परीक्षक की) मर्जी चलेगी। जो आपने किया उसके आधार पर नम्बर मिलेंगे।
वैसे ही हमारे जीवन के तीन घंटे तब पूरे होते हैं, जब मृत्यु आती है। पहला घंटा बचपन है, दूसरा जवानी है, तीसरा बुढ़ापा है। और उसके बाद जब घंटी बजती है तो शांतिपाठ होता है (मृत्यु होती है), फिर नंबर मिलते हैं। ईश्वर अपनी शक्ति कब दिखाता है? जब उसका अवसर आता है, तब ईश्वर अपनी शक्ति दिखाता है।
स जिसने अच्छे कर्म किए, उसको ईश्वर मनुष्य बना देंगे। जिसने चोरी, बदमाशी, उल्टे-सीधे काम किए। उसको सुअर, गधा, बिल्ली, मच्छर, मक्खी, उल्लू, आदि बना देंगे।
स कुछ कर्मों का फल इसी जन्म में भी मिलता है और कुछ का आगे भी मिलता है।

(243) शंका :- कई श्रेष्ठ व्यक्ति अपने सेवाभावी कार्यों के लिए जाने जाते हैं। परंतु उन्होंने कभी वेद के अनुसार ईश्वर की उपासना नहीं की। ईश्वर इन्हें दण्ड देगा या पुरस्कार?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उन्होंने जितने काम अच्छे किए हैं, उतना तो उनको ईश्वर ईनाम देगा। और जो वेद के अनुकूल ईश्वर की उपासना नहीं की, उतना उनको दण्ड मिलेगा। वास्तव में ‘कर्म न करने’ का दण्ड नहीं होता। दण्ड होता है, ‘निषि( कर्म करने का।’
ईश्वर की उपासना’ विहित कर्म है। यह उन्होंने नहीं किया। इसलिए ईश्वर से जो आनंद मिलता है, वो इनको नहीं मिलेगा। और जो उन्होंने ‘संसार की उपासना’ की, यह निषि( कर्म है। यह उन्होंने किया। इसका दण्ड मिलेगा। और वह दण्ड होगा- अविद्या, राग, द्वेष आदि दोषों की वृ(ि, सकाम कर्म करना और बार-बार संसार में जन्म लेकर दुःखों को भोगना। यदि वे लोग वेद के अनुसार ईश्वर की उपासना भी करते, तो उन्हें पुरस्कार (मोक्ष) भी मिलता। अब मोक्ष नहीं मिलेगा।

(244) शंका :- अगर पशु योनि में बु(ि नहीं है, तो उनकी क्रिया जैसे कि लागणी, प्रेम, स्वरक्षण जैसे गुण कहाँ स्थित होते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हमने ऐसा तो कभी नहीं कहा कि पशु योनि में बु(ि नहीं है। मैंने यह नहीं कहा था कि केवल मनुष्यों के पास बु(ि है, पशु-पक्षियों के पास नहीं। हम तो मानते हैं कि पशुओं में बु(ि होती है।
मैंने यह कहा था कि जितनी बु(ि मनुष्य के पास है, इतनी बु(ि पशु-पक्षियों के पास नहीं है। मनुष्यों के पास जैसी बु(ि है और पढ़-लिखकर मनुष्य जितनी बु(ि का विकास कर सकते हैं, ऐसी बु(ि प्राणियों के पास नहीं है और वो इतना विकास नहीं कर सकते, जितना कि मनुष्य कर सकता है।
इसका अर्थ हुआ कि पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों में भी बु(ि है, पर कम है। इतनी कम बु(ि के आधार पर वो अपना जीवन चला लेते हैं। पशु-पक्षियों के छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, वे उनके प्रति राग रखते हैं, उनको खिलाते-पिलाते हैं, उनकी रक्षा भी करते हैं, अपनी रक्षा भी करते हैं। इतना काम वो कर सकते हैं। इतनी बु(ि उनमें है।

(245) शंका :- वन्य पशु-पक्षी अपना जीवन स्वच्छन्दता से जीते हैं। इसके बावजूद क्या वे दुःखी हैं अथवा क्या ईश्वर ने इन्हें सृष्टि-नियमन के लिए बनाया है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इन दो प्रश्नों के उत्तर निम्नलिखित हैंः-
स ईश्वर ने इन्हें सृष्टि नियमन के लिए भी बनाया है, और कर्म फल देने के लिए भी बनाया है। सृष्टि की व्यवस्था, नियंत्रण, संतुलन भी चलता रहे और जीवात्माओं को उनके कर्मों का फल भी दिया जाए, ये दोनों ही कारण हैं।
स अगला प्रश्न है कि क्या वे दुःखी हैं? हाँ, वे दुःखी तो हैं ही।
स यहाँ प्रश्न उठता है- यह कैसे पता चला, कि वे दुःखी हैं? उत्तर है – सुख का कारण है-बु(ि। जिस मनुष्य की बु(ि अच्छी और अधिक होती है, वो सुखी रहता है। जिसकी बु(ि खराब और कम होती है, वो दुःखी रहता है। इसी प्रकार से बाकी प्राणियों में तो बु(ि कम है, इसलिए वे उतने सुखी नहीं हैं। उनकी बहुत सी समस्याएं हैं।
स मनुष्य को जो बु(ि उपलब्ध है, जितना पुरुषार्थ करके वह उस बु(ि का विकास कर सकता है, उतनी बु(ि दूसरे प्राणियों के पास नहीं है। वे न तो अपनी बु(ि का उतना विकास कर सकते हैं, न ही अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। उनको एक बँधे-बँधाए रूटीन में जीना होता है।
कभी कोई आक्रमण करता है, कभी कोई और आक्रमण करता है। बेचारों को हर समय जान बचाने की टेंशन होती है। इसलिए वो दुःखी तो रहते ही हैं।
स एक व्यक्ति ने मुझसे प्रश्न किया – आप कैसे कह सकते हैं, कि कुत्ता, गौ आदि पशु अधिक दुःखी हैं, और मनुष्य ज्∙यादा सुखी है। मैंने उत्तर दिया – मान लीजिए, मोहन ने राजेश से पूछा – आपको मासिक वेतन कितना मिलता है? राजेश ने कहा :- 20,000 रुपये मासिक। मोहन- मैं आपको 25,000 रुपये मासिक दूँगा, क्या आप मेरी कम्पनी में काम करेंगे? हाँ या न? राजेश ने कहाः- हाँ। फिर मोहन ने राजेश से पूछा- मैं आपको 15,000 रुपये मासिक दूँगा, क्या आप मेरी कम्पनी में काम करेंगे? हाँ या न ? राजेश ने कहा :- न। इससे क्या समझ में आया? जब व्यक्ति को लाभ दिखता है, तो वह ‘हाँ’ बोलता है। जब हानि दिखती है, तो वह ‘न’ बोलता है। इसी तरह से मैंने उस व्यक्ति को यह दृष्टान्त सुनाकर पूछा- क्या आप अगले जन्म में कुत्ता बनना चाहेंगे ? हाँ या न? वह व्यक्ति बोला-न। इससे सि( हुआ कि कुत्ता, गौ आदि बनने में दुःख अधिक है। और मनुष्य बनने में सुख अधिक है।

(246) शंका :- स्वाभाविक आयु कितनी है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हर एक की स्वाभाविक आयु अलग-अलग है। क्योंकि हर एक के कर्म अलग-अलग हैं, इसलिए हर एक का फल भी अलग-अलग है। इसलिए हर एक के शरीर में शक्ति अलग-अलग भरी है।
स परमात्मा ने जन्म के समय हमारे शरीर में जितनी शक्ति भर दी, वो शक्ति जब तक चलेगी, बस तब तक हमारी उमर है। वो शक्ति कोई सत्तर साल में खर्च करेगा, कोई अस्सी साल तक, कोई सौ साल तक खर्च करेगा।
स आयुर्वेद आयु ( जीवन) के बारे में बताता है। आयुर्वेद में एक सौ एक प्रकार की मृत्यु लिखी हुई है। और लिखा है कि उसमें से केवल एक मृत्यु स्वाभाविक (काल मृत्यु) है। केवल एक मृत्यु है स्वाभाविक। वह हमारे कर्म के फल से होती है और वो अत्यंत वृ(ावस्था में होती है। जब शरीर की सारी शक्ति खत्म हो जाती है, तब जीवात्मा शरीर छोड़ देता है, यही है स्वाभाविक मृत्यु।
जैसे मान लीजिए, एक व्यक्ति ने अपनी टॉर्च में दो बैटरी सेल डाल रखें हैं। वो टार्च को थोड़ा-थोड़ा प्रतिदिन प्रयोग करता है, धीरे-धीरे बैटरी सेल की शक्ति घटती जाती है और घटते-घटते एक दिन बिलकुल खत्म हो जाती है। अब आगे बैटरी सेल से वो टॉर्च नहीं जलती। जैसे बैटरी सेल की शक्ति धीरे-धीरे खत्म हो जाती है, यह उसकी ‘स्वाभाविक-मृत्यु’ (नेचुरल-डेथ) है। इसी प्रकार से शरीर की शक्ति धीरे-धीरे खर्च होते-होते, अत्यंत वृ(ावस्था में सारी शक्ति खत्म हो जाती है, बिल्कुल बैटरी सेल की तरह, उसका नाम है- स्वाभाविक मृत्यु (नेचुरल डेथ)।
स बाकी सौ प्रकार की मृत्यु अस्वाभाविक, आकस्मिक, अकाल-मृत्यु या एक्सीडेंटल डेथ है। यह पहले से लिखी हुई (डिसाइडेड) नहीं है। अगर कोई उस बैटरी सेल के ऊपर हथौड़ा मार दे, और तोड़ डाले, तो यह बैटरी सेल की अकाल मृत्यु (एक्सीडेन्टल डेथ) है। स्वाभाविक मृत्यु के पहले सौ प्रकार से मृत्यु हो सकती है। कोई जहर पी ले, कोई पंखे पर लटक जाए, कोई नदी में कूद जाए, कोई पिस्तौल से गोली मार ले, कोई बिजली का तार पकड़ ले, कोई ट्रेन के नीचे कट जाए, कोई प्लेन-क्रेश में मारा जाए, कोई ट्रेन-एक्सीडेंट में मारा जाए, कोई रोड-एक्सीडेंट में मारा जाए, कोई आतंकवादी गोली मार दे, कहीं पहाड़ से खाई में गिर जाए, पता नहीं कितने तरीकों से मर सकता है व्यक्ति। ये सब की सब दुर्घटना से अकाल मृत्यु यानि एक्सीडेंटल-डेथ हैं। यह पहले से निश्चित नहीं। इसलिए सड़कों पर लिखा रहता है कि – “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी”। इसलिए सावधानी से चलो, दुर्घटनाओं से बचो। इस प्रकार हमारी आयु को घटाना-बढ़ाना हमारे हाथों में है।

(247) शंका :- मनुष्य की आयु निश्चित है या नहीं? है तो कितनी?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

भारत में करोड़ों लोग ऐसा मानते हैं, कि हर व्यक्ति की मृत्यु कब, कहाँ, कैसे होगी, वो परमात्मा ने निश्चित कर रखी है। हम उसको बिलकुल घटा-बढ़ा नहीं सकते। जिस दिन हमारी मौत जहाँ लिखी है, वहीं पर होगी और उसी तरीके से होगी, जैसी भगवान ने निश्चित कर रखी है। यह बात गलत है। कारण किः-
स वेदों में लिखा है कि आयु घटती है और बढ़ती है। वेदों में लिखा है कि मनुष्य की आयु फ्लेक्सिबल है। कोई मरने का दिन, समय, स्थान पहले से निर्धारित नहीं है।
स संध्या का एक मंत्र आप रोज बोलते होंगे – ”जीवेम् शरदः शतम्, भूयश्च शरदः शतात्।” हे प्रभु ! हम सौ वर्ष तक, और सौ वर्ष से अधिक भी जिएं।
अगर किसी की मृत्यु भगवान ने तय कर दी कि यह पैंतीस वर्ष में मरेगा, अमुक हाईवे पर मरेगा, ट्रक के नीचे टकराकर मरेगा। वह आदमी यदि कहे कि – ”हे भगवान ! मैं सौ साल जियूँ।” उसको यह सौ साल जीने की प्रार्थना भगवान ने सिखाई। इसका मतलब यह है कि भगवान हमसे झूठ बुलवाता है। एक ओर तो कहता है कि – ”तुम्हें पैंतीस से आगे तो जाने ही नहीं दूँगा।” दूसरी ओर कहता है :- ”मुझसे बोलो कि ‘मैं सौ साल जियूँ, सौ से ऊपर भी जियूँ।” यह विरोधाभास है।
जब हम प्रार्थना करते हैं – ‘हे ईश्वर! हम सौ वर्ष जिएं, सौ से अधिक भी जिएं’। इसका मतलब यह है कि हमारी आयु निर्धारित नहीं है। हम कभी भी उसको घटा-बढ़ा सकते हैं।
स मान लीजिए कि एक व्यक्ति नेशनल-हाईवे पर स्कूटर से जा रहा था और पीछे से उसको ट्रक वाले ने टक्कर मार दी। लोग कहते हैं – साहब देखो, इसकी मौत यहीं लिखी थी। थोड़ी देर के लिए मान लिया कि भगवान ने लिखा था कि इसको इस दिन, यहाँ पर मरना है और ट्रक ड्राइवर ने ईश्वर के आदेश का पालन किया। ट्रक वाले ने उसको मार दिया। अब यह बताइए, जब ट्रक ड्राइवर ईश्वर के आदेश का पालन कर रहा है, तो उस पर मुकदमा करना चाहिए या उसको ईनाम देना चाहिए?
स वेद में लिखा है कि ईश्वर के आदेश का पालन करना धर्म है। और धर्म का फल सुख है। उसको तो सुख देना चाहिए, उस पर मुकदमा क्यों करो? क्या आप इस बात को मानने के लिए तैयार हैं कि जो ट्रक वाला किसी को ठोकर मार दे, तो उस पर आप मुकदमा नहीं करेंगे, बल्कि ट्रक ड्राइवर को ईनाम देंगे? क्योंकि आप इस बात को मानते हैं कि इसकी मौत ईश्वर ने यहीं लिखी थी। आप कहते हैं कि ईनाम नहीं देंगे। इसका मतलब हुआ, वह अपराधी है, तभी तो उस पर मुकदमा करते हैं। इसलिए वह मृत्यु ईश्वर की लिखी हुई नहीं है। ट्रक वाले की लापरवाही से दुर्घटना के कारण हुई है।
एक उदाहरण सुनिए – एक आतंकवादी ने बीस लोगों को मार दिया। कालान्तर में वह पकड़ा गया, उस पर कोर्ट में मुकदमा
चला और प्रमाणित हो गया कि इसने बीस लोगों को मारा है। न्यायाधीश महोदय ने कागज पर लिख दिया कि इसको इक्कीस दिसंबर को सुबह ग्यारह बजे फाँसी पर लटका दिया जाए। वह लिखित आदेश जल्लाद के पास आया। जल्लाद ने न्यायाधीश के आदेश का पालन किया और इक्कीस दिसंबर को सुबह ग्यारह बजे उस आतंकवादी को फाँसी पर लटका दिया। क्या जल्लाद अपराधी है या नहीं है? उस पर मुकदमा करेंगे कि नहीं करेंगे? नहीं करेंगे, बल्कि उसको वेतन देंगे।
जल्लाद न्यायाधीश के आदेश का पालन करता है, और वह अपराधी नहीं कहलाता तो इसी प्रकार जो ट्रक ड्राइवर है, वो भी ईश्वर के आदेश का पालन कर रहा है, वह अपराधी क्यों होगा? उसको भी वेतन दो, ईनाम दो, तब तो हम मानें, कि हाँ भगवान का दिया हुआ आदेश है। अगर आप, जो भी मनुष्यों को मारें, उनको ईनाम देना शुरु कर दें, तो मैं यह मानने के लिए तैयार हूँ, कि हाँ वो भगवान ने लिखा है। तैयार हैं आप लोग? अगर नहीं, तो इसका मतलब, वह कथन झूठ है, ईश्वर का आदेश नहीं है। जैसे आतंकवादी ने कानून तोड़ा और निर्दोष लोगों को मारा, इसलिए वो अपराधी माना गया। ऐसे ही उस ट्रक ड्राइवर ने कानून को तोड़ा और निर्दोष व्यक्तियों को मारा, इसलिए वो अपराधी गिना गया। इसलिए उस पर मुकदमा हुआ। इससे सि( हुआ कि, यह सब भगवान का लिखा हुआ नहीं है।

(248) शंका :- हम पर जो अन्याय हुआ, किसी की भी वजह से हमको जो नुकसान उठाना पड़ा, तो जो हमारा नुकसान हुआ, उसका क्या हुआ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जिसने हम पर अन्याय किया, चाहे माता की भूल से हुआ, चाहे पिता की भूल से हुआ, चाहे गुरु, टीचर, पड़ोसी कोई भी, चोर-डाकू आदि ने जितना दुःख हमको दिया, उतना उसका अपराध है। उस अपराध का उसको दंड मिलेगा।
स अन्याय का दण्ड चाहे समाज दे, राजा दे, सरकार दे, ईश्वर दे, जो भी दे, कोई न कोई उसको दंड देगा। अपराध का दंड समाज ने नहीं दिया, राजा ने नहीं दिया तो अंत में ईश्वर जरूर देगा। वो नहीं छोड़ने वाला। हम किसी पर अन्याय करेंगे तो ईश्वर हमको दंड देगा। कोई दूसरा हम पर अन्याय करेगा तो ईश्वर उसको दंड देगा। अन्यायकारी को दंड मिलेगा।
स दूसरी बात, जिस पर अन्याय हुआ, जिसका नुकसान हुआ, उसको कम्पन्सेशन (क्षतिपूर्ति) मिलेगा। उसके नुकसान की पूर्ति ईश्वर कर देगा। सरकार न्याय कर सकती है तो ठीक है, नहीं कर सकती, तो अंत में ईश्वर करेगा। इस प्रकार कम्पन्सेशन की गारंटी तो है, लेकिन वो भी पूरी सुरक्षा तो नहीं है न। एक बार तो मार खानी पड़ी न।
स पूरी तरह से सुरक्षा केवल मोक्ष में है। वहाँ पर कोई व्यक्ति हम पर आक्रमण कर ही नहीं सकता। अगर आपको ऐसा ठीक समझ में आता हो कि कोई हमारा नुकसान कर ही नहीं पाए तो फिर ‘मोक्ष’ की तैयारी करो।
स मेरी समझ में खूब अच्छी तरह आ गया है कि यहाँ संसार में कहीं भी पूरी सुरक्षा नहीं है। इसलिए मैं तो मोक्ष में जा रहा हूँ। आपको आना है तो आ जाओ। साथ-साथ करो तैयारी, पीछे-पीछे आप भी चले आओ।
स मैं अकेला मोक्ष में नहीं जाना चाहता। जो अकेला मोक्ष में जाना चाहता है, वह स्वार्थी है। ऐसे स्वार्थी व्यक्ति को ईश्वर मोक्ष देता भी नहीं। मोक्ष प्राप्ति के लिए निःस्वार्थ भाव से परोपकार करना चाहिए। इसीलिए मैं परोपकार करता हूँ, और आप जैसे अनेक लोगों को मोक्ष में ले जाना चाहता हूँ। आप भी तैयारी करें।

(249) शंका :- पुर्नजन्म के सि(ान्तों के व्यावहारिक-प्रमाण क्या हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बहुत छोटे-छोटे तीन प्रश्नों का आपको उत्तर देना है।
स पहला प्रश्न- न्याय किसे कहते है? कर्म पहले किया जाए और फल बाद में दिया जाए, यह न्याय है, या फल पहले दिया जाए और कर्म बाद में किया जाए, यह न्याय है?
पहला उत्तर जो आपने दिया अर्थात् न्याय है – कर्म पहले, फल बाद में। आप अपना यह उत्तर याद रखिएगा।
स दूसरी बात-आपको इस समय जो मनुष्य शरीर मिला है, जिस शरीर में आप-हम बैठें है, यह कर्मों का फल मिला है या मुफ्त में मिला है?
आपने बोला-”मनुष्य शरीर मिलना कर्मों का फल है।” चलिए, आपके दो उत्तर हो गए। ये दोनों उत्तर आपके बिल्कुल सही हैं। इन दोनों को याद रखिएगा।
स इन दो बातों के आधार पर एक तीसरा प्रश्न और है, इसका उत्तर और सोचिए। अब तीसरी प्रश्न यह है कि,
जिन कर्मों का फल आपको यह शरीर मिला है, वो कर्म आपने इस जन्म में तो नहीं किए, तो फिर कब किये थे?
आपने बोला-पिछले जन्म में। और फल मिला अब, इस जन्म में। तो इससे पुर्नजन्म सि( हो गया कि नहीं हो गया? यह व्यावहारिक प्रमाण है। इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहिए। आपने तीन बातें स्वयं अपने मुँह से बोली। मैंने तो एक भी नहीं बोली, मैंने तो सिर्फ प्रश्न किए, उत्तर आपने दिए। तीन बातों में सारी बात सुलझ गई कि, पुर्नजन्म होता है।
यहाँ पर एक व्यक्ति ने प्रश्न किया- कुछ बच्चे अपने पूर्वजन्म की बातें बताते हैं। क्या वह सही है? मेरा उत्तर- आपने पूछा कि ‘कुछ बच्चे बताते हैं कि पिछले जन्म में मैं जयपुर में था, आदर्श नगर में था, 41 नंबर के मकान में था।’ यह एक अलग प्रश्न है। पुर्नजन्म होता है, यह तो सिद्व हो चुका।
अब रही बात यह कि – पिछले जन्म की बात याद आती है, या नहीं? इस विषय में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नौंवे समुल्लास में लिखा है कि ”कोई पिछले जन्म की बात याद करना भी चाहे, तो भी नहीं कर सकता। ” सत्यार्थ प्रकाश में इतना भी साफ लिखा है कि, यह भगवान की बड़ी अच्छी व्यवस्था है कि हम पिछले जन्म की बातें भूल जाते हैं, इसलिए जी रहे हैं।
एक ही जन्म में आदमी इतना परेशान है कि वह दुःखी होकर आत्महत्या कर लेता है। और अगर व्यक्ति को पिछले 10-20 जन्मों के दुःख और याद आ जाएं, तो बताओ वो कैसे जिएगा? वह तो पिछले जन्म के दुःखों को देख-देख के वैसे ही मर जाएगा।
जापान में एक व्यक्ति ने एक पुस्तक लिखी – “हाउ टू सुसाइड ईजिली” अर्थात् ”आसानी से आत्महत्या कैसे करें।” उस लेखक से पूछा गया – ”क्या आप जनता को आत्महत्या की प्रेरणा देना चाहते हैं?” लेखक ने उत्तर दिया – ”मेरे पड़ोस में एक व्यक्ति अपने जीवन से दुःखी हो गया। उसको अपनी समस्याओं का कोई समाधान नहीं सूझा। अन्त में उसने सोचा, ऐसे जीवन से तो मृत्यु अच्छी। यह सोचकर उसने आत्महत्या कर ली। पड़ोस का मामला था। सूचना मिलने पर मैं उसके घर गया। उसकी लाश देखी। बेचारे की 12 घण्टे तक जान ही नहीं निकली। क्योंकि बहुत गलत तरीके से उसने मरने की कोशिश की थी। उसे पता नहीं था कि इस तरीके से मरने पर उसे 12 घण्टे तक तड़पना पड़ेगा। बेचारे को मरने में बहुत कष्ट भोगना पड़ा।”
थोड़ा रुक कर वह बोला – ”कुछ दिनों बाद एक और पड़ोसी ने आत्महत्या की। वह भी 10 घण्टे तक तड़पा। ऐसे कुछ-कुछ दिनों बाद मुझे 15-20 घटनाओं को देखने का अवसर मिला। सभी मरने वाले घण्टों तक मरने से पहले तड़पते रहे। उन घटनाओं को देखने से मेरे मन में यह पुस्तक लिखने का विचार आया। इस पुस्तक को लिखने का मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि लोग मेरी पुस्तक पढ़कर आत्महत्या करें। बल्कि मैंने यह पुस्तक उन लोगों के लिए लिखी है, जिन्हें अपनी समस्याओं का कोई समाधान नहीं मिलता। जो मरने का अन्तिम निर्णय कर चुके हैं। उन लोगों को मैं कहना चाहता हूँ कि यदि उन्हें मरना ही है, तो वे आसानी से मरें। तड़प-तड़पकर, कष्ट भोग कर न मरें।”
इसलिए मैं कहता हूँ कि पिछले जन्मों को याद न करें, तो अच्छा है। अन्यथा लोग या तो आत्महत्या करेंगे या दूसरों को मारेंगे।

(250) शंका :- क्या व्यक्ति को बुरे कर्म करने के पश्चात अन्य सभी योनियों को भोगना पड़ेगा अथवा कुछ योनियों के पश्चात् वापस मानव जन्म मिलेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

एक व्यक्ति ने 20 हजार रुपए की चोरी की, दूसरे व्यक्ति ने दो अरब रुपये की चोरी की। वस्तुतः चोरी दोनों ने की, इसलिए दोनों अपराधी हैं। निःसंदेह दोनों को दण्ड मिलेगा।
स क्या दण्ड की मात्रा दोनों की समान रहेगी, या कम-अधिक? दण्ड की मात्रा कम-अधिक होगी। यदि दोनों को बराबर दण्ड दिया जाए, तो यह न्याय थोड़े ही होगा, यह तो अन्याय होगा।
एक ने अपराध थोड़ा किया, तो उसको थोड़ा दण्ड। एक ने अपेक्षाकृत अधिक अपराध किया, तो उसको अधिक दण्ड, यह न्याय है।
किसी ने 20 हजार पाप किए तो किसी ने 50 हजार। उन दोनों को ही 84 लाख योनियों में डाल दें, तो फिर यह न्याय कहाँ होगा? जिसने जितना अपराध किया, उतनी ही योनियों में जाएगा, दण्ड भोगेगा, धक्का खाएगा और लोटकर वापस मनुष्य बनेगा।
स जिसने थोड़ा अपराध किया, वह थोड़ी योनियों में धक्का खाएगा। जिसने ज्यादा अपराध किए, वो ज्यादा योनियों में जाएगा।
स बताते हैं कि चौरासी लाख योनियाँ हैं, पता नहीं कहाँ-कहाँ नम्बर लगेगा। कई लोग समझते हैं कि एक बार मनुष्य मर गया तो पूरे चौरासी लाख का चक्कर काटकर फिर नंबर आएगा इंसान रूप में। यह गलत है। क्यों गलत है? इसे जानते हैंः-
क्या सब लोग बराबर मात्रा में पाप करते हैं? नहीं न। तो सब को बराबर दंड क्यों मिलेगा? जब पाप कम-अधिक करते हैं, तो फल भी कम-अधिक होना चाहिए। अगर एक मरा वो भी चौरासी लाख योनियों में डाल दिया, दूसरा मरा, वो भी चौरासी लाख योनियों में, तो यह न्याय नहीं है। जिसने जितने कर्म किए हैं, उसको उतना दंड मिलेगा। जिसने बीस प्रतिशत पाप अधिक किए,उसको उतने कर्मों का दंड भोगने के लिए दस-बीच, पच्चीस-पचास योनियों में चक्कर काटना पड़ेगा। इसलिए सब को 84 लाख योनियों में नहीं जाना। वो कितनी योनियों में चक्कर काटेगा, वो भगवान जाने, हम नहीं जानते।

(251) शंका :- क्या योनियों की संख्या 84 लाख है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण तो मेरी जानकारी में नहीं है। मैंने सब शास्त्र नहीं पढ़े। कहीं शास्त्रों में लिखा हो भी सकता है। परम्परा से तो यही सुनते आ रहे हैं। लेकिन पक्का नहीं कह सकते कि – 84 लाख हैं, या 80 लाख हैं। जितनी भी हों, फिर भी ‘लाखों योनियाँ हैं’, ऐसा मानने में तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता।

(252) शंका :- जीवात्मा भविष्य में जो विचार करेंगे, उसका ज्ञान ईश्वर को पहले से हो सकता है या नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह तो ईश्वर को पता है कि चुपचाप खाली तो कोई जीवात्मा बैठता नहीं, भविष्य में वह कुछ तो सोच-विचार करेगा।
स किस-किस तरह के विचार जीवात्मा कर सकते हैं, जीवात्माओं की घटिया से घटिया और बढ़िया से बढ़िया क्या-क्या थिंकिंग हो सकती है, वो पूरी सूची भगवान के पास में पहले से है।
स यह कभी नहीं हो सकता कि जीवात्मा ऐसा कोई विचार कर डाले, जिसे जानकर भगवान को बड़ा आश्चर्य हो कि – ”अच्छा ! जीवात्मा ऐसा भी सोच सकता है, यह तो आज ही पता चला।” ऐसा कभी नहीं होगा कि जीवात्मा कोई ऐसा विचार या कार्य कर डाले, जो ईश्वर के लिए नया हो।
स जीवात्मा कुछ भी विचारे, उसकी ‘ए टू जेड’ पूरी लिस्ट भगवान के पास है। उसकी जानकारी में है, क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है, गॉड इज ओम्नीशियैन्ट।
स अब खास समझने की बात यह है कि यह पहले से तयशुदा (प्री-डिसाइडेड) नहीं है कि कौन जीवात्मा, कब क्या सोचेगा ? इसलिए ईश्वर को यह पहले से पता नहीं। जीवात्मा जो कुछ भी सोचे, उसकी स्वतंत्रता है। पर वो जो भी सोचेगा, भगवान की लिस्ट में जरूर है। वह उससे बाहर नहीं सोच सकता। जीवात्मा की पूरी क्षमता ईश्वर को मालूम है।

(253) शंका :- जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना क्या निश्चित होती है? पूर्वजन्म के कर्म फलित होते हैं, ऐसा कहते हैं? कृपया मार्गदर्शन कीजिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

देखिए, जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना निश्चित नहीं होती। हमारे जीवन में जो-जो घटनाएं घटती जा रही हैं, वो पहले से निश्चित नहीं हैं।
स कभी भी, कुछ भी, घ्ािटत हो सकता है। अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। पॉजीटिव भी हो सकता है, नेगेटिव भी हो सकता है। हमें सुख भी मिल सकता है, दुःख भी मिल सकता है। सारे जीवन में सुख ही सुख नहीं मिलते। कुछ दुःख भी मिलते हैं। हम दुःख नहीं भोगना चाहते हैं। फिर भी दुःख आ जाते हैं, और भोगने पड़ते हैं।
स बहुत सारे दुःख ऐसे होते हैं, जो हमारे कर्मों के फल नहीं होते, फिर भी भोगने पड़ते हैं। पूर्वजन्म के कर्मों का फल कब और कैसे मिलता है, इस बारे में बहुत भ्रांति है।
स कितने ही सुख-दुःख ऐसे होते हैं, जो पूर्वजन्म के कर्मों का फल नहीं हैं। और उन सुख- दुःख को लोग पूर्वजन्म का कर्म-फल मान लेते हैं।
कल्पना कीजिए कि एक सेठ के यहाँ चोरी कर, दो लाख रुपये की संपत्ति चोर ले गए। सेठ ने सब सुरक्षा भी की थी, उसके बावजूद चोर आए, उन्होंने सब ताले तोड़ दिए, वे सब सामान ले गए। इस पर लोगों ने कहा कि – ”इस सेठ ने पिछले जन्म में किसी का माल खाया होगा, दो लाख किसी का हड़प गए होंगे। अब इसको पिछले जन्मों के कर्मों का फल मिला है, इसके यहाँ चोरी हो गई।”
दरअसल, यह सोचना सही नहीं है। वास्तव में सेठ के यहाँ जो चोरी हुई, वो उसके पिछले कर्म का फल नहीं है। क्यों? अच्छा थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि सेठ के यहाँ जो चोरी हुई, वो सेठ के पिछले जन्म के कर्म का फल है। कर्म-फल के कुछ मोटे-मोटे नियम हैं। उन नियमों को जानते हैं। उदाहरण के लिए,
(1) पहली बात- न्याय करने के लिए पहली शर्त यह है कि जज साहब को पूरा मामला पता होना चाहिए। कर्म का पता होना चाहिए,
अपराध का पता होना चाहिए। जो व्यक्ति कर्म का फल देता है, न्यायाधीश बनता है, तो यह आवश्यक है, कि वो कर्म को जानता हो, तभी तो वो ठीक फल दे सकता है।
क्या न्यायाधीश बिना कर्म को जाने ही ठीक फल दे सकता है? नहीं। तो इसलिए कर्म को जानना आवश्यक है। जब तक कर्म को नहीं जानेगा, जब तक मुकदमा नहीं सुनेगा, तो ठीक से न्याय कैसे करेगा? कौन अपराधी है, उसने अपराध कैसे किया, कब किया, कहाँ किया, कितना किया, वो सब प्रमाण (एवीडेन्स) होना चाहिए। न्यायाधीश जब तक ये सारी बातें नहीं जान लेगा, तब तक क्या वह ठीक-ठीक न्याय कर सकेगा? नहीं कर सकता।
(2) दूसरी बात- जितना अपराध हुआ, उसका दण्ड कितना दिया जाए। पेनल कोड (दण्ड संहिता) में क्या लिखा है? इतने अपराध का इतना दण्ड दो। जज साहब को दण्ड संहिता का भी पता होना चाहिए। अगर दण्ड का पता नहीं कि कितना दण्ड हो, तो भी वो न्याय नहीं कर पाएंगे। कर्म-फल के अनुसार ठीक-ठीक न्याय करने का दूसरा नियम यह हुआ।
(3) तीसरी बात- क्या प्रत्येक व्यक्ति को दंड देने का अधिकार है? नहीं। निश्चित व्यक्तियों को दंड देने का अधिकार है, सबको नहीं, और वो ही कर्म का फल दे सकते हैं। न्यायाधीश महोदय को दण्ड देने का अधिकार दिया गया है। सड़क पर चलता हुआ व्यक्ति अपराधी को दण्ड नहीं दे सकता। वो ही अपराधी को दण्ड देंगे, जिनको अपराधी को दण्ड देने का अधिकार है।
चोर वाली घटना पर इन तीन नियमों को लागू कीजिए। चोरों ने सेठ के यहाँ चोरी की, दो लाख की संपत्ति ले गए। यह सेठ के पिछले जन्म के कर्मों का फल है, ऐसा मानते हैं, तो ये तीनों नियम वहाँ लागू करके देखिए।
क्या चोरों को पता है कि पिछले जन्म में सेठ ने कौन सा
अपराध किया था, कितना बुरा किया, जिसका फल हम उन्हें देने के लिए आए हैं। जब चोर को सेठ के कर्म का ही पता नहीं, तो बताइए, कर्म-फल कहाँ लागू हुआ?
दंड का भी चोर को नहीं पता। वो कैसे निर्णय करेगा कि दो लाख की चोरी करूँ कि तीन लाख की या ढाई लाख की चोरी करूँ। कितना दंड दूँं, उसको क्या मालूम। सेठ साहब ने कौन सा अपराध किया था, उसका चोर को पता नहीं, कितना किया था, यह पता नहीं, कितना दंड दूँ, वो भी नहीं पता। चोरों को नहीं मालूम कि सेठ ने कौन सा अपराध किया था, तो वो फल कैसे माना जाये? जब दण्ड का पता नहीं, तो न्याय नहीं हुआ, इसलिए वह ‘कर्म-फल’ नहीं हुआ।
और दूसरी बात यह कि, क्या चोरों को सेठ के पूर्व जन्म के कर्म का दंड देने का अधिकार है? उत्तर है-नहीं। इस प्रकार न्याय की कसौटी पर तीनों बातें फेल हो गईं।
(4) चौथी बात- जो कर्म का फल दिया जाता है, ठीक-ठीक न्याय से दिया जाता है, उसको चुपचाप भोगना पड़ता है, उसका विरोध नहीं कर सकते।
किसी अपराधी ने अपराध किया, न्यायाधीश ने उसको दंड दिया कि तीन माह जेल में रहो। अब तो तीन माह उसको जेल में रहना ही पड़ेगा। चुपचाप उसको दंड तो भोगना ही पड़ेगा। उसका विरोध तो कोई कर ही नहीं सकता। यदि यह नियम आपको स्वीकार है तो चौथा नियम इस घटना पर लागू करते हैं-
चोरों ने सेठ के यहाँ दो लाख की चोरी की। इस पर कुछ लोगों ने कहा कि – ”यह तो सेठ के पिछले जन्म का कर्म-फल है। इसलिए सेठ को चुपचाप दंड भोगना चाहिए, चोरी का विरोध नहीं
करना चाहिए, पुलिस में रिपोर्ट नहीं करना चाहिए।”
यदि कर्म-फल मानते हैं, तो चुपचाप भोगो। पुलिस में रिपोर्ट करने जायेंगे, तो फिर कर्म-फल कहाँ हुआ? कर्म-फल का तो विरोध हो नहीं सकता, और आप तो चोरी का विरोध कर रहे हो। अगर कर्म-फल मानते हैं, तो पुलिस में नहीं जाना, कोर्ट में नहीं जाना, मुकदमा नहीं करना। कोई अपील नहीं करना कि, हमारे यहाँ चोरी हुई। आपका कर्म-फल है, शाँति से उसे भोगो।
(5) पाँचवी बात- एक न्यायाधीश महोदय ने एक आतंकवादी को फाँसी का दंड दिया-”इसको फाँसी पर चढ़ा दिया जाए। इसने बहुत सारे निर्दोष लोगों को मार डाला।” तो जल्लाद ने उस आतंकवादी को फाँसी पर चढ़ा दिया। न्यायाधीश महोदय के आदेश का पालन करने पर जल्लाद को वेतन मिलेगा या दंड मिलेगा?
जल्लाद ने आदेश का पालन किया है, तो उसको वेतन मिलेगा, ईनाम मिलेगा। ऐसे हीे चोर ने भी सेठ के यहाँ चोरी की, उसने भगवान के आदेश का पालन किया तो उसको ईनाम दिलवाओ। जो लोग कर्मफल मानते हैं, उनको चोर को ईनाम दिलवाना चाहिए, कोर्ट में मुकदमा नहीं करना चाहिए। अगर स्वीकार हो, तो आप मान सकते हैं कि यह कर्मफल है।
इस कानून से तो आप एक घंटा भी नहीं जी सकते। जो भी चोर चोरी करे, उसको ईनाम दिलवाओ। अपने-अपने नगर में अहमदाबाद में, उदयपुर में, जबलपुर में, मुम्बई में, दिल्ली में एक घंटे के लिए यह नियम लागू कर दो कि जो भी चोर चोरी करेगा, उसको ईनाम मिलेगा, फिर देखो क्या होता है। आपका जीना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए यह बात सत्य नहीं है।
हमें जो सुख-दुःख मिलता है, उसके दो भाग हैंः-
(एक) व्यक्ति के अपने कर्मों का फल है। और
(दूसरा) अन्यों के कारण से भी हमको बिना हमारे दोष (गलती) के दुःख मिलता है।
अगर पूरा का पूरा हमारे ही कर्मों का फल मान लिया जाए, तो अपराधी तो दुनिया में कोई भी नहीं है। तो फिर किसी पर कोर्ट केस क्यों?
किसी सेठ के यहाँ पर चोरी हुई, और उसे यह माना जाए कि सेठ के किसी पूर्वजन्म का दोष होगा। फिर चोर के ऊपर मुकदमा क्यों? उसने तो कर्म का फल दिया। उसको तो वैसे वेतन दो, जैसे न्यायाधीश को दिलवाते हैं। नहीं दिलाएंगे।
सेठ के यहाँ चोरी हुई, यह उसका कर्म-फल नहीं है, तो फिर वह क्या है? इसका नाम है – ‘अन्याय’। सेठ के साथ अन्याय हुआ। उसने मेहनत से धन कमाया, अपने धन की सुरक्षा भी की। तब भी चोर लोग ताला तोड़कर सामान ले गए। यह सरासर अन्याय है। इससे सि( हुआ कि, जितने भी जीवन में सुख-दुःख मिलते हैं, वो सब के सब हमारे कर्मों का फल नहीं होते हैं। कुछ कर्मों का फल है, और कुछ अन्याय से भी हमें मिलता है।
अन्याय किसको कहते हैं? बिना कर्म किए दुःख देना, अथवा किए गए कर्म के अनुसार फल नहीं देना, कर्म से अधिक फल दे देना, या कम फल देना, उसका नाम अन्याय है और कर्म के अनुसार फल दे देना, वो न्याय है।
थोड़े दूसरे शब्दों में और खोल देते हैं किः-
बिना अपराध के, बिना दोष के, किसी को दुःख दे देना अथवा सुख दे देना, भी अन्याय है।
दुःख वाला उदाहरण पकड़कर चलते हैं। बिना अपराध के किसी को दुःख दे देना, अन्याय है। और अपराध करने पर उसके अपराध के
अनुसार उसको दंड देना, यह न्याय है।
क्या आप लोग मानते हैं कि, संसार में अन्याय होता है? होता है। इसका अर्थ ये हुआ कि, कुछ घटनाएं संसार में ऐसी भी हैं, जिनमें निर्दोष व्यक्तियों को दुःख दिया जाता है। अगर आप यह मानते हैं कि अन्याय होता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि, बिना दोष के भी दुःख मिलता है। वो ही तो अन्याय है।
चोरों ने सेठ के यहाँ जो दो लाख रुपये की चोरी की, यह था- अन्याय। सेठ निर्दोष था। उसका कोई दोष नहीं था। फिर भी चोरों ने सेठ के यहाँ चोरी करके सेठ को दुःख दिया। इसका नाम अन्याय है। यह पिछला कर्म-फल नहीं है।
अब इसका विश्लेषण करने के लिए किसी भी घटना को देखिए। उसका अच्छी तरह से परीक्षण कीजिए और यह विचार कीजिए कि, यह जो किसी व्यक्ति को दुःख मिला, वह न्याय से मिला, या अन्याय से मिला? अगर पता चले कि, न्याय से मिला, तब तो वह है कर्म फल। कारण कि, “जो न्याय से सुख-दुःख मिलता है, वो तो कर्म-फल होता है।” और जो अन्याय से मिलता है, वो कर्म-फल नहीं होता है। सेठ के यहाँ चोरी हुई, दो लाख का सामान चोर ले गए। क्या यह न्याय हुआ? नहीं हुआ न। तो समझ लेना, यह सेठ का कर्म-फल नहीं है।
न्याय के विरु( अपील (केस) नहीं होती है। न्याय को तो स्वीकार करना पड़ता है। जब अन्याय होता है, तो उसके विरु( अपील होती है, जैसे चोर के विरु( कोर्ट में अपील होती है। सेठ जी पुलिस में शिकायत करते हैं, कोर्ट में केस करते हैं कि हमारे यहाँ चोरी हुई, हमारा माल वापस दिलाओ। तो जब अपील करते हैं, मतलब वो अन्याय हुआ।
कर्म-फल के कुछ नियम हैं। उन नियमों को समझ लेंगे, तो आप बहुत सी घटनाओं में इस बात का निर्णय कर लेंगे कि यह कर्म-फल हुआ, या अन्याय हुआ।
इस एक उदाहरण से आप बीस बातें समझ लीजिएगा। रेल में जा रहे हैं, दुर्घटना हो गई, पाँच लोग मर गए, बीस लोग घायल हो गए, शेष ठीक-ठाक बच गए। यहाँ लोग कहेंगे- ”जो पाँच मर गए, इनकी मौत यहीं लिखी थी। यह इनका कर्म-फल था।” यह बिल्कुल झूठ बात है, बिल्कुल गलत बात है। इसका भी यही उत्तर है, जो सेठ की चोरी वाला है। अगर पाँच की मौत यहीं लिखी थी, तो किसने लिखी थी? ईश्वर ने। क्या ईश्वर जो लिखता है, वो सही लिखता है, या गलत लिखता है? सही लिखता है, और वो कर्म-फल के अनुसार लिखता है। यह तो उनका कर्म-फल था, यहीं उनको मरना था, अगर यही मानते हैं तो रेल-इंजन के ड्राइवर को ईनाम दो। उसने भगवान के आदेश का पालन किया है। इनकी मौत आयी थी, इसलिए उसने इनको मार दिया। देंगे ईनाम? नहीं देंगे। जो चोर वाली घटना में उत्तर है, वही इस घटना का भी उत्तर है। चाहे वो ट्रक एक्सीडेंट हो, चाहे प्लेन एक्सीडेंट हो, कोई भी दुर्घटना हो।
किसी भी दुर्घटना में कोई भी व्यक्ति मर जाता है, घायल हो जाता है, वो पूर्व में किए गए कमरें का फल नहीं है। ट्रक वाले ने शराब पीकर बेलगाम गाड़ी चलाई, ठोंक दिया। तो हाथ-पाँव टूट गए, व्यक्ति की मृत्यु हो गई, यह कर्म-फल नहीं है। यह अन्याय है। ऐसे ही सभी समस्याओं को आप सुलझा लेंगे।
यहाँ पर एक श्रोता ने पूछा कि – ”एक बच्चा पैदा होते ही चार घण्टे में मर गया तो क्या वह इतनी ही आयु लेकर आया था?” तब मैंने इसका उत्तर दिया कि, यह कठिन (उलझा हुआ) प्रश्न है। इसका तो बहुत विश्लेषण करना पड़ेगा। डॉक्टर की भूल थी कि नहीं थी, इसका निर्णय करना बहुत कठिन है। बच्चे माता-पिता की भूल से भी मरते हैं, गलत दवाई से भी मरते हैं।
हमारी भूल हमें पकड़ में नहीं आती हैं। कैसे होती है भूल? एक रोगी आई.सी.यू. में था। कभी होश में आता था, तो कभी बेहोश हो जाता था। ऐसे-ऐसे झोले खा रहा था जीवन-मृत्यु के बीच में। बीच में राउण्ड पर डॉक्टर साहब आए, उन्होंने चेक किया और डिक्लेयर (घोषित) कर दिया कि ”सिस्टर ले जाओ, रोगी मर गया है।” इतने में वो रोगी होश में आ गया। और उसने सुन भी लिया कि डॉक्टर साहब ने बोल दिया कि रोगी मर गया। इतने में रोगी मरी-मरी सी आवाज में बोला – ”डॉक्टर साहब, मैं अभी मरा नहीं हूँ, जिन्दा हूँ।” तो नर्स ने डाँटकर कहा-”चुप रहो, डॉक्टर को तुमसे ज्यादा मालूम है।” अब बताइए, डॉक्टर को ज्यादा मालूम है या रोगी को?
तात्पर्य है कि, डॉक्टर भी मनुष्य है, परमात्मा नहीं है। उससे भी भूल हो सकती है, गलती हो जाती है। केमिस्ट की भूल हो सकती है। कभी एक्सपायरी डेट की दवा दे दी। और जो अनेक नियम पालन करने पड़ते हैं, उनमें भूल हो जाती है। गर्भावस्था में माता ने खाने-पीने में भूल कर दी, उठने-बैठने में भूल कर दी, झटका लग गया। छोटे बालक की मृत्यु के पता नहीं कितने कारण हो सकते हैं। वो व्यक्ति भूल जाता है कि हमने कहाँ गड़बड़ की। और कहता है कि – ”साहब मैंने भूल कहाँ की।” जबकि वह की होती है उसने। कभी वह भूल छुपाने की कोशिश करता है। ऐसे बहुत सारे कारण होते हैं।
किसी भी घटना का विश्लेषण करते समय यह ध्यान देना है कि जो दुःख मिल रहा है, वो न्याय से मिल रहा है, या अन्याय से। कसौटी याद रखिएः-
यदि न्याय से दुःख मिल रहा है, तो कर्म-फल, और अन्याय से मिल रहा है तो कर्म-फल नहीं।
सेठ के यहाँ चोरी हुई, यह अन्याय से उसको दुःख दिया। यह कर्म-फल नहीं है।
चोर पकड़ा गया, चोरी करने के बाद, उसको छह माह की जेल हुई या एक वर्ष की जेल हुई। यह क्या हुआ? यह न्याय हुआ। जो न्याय है, वो कर्म-फल है। जिसने चोरी की, उसको जेल हुई। दूसरे ने चोरी नहीं की, उसको जेल नहीं हुई।
चोरी की किसी और ने, लेकिन जेल में गया कोई दूसरा, तो इसे अन्याय कहेंगे।
ऐसे भी किस्से बहुत आते हैं। एक व्यक्ति ने किसी का खून कर दिया और वह बीस साल तक नहीं पकड़ा गया, खुला घूमता रहा। बीस साल बाद हत्या की एक और घटना हुई, और इस बार हत्या किसी दूसरे ने की, तथा यह निर्दोष होते हुए पकड़ा गया। न्यायाधीश ने उसको जेल कर दी कि यह हत्यारा है। इस पर लोगों ने कहा – ”इसको बीस साल पहले वाली घटना का दंड अब मिला है।” यह बिल्कुल झूठ बात है।
पहले बीस साल वाली घटना में वो दोषी था, तब उसको कर्म का दंड नहीं मिला। जबकि दूसरी घटना में वह दोषी नहीं था। निर्दोष होने पर भी उसको दंड मिला, जबरदस्ती उसको जेल हो गई। दोनों जगह गलत हुआ। यह पिछली हत्या का दंड (कर्मफल) नहीं है। वो मामला अलग था, यह मामला अलग है। वहाँ मरने वाला कोई और था, यहाँ मरने वाला कोई और है। दो अलग-अलग केसेस हैं।
(6) छठा नियम- यदि कर्म करें, तो फल अवश्य मिलेगा। उसमें छूट-छाट कुछ नहीं। जो कर्म है, उस कर्म को देखिए। उस कर्म का फल देखिए। उस कर्म का फल से संबंध जोड़कर देखिए कि उस व्यक्ति को जो दंड मिल रहा है, वो उस कर्म से संबंधित है, या नहीं। यदि कर्म से संबंधित है, और ठीक न्याय से फल मिल रहा है, तब तो है वह कर्म-फल।
जो कर्मफल के नियम हैं, वो लागू कीजिएगा। अच्छे कर्म का कैसा फल – ‘अच्छा फल’। और बुरे कर्म का कैसा फल – ‘बुरा फल’। और कर्म ही नहीं करे तो? ‘कोई फल नहीं’। अब इसने यहाँ दूसरी घटना में कर्म तो किया ही नहीं, तो फल किस बात का ?
(7) सातवाँ नियम- पहले कर्म, बाद में फल। उस खूनी व्यक्ति का कर्मफल दण्ड न दिया जाने से जमा हो गया। पुलिस ने उसको नहीं पकड़ा, प्रकरण अदालत नहीं पहुँचा, इसलिए उसको दंड नहीं मिला। अब या तो न्यायाधीश बीस साल पहले वाली फाइल खोले। उसकी फिर से रिसर्च हो कि बीस साल पहले जो हत्या हुई थी, उसका हत्यारा कौन है? और ढूँढ-ढाँढ के उसी केस का दंड उसको दे, तब तो ठीक है। पर यहाँ तो, केस किसी और का चल रहा है, और दण्ड उसे मिल रहा है। उसका तो केस चल ही नहीं रहा है।
जिन घटनाओं का दंड यहाँ न्यायाधीश और सरकार ने नहीं दिया, नहीं दे पाए, पकड़ में नहीं आए, वो व्यक्ति के खाते में जमा रहेंगे। उनका फल ईश्वर अंत में देगा। इस प्रकार से न्याय-अन्याय को समझना चाहिए।

(254) शंका :- ईश्वर के ज्ञान में केवल आवृत्ति होती रहती है, सर्वज्ञ ईश्वर को इसकी क्या आवश्यकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

एक व्यक्ति ने चोरी की तो उसके एकांउट में केवल इतना लिखा जाएगा कि इसने चोरी की। ईश्वर केवल यह आवृत्ति करता है, कि इसने चोरी की। ईश्वर को तो पता है कि मनुष्य चोरी कर सकता है। चोरी के कर्म की आपके कर्मफल के खाते यानी एकाउंट में एन्ट्री (दर्ज) करने की आवश्यकता है।
जीव द्वारा दान दिया जाना ईश्वर के लिए कोई नया कर्म नहीं है। जब कोई व्यक्ति दान देता है, तो ईश्वर दान की, कर्म रूपी आवृत्ति करता है। इस व्यक्ति ने दान दिया, चलो इसके एकांउट में इस काम की एन्ट्री करो। बस इतना ही। एन्ट्री करने के लिए उसको आवृत्ति करनी होती है, और कोई कारण नहीं है।
ईश्वर चेतन तत्त्व है। जब चेतन तत्त्व के सामने कोई कर्म होता है, तब वह उसको देख या जानकर कुछ न कुछ विचार करता ही है। यदि वह कर्म उसकी जानकारी में पहले से हो, तो उसे ‘ज्ञान की आवृत्ति’ कहते हैं। और यदि नई जानकारी हो, तो उसे ‘ज्ञान में वृ(ि’ कहते हैं। ईश्वर के लिये जीवकृत कोई भी कर्म नया तो है नहीं। इसलिए जीवकृत कर्मों को जानकर ईश्वर के ‘ज्ञान की आवृत्ति’ होती रहती है।
यह आवृत्ति इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना ईश्वर ‘कर्मों का हिसाब ठीक से रखना और न्यायपूर्वक कर्मों का ठीक-ठीक फल देना’ नहीं कर पाएगा। इसलिए ईश्वर के ज्ञान की आवृत्ति होती रहती है।

(255) शंका :- मनुष्य ने इतने अविष्कार किये हैं। क्या ईश्वर यह पहले से जानता था, या वह आश्चर्य करता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मनुष्य क्या कर सकता है, यह ईश्वर पहले से जानता है। मनुष्य के किसी काम से ईश्वर को आश्चर्य नहीं होता। उदाहरण के लिए, यदि मनुष्य ने ट्रैक्टर का अविष्कार कर खेती करना शुरु किया, तो यह बात ईश्वर पहले से जानता था। परन्तु ईश्वर यह भी जानता था कि हल से खेती करने में ज्यादा फायदा होगा और ट्रैक्टर से कम। ईश्वर सर्वज्ञ है। उसके पास अच्छे-बुरे कर्मों की पूरी सूची है। मनुष्य या जीवकृत कोई भी कर्म ईश्वर के लिए नया नहीं है।
ईश्वर हमेशा अच्छा काम करने के लिए कहता है, कठिनाइयों से बचने के लिए उपदेश देता है। वह जानता है कि, लोग चोरी, डकैती, लूट-मार, शोषण व अन्याय करेंगे, पर फिर भी ईश्वर सृष्टि बनाता है और सुझाव भी देता है। वह अच्छे और बुरे कर्मों का परिणाम भी बता देता है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह ईश्वर की बात माने या न माने। यदि वह नहीं मानता, तो उसे दण्ड भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए।

(256) शंका :- क्या कोई हमारा भविष्यफल बता सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

गणित में नियम हैः- संभावना का नियम (लॉ आफ प्रॉबेबिलिटि)। ये ज्योतिषी जितनी भी भविष्यवाणियां करते हैं, वो सारी लॉ ऑफ प्रॉबेबिलिटि पर आधारित है। लॉ ऑफ प्रॉबेबिलिटि आप भी जानते हैं, हम भी जानते हैं, फिर उसने नया क्या बता दिया?
एक विद्यार्थी परीक्षा में बैठा है। वो या तो पास होगा या फेल होगा। सौ विद्यार्थी परीक्षा में बैठे हैं। क्या परीक्षा में बैठे सारे के सारे विद्यार्थी फेल हो जाएंगे? कुछ तो पास होंगे, कुछ की तो पास होने की संभावना है। यह है ‘संभावना का नियम।’ वहाँ ‘संभावना का नियम’ काम करता है। यदि कोई व्यक्ति बीस संभावनाएँ व्यक्त करता है तो कोई तो सच निकलेगी। वहाँ यह नियम लागू होता है, न कि भविष्यवाणी।
स इस संभावना के नियम पर ये ज्योतिषी भविष्यफल बताते हैं। कथित वचनों में कुछ तो ठीक (सच सि() होना ही है। अगर सारे विद्यार्थी जाकर ज्योतिषी से पूछें कि – हम पास हो जाएंगे या फेल हो जायेंगे। संभावना के नियम के आधार पर, मान लीजिए ज्योतिषी उन सबको यह कह दे कि- तुम पास हो जाओगे या सारे के सारे फेल हो जाओगे, तो क्या, सौ में से सौ पास या फेल हो जाएंगे? नहीं होंगे न। कुछ तो पास होंगे, चालीस, पचास, साठ कुछ तो पास होंगे ही। जो पास हुए, वे संभावना के नियम से पास हुए।
स जो पास हुए, क्या ज्योतिषी के कहने पर पास हुए? वे अपनी मेहनत से पास हुए। सारे के सारे इतने फिसड्डी नहीं होते हैं कि फेल हो जाएँ? जो मेहनत करते हैं, वो पास होते हैं, जो नहीं करते वो फेल होते हैं।
स ज्योतिषियों को कुछ नहीं मालूम, इनके चक्कर में नहीं आना। लोगों में ऐसी भ्रांति फैल गई कि फलाने ज्योतिषी ने बताया था, इसलिए पास हो गए। अच्छा उसने सबको पास होने को बोला था, फिर बाकी चालीस जो फेल हो गए, उनका क्या ? उसका क्या जवाब है? उसका कोई जवाब नहीं। विद्यार्थी अपनी पढ़ाई-लिखाई करने या न करने से पास-फेल होते हैं। उस ज्योतिषी के कहने पर नहीं होते।
स अखबार में भविष्य भी नहीं पढ़ना चाहिए। इसको पढ़ने से नुकसान होता है। क्या नुकसान होता है? एक व्यक्ति ने अखबार पढ़ा। उसकी मेष राशि थी। अखबार में लिखा था कि ”मेष राशि वालों को शनिवार को दुर्घटना की संभावना।” वह अच्छा ड्राइवर था, बढ़िया ड्राइविंग करता था। पर उसने पढ़ लिया, तो सुबह से ही नर्वस हो जाएगा। और न होता हो एक्सीडेंट, फिर भी ठोंक देगा। क्योंकि पेपर में लिखा है कि आज तो दुर्घटना होनी ही है। अब न पढ़ता तो नहीं ठोंकता। पढ़ने के कारण बेचारा सुबह-सुबह घबरा गया। इसलिए अखबार में भविष्य नहीं पढ़ना चाहिए, सुनना भी नहीं चाहिए। बिल्कुल बेकार की बातें हैं, व्यर्थ की बातें हैं, हानिकारक हैं। ये सब भविष्यफल सुनने-पढ़ने वाले लोग और ज्योतिषी गलती करते हैं।
स प्रसंगवश एक बात और बता देता हूँं। ये ज्योतिष वाले भविष्यफल बताते हैं। मेष, वृष, तुला, वृश्चिक इत्यादि बारह राशियाँ होती हैं। भारत में कितनी जनसंख्या है? सौ करोड़ से ऊपर। इसमें से अस्सी-पचासी करोड़ आर्य (हिन्दुओं) में से जो इन राशियों को मानते हैं, उनकी संख्या सौ करोड़ में से अस्सी, पचासी करोड़ तो होगी। कुल राशियाँ हैं, बारह। एक राशि में करीब सात करोड़ व्यक्तियों के नाम आएंगे।
अब अखबार उठाइए और भविष्यफल देखिए। अखबार में लिखा है कि, ”मंगलवार को तुला राशि वालों को लाभ होगा।” इसलिए मंगलवार को भारत के सात करोड़ व्यक्तियों को लाभ होना चाहिए। लेकिन होता है क्या लाभ? नहीं होता। तो मतलब यह हुआ कि, ये झूठ बोलते हैं।
जब आप और खोज करेंगे, तो पता चलेगा कि, ‘मंगलवार को कई तुला राशि वालों का दिवाला पिटता है। लाभ की तो बात क्या? बताइए, आपका भविष्यफल कहाँ गया? जिनका दिवाला पिट गया, वो जाकर क्यों नहीं ज्योतिषियों की गर्दन पकड़ते कि- ”तुमने तो लिखा था अखबार में, कि लाभ होगा। तो यहाँ हमारा दिवाला क्यों पिटा?”
स ज्योतिषी उपाय की भी गारंटी नहीं लेते कि यह उपाय करो, आपको निश्चित लाभ होगा। । अगर वो उपाय की गारंटी भी लें, तो हम मान भी लें।
आपके स्कूटर में खराबी हो गई। आप मैकेनिक के पास जाइए। वह गारंटी लेता है कि – ”इतने पैसे लूँगा, ठीक करके दूँगा।” ऐसे ही, अगर ज्योतिषी गारंटी दे कि- ”हाँ, इतनी फीस लूँगा और यह मेरा उपाय सौ प्रतिशत कारगर होगा। नहीं हुआ, तो मुझ पर डबल फाइन करो।” कोई ज्योतिषी सामने आए, एक भी नहीं आता। सब के सब जनता को धोखा देते हैं। इसलिए इन लोगों से सावधान रहिए। इनके चक्कर में नहीं आना।

(257) शंका :- पंचांग-पत्रा, ज्योतिष विद्या को मानने से क्या हानियाँ होती हैं? क्या यह वेद अनुसार है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हस्तरेखा, भविष्यफल यह सब झूठ है। हस्तरेखाओं में कुछ नहीं लिखा। किसी का भविष्य इन रेखाओं में नहीं है। भविष्य आपके पुरुषार्थ में है। देशभक्ति का एक गीत याद है – ‘नन्हें मुन्हें बच्चे तेरी ‘मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी’। ‘मुट्ठी में’ का क्या मतलब? इन लकीरों से नहीं, हमारे हाथ के पुरुषार्थ में है।
वेद कहता है – ”कृतं मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहितः।” अर्थात् ‘कर्म मेरे दायें हाथ में है, तो फल बायें हाथ में’। पर लोग आलसी हैं, कर्म करना नहीं चाहते। वे केवल लकीरों को देखते रहते हैं।
”ऐ हाथ की लकीरों में किस्मत देखने वालो ़ ़ ़ किस्मत तो उनकी भी होती है, जिनके हाथ नहीं होते।” जब हाथ ही नहीं, तो लकीरें कहाँ है उनकी? पर उनकी भी किस्मत होती हैं। किस्मत तो हमारे पुरुषार्थ में है। इसलिए इन लकीरों में कुछ नहीं रखा।
एक विमान दुर्घटना (प्लेन क्रैश) हुई, डेढ़ सौ आदमी मर गए। उनमें बच्चे भी थे, बूढ़े भी थे, जवान भी थे। क्या सबकी हस्तरेखाएं एक जैसी थीं? रेल दुर्घटना, ट्रक दुर्घटना ऐसी बहुत दुर्घटनाएं रोज होती हैं। कितने ही लोग मरते हैं। क्या सबकी हस्त रेखाएं एक जैसी होती हैं? एक जैसी होनी चाहिए, पर एक जैसी नहीं होती। इसलिए हस्तरेखा में भविष्यफल कुछ नहीं लिखा।
लोग यह मानते हैं कि हमारे भविष्य में ऐसा-ऐसा लिखा है, इतनी उम्र में यह होगा इत्यादि। मान लीजिए- किसी व्यक्ति के भविष्यफल में लिखा है कि उसे चार मर्डर करने हैं। वो चार हत्याएं करेगा, यह किसने लिखा? भविष्यफल ज्योतिषी नहीं लिखता है। ज्योतिषी तो भविष्य बताता है। वो तो कहता है कि – ”भविष्यफल भगवान ने लिखा है, मैं तो बता रहा हूँ कि आपका भविष्य ऐसा लिखा है।” तो लिखने वाला भगवान है।
जब भगवान ने हमारी किस्मत में लिखा है कि हमें चार हत्याएं करनी हैं और हम उतनी-उतनी उम्र में चार हत्या करेंगे तो हम अपराधी तो नहीं हुए न? ईश्वर की आज्ञा का पालन अपराध नहीं है। ईश्वर ने लिखा है कि – तुम बत्तीस साल की उम्र में चार मर्डर करोगे और हम कर डालेंगे तो हमने कोई अपराध नहीं किया। क्या हमें सरकार छोड़ देगी? नहीं न। इसलिए भविष्यफल झूठ है।
आपकी बु(ि, आपके परिश्रम, आपके पुरुषार्थ, आपकी ईमानदारी और आपके संस्कारों से आपका भविष्य बनता है। अपने संस्कारों को देखें, अच्छे विचार जगाएं, बुरे विचारों को रोकें, अच्छे काम करें, अच्छी भाषा बोलें, अच्छा चिंतन करें, आपका भविष्य बहुत अच्छा बनेगा। कोई हस्तरेखा और भविष्यफल देखने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए पंचांग-पत्रा आदि भविष्यकथन, ये सब वेद विरु( हैं। इसको मानने से व्यक्ति आलसी, निकम्मा, पुरुषार्थहीन, दीन, दुःखी और दरिद्र हो जाता है।

(258) शंका :- क्या योगी व्यक्ति भविष्य की बातों का ज्ञान कर सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उत्तर हैः-
स कई चमत्कारिक घटनाएं महापुरुषों के साथ भावुक अनुयायी लोग अपनी ओर से जोड द़ेते हैं।
स महर्षि दयानंद जी योगी थे। अगर उनको वास्तव में भविष्य की बातों का पता लग जाता होता, तो उन्हें यह क्यों नहीं पता चला कि ”कल जगन्नााथ मुझे जहर देगा? ”कितनी बार लोगों ने उनको जहर दिया, कितने प्रकार से दिया। यह सब उनको पता क्यों नहीं चला ? इस तरह की अन्तः प्रेरणा (इन्ट्यूशन) नहीं हो सकती।
स यह केवल तुक्का है। सौ बार व्यक्ति अंदेशा लगाता है, दो बार सही निकलता है। यह है – लॉ ऑफ प्रोबेबिलिटी, देयर इज नो इन्ट्यूशन।
आजकल टी.वी. चैनलों पर, अखबारों आदि में जो भी भविष्यफल बताया जाता है, उसके पीछे भी यही संभावना का नियम ही काम करता है।
स यदि कोई व्यक्ति दावा करता है कि वह वास्तव में भविष्य की घटनाओं को जानता है तो उसकी बातें पूर्ण सत्य सि( होनी चाहिए। जैसे- गणित के अध्यापक गणित के प्रश्नों का पूर्ण सत्य उत्तर देने का दावा करते हैं, और उनके उत्तर पूर्ण सत्य ही होते हैं। परन्तु भविष्यवाणी करने वाले क्या अपना भविष्य भी ठीक प्रकार से जानते हैं? यदि नहीं जानते, तो दूसरों का भविष्य क्या जान पाएँगे? और क्या बता पाएँगे? एक इंजीनियर अपने लिए तथा दूसरों के लिए भी मकान बनाता है। उसकी विद्या सत्य है। भविष्यवक्ता न अपना भविष्य जानता है, न दूसरों का। इसलिए यह भविष्यवाणी झूठी है।
स व्यावहारिक रूप से ऐसे भविष्य की बातों की कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है – यह सि(ांत है। अगर व्यक्ति स्वतंत्र है, तो वह कुछ भी कर सकता है। अगर व्यक्ति स्वतंत्र है, तो वह सुधर भी सकता है, बिगड़ भी सकता है।
स यदि भविष्यवाणी सत्य हो, तो इसका अर्थ होगा कि सब कुछ पहले से निश्चित है। तब व्यक्ति कर्म करने में परतन्त्र हो जाएगा। यदि व्यक्ति कर्म करने में परतन्त्र है, तो उसे दण्ड नहीं दिया जा सकता। क्योंकि परतन्त्र को दण्ड देना, अन्याय है।
किसी व्यक्ति ने अपनी बन्दूक से चार व्यक्तियों को मार दिया। अब दण्ड, मारने वाले व्यक्ति को मिलेगा, या बन्दूक को? मारने वाले व्यक्ति को मिलेगा। चारों व्यक्ति गोली से मरे, गोली छूटी बन्दूक से तो बन्दूक को दण्ड मिलना चाहिए। परन्तु बन्दूक को दण्ड नहीं दिया जाता। क्योंकि बन्दूक परतन्त्र है। बन्दूक स्वतन्त्र नहीं है। बन्दूक चलाने वाला व्यक्ति स्वतंत्र है। इसलिए बन्दूक चलाने वाले को दण्ड दिया जाता है। यही न्याय है। इसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वतन्त्रता से किए गए कर्मों का फल (सुख-दुःख) भोगता है।
स गणित वाला ज्योतिष ठीक है, पर भविष्यफल (प्रिडिक्सन) गलत है। एक अंतिम बात कह देता हूँ, आप समझ जायेंगे। व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है। स्वतंत्र किसको कहते हैं, जो अपनी इच्छा से काम करे या दूसरे के दबाव से काम करे? जो अपनी इच्छा से काम करे, वह स्वतंत्र है। तो आपका भविष्य पहले से कोई कैसे लिख देगा? अगर पहले से लिखा है, और वही होना है, तो आप परतंत्र हो गए।
स सच तो यह है कि आप जब चाहे, अपनी योजना बदल सकते हैं, जब चाहे बना सकते हैं। हमारी मर्जी है। हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं। अपने भविष्य के निर्माता हम स्वयं हैं। एक-एक मिनट में हम अपना भविष्य बनाते हैं। आप भाषा में बिगाड़ कर दीजिए, देखिए आपका भविष्य तुरंत बिगड़ जाएगा। आपकी क्रिया ठीक-ठीक चल रही है, आपका भविष्य अच्छा है। आप गलत क्रिया शुरु करो, देखो आपका भविष्य तुरंत बिगड़ जाएगा। इस प्रकार अपना भविष्य बनाना-बिगाड़ना हमारे हाथ में है। एक-दो मिनट में हम अपना भविष्य बना सकते हैं या बिगाड़ सकते हैं। इन कागज के पोथी-पत्रों में कुछ नहीं लिखा।
स जब तक हम स्वतंत्र हैं, वह ज्योतिषी हमारा भविष्य कैसे जान लेगा? हमने कोई काम अब तक सोचा ही नहीं, योजना ही नहीं बनाई, कोई निर्णय ही नहीं किया कि दो महीने बाद क्या करूँगा। जब मैंने ही नहीं सोचा, तो ज्योतिषी उसको कैसे जान लेगा? ईश्वर भी नहीं जानता, तो ज्योतिषी उसको क्या जानेगा? फिर भी वो बताता है, तो इसका अर्थ है कि वह तुक्का मारता है। उसकी जितनी बातें ठीक होती है, लॉ ऑफ प्रॉबेबिलिटि से ठीक होती है।
“प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र है।” जब वह स्वतन्त्र है, तो पहले से कुछ लिखा या निश्चित नहीं है। जब पहले से कुछ भी निश्चित नहीं है, तो सि( हुआ कि – ”भविष्य कथन झूठा है।”

(259) शंका :- क्या सृष्टि में जीवों की जनसंख्या निश्चित है। संसार में मानव, पशुओं, पक्षियों, जीव-जंतुओं की संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही है तो एक बार संख्या निश्चित होती है तो बढ़ती कैसे है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यह जो प्रश्न उठाया है कि सबकी संख्या बढ़ती जा रही है, यह बात ठीक नहीं है। कारण किः-
स आपके पास इन प्राणियों की संख्या का कोई हिसाब-किताब नहीं है। आप बता सकते हैं, दिल्ली में एक दिन में कितने मच्छर मरते हैं और कितने नए पैदा होते हैं? मच्छरों की संख्या का पता नहीं, और यहाँ तो हजारों, लाखों योनियाँ हैं।
स आत्माओं की संख्या निश्चित है। यह तो आप मानते हैं कि आत्माएँ न पैदा होती हैं, न मरती हैं। अगर आत्माएँ नई पैदा होने लग जाएं तो आत्माओं की संख्या बढ़नी शुरू हो जाएगी। जब नई आत्मा पैदा होगी तो संख्या बढ़ेगी। और जितनी आत्माएँ हैं, अगर उनमें से कुछ मरनी शुरु हो जाएं, तो घटने लगेंगी।
”जब आत्मा पैदा नहीं होती तो आत्माओं की संख्या बढ़ेगी नहीं, और जब आत्मा मरती नहीं तो संख्या घटेगी नहीं। इसलिए आत्माओं की संख्या तो उतनी ही रहेगी, एक कम नहीं होगी, एक बढ़ेगी भी नहीं।”
स रही बात शरीरों की। शरीर पैदा भी होते हैं और मरते भी हैं। इसलिए शरीर कभी घट जाते हैं, कभी बढ़ जाते हैं। एक जगह संख्या बढ़ रही है तो समझ लेना, दूसरी जगह जरूर घट रही है।
आत्माएँ तो उतनी ही हैं। एक आत्मा एक समय में छह शरीरों में तो रह नहीं सकती। कभी आत्माएँ पशु, पक्षियों की योनियों में से मर करके अर्थात् शरीर छोड़ करके मनुष्य शरीर में आ जाती है तो मनुष्यों की संख्या बढ़ जाती है। और मनुष्य वाली आत्मा मनुष्य शरीर छोड़ करके पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े में चली जाती है तो इधर मनुष्य घट जाते हैं और उधर पशु-पक्षी, बैक्टीरिया आदि बढ़ जाते हैं। पूरा हिसाब रखना हमारे बस की बात नहीं है। केवल ईश्वर जानता है।
स मोक्ष मिल जाएगा तो आत्मा मोक्ष में चली जाएगी। आत्मा मरेगी फिर भी नहीं। मोक्ष में उसकी सत्ता (अस्तित्व) बनी रहेगी और जब मोक्ष का समय पूरा हो जाएगा, फिर आत्मा लौट के वापस संसार में जन्म लेगी।
स आत्माएं हमारी गिनती से तो अनंत हैं। हम पूरा नहीं गिन पाएंगे लेकिन वास्तव में आत्मा की संख्या निश्चित है। कोई न कोई एक
फिगर निश्चित है। अल्पज्ञ होने के कारण उसे हम नहीं जान सकते।
स ईश्वर सर्वज्ञ है और वह आत्मा की संख्या जानता है, और ईश्वर सबका हिसाब रखता है।

(260) शंका :- बहुत जन्मों के बाद अच्छे कर्म करने से मनुष्य जन्म मिलता है। धरती पर अब बहुत कम मात्रा में अच्छे कर्म हो रहे हैं, बुरे कर्म ज्यादा हो रहे हैं, इस हिसाब से मनुष्यों की बस्ती (संख्या) कम होनी चाहिए, लेकिन मानव बस्ती तो बढ़ती जा रही है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

प्रश्न है कि मनुष्यों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है, जबकि अच्छे काम घट रहे हैं, बुरे काम ज्यादा हो रहे हैं। उत्तर समझने के लिएः-
स अच्छा यह बताइए कि, मनुष्यों की संख्या अधिक है या दूसरे कीड़े-मकोड़ों की? उत्तर होगा- कीड़े-मकोड़ों की। इससे बात साफ है, अच्छे कर्म कम होते हैं, इसलिए मनुष्य कम हैं। बुरे काम ज्यादा होते हैं, इसलिए संसार में कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी ज्यादा हैं। एक तो यह मोटी-मोटी बात है।
स अब यह बताइए कि, पिछले पचास सालों में मनुष्यों की जो संख्या बढ़ी, यह सामान्य मजदूर गरीबों के घर में बढ़ी या आई.ए.एस, आई.पी.एस ऑफीसरों के घर में बढ़ी? यह तो सामान्य परिवारों में बढ़ी। इसका मतलब निकला कि – पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े के शरीर से लौटकर जीवात्मा आ रहे हैं। इसलिए सामान्य मजदूर गरीबों के घर में मनुष्यों की संख्या बढ़ रही है।
संख्या अच्छे कर्मों के कारण नहीं बढ़ रही। पाप-दंड भोग करके, निपटा करके, अब उनका मनुष्य बनने का नंबर आया। इसलिए वो लौटकर मनुष्य बन रहे हैं। इन मनुष्यों की संख्या बढ़ रही है।
स इस समय जो पाप कर रहे हैं, वो मरने के बाद यहाँ से वहाँ ट्रांसफर हो रहे हैं, कुत्ते-बिल्ली में, गाय-घोड़े के शरीर में। संसार के लोगों को यह सत्य दिखता नहीं। इसलिए लोग पाप करना छोड़ते नहीं।
लोग तो यह समझते हैं कि, हरिद्वार में जाओ, गंगा जी में स्नान करो तो सारे पाप खत्म हो जाएंगे। इसलिए लोग खूब पाप करते हैं। अगर उनको समझ में आ जाए कि भगवान छोड़ेगा नहीं, कुत्ता-बिल्ली बनाएगा, दंड देगा, माफ नहीं करेगा तो वो पाप करना बंद कर देंगे।
स मैंने एक नियम बताया था – ‘दंड के बिना कोई सुधरता नहीं है।’ अगर दंड दिखता है, तो व्यक्ति सुधरेगा। देखिए, यह बिजली का तार है। क्या बिजली के तार को आप छुएंगे? क्यों नहीं छुएंगे ? साफ दंड दिख रहा है न, कि छूते ही दंड मिलेगा। जब दंड दिख रहा है तो आप नहीं छुएंगे। और ऐसे ही अगर यह दंड भी दिखने लग जाए कि हम झूठ, छल-कपट, चोरी, बेईमानी करेंगे तो भगवान कुत्ता, साँप, बिच्छू, भेड़िया आदि बना देगा। तो आप पाप क्यों करेंगे? कोई भी नहीं करेगा। सब सीधे हो जाएंगे, सब सुधर जाएंगे। तो संख्या के बढ़ने-घटने का यह कारण है।

(261) शंका :- खराब काम करने वाले को खराब योनि मिलती है। आज पचहत्तर प्रतिशत व्यक्ति खराब काम करते हैं, फिर भी संसार में मनुष्यों की संख्या क्यों बढ़ती ही जा रही है? क्या सभी अधिकारी जीवों का मुक्ति-काल समाप्त हो गया है, क्या वे मुक्ति से लौटकर आ रहे हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पिछले पचास वर्षों में तो मनुष्यों की संख्या (पॉपुलेशन) बढ़ती जा रही है। पहले भारत की संख्या तीस करोड़ थी, आज सौ करोड़ से ऊपर चली गयी। पूरी धरती की संख्या पहले तीन अरब थी, आज सात अरब हो गई। जनसंख्या इतनी क्यों बढ़ रही है, क्या अच्छे काम ज्यादा हो रहे हैं? इस सवाल का जवाब हैः-
स एक कारण है कि ‘आत्मा’ मुक्ति से लौट रहे हैं। इसलिए संख्या बढ़ रही है। सारे मुक्ति से नहीं आ रहे हैं। मनुष्यों की संख्या इस कारण से नहीं बढ़ रही है। दरअसल, मुक्ति में से तो कोई-कोई आता होगा। लेकिन वो हमें पता नहीं चलता। गत वर्षों में मनुष्यों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, उसके कई कारण हैं।
स दूसरा कारणः- एक व्यक्ति ने दस साल तक मेहनत की, व्यापार में खूब पैसा कमा लिया और आगे जाकर उसने व्यापार बंद कर दिया। अब वो व्यापार नहीं कर रहा। लेकिन पिछले दस साल में उसने जो कमाया, उसको बैठ के खा रहा है। उसे इसका पूरा अधिकार है।
इसी तरह इस समय जो मनुष्य लोग हैं, वो पहले कमाई करके आए हैं। वे अच्छे कर्म करके आए हैं। इसीलिए मनुष्य योनि में आए हैं। वे पिछली कमाई खा रहे हैं। लेकिन यदि इस जन्म में वे अच्छे काम नहीं कर रहे हैं, तो आगे उनको मनुष्य जन्म नहीं मिलेगा। वे मोक्ष के अधिकारी नहीं होंगे। वे पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े की योनि में स्थानांतरित (ट्रांसफर) हो जाएंगे। उनको बुरे कर्मों का यह दण्ड मिलेगा। और जब दण्ड भोग लेंगे, कर्म-दण्ड पूरा हो जाएगा, तब वे फिर मनुष्य योनि में आ जाएंगे। इसका न आपको पता चलेगा और न मुझे।
अनुमान प्रमाण है कि ईश्वर न्यायकारी है, वह बिना कर्म के फल नहीं देता। जिसने बुरा कर्म किया, उसको बुरा फल दिया। जिसने अच्छा कर्म किया, उसको अच्छा फल दिया।
स आजकल जो तेजी से मनुष्यों की संख्या बढ़ रही है, उसका कारण यह नहीं है कि, मनुष्य लोग अच्छे कर्म कर रहे हैं। दरअसल, जो बुरे कर्म करके पशु-पक्षी, कीड़ों-मकोड़ों और पेड़-पौधों की योनि में गए थे, वे अपना दण्ड भोगकर, कर्मफल पूरा करके मनुष्य योनि में आ गए हैं। यह मनुष्यों की संख्या बढ़ने का एक कारण है।
यहाँ कर्मफल के तीन नियम समझने पड़ेंगेः-
(1) पहला नियम- एक व्यक्ति अपने पूरे जीवन में यदि पचास प्रतिशत अच्छे और पचास प्रतिशत बुरे कर्म करता है यानी बराबर मात्रा में (इक्वल) पचास-पचास अच्छे-बुरे कर्म हैं। यहाँ पहला नियम कहता है किः-
”समान मात्रा में अच्छे बुरे कर्मों को करने से व्यक्ति को तुरंत अगला जन्म साधारण मनुष्य का मिलेगा।”
साधारण मनुष्य का मतलब जिसे आप आजकल की भाषा में फोर्थ-क्लास फैमिली जैसे- मजदूर, चपरासी, पटेवाला कहते हैं। एक तरीका मनुष्य बनने का यह है।
(2) दूसरा नियम- यदि कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन में पचास प्रतिशत से अधिक अच्छे कर्म करता है, जैसे – मान लिया कि साठ प्रतिशत अच्छे कर्म करता है, और चालीस प्रतिशत बुरे कर्म करता है। उसके अच्छे कर्म अधिक हैं, इसलिए प्रमोशन होगा। फोर्थ क्लास से थर्ड क्लास फैमिली में आ जाएगा। मजदूर, चपरासी से ऊँचे घर में, कोई बु(िमान, सेठ, धनवान, किसी क्षत्रिय के घर में जन्म होगा। इसी तरह से यदि अच्छे कर्म का प्रतिशत बढ़ता जाएगा, साठ की बजाय सत्तर प्रतिशत अच्छे कर्म किए तो और ऊँचे घर में जन्म मिलेगा। अस्सी प्रतिशत अच्छे कर्म किए तो और ऊँचे घर में जन्म मिलेगा। जहाँ पर धार्मिक, विद्वान माता-पिता हों, सदाचारी हों, देशभक्त हों, ईश्वर-भक्त हों, ईमानदार हों, ऐसे-ऐसे अच्छे परिवार में जन्म मिलेगा। और यदि सौ प्रतिशत अच्छे और निष्काम कर्म करेगा, तो उसका मोक्ष हो जाएगा। यह दूसरा नियम हैः-
”यदि आपके कर्म पचास प्रतिशत से ज्यादा अच्छे हैं, और बुरे कम हैं, तो भी मनुष्य बनेंगे।”
तो इस नियम से भी तुरंत मनुष्य बन सकते हैं।
(3) तीसरा नियम- यदि कोई व्यक्ति बुरे कर्म पचास प्रतिशत से
अधिक करता है, और अच्छे कर्म पचास प्रतिशत से कम। मान लीजिए साठ प्रतिशत बुरे कर्म किए, और चालीस प्रतिशत अच्छे कर्म किए। अब साठ और चालीस में कितना अंतर है? बीस प्रतिशत का। तो बीस प्रतिशत बुरे कर्म अच्छे कर्मों की तुलना में उसने अधिक किए। अब यहाँ बीस प्रतिशत पाप अतिरिक्त हैं,अधिक है, तो कर्म-फल का तीसरा नियम कहता है, कि-”जब बुरे कर्म
अधिक हो जायेंगे, तो तुरंत अगला जन्म मनुष्य का नहीं मिलेगा।” अब उसका दंड भोगने के लिए नीचे उतरना पड़ेगा। कुत्ता, बिल्ली, हाथी, गाय, घोड़ा, मक्खी, मच्छर, बंदर, सुअर, साँप, आम, पीपल आदि-आदि बनना पड़ेगा। जब तक नीचे इन बीस प्रतिशत पापों का दंड पूरा नहीं भोग लेगा, तब तक वापस लौट के मनुष्य नहीं बनेगा। तब तक वहीं चक्कर काटेगा।
यदि कोई पशु-पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा बना हुआ था, तो वो कैसे बना था, पहले यह समझ लीजिए। पुण्य की तुलना में अधिक पाप किए, तो तीसरा नियम यह कहता है किः-
”जब पाप अधिक बढ़ जाएगा, तो पहले उसका दंड भोगने के लिए कुत्ता-बिल्ली, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े बनना पड़ेगा।”
पहले अन्य योनियों में बीस प्रतिशत पाप का दंड भोगो, जब वो निपट जाए, तब एकाउंट बैलेंस (बराबर) हो जाएगा। चालीस प्रतिशत पाप, चालीस प्रतिशत पुण्य का खाता जब बराबर हो जाएगा, तो फिर लौट के मनुष्य बनेंगे।
तो इस समय जो आप कह रहे हैं न कि मनुष्य की संख्या बढ़ती जा रही है, यह इस नियम से बढ़ रही है। कीड़े-मकोड़े, मक्खी, मच्छर अपना दण्ड भोगकर, मनुष्य योनि में लौट के वापस आ रहे हैं। उनका नंबर आ गया है मनुष्य बनने का।
मुक्ति से लौटना एक कारण, मनुष्य से मनुष्य बनना, दूसरा कारण और मनुष्यों में ज्यादा अच्छे कर्म करके फिर अच्छे परिवार में जन्म लेना तीसरा कारण, कीड़े-मकोड़े से लौटकर वापस मनुष्य बनना-चौथा कारण। और किसी अन्य लोक- लोकांतर से यहाँ ट्रांसफर होकर यहाँ मनुष्य जन्म लेना, यह मनुष्य की संख्या बढ़ने का पाँचवा कारण है। ऐसे बहुत सारे कारण हैं, जिसकी वजह से यहाँ जनसंख्या (पॉपुलेशन) बढ़ रही है। चौथा वाला कारण ज्यादा ठीक लग रहा है। और भी कारण थोड़े-थोड़े होंगे।

(262) शंका :- मरने के बाद कहानी खत्म नहीं होती। ऐसा क्यों कहा जाता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यही तो बात है, जो लोगों के दिमाग में नहीं बैठती। शरीर मरता है और आत्मा नया जन्म ले लेती है। जैसे स्कूटर को गैराज में रखकर हम उससे अलग हो जाते हैं। वैसे ही मृत्यु होने पर शरीर और आत्मा दोनों अलग-अलग हो जाते हैं। अंतर इतना है कि स्कूटर पर तो हम रोज बैठते हैं, फिर अलग हो जाते हैं। उससे तो जल्दी अलग हो जाते हैं, पर शरीर से पचास, साठ, अस्सी या सौ साल के बाद अलग होते हैं।
तात्पर्य है कि, एक न एक दिन आत्मा शरीर से अलग हो जाती है। उसी क्षण का नाम ‘मृत्यु’ है। उसके बाद, अगला ‘जन्म’ होता है। ठीक वैसे ही, जैसे आप पुराने स्कूटर को छोड़कर नया स्कूटर खरीदते हैं। गीता में इसी बात को पुराने कपड़े त्यागकर नये वस्त्र धारण करने के उदाहरण से समझाया गया है। स्कूटर घिस-पिट गया, नया ले लिया। ऐसे ही शरीर जर्जर हो गया, तो छोड़ दिया। फिर नया शरीर मिल जाएगा। मरने के बाद कहानी खत्म नहीं होती, ऐसा इसीलिए कहा जाता है।

(263) शंका :- एक विदेशी महिला भारत में रहते हुए अपने जीवन-काल में दूसरों की सेवा करती रहीं। उन्होंने शायद ईश्वर उपासना नहीं की। यम, नियम का पालन नहीं किया। तो क्या वे मोक्ष की अधिकारी थीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

उत्तर है, नहीं। दरअसल, मोक्ष के लिए तीन काम अनिवार्य (कम्पलसरी) हैंः-
(1) पहला काम-वेद के अनुसार हमारा ज्ञान-विज्ञान हो। जो हमारे सि(ांत व मान्यताएं हैं, वे वेदानुकूल हों अर्थात् हमारा ज्ञान शु( होना चाहिए।
(2) मोक्ष प्राप्ति के लिए दूसरा काम-निष्काम कर्म होने चाहिए। उन्होंने इतना तो अच्छा किया कि गरीबों, रोगियों की सेवा की। परन्तु मनुष्य जाति की सेवा के पीछे उनकी भावना दूसरी थी। शु( भावना नहीं थी। सेवा के पीछे अपने धर्म-संप्रदाय का प्रचार करने, की भावना थी। इसलिए सांप्रदायिक उद्देश्य होने के कारण वे शु( (निष्काम) कर्म नहीं थे।
(3) तीसरा काम है-शु( उपासना। अर्थात् जैसा ईश्वर का स्वरूप वेदों में बताया है, वैसे ईश्वर की उपासना करना। अगर वह भी उनका नहीं होगा तो उन्हें मोक्ष नहीं मिलेगा।

(264) शंका :- क्या समाधि काल में, योगी के पूर्वकृत कर्म नष्ट हो जाते हैं या बचे रहते हैं? क्या समाधि लगाने से, पूर्वकृत कर्म, बिना फल दिए भी नष्ट हो सकते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधि-काल में बाहर के काम नहीं होते, वो सारे बंद हो जाते हैं।
स एक व्यक्ति समाधि लगाता है, ईश्वर की उपासना करता है, तो उसको ईश्वर की अनुभूति होती है, ईश्वर से आनंद मिलता है, ज्ञान मिलता है, बल मिलता है, उत्साह मिलता है, बहुत सारे अच्छे गुणों की प्राप्ति होती है।
समाधि-काल में ईश्वर की उपासना ही एकमात्र कर्म होता है।
स समाधि-काल में भी उसके जो पहले किए हुये कर्म हैं, वो जमा रहते हैं। इससे कर्म नष्ट नहीं होते। दरअसल, कर्म बिना फल भोगे नष्ट होते ही नहीं हैं। वो चाहे समाधि लगाए, या न लगाए। यदि किसी व्यक्ति ने कोई भी कर्म किया है, तो उसका फल निःसंदेह भोगना ही पड़ेगा।
स कर्म, बिना फल दिए कभी भी नष्ट नहीं होते, वो हमेशा जमा रहते हैं। जब उनका फल मिलता जाता है तो फल भोगने से वो कर्म हट जाते हैं। मान लीजिए, किसी व्यक्ति के दो हजार कर्म थे। तीन सौ कर्मों का फल मिल गया, सत्रह सौ बाकी रह गए। अब समाधि लगाओ अथवा न लगाओ कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वे बचे हुए सत्रह सौ कर्म, फल भोगकर ही नष्ट होंगे, अन्यथा नहीं।

(265) शंका :- क्या सौ प्रतिशत अच्छे कर्म करने के लिये संन्यास लेना अनिवार्य है या गृहस्थ में रहते हुए भी व्यक्ति सौ प्रतिशत अच्छे कर्म करके मोक्ष में जा सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिना संन्यास लिए आदमी सौ प्रतिशत अच्छे काम नहीं कर सकता और दुनिया उसको करने भी नहीं देगी। आप घर में रहो, गृहस्थ बनकर रहो, लोग आपको अच्छे काम करने ही नहीं देंगे। आपको बुरे कामों में घसीटेंगे। कहेंगेः- ”चल भई! हमारे यहाँ रिश्तेदारी में चल।” आप कहोगेः-”नहीं-नहीं, मैं नहीं जाऊँगा।” वे कहेंगेः-”अरे ! कैसे नहीं जाएगा, तेरे घर में फंक्शन था, तो हम नहीं आए थे क्या? आज हमारे घर में फंक्शन है, तू कैसे नहीं आएगा?” इस तरह आप नहीं जाना चाहेंगे तो भी वे जबरदस्ती घसीट के ले जाएंगे।
जब आप मेरी तरह संन्यासी बन जाएंगे, तो फिर कौन प्रेशर मारेगा? फिर कोई नहीं प्रेशर मारेगा। मैं कहूँगा-”मैं संन्यासी हूँ। मैं शादी में जाता ही नहीं। मैं अपने सगे भाई की शादी में नहीं गया तो तुम्हारी शादी में क्या आऊँगा।” अब बताओ, कौन मेरे साथ जबरदस्ती करेगा? इसलिए संन्यास लेना पड़ेगा। तब संसार के लोग आपके ऊपर दबाव नहीं डाल सकेंगे। और तब आप पूरे अच्छे काम कर पाएंगे। अगर आप गृहस्थ बने रहेंगे तो पचास लोग आपको प्रेशर मारेंगे और जबरदस्ती आपसे उल्टे-सीधे काम कराएंगे। इसलिए यदि आप मोक्ष में जाना चाहते हैं तो संन्यास लेना ही पड़ेगा।

(266) शंका :- पूरा प्रयास करने पर कितने सालों में या एक जन्म में मोक्ष पा सकते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

एक जन्म कब से गिनना शुरु करेंगे? यहाँ आर्यवन में, शिविर में आने के बाद एक जन्म गिनना शुरु करेंगे, या जब से मुक्ति से लौटे तब से गिनना शुरु करेंगे? दरअसल, जब से हम मोक्ष से लौटकर इस संसार में आए, एक जन्म की गिनती तब से शुरु होती है। वो पहला जन्म होता है। जीवात्मा जब-जब संसार में मुक्ति से लौटकर आया, और उसने जन्म लिया, वो उसका पहला जन्म है।
स अब समस्या तो ये भी है कि लोगों के दिमाग में यही नहीं बैठता कि हम मुक्ति से लौटकर आए हैं। निश्चित रूप से आप जितने लोग यहाँ बैठे हैं, और जितनी जीवात्माएं संसार में हैं, वो सब की सब मुक्ति से लौटकर आयी हुई हैं, और सबको वापस वहीं जाना भी है।
स उस एक जन्म में तो मुक्ति नहीं हो सकती। सत्यार्थ प्रकाश का नवां समुल्लास (चैप्टर) पढ़िए। उसमें लिखा है, मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक जन्मों में? उत्तर दिया गया-अनेक जन्मों में। मुक्ति के लिए कई जन्म तक तपस्या करनी पड़ेगी। एक जन्म में पूरा जोर लगाने पर भी मोक्ष नहीं हो सकता, उसके लिए और जन्म लेने पड़ेंगे।
स और कितने जन्म लेने पड़ेंगे, वो हमारी और आपकी मेहनत की बात है, हमारे पुरुषार्थ, प्रगति की बात है। मोक्ष के लिए हम कितना परिश्रम करते हैं, कितना आलस्य करते हैं, यह उस पर आधारित है। उसमें पाँच जन्म लगें, या पचास भी लगें, पाँच हजार भी लगें, पाँच लाख भी लगें, पाँच करोड़ भी लगें, कितने भी लग सकते हैं। सबको बराबर काल लगेगा, ऐसा कोई नियम नहीं है।
स ‘सांख्य-दर्शन’ के चौंथे अध्याय में एक सूत्र है- ”न कालनियमो वामदेववत्।” अर्थात् काल (समय) का कोई नियम नहीं है, वामदेव ऋषि के समान। वामदेव ऋषि कई जन्मों से तपस्या करते चले आ रहे थे। अब इस जन्म में उन्होंने पिछली तपस्या आदि को भी साथ जोड़ लिया। इस जन्म में पूरा जोर लगाया और उनकी ‘मोक्ष’ प्राप्ति की योग्यता बन गई, उनको
‘समाधि’ प्राप्त हो गई। वामदेव ऋषि ने पूरा जोर लगाया, इसलिए वर्तमान जन्म में उनकी योग्यता बन गई।
स अब यह आवश्यक नहीं कि सब लोगों की योग्यता इसी जन्म में ही बन जाएगी। सबकी स्थिति अलग-अलग है, सबकी रुचि अलग-अलग है, सबकी योग्यता अलग-अलग है, सबके संस्कार अलग-अलग हैं, सबके वैराग्य अलग-अलग हैं, सबका पुरुषार्थ अलग-अलग है। इसलिए सबके लिए समान काल का नियम लागू नहीं है। कोई पहले, कोई पीछे।
मान लीजिए, अहमदाबाद से दिल्ली बहुत सारे लोग जा रहे हैं। सबके पास वाहन अलग-अलग प्रकार के हैं। कोई कार में जा रहा है, कोई स्कूटर पर चल रहा है, कोई बाइक पर जा रहा है, किसी के पास साइकिल है, कोई ट्रेन में जा रहा है, कोई विमान में जा रहा है, और कोई पैदल ही जा रहा है तो कोई पहले पहुँचेगा, कोई पीछे पहुँचेगा। जैसा जिनका साधन, वो उसी हिसाब से पहुँचेंगे। मोक्ष की भी यही बात है।
स यदि अच्छे कर्म करके किसी बु(िमान के यहाँ जन्म ले लिया, फिर आगे कर दिए घोटाले, फिर बुरे कर्म कर दिए, तो वापस नीचे। कूद जाओ वापस शूद्र परिवार में। और अधिक बुरे काम कर लिए, तो और नीचे जाओ, जैसे सुअर, बिल्ली बनो। फिर वहाँ जाके दंड भोगो। इस तरह से अप-डाउन, अप-डाउन चलता रहता है। यह सब कर्मों का फल है।
बड़ा आदमी, ऑफीसर बनकर रिश्वत लेता है, डकैती करता है, दूसरों को परेशान करता है और वो पकड़ा जाता है, तो उसको सस्पेंड भी तो कर देते हैं। फिर नीचे उतार देते हैं।
स अब पीछे पता नहीं, कितने जन्म हो गए, वो तो किसी को मालूम नहीं। हमको याद नहीं रहता, याद रखने की जरूरत भी नहीं। अब हम आज कहाँ खड़े हैं, ‘मोक्ष’ कितनी दूर है, हमारी ताकत कितनी है, हमारी योग्यता कितनी है, सामर्थ्य कितना है, उसको देखना है। उसको ध्यान में रखकर चल दीजिए। लक्ष्य की ओर बढ़ते रहिए, कभी न कभी तो वह हाथ में आएगा ही।
स दुःख से छूटने के लिये, मोक्ष प्राप्ति के लिए, और कोई मार्ग नहीं है। “न अन्यः पंथाः”, दूसरा कोई रास्ता नहीं है। मार्ग एक ही है। यही मार्ग है। अब आप इसको सरल कहो या फिर कठिन कहो, लंबा कहो, या छोटा कहो। जो भी है, हमारे सामने ही है। चलना इसी पर है। इस पर हम चलने का प्रयत्न करेंगे, तो पहुँच जाएंगे।

(267) शंका :- क्या कार्य में ‘भावना’ महत्वपूर्ण होती है, इससे ‘फल’ में अंतर आता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जी हाँ। दो व्यक्ति आपको एक जैसी क्रिया करते हुए दिखाई देंगे, लेकिन दोनों को फल एक जैसा नहीं मिलेगा, फल अलग-अलग होगा। बाह्य-क्रिया एक जैसी होगी, पर फल में अंतर होगा क्योंकि उनकी भावना में अंतर है।
एक सैनिक ने शत्रु देश के सैनिक को मार डाला और एक नागरिक ने दूसरे नागरिक को मार डाला। हत्या दोनों ने की। बाह्य-क्रिया दोनों घटनाओं में एक जैसी है। लेकिन क्या फल दोनों को एक जैसा मिलेगा? नहीं, अलग-अलग मिलेगा। सैनिक को ईनाम मिलेगा और नागरिक को दंड मिलेगा। दोनों में भावना का अंतर है। सैनिक की भावना है-देश की रक्षा करना और नागरिक की भावना है-अपने स्वार्थ के लिए मारना।
कर्म का फल केवल आपकी क्रिया पर ही आधारित नहीं है। क्रिया के साथ ‘भावना’ भी जुड़ती है, तब फल का निर्धारण होता है।
बाह्य-क्रिया एक जैसी होने पर भी अगर भावना में अंतर है, तो फल में अंतर आ ही जाएगा। सकाम-भावना से करोगे तो भिन्ना फल होगा और निष्काम-भावना से करोगे तो भिन्ना फल होगा। अक्षरधाम में जो घटना हुई उसमें क्या हुआ? सैनिकों ने आतंकवादियों को मार डाला। शत्रुओं (आतंकवादियों) को मारना, यह देश की रक्षा का काम है। इसमें निःसंदेह सैनिकों को पुण्य मिलेगा। नियम है कि- बड़े से बड़ा काम भी अगर बुरे लक्ष्य के लिए किया जाए, तो ससांर उसे कोई महत्त्व नहीं देता है।

(268) शंका :- शंका- मोक्ष की इच्छा एक कामना है, ‘मोक्ष की कामना’ से किया हुआ निष्काम-कर्म सकाम हो सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

पूछना शायद ऐसा चाहते हैं कि मोक्ष की कामना भी तो एक कामना है? यदि मोक्ष की कामना से कर्म किया गया, तो फिर वह निष्काम-कर्म कैसे हुआ? कामना तो उसमें भी है। उत्तर हैः-
स महर्षि दयानंद जी ने )ग्वेदादि भाष्य भूमिका में परिभाषा लिखी है कि – ”परमेश्वर प्राप्ति या मोक्ष प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर जो कर्म किए जाते हैं, उसका नाम ही निष्काम कर्म है।”
स बिना कामना के तो कर्म हो ही नहीं सकता, वह असंभव है। व्यक्ति जो भी क्रिया करता है, वो कामनापूर्ण ही होती है। यह बात ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखी है। कामना तो जरूर है।
स कामनाओं में अंतर है। अगर लौकिक-सुख की कामना से किया तो वह सकाम-कर्म है और मोक्ष सुख की कामना से कर्म किया तो निष्काम-कर्म है। ऐसा जानना चाहिए।

(269) शंका :- शुभ कर्म निष्काम भावना से किस प्रकार किए जाते हैं? किराने का व्यापारी अपनी दुकानदारी निष्काम-भावना से किस प्रकार कर सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

जो कर्म ‘भौतिक-सुख’ की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं, वे ‘सकाम-कर्म’ होते हैं। और जो कर्म ‘मोक्ष-सुख’ की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं, वे ‘निष्काम-कर्म’ होते हैं।
स सवाल है कि किराने का व्यापारी अपनी दुकान पर जो सामान बेचता है, वो धन कमाने के लिए बेचता है, या मोक्ष प्राप्ति के लिए बेचता है? निःसंदेह धन की प्राप्ति के लिए। तो उसका यह सकाम-कर्म हुआ।
स सकाम कर्म ‘कंडीशनल कर्म’ हैं। मतलब, इतना रुपया दोगे, तो माल देंगे, इतना रेट नहीं दोगे, तो माल नहीं देंगे। आप इतनी फीस दोगे तो पढ़ाएंगे, नहीं दोगे तो नहीं पढ़ाएंगे, यह सकाम-कर्म है। हमारा उद्देश्य धन कमाना है, फीस लेना है। इस तरह अगर ट्यूशन फीस लेते हैं, तो वो सकाम-कर्म है।
स अगर फ्री में पढ़ाते हैं, तो निष्काम-कर्म हैं। हम क्यों फ्री में पढ़ा रहें हैं, क्योंकि हमको मोक्ष चाहिए, धन की चिंता नहीं है। जीने के लिए भगवान दो रोटी देता है, यही बहुत है। अब तक जीवन जी लिया, आगे भी जी लेंगे। भगवान खूब दे रहा है, आगे भी दे देगा। धन के लिए काम नहीं करना है, सम्मान के लिए काम नहीं करना है, भौतिक सुख के लिए काम नहीं करना है। अगर मोक्ष की प्राप्ति के लिए काम कर रहे हैं तो यह ‘निष्काम-कर्म’ है।
स इसलिए व्यापारी आदि जो लोग हैं, वे तो सकाम-कर्म ही कर पाएंगे, निष्काम-कर्म तो नहीं कर पाएंगे। ऐसा तो नहीं कर पाएंगे कि सामान रखा है, जिसको लेना है, ले जाओ। जितना धन रखना है, रख जाओ। ऐसे तो दुकान नहीं चल पाएगी।
स व्यापार आदि में निष्काम-कर्म करना कठिन है। हाँ, विद्या पढ़ाने में निष्काम-कर्म हो सकता है। विद्या पढ़ाने में कोई हिम्मत वाला ऐसा हो कि कहे -”अच्छा भई, आओ बैठो, पढ़ाएंगे। जिसको कुछ देना हो, तो दे देना, नहीं देना हो, तो मत देना, कोई कंडीशन नहीं है, कोई फीस नहीं है।” उसमें तो चल सकता है।
स अगली बात-व्यापारी ने पैसे कमा लिए सौ रुपये। उसमें से तीस-चालीस रुपए खा-पी लिए, खर्च कर लिए, तीस-चालीस रुपए भविष्य के लिए जमा कर दिए। अब दस-बीस रुपए बच गए, इन्हें वह दान दे दे। इस प्रकार दिया गया दान भी निष्काम-कर्म हो सकता है।
स पूछा है कि गृहस्थ व्यक्ति निष्काम-कर्म कैसे करे? वो इस तरह से कर सकता है। कमाने के बाद जो पैसा दान में देगा, वो सकाम और निष्काम दोनों हो सकता है। यदि वो विद्यालय के लिए दान देते समय कहता है – ”साहब ! मेरे नाम का पत्थर लगाओ। यहाँ लिखो कि मैंने सवा लाख रुपये दान दिया।” तो वह सकाम-कर्म हो जाएगा। और अगर वह कहता है-” मेरा नाम नहीं लेना, बताना भी नहीं, बोलना भी नहीं, लिखना भी नहीं, कुछ नहीं, चुपचाप गुप्तदान”। तो वह निष्काम-कर्म हो जाएगा।
एक मजे की बात बताऊँ – एक व्यक्ति की दोनों तरह की स्थिति थी। मतलब कुछ सकाम, कुछ निष्काम। गुरुजी ने उपदेश दिया – ”भई निष्काम-कर्म करो, मोक्ष में जाएंगे।” यह सुनकर उसने सौ रुपये दान दिया और पर्ची लिखवा दी, गुप्तदान। एनाउंसमेंट होने लगी। माइक पर आवाज आई, सौ रुपये गुप्तदान आया है। जिसने सौ रूपये दिये थे, वो पीछे बैठा था। उसने अपने पड़ोसी से कहा – ”तुम्हें पता है, यह सौ रुपये गुप्तदान किसका है? यह मेरा गुप्तदान है।” इस तरह वो बताना भी चाहता है और गुप्त भी रखना चाहता है। ये बात मिश्रित (मिक्सड) है, न तो पूरी तरह सकाम और न ही निष्काम।
स निष्काम-कर्म का अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि, ‘जिस कर्म को करने के पीछे कुछ भी कामना न हो।’ कुछ न कुछ कामना तो मन में रहेगी ही। दरअसल, दुनिया में सर्वथा-निष्काम कोई भी नहीं हो सकता। मतलब, ऐसा कोई कर्म हो ही नहीं सकता, और कोई व्यक्ति ऐसा कर्म कर ही नहीं सकता कि जिस कर्म के पीछे मन में कोई भी कामना न हो। वस्तुतः कोई न कोई कामना तो जरूर होगी। व्यक्ति को दो में से एक तो चाहिए, या तो मोक्ष चाहिए, या संसार का सुख चाहिए।
स अगर कोई व्यक्ति यह चाहता है कि मैं कुछ भी कामना न करूँ। फिर तो वो काम ही नहीं करेगा। जब इच्छा ही नहीं है, तो काम क्यों करेंगे? सुबह बिस्तर पर पड़े रहेंगे, उठेंगे ही नहीं। व्यक्ति सुबह उठता है, फिर नहाता-धोता है, रोजमर्रा के सारे काम करता है, फिर देश की सेवा करता है, धर्म करता है, प्रचार करता है, व्यापार करता है, लेन-देन करता है। इच्छा चाहे भौतिक-सुख की हो, चाहे मोक्ष-सुख की हो, लेकिन कोई न कोईं इच्छा मन में जरूर होगी।
स महर्षि मनु जी कहते हैं कि – यह ‘आँख झपकाना’ भी बिना इच्छा के संभव नहीं है। इतना सामान्य सा कार्य है, जब यह भी बिना इच्छा के नहीं होता, तब अन्य कार्यों (यज्ञ करना, दान देना, व्यापार करना आदि कर्मों) में पूर्ण-निष्कामता (इच्छाहीनता) कैसे संभव है?
स यदि केवल मोक्ष की इच्छा से आपने अच्छे कर्म किए हैं तो वे ही ‘निष्काम कर्म’ की श्रेणी में आएंगे। मोक्ष वाले कर्म न तो बुरे होते हैं और न मिश्रित। वे तो केवल शु( ही होते हैं, शुभ कर्म ही होते हैं।
स भौतिक सुख की इच्छा से, चाहे आपने अच्छे कर्म किए, चाहे बुरे किए, चाहे मिश्रित किएऋ तीनों प्रकार के कर्म सकाम-कर्म कहलाएंगे। इस तरह सकाम कर्म तीन प्रकार के यानी अच्छे, बुरे और मिश्रित होते हैं।
अतः टोटल चार तरह के कर्म हुए, एक तो निष्काम कर्म, जो शु(, शुभ कर्म, अच्छे कर्म होते हैं और तीन प्रकार के सकाम कर्म, जो शुभ, अशुभ और मिश्रित होते हैं।

(270) शंका :- अन्यायपूर्वक मिले दुःख या हानि की ईश्वर क्षतिपूर्ति करता है। जैसे सेठ के यहाँ चोर ने चोरी की, इस अन्याय की क्षतिपूर्ति ईश्वर सेठ को किस प्रकार करेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

भगवान कैसे पूर्ति करेगा, कहाँ करेगा, कब करेगा, वो हम नहीं जानते। यह बात हमारी समझ में नहीं आई।
स कर्मफल तो इतना विचित्र है कि इसको कोई भी मनुष्य पूरा-पूरा नहीं जान सकता। व्यक्ति उसे बहुत मोटा-मोटा ही जान सकता है।
ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था, ‘न्याय-व्यवस्था’ बड़ा विस्तृत और जटिल विषय है, सूक्ष्म विषय है। बड़े-बड़े )षि-मुनियों ने इस विषय पर बहुत चिन्तन किया, बहुत मनन किया और कुछ बातें जो उनको समझ में आई, वो उन्होंने बताई। फिर आगे चलकर के उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिये कि- ”भई अपने बस का नहीं है, यह बहुत कठिन है। इसको कोई भी नहीं समझ सकता।”
स इतना जरूर निश्चित है कि जो भी क्षति हुई, जो भी नुकसान हुआ, उसकी पूर्ति तो मिलेगी, इसमें कोई शंका नहीं है। इस बात को एक उदाहरण से समझेंगेः-
एक सेठ के यहाँ चोरी हुई। पुलिस पीछे लग गई। चोर पकड़ा गया और चोरी में जो सामान गया था, वह सामान भी मिल गया। अब न्याय करना है, तो दो पात्र हैं हमारे सामने, एक तो सेठ और एक चोर। सेठ के यहाँ चोरी हुई, चोर ने चोरी की। अब दोनों के साथ न्यायाधीश कुछ न कुछ व्यवहार करेगा। चोर को तो न्यायाधीश जेल में डाल देगा। और जो चोरी का माल बरामद हुआ था, वो माल सेठ साहब को वापस मिलेगा। तभी तो इसे न्याय कहेंगे। यह जिम्मेदारी सरकार की और न्यायाधीश की है। अगर चोरी का माल सरकारी खजाने में चला जाए, तो सेठ कहेगा- ”साहब, मेरे साथ तो न्याय नहीं हुआ। मेरी तो संपत्ति व्यर्थ में चली गई।”
स भगवान तो पूर्ण न्यायकारी है। आप भी ईश्वर को न्यायकारी मानते हैं न। तो आपकी जो क्षति हुई, वो ईश्वर पूरी नहीं करेगा क्या? न्याय का नियम है कि जो क्षति हुई, उसकी पूर्ति तो मिलनी ही चाहिए। तभी तो न्याय होगा। नहीं तो फिर, अंधेर नगरी चौपट राजा। न्याय तो तभी होता है कि जो सामान चुराया गया है, वह वापस मिले। ईश्वर भी न्यायकारी है, जिसका जो भी नुकसान हुआ, ईश्वर उसकी पूर्ति करेगा। कब करेगा, कहाँ करेगा, कैसे करेगा, यह वही जाने, यह हम नहीं जानते।

(271) शंका :- क्या वेदों में नाचने (डांस) का विधान है? अगर है, तो किसलिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वेद में सिर्फ इतना नहीं लिखा कि सारे बस मोक्ष में ही जाओ। वेद में ऐसा नहीं लिखा कि डांस मत करो, धंधा भी मत करो। वेद में सब विहित कर्मों का विधान है अर्थात् नौकरी करो, व्यापार करो, खेती करो, उद्योग-धंधे चलाओ, फैक्ट्रियाँ चलाओ, कारखाने चलाओ, विद्वान बनो, राजा बनो, क्षत्रिय बनो, साइंटिस्ट बनो, पायलट बनो, शादी करो, बच्चे पैदा करो, उनका पालन करो, विद्वान बनाओ, उनको देशभक्त बनाओ, ईमानदार बनाओ और गीत भी गाओ, संगीत बजाओ और डांस भी करो।
स इन सारे कार्यों को करो, पर इनकी सीमाएं हैं और विकल्प (ऑप्शन) हैं। जिसको यहाँ संसार के सारे सुख लेने हों, वो संसार का सुख ले और जिसको मोक्ष में जाना हो, वो मोक्ष में जाए। दोनों के लिए अलग-अलग विकल्प हैं। सबके लिए सारे काम अनिवार्य (कम्पलसरी) नहीं हैं। जिसकी डांस करने की इच्छा नहीं है, उस पर थोपा-थोपी नहीं है कि तुम्हें डांस करना ही पड़ेगा। जिसकी मोक्ष में जाने की रुचि नहीं, तो उसके लिए भी कोई जबरदस्ती नहीं है कि तुमको मोक्ष में जाना ही पड़ेगा। आपकी इच्छा है, मत जाओ।
स डांस करने की भी सीमा है। अपने जो प्राचीन भारतीय नृत्य होते थे – शास्त्रीय नृत्य, उनकी परंपरा अभी भी कुछ बची हुई है। जैसे कि कत्थक कली, भरत नाट्यम। इस तरह के जो शास्त्रीय नृत्य (क्लासिकल डांस) होते हैं, वो अच्छे होते हैं। उनकी तो वेदों में छूट है। ऐसे डांस कर सकते हैं। उसमें सभ्यता भी होती है, शरीर भी अच्छी तरह से ढका होता है, कपड़े भी ठीक पहने होते हैं और अच्छी सुंदर व्यवस्था भी होती है। सब अच्छी तरह से करते हैं, वो अच्छा लगता है।
स जिसकी अभी मोक्ष में रुचि नहीं है, जिसको वैराग्य नहीं हुआ, तो वह अपना टाइमपास कैसे करेगा? उसको अपना टाइमपास करने के लिए मनोरंजन चाहिए। वो अच्छे गीत गाए और अच्छे डांस करे।
स वेस्टर्न वाले डांस नहीं। ऐसे उल्टे-सीधे, वो हड्डियाँ-वड्डियाँ तोड़ के करते हैं, वैसा ब्रेक-डांस नहीं करना। उससे मन, बु(ि खराब होती है।
स जो अपने भारतीय ढंग के डांस हैं, वे अच्छे हैं। उससे चित्त शु( रहता है। अपने भारतीय संगीत हैं, शास्त्रीय संगीत (क्लासिकल म्यूजिक) हैं। जिनमें राग-भैरवी, बागेश्वरी और इस प्रकार अच्छे-अच्छे मालकौंस आदि राग हैं, वे सब गा सकते हैं। उनमें भी प्रधानता ईश्वर-भक्ति की रहनी चाहिए। भरतनाट्यम्, कत्थककली और दूसरे कुच्ची-पुड़ी आदि भारतीय डांस होते हैं, इनमें बहुत सारी ईश्वर उपासना की बातें होती हैं। इनमें बहुत सारी धार्मिक लोककथाओं के माध्यम से ईश्वर-भक्ति का मंचन होता हैं अर्थात् भरतनाट्यम् आदि डांस में जो हाव-भाव दिखाए जाते हैं, वे हमें ईश्वर की ओर श्र(ा-भक्ति उत्पन्ना करते हैं। वे पश्चिमी नृत्यों की तरह काम-वासना को नहीं जगाते। इसलिए जिनकी डांस में रुचि हो, वे ऐसे अच्छे डांस कर सकते हैं।

(272) शंका :- ईश्वर ने मनुष्यों और अन्य प्राणियों को सुख- दुःख भोगने के लिए जन्म दिया है। ऐसा क्यों है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इसका समाधान है किः-
स सुख-दुःख भोगने के लिए मनुष्यों को संसार में ईश्वर ने जन्म दिया है। जन्म हमारे सकाम कर्मों का फल है। हम पर भगवान ने कुछ थोपा नहीं है। पुण्य कर्म किए हैं तो सुख भोगो। पाप कर्म किए हैं तो दुःख भोगो। निष्काम कर्म किए हैं, तो मोक्ष में जाओ।
स भगवान कब कहता है, कि आप संसार में पड़े रहो। भगवान कहता है – निष्काम कर्म करो, मोक्ष में जाओ। क्यों बार-बार संसार में जन्म लो?
स संसार में नहीं, मोक्ष में रहना ‘बु(िमत्ता’ है। क्योंकि मोक्ष में सुख मिलता है। यहाँ संसार में दुःख मिलता है। इसलिए जितना जल्दी हो सके, मोक्ष में जाओ। योगी समाधि में थोड़ी देर के लिए सुख भोगते हैं। लेकिन इस शरीर से पीछा छुड़ाना चाहते हैं, इसलिए बैठकर समाधि लगाते हैं।
स यहाँ एक व्यक्ति ने पूछा – संसार मे रहना अच्छा है। संसार में तो हम काम करते हैं। मोक्ष में निकम्मे बैठकर क्या करेंगे? तो मैंने कहा- मोक्ष में काम नहीं करना है। वहाँ मौज-मस्ती करनी है। इसे निकम्मापन नहीं कह सकते। मोक्ष वास्तव में छुट्टियाँ मनाने का अवसर है।
संसार में रहते हुए, पता नहीं कितने जन्म हो गए। यहाँ रहते-रहते इतने लाखों-करोड़ों साल हो गए। थक गए, बोर हो गए। इसलिए अब इससे मुक्ति चाहिए। इसे इस तरह समझिए-
आप पाँच दिन काम करते हैं, तो दो दिन छुट्टी क्यों मनाते हैं? उसे आप निकम्मापन कहते हैं क्या? विदेशों में फाइव डेज वीक होता है। अपने यहाँ छह दिन काम करते हैं, एक दिन छुट्टी मनाते हैं। तो क्या छुट्टी को निकम्मापन कहेंगे? नहीं, वो निकम्मापन नहीं है। वो फ्रेश होने के लिए जरूरी है। आप सातवें दिन, आठवें दिन काम नहीं कर सकते। छह दिन आदमी काम कर-करके थक जाता है। एक दिन छुट्टी मनाने को चाहिए। मौज मस्ती करो, फ्रेश हो जाओ, आठवें दिन काम करेंगे।

(273) शंका :- मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम-कृति है। वह इस संसार में रहते हुए मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करता है। तब ‘यह संसार मूढ़ व्यक्ति के लिए है’ यह बात कैसे उचित हुई?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

ये दो अलग-अलग बातें हैं। प्रश्नकर्ता ने इन दोनों को मिला दिया है। इस संसार में मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। यह एक अलग बात है, अलग प्रसंग है।
स गाय, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, सुअर, मक्खी आदि की तुलना में मनुष्य सबसे उत्तम है, यह बात ठीक है। इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
स अब दूसरी बात देखिए कि- क्या मनुष्य पूरी तरह से सुखी है ? सारी पृथ्वी पर राज्य करने वाला कोई चक्रवर्ती राजा ही क्यों न हो, चाहे बुश जैसा हो या बिलगेट्स जैसा हो, चाहे कितना ही बलवान हो, कितना ही प्रतिष्ठित हो, क्या वो पूरी तरह सुखी है? नहीं है न।
स क्या मनुष्य सब दुःखों से छूट गया है? नहीं। जो भी मनुष्य शरीरधारी है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ दुःख उसको भोगने ही पड़ते हैं।
स अब आपको यह सुनकर बड़ा आश्चर्य होगा कि ‘संसार में रहना कोई बु(िमत्ता नहीं है।’ क्यों नहीं है, समझ लीजिए। क्या दुःख भोगना बु(िमत्ता है या सुख भोगना? सुख भोगना बु(िमत्ता है। और क्या संसार में सुख मिलता है? नहीं। संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह सुखी हो। इसका अर्थ हुआ कि – पूर्ण बु(िमान तो कोई हुआ ही नहीं। तो बताओ, संसार में रहना बु(िमत्ता कैसे हुई!
स संसार में दुःख मिलता है। दुःख भोगना बु(िमत्ता नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि – ”यह संसार मूढ़ व्यक्तियों के लिए है।” क्योंकि जिसने संसार में जन्म लिया, उसने कुछ न कुछ दुःख भोगा ही है। दुःख भोगना ही पड़ेगा। उसने संसार में जन्म लेकर दुःख भोगा है, तो इसका मतलब हुआ कि अभी उसमें कुछ न कुछ मूढ़ता अर्थात कुछ अविद्या बाकी है।
स अविद्या को मारने के लिए ही हमें मनुष्य जन्म मिला है। मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, तो समाधि लगाओ, शास्त्र पढ़ो, समाज की सेवा करो, निष्काम कर्म करो और मोक्ष में जाओ। संसार मे पड़े-पड़े दुःख मत भोगो।
जो अपनी अविद्या को यहाँ पर मार डालता है, उखाड़ देता है, फिर वह पूर्ण बु(िमान हो जाता है। फिर उसकी मुक्ति हो जाती है। जब मुक्ति हो जाती है, तो वो इस दुःखमय संसार से छूट गया।
स मुक्ति में उसको शाश्वत सुख मिलता है। मनुष्य अविद्या को यहाँ पर उखाड़ कर पूर्ण बु(िमान होकर मोक्ष में जाकर पूर्ण सुख भोगता है।
स और जो संसार में बाकी बच गए, वो मूढ़ बार-बार जन्म लेकर दुःख भोगेंगे। इन मूढ़ व्यक्तियों में से जो बु(िमान हो जाता है, वह संसार में जन्म नहीं लेना चाहता, मुक्ति में जाता है। इसलिए कहा जाता है कि संसार मूढ़ व्यक्तियों के लिए है, बु(िमानों के लिए नहीं है। संसार में जन्म लिया अर्थात् अभी मूढ़ता बाकी है। उसको दूर करना है। यही तो मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।

(274) शंका :- आत्मा हाड़-मांस से बने इस शरीर में रहना क्यों पसंद करती है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा को अविद्या के कारण यह हाड़-मांस का शरीर बहुत अच्छा लगता है। जब उसे समझ में आ जाता है तो उसकी अविद्या दूर होनी शुरु हो जाती है। जब अविद्या दूर हो जाती है तो आत्मा इस शरीर में नहीं रहना चाहती। प्रश्न उठता है कि कहाँ जाना चाहती है? उत्तर यह है, फिर ‘मोक्ष’ में जाना चाहती है।
असंपादकीय टिप्पणी-अठारहवें कठिन प्रश्न और उसके उत्तर को समग्र रूप से समझने के लिए इस संसार में मौजूद शरीर, दौलत, शोहरत, परिधान और कोठी आदि सब चीजों को विद्या-अविद्या के दृष्टिकोण से देखना पड़ेगा। इन्हें विवेकपूर्वक देखने से यह ज्ञात होगा कि-तकरीबन सब के सब लोग इन शरीर, शोहरत आदि चीजों को हासिल करने के पीछे लगे हुए हैं, और इनके पीछे लगने की वजह से इन व्यक्तियों के पीछे दुःख लगा हुआ है। और एक दुःख नहीं, बल्कि एक के पीछे दूसरा, और दूसरे के पीछे तीसरा दुःख लगा हुआ है। आइए, इसे समझेंः-
स पहली बात यह है कि – प्रथम दुःख तो इस ‘अनित्य-संसार’ के ‘अस्थायी’ रहने का ‘दुःख’ है। वस्तुतः यह अपनी हरेक पसंदीदा चीजों के ‘बदलने’ और ‘न रहने का’ दुःख है।
इसके बाद इन ‘अस्थायी-चीजों’ से ‘लगातार’ सुख न मिलने का ‘दुःख’ और लगातार सुख लेने के प्रयास में लगे रहने पर उनसे ‘ऊबने’ का ‘दुःख’ है।
इस दुःख की वजह यह है कि – सभी सांसारिक वस्तुओं से सुख मिलना थोड़ी देर के बाद बन्द हो जाता है। इसके बाद आगे उस वस्तु के सम्पर्क से व्यक्ति ऊबने लगता है। यह तो ‘अनित्यता’ की वजह से सांसारिक वस्तुओं से मिलने वाले दुःख की चर्चा हुई।
स दूसरी बात यह है कि- सभी सांसारिक वस्तुओं को कमाने, उन्हें खर्च करने (भोगने), उनकी रक्षा करने और उनकी बढ़ोत्तरी करने का जो काम किया जाता है, वह मेहनत भी कष्टदायक होती है। ‘मेहनत’ करने से ‘कष्ट’ मिलता है। मेहनत चाहे शारीरिक हो या मानसिक, सबको कष्ट देती है।इसी तरह सांसारिक वस्तुओं की ‘अशु(ता’ के कारण ‘दुःख’ मिलता है। जैसे – मनुष्य शरीर के पसीने, मल आदि से निकली बदबू आदमी को दुःखी कर देती है।
सुखदायक वस्तुओं का भोग करने से राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक ‘क्लेश’ पैदा होते हैं। और उनसे फिर हिंसा, झूठ आदि वितर्क पैदा होते हैं। व्यक्ति इन्हें ‘हितकर’ मानकर ग्रहण करता है।
इन राग, द्वेषादि क्लेशों से और हिंसादि वितर्करें से उसे ‘हानि’ होती है। उस हानि से उसे इस जीवन में ‘दुःख’ मिलता है। साथ ही उनसे जाति, आयु और भोग रूपी ‘दुःख’ भी मिलता है। जाति यानी संसार में ‘जन्म’ लेने से फिर दोबारा आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक ‘दुःख’ मिलता है। यह सारे दुःख संसार की, सांसारिक वस्तुओं की ‘अशु(ता’और ‘अहितकरता’ के कारण से मिलने वाले दुःख हैं।
स तीसरी बात यह है कि – अर्जित किए गए अनित्य और अशु( सांसारिक भोगों में सुख लेने के कारण भोगों में अतृप्ति होती है। इस ‘अतृप्ति’ से ‘दुःख’ महसूस होता है। फिर इस अतृप्ति के कारण उस भोग को और ज्यादा मात्रा में भोगने की इच्छा होती है। उस ‘बढ़ी हुई इच्छा’ की मौजूदगी से भी ‘दुःख’ प्राप्त होता है, और उस बढ़ी हुई इच्छा की ‘पूर्ति न होने से’ भी ‘दुःख’। यह दुःख ‘परिणाम दुःख’ कहलाता है। इन सुखदायक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहने पर भी कई बार उनकी प्राप्ति में कोई न कोई बाधा आ जाती है तो इस ‘अड़ंगे’ के आने पर व्यक्ति ‘दुःखी’ हो जाता है। यह दुःख ‘ताप दुःख’ कहलाता है।
चूँकि सारा संसार अनित्य है, इसलिए संसार की कोई भी चीज चाहे वह सजीव हो या निर्जीव या दूसरे से बने हमारे संबंध, चाहे वे पारिवारिक हों या व्यावसायिक, वे सब के सब स्थायी नहीं हैं। इसलिए हमें जो सुख और सुख-साधन पहली बार मिला, वही आगे भी मिले, यह जरूरी नहीं है। ‘सुख के दोबारा न मिलने’ पर ‘दुःख’ यानी उससे वंचित होने पर फिर दुःख मिलता है। इस प्रकार के दुःख को ‘संस्कार दुःख’ कहते हैं।
एक वस्तु के प्रति परस्पर दो तरह के विचार मन में पैदा होने के कारण, ‘विरोधी विचारों’ की वजह से अर्न्तद्वन्द्व या मतभिन्नता होने से हमें ‘दुःख’ होता है। इसे ‘गुण वृत्ति विरोध’ दुःख कहते हैं। यह तीसरे प्रकार की अविद्या यानी ‘दुःख को सुख मानने’ से प्राप्त होने वाले दुःख हैं।
स चौथी बात यह है कि – जो पत्नी, पुत्र, रिश्तेदार, धन, सम्मान, मकान आदि वस्तुएं हमारी आत्मा का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें अपनी आत्मा का हिस्सा मानकर, उनके नष्ट होने पर व्यक्ति अपने आत्मा को ‘नष्ट’ व ‘लुटा-पिटा’ मानकर ‘दुःखी’ होता रहता है।
इतना ही नहीं, अपने माने गये इन पुत्र आदि संबंधियों के पुत्र, पौत्रों, और उनके पास में मौजूद धन-सम्पत्ति और मान-प्रतिष्ठा आदि को भी वह अपना मानता है। जब उनके पुत्र, धन आदि नष्ट होते हैं तो उनके साधनों को अपने साधन मानने वाला वह व्यक्ति ‘पराए के लुटने’ को अपना लुटना मानकर, ‘दुःख’ मनाता है। यह चौथी अविद्या यानी ‘अनात्मा को आत्मा’ मानने के कारण उत्पन्ना होने वाला दुःख है।
स पाँचवी बात यह है किः- जीवात्मा ‘अविकारी’ यानी ‘अपरिणामी’ होने से उसकी मूल स्थिति में कभी भी कोई ‘बदलाव नहीं’ होता है। आत्मा तो दूर से ही सुख व सुखदायक वस्तु को देखता भर है, उसका ज्ञान-मात्र प्राप्त करता रहता है, पर वह उसे अपने अन्दर बिल्कुल भी नहीं लेता है।
इस प्रकार जो भी सुखदायक वस्तु का हम सेवन कर रहे हैं, वह वस्तु तो ज्ञान-इन्द्रिय तक, और उस वस्तु का ज्ञान केवल बु(ि तक आकर के बाहर ही वहीं पर रुक जायेगा। वहाँ से आत्मा के भीतर जाकर नहीं घुसेगा। आत्मा केवल उसे दूर से देखेगा।
यह जो दूध, घी, मिठाई, फल आदि हम खा रहे हैं। इनका कुछ भी हिस्सा हमारी आत्मा में नहीं जाता है। सुख का कोई
साधन या उससे मिलने वाला सुख आत्मा में कुछ भी संग्रह नहीं होता है। अब चाहे एक किलो दूध पी लो या आधा किलो, एक गुलाबजामुन खा लो या फिर दस खा लो, सुन्दर रूप देख लो, पसंदीदा गाना सुन लो, आत्मा में तो कुछ नहीं घुसने वाला। इनको खाने-देखने से आत्मा जरा भी मोटी-ताजी नहीं होगी।
अगर वह सुखद वस्तु या उसका सुख आत्मा से जुड़ जाता तो आत्मा में सदा आनंद बना रहता, पर वह पदार्थ आत्मा में नहीं घुसता, मिश्रित नहीं होता। यही वजह है कि सुखदायक वस्तु से हमारा सम्पर्क खत्म होते ही उससे मिलने वाला आनंद भी समाप्त हो जाता है।
लौकिक सुख-दुःख, हानि-लाभ जो होते हैं, वे हमारी बु(ि में घटित (चित्रित) हो रहे होते हैं। लेकिन व्यक्ति उसे अपनी आत्मा में घटित मानता है। इसलिए सुखद विषय-वस्तु में मौजूद सारे गुण उसे अपने लगने लगते हैं। इसलिए व्यक्ति जब खीर आदि पदार्थों को खायेगा तो महसूस करेगा कि यह जो खीर वह खा रहा है, वह मेरी आत्मा में प्रविष्ट हो रहा है। वह मानने लगता है कि – इसका सुख मेरे अन्दर यानी मेरी आत्मा के अन्दर पहुँचकर, मेरे अन्दर ही मुझे अनुभव हो रहा है। सोचता है – यह सुख मेरे भीतर ही है। तब वह बु(ि में सुख आया न बोलकर, आत्मा में सुख आया बोलता है। इस प्रकार वह बु(ि के विकार को आत्मा का विकार मान कर झूठ-मूठ सुखी-दुःखी होकर अपनी सारी जिन्दगी बिता देता है।
मरते समय जब शरीर और सुख-साधन छूट कर आत्मा से अलग हो जाते हैं तो उसे पता चलता है कि ”सुख और सुख-साधनों के घटने-बढ़ने से मैं आत्मा छोटा-बड़ा, सुखी-दुःखी नहीं होता हूँ।”
इस प्रकार संसार के चक्कर में पड़कर जीवात्मा सब तरफ से लुट-पिटकर लक्कड़ जैसा हतप्रभ खड़ा रह जाता है, भौंचक्का रह जाता है।
इतनी भूमिका को जानकर आइए, अब अगली शंका को समझने की ओर रुख करें :-

(275) शंका :- स्व-स्वामी संबंध अर्थात् मैं इस शरीर का स्वामी नहीं हूँ। यह बात तो ठीक है, लेकिन मैं अपने मन का स्वामी हूँ, यह कैसे ठीक हुआ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

स्वामी’ का एक अर्थ होता है ‘मालिक’। जबकि दूसरा अर्थ होता है – कार्य में उपयोग करने का अधिकारी, यानि ‘ऑपरेटर’। एक होता है – ‘ऑपरेटिंग राइट’ और दूसरा होता है – ‘ओनिंग राइट’। मालिक होना और कार्य का अधिकारी होना, इन दोनों में बहुत अंतर है।
स एक सेठ ने बहुत बड़ी फैक्ट्री लगाई। बहुत सारे श्रमिक, कुछ क्लर्क, कुछ ऑफीसर और एक मैनेजर रख लिया। उस प्रबंधक (मैनेजर) को यह अधिकार दे दिया कि यह तुम्हारा ऑफिस है, यह मोटर-गाड़ी है, यह टेलीफोन है, यह स्टेशनरी है, यह फर्नीचर है, तुम इन सबका उपयोग करो। हमारी फैक्ट्री का प्रबंधन करो।
जिस सेठ ने फैक्ट्री लगाई है, वह उसका मालिक है। और जो उसका सहायक है, प्रबन्धक है, वो है उसका ‘ऑपरेटिंग मैनेजर’। वो केवल उन वस्तुओं का प्रयोग करने का अधिकारी है।
वास्तव में वो प्रबंधक उनका मालिक नहीं है, लेकिन उसको अधिकार दिया गया है कि वो इन सब चीजों का फैक्ट्री के प्रबंध के लिए प्रयोग कर सकता है। जैसे उन सारी चीजों का असली मालिक तो सेठ है। उसी ने सारा प्रबंध करके, फैक्ट्री सेटअप करके, ऑफिस बनाकर के मैनेजर को दिया। ठीक उसी प्रकार से जब यह कहा जाता है कि ‘मैं इस शरीर का मालिक नहीं हूँ’ तो इसका अर्थ है कि ”मैं सेठ की तरह नहीं हूँ, बल्कि उस मैनेजर की तरह हूँ।”
जब यह कहा जाता है कि ”मैं अपने मन रूपी साधन का स्वामी हूँ,’ तब भी अर्थ वही है, कि ‘मैं आत्मा नामक मैनेजर, मन का प्रयोग करने का अधिकारी हूँ।” तो प्रश्न हुआ – कि फिर सेठ कौन है? उत्तर- ईश्वर। सेठ ने फैक्ट्री लगाकर मैनेजर को प्रबंधन करने के लिए दी। ऐसे ही ईश्वर ने हमें शरीर, मन आदि बनाकर प्रयोग करने के लिए दिए।
जब बाहर का कोई दूसरा आदमी ऑफिस में कुर्सी तोड़ने लगता है, तब मैनेजर कहता है – ”ऐ! कुर्सी मत तोड़ना, यह मेरी कुर्सी है।” वो किस अधिकार से ऐसा कह रहा है? वो ऑपरेटिंग मैनेजर है, इसलिए ऑपरेट करने के अधिकार का प्रयोग कर रहा है। वह उपयोग करने का मालिक है, वास्तव में मालिक नहीं है। जैसे मैनेजर उस ऑफिस की वस्तुओं का अपनी इच्छानुसार प्रयोग करता है। इसी प्रकार से यह जीवात्मा आपरेटिंग मैनेजर है। इसलिए वो सब उपयोग करेगा, क्योंकि उसका अधिकार ईश्वर ने जीवात्मा को दिया है। मालिक यानि ईश्वर के अभिप्राय के अनुसार ही, वो इन सब चीजों का प्रयोग करेगा। दोनों वाक्यों का तात्पर्य एक ही है। दोनों परिस्थितियों में स्मरण रहे कि हम इन वस्तुओं का प्रयोग करने के अधिकारी हैं। लेकिन हम इसके असली मालिक (ओनर) नहीं हैं।

(276) शंका :- रेलगाड़ी और शरीर दोनों ही जड़ पदार्थ हैं। शरीर की वृ(ि होती है, गाड़ी की वृ(ि क्यों नहीं होती?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

शरीर की वृ(ि इसलिए होती है कि उसमें चेतन’आत्मा’ है। गाड़ी में आत्मा है नहीं, इसलिए उसकी वृ(ि नहीं होती है। गाड़ी में इंजन होता है, वह भी जड़ (चेतना-रहित) है।

(277) शंका :- क्या सोचने में दोष होने से, व्यक्ति सुख से जीना चाहने पर भी, सुख से नहीं जी सकता?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हाँ, यह बिल्कुल ठीक बात है। अगर सोचने में दोष है, सोचना ठीक से नहीं आता तो आप कितना ही सुख से जीना चाहें, इच्छा आपकी कुछ भी हो, लेकिन सुख से नहीं जी सकते। सोचने को पहले ठीक करना पड़ेगा।
स जिसका सोचने का ढंग ठीक है, वो सुखी है। और जिसका सोचने का ढंग गलत है, वो दुःखी है।
स प्रश्न उठता है कि – सोचने का सही ढंग क्या है? उत्तर है- वही तीन शब्द “कोई बात नहीं”। आपने ‘गीता सार’ पढ़ा होगा कि-
”क्या हो गया, उसने तुम्हारा क्या छीन लिया, जो कुछ लिया, यहीं से लिया और जो कुछ दिया, यहीं पर दिया, तुम क्या लाये थे, जो तुम्हारा खो गया, तुम्हारा क्या चला गया, तुम क्यों रोते हो, कुछ नहीं गया, सब भगवान का था और छीन लिया तो भगवान का गया, आपका कुछ नहीं गया।”
स ये ध्यान रहे कि, यहाँ आध्यात्मिक-भाषा चल रही है। इसको लौकिक-भाषा में फिट मत कर देना, नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी। आप कहेंगे कि पाकिस्तान, कश्मीर को छीन कर ले गया, तो तुम्हारा क्या ले गया। वहाँ यह नियम नहीं चलेगा। वो लौकिक-क्षेत्र है। वो क्षेत्र अलग है, आध्यात्मिक क्षेत्र अलग है।
स हम जब संसार में आए, जन्म लिया, हमारे पास कुछ भी नहीं था। खाली हाथ आए थे और जब जाएंगे, तब खाली हाथ जाएंगे। फिर हमारा तो कुछ था ही नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से तुम्हारा कुछ नहीं था। और अगर किसी ने थोड़ा बहुत छीन भी लिया, तो भगवान बैठे नहीं हैं क्या? वे देखते नहीं हैं क्या?
स आप संध्या में छह बार तो सुबह बोलते हैं और छह बार शाम को बोलते हैं – “योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः” अर्थात् जो हमसे द्वेष करते हैं, हम पर अन्याय करते हैं, जो भी गड़बड़ करते हैं, उसको हम ईश्वर के न्याय पर छोड़ देते हैं। आप अपने साथ किए गए अन्याय को ईश्वर के न्याय पर तभी तो छोड़ेंगे, जब आप बोलेगें-”कोई बात नहीं।” यह उसी का अनुवाद है। भगवान बैठे हैं, नुकसान या द्वेष को ईश्वर के न्याय पर छोड़ दो। भगवान अपने आप न्याय करेगा।
स हम झगड़े में पड़ेंगे तो हमारा योगाभ्यास बिगड़ जायेगा। हम ध्यान नहीं कर पायेंगे। हर समय हमारे मन में वही व्यक्ति याद आएगा, जिसने हम पर अन्याय किया, जिसने हमसे द्वेष किया। हम बस उसी को याद करते रहेंगे, और संध्या, ध्यान आदि कुछ नहीं होगा।
सीख यही है कि, ठीक ढंग से सोचेंगे, तो हम सुख से जिएंगे। और गलत ढंग से सोचेंगे, तो हम कितना ही सुख से जीना चाहें, नहीं जी पाएंगे। आओ हम, पहले सोचने का दोष ठीक करें।

(278) शंका :- सुंदर शरीर, कपड़े, गाड़ी, सुंदर काले बाल, पूरी लंबाई का क्या महत्व है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सुंदर शरीर, सुंदर कपड़े, गाड़ी, चमकदार मकान, बँगला, काले बाल और अच्छी हाइट (लंबाई) इसका महत्व है कि :-
स इसको देखकर व्यक्ति संसार में फँसता है। चमक-दमक वाली चीजों को देखकर व्यक्ति का दुनिया में राग बढ़ता है। जो कि बन्धन में बाँधने वाला है। अगर भगवान ने हमको सुंदर शरीर दिया है तो वो हमारे कर्मों का फल है। पर यह इसलिए नहीं दिया कि हम फैशन कर-करके दुनिया को फँसाते रहें, संसार के लोगों को यहाँ बंधन में डालते रहें। इसलिए ऐसा काम नहीं करना चाहिए।
स एक अन्य दृष्टि से शरीर अच्छा हो, बलवान हो, स्वस्थ हो, तो उससे व्यक्ति तेजी से काम करेगा, अच्छा काम करेगा।
स अच्छा शरीर इसलिए दिया है, ताकि पौष्टिक भोजन खाओ, शरीर को स्वस्थ बनाओ, बलवान बनाओ, मोक्ष प्राप्ति करो, समाज की सेवा करो, समाधि लगाओ। यह है इसका लाभ।

(279) शंका :- सूक्ष्म-इच्छाओं से मुक्त कैसे हुआ जाए। क्या संसार में रहते हुए यह संभव है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

वस्तुतः चाहे स्थूल इच्छाएँ हों, चाहे सूक्ष्म इच्छाएँ, दोनों के पीछे एक मनोविज्ञान (साइकोलॉजी) है। पहले यह जानिए कि इच्छा की उत्पत्ति क्यों होती है? उस साइकोलॉजी को पकड़िए, फिर उत्तर समझ में आएगाः-
स दरअसल, जहाँ हमको सुख दिखता है, जिस वस्तु में हमको सुख प्रतीत होता है, जहाँ हमको सुख मिला है या भविष्य में सुख मिलने की आशा है, वहाँ उस-उस वस्तु को प्राप्त करने की हमारी इच्छा होती है।
स अगला प्रश्न उठता है कि, इच्छा से छूटें कैसे? उत्तर है – इससे उल्टा काम करो। जहाँ-जहाँ सुख दिखता है, वहाँ-वहाँ दुःख देखना शुरु करो। जब दुःख देखना शुरु करेंगे, तो इच्छा स्वतः खत्म हो जाएगी। कैसे? जैसे कि एक व्यक्ति ने सोचा किः-
”बढ़िया आठ लाख की होंडा-सिटी कार खरीदेंगे। एयरकंडीशन कार है, बढ़िया चमकदार है। ठाठ से जाएंगे। लोग भी वाह-वाह करेंगे कि- देखो साहब, इसके पास बढ़िया गाड़ी है। प्रशंसा भी होगी, कार का सुख भी मिलेगा, धूप में, गर्मी में नहीं मरना पड़ेगा, बस में धक्का नहीं खाना पड़ेगा, आराम से जाएंगे।”
कार में सुख देखकर उसने कार खरीद ली। जब कार खरीद ली, तो फिर आया दुःख। क्या दुःख आया?
जब वो हाइवे पर चल रहा था, तो उसको टेंशन हो गई, पीछे से एक ट्रक ड्राइवर बेहिसाब ट्रक चला रहा है, वो कहीं पीछे से कार को ठोंकेगा तो नहीं? उसको हर समय डर लगता है। कोई दांई ओर से ठोंकेगा, कोई बायीं ओर से ठोंकेगा, कोई पीछे से ठोंकेगा, कोई आगे से। क्योंकि इनका कोई भरोसा नहीं, सब आजकल बेहिसाब गाड़ी चलाते हैं।
फिर कार पार्किंग में खड़ी कर दी। और गए शॉपिंग-मॉल में सामान खरीदने। तब यह डर लगता है कि पीछे से कार चोरी न हो जाए। फिर कहीं पार्क के पास खड़ी कर दी। और गार्डन में सैर करने गए, तो तीसरा डर यूँ लगता है कि वो छोटे-छोटे बच्चे आए हैं, वो कार पर लकीर (स्क्रेच) न मार दें। वे इतनी बढ़िया कार की हालत बिगाड़ देंगे।
शरारती बच्चों को समझ तो है नहीं, वे तो अपना खेल समझते हैं। वे यह थोड़ी जानते हैं कि गाड़ी आठ लाख की है, इसमें लकीर नहीं मारनी चाहिए। जैसे वे दीवार पर लकीर मारते हैं, वैसे कार पर भी मार देंगे।
फिर उसके पड़ोस में एक मित्र के परिवार में, उसके बेटे की शादी थी। एक और टेंशन आ गई। मित्र के घर में शादी है। यह मित्र तीन-चार दिन के लिए कार उधार माँगने आएगा। अब बोलिए, कार में सुख दिख रहा है, कि दुःख दिख रहा है? दुःख दिखाई दिया न। बस ऐसे ही दुःख देखना शुरु करो, तो आपकी कार खरीदने की इच्छा खत्म हो जाएगी। इसलिए अगर आप मिश्रित दुःख-सुख भोगना नहीं चाहते, तो कार की इच्छा छोड़ दो।
स आपके सामने कुल तीन विकल्प (ऑप्शन) हैंः-
पहला है – केवल ‘सुख’ मिलना चाहिए।
दूसरा है – केवल ‘दुःख’ मिलना चाहिए।
तीसरा है – ‘सुख और दुःख’ दोनों मिश्रित होने चाहिए।
बताइए, तीन में से कौन सा विकल्प आपको स्वीकार है ? पहले वाला, केवल सुख। तो कार में केवल सुख मिलता है क्या? नहीं मिलता न। या तो दुःख मिलेगा या फिर सुख-दुःख दोनों मिश्रित (मिक्स) मिलेंगे।
एक बार मैंने भी कार खरीदी थी और दो साल कार चलाई। यह सारा दुःख मेरी समझ में आ गया। मैंने कहा-‘निकालो इसको, यह ‘कार’ नहीं ‘बेकार’ है।’ निकाल दी। अब मैं सुखी हो गया हूँ। अब कार नहीं है, खूब शाँति और आराम से जी रहा हूँ।
स कार वाला बनने में सुख तो है, पर उसके साथ भीषण दुःख भी है। मैं मना थोड़ी कर रहा हूँ। मैं सिर्फ बता देता हूँ कि कार खरीदोगे, तो ये दुःख भी आएँगे। जिसको दुःख भोगना हो वह कार खरीद ले। और जिसको दुःख से छूटना हो, वो कार छोड़ दे। मुझे छूटना था, मैंने कार छोड़ दी। अब मैं सुखी हो गया।
स मैं जहाँ जाता हूँ, वहीं कार मिल जाती है। बोलो, क्या घाटा है ? आपके पास तो घर में दो कारें होगी, तीन कारें होंगी। मेरे पास तो एक हजार कारें हैं। जिस नगर में जाता हूँ, वहीं सामने छह कारें खड़ी रहती हैं। एक व्यक्ति कहता है-आप मेरी गाड़ी में बैठो, दूसरा कहता है-मेरी गाड़ी में बैठो। अब आप ही बताओ, मुझे क्या कमी है? फिर मैं क्यों कार खरीदूँ। समझ में आई बात।
स आप सोचते होंगे – हम भी ऐसा ही कर लेंगे। अगर ऐसा करना है, तो मेरी तरह ‘संन्यासी’ बनना पड़ेगा। यह घर-बार छोड़ना पड़ेगा, वैराग्य उत्पन्ना करना पड़ेगा, तपस्या करनी पड़ेगी। इतनी सारी कारें ऐसे ही नहीं मिलती हैं।
स इच्छाओं को इस तरह से जितना हो सके, कम करें। संसार में सुख नहीं, दुःख देखें। केवल मोक्ष में, ईश्वर में सुख देखें। इसके अलावा इच्छाओं से छूटने का और कोई तरीका नहीं है।

(280) शंका :- आपने कहा कि मोक्ष से लौटने पर पहला जन्म शूद्र का होता है, परंतु मोक्ष फल तो अति उत्तम कर्मों से मिलता है। और ऐसी आत्माएं यदि फिर जन्म लें, तो उच्च कोटि के मनुष्य के रूप में ही होनी चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मान लीजिए, एक गरीब आदमी दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी में रहता है। उसने अच्छा पुरुषार्थ किया, कुछ रुपया कमा लिया, जिसका फल मिला- एक सप्ताह तक मुम्बई की सैर। वह एक सप्ताह तक मुंबई घूमा। खूब खाया-पीया, अच्छी तरह होटल में भी रहा। एक सप्ताह पूरा हो गया, तो वापस दिल्ली आ गया।
यहाँ सवाल ये उठता है कि अब दिल्ली लौट आया, तो क्या दिल्ली के फाइव स्टार होटल में जाएगा, या वापस अपनी झुग्गी- झोपड़ी में जायेगा? वापस तो वहीं जाना पड़ेगा न। जिस कर्म से उसको एक सप्ताह की मौज-मस्ती मुंबई में मिली थी, अब उसके आधार पर उसको दिल्ली के फाइव स्टार होटल में जगह नहीं मिलेगी। अब तो वापस वहीं रहना है, जहाँ से चले थे। इसी प्रकार से, जो व्यक्ति मोक्ष में जाता है, उसने जिन कर्मों का फल मोक्ष में भोग लिया, वह खत्म हो गया। अब जब मोक्ष से वापस लौटेगा, तो फिर वापस सामान्य जन्म में जाएगा। क्योंकि यहाँ से जब चला था, तब भी झुग्गी-झोपड़ी से ही चला था, जीरो से ही चला था।
कोई भी यात्रा जीरो किलोमीटर से स्टार्ट होती है। जीरो पर खड़ा हुआ व्यक्ति प्लस (वैश्य परिवार, क्षत्रिय परिवार, ब्राह्मण परिवार) की ओर भी चल सकता है और माइनस (पशु-पक्षी योनि में जन्म) की ओर भी चल सकता है।
मोक्ष से जो लौटेगा – जन्म लेगा, वो सकाम कर्मों का फल है। और मोक्ष में जो आनंद भोगा, वो निष्काम कर्मों का फल था। वो तो भोग लिया, खत्म हो गया।
अब दोबारा आपको मोक्ष में जाना है, तो दोबारा नए सिरे से निष्काम कर्म करो, फिर वेद पढ़ो, अपना ज्ञान ठीक करो, समाधि लगाओ,
सेवा करो, परोपकार करो और फिर दोबारा मोक्ष में जाओ। पर वापस लौटने के समय पहला जन्म तो वो ही झुग्गी-झोपड़ी में जाना पड़ेगा अर्थात् शूद्र परिवार में जन्म मिलेगा।

(281) शंका :- मोक्ष से लौटने के बाद पहला जन्म शूद्र परिवार में क्यों मिलेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मोक्ष से लौटने के बाद पहला जन्म शूद्र परिवार में मिलेगा। क्योंकि,
स महर्षि दयानंद जी ने ऋग्वेद (पहला मंडल, चौबीसवाँ सूक्त, मंत्र संख्या दो) के भाष्य में लिखा है कि – जो आत्माएँ मुक्ति से लौटती हैं, उनके पुण्य और पाप तुल्य (बराबर) होते हैं। पहले के लौकिक-सुख प्राप्ति के लिए किए गए सकाम कर्म-जनित पाप-पुण्य उनके जमा रहते हैं। और अपने कर्मानुसार पुण्य-पाप तुल्य होने से शूद्र माता-पिता के यहाँ जन्म लेकर वो शरीर धारण करते हैं।
जब पाप-पुण्य तुल्य होते हैं, तब साधारण मनुष्य का जन्म होता है। यह वेद की बात है, हमारे घर की बात नहीं है।
स कोई भी यात्रा शून्य (ज∙ीरो) किलोमीटर से आरंभ (स्टार्ट) होती है। शूद्र परिवार ज∙ीरो किलोमीटर है। जीरो मध्य में होता है। बाईं तरफ माइनस (-) और दाईं तरफ प्लस (+) होता है। शूद्र से बाईं तरफ पशु-पक्षी, पेड़-पौध़े यानी माइनस (-) है। और दाईं तरफ ब्राह्मण परिवार प्लस (+) है। इसलिए मोक्ष से लौटकर पहला जन्म जीरो शूद्र परिवार में मिलेगा।
आप घर से चले मुंबई, तो कहाँ से किलोमीटर गिनना शुरू करेंगे? अपने घर से, वो है जीरो। फिर एक किलोमीटर चले, तो एक किलोमीटर यात्रा पूरी हो गई। तो शुरुआत कहाँ से होती है? जीरो से। इसी प्रकार से मुक्ति से जब लौट के आए, तो नई यात्रा चली। मुक्ति के लिए भी यात्रा जीरो से शुरु होगी। जीरो मतलब शूद्र परिवार, सामान्य जन्म, साधारण मनुष्य। यहाँ से यात्रा शुरु होती है। इसलिए मुक्ति से लौटकर आने वाले आत्मा को भगवान शूद्र के घर में जन्म देता है। अब यहाँ से आपकी यात्रा शुरु हुई।
स अब मेहनत करो। कोई एक जन्म में दस मील पार करेगा, कोई बीस मील पार करेगा। पशु-पक्षी से लौटकर शूद्र बना। शूद्र के बाद वैश्य बना। फिर क्षत्रिय बना। फिर ब्राह्मण, फिर संन्यासी बना और फिर मोक्ष की प्राप्ति। जैसा कि पहले बताया था। दस-दस मील पार करते जाएँ। यह सामान्य नियम है कि- शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण, फिर संन्यासी और फिर मोक्ष।
स एक व्यक्ति ज्यादा जोर से दौड़ लगाएगा, तो वो सीधा चालीस मील पार कर जाएगा। लेकिन आगे जाकर ठंडा पड़ गया, दूसरे काम शुरु किए, तो बीस मील वापस भी आ जाएगा। यह अप-डाउन तो होता रहता है। सामान्य नियम है कि क्रमशः उत्तरोत्तर उन्नाति होगी। और उसमें जो ऊँचे-नीचे स्तर बन रहे हैं, वो कर्म के आधार पर हैं, जन्म के आधार पर नहीं हैं।
स कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र माना जाता है। यदि अच्छे कर्म करेगा, तो अच्छे बु(िमान के यहाँ जन्म लेगा। यह कर्म-फल है, मुफ्त में नहीं मिलता। कर्म के आधार पर ही उसको अगला फल – जन्म मिला। और आगे उन्नाति का अवसर जन्म से ही मिलेगा। वो पिछले कर्म का फल भोगेगा।
स और कोई अपवाद यँूं भी होता है कि पहले दो सौ, पांच सौ, हजार जन्म भोग चुका। अच्छे कर्म भी किए, बुरे भी किए। सब तरह के कर्म कर बहुत सारे संस्कार जमा कर लिए। फिर एक जन्म में शूद्र के घर में पैदा हुआ। अब पिछली बहुत सारी सम्पत्ति (संस्कार) थी। उसके बाद फिर कोई घटना देख ली। जैसे महर्षि दयानंद जी ने देख ली। महात्मा बु( ने देख ली। ऐसी और कई लोगों ने संसार की घटनाऐं देख लीं। उन घटनाओं को देखकर उनके मन में वैराग्य जाग गया। जो पिछले हजारों जन्मों की कमाई थी। वो जाग गई। अब इसी जन्म में उसने खूब पुरुषार्थ किया, तो शूद्र या क्षत्रिय परिवार में पैदा होकर के सीधा ब्राह्मण बन सकता है। यह अपवाद है। हमारे गुरुजी-स्वामी सत्यपति जी महाराज का जन्म तो ऐसे ही साधारण मुस्लिम परिवार में हुआ था। अब फिर घटनाएं देखीं, तो वैराग्य हो गया। फिर खूब जोर लगाया। आज देखो कहाँ पहुँच गए।
जिस व्यक्ति ने 20 वर्ष की उम्र तक क, ख, ग भी नहीं सीखा हो। आज वह वेदों का विद्वान और कितने ऊँचे स्तर का योगी, तपस्वी और कितना शास्त्रों का पंडित, और कितना काम करने वाला व्यक्ति, कितनी संस्कृत भाषा जानने वाला बन गया। यह कोई साधारण बात है? हो सकता है, इसी जन्म में इनकी मुक्ति हो जाए। यह इनका अंतिम जन्म हो। और अगर मान लिया, कुछ कमी रह गई, तो एक दो जन्म और लेना पड़ेगा, बस फिर गाड़ी मोक्ष के स्टेशन पर जाकर रुकेगी।
स अब जब इतने महान पुरुष देख रहे हैं, तो इनको देखकर हम प्रेरणा ले सकते हैं। मुक्ति वाला तो आएगा नहीं, हमें प्रेरणा देने के लिए। उसके लिए तो भगवान ने मना कर दिया कि तुम मत करो संसार को प्रेरणा। तुम्हारे बस का नहीं है। यह हमारा ही काम है। हम कर लेंगे। तो ऐसे-ऐसे महान पुरुषों को देख करके हम बहुत सी प्रेरणा ले सकते हैं कि इतने साधारण परिवार में जन्म लेकर भी इतनी ऊँचाई तक पहुँच गए।
तात्पर्य है कि व्यक्ति बहुत तीव्र गति से भी उन्नाति कर सकता है। पर वो अपवाद है। ऐसे लोगो की संख्या बहुत कम होती है। सामान्य नियम तो वो ही है। स्टेप बाई स्टेप चलना अर्थात् पहले शूद्र, फिर वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण, संन्यासी और फिर मोक्ष।

(282) शंका :- क्या कीट-पतंग, सर्प, जीव-जंतु आदि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, यदि हाँ तो कैसे?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

नहीं, क्योंकिः-
स कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, जीव-जंतु कोई भी हों, वे योगाभ्यास, यम-नियम का पालन नहीं करते। वे इस योनि से सीधे मोक्ष में नहीं जा सकते। मोक्ष के लिए सबका एक ही रास्ता है। सबको उसी रास्ते से चलना पड़ता है। ईश्वर का न्याय सबके लिए एक समान है। वहाँ कोई अन्याय नहीं, कोई पक्षपात नहीं।
स ये कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी अपने कर्मों का दण्ड भोगकर लौटकर वापस मनुष्य बनेंगे। पशु-पक्षी अपना दंड भोगकर के जब मनुष्य योनि में आएंगे, तो किसके घर में जन्म लेंगे?
ये कीड़े-मकोड़े जब मनुष्य बनेंगे तो पहले-पहले शूद्र परिवार में (शूद्र माता-पिता के घर में) जन्म लेंगें। शूद्र परिवार में, जिसको फोर्थ क्लास बोलते हैं, उन मजदूर, चपरासी आदि के घर में जन्म लेंगे। फिर वहाँ अच्छे कर्म करेंगे, तो प्रमोशन हो जाएगा।
स शूद्र व्यक्ति जब पुण्य-कर्म जमा करेंगे, तो फोर्थ क्लास से थर्ड क्लास-वैश्य परिवार में आ जाऐंगे। फिर आगे और अच्छे कर्म करेंगे तो सेकण्ड क्लास-क्षत्रिय परिवार में प्रमोशन हो जाएगा। उसके बाद और अच्छे काम करेंगे, तो फर्स्ट क्लास- ब्राह्मण परिवार में जन्म होगा। ब्राह्मण में भी और ऊँचे ब्राह्मण के यहाँ जन्म ले लेंगे, जब और अच्छे काम करेंगे। उसको फर्स्ट क्लास सुपर बोलते हैं। और अच्छे काम करेंगे, तो फिर संन्यासी बन जाऐंगे। और संन्यासी बनकर के समाधि लगाएंगे। तब मोक्ष मिलेगा। सबके सब लोगों को इसी एक रास्ते पर चलना है।
स लोग अच्छे कर्म करेंगे, तो अच्छे घर में जन्म मिलेगा। वहाँ से और अच्छे संस्कार मिलेंगे। फिर और अच्छे कर्म करेंगे। एक बच्चे ने न्यायाधीश के घर में जन्म लिया और एक बच्चे को धोबी के घर में जन्म मिला। क्या यह दोनों का कर्म फल नहीं है? है न। तो उनके कर्मों में कुछ ऊँचा-नीचापन तो होगा ही। उसको ऊँचे परिवार में जन्म क्यों मिला? उसने पूर्व जन्म में अच्छे काम किए होंगे। अब इस न्यायाधीश के घर में जन्म लेकर उसे बचपन से ही अच्छे बु(िमान माता-पिता मिल गए। वे उसको अच्छे संस्कार देंगे। अच्छी बात सिखाएंगे और वो खूब तेजी से आगे बढ़ेगा। और जिसको धोबी के घर में जन्म मिला, उसने अच्छे कर्म नहीं किए। इसलिए अच्छे परिवार में जन्म नहीं मिला। यह है पूर्व जन्म में किए कर्मों का फल।
स जिसने जितना कर्म किया, उतना उसको फल मिला। आगे उसको नया चान्स है। फिर आगे पुरुषार्थ करें। इस प्रकार से पशु-पक्षी, कीट-पतंग भी मनुष्य बनकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

(283) शंका :- क्या मुक्ति के लिए मनुष्य योनि ही अनिवार्य है? अन्य योनियों में मुक्ति नहीं हो सकती?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

मुक्ति केवल मनुष्य योनि में ही होती है और किसी प्राणी के शरीर से मुक्ति नहीं होने वाली है। गाय के शरीर से डायरेक्ट मुक्ति नहीं होगी। मनुष्य शरीर में भी केवल संन्यासी का मोक्ष होता है, और किसी का नहीं होता है।

(284) शंका :- ज्ञान बिना कर्म नहीं, तो मोक्ष के लिए पतंजलि निर्दिष्ट अष्टांग योग पढ़ना, समझना, आचरण में लाना क्यों काफी नहीं है? हर एक दर्शन, वेद पढ़ना क्यों जरूरी है? इसमें तो काफी समय लगेगा?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

इन दो प्रश्नों के उत्तर निम्नलिखित हैंः-
स मुक्ति भी कोई जल्दी थोड़े मिलने वाली है। मुक्ति प्राप्त करने में समय तो लगेगा।
स सारे दर्शन पढ़ना होगा। केवल योग-दर्शन से काम नहीं चलेगा। केवल एक शास्त्र पढ़ने से हमारा ज्ञान-विज्ञान उतना विकसित नहीं होता। उसका ज्ञान बहुत संक्षिप्त और सीमित रहता है। बहुत सी बातें समझ में नहीं आतीं। मन में प्रश्न उठेंगे- ईश्वर को क्यों मान लो, पुनर्जन्म को क्यों मान लो, मुक्ति को क्यों मान लो। इन प्रश्नों का उत्तर कहाँ से लाएंगे? इनका उत्तर योग-दर्शन तो नहीं देगा। और योग-दर्शन देगा तो, सीधा-सीधा वाक्य बोल देगा- हाँ भाई, ईश्वर होता है, सबका गुरु है, अनादिकाल से है, अनंतकाल तक रहेगा। इतने में तो आपको संतोष नहीं होगा।
स आज तो साइंस का विद्यार्थी पहले पूछता है कि ‘क्यों’ मान लें ? क्यों का उत्तर, योग-दर्शन नहीं देगा। उसका उत्तर देगा-‘न्याय दर्शन’। अगर आपको ‘क्यों’ का उत्तर नहीं मिलेगा, तो आपको ‘संतोष’ नहीं होगा। बात आपके दिमाग में जमेगी नहीं।
आप कहेंगे- ”यह तो बस ऐसे ही थोपा-थोपी वाली बात है। मान लो, हाँ, भगवान है, मान लो, अगला जन्म है। भई, हमको नहीं जँचती, यह “मान लो वाली” बात। इतने से बात नहीं बनेगी। क्यों मान लो? उसका कारण हमको स्पष्ट होना चाहिए। दिमाग में बैठना चाहिए, तब मानेंगे। ”
इसके लिए व्यक्ति को अन्य दर्शन भी पढ़ने होंगे। इसमें कोई शंका नहीं है कि- पढ़ने में लंबा समय लगेगा और वो समय लगाना पड़ेगा, आपको भी और मुझे भी मेहनत करनी है, कीजिए।
स प्रश्न यह भी किया है कि जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति ही है तो क्या संस्कृत पढ़ना, चारों वेद पढ़ना, सभी दर्शन पढ़ना जरूरी है? सारे न भी पढ़ो तो कम से कम इतना तो पढ़ लो कि दुनिया समझ में आ जाए, ईश्वर समझ में आ जाए, जीव समझ में आ जाए।
इतना तो व्यवहारिक रूप से समझ में आना चाहिए कि –
”तीन वस्तुएं अनादि हैं, तीनों के गुण, कर्म, स्वभाव ये-ये हैं। प्रकृति दुःखदायी है, चारों ओर दुःख ही दुःख है।”
महर्षि पतंजलि लिखते हैं – ‘दुखमेव सर्वम् विवेकिनः’। बु(िमान व्यक्ति की दृष्टि में चारों ओर दुःख ही दुःख है। और इतना समझने के लिए भले ही आप चारों वेद न भी पूरे पढ़ें, परन्तु कुछ दर्शन, कुछ संस्कृत, कुछ उपनिषद्, कुछ वेद तो पढ़ना ही होगा। इसके बिना बात नहीं बनेगी।
स सांख्य दर्शन का पहला सूत्र है – ‘अथ त्रिविध दुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः।”अर्थात तीन प्रकार के दुःखों से पूरी तरह छूट जाना, यह मनुष्य का सबसे अंतिम लक्ष्य है। इसलिए दुःखों से छूटो और मोक्ष की प्राप्ति करो। बार-बार शुरू से आखिर तक सभी दर्शन, वेद, उपनिषद्, यही कहते हैं।
अष्टांग-योग का पालन करिए। थोड़ी संस्कृत भाषा सीख लीजिए। चार-पाँच दर्शन पढ़ लीजिए। इतना तो जरूरी है बाकी अपना योगाभ्यास कीजिए, समाज की सेवा कीजिए, मोक्ष मिल जाएगा।

(285) शंका :- आत्मा हर समय सुविचारों को ही क्यों नहीं उठाता, क्योंकि आत्मा को पवित्र बताया गया है? मन में अशु( विचार जैसे – चोरी-व्यभिचार, हिंसा, असत्य आदि अनुचित विचार क्यों आते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

यहाँ प्रश्न पूछा है कि आत्मा मन के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करता है। सुना है कि आत्मा नित्य है, शु( है, बु( है, इसलिए मन में अच्छे ही विचार आने चाहिए। आत्मा अपने स्वरूप से शु( व पवित्र है तो हमारे मन में बुरे विचार क्यों आते हैं? इसके बहुत सारे कारण हैंः-
स अपनी इच्छा से जीवात्मा खराब काम नहीं करना चाहता, गलती नहीं करना चाहता। स्वयं तो वो अच्छी बात ही चाहता है, सुख ही चाहता है, अच्छे काम ही करना चाहता है।
स ‘अविद्या’ नाम का एक दोष है, जो जीवात्मा के साथ जुड़ जाता है। आत्मा यद्यपि स्वरूप से शु( है। शु( होते हुए भी, आत्मा के पास जो ज्ञान है, वह कुछ शु( है, कुछ अशु( है। यानी आत्मा में कुछ तो विद्या है और कुछ उसमें अविद्या भी है। अविद्या (उल्टे ज्ञान) के कारण वो मलीन हो जाता है।
स यह दोनों विद्या-अविद्या नैमित्तिक हैं यानि कि यह बाहर से जीवात्मा में आती हैं। कहीं वह अड़ोस-पड़ोस के लोगों से कुछ बुरी बातें सीख लेता है। उसके कारण बुरे विचार करता है। कुछ टेलीवीजन से, कुछ कंप्यूटर से, कुछ मोबाईल से, कुछ इंटरनेट से, कुछ पढ़ाई-लिखाई के सिलेबस से, कुछ मित्र-मण्डली से, कुछ सरकार के कानूनों से, ऐसे-ऐसे बहुत सारे कारण हैं, जिनसे व्यक्ति बुरे विचार भी कर लेता है। प्राकृतिक रजोगुण, तमोगुण की वजह से भी जीवात्मा में यह अविद्या, राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्ना हो जाते हैं। इस गड़बड़ी के कारण कभी-कभी वो बुरे विचार उठा लेता है, बुरे काम भी कर लेता है, गलत भाषा भी बोल देता है।
स जब यह अविद्या ऊपर से चिपक जाती है, तो उस अविद्या के कारण, उन संस्कारों के कारण जीवात्मा बुरे विचार यानी गड़बड़ विचार (उल्टी सोच) करता है। इसी अविद्या के दोष के कारण वो अच्छे विचार भी उठा लेता है और बुरे विचार भी उठा लेता है। अविद्या के कारण उसमें राग और द्वेष उत्पन्ना हो जाते हैं। इस प्रकार कुछ विद्या भी है और कुछ अविद्या भी है।
स अविद्या के प्रभाव से प्रेरित होकर जीवात्मा झूठ बोलता है, चोरी करता है, व्यभिचार करता है, अन्याय करता है, शोषण करता है, छल-कपट करता है, हिंसा करता है, निंदा- चुगली करता है। अविद्या जीवात्मा को लपेट लेती है, क्योंकि जीवात्मा अल्पज्ञ है। जीवात्मा बेचारा कमजोर है, इसलिए अविद्या उसको आकर दबा लेती है, वो बेचारा पिट जाता है। अविद्या के नीचे दबकर जीवात्मा उल्टे-सीधे काम करता है।
स ईश्वर सर्वज्ञ है, उसको अविद्या नहीं लपेट सकती, उसको अविद्या नहीं दबा सकती। उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा होने से अविद्या उसे नहीं सताती।
स अनेक जन्मों से अविद्या हमारे अंदर चली आ रही है। जब व्यक्ति अविद्या को दूर कर लेता है तो हर समय सुविचार ही उठाता है।
स कोशिश करनी चाहिए कि बुरे विचारों से बचें, बुरे विचारों को रोकें, अच्छे विचार करें, अच्छी भाषा बोलें, अच्छे कर्म करें। ऐसा हमको पूरा प्रयत्न करना चाहिए। इसका उपाय है-वेदों का अध्ययन, ईश्वर का ध्यान और निष्काम-सेवा करना।

(286) शंका :- क्या ज्यादा धन कमाना ठीक नहीं है? यदि सच्चाई के साथ यम-नियमों के पालन का पूर्ण प्रयास करते हुए कमाया जाए तो?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

अच्छे कामों के लिए धन तो आवश्यक है ही। धन कमाना चाहिए परन्तु यम-नियम का पालन करते हुए, ठीक ईमानदारी से, मेहनत से धन कमाएं, तो कमा सकते हैं, अधिक भी कमा सकते हैं।
स यहाँ नियम यह है कि – ”जितना अधिक कमाएंगे, उतनी आपकी समस्या बढ़ती जाएगी। आवश्यकता से अधिक धन जमा करेंगे, तो फिर वो आपके लिए बाधक बनेगा।”
पहले तो समय अधिक खर्च करना पड़ेगा।वह खुद भी खाएगा नहीं, जमा करता रहेगा। जमा किया हुआ धन, फिर उसके लिए कार्य में बाधक होता है। वो ‘परिग्रह’ का पालन करता रहता है।
फिर उसकी सुरक्षा की चिन्ता हो जाएगी। और बस उसकी सुरक्षा
में ही लगा रहेगा।कोई धन छीन ले जाए तो दुःखी, कोई चुरा ले जाए तो दुःखी, कोई उधार ले जाए और लौटाए नहीं तो दुःखी। इसलिए एक विद्वान ने बड़ा अच्छा श्लोक लिखा है – ”अर्थानाम्् अर्जने दुःखम् अर्जितानां च रक्षणे।आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थान् कष्टसंश्रयान्।।” अर्थात् पैसा कमाने में दुःख उठाओ, और कमाए हुए धन की रक्षा करने में दुःख उठाओ। इस तरह इन्कम हो तो दुःख, और खर्चा हो तो और दुःख। जो धन हमेशा कष्ट ही देता है, ऐसे धन को धिक्कार है। ऐसा धन क्या करेंगे? इसलिए हमारे अनुभव से लाभ उठाईए, अधिक मत कमाइए।
हम पूरे देश में घूमते हैं। बड़े-बड़े सेठ लोगों के यहाँ जाते हैं। हमारा अनुभव यह है कि – ‘जो जितना बड़ा सेठ है, वो उतना अधिक दुःखी है’। जितने बड़े सेठ से मैं मिला, उसे उतना ज्यादा दुःखी पाया। ऐसा मुझे उन सेठों ने अपनी जुबानी कहा है। एक सेठ ने मुझे कहा – ”मेरा नाम तो है शाँतिलाल, लेकिन मुझे आधा घंटा भी शाँति नहीं है।” इसलिए ज्यादा धन मत कमाइए, आवश्यकतानुसार कमाइए।
स आपको जितनी आवश्यकता है, उतना धन कमाइए। और फिर जितनी समय-शक्ति शेष बचती है, उसको आध्यात्मिक-क्षेत्र में लगाइए।
स धन के पीछे मत पड़िए। वो तो बु(ि खराब ही करता है। जब व्यक्ति के पास पैसे नहीं होते तो उसका विचार कुछ और होता है, और जब जेब में पैसे आ जाते हैं, तो उसका विचार बदल जाता है। कैसे?
एक व्यक्ति के पास बहुत पैसे नहीं थे, तो वो सोचता था – ”हे भगवान! मेरी दस लाख रुपये की लॉटरी लग जाए तो पाँच लाख दान कर दूँगा।” यह विचार तब तक है, जब तक दस लाख रुपये जेब में नहीं आ जाते हैं। और कल्पना कीजिए, दस लाख रुपये की लॉटरी लग गई। अब वो पाँच लाख रुपये भी दान में नहीं देना चाहेगा, अब उसका विचार बदल जाएगा। लॉटरी से कमाना तो वैसे ही गलत है, क्योंकि वो तो जुआ है।
मेहनत से, ईमानदारी से भी जब व्यक्ति धन कमा लेता है, तो भी उसकी बु(ि बदल जाती है, विचार बदल जाते हैं। पहले सोचता था-जितना कमाऊंगा, उसमें से बीस, पच्चीस, पचास प्रतिशत दान कर दूंगा। लेकिन जब प्रैक्टिकली जेब में पैसे आ जाते हैं, तो विचार बदल जाता है। अब दान का प्रतिशत दो-तीन पर आकर फिसल जाता है। वो भी मुश्किल से, घिस-घिस करके दान देगा। इसलिए इतना धन न कमाएं कि उपयोग ही न कर सकें।

(287) शंका :- धन का उपयोग ‘सत्कर्म’ में भी तो कर सकते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सत्कर्म’ में धन का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु प्रायः करते नहीं हैं। कारण कि, पैसा हाथ में आते ही बु(ि घूम जाती है।
स वेद यह कहता है कि खूब धन कमाओ। पर केवल परीक्षण करने के लिए कि क्या धन से हमारी तृप्ति हो सकती है? धन ऐश्वर्य के स्वामी बनो। ऐसा इसलिए कहा गया है कि, मनुष्यों को यह शंका है कि धन मिला तो सब कुछ मिला। खूब धन कमाने से मनुष्य सुखी हो जाता है।
स धन का परीक्षण करना चाहिए। यदि बहुत सा धन कमा कर भी वह सुख नहीं मिला, जिसकी कल्पना की थी तो परिणाम निकालो कि भोगों में सुख नहीं है। भोग-विलास में सुख एक है और दुःख चार हैं। इस परिणाम के आधार पर मोक्ष की तैयारी करो।
स जब तक व्यक्ति इस संसार में भोगों से दुःख प्राप्त नहीं कर लेगा, भोगों से थक नहीं जाएगा, तब तक मोक्ष की इच्छा उत्पन्ना नहीं हो सकती। वेद में धन कमाने और वैराग्य प्राप्त करने, इन दोनों बातों की चर्चा है। पर लोग वैराग्य को भूल जाते हैं, और धन कमाने की बात याद रखते हैं। जब भोग-विलास में सुख नहीं मिलता, तब वेद की दूसरी बात भी तो याद करनी चाहिए। और राजा भर्तृहरि व राजा जनक के समान वैराग्य ले लेना चाहिए। नचिकेता ने अपने पिछले जन्म में भोग किया, पर उसे सुख नहीं मिला। और जब वह अपने नचिकेता वाले जन्म में आया, तो गुरुजी ने उसे बहुत से प्रलोभन दिए, पर उसने कहा कि ‘धन से कोई तृप्त नहीं हुआ।’ अतः सार यह है कि –
स धन उतना कमाओ, जिससे मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इससे अधिक कमाएंगे, तो मोह-माया में फँस जाएंगे।
विदेशियों ने खूब धन कमाया, भोग किया, और अंत में सुख नहीं मिला तो वे भारत की ओर आने लगे कि यहाँ ऋषि-मुनि रहते हैं, और इन्हीं से सुख प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु भारत के लोग विदेशियों की नकल कर रहे हैं। वे भोग-विलास, धन-ऐश्वर्य के पीछे भाग रहे हैं, पर उनके परिणाम को नहीं देख रहे हैं। इस प्रकार, जिन लोगों ने संसार का सुख भोग लिया है, वे वैराग्य को प्राप्त करेंगे, और जिन्होंने अभी कुछ भोगा नहीं है, वे पहले भोगेंगे और फिर वैराग्य और मोक्ष को प्राप्त करेंगे।

(288) शंका :- सृष्टि का प्रयोजन जीवात्माओं को लौकिक सुख और मोक्ष का सुख देने के लिए है। किन्तु योग-दर्शन में कहा गया है कि लौकिक सुख, दुःख से मिश्रित है, इसलिए लौकिक सुख हेय-कोटि में आते हैं। इस विरोधाभास को सुलझाने का प्रयत्न करें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

शास्त्रों में यह बात कही गई है कि यह संसार, लौकिक सुख के लिए और मोक्ष प्राप्ति के प्रयोजन से बनाया गया है। योगदर्शन में भी कहा गया है कि जो संसार का सुख है, वो शु( सुख नहीं है। उस सुख में दुःख मिश्रित है। इसमें थोड़ा विरोधाभास जैसा प्रतीत होता है। यह प्रश्न है।
इसका समाधान यह है कि :-
स एक व्यक्ति को भूख लगी थी, उसने अच्छी तरह से पेट भरकर खाना खा लिया। दूसरा व्यक्ति अभी भूखा बैठा है, उसने अभी खाया नहीं। दोनों के सामने फिर से भोजन रख दिया जाए, तो दोनों व्यक्ति अलग-अलग व्यवहार करेंगे। जो खा चुका है, वो तो नहीं खाएगा। और जिसने नहीं खाया, वो खाएगा। वही भोजन, एक जैसा भोजन, एक व्यक्ति खा रहा है, लेकिन दूसरा नहीं खा रहा है। क्योंकि उन दोनों की आवश्यकता अलग-अलग है। जो खा चुका, उसका पेट भर गया, इसलिए अब वो नहीं खाएगा। और जिसको भूख लगी है, खाना नहीं खाया है, वो खाएगा।
स इसी प्रकार से संसार में जो सुख है, वो दुःख से मिश्रित है, यह बात बिल्कुल सत्य है। लेकिन हर व्यक्ति का ज्ञान-विज्ञान का जो स्तर है, वो अलग-अलग है। एक व्यक्ति कहता है कि मुझे सुख चाहिए। इन्द्रियों से जो भोगा जाता है, मुझे तो वो लौकिक सुख चाहिए। जैसे – खाना, पीना, घूमना, फिरना आदि, इन चीजों से जो सुख मिलता है, वो मुझे चाहिए। इससे स्पष्ट है कि उस व्यक्ति को संसार में केवल सुख ही दिखता है, दुःख दिखता ही नहीं।
स यद्यपि संसार में सुख भी है और दुःख भी है। लेकिन उसको केवल सुख ही दिखता है। अब यहाँ पर दृष्टिकोण का अन्तर है। जिसको संसार में सुख ही दिखता है, वो उस सुख को भोगेगा। लेकिन जिसका ज्ञान बदल गया, उसको दुःख भी दिखने लगा तो वो भोगना बंद कर देगा। अब वो बोलेगा-”ये नहीं चाहिए। मुझे शु( सुख चाहिए, लेकिन यह सुख, दुःख मिश्रित है। यह बात मुझे समझ में आ गई।” इसलिए अब वो उस सुख को नहीं भोगेगा।
स जब लोग कहते हैं कि हमको प्राकृतिक सुख चाहिए, तो भगवान तो फिर
देने वाला है न। वो तो यह सृष्टि बनाकर देगा ही। शास्त्रों में यह जो कहा है कि लौकिक-सुख को भोगने के लिए यह संसार बनाया गया। उसका अर्थ है कि हम सांसारिक सुख-दुःख को भोगने वाले, सकाम कर्म कर चुके हैं। उन कर्मों का फल भोगना है। आपने ऐसे कर्म किए। इसलिए उसका सुख भोगो, खाओ-पियो, घूमो-फिरो, सभी इन्द्रियों का सुख लो। पिछले कर्मों का फल भोगने के लिए यह संसार बनाया। जैसा कर्म है, वैसा ही तो ईश्वर फल देगा। अच्छे कर्म किए, उसका सुख ले लो, बुरे कर्म किए उसका दुःख भी भोगो। और खाते-पीते, भोगते आपको जब इस सांसारिक सुख में दुःख दिखने लगे, तब इसको छोड़ देना और मोक्ष को पकड़ लेना। तब आपका लक्ष्य बदल जाएगा। पर जब तक आपको इसमें दुःख नहीं दिखता, तब तक यही आपका लक्ष्य है।
स एक उदाहरण से बात और समझ में आएगी। मान लीजिए, अहमदाबाद में एक बहुत अच्छी हलवाई की दुकान से कोई बढ़िया सी मिठाई लेकर आए और प्लेट में आपके सामने रख दे। और बोले-”लो जी खाओ, बड़ी स्वादिष्ट, सुगंधित और देखने में भी सुन्दर मिठाई है।” आपको उसमें सुख दिखता है, इसलिए अब आपने उसे खाने के लिए हाथ बढ़ाया। इतने में उस दुकान का एक नौकर, दौड़ता-दौड़ता आया, और कहने लगा- ”ठहरो….ठहरो….ठहरो, जो मिठाई आप हमारी दुकान से लाए हैं, उस मिठाई में थोड़ा सा पोटैशियम सायनाइड मिला है।” अब बताइए, क्या आप मिठाई खा सकते हैं ? अब आपको क्या दिखने लग गया? अब आपको उसमें दुःख दिखने लग गया। पहले सुख दिख रहा था। प्लेट वही, मिठाई वही, केवल आपका विचार, आपका ज्ञान और आपकी दृष्टि बदल गई। पहले जो चीज आपको सुखदायी दिख रही थी, वही अब दुःखदायी दिख रही है। इसलिए अब आप उसे नहीं भोगेंगे। अब आप कहेंगे-यह दुःख मिश्रित मिठाई है, हमें यह नहीं चाहिए। हो सकता है-आप तीव्रता से, उग्रता से उसका नाम ही बदल दें। आप कहेंगे- यह मिठाई नहीं है, यह तो जहर है। कोई कहेगा-”भाई ! जहर क्यों बोलते हो, यह मिठाई ही तो है।” आप कहेंगे-”श.. श…. मिठाई का नाम मत लो, इसे जहर बोलो।”जहर बोलेंगे, तो इच्छा नहीं होगी, छूट जाएगी। मिठाई बोलेंगे, तो खाने की इच्छा होगी। फिर खाएँगे, फिर परिणाम भोगना पड़ेगा।
इस प्रकार जिस व्यक्ति की मिठाई खाने की इच्छा है, उसको पता नहीं कि इसमें पोटैशियम सायनाइड है, वो खाएगा और मरेगा। जिसको मालूम है कि इसमें पोटैशियम सायनाइड है, न खाएगा, न मरेगा, वह तो बच जाएगा।
संसार के, इन्द्रियों से भोगे जाने वाले, जो भी लौकिक-सुख हैं, ये दुःख से मिश्रित हैं। इनमें दुःख का जहर मिला हुआ है। जिसको वो जहर नहीं दिखता है, जिसको वो दुःख नहीं दिखता है, वो इनका सुख भोगेगा, और इसलिए उसे दुःख भी भोगना होगा। वो मिठाई भी खाएगा और जहर भी खाएगा।
स भगवान ने तो उनको सावधान कर रखा है-”ऐ भाई, इनके पीछे मत पड़ो, नहीं तो तुम्हें परिणाम में दुःख भोगना पड़ेगा। एक सुख के बदले चार-चार दुःख भोगने पड़ेंगे।” अब लोग न पढ़ें, न सुनें, इस बात पर ध्यान न दें, तो भगवान क्या करे? उसका दोष थोड़े ही है, यह लोगों का दोष है।
स यदि वेद-शास्त्रों को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि उसमें मोक्ष को ही अंतिम लक्ष्य बताया है, कोई और लक्ष्य बताया ही नहीं।अब मोक्ष वाले निष्काम कर्म करो, तो ईश्वर आपको मोक्ष का सुख भी देंगे।
स लोगों की योग्यता कम है, लोगों के ज्ञान का स्तर कम है, इसलिए उन्हें ऐसा लगता है कि खाने-पीने में बड़ा सुख है। इसलिए वे खाने-पीने के, भौतिक-सुखों के पीछे पड़ जाते हैं।
एक और उदाहरण देता हूँ। जब हम छोटे बच्चे थे, तो हमारी खुशी के लिए हमारे माता-पिता क्या करते थे? छोटे-छोटे खिलौने लाकर देते थे। बच्चा उन खिलौनों से खेल सकता है, और उसमें खुश हो सकता है। मगर बीस साल के जवान को वही गुड्डे-गुड़िया, वगैरह दो, तो क्या वह उनसे खेलेगा, और उनसे खुश हो जाएगा? नहीं होगा न। वे खिलौने छोटे बच्चे को प्रसन्ना कर सकते हैं, युवा और वृ( व्यक्ति को प्रसन्ना नहीं कर सकते। इसी तरह से जो ज्ञान की दृष्टि से छोटा है, ज्ञान का स्तर जिसमें कम है, जिसको संसार में सुख दिखता है, उसको तो ये संसार की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं, बिल्कुल खिलौनों की तरह।जिसका ज्ञान विकसित हो गया, वो बीस साल का युवा व्यक्ति जैसा हो गया। खाना-पीना, घूमना-फिरना, गपशप मारना, संगीत सुनना, इसमें जो सुख ले रहे हैं, यह तो बच्चों की खिलौनों वाली बात है। हमारी उम्र बीस साल की हो गई, अब ये खिलौने हमको खुश नहीं कर सकते। अब तो हमको भगवान का सुख चाहिए। यह दुनिया का सुख तो बच्चों के खिलौने वाला जैसा सुख है। यह हमको नहीं चाहिए। हमको ये चीजें ज्यादा आकर्षित नहीं कर सकतीं। यह ज्ञान के स्तर की बात है।
स जिस-जिस व्यक्ति को यह समझ में आ जाता है कि ये संसार के सुख, खिलौनों की तरह हैं। अब मुझे ये नहीं चाहिए, मैं इनसे थक गया हूँ, मुझे तो ईश्वर का मोक्ष वाला सुख चाहिए। वह सांसारिक सुख भोगना छोड़ देता है। जब सांसारिक सुख छोड़ देता है, तो उसके साथ जो दुःख मिल रहा था, वह भी छूट जाता है। फिर वो ईश्वर को पकड़ता है और समाधि लगाकर मोक्ष में चला जाता है।
स इस तरह ईश्वर ने पिछले कर्मों का फल भुगवाने के लिए और मोक्ष की प्राप्ति कराने के लिए यह सृष्टि बनाई।

(289) शंका :- ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, फिर ईश्वर ने ऐसा संसार क्यों नहीं बनाया, जिसमें केवल सुख ही होता, दुःख बिल्कुल न होता। भौतिक सुखों में दुःख क्यों है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

संसार में सुख के साथ-साथ दुःख भी भोगने को मिलता है। कारण कि :-
(1) पहली बात- इसका एक कारण प्रकृति है। प्रकृति जो बेसिक मैटीरियल (मूल द्रव्य) है। प्रकृति से इस संसार को बनाया गया है।
स प्रकृति के तीन पार्टिकल्स (अवयव-कण) हैं। एक है- सत्त्व गुण, दूसरा है- रजो गुण, तीसरा है- तमोगुण।
स संसार को बनाने वाले इन तीनों कणों की प्रापर्टीज (विशेषताएँ) अलग-अलग हैं। सत्त्व गुण का स्वभाव हैं-सुख देना। रजो गुण का स्वभाव है- दुःख देना। तमो गुण का स्वभाव है- मूर्खता, पागलपन पैदा करना।
अब देखिए, प्रकृति रूपी मैटीरियल ही ऐसा है कि उसमें सुख भी मिलता है, दुःख भी मिलता है, और मूर्खता भी पैदा होती है। तो भगवान इसमें क्या करे? तीनों पार्टीकल्स में अच्छा केवल एक ही है-सत्त्व गुण। रजो गुण बेकार है, क्योंकि वो दुःख देता है। और तमोगुण भी बेकार है, क्योंकि वो पागलपन और नशा पैदा करता है। तीन कण में से दो तो खराब हैं, केवल एक ही अच्छा है। तैंतीस प्रतिशत मैटीरियल अच्छा है, षड़सठ प्रतिशत तो बेकार है। इसलिए उसमें दुःख तो मिलना ही मिलना है।
स भगवान ने तो इतनी अच्छी कलाकारी दिखाई कि, इस बेकार मैटीरियल से इतनी बढ़िया दुनिया बना दी। ऐसी प्यारी दुनिया, कि अधिकांश लोग इस दुनिया को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं हैं।
स भगवान ने इतनी अच्छी दुनिया बना कर कह दियाः- तुमको संसार का सुख लेना हो, ले लो। जब तक इसमें दुःख समझ में नहीं आए, तब तक संसार का सुख भोगो। और जब समझ में आ जाए, तब इसको छोड़ देना। फिर मेरे पास आ जाना। मैं मोक्ष का बढ़िया आनन्द दे दूँगा।
(2) दूसरी बात- भौतिक सुखों में दुःख होने का दूसरा कारण हमारे कर्म हैं। हमने ‘सकाम कर्म’ किये। ‘सकाम कर्म’ अर्थात् सांसारिक सुख को लक्ष्य बनाकर अच्छे और बुरे कर्म किये। जब हमारे कर्म ही अच्छे और बुरे हैं, तो फल भी दोनों (सुख व दुःख) ही होंगे। केवल सुख फल कैसे हो सकता है? इसलिये संसार में सुख के साथ-साथ दुःख भी मिलता है। यदि केवल सुख चाहिए, तो मोक्ष में जाओ। वहाँ केवल सुख मिलता है।
(3) तीसरी बात- यदि आप कहते हैं कि, ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, वो ऐसा संसार बना दे, जिसमें दुःख हो ही न। इसका उत्तर यह है कि, सर्वशक्तिमान का अर्थ यह नहीं कि ईश्वर नियम के विरु(, जो चाहे सो कर दे। यदि आप ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जो चाहे, सो कर सकता है, तो मैं आपसे पूछता हूँ कि, क्या ईश्वर बिना प्रकृति (उपादान कारण) के भी जगत् को बना सकता है? नहीं।
जैसे ईश्वर बिना प्रकृति के जगत् को नहीं बना सकता। ऐसे ही वह प्रकृति की विशेषताओं (सत्त्व-सुख देना, रज-दुःख देना, तम-नशा उत्पन्ना करना आदि) को भी नहीं बदल सकता। इसीलिए वह दुःख-रहित, केवल सुखमय, संसार को नहीं बना सकता।

(290) शंका :- मानव तो उन्नाति कर रहा है, अतः भगवान को तो खुश होना चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आज जो हो रहा है, वह उन्नाति नहीं है।
स उन्नाति की सही परिभाषा है किः-”जिससे लौकिक सुख बढ़े, दुःख-तनाव कम हो, और ‘मोक्ष’ की सि(ि (प्राप्ति) हो, वह उन्नाति है।”
आधिभौतिक उन्नाति वहाँ तक करो, जहाँ तक मोक्ष प्राप्ति में सहायता मिले। जो ऐश्वर्य और मोह-माया आपको मोक्ष तक जाने से ही रोक दे, वह उन्नाति नहीं है। ऐश्वर्य उतना ही बढ़ना चाहिए, जितना कि वह मोक्ष प्राप्ति में सहायक हो, और संसार को सुचारु रूप से चला सकने में समर्थ हो।
स आज तो ऐसा देखने में नहीं आ रहा। आज तो सम्पत्ति से लोगों का सुख नहीं बढ़ रहा। दुःख-तनाव, असंतोष, अशांति एवं
अपराध ही बढ़ रहे हैं।
स यह स्थिति मोक्ष-प्राप्ति में भी सहायक नहीं है। इसलिए आज की स्थिति को हम ‘उन्नाति’ नहीं कह सकते।
स स्वामी दयानंद जी ने कहा है कि-”जब ऐश्वर्य मात्रा से अधिक बढ़ता है, तो मनुष्य में प्रमाद और आलस्य आदि दोष उत्पन्ना होते हैं।” महाभारत यु( का कारण भी यही था। उस समय शक्ति और ऐश्वर्य अधिक बढ़ गया था। इसलिए यु( हुआ। महाभारत यु( का परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। अतः अधाधुंध धन बढ़ाते जाना उन्नाति नहीं है।

(291) शंका :- इन्द्रियों के सुखों को भोगकर उनसे तृप्त होना अच्छा है, दमन (सप्रेशन) करना अच्छा नहीं, ओशो, फ्रायड ने ऐसी बातें कही हैं। क्या सही है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम कहते हैं-ओशो, फ्रायड आदि का यह कहना गलत है। कारण किः-
स सारी दुनिया भोगों को भोग कर इन्द्रियों को तृप्त करने की कोशिश कर रही है। सारी दुनिया यही तो कर रही है। और क्या कर रही है? सुखों को भोगकर क्या किसी की तृप्ति हो गयी? क्या सुख से मन पूरी तरह भर गया?
स क्या यह हमारा पहला जन्म है? पहले कितने ही जन्म हो गए। पिछले जन्मों में हमनें और क्या किया? यही तो किया, खाया-पिया और भोगा। पिछले सैकड़ों-हजारों जन्मों से आज तक तो तृप्ति हुई नहीं। आगे और दो सौ, पाँच सौ, हजार जन्म ले लो, और भोग लो भोगों को, क्या तृप्ति हो जायेगी? नहीं, इसलिए ओशो, फ्रायड की बात गलत है।
स ऋषि लोग और मैं भी यही कहता हूँ कि-”भोगों को भोगने से इच्छाएं शांत नहीं होतीं बल्कि और भड़कती हैं, और बढ़ती जाती हैं।” इसलिए इन लोगों का कहना ठीक नहीं है। यह ऋषियों के, वेद के, मनोविज्ञान के विरु( है। हाँ, अगर कोई परीक्षा की दृष्टि से विषयों का सेवन करे, तो अलग बात है।
स सुख-भोग के दो दृष्टिकोण हैं। एक होता है – अधाधुंध सुख भोगना, यह मानकर भोगना कि विषयों में बहुत सुख है। इस भावना से कभी भी तृप्ति (संतुष्टि) नहीं होगी। और दूसरी प(ति यह है कि विषयों का परीक्षण किया जाए कि- इनमें कितना सुख है। इन विषयों के भोग से तृप्ति होती है कि नहीं होती?
अगर कोई परीक्षण करने की दृष्टि से विषयों का सेवन करे, तो उसको ‘सत्य’ समझ में आ जाएगा। तब तो सुख का भोग करने में लाभ है। दो बार, पाँच बार, पच्चीस बार, पचास बार परीक्षण करेगा और उसको समझ में आ जाएगा कि इनमें तृप्ति नहीं है। इस दृष्टि से तो भोग कर सकते हैं। इसमें आपत्ति नहीं है, पर जैसा कि यहाँ प्रश्न में लिखा है, वो प(ति ठीक नहीं है। ऐसे कोई तृप्ति नहीं होती।

(292) शंका :- आत्मा’ और ‘शरीर’ बुरी तरह एक दूसरे में घुले-मिले हैं, इनको अलग-अलग कैसे मानें?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

आत्मा’ और ‘शरीर’ को अलग-अलग मानने के लिए कुछ मोटी-मोटी बातें अवश्य समझ लें। सवाल उठता है कि – क्या ‘आत्मा’ उत्पन्ना होती है? जवाब है, नहीं। क्या ‘शरीर’ उत्पन्ना होता है? जवाब है, हाँ। ‘आत्मा’ न उत्पन्ना होती है, न मरती है, जबकि ‘शरीर’ उत्पन्ना होता है और मरता है। इसी तरह आत्मा बूढ़ी नहीं होती, शरीर बूढ़ा होता है। आत्मा आँख से दिखती नहीं, शरीर आँख से दिखता है। इस तरह हो गए न, दोनों अलग-अलग।

(293) शंका :- संसार की घटनाओं से हमें कैसे और क्या सीखना चाहिए? क्या संसार में प्राप्त होने वाले सुख-दुःख को हमें याद रखना चाहिए या भूल जाना चाहिए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

सीखने वाला व्यक्ति हर घटना से सीखता है, फिर चाहे वह सुखदायक हो या दुःखदायक। इसलिए सुख को याद भी रखो और भूल भी जाओ। इसी प्रकार दुःख को याद भी रखो और भूल भी जाओ। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति ने हमें दुःख दिया, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि इसने हमारा नुकसान किया है। अतः भविष्य में इससे सावधान रहा जाए। यदि इस दृष्टि से याद रखें, तो ठीक है। पर यह सोचकर याद नहीं रखना चाहिए कि वह बड़ा खराब है, यदि मौका मिला, तो मैं इससे बदला जरूर लूँगा। इस प्रकार के दुःख को याद नहीं रखना चाहिए। इससे द्वेष पैदा होता है। इसलिए इसे भूल जाना ही बेहतर है।
इसी प्रकार यदि हम संसार की वस्तुओं को यह सोचकर भोगेंगे कि इसमें बड़ा सुख है और यह हमें बार-बार प्राप्त होना चाहिए, तो ऐसा करना गलत है। इस प्रकार सोचने पर हमें राग हो जाएगा और हम माया के जंजाल में फँस जायेंगे। इसलिए सुख को इस रूप में याद रखो कि हमने पदार्थों का उपभोग किया और स्वस्थ जीवन जिया। इसी का नाम सामान्य सुख है।
जीवन में केवल सामान्य सुख याद रखना चाहिए, बस। बाकी जो इंद्रिय-सुख है, उसे भूल जाना ही बेहतर है। ऐसा करने पर ही ‘वैराग्य’ होगा और ‘मोक्ष’ की ओर बढ़ना संभव हो पाएगा।

(294) शंका :- जो हम चाहते हैं, वो हमें नहीं मिलता। जो हम नहीं चाहते, वो हमें मिल जाता है। ऐसा क्यों?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

हम सर्वशक्तिमान नहीं हैं। हम इस दुनिया के मालिक या राजा नहीं हैं। सब लोग हमारे आधीन नहीं हैं कि, जैसा हम चाहें, वैसा ही हो।
स हम जो नहीं चाहते, दूसरे वो हमको जबरदस्ती थोप देते हैं। हमें वो काम करना पड़ता है। क्या करें, हम सबसे बड़े नहीं हैं। हम कईयों के नीचे रहते हैं। छोटे हैं तो हमें बड़ों की बात माननी पड़ती है, चाहे हमारी इच्छा हो, या न हो।
स दूसरे लोग स्वतंत्र हैं, इसलिए वो अपनी इच्छा से काम करते हैं। हम जैसा चाहते हैं, वे वैसा सहयोग नहीं देते। यह उनकी अपनी स्वतंत्र इच्छा है। इसलिए सब कुछ हमारी इच्छानुसार नहीं हो सकता।

(295) शंका :- एक वाक्य लिखा है कि मेरी आत्मा नहीं मानती। यह वाक्य कौन कहता है-मेरी आत्मा नहीं मानती। इसका मतलब, मैं आत्मा से भी अलग चीज हूँ?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

प्रश्न यह उठाया है कि यह वाक्य बोला जाता है कि- ‘मेरी आत्मा नहीं मानती’। इससे फिर शंका पैदा होती है कि ‘मैं’ आत्मा से भी कोई और अलग चीज हो गया। जैसे ‘मेरा पेन’, ‘मेरा शरीर’, ऐसे ही ‘मेरी आत्मा’। इसका समाधान हैः-
स मेरे हाथ में पेन है। मैं एक वाक्य बोलता हूँ- यह मेरा पेन है। इस वाक्य का अर्थ क्या हुआ? क्या मैं पेन हूँ या पेन से अलग हूँ ?
उत्तर है – मैं पेन से अलग हूँ।
दूसरा वाक्य है – यह मेरी घड़ी है। तो क्या मैं घड़ी हूँ?
उत्तर है – नहीं, घड़ी से अलग हूँ।
ऐसे ही तीसरा वाक्य – यह मेरा हाथ है। क्या मैं हाथ हूँ?
उत्तर है – नहीं, हाथ से अलग हूँ।
ऐसे ही चौथा वाक्य – यह मेरा शरीर है। क्या मैं शरीर हूँ?
उत्तर है – नहीं, मैं शरीर से अलग हूँ।
तो मैं कौन हूँ? उत्तर है – मैं आत्मा हूँ।
जैसे यह मेरा पेन है, यह मेरी घड़ी है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा शरीर है। चारों जगह पर ‘मेरा’ शब्द है। यह मेरा पेन है, मैं पेन से अलग हूँ। यह मेरी घड़ी है, मैं घड़ी से अलग हूँ। यह मेरा हाथ है, मैं हाथ से अलग हूँ। यह मेरा शरीर है, मैं शरीर से अलग हूँ, तो फिर शरीर से अलग रहने वाला मैं कौन हूँ? मैं आत्मा हूँ।
स यह जो शंका लिखी है कि मेरी आत्मा नहीं मानती, यह वाक्य गौण है। यह मुख्य कथन नहीं है। अपने भाषा साहित्य में दो प्रकार के वाक्य होते हैंः- एक मुख्य और दूसरे गौण।
मुख्य-वाक्य का मतलब होता है, जिस वाक्य का सीधा-सीधा अर्थ लिया जाए और गौण-वाक्य का मतलब होता है, जिसका सीधा अर्थ नहीं ले सकते। थोड़ा अर्थ बदल करके लेना पड़ता है। उसमें सीधा-सीधा अर्थ लागू नहीं होता। कैसे? ‘जैसे लोहे के चने चबाना’ एक मुहावरा है। अब लोहे के चने मुँह में डाल के दाँत के नीचे चबाएंगे क्या? फिर भी यह एक प्रचलित मुहावरा है।
स कुछ बोलचाल में ऐसे अजीब-अजीब शब्द होते हैं लेकिन उन वाक्यों का सीधा-सीधा अर्थ नहीं लिया जाता। आप लोग मुम्बई से रेलगाड़ी में बैठे। जब रेलगाड़ी अहमदाबाद पहुँच गई तो आपने क्या बोला, चलो-चलो उतरो, अहमदाबाद आ गया। क्या अहमदाबाद आ गया? अरे ! अहमदाबाद तो वहीं खड़ा है। अहमदाबाद कहाँ चलकर आया? आप चल करके आए हैं अहमदाबाद। दिल्ली वाले भी अहमदाबाद आए, मुम्बई वाले भी अहमदाबाद आए। और बोलते क्या हैं कि उतरो-उतरो अहमदाबाद आ गया। वो तो वहीं खड़ा है, मुम्बई वहीं खड़ी है, दिल्ली वहीं खड़ी है। कोई भी नहीं चलता, पर हम बोलने में ऐसा बोलते हैं। इसको बोलते हैं, गौण-भाषा। यह मुख्य भाषा नहीं है। यहाँ पर अर्थ बदलना पड़ता है। जब आपको ऑटो-रिक्शा पकड़ना होता है, तो क्या आवाज लगाते हैं, ओ रिक्शा! रिक्शा सुनता है क्या? फिर किसको बोल रहे हैं, ओ रिक्शा! जैसे यह गौण कथन है। यह वास्तविक नहीं है, वैसे ही – ‘मेरी आत्मा नहीं मानती’ यह भी गौण कथन है। मुख्य कथन है कि – ”मैं” मानने को तैयार नहीं हूँ। मैं ही तो ‘आत्मा’ हूँ, मेरी आत्मा मुझसे कोई अलग वस्तु नहीं है।

(296) शंका :- सारे लोग हमारी इच्छा के अनुकूल व्यवहार करें, क्या ऐसा हो सकता है?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

बिल्कुल नहीं हो सकता। कारण यह किः-
स हर एक का अपना-अपना स्वभाव है। हर एक की बु़(ि दूसरे से अलग है, हर एक के विचार अलग हैं, हर एक के संस्कार अलग हैं, हर एक का ज्ञान-विज्ञान का स्तर अलग है। किन्हीं दो व्यक्तियों के विचार सौ प्रतिशत एक समान नहीं हो सकते। उसमें दो, पाँच, दस, पंद्रह, बीस, पच्चीस प्रतिशत यानि कुछ न कुछ तो अंतर रहेगा ही।
स जिस व्यक्ति के साथ व्यवहार कर रहें हैं, उसके सिर में आपका दिमाग नहीं रखा है, तो फिर वह आपकी इच्छा के अनुकूल व्यवहार कैसे करेगा? उसके सिर में उसका दिमाग है, इसलिए वह अपने ढंग से व्यवहार करेगा और आपके सिर में आपका दिमाग है, इसलिए आप अपने ढंग में व्यवहार करेंगे। जिसकी जितनी बु(ि, उतना ही तो वह करेगा।
हाँ, अगर ऐसा हो जाए कि आपकी बु(ि उसके दिमाग में फिट कर दी जाए, फिर तो जैसा आप चाहते हैं, वैसा व्यवहार भी वह कर ले, लेकिन ऐसा तो हो नहीं सकता।
स चाहे कहीं भी रहो, परस्पर विचार-भिन्नाता और लड़ाई, झगड़े होंगे। घर-परिवार में राग-द्वेष, अविद्या अधिक होती है। इसलिए वहाँ कलह ज्यादा होती है।
एक आदमी घर में पंद्रह साल रहा। जहाँ-जहाँ विचारों में टकराव आता था, वहाँ-वहाँ उसने समझाने का प्रयास किया लेकिन वो नहीं सुधरे। घर में रहते हुए समाधान नहीं मिल पाया, इसलिए उसने थोड़ा विचार किया कि – ”भई, घर की स्थिति देखते-देखते चार-पाँच साल हो गए। वो अब सुधरने वाली नहीं है। इसलिए वहाँ रहने से कोई लाभ नहीं है। चलो, आश्रम चलतें हैं।” आश्रम में वे नई स्थिति में आ गए, नए लोगों के बीच में आ गए। जब वे इनसे थोड़ा व्यवहार करेंगे, तब झगड़ा तो यहाँ भी होगा, लेकिन थोड़ा कम होगा। क्योंकि साथ रहने वाले मनुष्य ही तो हैं। और सारे मनुष्यों में कुछ न कुछ अविद्या तो अभी बची हुई है। अगर अविद्या खत्म हो गई होती तो इस संसार में जन्म नहीं होता, तब मोक्ष ही मिल जाता। अविद्या अभी बाकी है तो राग-द्वेष भी होंगे ही।
अब चाहे दूसरे नगर में जाओ, गाँव में जाओ, जंगल में जाओ, जिन भी व्यक्तियों के साथ रहेंगे,उनमें थोड़ा बहुत राग-द्वेष तो रहेगा ही। अंतर इतना ही है कि घर में ज्यादा अविद्या, राग-द्वेष और झगड़ा था, आश्रम में रहने आ गए तो थोड़े कम अविद्या, राग-द्वेष वाले लोग मिले तो, कम झगड़ा हुआ। यहाँ भी सहन (एडजस्टमेंट) नहीं किया तो लोगों से फिर तनातनी हो गई। फिर गुस्सा आ गया, तो फिर झगड़ा हो गया। अब व्यक्ति वहाँ भी नहीं टिकेगा।
स बहुत लोगों को घूमते देखा है हमने। घर छोड़े बीस साल हो गए, फिर भी बेचारे आज तक एक जगह से दूसरी जगह भटक ही रहें हैं। एक भी स्थाई जगह नहीं बन पाई। वे कहीं खाने की व्यवस्था में, कहीं प्रबंध व्यवस्था में, कहीं आचार्य के विषय में, कहीं शोर-शराबे के विषय में दोष निकालते रहते हैं। वे कहीं भी ‘एडजस्ट’ नहीं कर पाते। इसलिए मानकर के चलो, व्यक्ति कोई भी हो, वह कुछ न कुछ ऊँचा-नीचा व्यवहार तो करेगा ही।
स दो व्यक्तियों के विचारों में कुछ न कुछ अंतर रहेगा ही। दरअसल, उसी को तो हमें समझना है। जो इस अंतर को समझ लेता है, सहन कर लेता है, समायोजन कर लेता है, वो सुखी है, सफल है, उसका जीवन ठीक है, वह आगे बढ़ जाएगा, उन्नाति कर पाएगा। इस अन्तर को हमें सहन करना है, वस्तुतः यही ‘तपस्या’ है। इससे व्यक्ति की गाड़ी चल निकलेगी।
स प्रतिकूलता को सहन नहीं करना टकराव पैदा करेगा, झगड़े पैदा करेगा। तो वो उन्हीं झगड़ों में उलझकर के रह जाएगा, आगे नहीं बढ़ पाएगा। उसकी वास्तविक उन्नाति नहीं हो पाएगी। अपने विचारों का समायोजन (एडजस्टमेंट) झगड़े से बचने का मुख्य उपाय है।

(297) शंका :- शंका- सृष्टि (जगत्) में सभी जीव, परमात्मा के लिए संतानवत् हैं तो परमात्मा प्राकृतिक प्रकोप के द्वारा क्या दर्शाना चाहता है-दयालुता या न्यायकारिता? कई जीव पृथ्वी पर पैर रखते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसा क्यों?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

समाधान- प्रश्नकर्ता ने पूछा है कि इससे ईश्वर अपनी दयालुता दिखाना चाहता है या न्यायकारिता। इसका अर्थ कहीं न्यायकारिता हो सकता है और कहीं यह भी हो सकता है कि भगवान ने पहले ही कह रखा था कि मैं सृष्टि बनाऊँगा और इसमें दुर्घटनाएं होंगी। आपका काम है, दुर्घटना से बच के चलना।
एक इंजीनियर ने कार बनाकर उससे सम्बन्धित पूरा विवरण बुकलेट में छापकर खरीददार को दे दिया। खरीददार को बता दिया गया कि पहले बुकलेट पढ़नी है और इसको समझ के फिर कार का इस्तेमाल करना है।
बुकलेट में पहले से ही यह सूचना दे रखी है कि जब कार का इंजन स्टार्ट होगा तो इंजन में गर्मी बढ़ेगी। और जब गर्मी बढ़ेगी तो उसके रेडिएटर में कूलेन्ट डालकर रखना, उसका इंजन ठंडा रखना और मीटर पर देखते रहना कि कितना तापमान है? पेट्रोल इंजन में अगर सौ डिग्री से ऊपर तापमान गया, तो इंजन में आग लगेगी।
कार चलाने वाला व्यक्ति कूलेंट तो डाले नहीं, रेडिएटर को चेक करे नहीं, मीटर देखे नहीं कि तापमान कितना बढ़ रहा है, इस अवस्था में अगर कार में आग लगती है, तो इसमें किसका दोष है? यह ड्राइवर और कस्टमर का दोष है। कार बनाने वाले इंजीनियर का दोष तो नहीं है।
इसी प्रकार से भगवान ने जब यह सृष्टि बनाई, तो उसने कहा- इस सृष्टि के अंदर भूकंप, तूफान, आँधी, सुनामी, टोरनेडो जैसी कई प्राकृतिक विपदाएं आने की सम्भावना है। आपका काम है – सावधानी से चलते रहना। पता लगाना हमारा काम है कि कहाँ तूफान आ सकता है, कहाँ भूकंप आने वाला है, कहाँ बाढ़ की स्थिति बन सकती है, फिर उससे बच के रहना। अगर हम ध्यान न दें तो किसकी गलती, हमारी या ईश्वर की? हमारी गलती। इसलिए ईश्वर पर दोष नहीं आता है।
हमारा काम है, दुर्घटनाओं से बचना। जब हम सड़क पर चलते हैं तो मोटर गाड़ी से बचकर चलते हैं। ऐसे ही संसार में रहते हैं तो प्राकृतिक दुर्घटनाओं से बचकर चलना भी हमारा ही काम है।
भूकंप के लिए भी पता लगाओ, यह कब आएगा। उसके लिए साइंटिस्ट लोग लगे हैं, रिसर्च कर रहे हैं। दो-चार साल में, पाँच साल में, बीस साल में वो सफल हो जाएंगे। पहले पता लग जाएगा कि कहाँ भूकंप आने वाला है और कितनी तीव्रता से आएगा। चौबीस घंटे पहले भूकंप का पता लग गया तो ठीक है, अपनी जान बचा के भाग जाएंगे। सोए हुए हैं और रात को एक बजे भूकंप आएगा, तो मरेंगे ही। यदि पहले पता लग जाए कि रात को एक बजे भूकंप आएगा तो लोग बाहर भाग जाएंगे या मकान से बाहर सोएंगे, मकान में नहीं सोएंगे।
इस प्रकार से अपनी रक्षा करना हमारा काम है। भगवान ने इसीलिए तो बु(ि दी है कि सावधानी से चलो। इसीलिए तो कहा जाता है कि- मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, तो संसार मे पड़े-पड़े दुःख मत भोगो। समाधि लगाओ, शास्त्र पढ़ो, समाज की सेवा करो, निष्काम कर्म करो और मोक्ष में चले जाओ।

(298) शंका :- क्या संसार में कहीं सुरक्षा नहीं है। माँ की गोद में भी नहीं?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

 समाधान– संसार में कहीं भी सुरक्षा नहीं है। पूरी सुरक्षा केवल ‘मोक्ष’

में है। तीन प्र्रकार से हम पर आपत्ति आ सकती है :-

(1)  एक तो अपनी मूर्खता से, अपनी गलतियों से हम नुकसान उठा लेते हैं। सड़क पर चलते हुए दुकान या बोर्ड देख रहे हैं। जिससे सड़क पर पड़े ऊँचे-नीचे पत्थरों पर हमने ध्यान नहीं दिया और पाँव टकराया, धड़ाम से गिरे, हाथ-पाँव टूट गए। किसकी गलती हुई? हमारी गलती।

सड़क पर केले का छिलका आ गया, हमने उस पर ध्यान नहीं दिया, पाँव पड़ गया, धड़ाम से गिर गए और कमर की हड्डी टूट गई। किसकी गलती  से? हमारी गलती से।

इस तरह एक क्षेत्र ऐसा है, जहाँ हम अपनी गलतियों से नुकसान उठाते हैं। अपनी मूर्खता से जो गलतियाँ की, उससे जो दुःख मिला, उसका नाम है- ‘आध्यात्मिक दुःख’।

(2)  दूसरा क्षेत्र ऐसा है, जहाँ दूसरे प्राणियों की गलतियों से हमको दुःख भोगना पड़ता है। आपका प्रश्न है कि क्या माँ की गोद में हमको नुकसान हो सकता है? उत्तर है कि – माँ ने कोई गलत दवा या खान-पान में कुछ गलत चीज खा ली तो बच्चे को नुकसान हो गया। पिता की भूल से हमको नुकसान हो सकता है। किसी पड़ोस के बच्चे ने क्रिकेट में बॉलिंग की और उसकी बॉल हमारी आँख में लगी। पूरी आँख बेकार हो गई। उसकी गलती से जीवन भर के लिए हमको नुकसान हो सकता है। सड़क पर चल रहे हैं। पीछे से चुपचाप एक कुत्ता आया और उसने टाँग काट ली। स्कूटर वाला, कार वाला हमको ठोंक दे। हम ऐसे किसी गलत गुरु-आचार्य के पल्ले पड़ गए और उसने हमको उल्टे पाठ पढ़ा दिए और मोक्ष के मार्ग से कहीं और भटका दिया। उससे भी हमको नुकसान हो सकता है।

दूसरे व्यक्तियों के कारण से, साँप से, बिच्छुओं से, शेर आदि दूसरे प्राणियों के कारण से, इनके अन्याय से भी हमको दुःख भोगने पड़ सकते हैं। इसे ‘आधिभौतिक-दुःख’ कहते हैं।

(3)  तीसरी हैं – प्राकृतिक दुर्घटनाएं। जैसे – भूकंप, तूफान, बाढ़, आँधी, चक्रवात, सूखा, अकाल, वर्षा आदि। मकान गिर जाते हैं, बाढ़ का पानी भर जाता है। प्राकृतिक दुर्घटनाओं से भी हमको नुकसान उठाना पड़ता है तो दुःख होता है। इसी का नाम है– ‘आधिदैविक-दुःख’।

उपरोक्त तीन प्रकार के दुःख हैं। आपने जन्म ले लिया तो कहीं भी सुरक्षा नहीं। कोई न कोई दुःख आएगा ही।

महर्षि कपिल कहते हैं – ‘कुत्रापि कोऽपि सुखी न’। सीधा सरल वाक्य है। धरती पर कहीं भी कोई भी व्यक्ति पूरा सुखी नहीं है। एक सुख मिलता है, उसके पीछे चार दुःख आते हैं तो सौदा मँहगा पड़ता है। चार रुपए की खरीदी और बिक्री मूल्य एक रुपया। ये कैसा घाटे वाला व्यापार है। सुख मिलता है – ‘एक’ और दुःख मिलते हैं – ‘चार’। इसलिए चारों ओर दुःख ही दुःख है। धरती पर कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है। दार्शनिक दृष्टि से सारे दुःखी हैं।             दर्शन शास्त्र मानसिक सुख-दुःख की बात कर रहा है। मन में अविद्या,

क्रोध, लोभ आदि के कारण सारे लोग दुःखी हैं। इस दृष्टि से दुःख अधिक है।

सत्यार्थ प्रकाश’ में महर्षि दयानंद जी ने लिखा है कि संसार में

सुख अधिक है। उनका तात्पर्य है कि – शारीरिक स्तर पर, बाह्य स्तर पर सुख अधिक है। महर्षि दयानंद बाह्य स्तर की बात कर रहे हैं और महर्षि कपिल, महर्षि पतञजलि आन्तरिक स्तर की बात कह रहे हैं। दोनों ठीक कह रहे हैं। बाह्य स्तर पर तो सुख अधिक है और मानसिक स्तर पर दुःख अधिक है। शारीरिक और मानसिक दोनों दुःख की तुलना करते हैं तो मानसिक ज्यादा हानिकारक है। और मानसिक स्तर पर दुःख अधिक है। इसलिए कपिल मुनि जी कहते हैं – तीन दुःखों से छूटो।

यह मनुष्य का सबसे ऊँचा लक्ष्य है। पूरी सुरक्षा केवल मोक्ष में है। इसलिए फटाफट मोक्ष में सरक जाओ।

(299) शंका :- ‘शंका-समाधान’ क्या है, इससे क्या लाभ होते हैं। कृपया इसके नियम बताइए?

समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक , विषय :- विविध

समाधान :-

‘शंका-समाधान’ एक आवश्यक कार्यक्रम है। ऋषिकहते हैं कि, जब-जब विद्वानों के समीप जाएं, तब-तब सबके कल्याण के लिए प्रश्नोत्तर अवश्य करें। ‘जब-जब विद्वानों के समीप जाएं, तब-तब सबके कल्याण के लिए” यह वाक्यांश खास ध्यान देने का है। अपने और सबके हित के लिए प्रश्न पूछें। इससे अपनी शंका का समाधान तो होगा ही, साथ ही दूसरों को भी लाभ मिलेगा। इस दृष्टि से प्रश्नोत्तर कर सकते हैं।

स   ‘शंका-समाधान’ कार्यक्रम के बारे में कुछ बातें भूमिका के रूप में समझें। दरअसल, इसमें दो हिस्से हैं। एक हिस्सा है- शंका पूछना, और दूसरा हिस्सा है – उसका समाधान करना यानि कि उत्तर देना।

सवाल उठता है कि, इसमें से कौन सा हिस्सा सरल है? वस्तुतः शंका पूछना सरल है, जबकि उत्तर देना कठिन। सरल काम आपके हिस्से में है, और कठिन काम मेरे हिस्से में है, क्योंकि उत्तर मुझे देना है।

कोई भी काम अगर नियमपूर्वक किया जाए, तो उसमें बहुत लाभ होता ही है। यदि नियम तोड़कर काम करेंगे, तो उससे लाभ तो होगा नहीं, उलटे नुकसान ही होगा। कार्यक्रम ‘शंका-समाधान’ आपके लाभ के लिये शुरु किया गया है। अतः स्पष्ट है कि –

    यदि ‘शंका-समाधान’ के नियमों का पालन करेंगे, तो बहुत लाभ होगा। इसके विपरीत, विहित नियमों का पालन नहीं करेंगे, तो नुकसान होगा।

भगवान की कृपा से, गुरुजनों के आशीर्वाद से मुझे काफी कुछ सीखने को मिला है। उसके आधार पर मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करूँगा। पर हम दोनों इस बात का ध्यान रखेंगे कि ‘शंका-समाधान’ के नियमों का पालन हो।

    शंका समाधान के मोटे-मोटे नियम बताता हूँ :-

स   शंका पूछने वाला व्यक्तिजिज्ञासा भाव से प्रश्न पूछे कि – ”हम तो बस जानना चाहते हैं।” अपनी समस्या को सुलझाने के लिए प्रश्न होना चाहिए। उत्तर देने वाला व्यक्ति भी इसी भावना से उत्तर दे कि सामने वाले की शंका दूर करनी है, उसकी समस्या को सुलझाना है। वह किसी और भावना से उत्तर नहीं दे।

आपकी जो समस्या जहाँ अटकी है, उसको सुलझाने के लिए ही उत्तर दिया जाएगा। उत्तर देने वाला भी इसी भावना से उत्तर दे कि मुझे इसकी शंका का समाधान करना है। जो समस्या अटक रही है, उसको सुलझाना है। उसका मार्ग स्पष्ट करना है, वो कहाँ अटका हुआ है, उसकी वो उलझन दूर करनी है। इस भावना से उत्तर देना चाहिए।

स   पूछने वाला व्यक्ति कभी-कभी अपनी भावनाएं गलत बना लेता है।  ऐसा व्यक्ति सोचता है कि – ”मैं ऐसा प्रश्न पूछूँगा, जिसका सामने वाले को उत्तर ही नहीं सूझे।” वे लोग गलत सोचते हैं कि ”हम ऐसा कठिन, टेढ़ा-मेढ़ा सवाल पूछेंगे कि सामने वाला जिसका उत्तर ही नहीं दे पाएगा। और जब वो उत्तर नहीं दे पाएगा, तब सब तमाशा देखेंगे। सब लोग उस पर हँसेंगे, तो बड़ा मजा आएगा। ”याद रखें कि ऐसी भावना से प्रश्न पूछने से लाभ नहीं होता, बल्कि नुकसान ही होता है। इसलिए ऐसी भावना से प्रश्न पूछना ठीक नहीं है।

स   आप भी एक गारंटी दें कि आप प्रश्न ‘जिज्ञासा-भाव’ से पूछेंगे और मन में कोई गलत उद्देश्य नहीं बनायेंगे।’ दुःख देने के लिए, हार-जीत के लिए, सामने वाले को अपमानित करने के लिए, उसको नीचा और अपने को ऊँचा दिखाने के लिए प्रश्न-उत्तर नहीं करना है। मैं आपको अपनी ओर से गारंटी देता हूँ कि, आपकी समस्याओं को सुलझाने के लिए ही आप के प्रश्नों के उत्तर दूँगा। किसी को दुःख देना, अपमानित करना आदि एक प्रतिशत भी मेरा उद्देश्य नहीं है।

स   कभी-कभी ऐसे प्रश्न भी सामने आ सकते हैं कि पूछने वाले ने एक प्रश्न पूछ लिया और बताने वाले को उत्तर समझ में नहीं आया। वहाँ पर मान-अपमान के कारण उसको झूठ नहीं बोलना चाहिए। उल्टा-पुल्टा कोई भी जवाब दे दें, ऐसा भी नहीं करना चाहिए। उत्तर नहीं सूझता तो साफ बोल दें – ”भई, हमको उत्तर समझ में नहीं आया।”

पहले से मेरा स्पष्टीकरण सुन लीजिए। उत्तर मालूम है तो बता देंगे, नहीं मालूम तो साफ बोल देंगे कि, नहीं आता। झूठ नहीं बोलेंगे, जानबूझकर धोखा नहीं देंगे, यह गारंटी है। उत्तर आता नहीं है और तोड़मरोड़ करते रहें, ऐसा काम हमें नहीं आता है। ऐसा करना यम-नियम के विरु( है।

स   गुरुजी ने मुझे बहुत मजबूत बना दिया है। इसलिए मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं पता है, मैं तो साफ बोल देता हूँ कि इस प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं आता। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने की कोई गारंटी नहीं है।

जिस प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं आता तो भविष्य में और पढ़ेंगे, सीखेंगे और कभी उत्तर समझ में आ जाएगा तो फिर आपको बताएंगे। जितना समझ में आएगा, उतना बता देंगे। यह हमारी ओर से गारंटी है। पक्की बात बताएंगे, पूरा जोर लगाएंगे।

    हम बु(ि से, तर्क से, शास्त्रों के आधार पर प्रामाणिक बात बताएंगे, ठीक बताएंगे, धोखा नहीं देंगे, छल नहीं करेंगे, गलत उत्तर नहीं देंगे। हाँ, अनजाने में कोई भूल हो जाए, तो वो एक अलग बात है।

स   अज्ञानतावश कोई भूल हो गई, बाद में समझ में आ गई कि, यह तो गलत बात कह दी, तो उसका सुधार कर उसको ठीक कर देंगे। हम जानबूझकर गलत बात नहीं कहेंगे।

स   योग-शिविर में प्रश्न लिखकर भेंजे तो अच्छा रहेगा। प्रश्न पूछने वाले प्रश्न के नीचे अपना नाम अवश्य लिखें, जिससे कि जरूरत पड़े तो पूछा जा सके कि- ”भई, यह प्रश्न तो मुझे समझ में नहीं आया। इसका स्पष्टीकरण दीजिए।”

स   हो सकता है कि, आपके विचारों और हमारे विचारों में अंतर हो। कई बातों में विरोध भी हो सकता है, टकराव हो सकता है, लेकिन कोई बात नहीं। आपने अब तक जैसा सुना-सीखा, आप वैसी बात जानते-मानते हैं। हमने जैसा सुना-सीखा, हम वैसा जानते-मानते हैं। परस्पर कुछ विचारों में अंतर हो सकता है। उसकी कोई चिंता नहीं। फिर भी आप प्रेमपूर्वक अपनी शंका पूछें और उतने ही प्रेमपूर्वक उसका उत्तर भी सुनें।

मान लो कि कोई बात आपने 20-30 साल से सुन रखी है, और वो बात आपको ठीक लगती है। और हमने यहाँ उसके विरु( कोई बात बता दी कि, यह बात ठीक नहीं है। अतः आपको हमारी वो बात जचती नहीं है।

आपको बात समझ में नहीं आई तो कोई बात नहीं। उसके दो विेकल्प हैं। पहला- या तो अलग से बैठकर कुछ विस्तार से बातचीत कर लेंगे। आगे और बताने का प्रयास करेंगे, प्रमाण देंगे, तर्क देंगे। हो सकता है कि बात कुछ समझ में आ जाए।

स  समझाने पर भी समझ में नहीं आया तो झगड़ा नहीं करेंगे। आपकी ओर से भी ऐसी गारंटी मिलनी चाहिए कि आप भी झगड़ा नही करेंगे, झगड़े के लिए प्रश्न नहीं पूछेंगे। आप केवल जिज्ञासा-भाव से प्रश्न पूछेंगे।

स   दूसरा विेकल्प है – जो बात समझ में नहीं आई, उसको साइड में विचाराधीन (पेंडिंग) के रूप में रख दें। आगे उस पर और विचार करते रहेंगे। जरूरी नहीं कि हर एक बात आपको समझ में आ ही जाए। आपने प्रश्न पूछा, हमने उत्तर दिया। हम इस बात की कोई गारंटी नहीं लेते कि आपको हमारी सारी बातें आज ही समझ में आ जाएंगी। ऐसा बिलकुल नहीं होगा।

स   कुछ ऐसी बातें होती हैं, जिनको समझने में समय लगता है। जो बात समझ में न आये, तो कोई बात नहीं। यह न कहें कि, आपका उत्तर गलत है। आपका यह कहना अनुचित है। यह आपका अधिकार नहीं है।

स   अगर आप मुझसे यह कहते हैं कि ‘आपका उत्तर गलत है’, तो इसका मतलब यही हुआ कि सही उत्तर क्या है, वह आप पहले से जानते हैं। और जब आप सही उत्तर जानते हैं, तो फिर प्रश्न पूछा क्यों? मेरी परीक्षा लेने के लिए नहीं आए आप। यह गलत बात है। यदि आप परीक्षा लेने की भावना से प्रश्न पूछेंगे, तो आपको नुकसान हो सकता है। इसलिए परीक्षा लेने के उद्देश्य से कोई प्रश्न न पूछें। अपनी समस्या को सुलझाने के लिए पूछें और इसी भावना से मैं आपको प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करूँगा।

स   उत्तर समझ में आया तो बहुत अच्छा, नहीं आया तो चिंतन करें, विचार करें। जो लोग कुछ स्वाध्याय करते हैं, शास्त्रों को पढ़ते हैं, अध्ययन करते हैं, कुछ पृष्ठभूमि बनी हुई है, उनको हमारी बात जल्दी समझ में आएगी।

जो स्वाध्याय नहीं करते, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, दर्शन, उपनिषद्, वेद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करते, तो उनको बात समझने में देर लगेगी। उनका बैकग्राउण्ड नहीं है। अगर आपने पहले से कुछ स्वाध्याय किया है, आपका कुछ पूर्वचिन्तन है, तो हो सकता है कि बात आज ही आज आपको समझ में आ जाए। अगर स्वाध्याय कम है तो हो सकता है कि आज समझ में नहीं आए।

स   आज आप उस बात को सुनें, उस पर विचार करें, लेकिन फिर भी समझ में नहीं आए। हो सकता है कि एक हफ्ते में समझ में आ जाए। समझने में अधिक समय भी लग सकता है। दो हफ्ते, पन्द्रह दिन, एक माह, दो माह, छह माह भी लग सकते हैं। कोई-कोई बात ज्यादा कठिन होती है कि, वो छह महीने में भी समझ में नहीं आती। ऐसी कठिन-कठिन बातें भी होती हैं, जिनको समझने में कई-कई वर्ष लग जाते हैं। कुछ बातें ंिदमाग में कई वर्षों के बाद बैठती  हैं।

स   बात समझ में नहीं आयी, तो कोई चिंता की बात नहीं है। झगड़ा नहीं करना, यह नहीं कहना कि आपका उत्तर गलत है। यह कहना ठीक है कि – ”आपने उत्तर दिया, मगर वो हमारी समझ में नहीं आया। इस पर हम और सोचेंगे, विचार करेंगे, पढ़ेंगे, अध्ययन करेंगे। धीरे-धीरे समझ में आएगा।” एक उदाहरण दे रहा हूँ। प्रश्न है – संसार में व्यक्ति को सम्मान की इच्छा करनी चाहिए या अपमान की इच्छा करनी चाहिए? प्रायः सबका उत्तर यही होगा कि सम्मान की इच्छा करनी चाहिए। यह उत्तर गलत है। सही उत्तर है- अपमान की इच्छा (आध्यात्मिक व्यक्ति को) करनी चाहिए। दरअसल, यह बात आपकी समझ में आज तो नहीं बैठेगी। इसको दिमाग में बैठाने के लिए कई साल चाहिए। कई साल तपस्या करनी पड़ेगी, तब यह बात समझ में आएगी कि अपमान की इच्छा करनी चाहिए। यह मेरे अपने घर की बात नहीं है। यह महर्षि मनु जी की बात है। मनुस्मृति में कहा है –

सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।

              अमृतस्येव चाकाड्.क्षेदवमानस्य सर्वदा।।

”ब्राह्मण, योगाभ्यासी सम्मान से ऐसे डरता रहे, जैसे व्यक्ति विष से डरता है। जैसे जहर से डर लगता है, ऐसे ही व्यक्तिको सम्मान से डरना चाहिये। अपमान की इच्छा ऐसे करनी चाहिए,जैसे व्यक्ति अमृत की इच्छा करता है।” यह बात समझने में बड़ी कठिन है।

स   ऐसे ही और भी बहुत सी बातें होंगी जो आपको आज समझ में न आएं, तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। वो बातें सच्ची हैं, प्रमाणिक हैं। धीरे-धीरे समझ में आएंगी। कुछ सरल बातें होती हैं, कुछ कठिन बातें होती हैं। सरल बातें जल्दी समझ में आ जाती हैं, कठिन बातों को समझने में समय लगता है। यही सि(ांत है।

स   ‘शंका-समाधान’ का एक नियम यह है कि प्रश्न पूछने वाला व्यक्ति शंका के रूप में अपनी बात को रखे कि – ”यह बात हमारी समझ में नहीं आयी। कृपया हमको समझाइए।” इस तरह से बात नहीं रखे कि – ”मैं ऐसा-ऐसा मानता हूँ।” इसका मतलब यह कि आपने तो अपने पक्ष की स्थापना कर दी, यह तो ‘शंका-समाधान’ नहीं रहा। इसका नाम है – ‘शास्त्रार्थ’।

स   जब आप अपने पक्ष की स्थापना करते हैं कि ”मैं ऐसा मानता हूँ”, तो फिर यह शास्त्रार्थ हो गया। आप ऐसा मानते हो और मैं ऐसा मानता हूँ, तो फिर दोनों के विचारों में टक्कर है। यहाँ टक्कर नहीं करनी है।

स   अगर किसी को टक्कर करने का शौक है, तो अलग से बैठकर करेंगे। मैं टकराने के लिए भी तैयार हूँ, डरता नहीं हूँ। पर इस समय टकराने का काम नहीं है। इस समय तो ‘शंका-समाधान’ का काम है। इसी उद्देश्य से हम इस कार्यक्रम को चलाएंगे। इस प्रकार इन नियमों का पालन करें। आपको बहुत लाभ होगा।

(301) शंका :- ईश्वरीय ज्ञान अनादि है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

मौलवी अब्दुल रहमान साहब न्यायाधीश से उदयपुर में शास्त्रार्थ

११ तथा १३ व १७ सितम्बर, १८८२ ई०

पण्डित बृजनाथ जी शासक मेवाड़ देश (जो उस समय इस

शास्त्रार्थ के लिखने वाले थे) ने कथन किया कि मैं उस समय स्वामी जी

के मध्य दुभाषिया भी था । अर्बी के कठोर शब्दों का अर्थ स्वामी जी को

और संस्कृत के कठिन शब्दों का अर्थ मौलवी को बता दिया करता था ।

यह शास्त्रार्थ मैंने उस समय अपने हाथ से लिखा जिसका मूल लेख पेंसिल

का लिखा हुआ अभी तक विघमान है ।

तीन मनुष्य इस शास्त्रार्थ के लिखने वाले थे । एक पण्डित बृजनाथ

जी शासक साइर, दूसरे मिर्जा मोहम्मद अली खां भूतपूर्व वकील वर्तमान सदस्य

विधान सभा टौंक, तीसरे मुन्शी रामनारायण जी सरिश्तेदार, बागकलां सरकारी

जिन में से १ व ३ सज्जनों के मूल लेख हम को मिल गये हैं । और जिनका

मौलवी साहब ने भी समर्थन किया है परन्तु उन की बुद्धिमानी तथा ईमानदारी

पर खेद है कि उस समय तो कोई युक्तियुक्त उत्तर न दे सके और पीछे

से दिसम्बर सन् १८८९ में निर्मूल और झूठे—झूठे उद्धरण देकर मूललेख के

विरुद्ध कुछ का कुछ प्रकाशित करके अपनी धार्मिकता का चमत्कार दिखाया।

इस शास्त्रार्थ के दिन सामान्य तथा विशेष हिन्दू तथा मुसलमान सुनने वालों

की बहुत अधिकता थी यहां तक कि श्री दरबार वैकुण्ठवासी महाराजा

सज्जनसिंह भी शास्त्रार्थ सुनने के लिए पधारे हुए थे ।

स्वामी दयानन्द जी महाराज और मौलवी अब्दुर्रहमान साहब

सुपरिण्टेण्डैण्ट पुलिस तथा न्यायाधीश न्यायालय उदयपुर मेवाड़ देश

के मध्य में होने वाला शास्त्रार्थ’’

११ सितम्बर, सन् १८८२ तदनुसार भादों बदि चौदश,

संवत् १९३९, सोमवार ।

मौलवी साहब(प्रथम प्रश्न) ऐसा कौन सा मत है जिस की मूल

पुस्तक सब मनुष्यों की बोलचाल और समस्त प्राकृतिक बातों को सिद्ध

करने में पूर्ण हो ? जब बड़े—बड़े मतों पर विचार किया जाता है जैसे भारतीय

वेद, पुराण या चीन वाले चीनी, जापानी, बर्मी बौद्ध वाले, फारसी जिन्द वाले,

यहूदी तौरेत वाले, नसरानी इञ्जील वाले, मौहम्मदी कुरान वाले तो प्रकट होता

है कि उन के धार्मिक नियम और मूल विशेष एक देश में एक भाषा के

द्वारा एक प्रकार से ऐसे बनाये गये हैं जो एक दूसरे से नहीं मिलते और इन

मतों में से प्रत्येक मत के समस्त गुण और विशेष चमत्कार उसी देश तक

सीमित हैं जहां वह बना है । जिन में से कोई एक लक्षण तथा चिह्न उसी

देश के अतिरिक्त दूसरे देश में नहीं पाया जाता, प्रत्युत दूसरे देश वाले अनभिज्ञता

के कारण उसे बुरा जानकर उस के प्रति मानवी व्यवहार तो क्या उस का

मुख तक देखना नहीं चाहते । ऐसी दशा में सब मतों में से कौन—सा मत

सत्य समझना चाहिये ।

उत्तर स्वामी जी कामतों की पुस्तकों में से विश्वास के योग्य एक

भी नहीं क्योंकि पक्षपात से पूर्ण हैं । जो विघा की पुस्तक पक्षपात से रहित

है वह मेरे विचार में सत्य है और ऐसी पुस्तक का साधारण प्राकृतिक नियमों

के विरुद्ध न होना भी आवश्यक है । मैंने जो खोज की है उस के अनुसार

वेदों के अतिरिक्त कोई पुस्तक ऐसा नहीं है जो विश्वास के योग्य हो क्योंकि

समस्त पुस्तकें किसी न किसी देश विशेष की भाषा में हैं और वेद की भाषा

किसी देश विशेष की भाषा नहीं, केवल विघा की भाषा है। क्योंकि यह

विघा की पुस्तक है, इसी कारण से किसी मत विशेष से सम्बन्ध नहीं रखती।

यही पुस्तक समस्त देशीय भाषाओं का मूल कारण है और पूर्ण होने से प्रसिद्ध

भलाइयों तथा निषिद्ध बुराइयों की परिचायक है और समस्त प्राकृतिक नियमों

के अनुकूल है ।

प्रश्न मौ०क्या वेद मत की पुस्तक नहीं है ?

उत्तर स्वा०वेद मत की पुस्तक नहीं है प्रत्युत विघा की पुस्तक है।

प्रश्न मौ०मत का आप क्या अर्थ करते हैं ?

उत्तर स्वा०पक्षपात सहित को मत कहते हैं इसी कारण से मत की

पुस्तक सर्वथा मान्य नहीं हो सकतीं ।

प्रश्न मौ०हमारे पूछने का अभिप्राय यह है कि समस्त मनुष्यों की

भाषाओं पर तथा समस्त मनुष्यों के आचारों पर और समस्त प्राकृतिक नियमों

पर कौन—सी पुस्तक पूर्ण है सो आपने वेद निश्चित किया । सो वेद इस योग्य

है वा नहीं ?

उत्तर स्वा०हां है ।

प्रश्न मौ०आपने कहा कि वेद किसी देश की भाषा में नहीं । जो

किसी देश की भाषा नहीं होती उसके अन्तर्गत समस्त भाषाएं कैसे हो सकती

हैं ?

उत्तर स्वा०जो किसी देश विशेष की भाषा होती है वह किसी दूसरी

देश भाषा में व्यापक नहीं हो सकती क्योंकि उसी में बद्ध (सीमित) है।

प्रश्न मौ०जब एक देश की भाषा होने से वह दूसरे देश में नहीं मिलती

तो जब वह किसी देश की है ही नहीं तो सब में व्यापक कैसे हो सकती

है ?

उत्तर स्वा०जो एक देश की भाषा है उसका व्यापक कहना सर्वथा

विरुद्ध है और जो किसी देश विशेष की भाषा नहीं वह सब भाषाओं में

व्यापक है जैसे आकाश किसी देश विशेष का नहीं है इसी से सब देशों में

व्यापक है। ऐसे वेद की भाषा भी किसी देश विशेष से सम्बन्ध न रखने

से व्यापक है ।

प्रश्न मौ०यह भाषा किसकी है ?

उत्तर स्वा०विघा की ।

प्रश्न मौ०बोलने वाला इसका कौन है ?

उत्तर स्वा०इसका बोलने वाला सर्वदेशी है ।

मौलवीतो वह कौन है ?

स्वामीवह परब्रह्म है ।

मौलवीयह किस को सम्बोधन की गई है ?

स्वामीआदि सृष्टि में इस के सुनने वाले चार ऋषि थे जिन का नाम

अग्नि, वायु, आदित्य और अग्रिा था । इन चारों ने ईश्वर से शिक्षा प्राप्त

करके दूसरों को सुनाया ।

मौलवीइन चारों को ही विशेष रूप से क्यों सुनाया ?

स्वामीवे चार ही सब में पुण्यात्मा और उत्तम थे ।

मौलवीक्या इस बोली को वे जानते थे ?

स्वामीउस जानने वाले ने उसी समय उन को भाषा भी जना दी थी

अर्थात् उस शिक्षक ने उसी समय उन को भाषा का ज्ञान दे दिया ।

मौलवीइस को आप किन युक्तियों से सिद्ध करते हैं ?

स्वामीविना कारण के कार्य कोई नहीं हो सकता ।

मौलवीबिना कारण के कार्य होता है या नहीं ?

स्वामीनहीं ।

मौलवीइस बात की क्या साक्षी है ?

स्वामीब्रह्मादि अनेक ऋषियों की साक्षी है और उन के ग्रन्थ भी

विघमान हैं ।

मौलवीयह साक्षी सन्देहात्मक और बुद्धिविरुद्ध है । कारण कथन

कीजिये ।

स्वामीवेद की साक्षी स्वयं वेद से प्रकट है ।

मौलवीइसी प्रकार सब मतवाले भी अपनी—अपनी पुस्तकों में कहते

हैं ।

स्वामीऐसी बात दूसरे मतवालों की पुस्तकों में नहीं है और न वे सिद्ध

कर सकते हैं ।

मौलवीपुस्तक वाले सभी सिद्ध कर सकते हैं ?

स्वामीमैं पहले ही कह चुका हूं कि मतवाले ऐसा सिद्ध नहीं कर

सकते (और यदि कर सकते हैं तो बताइये कि मौहम्मद साहब के पास कुरान

कैसे पहुंचा) ।

मौलवी जैसे चारों ऋषियों के पास वेद आया ।१

नोट१. खेद है कि मौलवी साहब ने विना सोचे समझे ऐसा कह दिया ।

यह किसी प्रकार ठीक नहीं । न तो कुरान आदि सृष्टि में मौहम्मद साहब की आत्मा

में प्रकाशित हुआ और न उस में वर्णित कहानियां ही ऐसी हैं जो आदि सृष्टि से

सम्बन्धित हों और न उस की भाषा ही ऐसी है । मौहम्मद साहब और खुदा के मध्य

में तीसरा जबराइल और असंख्य फरिश्तों की चौकीदारी और पहरा और आकाश

से उतरना आदि समस्त बातें ऐसी हैं जिन में कोई मौहम्मदी भाई इन्कार नहीं कर

सकता । इसलिये कुरान किसी प्रकार भी इस विशेषण का पात्र नहीं हो सकता और

उस्मान और कुरानों के बदलने की कहानी इसके अतिरिक्त है । सम्पादक

दूसरा प्रश्न

प्रश्न मौलवीसमस्त संसार के मनुष्य एक जाति के हैं अथवा कई

जातियों के ?

उत्तर स्वामीजुदी—जुदी जातियों के हैं ।

मौलवीकिस युक्ति से ?

स्वामीसृष्टि की आदि में ईश्वरीय सृष्टि में उतने जीव मनुष्य—शरीर

धारण करते हैं कि जितने गर्भ सृष्टि में शरीर—धारण करने के योग्य होते

हैं और वे जीव असंख्य होने से अनेक हैं ।

मौलवीइस का प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है ?

स्वामीअब भी सब ही अनेक मां—बाप के पुत्र हैं ।

मौलवीइस के विश्वसनीय प्रमाण कहिये ।

स्वामीप्रत्यक्षादि आठों प्रमाण ।

मौलवीवे कौन से हैं ?

स्वामीप्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, ऐतिह्य, सम्भव, उपमान, अभाव,

अर्थापत्ति ।

मौलवीइन आठों में से एक—एक का उदाहरण देकर सिद्ध कीजिये।

प्रश्न मौलवीये जो आकार मनुष्यों के हैं, इनके शरीर एक प्रकार

के बने अथवा भिन्न—भिन्न प्रकार के बने ?

उत्तर स्वामीमुख आदियों में एक से हैं, रंगों में कुछ भेद है ।

मौलवीकिस—किस रंग में क्या—क्या भेद है ?

स्वामीछोटाई—बड़ाई में किञ्चिन्मात्र अन्तर है ।

मौलवीयह अन्तर एक देश अथवा एक जाति में एक ही प्रकार के

हैं अथवा भिन्न—भिन्न देशों में भिन्न—भिन्न प्रकार के हैं ?

स्वामीएक—एक देश में अनेक हंै । जैसे एक मां—बाप के पुत्रों में

भी भिन्न—भिन्न प्रकार के होते हैं ।

मौलवीहम जब संसार की अवस्था पर दृष्टिपात करते हैं तो आपके

कथनानुसार नहीं पाते । एक ही देश में कई जातियां जैसे हिन्दी, हब्शी, चीनी,

इत्यादि देखने में पृथक —पृथक  विदित होती हैं अर्थात् चीन वाले दाढ़ी नहीं

रखते और तिकौने मुंह के होते हैं । हब्शी, मलन्गई, चीनी, तीनों की आकृतियां

परस्पर नहीं मिलतीं । एक ही देश में यह भेद क्योंकर है ?

स्वामी उन में भी अन्तर है ।

मौलवी दाढ़ी न निकलने का क्या कारण है ?

स्वामी देशकाल और मां—बाप आदि के शरीरों में कुछ—कुछ भेद है।

समस्त शरीर रज वीर्य के अनुसार बनते हैं । वात, पित्त, कफ आदि धातुओं

के संयोग वियोग से भी कुछ भेद होते हैं ।

मौलवीहम समस्त संसार में तीन प्रकार के मनुष्य देखते हैं जिन का

विभाजन इस प्रकार हैदाढ़ी वाले, बिना दाढ़ी के, घुंघरू बाल वाले । दाढ़ी

वाले भारतीय, फिरंगी, अर्बी, मिश्री आदि । बेदाढ़ी वाले चीनी, जापानी,

कैमिस्टका के । घुंघरू बाल वाले हब्शी । इन तीनों की बनावट और प्रकार

में बहुत—सा भेद है । एक दूसरे से नहीं मिलता और यह भेद आपके कथनानुसार

ऊपर वाले कारणों से है । यदि एक देश के रहने वाले ये तीनों प्रकार के

मनुष्य दूसरे देश में जाकर रहें तो कभी भेद नहीं होता । जाति समान है ।

इस अवस्था में संसार के मूलपुरुष आपके कथनानुसार तीन हुए, अधिक

नहीं ।

स्वामीभोटियों को किस में मिलाते हैं । वे किसी से नहीं मिलते।

इस प्रकार तीन से अधिक सम्पत्ति विदित होती हैं ।

मौलवीजैसा भेद इन तीनों में है वैसा दूसरे में नहीं । तीनों जातियों

का परस्पर मिल जाना इस थोड़े भेद का कारण है परन्तु इन तीनों की आकृति

एक दूसरे से नहीं मिलती ।

तीसरा प्रश्न

प्रश्न मौलवीमनुष्य की उत्पत्ति कब से है और अन्त कब होगा?

स्वामीएक अरब छयानवे करोड़ और कितने लाख वर्ष उत्पत्ति को

हुए और दो अरब वर्ष से कुछ ऊपर तक और रहेगी ।

मौलवीइसका क्या कारण और प्रमाण है ?

स्वामीइस का हिसाब विघा और ज्योतिष शास्त्र से है ।

मौलवीवह हिसाब बतलाइये ?

स्वामीभूमिका के पहले अट में लिखा है और हमारे ज्योतिषशास्त्र

से सिद्ध है, देख लो ।

चौथा प्रश्न

(१३ सितम्बर, सन् १८८२, बुधवार तदनुसार भादों सुदि एकम्,

संवत् १९३९ विक्रमी)

प्रश्न (मौलवी जी की ओर से)आप धर्म के नेता हैं या विघा के

अर्थात् आप किसी धर्म के मानने वाले हैं या नहीं ?

उत्तर (स्वामी जी की ओर से)जो धर्म विघा से सिद्ध होता है

उस को मानते हैं ।

प्रश्न मौलवीआपने किस प्रकार जाना कि ब्रह्म ने चारों ऋषियों को

वेद पढ़ाया ?

उत्तर स्वामीप्रदान किये गये वेदों के पढ़ने से और विश्वसनीय विद्वानों

की साक्षी से ।

मौलवीयह साक्षी आप तक किस प्रकार पहुंची ?

स्वामीशब्दानुक्रम से और उन के ग्रन्थों से ।

मौलवीप्रश्नों से पूर्व परसों यह निश्चित हुआ था कि उत्तर बुद्धि के

आधार पर दिए जायेंगे, पुस्तकों के आधार पर नहीं । अब आप उसके विरुद्ध

ग्रन्थों की साक्षी देते हैं ।

स्वामीबुद्धि के अनुकूल वह है जो विघा से सिद्ध हो चाहे वह लिखित

हो अथवा वाणी द्वारा कहा जावे । समस्त बुद्धिमान् इस को मानते हैं और

आप भी ।

मौलवीइस कथन के अनुसार ब्रह्म का चारों ऋषियों को वेद की

शिक्षा देना विघा अथवा बुद्धि द्वारा किस प्रकार सिद्ध होता है ?

स्वामीविना कारण के कार्य नहीं हो सकता इसलिये विघा का भी

कोई कारण चाहिये और विघा का कारण वह है कि जो सनातन हो । यह

सनातन विघा परमेश्वर में उस की कारीगरी को देखने से सिद्ध होती है ।

जिस प्रकार वह समस्त सृष्टि का निमित्त कारण है उसी प्रकार उस की विघा

भी समस्त मनुष्यों की विघा का कारण है । यदि वह उन ऋषियों को शिक्षा

न देता तो सृष्टि—नियम के अनुकूल यह जो विघा की पुस्तक है, इस का

क्रम ही न चलता ।

मौलवीब्रह्म ने वेद चारों ऋषियों को पृथक —पृथक  पढ़ाया अथवा एक

साथ क्रमशः शिक्षा दी अथवा एक काल में पढ़ाया ?

स्वामीब्रह्म व्यापक होने के कारण चारों को पृथक —पृथक  और क्रमशः

पढ़ाता गया क्योंकि वे चारों परिमित बुद्धि वाले होने के कारण एक ही समय

कई विघाओं को नहीं सीख सकते थे और प्रत्येक की बुद्धिप्राप्ति की शक्ति

भिन्न—भिन्न होने के कारण कभी चारों एक समय में और कभी पृथक —पृथक

समझकर एक साथ पढ़ते रहे । जिस प्रकार चारों वेद पृथक —पृथक  हैं उसी

प्रकार प्रत्येक मनुष्य को एक—एक वेद पढ़ाया ।

मौलवीशिक्षा देने में कितना समय लगा ?

स्वामीजितना समय उन की बुद्धि की दृढ़ता के लिए आवश्यक था।

१मौ०पढ़ाना मानसिक प्रेरणा के द्वारा था अथवा शब्द अक्षर आदि

के द्वारा जो वेद में लिखे हुए हैं अर्थात् क्या शब्द अर्थ सम्बन्ध सहित पढ़ाया?

स्वा०वही अक्षर जो वेद में लिखे हुए हैं शब्दार्थ सम्बन्ध सहित पढ़ाये

गये ।

मौ०शब्द बोलने के लिए मुख, जिह्वादि साधनों की अपेक्षा है । शिक्षा

देनेवाले में यह साधन हैं या नहीं ?

स्वा०उस में ये साधन नहीं हैं क्योंकि वह निराकार है । शिक्षा देने

के लिए परमेश्वर अवयवों तथा बोलने के साधनादि से रहित है ।

मौ०शब्द कैसे बोला गया ?

स्वा०जैसे आत्मा और मन में बोला सुना और समझा जाता है ।

मौ०भाषा को जाने विना शब्द किस प्रकार उन के मन में आये ?

स्वा०ईश्वर के डालने से क्योंकि वह सर्वव्यापक है ।

मौ०इस सारे वार्तालाप में दो बातें बुद्धि के विरुद्ध हैं प्रथम यह कि

ब्रह्म ने केवल चार ही मनुष्याें को उस भाषा में वेद की शिक्षा दी जो किसी

देश अथवा जाति की भाषा नहीं । दूसरे यह कि उच्चारित शब्द जो पहले

से जाने हुए न थे, दिल में डाले गए और उन्होंने ठीक समझे । यदि यह

स्वीकार किया जावे तो फिर समस्त बुद्धिविरुद्ध बातें जैसे चमत्कारादि सब

मतों के सत्य स्वीकार करने चाहियें ।

स्वा०ये दोनों बातें बुद्धिविरुद्ध नहीं क्योंकि ये दोनों ही सच्ची हैं।

जो कुछ जिह्वा से अथवा आत्मा से बताया जावे वह शब्दों के विना नहीं

हो सकता । उसने जब शब्द बतलाये तो उनमें ग्रहण करने की शक्ति थी।

उसके द्वारा उन्होंने परमेश्वर के ग्रहण कराने से योग्यतानुसार ग्रहण किया।

और बोलने के साधनों की आवश्यकता बोलने और सुनने वाले के अलग

अलग होने पर होती है क्योंकि जो वक्ता मुख से न कहे और श्रोता के कान

न हों तो न कोई शिक्षा कर सकता है और न कोई श्रवण । परमेश्वर चूंकि

सर्वव्यापक है इसलिए उनके आत्मा में भी विघमान था, पृथक  न था । परमेश्वर

ने अपनी सनातन विघा के शब्दों को उन के अर्थात् चारों के आत्माओं में

प्रकट किया और सिखाया । जैसे किसी अन्य देश की भाषा का ज्ञाता किसी

अन्य देश के अनभिज्ञ मनुष्य को जिस ने उस भाषा का कोई शब्द नहीं सुना,

सिखा देता है उसी प्रकार परमेश्वर ने जिस की विघा व्यापक है और जो

नोट१. (इस से आगे मौलवी साहब के स्थान पर मौ० और स्वामी के स्थान

पर स्वा० लिखा जायगा) ।

उस विघा की भाषा को भी जानता था, उन को सिखा दिया । ये बातें बुद्धिविरुद्ध

नहीं । जो इन को बुद्धिविरुद्ध कहे वह अपने दावे को युक्तियों द्वारा सिद्ध

करे । पुराण जो पुरानी पुस्तकें हैं अर्थात् वेद के चार ब्राह्मण हैं, वे वहीं तक

सत्य हैं । जहां तक वेदविरुद्ध न हाें । और जो अठारह पुराण नवीन हैं जैसे

भागवत, पद्मपुराणादि, वे प्राकृतिक नियमों और विघा के विरुद्ध होने से सत्य

नहीं, नितान्त झूठे हैं ।

मौ०पुराण मत की पुस्तकें हैं या विघा की ?

स्वा०वे प्राचीन पुस्तकें अर्थात् चारों ब्राह्मण विघा की और पिछली

भागवतादि पुराण मत की पुस्तकें हैं जैसे कि अन्य मत के ग्रन्थ ।

मौ०जब वेद विघा की पुस्तक हैं और पुराण मत की पुस्तकें हैं और

आपके कथनानुसार असत्य हैं तो आर्यों का धर्म क्या है ?

स्वा०धर्म वह है जिसमें निष्पक्षता, न्याय और सत्य का स्वीकार

और असत्य का अस्वीकार हो । वेदों में भी उसी का वर्णन है और

वही आर्यों का प्राचीन धर्म है और पुराण केवल पक्षपातपूर्ण सम्प्रदायों अर्थात्

श्ौव, वैष्णवादि से सम्बन्धित हैं जैसे कि अन्य मत के ग्रन्थ ।

मौ०पक्षपात आप किस को कहते हैं ?

स्वा०जो अविघा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, कुसंग से किसी अपने

स्वार्थ के लिए न्याय और सत्य को छोड़कर असत्य और अन्याय को धारण

करना है, वह पक्षपात कहलाता है ।

मौ०यदि कोई इन गुणों से रहित हो, आर्य न हो तो आर्य लोग उसके

साथ भोजन और विवाहादि व्यवहार करेंगे या नहीं ।

स्वा०विद्वान् पुरुष भोजन तथा विवाह को धर्म अथवा अधर्म

से सम्बन्धित नहीं मानते प्रत्युत इसका सम्बन्ध विशेष रीतियों, देश तथा

समीपस्थ वर्गों से है । इस के ग्रहण अथवा त्याग से धर्म की उन्नति अथवा

हानि नहीं होती परन्तु किसी देश अथवा वर्ग में रहकर किसी अन्य मतवाले

के साथ इन दोनों कार्यों में सम्मिलित होना हानिकारक है इसलिए करना

अनुचित है। जो लोग भोजन तथा विवाहादि पर ही धर्म अथवा

अधर्म का आधार समझते हैं उनका सुधार करना विद्वानों को आवश्यक

है । और यदि कोई विद्वान् उन से पृथक  हो जावे तो वर्ग को उस से घृणा

होगी और यह घृणा उस को शिक्षा का लाभ उठाने से वञ्चित रखेगी । सब

विघाओं का निष्कर्ष यह है कि दूसरों को लाभ पहुंचाना और दूसरों को हानि

पहुंचाना उचित नहीं ।

पंाचवां प्रश्न

(रविवार १७ सितम्बर, सन् १८८२ तदनुसार भादों सुदि पञ्चमी

संवत् १९३९ विक्रमी)

प्रथम मौ०समस्त धर्म वाले अपनी धार्मिक पुस्तकों को सब से उत्तम

और उन की भाषा को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं और उस को उस कारण का कार्य

भी कहते हैं । जिस प्रकार की बौद्धिक युक्तियां वे देते हैं उसी प्रकार आपने

भी वेद के विषय में कहा । कोई प्रमाण प्रकट नहीं किया, फिर वेद में

क्या विशेषता है ?

स्वा०पहले भी इसका उत्तर दे दिया गया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों

और प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध विषय जिन पुस्तकों में होंगे वे सर्वज्ञ की

बनाई हुई नहीं हो सकतीं और कार्य का होना कारण के विना असम्भव है।

चार मत जो कि समस्त मतों का मूल हैं अर्थात् पुराणी, जैनी, इञ्जील तौरेत

वाले किरानी, कुरानी इन की पुस्तकें मैंने कुछ देखी हैं और इस समय भी

मेरे पास हैं और मैं इन के बारे में कुछ कह भी सकता हूं और पुस्तक भी

दिखा सकता हूं । उदाहरणार्थपुराण वाले एक शरीर से सृष्टि का आरम्भ

मानते हैं यह अशुद्ध है क्योंकि शरीर संयोगज है, इसलिए वह कार्य है उस

के लिए कर्त्ता की अपेक्षा है ।

जिन्हाेंने इस कार्य को इस प्रकार सनातन माना है कि कोई इस का

रचयिता नहीं, वह भी अशुद्ध है क्योंकि संयोगज पदार्थ स्वयं नहीं बनता ।

इञ्जील और कुरान में अभाव से भाव माना है । ये चारों बातें उदाहरणार्थ

विघा के नियमों के विरुद्ध हैं, इसलिए इनकी वेद से समता नहीं कर सकते।

वेदों में कारण से कार्य को माना है और कारण को अनादि कहा है । कार्य

को प्रवाह से अनादि और संयोगज होने के कारण सान्त बताया है । इस को

समस्त बुद्धिमान् मानते हैं । मैं सत्य और असत्य वचनों के कारण वेद की

सत्यता और मतस्थ पुस्तकों की असत्यता कथन करता हूं । यदि कोई सज्जन

इस को प्रकट रूप में देखना चाहें तो मैं किसी दिन तीन घण्टे के भीतर

उन मतों की पुस्तकों को प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध सिद्ध करके दिखा सकता

हूं । यदि कोई नास्तिक वेद में से प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कोई बात दिखायेगा

तो उसको विचार करने के पश्चात् केवल अपनी अज्ञानता ही स्वीकार करनी

पड़ेगी । इसलिए वेद सत्यविघाओं की पुस्तक है न किसी मत विशेष की।

छठा प्रश्न

प्रश्न मौ०क्या प्रकृति अनादि है ?

उत्तर स्वा०उपादान कारण अनादि है ।

मौ०अनादि आप कितने पदार्थों को मानते हैं ?

स्वा०तीन । परमात्मा, जीव और सृष्टि का कारणये तीनों स्वभाव

से अनादि हैं । इन का संयोग, वियोग, कर्म तथा उन का फल भोग प्रवाह

से अनादि है । कारण का उदाहरणजैसे घड़ा कार्य, उस का उपादान कारण

मट्टी, बनाने वाला अर्थात् निमित्त कारण कुम्हार चक्र दण्डादि साधारण कारण,

काल तथा आकाश समवाय कारण ।

मौ०वह वस्तु जिस को हमारी बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, हम उस

को अनादि क्योंकर मान सकते हैं ?

स्वा०जो वस्तु नहीं है वह कभी नहीं हो सकती और जो है वही

होती है । जैसे इस सभा के मनुष्य जो थे तो यहां आये । यहां हैं तो फिर

भी कहीं होंगे । विना कारण के कार्य का मानना ऐसा है जैसे वन्ध्या के

पुत्र उत्पन्न होने की बात कहना । कार्य वस्तु से चारों कारण जिन का ऊपर

वर्णन किया है पहले मानने पड़ेंगे । संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिस के

पूर्वकथित चार कारण न हों ।

मौ०सम्भव है कि जगत् का कारण जिसे आप अनादि कहते हैं,

कदाचित् वह भी किसी अन्य वस्तु का कार्य हो । जैसे कि बिजली के बनने

में कई साधारण वस्तुएं मिलकर ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो अत्यन्त

महान् है । इस वार्तालाप के परिणाम से प्रकट है कि प्रत्येक वस्तु के लिए

कोई कारण चाहिए तो कारण के लिए भी कोई कारण अवश्य होगा ।

स्वा०अनादि कारण उसका नाम है जो किसी का कार्य न हो । जो

किसी का कार्य हो उस को अनादि अथवा सनातन कारण नहीं कह सकते

किन्तु वह परम्परा और पूर्वापर सम्बन्ध से कार्य कारण नाम वाला होता है।

यह बात सब विद्वानों को जो पदार्थविघा को यथावत् जानते हैं, स्वीकरणीय

है । किसी वस्तु को चाहे जहां तक अवस्थान्तर में विभक्त करते चले जावें,

चाहे वह सूक्ष्म हो चाहे स्थूल, जो उस की अन्तिम अवस्था होगी, उस को

कारण कहते हैं और जो यह बिजुली का दृष्टान्त दिया, वह भी निश्चित कारणों

से होता है जो उस के लिए आवश्यक है । अन्य कारणों से वह नहीं हो

सकती ।

सातवां प्रश्न

मौ०यदि वेद ईश्वर का बनाया होता तो अन्य प्राकृतिक पदार्थों

सूर्य, जल तथा वायु के समान संसार के समस्त साधारण मनुष्यों को लाभ

पहुंचाना चाहिए था ।

स्वा०सूर्यादि सृष्टि के समान ही वेदों से सब को लाभ पहुंचता है

क्योंकि सब मतों और विघा की पुस्तकों का आदिकारण वेद ही हैं । और

इन पुस्तकों में विघा के विरुद्ध जो बातें हैं वे अविघा के सम्बन्ध से हैं क्याेंकि

वे सब पुस्तकें वेद के पीछे बनी हैं । वेद के अनादि होने का प्रमाण यह

है कि अन्य प्रत्येक मत की पुस्तक में वेद की बात गौण अथवा प्रत्यक्ष रूप

से पाई जाती है और वेदों में किसी का खण्डन मण्डन नहीं । जैसे सृष्टि

विघा वाले सूर्यादि से अधिक उपकार लेते हैं वैसे ही वेद के पढ़ने वाले

भी वेद से अधिक उपकार लेते हैं और नहीं पढ़ने वाले कम ।

मौ०कोई इस दावे को स्वीकार नहीं करता कि किसी काल में वेद

को समस्त मनुष्यों ने माना हो और न किसी मत की पुस्तक में प्रत्यक्ष अथवा

गौण रूप से वेदों का खण्डन मण्डन पाया जाता है ।

स्वा०वेद का खण्डन मण्डन पुस्तकों में है, जैसे कुरान में बेकिताब

वाले और एक ऊती ईश्वर के मानने वाले जैसे बाइबिल में पिता पुत्र और

पवित्रात्मा, होम की भेंट, ईश्वर को प्रिय, याजक, महायाजक, यज्ञ, महायज्ञ

आदि शब्द आते हैं । जितने मतों के पुस्तक बने हुए हैंबीच के काल के

हैं । उस समय के इतिहास से सिद्ध है कि मुसलमान, ईसाई आदि जंगली

थे तो जंगलियों को विघा से क्या काम । पूर्व के विद्वान् पुरुष वेदों को मानते

थे और वर्तमान समय में शब्द विघा (फिलालोजी) के परीक्षक मोक्षमूलर

आदि विद्वान् भी संस्कृत भाषा तथा ऋग्वेदादि को सब भाषाओं का

मूल निश्चित करते हैं । जब बाइबिल कुरान नहीं बने थे तब वेद के अतिरिक्त

दूसरी मानने योग्य पुस्तक कोई भी नहीं थी । मनुष्य की उत्पत्ति का आदि

काल ही ऋषियों की वेदप्राप्ति का समय है जिस को १९६०८५२९९७ वर्ष

हुए । इससे प्राचीन कोई पुस्तक नहीं है ।

पाण्डे मोहनलाल जी ने कहा कि मौलवी साहब के शास्त्रार्थ के प्रथम

दिन तो राणासाहब नहीं आये थे परन्तु उन्होंने शास्त्रार्थ लिखित होना स्वीकार

किया था । अन्तिम दिन श्री महाराज पधारे और मौलवी साहब की हठ देखकर

श्री दरबार साहब ने कहा कि जो कुछ स्वामी जी ने कहा है वह निस्सन्देह

ठीक है । फिर शास्त्रार्थ नहीं हुआ । कविराज श्यामलदास जी ने भी इस

का समर्थन किया ।

(302) शंका :- (मुन्शी इन्द्रमणि जी के शिष्य ला० जगन्नाथदास की बनाई आर्य—प्रश्नोत्तरी की समालोचनाअप्रैल, १८८२)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

(मुन्शी इन्द्रमणि जी के शिष्य ला० जगन्नाथदास की बनाई

आर्य—प्रश्नोत्तरी की समालोचनाअप्रैल, १८८२)

ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र विज्ञापन संस्करण २ पृष्ठ ३४४ से उद्धृत

श्रीयुत सम्पादक देशहितैषी महाशय मन्त्री आर्यसमाजअजमेर—समीपेषु।

प्रिय सम्पादकवर ! जो मनुष्य स्वार्थ बुद्धि छोड़ परमार्थ करने में प्रवृत्त

नहीं होता, उस का हृदय पूर्ण शुद्ध होना असम्भव है । चाहे वह बहुत युक्ति

और गूढ़ता अपनी कपटता को प्रसिद्ध करने में कैसा ही यत्नवान् क्यों न

हो । उसका कपट कभी न कभी प्रकाशित हो ही जाता है । प्रत्यक्ष दृष्टान्त

देख लो कि लाला जगन्नाथदास मुन्शी इन्द्रमणि जी के शिष्य की बनाई हुई

(आर्य—प्रश्नोत्तरी) की समालोचना करने से (बहुत से विषय उस में सत्य

और परोपकारक दीख पड़ते हैं परन्तु बहुधा विषय ऐसे भी हैं कि जिन के

सुनने वा पाठ करने वालों का भ्रमजाल में फंस वेदादि सत्य शास्त्रों से विरुद्ध

होना सम्भव है । ये विरुद्ध विषय केवल लाला जगन्नाथदास ही के अभिप्राय

से नहीं किन्तु मुन्शी इन्द्रमणि भी उन दोषयुक्त विषयों के अनुयायी प्रतीत

होते हैं ।) अस्तु, जो हो मुझ को सत्य—सत्य परीक्षा इस ग्रन्थ की करके

दोषों का प्रकाश करना अवश्य है । कारण सज्जन लोग गुण ग्रहण कर दोषों

को छोड़ दें । इतना ही नहीं किन्तु जैसे विषयुक्त उत्तमान्न का बुद्धिमानों को

त्याग करना अवश्य होता है, इसी प्रकार आर्य लोगों के लिए यह (आर्य

प्रश्नोत्तरी) ग्रन्थ गुणों के साथ दोषदायक होने से श्रेष्ठ को त्याग के योग्य

है । अब इस का कुछ थोड़ा सा नमूना संक्षेप से दिखलाता हूं ।

[आर्य प्रश्नोत्तरी पृष्ठ २। प्रश्नोत्तर ७] परमात्मा ने सृष्टि की आदि

में श्री ब्रह्मा जी के हृदय में वेदों का प्रकाश किया । उन से ऋषि मुनि

अस्मदादिकों को प्राप्त हुए ।’’

[समीक्षा] यह बात प्रमाण करने योग्य नहीं, क्योंकि (अग्नेर्वै ऋग्वेदो

ऽजायत (अजायत) वायोर्यजुर्वेदः सूर्य्यात्सामवेदः) शतपथ ब्राह्मण वचन।

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ।। मनुस्मृति का वचन ।

अब देखिये अग्नि आदि महर्षियों से ऋग्वेदादि का प्रकाश हुआ । इत्यादि

ब्राह्मण वचनों के अनुसार मनु जी महाराज कहते हैं ब्रह्मा जी ने अग्न्यादि

महर्षियों के द्वारा वेदों की प्राप्ति की । अतएव यो वै ब्रह्माणं विदधाति

पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।’’ इस श्वेताश्वतरोपनिषद् के वचनार्थ

की सग्ति शतपथ और मनु जी के वचन से अविरुद्ध होनी चाहिए । किन्तु

परमात्मा ने चारों महर्षियों के द्वारा श्री ब्रह्मा जी को चारों वेदों की प्राप्ति

कराई । और अब भी जो कोई चार वेदों को पढ़ता है वही यज्ञ में ब्रह्मासन

को प्राप्त और उसी का नाम ब्रह्मा भी होता है । यदि मुन्शी इन्द्रमणि

जी और उन के शिष्य १ला० जगन्नाथदास वेद और तदनुयायी ब्राह्मणादि ग्रन्थों

को पढ़े होते तो ऐसे भारी भ्रम में न पड़ ऐसे ऐसे अन्यथा भाषण वा लेख

१. जब मुन्शी इन्द्रमणि ने सहायता में आए हुए धन का पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार

पूर्ण ब्यौरा न बताया और न छापा, तब श्री स्वामी जी ने उन सब से सम्बन्ध—विच्छेद

कर लिया । तब मुन्शी जी ने आर्य—प्रश्नोत्तरी (संवत् १९३८ आर्यदर्पण प्रेस शाहजहांपुर

में छापी । उस का उत्तर लिखवा कर श्री स्वामी जी ने भारतसुदशाप्रवर्तक में छपने

के लिए भेजा ।

क्यों करते? इन को उचित है कि अपना हठ छोड़ सत्य का ग्रहण करें ।

(पृष्ठ ३। प्रश्नोत्तर १६) जीव वास्तविक अनन्त हैं । इस कारण ईश्वर

के ज्ञान में भी अनन्त ही हैं ।’’

(समीक्षा) जब जीव देश काल वस्तु अपरिच्छिन्न अर्थात् भिन्न—भिन्न

हैं । उन को अनन्त कहना मानो एक अज्ञानी का दृष्टान्त बनना है। अनन्त

तो क्या, परन्तु परमेश्वर के ज्ञान में असंख्य भी नहीं हो सकते । परमेश्वर

के समीप तो सब जीव वस्तुतः अतीव अल्प हैं । जीवों की तो क्या परन्तु

प्रति जीव के अनेक कर्मों के भी अन्त और संख्या को परमेश्वर यथावत्

जानता है । जो ऐसा न होता तो वह परब्रह्म जीव और उन के कर्मों का

जैसा—जैसा जिस—जिस जीव ने कर्म किया है उन उन का फल न दे सके।

जब कोई इन से प्रश्न करे कि एक—एक जीव अनन्त हैं वा सब मिल के?

जो एक—एक अनन्त हैं तो य आत्मनि तिष्ठन्’’ इत्यादि ब्राह्मण वचन अर्थात्

जो परमात्मा व्याप्य जीवों में व्यापक हो रहा है और ऐसा ही ला० जगन्नाथदास

ने पृष्ठ ५ प्रश्नोत्तर ३२’’ के उत्तर में लिखा है कि जीवेश्वर का व्याप्य

व्यापक सम्बन्ध और पृष्ठ ४, प्रश्न २१’’ में जीव को अणु माना है । जीव

शरीर को छोड़ दूसरे शरीर में जाता और शरीर के मध्य में रहता है । इसलिए

अनन्त वा असंख्य ईश्वर के ज्ञान में नहीं । किन्तु जीवों के ज्ञान में जीव

असंख्य हैं । जिन ला० जगन्नाथदास वा मुन्शी इन्द्रमणि जी को अपने ग्रन्थस्थ

पूर्वापर विरुद्ध विषयों का ज्ञान भी नहीं है तो आगे क्या आशा होती है ।

इसी से इन के सब प्रपञ्चों का उत्तर समझ लेना शिष्टों को योग्य है ।

(पृष्ठ ४, प्रश्न २४) जीव के गुण वास्तव में विभु हैं, परन्तु वृद्धावस्था

में अविघा से आच्छादित होने से परिछिन्न हैं। मुक्तावस्था में विभु हो जाते हैं।’’

(समीक्षा) विभु गुण उसी के होते हैं जो द्रव्य भी विभु हो । और

जिस को अणु मानते हैं क्या उस के गुण विभु हो सकते हैं ? क्योंकि गुणों

का आधार द्रव्य होता है । भला कोई कह सकता है कि परिछिन्न द्रव्य में

विभु गुण हों । क्या गुणी देशी और गुण विभु हो सकते हैं ? और गुणी को

छोड़ केवल गुण पृथक  भी रह सकता है ? नहीं ! नहीं !! और जो (पृष्ठ

४१ प्रश्नोत्तर २१ में) जीव को अणु माना है । वह भी ठीक नहीं । क्योंकि

एक अणु में भी जीव रह सकता है । अर्थात् एक अणु में अनेक जीव रह

सकते हैं । देखो अणु अणु कांच वा पृथ्वी आदि के मध्य में से पार नहीं

जा सकता और जीव जा सकता है । इसलिए जीव अणु से भी सूक्ष्म है और

इसके अणु भी विभु नहीं । हां मुक्तावस्था में जिस ओर उस का ज्ञान होगा

उस दूरस्थ पदार्थ को भी अपने ज्ञान से जान लेता है । नहीं तो

युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिग्म् ।’’ इस न्याय शास्त्र के सूत्र का अर्थ

ही नहीं घट सकेगा । जो एक क्षण में एक पदार्थ को जाने अनेक को नहीं,

उसी को मन कहते हैं । वही मन मुक्तावस्था में भी रह जाता । पुनः उसी

मनरूप साधन से विभु गुण वाला जीव कैसे हो सकता है ?

(पृष्ठ ४ प्रश्न २५) जीव परतन्त्र है ।’’

(समीक्षा) जीव किस के आधीन है ? जो कहो कि परमेश्वर के तो

जो कुछ जीव कर्म करता है वह स्वतन्त्रता से वा ईश्वराधीनता से ? जो ईश्वरा—

धीनता से करता है तो जीव को पाप पुण्य का फल न होना चाहिये, किन्तु

ईश्वर को होना चाहिए । जैसे सेनाध्यक्ष वा राजा की आज्ञा से कोई किसी

को मारे तो वह अपराधी नहीं होता, अथवा किसी के मारने में लकड़ी तलवारादि

शस्त्र (न) अपराधी और न दण्डनीय होते हैं, वैसे ही जीवों को भी दण्ड

न होना चाहिये । किन्तु पाप पुण्य का फल सुख—दुःख ईश्वर भोगे। इसलिए

जीव अपने कर्म करने में सर्वदा स्वतन्त्र और पाप का फल दुःख भोगने में

ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र रह जाते हैं । जैसे चोर चोरी करने में स्वतन्त्र

और राजदण्ड भोगने में परतन्त्र हो जाते हैं, इसी प्रकार जीवों को भी जानो।

(पृष्ठ ४ प्रश्नोत्तर २८) मुक्त जीव कर्मवश होकर फिर कभी

संसार में नहीं आते । ईश्वरेच्छानुकूल अपनी इच्छा से केवल धर्म रक्षा

करने को आते हैं ।’’

(समीक्षा) पाठकगण! विचारिये यह अविघा का प्रताप नहीं है तो और

क्या है ? जो कहते हैं कि जीव संसार में कभी नहीं आते और ईश्वरेच्छानुकूल

अपनी इच्छा से केवल धर्म रक्षा करने को आते भी हैं । धन्य ! भला इस

पूर्वापर विरुद्धता को गुरु और चेले ने तनिक भी न समझा । विचारणीय है

कि जिस का ज्ञान, सामर्थ्य, कर्म अन्त वाले हैं उस का फल अनन्त कैसे

हो सकता है ? और जो मुक्ति में से जीव संसार में न आवे तो संसार का

उच्छेदन अर्थात् नाश ही हो जाय । और मुक्ति के स्थान में भीड़ भड़क्का

हरद्वार के मेले के समान हो जावे । और ईश्वर भी अन्त गुण, कर्म वाले

का फल अनन्त देवे तो न्यायरहित हो जाय । और परिमित गुण, कर्म, स्वभाव

वाले जीव अनन्त आनन्द को भोग भी नहीं सकते । फिर यह बात वेद तथा

शास्त्र के विरुद्ध भी है । देखो ट्टअग्नेर्वयं प्रतमस्यामृतानां मनामहे चारु

देवस्य नाम । स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ।।’

(ऋग्वेद वचन) अर्थहम उसी सुन्दर निष्पाप परमात्मा का नाम जानते हैं

और स्व—प्रकाश स्वरूप जगदीश्वर मोक्षप्राप्त जीवों को पुनः अवधि पर संसार

में माता—पिता के दर्शन कराता है अर्थात् मुक्ति सुख को भुगाकर पुनः संसार

में जन्म देता है । इसी प्रकार सांख्य शास्त्र में भी लिखा है नात्यन्तोच्छेदः’’

इत्यादि वचनों से यही सिद्ध होता है कि अत्यन्त जन्म—मरण का छेदन (न)

किसी का हुआ और न होगा, किन्तु समय पर पुनः जन्म लेता है । इत्यादि

प्रमाणों और युक्तियों से मुक्त जीव भी पुनरावृत्ति में आते हैं ।

(पृष्ठ ४, प्रश्नोत्तर ३०) एक वृक्ष में एक ही जीव होता है अथवा

अनेक ?’’ ।

(समीक्षा) जो एक वृक्ष में एक जीव होता तो प्रत्येक जीव (वृक्ष)

में पृथक —पृथक  जीव कहां से आते और किसी वृक्ष की डाली काटकर

लगाने से जम जाता है उस में जीव कहां से आया, इसलिये एक वृक्ष

में अनेक जीव होते हैं ।

(पृष्ठ ५, प्रश्नोत्तर ३५) अनेक पूर्व जन्मों के कर्म जो ईश्वर के

ज्ञान में स्थित हैं वे सञ्चित कहलाते हैं ।’’

(समीक्षा) क्या जीव का कर्म जीव के ज्ञान में सञ्चित नहीं होता ?

जो ऐसा न हो तो कर्मों के योग से पवित्रता और अपवित्रता जीव में न होवे।

इसलिए जो—जो अध्ययनादि कर्म जीव करते हैं उन का सञ्चय जीव में ही

होता है, ईश्वर में नहीं । किन्तु ईश्वर तो केवल कर्मों का ज्ञाता है और फल—

प्रदाता है ।

(पृष्ठ १२, प्रश्नोत्तर ७७) केवल देवता और शिष्ट पुरुषों के नाम

पर जन्माष्टम्यादि व्रत हैं । सो ईश्वरातिरिक्त किसी देव की उपासना कर्तव्य

नहीं ।’’

(समीक्षा) क्या शिष्ट पुरुषों से भिन्न भी कोई देवता है ? विना पृथिव्यादि

के तैंतीस और वेद मन्त्र तथा माता—पिता आचार्य अतिथि आदि के जिन का

वेदों ने पूजन अर्थात् सम्यव्Q सत्कार करना कहा है । क्या यह भी मनुष्यों

को कर्त्तव्य नहीं ।

(पृष्ठ १३, प्रश्नोत्तर ८२) जो कुछ ईश्वर ने नियत किया है उस में

न्यूनाधिक करने वाला कोई नहीं । जो बात जिस प्राणी के लिए जिस काल में

जिस प्रकार से ईश्वर ने नियत की है उस से विरुद्ध कभी नहीं होती ।’’

(समीक्षा) क्या ब्रह्मचर्य्य और योगाभ्यासादि उत्तम कर्मों से आयु

का अधिक होना और कुपथ्य से वा व्यभिचारादि से न्यून नहीं होता?

जब ईश्वर का नियत किया हुआ ही होता है तो जीव के कर्मों की

अपेक्षा कुछ भी नहीं रह सकती । और जो अपेक्षा है तो केवल ईश्वर

ने नियत नहीं किया किन्तु दोनों निमित्तों से होती है । जो हमारा क्रियमाण

स्वतन्त्र न हो तो हम उन्नति को प्राप्त कभी नहीं हो सकते । इसलिए

हम कर्म करने में स्वतन्त्र और ईश्वर जीवों के कर्मों को यथायोग्य जानकर

कर्मानुसार शुभाऽशुभ फल देने में स्वतन्त्र है । ऐसा माने विना ईश्वर में वे

ही दोष आ जावेंगे, जो २५ वें प्रश्नोत्तर की समीक्षा में लिख आये हैं ।

(पृष्ठ १३, प्रश्नोत्तर ८४) स्वर्ग संसारान्तर्गत है वा लोकान्तर ? उत्तर’’

स्वर्ग लोक विशेष है वहां क्षुधा, पिपासा, बुढ़ापा आदि दुःख नहीं हैं ।’’

(समीक्षा) क्या लोकान्तर का नाम संसार है या नहीं । क्या विना मुक्ति

के प्रलय अथवा स्थूल शरीर के क्षुधादि की निवृत्ति हो सकती है । ऐसे विशेष

स्वर्ग लोक को गुरु—शिष्य देख आये होंगे । जो पूर्व मीमांसा को देखा होता

तो ऐसी अन्यथा बातें क्यों लिखते। देखिये स एव स्वर्गः स्यात् सर्वान्

प्रत्यविशिष्टत्वात् ।’’ पूर्व मीमांसा का वचन । जो सर्वत्र अविशेष अर्थात् सुख

विशेष की प्राप्ति का नाम स्वर्ग और दुःखविशेष की प्राप्ति का नाम नरक लिखा

है । सब जीवों को सब संसार में प्राप्त होता है किसी विशेष लोकान्तर ही

में नहीं । और जहां शरीर धारण, श्वास, प्रश्वास, भोग, वृद्धि क्षय आदि होते

हैं वहां क्षुधा, पिपासा और बुड्ढापन आदि क्यों नहीं ? यह सब अविघा की

बात है । ध्यान दीजिये वेद का कोष क्या कहता है (स्वः) साधारण नाम में

है निघण्टु १।४ । स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् सः स्वर्गः।’’ जिस में सुख

की प्राप्ति हो वह स्वर्ग कहाता है परन्तु गौणमुख्ययोर्मध्ये मुख्ये कार्य्य—

सम्प्रत्ययः।’’ यह व्याकरण महाभाष्यकार का वचन है । इससे यह सिद्ध होता

है कि निर्मल धर्म्माऽनुष्ठानजन्य सत्य विघादि साधनों से सिद्ध आत्मीय और

शारीरिक सुख विशेष है । उसी प्रधान सुख की प्राप्ति का नाम स्वर्ग है ।

(पृष्ठ १४, प्रश्नोत्तर ९१) सम्पूर्ण जीव वास्तव में ईश्वर के दास

हैं । इस कारण मनुष्यों के नाम में ईश्वर वाच्य शब्द में दास शब्द का

प्रयोग करना अत्युत्तम है ?’’

(समीक्षा) यह शास्त्रीय व्यवहार से सर्वथा बाहर है । किन्तु केवल

कपोलकल्पना मात्र ही है । क्योंकि

शर्म्मवद् ब्राह्मणस्य स्यात् राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।

वैश्यस्य गुप्तसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ।। मनु०

जैसे ब्राह्मण का नाम विष्णु शर्म्मा, क्षत्रिय का विष्णु वर्म्मा, वैश्य का

विष्णु गुप्त और शूद्र का विष्णुदास इस प्रकार रखना चाहिये । जो कोई द्विज

शूद्र बनना चाहे तो अपना नाम दासशब्दान्त धर ले और जो शास्त्रोक्त विधि

छोड़ मनोमुख चले उस को क्या कहना !

(पृष्ठ १६, प्रश्नोत्तर ९७) परलोक और धर्मार्थ के फल तथा ईश्वर

को न मानने वाले को नास्तिक कहते हैं ।’’

(समीक्षा) इस में केवल इतनी न्यूनता है कि नास्तिको वेदनिन्दकः’’

जो लाला जगन्नाथदास और मुन्शी इन्द्रमणि जी ने मनुस्मृति पढ़ी वा अच्छे

प्रकार से देखी भी होती तो वेदनिन्दक का नाम नास्तिक में क्यों न लिखते,

जिस से सब कुछ अर्थ आ जाता और लक्षण भी दृष्टि पड़ता ।

(पृष्ठ १६, प्रश्नोत्तर ९८) हिन्दू’’ शब्द संस्कृत भाषा का नहीं

है, फारसी भाषा में वास्तविक अर्थ हिन्दुस्तान’’ के रहने वाले का अर्थ

है और (काला, लुटेरा, गुलाम) ये सांकेतिकार्थ हैं ।’’

(समीक्षा) वह क्या ! जब संस्कृत भाषा का नहीं है तो इस का वास्तविक

अर्थ कभी नहीं हो सकता, वास्तविक अर्थ (में) इस देश वालों—का नाम

(आर्य्य) और इस देश का नाम आर्य्यावर्त्त है’’ । इस सत्यार्थ को छोड़ असत्यार्थ

की कल्पना करनी मुझ को तो अविघा और हठ की लीला दृष्टि पड़ती है।

जब अर्बी’’ की (लुगात) नामक पुस्तक में लिखा है कि लुटेरे आदि

का नाम हिन्दू है तो उस भाषा में वास्तविक नाम क्यों नहीं ? केवल साटेतिक

अर्थ क्यों ? अर्थात् जो कोई आर्य्य होकर अपने हिन्दू नाम होने में आग्रह

करे, उन्हीं का नाम काला, लुटेरा, गुलामादि का रखो, आर्य्य का नहीं ।

(पृष्ठ १६, प्रश्नोत्तर १००) पहले कहने वाला परमात्मा जयति’’

कहे और उत्तर देने वाला जयति परमात्मा’’ कहे ।’’

(समीक्षा) यह कल्पना वेदादि शास्त्रों से विरुद्ध होने के कारण सर्वथा

ही मिथ्या जान पड़ती है क्योंकि नमस्ते रुद्र मन्यवे० । नमो ज्येष्ठाय च

कनिष्ठाय च नमः’’ इत्यादि यजुर्वेद वचन परमर्षिभ्यो नमः’’ नमो ब्रह्मणे

नमस्ते वायो’’ इत्यादि उपनिषद् वचन, इन से निश्चित यही सिद्ध होता है कि

परस्पर सत्कारार्थ (नमस्ते) शब्द से व्यवहार करने में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण

है और परस्पर अर्थ भी यथावत् घटता है जैसे (ते) तुभ्यं वा तव अर्थात् जिस

को मान्य देता है उस का वाची है और (नमः) शब्द नम्रार्थवाचक होने से

नमस्कार कर्त्ता का बोधक है मैं तुम कू नमता हूं अर्थात् (ते) आप वा तेरा

मान्य वा सत्कार करता हूं । इस में नमस्कर्ता और नमस्करणीय दोनों का परस्पर

प्रसग् प्रकाशित होता है और यही अभिप्राय दोनों का है कि दोनों प्रसन्न रहें

और जो असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् तीसरे परमेश्वर का प्रसग् लाना है सो व्यर्थ

ही है । जैसे आम्रान् पृष्टः कोविदारानाचष्टे ।’’ किसी ने किसी से पूछा

कि आम्र के वृक्ष कौन से हैं ? उस ने उसे उत्तर दिया कि ये कचनार के वृक्ष

हैं । क्या ऐसी ही यह बात नहीं है ? किसी ने ईश्वर का प्रश्न पूछा ही नहीं

और न कोई परस्पर सत्कार के व्यवहार में ईश्वर प्रसंग है और कह देना कि

(परमात्मा सारे उत्कर्षों के साथ विराजमान है) यह वचन हठयुक्त का नहीं

तो और क्या है ? हां जहां परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, उपदेश और

व्याख्या करने का प्रसंग हो वहां परमात्मा के नाम का उच्चारण करना सब

को उचित है । जैसा राम—राम, जय गोपाल, जय कृष्णादि शब्दों से परस्पर

व्यवहार करना, यह हठ दुराग्रह से सम्प्रदायी लोगों ने वेदादि शास्त्रविरुद्ध

मनमानी व्यर्थ कल्पना की है, उसी प्रकार से मुन्शी इन्द्रमणि जी व लाला

जगन्नाथ जी की युक्ति और प्रमाण से शून्य यह कल्पना दृष्टि पड़ती है ।

इन विषयों में मुन्शी इन्द्रमणि जी और स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

का संवाद पूर्व समय में भी हो चुका है । परन्तु मुन्शी जी कब मानते हैं।

विशेष क्या लिखें । शोक है कि लाला जगन्नाथदास की करतूतों को विचार

कर अब मुझ को यह कहना पड़ा कि इन दोनों महात्माओं के प्रतिज्ञा से

विरुद्ध करना आदि अन्यथा व्यवहारों को जो कोई सज्जन पुरुष जानना चाहें,

वे आर्यसमाज मेरठ लाला रामसरनदासादि व भद्र पुरुषों से पूछ देखें कि अन्य—

मार्गियों के विवाद विषय के शान्तिकारक व्यवहार प्रसंग में इन्होंने कैसा—कैसा

विपरीत व्यवहार किया, जिस को सब जानकार आर्य लोग जानते हैं । सत्य

यह बात चली आती है कि सब पापों का पाप लोभ है।’’ जो कोई उसी

तृष्णारूपी नदीप्रवाह में बहे जाते हैं उन में पवित्र वेदोक्त आर्य धर्म की स्थिरता

होनी कठिन है । अब जो मुन्शी इन्द्रमणि जी और उन के चेले लाला

जगन्नाथदास, स्वामी जी और भद्र आर्यों की व्यर्थ निन्दा करें तो इसमें क्या

आश्चर्य है ? पाठक गण ! ठीक ही तो है जब जैसे में वैसा मिले फिर क्या

न्यूनता रहे । जैसे दावानल अग्नि का सहायक वायु होता है वैसे ही इनके

श्री मुन्शी बख्तावरसिंह जी सहायकारी बन बैठे । अब तो जितनी निन्दा आर्य

लोगों की करें उतनी ही थोड़ी । चलो भाई यह भी अच्छी मण्डली जुड़ी।

महाशयो ! जब तक तुम्हारा पेट न भरे तब तक निन्दा करने में कसर न

रखना क्योंकि यह अवसर अच्छा मिला है । जैसे किसी कवि ने यह श्लोक

कहा है सो बहुत ठीक है ।

निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।

अघैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।१।।

चाहे कोई अपने मतलब की नीति में चतुर निन्दा करे वा स्तुति करे,

चाहे लक्ष्मी प्राप्त हो वा चली जावे, चाहे मरण आज ही हो वा वर्षान्तरों में,

परन्तु जो धीर पुरुष महाशय महात्मा आप्तजन हैं वे धर्म्म—मार्ग से एक पाद

भी विरुद्ध अर्थात् अधर्म—मार्ग में नहीं चलते ।।

सभ्य गणो ! यह तो आर्य्यों की शुभेच्छा का कारण है, परन्तु जो प्रथम

उत्तमाचरण करके पश्चात् गड़बड़ा जायें वे ही तो आर्य्यावर्त्त के हानिकारक

होते हैं । परन्तु यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि श्रेयांसि बहुविघ्नानि’’

जो इस सनातन वेदोक्त सत्य धर्म का आचरण करते हैं उस में अनेक विघ्न

क्यूं न होवें, तदपि इस सत्यमार्ग से चलायमान न होना चाहिए । सर्वशक्तिमान्

जगदीश्वर परमात्मा अपनी कृपादृष्टि से इन विघ्नों से हम से और हम को

इनसे सर्वथा दूर रखकर हम से आर्य्यावर्त्त की उन्नति कराने में सहायक रहे।

इस थोड़े लेख से सज्जन पुरुष बहुत सा जान लेंगे । अलमतिविस्तरेण

बुद्धिमद्वर्येषु ।

(303) शंका :- (शाहपुरा में रामस्नेहियों से प्रश्नोत्तरमार्च, १८८२)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- रामस्नेही मत

समाधान :-

शाहपुरा में रामस्नेहियों का एक मेला था । उस में व्यावर के कुछ

रामस्नेही वैश्य आए हुए थे । एक दिन वे महाराज का व्याख्यान सुनने के

लिए आए । उस समय तक व्याख्यान आरम्भ नहीं हुआ था, वे महाराज को

राम—राम करके बैठ गये । महाराज ने उस का उत्तर ट्टनमस्ते’ शब्द से दिया।

थोड़ी देर बाद महाराज ने पूछा कि तुम लोग इतने दिन से राम—राम जपते

हो, इससे क्या लाभ है ? उन्होंने कहापहले नाम पीछे नामी, जैसे हम ने

पहले आप का नाम सुना और पीछे ढूंढते—ढूंढते आप को पा लिया। जैसे

पहले काशी कहते—कहते और पीछे ढूंढते—ढूंढते मनुष्य काशी पहुंच जाता

है। ऐसे ही राम—राम कहते—कहते मनुष्य पीछे राम को पा लेता है । महाराज

ने उत्तर दिया कि मैंने तो कभी पहले तुम्हारा नाम नहीं जपा, परन्तु फिर भी

मैंने तुम्हें अपने सम्मुख बैठे पा लिया । केवल नाम लेने से परमेश्वर नहीं

मिल सकता। उस के लिए साधन करना आवश्यक है । केवल लड्डू कहने

से ही लड्डू नहीं मिल सकता, उस के लिए उपयुक्त साधन करना होता

है। ये बातें हो ही रही थीं कि पांच छः वर्ष के बालक जो इन वैश्यों की

गोद में बैठे हुए थे, हठात् उठकर कहने लगे बाबा जी ! स्वामी जी सच

कहते हैं । लड्डू—लड्डू कहने से क्या लड्डू मिल सकते हैं ? यह सुनकर

सब लोग विस्मित हो गए । तब महाराज ने कहा कि ये बालक पक्षपाती

नहीं हैं, इन्होंने किसी के कहने से ऐसा नहीं कहा । अब इन बालकों की

सरलोक्तिपूर्ण मध्यस्थता से हमारे तुम्हारे शास्त्रार्थ की सुन्दर मीमांसा हो गई।

(देवेन्द्रनाथ २।३१९)

(304) शंका :- (कबीर पन्थी साधु के साथ मसूदा में धर्मचर्चाअगस्त, १८८१)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- कबीर पन्थ

समाधान :-

अगस्त, सन् १८८१ के पहले सप्ताह में एक दिन एक साधु कबीरपन्थी

·इस शास्त्रार्थ का लेखरामलिखित विस्तृत विवरण पृ० २४२ पर भी है ।

ब्यावर से स्वामी जी के पास मसूदा में आया और परस्पर धर्मचर्चा होने लगी।

स्वामी जीआपके मत के कितने ग्रन्थ हैं ?

साधु जीहमारे २४ करोड़ पुस्तक हैं ।

स्वामी जीयह बात मिथ्या है क्योंकि इतने ग्रन्थों की संख्या और रखने

को कितना स्थान चाहिए ? (इस पर साधु जी कुछ भी न बोले) ।

तब स्वामी जी ने फिर कहा कि तुम्हारे कबीर कौन थे और जब तुम

कबीरमत में होते हो तब उन की प्रशादी और गुरु का उच्छिष्ट भी खाते हो कि

नहीं ?

साधु जी उच्छिष्ट खाते हैं । कबीर का जन्म नहीं है, अजन्म है ।

उस के मां बाप भी नहीं ।

स्वामी जीकबीर जी काशी में कुकर्म से उत्पन्न हुए थे । इस कारण

उस की मां ने उसे बाहर फेंक दिया था । उसी समय वहां पर (जहां पर

कबीर पड़ा था) एक मुसलमान जुलाहा आ निकला । वह कबीर को उठाकर

घर ले गया और अपना पुत्र सा जान उस को पाला और बड़ा किया । अब

देखिये कि उस का जन्म भी हुआ और मां बाप भी ठहरे ।

साधु जी इस बात को सुनकर चुप रहे और कुछ उत्तर न दिया फिर

और विषय पर बातें होती रहीं ।

(ट्टट्टदेश—हितैषी’’ खण्ड १, संख्या ८, पृष्ठ ६, ७) (लेखराम पृष्ठ ५४६)

(305) शंका :- (जैन साधु सिद्धकरण जी से मसूदा में शास्त्रार्थ ६ जौलाई से १६ जौलाई, १८८१ तक)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- नास्तिक तथा जैन मत

समाधान :-

जब आषाढ़ बदि १२, संवत् १९३८ तदनुसार २३ जून, सन् १८८१

को स्वामी जी धर्मोपदेश के निमित्त मसूदा पधारे तो कई दिन तक निरन्तर

व्याख्यान देने के पश्चात् ५ जौलाई, सन् १८८१ को राव बहादुरसिंह साहब

रईस मसूदा ने अपनी रियासत के सम्मानित जैनियों को बुलाकर कहा कि

तुम अपने किसी विद्वान् पण्डित या मतावलम्बी को बुलाओ ताकि उस से

स्वामी जी का शास्त्रार्थ कराया जावे और सत्यासत्य का निर्णय हो ।

जैनियों ने उत्तर दिया कि हम अपने साधु सिद्धकरण जी को बुलाते

हैं, वे स्वामी जी से शास्त्रार्थ करेंगे ।

रावसाहब ने कहा कि वे कहां हैं ? जैनियों ने उत्तर दिया कि वे ग्राम

सर्वाड़ किशनगढ़ क्षेत्र में यहां से १६ कोस पर हैं । रावसाहब ने कहा कि

हमारे यहां से सवारी ले जाओ और तुम में से कोई जाकर साधु जी को बुला

लाये । उन्होंने उत्तर दिया कि सवारी पर बैठकर वे नहीं आते परन्तु उन का

चतुर्मासा यहां पर करना निश्चित हुआ है, इसलिए विश्वास है कि कल आ

जावेंगे । दैवयोग से प्रातःकाल आषाढ़ सुदि १०, संवत् १९३८ तदनुसार ६

जौलाई, सन् १८८१, बुधवार को साधु जी वहां आ विराजे । आषाढ़ सुदि

१३, अर्थात् ९ जौलाई, सन् १८८१, शनिवार को स्वामी जी महाराज अपने

नियमानुसार भ्रमण को गये तो सिद्धकरण साधु से जो शौचादि से निवृत्त होकर

आते थे, मार्ग में भेंट हो गई । साधु ने स्वामी जी के निकट आकर कहा

किआपका क्या नाम और कहां से पधारना हुआ ।

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मेरा नाम दयानन्द सरस्वती है और अजमेर

से आया हूं । फिर स्वामी जी ने कहा कि आप का क्या नाम है और कहां

से आना हुआ । साधु जी ने कहा कि मेरा नाम सिद्धकरण है और सर्वाड़

किशनगढ़ क्षेत्र से आया हूं, चार मास यहीं रहूंगा ।

स्वामी जीयहां पर आप कहां ठहरे हैं ?

साधु ने कहा कि एक उपाश्रय में ।

स्वामी जी ने कहा कि आप ही को जैनियों ने बुलाया है ?

साधुहां मुझी को ।

और साधु जी ने कहा कि आप का पेट तो बड़ा मोटा है, क्या इस

में ज्ञान भरा है ? आप लोहे का तवा बांध लीजिये नहीं तो फट जायेगा ।

आप को ज्ञान—अजीर्ण हो रहा है ।

स्वामी जी ने उस का उस समय उत्तर देना अनुचित समझ साधु से

यह प्रश्न किया कि आप लोग मुख पर पट्टी बांधते और गर्म जल क्यों पीते

हो ?

साधु जी ने कहा कि जो आप भी मुख पर पट्टी बांधें तो मैं इस का

उत्तर दूं ।

अभी इन में परस्पर वादानुवाद हो ही रहा था कि रावसाहब ने जो

प्रायः अपने महल की छत पर बैठ प्रातःकाल दूरवीक्षण द्वारा स्वामी जी को

भ्रमण करते देखा करते थे, देखा कि किसी से स्वामी जी वार्ता कर रहे हैं।

तत्काल ही रावसाहब घोड़े पर सवार होकर स्वामी जी के पास आ उपस्थित

हुए । रावसाहब को देख साधु चलने लगा । तब रावसाहब ने साधु जी से

कहा कि ठहरो, प्रश्न करो, क्यों जाते हो ? अन्त को रावसाहब के आते

ही साधु जी चले ही गये और स्वामी जी महाराज और राव बहादुरसिंह जी

मार्ग में परस्पर वार्ता करते हुए निज स्थान को पधारे । फिर स्वामी जी ने

श्रावण बदि २, संवत् १९३८, बुधवार तदनुसार १३ जौलाई, सन् १८८१ को

निम्नलिखित प्रश्न पण्डित छगनलाल कामदार और ज्योतिषी जगन्नाथ आदि

सम्मानित व्यक्तियों के हाथ सिद्धकरण साधु के पास भेजे ।

प्रश्नजैन मतान्तर्गत तुम लोग ढूंढि़ये जो मुख पर पट्टी बांधना अच्छा

जानते हो, यह तुम्हारी बात विघा और प्रत्यक्षादि प्रमाणों की रीति से सिद्ध

नहीं है । इस से जो तुम ऐसा मानते हो कि मुख की वायु से जीव मरते

हैं तो भी ठीक नहीं क्योंकि जीव अजर—अमर हैं और तुम भी ऐसा ही मानते

होगे । जो तुम कहो कि जीव तो नहीं मरता परन्तु उस को पीड़ा अर्थात् दुःख

देवें तो हम पाप के भागी होते हैं तो भी सर्वथा ठीक नहीं क्योंकि ऐसा किए

विना किसी का निर्वाह नहीं हो सकता । इस में जो तुम कहते हो कि जहां

तक बन सके, वहां तक जीवों की रक्षा करनी चाहिए । कारण सर्व वायु

आदि पदार्थ जीवों से भरे हैं । इसलिए हम लोग मुख पर कपड़ा बांधते हैं

कि मुख से उष्ण वायु निकलने से बहुत से जीवों को दुःख और बांधने से

थोड़े जीवों को कष्ट पहुंचता है तो यह भी कहना आप लोगों का अयुक्त

है क्योंकि कपड़ा बांधने से जीवों को बहुत दुःख पहुंचता है । कारण यह

है कि मुख पर कपड़ा बांधने से गर्मी रखने से उष्णता अधिक होती है जैसे

किसी मकान का द्वार बन्द हो और पर्दा डाला जाये तो उसमें गर्मी अधिक

होती है और खुला रखने से कम होती है । इस से विदित होता है कि मुख

पर कपड़ा बांधने से जीवों को अधिक पीड़ा होती है । इसलिए जो कोई

मुख पर कपड़ा बांधते हैं वे जीवों को अधिक पीड़ा पहुंचाने से अधिक पापी

होते हैं । जो नहीं बांधते वे उन बांधने वालों से अच्छे हैं । किन्तु, जब तुम

मुख पर कपड़ा बांधते हो मुख द्वारा वायु रुककर नाक के छिद्र से जो बाहर

निकलती है, वह जीवों के लिए अधिक दुःखदायी होती है । जैसे मुख से

कोई अग्नि पूंQके और कोई नल से तो नल से वायु चारों ओर से रुक

अधिक बलवान् हो अग्नि से लगती है । इसी प्रकार नाक की वायु जीवों

को अधिक पीड़ा पहुंचाती है । इस से तुम हिंसक हो। जो तुम कहो कि

हम नाक और मुख पर एक कपड़ा बांधेंगे तो पूर्वोक्त रीति से मुख और नासिका

दोनों की गर्मी बढ़कर दुगुनी हिंसा होगी । इससे मुख और नासिका पर कपड़ा

बांधना कदापि योग्य नहीं । दूसरे कपड़ा बांधने से बोला भी ठीक—ठीक नहीं

जाता । निरनुनासिक शब्दाें को सानुनासिक कर देना दोष है । दुर्गन्ध भी

अधिक बढ़ता है क्योंकि शरीर के भीतर दुर्गन्ध है । शरीर से जितना वायु

निकलता है वह दुर्गन्धयुक्त ही है । जब वह रोका जाये तो अधिक दुर्गन्ध

बढ़ता है जैसा कि बन्द जाजरूर । इस प्रकार मुखादि प्रक्षालन न करने और

मुख पर कपड़ा बांधने से अधिक दुर्गन्ध होकर रोग उत्पन्न करता है जैसा

कि मेले आदि में । और न्यून दुर्गन्ध विशेष रोग नहीं करता, यह बात प्रत्यक्ष

है। इस से यह सिद्ध हुआ कि अधिक दुर्गन्ध बढ़ाने वाला अधिक अपराधी

होता है । जैसा कि आप लोग दन्तधावन और स्नानादि कम करने से दुर्गन्ध

बढ़ाते हो । जिस से रोगोत्पत्ति कर बुद्धि और पुरुषार्थ को नष्ट करके

धर्मानुष्ठान के बाधक होते हो । जैसे जाजरूर (मलागार) के शुद्ध करने वालों

की दुर्गन्ध के संग से न्यून बुद्धि होती है वैसे आप लोगों की क्याें नहीं होती

होगी । जब दुर्गन्धयुक्त पुरुष की बुद्धि अति मन्द होती है तो उस के संगियों

की क्यों नहीं होती होगी ।

(देशहितैषी’ खण्ड १, संख्या २, पृष्ठ ७ से १३, ज्येष्ठ मास, संवत् १९३९)

जो तुम लोग कच्चा जल पीने आदि में दोष गिनते और उष्ण में

नहीं, यह भी तुम को अत्यन्त भ्रम हुआ है क्योंकि ठण्डे के जीव उष्ण जल

करने में अधिक दुःख पाते हैं और उन के शरीर जीवित जल में घुल जाते

हैं जैसे सौंफ का अर्वQ । सिद्ध हुआ कि उक्त जल के पीने वाले मानो मांस

का जल पीते हैं और जो ठण्डा जलपान करते हैं वे (इन जीवों को) गर्म

जल पीने वालों की अपेक्षा थोड़ा दुःख देते हैं । दूसरे वे जीव जठराग्नि में

प्राप्त होकर भी बहुत से प्राणवायु के साथ बाहर भी निकल जाते हैं । इस

से ठण्डा जल पीने वाले तुम से बहुत कम जीवों को दुःख देने वाले ठहरते

हैं । जो तुम कहो कि न हम जल गर्म करते हैं और न हम किसी को शिक्षा

अपने लिए जल को उष्ण करने की करते हैं तो भी तुम अपराध से नहीं

छूट सकते क्योंकि जो तुम गर्म जल न लेते, न पीते और न उष्ण करने की

शिक्षा करते तो वे अधिक जल क्यों गर्म करते। जो ऐसा कहो कि पाप करने

वालों को दोष लगता है, अन्य को नहीं । यह भी कथन ठीक नहीं हो सकता,

क्योंकि चोरी करने वाला तो आप ही चोरी करता है परन्तु शिक्षा करने वाले

बहुतों को चोर बना देते हैं, इसलिए तुम ही अधिक पापी हुए । फिर जल

के गर्म करने में अग्नि जलाते और उस जल से भाप ऊपर उड़ाने से भी

जीवों को बहुत दुःख पहुंचता है । इस कारण यह भी तुम्हारा कथन व्यर्थ

हुआ ।

तुम्हारे मत में ऐसी—ऐसी बहुत—सी बात अयुक्त हैं, जैसे एक छोटे

से अर्थात् पैसा भर के कुण्ड में अनन्त जीवों का रहना । इस में जो कोई

तुम से प्रश्न करे कि जिस में जीव रहते हैं उस का अन्त है, उस में रहने

वालों का अन्त क्यों नहीं ? फिर तुम से उस के उत्तर में केवल चुप वा

हठ के अतिरिक्त और कुछ न बन पड़ेगा । यह थोड़ा सा अर्थात् समुद्र में

से बिन्दुवत् तुम्हारे मत के सिद्धान्तों में दोष दिखलाया है । जो तुम सम्मुख

बैठ कर चर्चा करो तो तुम को और तुम्हारे साथियों को तुम्हारे मत के दोष

भली—भांति विदित हो जायें परन्तु जब कोई विद्वान् तुम्हारे सम्मुख तुम्हारे मत

के खण्डन—विषय में चर्चा करना चाहे तो भी तुम कभी न चाहोगे क्योंकि

जो तुम्हारा मत निर्दोष होता तो दूसरे मत वालों से संवाद करने में कभी न

डरते । इस का दृष्टान्त यह है कि तुम अपनी पुस्तकों को बहुत गुप्त रखते

और अपने मतवालों के अतिरिक्त दूसरों को देखने के लिए नहीं देते । यह

तुम्हारा सिद्धान्त पुस्तक और तुम्हारे सिद्धान्तों को तुम्हारी ही बातें झूठी कर

देती हैं । जिस का चांदी का रुपया है, वह सर्राफा और सुनारादि को दिखलाने

में क्यों डरेगा ? देखो! हमारा वेद—मत सच्चा है इस से हम को किसी के

साथ चर्चा करने में डर नहीं होता । जैसे तुम डर के कारण हठ करते हो

कि मुख पर कपड़ा बांधे विना तुम से हम बात नहीं करते । यह तुम्हारा

केवल छल है क्योंकि ट्टट्टनाच न आवे आंगन टेढ़ा ।’’

हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती

जब उक्त प्रश्नों को लेकर साधु जी के स्थान पर पहुंचे तो क्या देखते

हैं कि साधु जी बहुत से स्त्री और पुरुषों के मध्य में बखान (व्याख्यान)

कर रहे हैं तब ये लोग वहां जा बैठे । जब बखान पूर्ण हो चुका तब पण्डित

छगनलाल मन्त्री राव मसूदा ने जो उक्त प्रश्न ले गये थे सब लोगों के सम्मुख

पढ़कर सुना दिये और कहा कि इन का उत्तर देना आप को योग्य है । इस

पर साधु जी ने कहा कि जो तुम लोग मुख पर पट्टी बांधो तो मैं उत्तर दूं ।

तब उन लोगों ने कहा कि हम मुख पर पट्टी बांधना पाप गिनते हैं । आप

इन प्रश्नों का उत्तर दें, जब पट्टी का बांधना सिद्ध कर देंगे तब हम

प्रसन्नतापूर्वक पट्टी क्या जैसा आप हम से कहेंगे, स्वीकार करेंगे । यह सुन

साधु ने कहा कि मैं उत्तर नहीं दे सकता और उठ कर भीतर की ओर चले

गये । फिर उन्होंने सब वृत्तान्त स्वामी जी और राव साहब को सुनाया और

अपने—अपने स्थान को पधारे । तत्पश्चात् साधु जी ने तीसरे दिन अर्थात् १५

जौलाई, सन् १८८१ को सुजानमल कोठारी के हाथ स्वामी जी के प्रश्नों के

निम्नलिखित उत्तर भेजे ।

साधु सिद्धकरण जी की ओर से प्रश्नों के उत्तर’’

प्रश्नमुंह बांधने में क्या धर्म है? हम को तो पाप प्रतीत होता है इत्यादि।

उत्तरजबकि मकान में अग्नि की ज्वाला निकलती है, उस मकान

के द्वार में होकर वायु भीतर जाती है तो वायु के जीव सब मर जाते हैं।

जब बारड़ा (द्वार) बन्द किया जावे वायु की ओट से सब जीव बच सकते

हैं और भी उस ज्वाला का तेज कपड़े की ओट से ठण्डा होकर जाता है

जैसा कि उष्ण जल की भाप । बाहर एक गर्म की हुई चीज की भाप के

निकलते समय कपड़े की ओट दो तो फिर ओट से बचकर भाप बाहर जावेगी

वह फिर वैसी गर्म कभी न रहेगी वा आड़ा हाथ देकर देखो तो पहले जो

हाथ देगा उस का जलेगा । वही जल की भाप निकलेगी तो दूसरी ओर जो

आजूबाजू जो हाथ रहेगा कभी वैसा नहीं जल सकता । यह तो प्रत्यक्ष दीख

पड़ता है और जीव अजर, अमर है परन्तु वायु के जीव का शरीर है । विना

शरीर के जीव नहीं रह सकता । दूसरे खुले मुख रहने से प्रत्यक्ष दोष भी

है कि उस को सब कोई समझ सकता है क्योंकि जो कोई बड़े मनुष्य के

निकट बात करे तो मुंह के पल्ला लगा रहता है क्योंकि जिस से थूक न

उछले वा अपनी दुर्गन्धता का श्वास उन के द्वारा न पहुंचे तो आपड़ों से (आप

सरीखे) बुद्धिमान् होकर यह क्या प्रश्न पूछा । आपको भी तो यह विचार

करना चाहिए कि वेद की पुस्तकों को खुले मुंह बांचना क्या पुस्तक के थूकारा

वा दुर्गन्ध—श्वासा नहीं पहुंचती होगी ? इसलिए अवश्य आपको उघाड़े (खुले

मुख) रहना उचित नहीं और हम तो साधु हैं, हम निरर्थक जोड़ नहीं करते

क्योंकि यह बात पक्षपात कहलाती है, धर्म के अतिरिक्त साधु को कुछ प्रयोजन

नहीं। कोई हमारे निकट आवे और सुनना चाहे तो सुने । जाने—आने का कुछ

प्रयोजन नहीं । हां यह पक्की देखी कि कुछ धर्म की बात मानेंगे तो जा

भी सकते हैं । हस्ताक्षर सिद्धकरण

(देश—हितैषी, खण्ड १, संख्या ४ पृष्ठ ७ से १० तक)

उत्तर पक्षस्वामी दयानन्द जी महाराज की ओर से उत्तर

उत्तरजबकि मकान में अग्नि की ज्वाला निकलती है इत्यादि । यह

तुम्हारा मुख पट्टी बांधने का उत्तर अविघारूप है क्योंकि बाहर का वायु ही

सब पदार्थों का जीवनहेतु है । विना इस के संयोग के कोई भी प्राणी नहीं

बच सकता और उस के सम्बन्ध के विना अग्नि भी नहीं जल सकती ।

जैसे किसी प्राणी वा जलती अग्नि को बाहर की वायु से वियुक्त करें तो

वह उसी समय मर जाता है । और दीपकादि अग्नि भी बुझ जाता है क्योंकि

इस के जलाने आदि का कारण बाहर का वायु है । न मानो तो बन्द कर

देख लो। इसलिए यह तुम्हारा अविघारूपी उत्तर सिद्ध होता है । यघपि ऐसी

अन्यथा बातों पर लिखना व्यर्थ है क्योंकि जो किसी से हो ही नहीं सकता।

देखो जो मकान के द्वार और छिद्र बिल्कुल बन्द किये जायें तो अग्नि कभी

न जलेगी और एक ओर से ओट किया जाये तो दूसरी ओर से जहां मार्ग

पाता है वहां से अतिवेग से चलकर वही वायु के जीवों से उस का सम्बन्ध

होता है और कपड़े की ओट से भी वह कभी ठण्डा नहीं हो सकता किन्तु

वह एक ओर से रुक कर दूसरी ओर से गर्म हो जाता है ज्वाला की जितनी

गर्मी है । जब तक बाहर की वायु से सम्बन्ध और संघात छूट एक—एक

परमाणु पृथक —पृथक  होकर न मिल जायें तब तक अग्नि ठण्डा कैसे हो

सकता है। और सर्वत्र वायु में विघुत्रूप अग्नि भी (कि जहां वायु के शरीर

वाले जीव हैं) व्याप्त हो रहा है फिर वायुस्थ जीव क्यों नहीं मर जाते ?

जब एक ओर कपड़े आदि से आड़ा किया जाये तो दूसरी ओर गर्म वायु

अधिक इकट्ठा फैलने और टपकने से शीघ्र ठण्डा नहीं होता किन्तु जो चारों

ओर से खुला रहे तो शीघ्र ठण्डा हो जाता है जैसे कि मैदान की अग्नि ।

जब अग्नि की ओर आड़ा हाथ दिया जाये तो हाथ की आड़ से दूसरी ओर

गर्मी फैलेगी। आड़े हाथ करने से गर्मी कुछ भी कम नहीं हो सकती इस

से यह अविद्वानों की बात है । देखो जो सूर्य की ओर हाथ करे तो क्या सूर्य

की गर्मी घट जाती है और क्या जिस बर्तन में जल गर्म किया जाता है उस

का मुख खुला रखने से अधिक गर्मी और आधा वा तीन भाग बन्द करने

से अर्थात् आधे वा चौथे भाग से भाप अधिक और जोर से निकल कर बाहर

की वायु में नहीं फैलती । और जो उस का मुख सर्वथा बन्द किया जाये

तो क्या बर्तन टूट फूट और उड़ न जायेगा ? क्या जिस ने अग्नि की ज्वाला

के सामने आड़ की तो उसकी ओर गर्मी कम होने से दूसरी ओर अधिक

गर्मी नहीं होती ? क्या हाथ के आड़ किये हाथ से अग्नि के दूसरी ओर

जिस किसी के हाथ और कोई वस्तु हो तो वह अधिक तप्त नहीं होती और

जब चारों ओर से आड़ कर अग्नि को रोका जावे तो गोलाकार होकर ऊपर

को क्यों न चढ़ेगा और भाप के दूसरी ओर हाथ जैसा कि इधर का जलता

है वैसा उधर का न जलेगा और हाथ की आड़ के हाथ में गर्मी इसलिये

अधिक नहीं लगती कि वह अगल बगल होकर ऊपर उठ जाती है । देखो

तुम्हारी यहां अत्यन्त भूल है क्योंकि जो वायु के शरीर वाले जीव गर्म वायु

से मर जाते तो वैशाख और ज्येष्ठ मास में जबकि वायु अत्यन्त तप्त हो लू

चलता है तब क्या सब जीव मर जाते हैं और गर्म वायु के जीव जबकि पौष

मास में अतिशीत पड़ता है तब क्या मर जाते हैं ? इससे यह बात सृष्टिक्रम

से विरुद्ध होने से मिथ्या ही है क्योंकि जो ऐसा होता तो परमेश्वर इस सृष्टि

में अग्नि और सूर्यादि को क्यों रचता ? इस से जो तुम सत्यासत्य बातों का

निश्चय करना चाहो तो वेदादि सत्यशास्त्र पढ़ो और सुनो जिस से यथार्थ ज्ञान

पाके धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी फल को प्राप्त हो सको । जो ऐसा न करके

अपने मत के ग्रन्थों के विश्वास में रहोगे तो यह उत्तम मनुष्य जन्म व्यर्थ

ही नष्ट करोगे ।

(देश—हितैषी, खण्ड १, संख्या ५, पृष्ठ ८ से १० तक, भादों, संवत् १९३६)

जैनमत 237

बड़े आश्चर्य की बात है कि जीवों को अजर, अमर मान कर फिर

उन का मरण भी मानते हो । जो तुम खुला मुख रखने में प्रत्यक्ष दोष लिखते

हो तो प्रत्यक्ष होता है कि आप प्रत्यक्ष के लक्षणादि विघा को ही नहीं जानते।

इसी से किसी बड़े मनुष्यादि से बातें करने में पल्ला लगाना अच्छा समझते

हो । जो ऐसा है तो फिर वैसा क्यों नहीं करते । छोटे मनुष्य के सम्मुख हर

समय मुख बांधे रहते हो । क्या बड़े मनुष्य का थूका छोटे मनुष्य के साथ

लग जाना अच्छा समझते हो ? क्या बड़े के मुख में कस्तूरी घुली होती है

छोटे के नहीं ? यदि बड़े छोटों का विचार है तो अपने चेलों के सम्मुख मुख

क्यों बांधे रहते हो ? क्योंकि जब किसी बड़े मनुष्य से बोला करो तब बांध

लिया करो । सदैव व्यर्थ बातें क्यों किया करते हो । देखो इस बात को तुम

नहीं जानते, बड़े मनुष्यों से बात करते समय पल्ला लगाने से यह प्रयोजन

है कि सभा में कभी गुप्त वार्ता करनी पड़ती है, यदि मुख ख्ुाला रखा जावे

अर्थात् कपड़ा न लगावें तो अन्य मनुष्य जो निकट बैठे हों अवश्य सुन लें।

जहां कोई तीसरा मनुष्य होता, वहां बातें करने में पल्ला नहीं लगाते और क्या

पल्ला लगाने से दुर्गन्ध रुक सकता है ? इस में इतना ही प्रयोजन है कि

जो वायु को रोक के न बातें करें तो उस के फैलने के साथ ही शब्द भी

फैल जाये और कान में वायु लगने से ठीक—ठीक सुना भी न जाये जैसा

कि वायु के वेग से चलने में ठीक—ठीक नहीं सुना जाता । देखो ! कैसे

अन्धेर की बात है, क्या दुर्गन्ध को कान ग्रहण कर सकता है ? नहीं, किन्तु

सुगन्ध दुर्गन्ध का ग्रहण नासिका ही से होता है । इस बात का आपने प्रयोजन

नहीं समझा है । जैसे गानविघा न जानने वाला धु्रपद को समझ नहीं सकता

क्योंकि जो विघा की बातें हैं उन को विद्वान् ही समझ सकता है, अविद्वान्

नहीं । हम शब्द, अर्थ और सम्बन्ध को वेद समझते हैं, कागज स्याही को

नहीं और कागज, स्याही को जड़ होने से सुगन्ध दुर्गन्ध का ज्ञान वा सम्बन्ध

नहीं होता । क्या जो तुम्हारे जैनी लोगों के ग्रन्थ वा पुस्तकों के कागज लेखादि

हैं, उन को बनाने वालों ने मुख बांधकर बनाया और लिखा होगा ? हम खुले

मुख से वेदों का पाठ करना अत्युत्तम समझते हैं क्योंकि मुख बांधने से स्पष्ट

यथार्थ उच्चारण नहीं होता जैसा कि तुम्हारा सब अक्षरों का नासिका से

अशुद्धोच्चारण होता है । इस का उत्तर हम ने पहले ही लिख दिया था कि

निरनुनासिक को मुख बांध कर सदैव सानुनासिक बोलना शुद्ध नहीं परन्तु

इस के समझने को विघा चाहिये और जो आप साधु बनते हो तो साधु के

क्या लक्षण हैं ? और आप स्वार्थी हो वा परमार्थी । जो स्वार्थ की इच्छा

अर्थात् ट्टट्टनिरर्थक हम नहीं बोलते’’ ऐसा क्यों कहते हो और जो स्वार्थी हो

तो साधु क्यों बनते हो ? जो आप को पक्षपात नहीं होता तो मुख पर पट्टी

बांधने का झूठा आग्रह क्याें करते ? कि विना मुख पर पट्टी बांधने के हम

नहीं बोलते यदि ऐसा नियम था तो प्रथम ही प्रथम (जंगल में भ्रमण करते

समय) हम से क्यों बोले थे कि आप का क्या नाम है ? इत्यादि खुले मुख

बोले । और अन्य जनों से भी बातें क्यों किया करते हो ? और भोजन समय

(स्वप्रयोजन के लिए) क्यों मुख खोलते हो ? क्या तुम अपने शरीर—पोषण,

भोजन, छादन, मलविसर्गादि कर्म मौन के अतिरिक्त नहीं समझ सकते होगे?

यह बात मिथ्या है क्योंकि जब हम सुनना चाहते थे तब तो तुम सुनाने को

खड़े भी न हुए और जो तुम कहीं आते जाते नहीं तो यहां कहां से आ

गये ? क्या एक ही स्थान पर शिला के समान स्थिर रहते हो ? भला जिस

का रुपया चांदी का है उस को कच्चेपन का क्या भय है ? क्या सब के

सामने दिखलाने से ताम्र का भी हो जाता है? क्या तुम वहीं जाते हो जहां

तुम्हारी बातें विना समझे बूझे मान लेवें ? हाँ ठीक है तुम तो उन्हीं गोबर—गणेशों

को सुना सकते हो, जो प्रसन्नता से ट्टट्टसत्यार्थ’’ और ट्टट्टप्रमाण’’ शब्दों का

हल्ला करके तुम को सन्तुष्ट किया करें, चाहे सत्य कहो वा असत्य । मान

ही लें जैसे दिल्ली की मिठाई । न पूछें न शटा करें, न झूठ का खण्डन

करें । ठीक समझ लिया जैसे तुम, वैसे तुम्हारे, सिद्धान्त हैं मानो बालकों

का खेल । जो मुख की पट्टी का उत्तर तुम नहीं दे सकते तो छोटे से कुण्ड

में अनन्त जीवों के होने आदि का उत्तर देना, तुम क्या किन्तु तुम्हारे तीर्थंकरों

ने भी इन विघा की बातों को नहीं समझा था । जो समझते होते तो ऐसी

असम्भव बातें क्यों लिख जाते ? सत्य है जब से तुम लोगों ने वेदविरोधी

होकर वेदोक्त सत्य मत को छोड़ के कपोलकल्पित असत्य मत को ग्रहण

किया है तब ही से विघारूप प्रकाश से पृथक  होकर अविघारूप अन्धकार

में प्रविष्ट हो गये हो । इसी से ईश्वर, जीव और पृथिवी आदि तत्त्वों को

यथावत् नहीं जान सकते हो ।

आओ ! अब भी क्यों झूठ पक्षपात करके वेदोक्त सत्य मत का स्वीकार

क्यों नहीं करते और मुख पर पट्टी बांधने आदि विघाविरुद्ध कपोलकल्पित

बातों को क्यों नहीं छोड़ते और अन्यथा आग्रह करते जाते हो ? सत्य है जो

तुम लोगों के आत्माओं में वेदविघा का थोड़ा भी प्रकाश होता तो ऐसी निर्मूल

झूठी बातों के लिखने में लेखनी कभी न उठाते और जो तुम्हारे सिद्धान्त सत्य

होते तो चर्चा करने में झूठे हीले के बहाने क्यों पकड़ते और ऐसे अशुद्ध

लेख का व्यर्थ परिश्रम क्यों करते ? यदि अब भी सच्चे हो तो सम्मुख आकर

थोड़े काल में सत्यासत्य का यथार्थ निश्चय क्यों नहीं कर लेते क्योंकि जो

वाद—प्रतिवाद से बात सिद्ध होती है वही मानने योग्य है । जिस किसी ने

मत मतान्तर वालों से पक्ष—प्रतिपक्ष पूर्वक वादानुवाद नहीं किया वह सत्यासत्य

को ठीक—ठीक कभी नहीं जान सकता । इसीलिये तुम भी ऐसा क्यों नहीं

करते ? परन्तु क्या करो नाच न आवे आंगन टेढ़ा ।

हस्ताक्षर स्वामी दयानन्द

यह उपर्युक्त पत्र १६ जौलाई, सन् १८८१ को पण्डित वृद्धिचन्द,

जगन्नाथ जोशी, व्यास रामनारायण, बाबू बिहारीलाल तथा अन्य सर्दार लोगों

के हाथ स्वामी जी ने साधु जी की ओर भेजा । जब वे लेकर चले तो

उस समय लगभग दो सौ मनुष्यों के इकट्ठे हो गये थे । इन्होंने पहुंचते ही

साधु जी को उक्त पत्र पढ़ सुनाया और निवेदन किया कि अब आप इस

का फिर उत्तर दीजिये । परन्तु पाठकगण ! उत्तर देने में तो विघा चाहिये।

न जाने पहले किस की सहायता से उत्तर लिखा था । विशेष क्या लिखूं

साधु जी के छक्के छूट गये ।

अन्त को उन लोगों ने जब बहुत कहा सुना तब यही मुख से निकला

कि हमारे से तो उत्तर कोई नहीं बन आता । आपां तो साधु हैं । जब लोगों

ने देखा कि अब साधु जी ने ही अपने मुख से हार मान ली तो अब विशेष

कहना उचित नहीं, यह समझकर नमस्ते करके चले आये और सब वृत्तान्त

राव साहब और स्वामी जी से निवेदन कर अपने—अपने स्थानों को चले गये।

हस्ताक्षरवृद्धिचन्द श्रीमाल, मसूदा

(ट्टट्टदेश—हितैषी’’ खण्ड १, संख्या ६, संवत् १९३५ आश्विन,

पृष्ठ १२ से १५ तक ।) (दिग्विजयार्वQ पृ० ३१, लेखराम पृष्ठ ६७५—६८०)

(306) शंका :- पं० लेखराम जी के स्वामी दयानन्द जी से प्रश्न

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

(पं० लेखराम जी द्वारा किये हुए प्रश्नों का उत्तर१७ मई, १८८१)

आर्यपथिक पं० लेखराम जी अपने बनाये हुए महर्षि के जीवनचरित्र

में लिखते हैं

११ मई, सन् १८८१ को संवाददाता पेशावर से स्वामी जी के दर्शनों

के निमित्त चलकर १६ की रात को अजमेर पहुंचा । और वहां पहुंचकर स्टेशन

के समीप वाली सराय में डेरा किया । और १७ मई को प्रातःकाल सेठ जी

के बागीचे में जाकर स्वामी जी का दर्शन प्राप्त किया । उन के दर्शन से

मार्ग के समस्त कष्टों को भूल गया और उन के सत्योपदेशों से समस्त समस्याएं

सुलझ गईं । जयपुर के एक बंगाली सज्जन ने मुझ से प्रश्न किया था कि

आकाश भी व्यापक है और ब्रह्म भी, दो व्यापक किस प्रकार इकट्ठे रह

सकते हैं ?

मुझ से इस का कुछ उत्तर न बन पाया । मैंने यही प्रश्न स्वामी जी

से पूछा । उन्होंने एक पत्थर उठाकर कहा कि इसमें अग्नि व्यापक है या

नहीं ?

मैंने कहा किव्यापक है ।

फिर पूछा कि मिट्टी ? मैंने कहा कि व्यापक है ।

फिर पूछा कि जल ? मैंने कहा कि व्यापक है ।

फिर पूछा किआकाश और वायु ? मैंने कहा किव्यापक हैं ।

फिर पूछा कि परमात्मा ? मैंने कहा किवह भी व्यापक है ।

कहा कि देखा कितनी चीजें हैं परन्तु सब इस में व्यापक हैं । वास्तव

में बात यह है कि जो जिस से सूक्ष्म होती है वह उस में व्यापक हो सकती

है । ब्रह्म चूंकि सब से अति सूक्ष्म है इसलिए सर्वव्यापक है, जिस से मेरी

शान्ति हो गई ।

मुझ से उन्होंने कहा कि और जो तुम्हारे मन में सन्देह हों सब निवारण

कर लो मैंने बहुत सोच विचार कर दश प्रश्न लिखे जिन में से आठ मुझे

स्मरण हैं, शेष भूल गये ।

प्रश्नजीव ब्रह्म की भिन्नता में कोई वेद का प्रमाण बतलाइये ?

उत्तरयजुर्वेद का ४०वां अध्याय सारा जीव—ब्रह्म का भेद

बतलाता है।

प्रश्नअन्य मत के मनुष्यों को शुद्ध करना चाहिये या नहीं ?

उत्तरअवश्य करना चाहिये ।

प्रश्नविघुत् क्या वस्तु है और किस प्रकार उत्पन्न होती है ?

उत्तरविघुत् सर्वत्र है और रगड़ से उत्पन्न होती है । बादलों की विघुत्

भी बादलों और वायु की रगड़ से उत्पन्न होती है ।

मुझ से कहा कि २५ वर्ष से पूर्व विवाह न करना। कई ईसाई और

जैनी प्रश्न करने आते परन्तु शीघ्र निरुत्तर हो जाते थे । (लेखराम पृष्ठ ५३२)

(307) शंका :- वैदिकधर्म तथा ईसाई मत: (फादर कानरीड साहब आगरा से धर्मचर्चा१२ दिसम्बर, १८८०)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

वैदिकधर्म तथा ईसाई मत

नोटयह धर्मचर्चा फादर कानरीड साहब ओ०सी०वाई० रेवरेण्ड नायब

विशप सैंट पीटरसन रोमन कैथलिक चर्च आगरा और श्रीमान् स्वामी दयानन्द

वैदिकधर्म तथा ईसाई मत 227

सरस्वती जी महाराज के मध्य १२ दिसम्बर, सन् १८८०, रविवार तदनुसार

मगसिर शुक्ला ११, संवत् १९३७ विक्रमी को हुई ।

स्वामी जी कई वकीलों और सम्मानित व्यक्तियों तथा मार्टिन साहब

म्यूनिसिपल कमिश्नर सहित बिशप साहब से मिलने को गये ।

स्वामी जीनास्तिक लोग उत्पन्न करने वाले को नहीं मानते । यदि

हम और आप और दूसरे मत के बुद्धिमान् लोग मिलकर और सब मतों में

जो सत्य बातें हैं उन का विचार करके जिन पर सब लोग एकमत हो जावें,

और आपस का मतभेद जाता रहे तो विरोध में केवल नास्तिक लोग ही रह

जावेंगे । फिर उन को हम अच्छी प्रकार बौद्धिक युक्तियों के द्वारा परास्त

कर देंगे । गोरक्षा जिस से लाभ ही लाभ है, ऐसी श्रेष्ठ बातों में हम को

और आप को और सब को मिलकर काम करना चाहिये ।

बिशप साहबयह काम अत्यन्त कठिन है इसलिए कि मुसलमान हलाल

करना कभी न छोड़ेंगे । वैसे ही ईसाई लोग मांस खाना कभी न छोड़ेंगे। इस

में सन्देह नहीं कि ईश्वर अवश्य है और चूंकि ईश्वर की सूरत नहीं देखी

और वह बोलता नहीं है, इस कारण से यह अवश्य है कि उस ने अपना

एक स्थानापन्न धर्म का बतलाने वाला संसार में भेजा । जिस प्रकार महारानी

विक्टोरिया विना दूसरे के भारतवर्ष का शासन नहीं कर सकती, उसी प्रकार

खुदा विना खुदावन्द यीशु मसीह की सहायता के संसार के मनुष्यों का तथा

मुक्ति का प्रबन्ध नहीं कर सकता ।

स्वामी जी ने कहा किप्रथम तो जो उदाहरण है वह ठीक नहीं क्योंकि

जीव की परमेश्वर से कोई समानता नहीं । पहले ईश्वर का लक्षण होना चाहिये

कि ईश्वर क्या वस्तु है । स्वामी जी ने उस के विशेषण, सर्वज्ञ, अविनाशी,

सर्वशक्तिमान् आदि बताये और कहा कि ऐसे गुणों वाला ईश्वर किसी के

आधीन नहीं कि स्वयं प्रबन्ध न कर सके और दूसरे से सहायता लेनी पड़े।

तीसरे यदि हम मान भी लें कि ईसा कोई अच्छे पुरुष थे तो भी एक मनुष्य

थे । और ईश्वर न्यायाधीश है वह एक मनुष्य के कहने से अन्याय नहीं कर

सकता । जैसा जिस का कर्म होगा वैसा ही फल देगा । इसलिए यह असम्भव

है कि न्यायविरुद्ध परमेश्वर किसी की सिफारिश मानकर पुण्य—पाप के अनुसार

फल न देवे । अतः ईश्वर को स्थानापन्न भेजने की आवश्यकता नहीं ।

स्थानापन्न देना यह कार्य मनुष्यों का है । वह ऐसा स्वामी है कि समस्त कार्य

और प्रत्येक प्रबन्ध विना स्थानापन्न के कर सकता है ।

बिशप साहबक्योंकर प्रबन्ध कर सकता है ?

स्वामी जीशिक्षा अर्थात् ज्ञान के द्वारा ।

बिशप साहबवह पुस्तक ज्ञान की कौन सी है ?

स्वामी जीचारों वेद ईश्वर की ओर से प्रमाण हैं । (१८ पुराणों का

नाम नहीं लिया ।)

बिशप साहबक्या अठारह पुराण भी धर्मपुस्तक हैं ?

स्वामी जीनहीं ।

बिशप साहबचारों वेद कैसे आये, ईश्वर ने किस को दिये, किस

ने संसार में पहले समझाये ?

स्वामी जीअग्नि, वायु, आदित्य, अग्रिा, चारों ऋषियों के आत्मा

में ईश्वर ने वेदों का ज्ञान दिया, उन्होंने समझाया ।

बिशप साहबवेद ईश्वर की ओर से नहीं प्रत्युत वेद का बनाने वाला

एक ब्राह्मण है, जिस का नाम इस समय स्मरण नहीं रहा ।

स्वामी जीऐसा नहीं, वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा ने प्रकाशित

किये । किसी ब्राह्मण ने इन को नहीं बनाया, प्रत्युत वेद पढ़ने से मनुष्य

ब्राह्मण बन सकता है और जो वेद न पढ़े वह कदापि ब्राह्मण नहीं कहला

सकता।

बिशप साहबवे चारों मर गये या जीवित हैं ?

स्वामी जीमर गये हैं ।

बिशप साहबउनके पश्चात् उन का स्थानापन्न कौन हुआ और एक

के पश्चात् कौन स्थानापन्न होता रहा और अब कौन है ?

स्वामी जीहजारों लाखों ऋषि मुनि उनके स्थानापन्न होते रहे ।

जैसे छः शास्त्रों के कर्ता छः ऋषि, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों के लेखक ऋषि

मुनि लोग । उनके अतिरिक्त प्रत्येक काल में जो ऋषियों के निश्चित नियमों

के अनुसार चले, शुद्धाचारी हो वही स्थानापन्न हो सकता है परन्तु आप

बतलाइये ईसा के पश्चात् आप के यहां अब तक कौन हुआ ?

बिशप साहबहमारे यहां ईसा के पश्चात् रोम का पोप अर्थात् उच्चतम

पादरी ईश्वर का स्थानापन्न समझा जाता है । जो भूल हम लोगों से हो जाये

उस का सुधार उच्चतम पादरी अर्थात् रोम के पोप द्वारा होता है ।

स्वामी जीऔर जो भूल रोम के पोप से हो उस का सुधार किस

प्रकार हो सकता है ? आप को पोप के अत्याचार और धार्मिक झगड़े जो

लूथर के काल से पहले और उस समय होते थे और कुछ अब तक जारी

हैं, भली प्रकार विदित होंगे और इसी प्रकार ईसाइयों की पहली सभाओं का

वृत्तान्त और धार्मिक झगड़े और सार्वजनिक हत्याएं आप से छुपी न होंगी।

उन का सुधार किस प्रकार वह पोप जो स्वयम् उन का आरम्भकर्ता है और

जो स्वयम् उन रोगों में फंसा हुआ है, कर सकता है ? यह बात ठीक वैसी

ही है जिस प्रकार हमारे पोप पौराणिक लोगों की ।

बिशप साहब इस का कोई बुद्धिपूर्वक और युक्तियुक्त उत्तर जिस से

स्वामी जी और श्रोताओं का सन्तोष हो, न दे सके । तत्पश्चात् लगभग १२

बजे के समय स्वामी जी एक बड़ा गिर्जा देखने के लिए चले गये ।

(लेखराम पृष्ठ ६९१—६९३)

(308) शंका :- (आत्माराम जी पूज लुधियाना से पत्र—व्यवहार द्वारा प्रश्नोत्तर नवम्बर, १८८० से जनवरी, १८८१)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- नास्तिक तथा जैन मत

समाधान :-

नास्तिक तथा जैन मत

नोटजैनियों के आचार्य पूज्यवर आत्माराम जी पञ्चायत सराओगियां,

लुधियाना और ठाकुरदास जी रईस गूजरांवाला ने स्वामी जी महाराज से पत्र

द्वारा कुछ प्रश्न पूछे थे । उन के उत्तर स्वामी जी ने अपने पत्र मिति ६ नवम्बर,

सन् १८८० मन्त्री आर्यसमाज देहरादून के द्वारा आर्यसमाज गूजरांवाला में भिजवा

दिये, जिन्हें १३ नवम्बर, सन् १८८० को प्रधान आर्यसमाज गूजरांवाला ने

प्रश्नकर्त्ताओं के पास भेज दिया । उपप्रधान आर्यसमाज ने प्रश्नकर्त्ताओं को

निम्नलिखित पत्र भी अपनी ओर से लिखा

ट्टट्टश्रीयुत पण्डित आत्माराम जी और ला० ठाकुरदास जी को नमस्ते!

देहरादून से यहां एक पत्र उन प्रश्नों के उत्तर का जो आप सज्जनों ने स्वामी

जी से किये थे, इस प्रयोजन से पहुंचा था कि इसकी एक प्रतिलिपि आपके

पास भेजी जावे, सो प्रतिलिपि आपके समीप भेजी जाती है और यह भी प्रकट

किया जाता है कि इस की एक प्रतिलिपि स्वामी जी की आज्ञानुसार

लुधियाना के श्रावक सज्जनों के पास भी भेजी गई है । मुन्शी प्रभुदयाल जी

से आपको विदित हुआ होगा ।’’

मिति १३ नवम्बर, सन् १८८० नारायणकृष्ण उपप्रधान आर्यसमाज

गूजरांवाला ।

प्रश्नोत्तर

(पूज्यवर आत्माराम जी पञ्चायत सराओगियां लुधियाना और ठाकुरदास जी

रईस गूजरांवाला जैन मतानुयायी सज्जनों के प्रश्नों के उत्तर)

प्रश्नसत्यार्थप्रकाश में जो श्लोक लिखे हैं जैनियों के किस शास्त्र

व ग्रन्थों के हैं ?

उत्तरये सब श्लोक बृहस्पति मतानुयायी चार्वाक जिनके मत का दूसरा

नाम लोकायत है और वे जैन मतानुयायी हैं, उन के मतस्थ शास्त्र व ग्रन्थों

के हैं ?

श्लोकों का भाष्य निम्नलिखित है

(१) ·जब तक जिये सुख से जिये, मृत्यु गुप्त नहीं, भस्म हुए पीछे

शरीर में फिर आना कहां ? (इसी प्रकार इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत अभ्याणक

का मत है ।

(२) अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिपुण्ड्र भस्म लगाना, यह निर्बुद्धि और साहस

रहित लोगों की जीविका बृहस्पति ने रची है ।

(३) अग्नि उष्ण तथा जल शीतल और छूने वाली ठण्डी वायु किसी

ने इनके बनाने वाले को देखा ? ये अपने स्वभाव से ऐसे हैं ।

(४) न स्वर्ग, न नरक, न कोई और मोक्ष, वर्ण और न आश्रम के

काम फलदायक हैं ।

(५) अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिपुण्ड्र, भस्म लगाना, यह निर्बुद्धि तथा

साहसरहित लोगों की जीविका ब्रह्मा ने बनाई है ।

(६) यदि पशु ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारे जाने से स्वर्ग को जाता है तो

यजमान अपने बाप को इस में क्यों नहीं मार डालता ?

· ये श्लोक जो सत्यार्थप्रकाश प्रथमावृत्ति पृष्ठ ४०२, ४०३ पर हैं । ये समस्त

श्लोक स्वामी जी से पहले सर्वशास्त्र—संग्रह में सायणाचार्य ने और उन की टीका में

तारानाथ वाचस्पति ने लिखे हैं, जो जीवानन्द प्रेस में प्रकाशित हो चुके हैं । (देखो

उसका प्रारम्भ) ।

(७) मरे हुए जीवों को यदि श्राद्ध तृप्ति का कारण है तो मार्ग में लोगों

को भोजन जलादि ले जाना व्यर्थ है ।

(८) स्वर्ग में बैठा हुआ यदि दान से तृप्त होता तो कोठे पर बैठा हुआ

क्यों न होता ?

(९) जब तक जिये सुख से जिये, ऋण लेकर घृत पीये, भस्म हुए

पीछे शरीर में फिर आना कहां ?

(१०) यदि शरीर से निकल कर जीव परलोक को जाता है तो

बन्धुओं के प्रेम से फिर लौटकर क्यों नहीं आता ?

(११) यह सब जीवन—निर्वाह का साधन ब्राह्मणों ने बना लिया है।

मरे हुए जीवों की क्रियादि और कुछ नहीं है ।

(१२) घोड़े का लिग् स्त्री ग्रहण करे भांडों ने इस प्रकार की बातें

बना रखी हैं ।

(१३) तीन वेद के बनाने वाले भांड, धूर्त निशाचर हैं और जर्पQरी और

तुर्पQरी शब्द पण्डितों के कल्पित हैं ।

(१४) मांस खाना राक्षसों का काम है ।

इसी प्रकार ये सब श्लोक इस बात को प्रकट कर रहे हैं कि जैन मत

के सम्प्रदायों ने कठोर निन्दा वेद मत की की है और जो कुछ मैंने सत्यार्थप्रकाश

में लिखा है, वह सब ठीक—ठीक है ।

पहले पत्र के उत्तर में ला० ठाकुरदास आदि को लिख भेजा गया

था कि जैन मत की कई शाखाएं हैं । यदि आप प्रत्येक शाखा के मन्त्र सिद्धान्त

जानते होते तो आपको सत्यार्थप्रकाश के लेख में सन्देह कभी न होता । आप

लोगों के प्रश्नों के उत्तर में विलम्ब इसलिए हुआ कि यदि कोई सज्जन सभ्य

विद्वान् जैसा कि श्रेष्ठ पुरुषों को लेख करना चाहिये वैसा करता है तो उसी

समय उत्तर भी लिखा दिया जाता है क्योंकि सभ्यतापूर्वक लेख के उत्तर

में स्वामी जी विलम्ब कभी नहीं करते । देखिये ! अब पञ्चायत सराओगियां

लुधियाना ने योग्य लेख किया तो स्वामी जी ने उत्तर भी शीघ्र लिखवा दिया

और अब भी लिख दिया गया है कि जितने सत्यार्थप्रकाश विषयक आप लोगों

के प्रश्न हों, सब लिखकर भेज दीजिये ताकि सब के उत्तर एक संग लिख

दिये जावें । जैसा स्वामी जी ने लिखवाया था कि आत्माराम जी को जैन

मत वाले शिरोमणि पण्डित गिनते हैं । इनका स्वामी जी का पत्र—लेखानुसार

समागम होता तो सब बातें शीघ्र ही पूरी हो जातीं परन्तु ऐसा न हुआ । और

यह भी शोक की बात है कि हम ने इस विषयक रजिस्टरी चिट्ठी पञ्चायत

सराओगियां लुधियाना को भेजी, उस का उत्तर भी अब तक नहीं मिला न

प्रश्न भेजे । किन्तु जो ठाकुरदास ने एक बात लिख भेजी थी कि यह श्लोक

जैनमत के किस शास्त्र और किस ग्रन्थ के अनुसार है और जो बात करने

के योग्य आत्माराम जी हैं उन का शास्त्रार्थ करने में निषेध लिख भेजा और

ठाकुरदास जी की यह दशा है कि प्रथम चिट्ठी में संस्कृत और भाषा के

लिखने में अनेक दोष लिखे हैं । अब आप लोग धर्म न्याय से विचार लीजिये

कि क्या यह बात ऐसी होनी योग्य है कि जब—जब चिट्ठी ठाकुरदास ने लिखी

तब—तब स्वामी जी के पास और उस में जो बात शिष्ट पुरुषों के लिखने

योग्य न थी, सब लिखी और जो योग्य है अर्थात् आत्माराम जी उस को बात

करने और लिखने वा चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने से अलग रखते हैं और एक

यह कि ठाकुरदास जी से स्वामी जी का सामना कराते हैं क्या ऐसी बात

करनी शिष्टों को योग्य है ? अब अधिक बात करते हो तो आप अपने मत

के किसी योग्य विद्वान् को प्रवृत्त कीजिये कि जिस से हम और आप को

सत्य और झूठ का निश्चय होकर बहुत उत्तम ज्ञान हो सके । बुद्धिमानों के

सामने अधिक लिखना आवश्यक नहीं किन्तु अपनी सज्जनता उदारता, अपक्षता

तथा बुद्धिमत्ता और विद्वत्ता में थोड़े लिखने से बहुत जान लेते हैं ।

मिति कार्तिक सुदि ४, शनिवार, संवत् १९३७ तदनुसार ६ नवम्बर सन् १८८०

कृपाराम मन्त्री, आर्यसमाजदेहरादून

अपने हस्ताक्षरों से आत्माराम जी ने जो प्रश्न भेजे थे१४ नवम्बर सन्

१८८० को उन के नाम स्वामी जी ने यह पत्र भेजा

पूज्यवर आत्माराम जी, ट्टट्टमिति १४ नवम्बर सन् १८८०’’

नमस्ते । पत्र आप का मिति नवम्बर सन् १८८० का लिखा हुआ १०

नवम्बर सन् १८८० को सायंकाल को मेरे पास पहुंचा, देखकर आनन्द हुआ।

अब आपके प्रश्नों का उत्तर विस्तारपूर्वक लिखता हूं ।

(समाचार पत्र ट्टट्टआफताबे पंजाब,’’ १३ दिसम्बर, १८८०)

प्रश्न नं० १सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास १२ पृष्ठ ३९६, पंक्ति १६ में

लिखा है कि जब प्रलय होता है तो पुद्गल जुदी—जुदी हो जाते हैं ऐसा नहीं है।

उत्तरमैंने ठाकुरदास जी के उत्तर में एक पत्र आर्यसमाज गूजरांवाला

के द्वारा भेजा था, जो आपके पास भी पहुंचा होगा । उस में यह बतलाया

गया है कि जैन और बौद्ध दोनों एक ही हैं चाहे उन को बौद्ध कहो चाहे

जैन कहो । कुछ स्थानों में महावीरादि तीर्थटरों को बुद्ध और बौद्धादि शब्दों

से पुकारते हैं और कई स्थानों पर जिन, जैन, जिनवर, जिनेन्द्रादि नामों से

बोलते हैं । जिन को चार्वाक बुद्ध की शाखाओं में कहते हैं उन्हें लोग बुद्ध,

स्वयं बुद्ध और चारबोधादि कहते हैं । आप अपने ग्रन्थों में देख लीजिये (ग्रन्थ

विवेकसार, पृष्ठ ६५, पंक्ति १३) बिध, बोधयह एक सिद्ध अनेक सिद्ध

भगवान् हैं । (पृष्ठ ११३, पंक्ति ७)

चारबुद्ध की कथा (पृष्ठ १३७, पंक्ति ८) प्रत्येक बुद्ध की कथा (पृष्ठ

१३८, पंक्ति २१) स्वयं बुद्ध की कथा । (पृष्ठ १५२, पंक्ति १४)

चार बुद्ध समकाल मोक्ष को गये । इसी प्रकार और भी आपके ग्रन्थों

से कथा स्पष्ट विघमान है जिनको आप या और कोई जैन श्रावक विरुद्ध

न कह सकेंगे ।

और ठाकुरदास जी पहली चिट्ठी में (उन श्लोकों के साथ जो मैंने

इस से पहले पत्र में लिखकर आपके पास भिजवाये हैं) आप लोग कई श्लोक

स्वीकार भी कर चुके हैं । उस चिट्ठी की प्रतिलिपि मेरठ में है और आप

के पास भी होगी । कल्पभाष्य भूमिका (जिस में राजा शिवप्रसाद जी ने अपने

जैनमतस्थ पितादि पूर्व पुरुषों की परम्परा का वृत्तान्त लिखा है, उन की साक्षी

भी लिख भेजी और इतिहासमितिर नाशक खण्ड ३, पृष्ठ ८, पंक्ति २१ से

लेकर पृष्ठ ९ की पंक्ति ३२ तक) स्पष्ट लिखा है कि जैन और बौद्ध एक

ही के नाम हैं ।

कई स्थानों पर महावीरादि तीर्थटरों को बौद्ध कहते हैं, उन्हीं को आप

लोग जैन और जिनादि कहते हैं । अब रहे बौद्ध की शाखाओं के भेद जो

चार्वाक अभ्याणकादि हैं । जैसा कि आप के यहां श्वेताम्बर, दिगम्बर, ढूंढिया

आदि शाखाओं के भेद हैं कि उन में कोई शून्यवाद, कोई क्षणिक, कोई जगत्

को नित्य मानने वाला, कोई अनित्य मानने वाला, कोई स्वभाव से जगत् की

उत्पत्ति और प्रलय मानते हैं और कोई आत्मा को पांच तत्त्वों (पृथिवी, जल,

अग्नि, वायु और उनके मेल से) बनी हुई मानते हैं और उस का नाश हो

जाना भी मानते हैं । (देखो रत्नावली ग्रन्थ, पृष्ठ ३२, पंक्ति १३ से लेकर

पृष्ठ ४३, पंक्ति १० तक) कि उस स्थान पर सब जगत् की उत्पत्ति स्थिति

और प्रलय ही लिखा है या नहीं ।

इसी प्रकार चार्वाकादि भी कई शाखावाले जिस को आप पुद्गल कहते

हैं, उस को अलूदादि नाम से लिखते हैं और उन के आपस में मिलने से

जगत् की उत्पत्ति और अलग होने से प्रलय होना ही मानते हैं और वे जैन

और बौद्ध से पृथक  नहीं हैं प्रत्युत जैसे पौराणिक मत में रामानुजादि वैष्णवों

की शाखा और पाशुपतादि श्ौवों की और वाममार्गियों की दस महदायास

शाखाएं, और ईसाइयों में रोमन कैथोलिक आदि और मुसलमानों में शिया

और सुन्नी आदि शाखाओं के कतिपय भेद हैं और इतने पर भी वेद और

बाईबिल और कुरान के सम्प्रदाय में वे एक ही समझे जाते हैं । वैसे ही आप

के अर्थात् जैन और बौद्ध मत की शाखाओं के भेद यघपि अलग—अलग लिखे

जा सकते हैं परन्तु जैन या बौद्ध मत में एक ही हैं ।

आपने बौद्ध अर्थात् जैन मत के प्रत्येक सम्प्रदाय के तन्त्र सिद्धान्त अर्थात्

भेद वर्णन करने वाले ग्रन्थ देखे होते तो सत्यार्थप्रकाश में जो लेख उत्पत्ति

और प्रलय के विषय में है उस पर शटा कभी न करते ।

प्रश्न नं० २सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ३९७, पंक्ति २४

(प्रश्न) ट्टट्टमनुष्यादिकों को ज्ञान है, ज्ञान से वे अपराध करते हैं, इस

से उन को पीड़ा देना कुछ अपराध नहीं’’यह बात जैनमत में नहीं ।

उत्तरग्रन्थ विवेकसार में पृष्ठ २२८, पंक्ति १० से लेकर पंक्ति १५

तक देख लीजिये, क्या लिखा है अर्थात् गणाभ्योग और स्वजनादि समुद्री की

आज्ञा जैसे विष्णुकुमार ने कुछ की आज्ञा से बौद्धरूप रचना करके निमिची

नाम पुरोहित को कि वह जिन का विरोधी था, लात मारकर सातवें नरक

में भेजा और ऐसी ही और बातें ।

प्रश्न नं० ३सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ३९९, पंक्ति ३ । और उस के ऊपर

(अर्थात् पद्मशिला पर) बैठ के चराचर का देखना ।

उत्तरपुस्तक रत्नसार भाग पृष्ठ २३, पंक्ति १३ से लेकर पृष्ठ २४

पंक्ति २४ तक देख लीजिये कि वहां महावीर और गौतम की पारस्परिक चर्चा

में क्या लिखा है ।

प्रश्न नं० ४सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०१, पंक्ति २३ । और उनके मत में

न हुए वे श्रेष्ठ भी हुए तो भी उस की सेवा अर्थात् जल तक भी नहीं देते ।

उत्तरपुस्तक विवेकसार पृष्ठ २२१, पंक्ति ३ से लेकर पंक्ति ८ तक

लिखा है, देख लीजिये कि अन्य मत की प्रशंसा या उन का गुणकीर्तन, नमस्कार

प्रणाम करना या उन से कम बोलना या अधिक बोलना या उन को बैठने

के लिए आसनादि देना या उन को खाने—पीने की वस्तु, सुगन्ध, फूल देना

या अन्य मत की मूर्ति के लिए चन्दन पुष्पादि देना, ये छः बातें नहीं करनी

चाहियें ।

प्रश्न नं० ५सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०१, पंक्ति २७ । किन्तु साधु जब आता

तब जैनी लोग उस की दाढ़ी मूंछ और सिर के बाल सब नोच लेते हैं ।

उत्तरग्रन्थकल्प भाष्य पृष्ठ १०८, पंक्ति ४ से लेकर ९ तक देख लीजिये

और प्रत्येक ग्रन्थ में दीक्षा के समय (अर्थात् चेला बनाने के समय) पांच

मुट्ठी बाल नोचना लिखा है । यह काम अपने हाथ से अर्थात् चेले या गुरु

के हाथ से होता है और अधिकतर ढूंढियों में है ।

प्रश्न नं० ६सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०२, पंक्ति २० से लेकर जो श्लोक

जैनियों के बनाये लिखे हैं वे जैनमत के नहीं ।

उत्तरमैं इस का उत्तर इस से पहले पत्र में लिख चुका हूं (मिति कार्तिक

सुदि ४, शनिवार) । आपके पास पहुंचा होगा, देख लीजिये ।

प्रश्न नं० ७सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०३, पंक्ति ११ । अर्थ और काम

दोनों पदार्थ मानते हैं ।

उत्तरयह मत जैनधर्म से सम्बन्धित सम्प्रदाय चार्वाक का है जिस ने

ऐसे—ऐसे श्लोक कि जब तक जिये, सुख से जिये, मृत्यु गुप्त नहीं, भस्म

होकर शरीर में फिर आना नहीं आदि आदि अपने मत के बना लिये हैं। इसी

प्रकार नीति और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ और काम दो ही पदार्थ पुरुषार्थ

और विधि से माने गये हैं ।

यहां संक्षेप से आपके प्रश्नों का उत्तर दिया गया है क्योंकि पत्रों के

द्वारा पूरी व्याख्या नहीं हो सकती थी । जब कभी मेरा और आपका समागम

होवे तब आप को मैं ग्रन्थों के प्रमाण और युक्तियों के साथ ठीक—ठीक निश्चय

करा सकता हूं । आप को और भी जो कुछ सन्देह सत्यार्थप्रकाश के १२वें

समुल्लास में होवें (मेरठ आर्यसमाज के द्वारा) लिखकर भेज दीजिये । सब

का ठीक उत्तर दे दिया जावेगा । अब मैं यहां थोड़े दिन तक रहूंगा और यदि

आप अम्बाला तक आ सकें तो मिति १७ नवम्बर, सन् १८८० तक प्रातः

आठ बजे से पहले—पहले देहरादून में और उसके पश्चात् आगरे में मुझ को

तार द्वारा सूचना देनी चाहिये कि मैं आप से शास्त्रार्थ अर्थात् पारस्परिक बातचीत

के लिए वहां पहुंच सवूंQ । बुद्धिमान् व्यक्ति के लिए इतना ही पर्याप्त है,

अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं । मिति कार्तिक सुदि १३ रविवार, संवत्

१९३७ । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती (देहरादून)

फिर पं० आत्माराम जी पूज ने ८ माघ, संवत् १९३७ तदनुसार १९

जनवरी, सन् १८८१ को एक पत्र स्वामी जी के पास भेजा । जिस में कुछ

बातों को माना और कई बातों पर फिर आक्षेप किये । स्वामी जी ने उस

का उत्तर भेजा ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का दूसरा पत्र

मिति २१ जनवरी, सन् १८८१

आनन्द विजय आत्माराम जी !

नमस्ते । आपका पत्र ८ माघ का लिखा हुआ मेरे पास पहुंचा । लिखित

वृत्तान्त विदित हुआ । मेरे प्रश्नों के उत्तर में जो आपने लिखा है कि बौद्ध

और जैन एक मत के नाम मानने से हमारी कुछ मानहानि नहीं, इस

को पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । यही सज्जनों का काम है कि सत्य को

मानें और असत्य को न मानें परन्तु यह बात जो आपने लिखी है कि

ट्टट्टयोगाचारादि चार सम्प्रदाय जैन बौद्ध मत के हैं सो वह बौद्धमत जैनमत से

एक पृथक  शास्त्र का है।’’ इस का उत्तर मैं आपके पास भेज चुका हूं कि

मत में शाखाओं का भेद थोड़ी बातें पृथक  होने से होता है परन्तु मत की

दृष्टि से शाखाएं एक ही मत की होती हैं । देखिये कि उन ही नास्तिकों

में चार्वाकादि नास्तिक हैं। और जो आप उन का इतिहास और जीवनचरित्र

पूछते हैं, सो उस का उत्तर भी मैं दे चुका हूं अर्थात् इतिहास—तिमिरनाशक

के तीसरे अध्याय में देख लीजिये ।

और आप जिन बौद्धों को अपने मत से पृथक  कहते हैं, वे आप के

सम्पद्राय से चाहे पृथक  हों परन्तु मत की दृष्टि से कदापि पृथक  नहीं

हो सकते । जैसे कई जैनी उदाहरणार्थ श्वेताम्बर दूसरे जैनियों जैसे समवेगी

साधुओं पर आक्षेप करके उन्हें पृथक  और नया मानते हैं । यह प्रकटरूप

से ट्टट्टहोवेक’’ नामक पुस्तक में लिखा है । इसी प्रकार से आप लोगों ने उन

पर बहुत से आक्षेप करके उनके मत में संयुक्त निर्णय पुस्तक लिखी है फिर

भी इस से वह और आप बौद्ध या जैनमत से अलग नहीं हो सकते ।

और न कोई विद्वान् उनके धार्मिक सिद्धान्तों की दृष्टि से उन्हें अलग मान

सकता है । उनकी समस्याओं में भेद तो अवश्य होगा ।

आपके इस वचन से कि ट्टइस में क्या आश्चर्य है कि महावीर तीर्थटर

के समय में चार्वाक मत था, उन से पीछे नहीं हुआ ।’’ इस से मुझ को

आश्चर्य हुआ । क्या जो महावीर तीर्थटर के पहले २३ तीर्थटर हुए उन सब

के पहले चार्वाक—मत को आप सिद्ध नहीं कर सकते । यदि किसी प्रकार

का सन्देह आपके लिए हो तो प्रश्नकर्त्ता पूछ सकता है कि ऋषभदेव भी

चार्वाक—मत से चले हैं ? फिर आप उस के उत्तर में क्या कह सकते हैं।

क्या चार्वाक १५ जातियों में से एक जाति का भी नहीं है ? और उस में

एक सिद्ध और मुक्त नहीं हुआ ? क्या वे आपके सिद्धान्तों और पुस्तकों

से अलग हो सकते हैं ?

इसके अतिरिक्त आपने भी अपने लेख में बौद्धमत को अपने मत में

स्वीकार कर लिया है क्योंकि करकण्डा आदि को आपने बौद्ध माना है और

मैंने भी अपने पहले पत्र में जैन और बौद्ध के एकमत होने का लिखित

प्रमाण दे दिया है फिर आप का पुनः पूछना निरर्थक और निष्प्रयोजन है ।

जिस अवस्था में स्वयं वादी की साक्षी से मुकदमा ठीक सिद्ध हो जाता है

तो फिर न्यायाधीश को अन्य पुरुषों की साक्षी लेनी आवश्यक नहीं होती ।

भला जिस की कई पीढि़यां जैनमत में चली आई हों अर्थात् राजा शिवप्रसाद

की साक्षी को और वर्तमान काल में जो यूरोपियन लोग बड़े परिश्रम से इतिहास

बनाते हैं उन की साक्षी को आप गलत कह सकते हैं कि जिन्होंने अपने

इतिहासों में बौद्ध और जैन को एक ही लिखा है और साथ ही यह भी लिखा

है कि कुछ बातें आर्यों की और कुछ बौद्धों की लेकर जैनमत बना है ।

दूसरे प्रश्न के बारे में जो आपने लिखा है, वह नमूची नास्तिक जैनमत

का अहितचिन्तक साधुओं को निकालने और कष्ट देने वाला था, उस को

मार कर सातवें नरक में भेजा गया । यह लेख आपने सत्यार्थप्रकाश के लेख

के उत्तर में नहीं समझा । विचार कीजिये कि वह नमूची जैनमत का शत्रु

था, इसलिए मारा गया तो क्या उस ने जानबूझ कर पाप नहीं किया था ।

कितने खेद की बात है कि आप सीधी बात को भी उलटा समझ गये ।

तीसरे प्रश्न के उत्तर में जो आपने प्राकृत भाषा का एक श्लोक लिखा

है परन्तु उसके अर्थ स्वयं नहीं लिखे, केवल मेरे पर उस का समझना छोड़

दिया । उस का यह अभिप्राय होगा कि मैं उसके अर्थ तक नहीं पहुंच सवूंQगा।

हां मैं कुछ सब देशों की भाषा नहीं जानता हूं, केवल कुछ देशों की भाषा

और संस्कृत जानता हूं परन्तु मतों और उनकी शाखाओं तथा सम्प्रदायों के

सिद्धान्त अपनी विघा और बुद्धि और विद्वानों की सग्ति के प्रभाव से जानता

हूं । आप और आप लोगों के पथप्रदर्शकों ने ऐसी भाषा बिगाड़ कर

अपनी भाषा बना ली है जैसे धर्म का धम्म आदि । जिनका मत बौद्धिक

तथा लिखित युक्तियों से सिद्ध नहीं हो सकता, वे ऐसे—ऐसे अप्रसिद्ध शब्द

बना लेते हैं ताकि कोई दूसरा उस को समझ न सके । जैसे मघ का नाम

तीर्थ, मांस का नाम पुष्पादि बना लिया है ताकि उन के अतिरिक्त कोई दूसरा

न जान ले । जो राजा लोग न्यायकारी होते हैं वे तो मार्ग ऐसे सीधे बनाते

हैं कि अन्धा भी निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच जाये परन्तु उन के विरोधी मार्गों

को इस प्रकार बिगाड़ते हैं कि कोई परिश्रम से भी चल न सके । आप पुस्तक

रत्नसार भाग’’ को विश्वसनीय नहीं समझते तो क्या हुआ, बहुत से श्रावक

और जैन लोग उसको सच्चा मानते हैं ।

देखिये आप ऐसे विद्वान् होकर ट्टमूर्ख’ को ट्टमूर्रा’ लिखते हैं, और पत्र

में लिखित शब्दों के ठीक करने में बहुत सी हड़ताल भी लपेटते हैं । कैसे

शोक की बात है कि संस्कृत तो दूर रही, देशी भाषा भी आप लोग नहीं

जानते परन्तु इस लेख के स्थान पर यह लिखना उचित था कि आपकी भूल

का कुछ नहीं क्योंकि मनुष्य प्रायः भूल किया ही करता है ।

चौथे प्रश्न के उत्तर में जो कुछ आपने लिखा है, वह बहुत चकित

करने वाला है । विघा प्राप्ति की इच्छा मनुष्य वहां प्रकट कर सकता है जहां

अपने से अधिक किसी विद्वान् को देखता है । मैंने भी उन्हीं विद्वानों से शिक्षा

पाई है जो मुझ से अधिक बुद्धिमान् तथा विद्वान् थे । आप भी कदाचित् इस

को स्वीकार करते होंगे । क्या आप लोग अन्य मत के विद्वानों को विद्वान्

न समझकर शिष्य के विचार से और मोक्ष के परिणाम का ध्यान रखकर

किसी विपरीत प्रयोजन की प्राप्ति की इच्छा से दान करते हो । क्या ये बातें

अविद्वानों की नहीं हैं कि अपने मत और उस के साधुओं के बड़प्पन का

ध्यान रखना और अन्य मत के विद्वानों के विषय में उस के विपरीत चलना।

ये अच्छे लोगों की बातें नहीं हैं । निश्चयपूर्वक समस्त सृष्टि में से अच्छे

को अच्छा और बुरे को बुरा मानना अन्वेषकों, धर्मात्माओं का काम है और

उस को ही हम मानते हैं और उचित है कि आप भी इस को स्वीकार करें।

मेरे लेख का अभिप्राय ठीक—ठीक आप उस समय समझेंगे जब कि मेरी और

आपकी भेंट होगी । मेरी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश के लेख से कोई मनुष्य यह

परिणाम नहीं निकाल सकता कि जैनमत के लोगों को चिरकाल तक कष्ट

देना और दान न देना और जैनमत बेईमानी की जड़ है । प्रत्युत यह सिद्ध

है कि ट्टअच्छे और ईमानदार लोगों और अनाथों की सहायता करना और बुरे

लोगों को समझाना ।’

परन्तु इन छः निषेधों का कलट आपको ऐसा लिपट गया है कि जब

ईश्वर की दया हो और आप लोग पक्षपात को छोड़कर यत्न करें तब धोया

जा सकता है अन्यथा कदापि नहीं ।

भला यह जब प्रकट रूप में लिखा है कि अन्य मत की प्रशंसा न

करना और दूसरों को रोटी और पानी न देना तो फिर आप उस को अशुद्ध

क्योंकर कर सकते हैं । ये बातें आपके हजारों ग्रन्थों में लिखी हुई हैं और

आप लोग इस को समझ लें कि मुझे ऐसा स्वप्न में विचार नहीं आया है।

हां जो आप लोग कुछ भी विचार कर देखें तो उन का छोड़ देना ही धर्म

है, आगे आपकी इच्छा ।

पांचवें प्रश्न का उत्तरउसके विषय में जो आपने लिखा है उससे मेरे

उत्तर का खण्डन नहीं हो सकता क्योंकि जब बालों के नोचने का प्रमाण

आपकी पुस्तकों में लिखा है, और मैंने उसके उद्धरण से सिद्ध कर दिया।

फिर भला कहीं दार्शनिक युक्तियों का आश्रय लेने से उस बात का अस्वीकार

हो सकता है, कदापि नहीं ।

छठे प्रश्न के उत्तर मेंजब मैं यह सिद्ध कर चुका हूं कि जैन और

बौद्ध जिस मत का नाम है, उसी की शाखा चार्वाकादि हैं फिर यह कैसे

अशुद्ध हो सकता है ।

जो आप जैन लोगों के ग्रन्थों में हमारे धर्म के विषय में लिखा है,

और जिस का हमारी धार्मिक पुस्तकों में कहीं वर्णन नहीं पाया जाता और

इस से हमारे धर्म का अपमान टपकता है । इसलिए आप जैन लोगों से पूछा

जाता है कि लौटती डाक से शीघ्र उत्तर दें कि वे बातें हमारी किन धार्मिक

पुस्तकों में लिखी हुई हैं । ज्ञात रहे कि जिस व्याख्या और ठीक—ठीक पता

दिन मान के साथ पृष्ठ व पंक्त्यादि के उद्धरण सहित मैंने आपके प्रश्नों का

उत्तर दिया है । इसी प्रकार आप भी उत्तर दें अन्यथा आप सज्जनों की बड़ी

हानि होगी। इस बात को आप केवल विहग्म दृष्टि से न देखें, प्रत्युत एक

प्रकार की सावधानता दृष्टिगत रखें ताकि यह लम्बी न हो जावे । उत्तर भेजने

में शीघ्रता करने से कल्याण है ।

ट्टजैनियों के विवेकसार ग्रन्थ के लेख पर कुछ शटाएं’

पहली शटाविवेकसार, पृष्ठ १०, पंक्ति १ में लिखा है कि श्री कृष्ण

तीसरे नरक को गया ।

दूसरी शटाविवेकसार, पृष्ठ ४०, पंक्ति ८ से १० तक लिखा है कि

हरिहर, ब्रह्मा, महादेव, राम, कृष्णादि कामी, क्रोधी, अज्ञानी, स्त्रियों के दूषी,

पाषाण की नौका के समान आप डूबते और सब को डुबाने वाले हैं ।

तीसरी शटाविवेकसार, पृष्ठ २२४, पंक्ति ९ से पृष्ठ २२५ की पंक्ति

१५ तक लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादि सब अदेवता और अपूज्य हैं।

चौथी शटाविवेकसार, पृष्ठ ५५, पंक्ति १२ में लिखा है कि गगादि

तीर्थों और काशी आदि क्षेत्रों से कुछ परमार्थ सिद्ध नहीं होता ।

पांचवीं शटाविवेकसार, पृष्ठ १३८, पंक्ति ३० में लिखा है कि जैन

का साधु भ्रष्ट भी हो तो भी अन्य मत के साधुओं से उत्तम है ।

छठी शटाविवेकसार, पृष्ठ १, पंक्ति १ से लेकर कहा है कि जैनों

में बौद्धादि शाखाएं हैं । इस से सिद्ध हुआ कि जैनमत के अन्तर्गत बौद्धादि

सब शाखाएं हैं । हस्ताक्षर स्वामी दयानन्द सरस्वती, आगरा

मिति माघ बदि ६, शुक्रवार, संवत् १९३७ तदनुसार २१ जनवरी, सन् १८८१

उधर स्वामी जी तो अपने योग्य पण्डित आत्माराम जी के प्रश्नों का

खण्डन लिख रहे थे और आत्माराम जी भी अपने प्रश्न लिखकर जो स्वामी

जी ने उन का उत्तर लिखा था, उस का उत्तर तैयार कर रहे थे कि ठाकुरदास

ने बीच में अपनी हानि समझ और अपनी प्रसिद्धि कम होती जानकर स्वामी

जी के नाम २२ नवम्बर, सन् १८८० को एक नोटिस जारी कर दिया।

जिस में प्रथम तो समस्त पिछले पत्रव्यवहार का अपने विचार के अनुसार

सार था और अन्त में ये असभ्यतापूर्ण शब्द लिखे थे

ट्टट्टयदि आप की अब भी क्षमा मांगने की इच्छा हो तो शीघ्र मांग लो

परन्तु पीछे से यह न कहना कि जैनियों में दया और क्षमा नहीं । अब भी

यदि आप अपना क्षमा—पत्र भेज दें तो आप पीछे से निर्लज्जता उठाने की

आपत्ति से बच सकते हैं, नहीं तो आप को अधिकार है । आप की आज्ञानुसार

हम ने अम्बाला, लुधियाना इत्यादिक स्थानों के बहुत से जैनों को इस काम

में अपने साथ मिला लिया है जो अपना—अपना नोटिस भी आप को देंगे और

आप ने चिट्ठी—पत्री भेजने में ही इतने छल किये हैं कि इस में भी आप

पकड़े जायेंगे क्या आप झूठ लिख—लिखकर औरों को धोखे में फंसाते और

मेरा नाम बदनाम करते हैं । आप स्मरण रखिये कि आप के ये सब कपट

न्यायालय में प्रकट किये जावेंगे और उस का यथायोग्य दण्ड भी आप को

दिलाया जावेगा । इस पत्र का उत्तर चाहे आप भेजें या न भेजें, यह आप

की इच्छा है ।’’

परन्तु यह नोटिस वापस आ गया । स्वामी जी को न पहुंचा क्योंकि

हमारे चालाक ला० ठाकुरदास ने उसे न तो देहरादून भेजा और न आगरा

प्रत्युत अम्बाले भेजा । इसलिए अवश्य वापस आना ही था क्योंकि पता अशुद्ध

था । यघपि आर्यसमाज गूजरांवाला ने भी उन को ठीक—ठीक पता बतला

दिया था । (देखो ट्टआर्य—समाचार’ पृष्ठ ३७३, खण्ड २, संख्या २३) और

यदि न भी बतलाते तो स्वामी जी के पत्र से भी आत्माराम जी और उन को

विदित था कि वे १७ नवम्बर के पश्चात् आगरा जायेंगे और उन का वहां

जाना और उपदेश करना प्रत्युत शास्त्रार्थ करना नसीम’ आगरा और भारती

विलास’ में प्रकाशित हो चुका था । इसलिए यह जान बूझ कर चालाकी

थी या अनपढ़ होने के कारण आगरा का अम्बाला स्मरण रखा । धन्य है।

फिर ला० ठाकुरदास ने २१ दिसम्बर, सन् १८८१ को फारसी अक्षरों

में एक नोटिस लिखा और समाजों के नाम भेजा जिस का विषय यह था

कि ट्टहमारे प्रश्न का उत्तर स्वामी जी के पास नहीं है इस से स्वामी जी छुपकर

बैठे हैं तो आप उन का ठांव ठिकाना बता दो । इसके उत्तर में आर्यसमाज

की ओर से एक नोटिस जारी हुआ जिस के शीर्षक में यह शेर लिखा

गया था

ट्टगर न वीनद बरोज शपर्रा चश्म ।

चश्मये आफताब रा च गुनाह ।।’

अर्थात् यदि दिन के समय में अन्धे को न दिखाई दे तो इस में सूर्य

का क्या दोष है ।

इस में उस की समस्त बातों का उत्तर और स्वामी जी का पता भी

लिखा हुआ था । (देखो समाचार, पृष्ठ ३३७, बुधवार) परन्तु ठाकुरदास चूंकि

स्वयं पढ़ा हुआ नहीं है और कुछ ख्याति का भी इच्छुक है उस को विज्ञापन

में भी पता न मिला अर्थात् न पढ़ सका ।

ट्टउन्मत्त अपने काम में चतुर होता है इस कहावत के अनुसार उसने

१२ जनवरी को एक पत्र आर्यसमाज गूजरांवाला के नाम भेजा जिसमें लिखा

था किट्टस्वामी जी के साथ सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए हम २०—२३

जनवरी तक अम्बाला में इकट्ठे होंगे । तुम स्वामी दयानन्द जी को अम्बाला

भेजो ।

परन्तु स्वामी जी के लेखानुसार न तो आत्माराम जी ने उन को लिखा

और न तार दिया और न आत्माराम जी शास्त्रार्थ के लिए उघत हुए और

न ठाकुरदास के अतिरिक्त किसी और विघाप्रेमी जैन ने स्वामी जी को लिखा।

इसलिए वहां कोई शास्त्रार्थ न हुआ क्योंकि आत्माराम जी शास्त्रार्थ से और

फिर स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करने से अत्यन्त जी चुराते और घबराते

थे । (दिग्विजयार्वQ पृ० २६—३१, लेखराम पृष्ठ ६५०—६८०)

(309) शंका :- (राधास्वामी मत के साधुओं से आगरा में प्रश्नोत्तरनवम्बर, १८८०)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- राधा स्वामी मत

समाधान :-

स्वामी जी के आगरा निवास के समय एक दिन राधास्वामी मत के

५—७ पंजाबी साधु आये, जिनमें स्त्रियां और पुरुष दोनाें सम्मिलित थे । और

प्रश्न किया कि कोई गुरु के उपदेश और सहायता के विना संसार—सागर

से पार नहीं हो सकता ।

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि गुरु की शिक्षा तो आवश्यक है परन्तु

जब तक कोई चेला अपना आचार ठीक न करे कुछ नहीं हो सकता ।

उन्होंने प्रश्न किया किईश्वर के दर्शन कैसे हो सकते हैं ?

स्वामी जी ने कहा कि जैसे तुम मूर्खता से ईश्वर के दर्शन करना चाहते

हो उस प्रकार नहीं हो सकते । एक प्रश्न उन का यह था कि ईश्वर तो भक्त

के वश में है ।

स्वामी जी ने कहा किभक्ति तो ईश्वर की आवश्यक है परन्तु पहले

यह समझ लो कि भक्ति चीज क्या है । विना किसी पुरुषार्थ के किये कोई

वस्तु स्वयमेव प्राप्त नहीं हो सकती और जिस प्रकार से तुम भक्ति करना

चाहते हो ऐसे बहुत से पथ लोगों के बिगाड़ने के लिए हुए । इन से इस

लोक या परलोक को कोई लाभ नहीं हो सकता ।

मूर्तिपूजा पर भी बात चली । उन्होंने कहा कि हम और हिन्दुओं से

अच्छे हैं ।

स्वामी जी ने कहानहीं, वे रामचन्द्र और कृष्णादि उत्तम पुरुषों को

देवता और अवतार मानते हैं, तुम गुरु को परमेश्वर से बढ़कर मानते हो ।

इसलिये तुम उन से किसी प्रकार अच्छे नहीं, प्रत्युत बुरे हो ।

उन्होंने कहा किवेद के पढ़ने में बहुत समय नष्ट होता है परन्तु उस

से कुछ भक्ति प्राप्त नहीं होती ।

स्वामी जी ने कहा किजो पुरुषार्थ कुछ नहीं करता और भिक्षा

मांगकर पेट पालना चाहता है उसे वेद का पढ़ना बहुत कठिन है ।

ये लोग कुछ भी विद्वान् नहीं थे । (लेखराम पृष्ठ ५२५—५२६)

(310) शंका :- शास्त्रार्थ का बहाना

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

(पादरी गुल्बर्ट साहब से देहरादून में शास्त्रार्थअक्टूबर—नवम्बर, १८८०)

स्वामी जी ७ अक्टूबर, सन् १८८० से २० नवम्बर, १८८० तक देहरादून

ठहरे । इसी बीच में एक दिन एक पादरी साहब जिन का नाम गुल्बर्ट और

उपाधि मैक्मासर है, कुछ ईसाइयों के साथ शास्त्रार्थ के लिए आये । और

आते ही स्वामी जी से यह बातचीत आरम्भ की कि वेद के ईश्वरीय वचन

होने में तुम्हारे पास क्या युक्ति है ? चूंकि स्वामी जी उन के ढंग से समझ

गये थे कि यह सब छेड़छाड़ है, कुछ सत्य के निर्णय पर इस बातचीत का

आधार नहीं । इसलिए उनके प्रश्न के उत्तर में इस प्रकार कहाट्टट्टकि इञ्जील

के ईश्वरीय वचन होने का आप के पास क्या प्रमाण है ?’’

यह सुनकर पादरी साहब कहने लगे कि वाह ! पहले तो हमारा

प्रश्न है ।

उधर स्वामी जी ने कहा कि वाह ! मुझ को भी तो पहले उत्तर लेने

का ध्यान है । इस पर पादरी साहब उठकर चलने लगे । तब स्वामी जी ने

कहा कि पादरी साहब ! आप तो शास्त्रार्थ करने को आये थे, इतना शीघ्र

क्यों भागते हैं ?

पादरी साहब ने इस पर यह कहा कि जब आप उत्तर ही नहीं देते

तो फिर हम बैठकर क्या करें ? इस पर स्वामी जी ने कहा कि बहुत अच्छा

पहले मैं ही उत्तर दूंगा, परन्तु उसके पश्चात् इञ्जील के विषय में प्रश्न करूँगा

और आप से उत्तर लूंगा । इस पर भी पादरी साहब न जमे और उठकर भागने

को हुए । तब स्वामी जी ने कहा कि पादरी साहब ! आप पहले केवल एक

नहीं प्रत्युत दो—तीन प्रश्न कर लीजिये परन्तु उत्तर देने के पश्चात् मेरे आक्षेपों

को सुनिये परन्तु यह बात भी पादरी साहब को बुरी लगी और उठकर चलने

को उघत हुए । तब स्वामी जी ने यह कहा कि अच्छा पहले आप पांच प्रश्न

तक वेद पर कर लीजिये और जब उन के उत्तर मैं दे चुवूंQ फिर मुझ को

अपनी इञ्जील पर आक्षेप करने दीजिये परन्तु यह भी पादरी साहब को स्वीकार

न हुआ और पूर्ववत् डरते रहे । तब स्वामी जी ने कहा कि आप इञ्जील

पर आक्षेपों के होने से क्यों इतना घबराते हैं ? लीजिये पहले आप वेद पर

दस प्रश्न तक कर लीजिये और उत्तर सुनने के पश्चात् मुझ को इञ्जील पर

आक्षेप करने की आज्ञा दीजिये ताकि सुनने वालों को आनन्द आवे और सत्य

और झूठ की वास्तविकता प्रकट हो जावे । भला यह कहां की रीति है कि

आप अपनी कहे जावें और दूसरे की न सुनें । इस पर पादरी साहब को भीड़

की लज्जा ने रोका और तब उन्होंने विवश होकर कहा कि बहुत अच्छा परन्तु

जिस समय इञ्जील पर आक्षेप किये जाने की घड़ी आई और लिखने की

अवस्था उत्पन्न हुई तब तो पादरी साहब की विचित्र दशा हुई अर्थात् वही

मुसलमान लोगों की सी रट लगाये जाते थे कि जब तक हम अपने प्रश्न

के उत्तर से सन्तोष प्राप्त न कर लेंगे और उस की स्वीकृति न दे देंगे तब

तक हम तुम को न बोलने देंगे और न तुम्हारी सुनेंगे ।

यह देखकर स्वामी जी ने कहा कि आप अपने प्रश्नों के विषय में

तो कहते हैं परन्तु मेरे प्रश्नों के विषय में भी इस बात को स्वीकार करते

हैं ? तो बस नहीं’’ के अतिरिक्त और क्या उत्तर था क्योंकि यह सारा बखेड़ा

तो अपना बड़प्पन छौंकने और झूठी कीर्ति प्राप्त करने के अभिप्राय से था।

शास्त्रार्थ से तो पूर्णतया इन्कार ही था । जब स्वामी जी ने पादरी साहब का

अन्तिम ट्टट्टनहीं’’ का उत्तर सुना तो यह कहा कि पादरी साहब ! आप बिल्कुल

न्याय से काम नहीं लेते, केवल शास्त्रार्थ का नाम करते हैं परन्तु आप की

यह चतुराई कि कहीं पोल न खुल जाये, व्यर्थ गई और आप की सारी

वास्तविकता प्रकट हो गई क्योंकि आप उन नियमों को जो शास्त्रार्थ में

आवश्यक होते हैं, स्वीकार नहीं करते और न और की सुनना चाहते हैं ।

देखो मैं पहले भी कह चुका हूं और फिर भी कहता हूं कि प्रथम आप वेद

पर एक से लेकर दश तक आक्षेप कीजिये और मुझ से उत्तर लीजिये और

तत्पश्चात् मुझ को अपनी इञ्जील पर आक्षेप करने दीजिये और उत्तर प्रदान

कीजिये । और जब आप मेरे आक्षेपों का उत्तर दे चुकें तो फिर आप चाहें

और नये दश प्रश्न मुझ पर कीजिये, चाहें अपने पहले दश प्रश्नों में से यदि

किसी में कोई सन्देह शेष रहे और मेरे उत्तर से इच्छानुसार सन्तोष न हो तो

वह पूछिये और फिर उत्तर सुनिये ताकि सभा में उपस्थित लोग भी जान लें

कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ?

सारांश यह कि जब पादरी साहब के पास कोई और बहाना अवशिष्ट

न रहा तो यह कहा कि या तो आप केवल मेरा ही सन्तोष कीजिये और

अपने आक्षेपों को रहने दीजिये अन्यथा मैं जाता हूं, आप बैठे रहिये ।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि पादरी साहब ! इस सभा में उपस्थित

लोग तो आपके बार—बार भागने और किसी शर्त पर न जमने से भली—भांति

जान ही गये हैं कि आप इञ्जील पर आक्षेप होने से थर—थर कांपते हैं और

पीछा छुड़ाने के लिये बार—बार कूदते फांदते फिरते हैं । अब आप जानें और

आपका काम । अच्छा तो यही था कि आप शास्त्रार्थ करते और अपने जी

की भड़ास निकाल लेते । यह सुनकर पादरी साहब ने कठोर शब्दों में कहा

कि बस आप उत्तर देते ही नहीं, मैं जाता हूं । इस पर स्वामी जी ने भी कहा

किआप प्रश्न का उत्तर लेते ही नहीं क्योंकि आप का तो प्रयोजन कुछ

और ही है, शास्त्रार्थ का तो केवल नाम है । अच्छा जाइये, मुझ को इस

समय काम है । (लेखराम पृष्ठ ५१८—५१९)

(311) शंका :- पैगम्बर को पृथ्वी पर भेजना

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- अवतारवाद

समाधान :-

काशी में विज्ञापन—पत्र

सितम्बर, १८७९

सब सज्जन लोगों को विदित किया जाता है कि इस समय पण्डित

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज काशी में आकर श्रीयुत महाराज

विजयनगर के अधिपति के आनन्द बाग में जो महमूदरंग के समीप है, निवास

करते हैं । वे वेदमत का ग्रहण करके उस के विरुद्ध कुछ भी नहीं मानते।

किन्तु जो—जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदोक्त१सृष्टिक्रम,

२प्रत्यक्षादि प्रमाण, ३आप्तों का आचार और सिद्धान्त तथा ४आत्मा की

पवित्रता और विज्ञान के विरुद्ध होने के कारण पाषाणादि मूर्तिपूजा, जल और

स्थलविशेष पाप निवारण करने की शक्ति, व्यास मुनि आदि के नाम से छल

से प्रसिद्ध किये नवीन व्यर्थ पुराण नामक आदि, ब्रह्मवैवर्त्तादि ग्रन्थ, परमेश्वर

के अवतार व पुत्र होके अपने विश्वासियों के पाप क्षमा कर मुक्ति देने हारे

का मानना, उपदेश के लिए अपने मित्र पैगम्बर को पृथ्वी पर भेजना, पर्वतों

का उठाना, मुर्दों का जिलाना, चन्द्रमा का खण्डन करना, कारण के विना

कार्य की उत्पत्ति मानना, ईश्वर को नहीं मानना, स्वयं ब्रह्म बनना अर्थात् ब्रह्म

से अतिरिक्त वस्तु कुछ भी न मानना, जीव ब्रह्म को एक ही समझना, कण्ठी,

तिलक और रुद्राक्षादि धारण करना और श्ौव, शाक्त, वैष्णव गाणपत्यादि

सम्प्रदाय आदि हैं, इन सब का खण्डन करते हैं । इस से इस विषय में जिस

किसी वेदादि शास्त्रों के अर्थ जानने में कुशल, सभ्य, शिष्ट, आप्त विद्वान्

को विरुद्ध जान पड़े, अपने मत का स्थापन और दूसरे के मत का खण्डन

करने में सामर्थ्य हो वह स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करके पूर्वोक्त व्यवहारों

को स्थापित करे । इस से विरुद्ध मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता । इस

शास्त्रार्थ में मध्यस्थ रहेंगे । वेदार्थ निश्चय के लिए जो ब्रह्मा से लेके जैमिनि

मुनि पर्यन्त के बनाये ऐतरेय ब्राह्मण से लेके पूर्वमीमांसा पर्यन्त वेदानुकूल

आर्ष ग्रन्थ हैं वे वादी और प्रतिवादी उभय पक्षवालों को माननीय होने के

कारण माने जावेंगे । और जो इस सभा में सभासद् हों वे भी पक्षपात रहित

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्वरूप तथा साधनों को ठीक—ठीक जानने,

सत्य के साथ प्रीति और असत्य के साथ द्वेष रखने वाले हों, इनके विपरीत

नहीं । दोनों पक्ष वाले जो कुछ कहें उस का शीघ्र लिखने वाले तीन लेखक

लिखते जावें । वादी और प्रतिवादी अपने—अपने लेख के अन्त में अपने—अपने

लेख पर हस्ताक्षर से अपना—अपना नाम लिखें । तब जो मुख्य सभासद् हों

वे भी दोनों के लेख पर हस्ताक्षर करें । उन तीन पुस्तकों में से एक वादी,

दूसरा प्रतिवादी को दिया जाय और तीसरा सब सभा सम्मति से किसी प्रतिष्ठित

राजपुरुष की सभा में रक्खा जावे कि जिस से कोई अन्यथा न कर सके।

जो इस प्रकार होने पर भी काशी के विद्वान् लोग सत्य और असत्य का निर्णय

करके औरों को न करावेंगे तो उन के लिए अत्यन्त लज्जा की बात है, क्योंकि

विद्वानों का यही स्वभाव होता है जो सत्य और असत्य को ठीक—ठीक जान

के सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग कर दूसरों को कराके आप आनन्द

में रहना औरों को आनन्द में रखना ।

पण्डित भीमसेन शर्मा (देवेन्द्रनाथ २।२२१)

(312) शंका :- विषयपुनर्जन्म

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

जीव और जीव के स्वाभाविक गुण, कर्म और स्वभाव अनादि हैं ।

और परमेश्वर के न्याय करना आदि गुण भी अनादि हैं । जो कोई मानता

है कि जीव की और उसके गुण आदि की उत्पत्ति होती है उस को उस

का नाश मानना भी अवश्य होगा । और तिस के कारण आदि का भी निश्चय

करना और कराना होगा क्योंकि कारण के विना कार्य की उत्पत्ति सर्वथा

असम्भव है । जो—जो जीव के पाप और पुण्य आदि कर्म प्रवाह से अनादि

चले आते हैं, उनका ठीक—ठीक फल पहुंचाना ईश्वर का काम है । और

जीवों का विना स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के सुख—दुःख का भोग करना

असम्भव है । जब यह बात हुई, तब बारम्बार शरीर का धारण करना भी

जीव को अवश्य है । क्योंकि क्रियमाण कर्म नये—नये करता जाता है उनका

सञ्चित और प्रारब्ध भी नया नया होता चला जाता है। जब इस सृष्टि में विघा

की आंख से मनुष्य देखे तो सृष्टिक्रम और प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से ठीक—ठीक

सिद्ध होता है कि देखो जो आज सोमवार है, वही फिर भी आता है । महीना,

रात दिन आदि भी पुनः पुनः आते हैं । और गेहूं का बीज बोने से फिर वही

गेहूं आता है । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

इस आवागमन के विषय में केवल सत्य के लिए ही प्रयत्न करना

चाहिये । हार—जीत की इस में कोई बात नहीं है । यह सिद्धान्त पुराना तो

है, परन्तु संसार में से मिटा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि जितने

जीवात्मा हैं, वे सदैव जन्म लेते रहते हैं । कभी मनुष्य की योनि में, कभी

बैल की योनि में, कभी बन्दर की और कभी कीड़े मकोड़े की योनि में उत्पन्न

होते हैं । परन्तु यह ऐसा सिद्धान्त है कि सुशिक्षित और उन्नत जातियां इस

को छोड़ती जाती हैं । प्राचीन मिस्री लोगों ने पहले इसे माना हुआ था फिर

छोड़ दिया । इसी प्रकार यूनानियों ने और अंग्रेजों ने भी छोड़ दिया । हमारे

पुराने द्रविड़ लोग भी, जो कि हमारे गुरु थे, यही सिखलाते थे । और हम

लोग सब के सब मानते थे । परन्तु रोशनी के फैलने से और विघा प्राप्त

करने से, इस पुराने और निराधार सिद्धान्त को छोड़ दिया सो हमारा सवाल

पण्डित जी से यह है कि इस सिद्धान्त को मानने के लिए कौन सी युक्तियां

हैं ? जब कोई विशेष प्रमाण दिया जायेगा तो हम उसका खण्डन करने के

लिये आक्षेप करेंगे । फिर भी दो चार प्रश्न यहां पर हैं

ईश्वर की आत्मा के अतिरिक्त और आत्माएँ भी अनादि काल से हैं

या नहीं ?

इस जन्म लेने से कभी छुटकारा मिलेगा या नहीं ?

आप का यह कथन है कि सब दुःख संसार में होते हैं, दण्ड देने के लिए

ही हैं सो पुनर्जन्म केवल दण्ड के लिए है, या इस का कोई और कारण है ?

यह भी एक प्रश्न है कि परमेश्वर हर समय सगुण है, या कभी निर्गुण

भी होता है ?

यह जन्म लेना उसी की खास कुदरत से हर समय होता रहता है, या

किसी कुदरती कानून से होता है, जैसे कि बीज का उगना, फल का पकना,

पानी का बरसना । इत्यादि । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

तीन पदार्थ अनादि हैं । एक ईश्वर, एक कारण और सब जीव।

जीव जन्म से कभी छुटकारा न पायेंगे । पुनजनर्् म दण्ड आरै पुरस्कार दोनाें

के लिए है । परमेश्वर सगुण भी है और निर्गुण भी और वह सदैव रहता

है । कुदरती नियम उस का यही है कि जैसा, जिसने पाप या पुण्य किया

है, उस को वैसा ही अपने सत्य न्याय से फल देता है । अब पादरी साहेब

ने जो कहा था कि पुनर्जन्म का प्राचीन सिद्धान्त हमारे बीच में भी था ।

इस से सिद्ध हुआ कि सब देशों में पुनर्जन्म का सिद्धान्त प्रचलित था । और

जो यह कहा कि जो जातियां सुधरती जाती हैं, वे पुनर्जन्म के सिद्धान्त को

छोड़ती जाती हैं । अब इस पर एक सवाल है कि प्राचीन सभी बातें झूठी

हैं या उनमें से कुछ सत्य भी हैं और नये सिद्धान्त सभी सत्य हैं, अथवा

उनमें कुछ मिथ्या भी हैं यदि पादरी साहेब कहें कि प्राचीन बातें और

सिद्धान्त अब मानने के योग्य नहीं हैं, तब तो तौरेत और जबूर इत्यादि

ग्रन्थ और बाईबिल व इञ्जील की शिक्षाएँ आजकल की अपेक्षा से

बहुत पुरानी हैं । वे भी अब न माननी चाहियें । यह कोई मानने योग्य

प्रमाण की बात नहीं है कि पहले मानते थे और अब नहीं मानते, इसलिए

सच्ची या झूठी हैं । या पहले नहीं मानते थे, अब मानते हैं, इसलिए

झूठी या सच्ची हैं ।

अब, पादरी साहेब ने कहा कि कुछ प्रमाण दें तो हम उस पर आक्षेप

करें । प्रमाण के लिए मैंने पहले ही लिख दिया है, कि इस जीव के कर्म

इत्यादि अनादि हैं । और ईश्वर का न्याय करना इत्यादि भी अनादि हैं । जो

कर्म का सिद्धान्त न माना जाये तो सृष्टि में बुद्धिमान्, निर्बुद्धि और दरिद्र,

राजा और कंगाल की अवस्था ईश्वर किस प्रकार कर सके । क्योंकि इस

में तरफदारी आती है, और पक्षपात से उस का न्याय ही नष्ट हो जाता है।

जब कर्म के फल हैं तो परमेश्वर पूर्ण न्यायकारी बनता है, अन्यथा नहीं ।

और ईश्वर अन्याय कभी नहीं करता । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

पण्डित जी के कहने से तमाम जीव अनादि हैं अर्थात् अजल से हैं।

तो इस हिसाब से हमारी और ईश्वर की अनादिता में कोई भेद नहीं । अर्थात्

दो वस्तुएँ अनादि काल से हैं । एक प्रकार से दो ईश्वर हुए । मेरा प्रश्न

यह है कि ऐसा मानना, तौरेत, जबूर और इञ्जील के सर्वथा विरुद्ध है। मैं

पूछता हूं कि कौन सा सिद्धान्त अधिक सन्तोषजनक है । अर्थात् एक यह

कि हमारे जीवात्मा सदैव आवागमन के चक्कर में भ्रमते फिरते रहेंगे और

कभी बैल के शरीर में जायेंगे और कभी बन्दर के । कभी अत्यन्त कीड़े

मकोड़े के और कभी किसी अच्छे शरीर में । इस अनादि काल से चल रहे

चक्कर में अधिक सन्तोष है कि तौरेत, जबूर और इञ्जील के सिद्धान्त में

कि अन्ततोगत्वा जो लोग नेकी करते और नेक बनते हैं, वे एक ऐसे सुखपूर्ण

स्थान में पहुंचेंगे कि उन्हें फिर कभी जन्म न लेना होगा । न ही उन्हें किसी

प्रकार का कष्ट होगा । विचार कीजिये कि किस ग्रन्थ की शिक्षा अधिक

सन्तोषजनक है । इस के अतिरिक्त ईश्वर निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार का

कैसे हो सकता है ? अर्थात् वह विशेषणों वाला भी है और विशेषणों से

रहित भी है ? वह कौन सी वस्तु है कि विशेषणों से रहित है? बताइये, यदि

उसमें न्याय करने का गुण न हो तो न्याय क्याेंकर करे और पुनर्जन्म के रूप

में लोगों को दण्ड किस प्रकार देवे ? ऐसे ही निराधार विचारों पर आधारित

होने के कारण सुशिक्षित जातियां इस सिद्धान्त को छोड़ती जाती हैं । इस

के अतिरिक्त यदि यह पुनर्जन्म दण्डस्वरूप है तो इस में दण्ड क्या हुआ ?

उदाहरण के लिए जब बन्दर यह जानता ही नहीं कि मैंने क्या अपराध किया

है या कोई पादरी साहेब या पण्डित साहेब अत्यन्त तुच्छ कीड़े के शरीर में

उत्पन्न हुआ तो उन को दण्ड कैसा हुआ । वे तो जानते ही नहीं कि हम

ने क्या—क्या अपराध किये हैं ? क्या कभी किसी को याद आया है या आता

है कि मैं अमुक काल में बन्दर था अथवा मैं किसी समय में गीदड़ था और,

जब कुल दुनिया में किसी को भी याद नहीं है तो फिर ऐसे पुनर्जन्म में किसी

के लिए क्या दण्ड की बात रह जाती है। हम तो यह मानते हैं कि दुःख

कभी—कभी दण्डस्वरूप होता है और कभी नहीं भी ।

हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

दोनों अनादि होने से बराबर नहीं होते, जब तक कि उन के सब गुण

बराबर न हों । परमेश्वर अनन्त है और जीव सान्त । परमेश्वर सर्वज्ञ है, जीव

अल्पज्ञ । परमेश्वर सदा पवित्र और मुक्त तथा जीव कभी पवित्र, कभी बन्ध

और कभी मुक्त । इसलिए दोनों बराबर नहीं हो सकते ।

तौरेत, जबूर और इञ्जील के विरुद्ध होने से ही कोई बात सच्ची और

झूठी नहीं हो सकती । क्योंकि तौरेत आदि में भ्रम से सच को झूठ और झूठ

को सच बहुत जगह लिखा है । सच्ची तो उस किताब की बात हो सकती है

कि जिस में आरम्भ से अन्त तक एक भी बात झूठ न हो । ऐसी किताब वेदों

के अतिरिक्त भूगोल में ईश्वरकृत और कोई नहीं । क्योंकि ईश्वर के गुण, कर्म

और स्वभाव से अनुकूल वेद ही पुस्तक है, दूसरी नहीं । सिवाय वेद के उपदेश

के किसी भी किताब में ठीक—ठीक सब बातों का निश्चय नहीं नजर आता है।

इसलिए सब से उत्तम वेद की ही शिक्षा है, दूसरे की नहीं ।

परमेश्वर अपने गुणों से सगुण है अर्थात् सर्वज्ञ आदि गुणों से और

निर्गुणकारण के जड़ आदि गुण तथा जीव के अज्ञान, जन्म, मरण, भ्रम आदि

गुणों से, रहित होने से परमात्मा निर्गुण है । इसलिए यह निश्चय जानना चाहिए

कि कोई पदार्थ भी इस रीति से सगुणता और निर्गुणता से रहित नहीं है ।

जब जीव का पाप अधिक और पुण्य कम होता है, तब उसे बन्दर

आदि का शरीर धारण करना पड़ता है । और जब पाप पुण्य बराबर होते

हैं, तब मनुष्य का । और, जब पाप कम और पुण्य अधिक होता है, तब

विद्वान् इत्यादि का । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी स्काट साहेब

सब पुराने सिद्धान्त मिथ्या नहीं हैं । और न ही सब नये सिद्धान्त सत्य

हैं । परन्तु जब सुशिक्षित जातियां भली प्रकार विचार विमर्श करके किसी

सिद्धान्त को मिथ्या उद्घोषित करती हैं तो यह दृढ़ प्रमाण है कि वह सिद्धान्त

मिथ्या है । और एक ही बार के जन्म लेने के विषय में सोच लीजिए ।

तौरेत नई नहीं है । यह भी बहुत पुरानी है । तौरेत किसी प्रकार भी

वेद से नई नहीं है । उस में पुनर्जन्म का कुछ भी उल्लेख नहीं है । तौरेत

और इञ्जील सत्य हैं वा मिथ्या यह आज का विषय नहीं है । इस विषय

को व्यर्थ ही खण्डित करना कि ये मिथ्या नहीं अथवा वेद के विषय में कुछ

नहीं कहना है क्योंकि यह भी आज का विषय नहीं । परन्तु इस बात पर

ध्यान दीजिये कि सुशिक्षित और उन्नत जातियां तौरेत और इञ्जील की शिक्षाओं

पर दृढ़ रहती हैं । इसके प्रतिकूल हिन्दू लोग ज्यों—ज्यों उन्नत और सुशिक्षित

होते जाते हैं वेद को छोड़ते जाते हैं । आवश्यकता हो तो मैं सैकड़ों प्रमाण

दे सकता हूं । और यह कहना कि कर्म अनादि काल से है, इसलिये पुनर्जन्म

होता है । तब तो परमेश्वर को भी जन्म लेना चाहिये । और यदि कोई कहे

कि उसके सब कर्म अच्छे हैं तो क्या कठिन है कि उसकी दया और कृपा

से हम लोग भी ऐसे दृढ़ और उत्तम हो जावें कि हमें बन्दर या गीदड़ बनना

न पड़े । जैसा कि हमारे पवित्र धर्म ग्रन्थ में लिखा हैट्टट्टएक बार मनुष्य

के लिए मरना है । बाद इसके न्याय ।’’

निर्गुण और सगुण के विषय में स्वामी जी के अर्थ को मैं नहीं मानता।

निर्गुण का यह अर्थ नहीं है कि कोई गुण न हो । जब उसमें गुण नहीं है,

तब तो वह सगुण भी नहीं हो सकता । फिर इस समय जन्म—मरण का प्रबन्ध

कौन करता है ? अब फिर मैं पूछता हूं कि यदि दण्ड—भोग के लिए जन्म

लेता है तो यह चाहिये कि दण्ड भोगने वाला यह जाने कि मुझे दण्ड क्यों

भोगना पड़ा है । अन्यथा दण्ड भोग की सब बात ही व्यर्थ हो जाती है ।

मैं फिर पूछता हूं कि किसी को याद क्यों नहीं रहता, कि तुम बन्दर या गीदड़

पिछले जन्म में थे । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

पहले प्रश्न के विषय में उत्तरजीव अल्पज्ञ है, इसलिए पूर्वजन्म

की बात को याद नहीं रख सकता । पादरी साहेब को विचार करना चाहिये

कि ऐसी बात क्यों पूछते हैं क्योंकि इसी जन्म में जन्म के पांच वर्ष तक

की बातें भी क्यों नहीं याद रहतीं ? और सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में जब

सो जाता है, तब जागृत अवस्था की बात एक भी याद नहीं रहती । और

कार्य—कारण के अनुमान से अर्थात् कार्य का निश्चय कर लिया । सब विद्वान्

लोग मानते हैं कि जब पाप—पुण्य का फल सुख—दुःख, नीच—उंQच जगत् में

दीखता है तो कारण जो पूर्वजन्म का कर्म है, सो क्यों नहीं? पुरानी और नई

शिक्षा वा सिद्धान्त की बात दृष्टान्त के लिये पर्याप्त नहीं है । क्याेंकि वह

सर्वथा सत्य नहीं । और जिन को आप सुशिक्षित कहते हैं, उन जातियों में

से कोई मनुष्य अर्थात् दार्शनिक वा विचारक बन्दर से मनुष्य का होना

मानता है यह सर्वथा मिथ्या है ।

ये वेद की ही बातें हैं कि वेदी का बनाना । इब्राहीम को ईश्वर ने

कहा किइस से मैं प्रसन्न होता हूं, तुम यज्ञ किया करो । इत्यादि वेदों की

बातें बाईबिल में मौजूद हैं । और ईसा ने साक्षी दी है कि इस का एक विन्दु

भी झूठ नहीं है ।

इसलिये और भी एक प्रमाण देता हूं कि आजकल मोक्षमूलर

(व्याख्याता) अपने ग्रन्थों में लिखते हैं कि ऋग्वेद से पहले की कोई भी

पुस्तक संसार में नहीं है । अब मैं सैकड़ों साक्षियां दे सकता हूं कि बाइबिल

इन—इण्डिया के बनाने वाले इत्यादि और आजकल के सैकड़ों विचारकों की

वाणी से मैंने सुना है कि बाइबिल वा इञ्जील को नहीं मानते । और कर्नल

अल्काट इत्यादि ने भी बाइबिल की शिक्षा को सर्वथा त्याग दिया है । और

हमारे आर्य लोगएफ०ए०, बी०ए०, एम०ए०, एल०डी०, लाखों लोग बाइबिल

को सर्वथा नहीं मानते और वे सभी सुशिक्षित हैं । अस्तु, पादरी साहेब का

यह कथन पर्याप्त नहीं है। परमेश्वर का पुनर्जन्म नहीं होता। क्योंकि वह अनन्त

और सर्वव्यापक है । वह शरीर में नहीं आ सकता । वह तो नित्य मुक्त है।

बन्धन का काम कभी नहीं करता । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी स्काट साहेब

पण्डित जी का पक्ष, बालक के उदाहरण से कि वह किसी बात को

याद नहीं रखता, जो कि बचपन में हुई हो, मिथ्या सिद्ध होता है । इसलिये

कि बच्चे कुछ न कुछ तो याद रख ही लेते हैं । और फिर यह भी प्रश्न

होता है कि जब हमारे आत्मा अनादि काल से हैं, तब तो हम भी बच्चे की

अपेइक्षा से कुछ बढ़ गये हैं । हमें कुछ न कुछ तो वृत्तान्त ज्ञात होने ही

चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं होता । इस युक्ति पर विचार कीजिये ।

यह सम्भव प्रतीत नहीं होता कि हम अनादिकाल से चले आ रहे हैं।

और जन्म ग्रहण करके यदि सब बातें भूल गये हैं, तब तो जन्म धारण करने

का दण्डग्रहण करने का भी कुछ अर्थ न निकला । और नींद का जो वर्णन

किया गया, सो इस उत्तर से सिद्ध होता है कि नींद की बात भी याद रहती

है । कतिपय तो नींद के समय बड़े उत्तमोत्तम विचार प्रकट करते हैं। यहां

पर मैं एक पुष्ट प्रश्न और करना चाहता हूं । वह यह कि इस शिक्षा से

संसार में पाप को प्रोत्साहन प्राप्त होता है । क्योंकि लोग कहते हैं कि जो

चाहें सो करें, भोगेंगे तो फिर कभी किसी अन्य योनि में ही । अच्छा जन्म

भी कभी होगा । यह भी कहते हैं कि यह परम्परा सदैव चलती रहेगी । क्या

करें, हम मानते हैं कि संसार में जो दुःख हैं, उन का कोई न कोई कारण

अवश्य है । कभी बुरों को दण्ड के लिए और कभी अच्छों को कि उनको

अनेक प्रकार की शिक्षा मिलती है ।

कहानी है बादशाह का लड़का था । पण्डित के पास पढ़ने के लिए

भेजा गया । पण्डित ने उस को सब प्रकार से सुशिक्षित करके योग्य बनाया।

फिर बादशाह के पास लाया । और उस से कहा कि केवल एक ही काम

बाकी है । उस ने पूछा कि इस ने कोई अपराध किया । कहा कि नहीं ।

तब कहा कि मुझे चाबुक देना । और खुद सवार होकर लड़के से कहा कि

दौड़ो और उस को खूब मारता गया । फिर बादशाह के पास ले आया । बादशाह

ने कहा कि ऐसा क्यों किया ? पण्डित ने कहा इसलिए कि दूसरों पर दया

करना सीखे और दयालु व कृपालु बन जाये । सो यह सम्भावना है कि अच्छे

मनुष्यों को भी कष्ट भोगना पड़े, किसी अच्छे उद्देश्य के लिये । यह कुछ

आवश्यक नहीं है कि पुराने जन्म के कारण से । डारविन साहेब पुनर्जन्म

को नहीं मानते । वे केवल यही कहते हैं कि संसार में विकास क्रम से नीची

योनियों के प्राणी उंQची योनियों को प्राप्त हो गये हैं । उन का यह अभिप्राय

नहीं है कि कोई प्राणी जो अब है, वह पहले भी था । कर्नल अल्काट साहेब

की जो चर्चा चली है, सो उसका जो पक्ष है, वह सुन लीजिये । तब मालूम

होगा कि वे कैसे आदमी हैं ? हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

लड़के के उदाहरण से मेरा यह अभिप्राय है कि वह जो कुछ सुख—दुःख

भोगता है, उसकी स्मृति उसे स्वयमेव नहीं होती, कहीं किसी के कहने से

होती है । और जीव का स्वाभाविक गुण एक सा रहता है । परन्तु नैमित्तिक

गुण घटते—बढ़ते रहते हैं । इसलिये जीव एक से हैं परन्तु उसके ज्ञान की

सामग्री पांच वर्ष के पश्चात् बढ़ जाती है । अब यदि पादरी साहेब को या

मुझ को कोई पूछे कि दस वर्ष के पहले किसी से एक दिन भर बातचीत

क्या की । क्या वह सम्पूर्ण पदों और अक्षरों सहित याद है ? तो यही कहना

पड़ेगा कि ठीक—ठीक याद नहीं है । जब सदा से जीव नहीं आते तो फिर

कहां से हुए ? जेलखाने के कैदियों को यघपि सब लोग ठीक—ठीक नहीं

जानते तथापि अनुमान करते हैं कि किसी अपराध के करने से जेलखाने में

पड़े हैं । इस से हम कभी भी अपराध न करें । अन्यथा हमारा भी यही हाल

होगा । पादरी साहेब मेरे अभिप्राय को नहीं समझे । वह स्वप्न की बात नहीं,

सुषुप्ति की बात है कि जिस नींद में कुछ भी स्मरण नहीं रहता । बस नींद

में कोई एक भी विचार कोई भी स्मरण नहीं रख सकता । जो पुनर्जन्म को

नहीं मानते, उनकी शिक्षा से संसार में पापों की वृद्धि होती है । क्योंकि फिर

आगे जन्म लेने की बात तो वे मानते ही नहीं हैं । जो मन में आवे, वही

करते हैं और मरने पर व्यर्थ ही हवालाती के समान पड़े रहते हैं । आज मरे!

कयामत तक हवालात में रहे । कचहरी के द्वार बन्द हैं, और खुदा बेकार

बैठा है । जो दोजख में गया, वह वहां का हो गया । जो जन्नत में गया वह

वहां का हो गया । और कर्म तो ससीम किये जाते हैं परन्तु उस का फल

असीम प्राप्त होता है । इस प्रकार ईश्वर बड़ा अन्यायी ठहरता है । और

आशावादिता के विना मनुष्य सुधर नहीं सकते । केवल रंज में दुःख का

कारण क्या है ? और यदि शिक्षण के लिए उसको कष्ट दिया जाता है, वह

सुधार के लिए है परन्तु उस का फल तो विघा आदि हैं । और पादरी साहब

ने कहा था कि एक स्थान में सदैव सुख—दुःख भोगेंगे, वह स्थान कौन सा

है । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

कर्नल अल्काट साहेब का एक कागज मेरे पास है कि जिस में ईसाइयों

की, और पादरियों की, ईसाई दीन की व्यर्थ ही कठोर भाषा में बहुत बुराई

लिखी है । वह इतनी अधिक कठोर है कि मैं किसी बाजारी व बदमाश के

लिए भी न बकता । कहते हैं कि ये कठोर और निर्दयी हैं । यह ईसाई दीन

संसार में सारी बुराई और खराबी की जड़ है । इस के अतिरिक्त और भी

कई प्रकार से कठोर भाषा का प्रयोग किया गया है । जरा विचार कीजिये

कि इस व्यक्ति का हृदय और उस की बुद्धि किस प्रकार की होगी ।

यह बात सिद्ध नहीं होती कि वेद तौरेत की अपेक्षा अधिक पुराना है।

इसी वास्ते कि तौरेत में यज्ञ का वर्णन है और हम दावे से कह सकते हैं

कि सर्वप्रथम तौरेत में ही यज्ञ का वर्णन हुआ और वेद वालों ने वहां से ले

लिया । दोनों बातों का दोनों में ही वर्णन है । निश्चय से कोई नहीं कह

सकता कि किस ने किस से ले लिया । और यह कहना कि कुछ गुण स्थायी

हैं और कुछ अस्थायी, इसलिए इस जन्म की बातें हमें याद नहीं रहतीं ।

कुछ गुण तो स्थायी हैं ही । अतः यह अवश्य ही होना चाहिये कि पिछले

जन्म की कोई बात तो याद हो । यदि हमारी और पण्डित जी की बातचीत

इस वर्ष कहीं हुई हो तो कुछ बातें तो अवश्य ही याद रहती हैं ।

निद्रा का उदाहरण ठीक नहीं है, क्योंकि कभी—कभी नींद में बात याद

नहीं रहती और कभी—कभी याद रहती भी है । जेलखाने का उदाहरण भी

पूरा ठीक नहीं है । क्योंकि इस में दण्ड का केवल एक ही अभिप्राय प्रकट

होता है । दण्ड के दो अभिप्राय हैं । एक तो दण्डित व्यक्ति का सुधार और

दूसरे देखने वालों को शिक्षा । परन्तु इस पुनर्जन्म में तो केवल देखने वालों

को शिक्षा की ही कुछ व्यवस्था मानी जा सकती है । यह नहीं कि उसे यह

दण्ड क्याें मिला है ?

रहा यह प्रश्न कि आत्माएँ (रूहें) कहां से आईं ? शिक्षित जातियों

में आज कल यह सिद्धान्त है कि जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज उत्पन्न

होते हैं, और कोई भी यह नहीं कहता कि पहले वृक्ष हुआ, अथवा पहले

बीज हुआ है । इसी प्रकार रूह से शरीर और शरीर से रूह उत्पन्न होते हैं।

तथापि यह बात हमारे लिए बुद्धिगम्य नहीं है कि ऐसा किस प्रकार होता

है ? परन्तु ऐसा नहीं है कि जो रूह अब मौजूद है, वह पहले किसी अन्य

शरीर में थी । वह अभी पैदा हुई है और जब यहां से जावेगी तो उस का

यथोचित न्याय होगा । कर्मानुसार । इससे परमेश्वर अन्यायी नहीं है, अपितु

इस से भी परेमश्वर का न्याय सिद्ध होता है । यह कहना कि रूह सदा कहां

रहती है ? हम यह नहीं कहते कि हम परोक्ष की बातें जानने वाले हैं कि

सुख वा दुःख के स्थान बतायें । ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह रूह को सभी

स्थानों पर सुख अथवा दुःख दे सकता है । हमारा जानना या न जानना क्या

हुआ ! हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

जो कर्नल अल्काट साहेब के विषय में पादरी साहेब ने कहा कि वह

अच्छा मनुष्य नहीं है, सो मैं ठीक नहीं मान सकता । क्योंकि जिन का जिन

से विरोध होता है, वे उनके विषय में उलटा सूधा कहा ही करते हैं । वेद

शास्त्रार्थ—बरेली 181

तौरेत की अपेक्षा बहुत पुराना है । और जिसकी बात पूरी से अधूरी दूसरी

में लिखी हो तो दूसरी ही पुस्तक बाद की होती है । बालकपन में नैमित्तिक

गुण—कर्म थे और स्वाभाविक गुण एक से हर समय रहते हैं । इस बात को

पादरी साहेब ठीक—ठीक नहीं समझे । जो कि आग के संयोग से जल में

उष्णता आती है, वह नैमित्तिक और जो आग में उष्णता आती वा दाहकता

है, वह स्वाभाविक है । जो—जो जीव के स्वाभाविक गुण हैं, वे न्यूनाधिक

कभी नहीं होते ।

और पादरी साहेब ने कहा कि जेलखाने के कैदियों को देखकर देखने

वालों को भय होता है कि मैं ऐसा कर्म न करूँ परन्तु जिस को दण्ड पूर्व—जन्म

के कर्मों का मिलता है, उस को याद ही नहीं । जैसे और लोग कार्य—कारण

को जानते हैं, क्या वे न जानेंगे कि दण्ड अवश्य ही कर्मों का होता है ।

एक वैघ को ज्वर आया और एक मूढ़—गंवार को भी । वैघ ने अपनी

विघा के प्रभाव से ज्वर के कारण को जान लिया कि अमुक कारण है परन्तु

उस गंवार ने न जाना । फिर भी ज्वर का कष्ट तो दोनों ही अनुभव करते

हैं । फिर भी गंवार इतना अवश्य जानता है कि कोई न कोई बदपरहेजी हुई

है और इसीलिये यह ज्वर आया है । इस से उसे दण्ड द्वारा सुधारने का फल

प्राप्त होता है कि जो मैं बुरा काम करूँगा तो बुरा फल जैसा कि उस को

है, मुझे भी प्राप्त होगा ।

जब जीव से शरीर और शरीर से जीव पैदा होते हैं तो आप का बनाने

वाला परमेश्वर नहीं । इस से आपका कथन ठीक नहीं रहा । और आप के

कथनानुसार जो जीव प्रथम—प्रथम उत्पन्न हुए, वे किन शरीरों से हुए ? जो

कहें परमेश्वर भी आदमी, घोड़े और वृक्ष तथा पत्थर के समान हुआ । क्योंकि

जिसका कार्य जैसा होता है, उस का कारण भी वैसा ही होता है । और जीवों

को मध्य में हवालातियों के समान दौरा सुपुर्द करनाबहुत दिन तक कि जो

दण्ड से भी भारी है, फिर उस को स्वर्ग मान के किन कर्मों से मिल सकता

है ? कोई भी नहीं । जब आप सर्वज्ञ नहीं हैं तो फिर ऐसा क्याें कहते हैं

कि पुनर्जन्म नहीं होता । इस से आप का एक जन्म सिद्ध नहीं हुआ और

पुनर्जन्म सिद्ध हो गया । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

विषयईश्वर देह धारण करता है

तारीख २६ अगस्त, सन् १८७९

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

आज का सवाल यह है कि परमेश्वर देह धारण करता है, अर्थात्

साकार हो सकता है या नहीं । उचित यह है कि इस विषय में अत्यन्त

सावधानी से और गम्भीरता पूर्वक विचार विमर्श और प्रश्नोत्तर किया जावे।

जब उस सर्वेश्वर के विषय में वार्तालाप हो तो मनुष्य को चाहिये कि बहुत

सोच समझ कर गम्भीरता के साथ बोले । इस विषय में अहंकार और अभिमान

की कुछ भी गुञ्जाइश नहीं है । किसी को भी ऐसा घमण्ड नहीं करना चाहिये

कि हम ईश्वर के विषय में सब कुछ जानते हैं । कवि का कथन है

अर्श से ले फर्श तक, जिस का कि यह सामान है ।

हिम्द् उस की गर लिखा, चाहूं तो क्या अमकान है ।।·

जब पैगम्बर ने कहा हो, मैंने पहिचाना नहीं ।

फिर कोई दावा करे, उसका बड़ा नादान है ।।

विचार कीजिये कि ईश्वर की अनादिता के विषय में क्या हम जानते

हैं ? सो इसी प्रकार हम सर्वशक्तिमान् के विषय में क्या जानते हैं? वह

सर्वव्यापक अर्थात् प्रत्येक स्थान पर मौजूद है, उस के विषय में हम क्या

जानते हैं ? हां, इन शब्दों के कुछ—कुछ अर्थ हम जानते हैं । परन्तु यह कथन

तो मूर्खों का ही है कि ईश्वर के विषय में हम सब कुछ जानते हैं । आज

के वार्तालाप में दो प्रश्न ये हैं किक्या ईश्वर देह धारण कर सकता है?

दूसरे यह कि ऐसा कभी हुआ है कि नहीं ? विशेष रूप से पहली बात का

ही विचार इस समय है । पहले प्रश्न का भाव यह है कि क्या यह सम्भव

है कि ईश्वर अपने आप को कभी सदेह रूप में प्रकट करे ? ध्यान दीजिये।

यह भाव कदापि नहीं है कि ईश्वर सदेह बन जाये । प्रथम पक्ष यह है कि

देह धारण करने की सम्भावना है । आत्मा और परमात्मा (इन्सानी रूप और

इलाही रूप) बहुत—सी बातों में समान हैं । अपितु यह कहना चाहिये कि

दोनों की एक ही जाति है, क्योंकि ईश्वर की वाणी में लिखा है किट्टखुदा

ने इन्सान को अपनी सूरत पर बनाया ।’ यह नहीं कि शारीरिक रूप में अपने

जैसा बनाया, अपितु भाव यह है कि आध्यात्मिक रूप में । अर्थात् बहुत से

गुण—कर्म और स्वभाव, जो ईश्वर में हैं, वे ही मनुष्य में भी हैं । अर्थात् दया,

न्याय तथा और भी अनेक प्रकार की धार्मिक विशेषताएँ । इस कारण ईश्वर

के साथ मनुष्य मेल कर सकता है । ऐसी अवस्था में हम लोग जो कि स्वयं

सशरीर हैं, क्यों अहंकार करें कि ईश्वर साकार न हो । यदि उसकी इच्छा

· आकाश से लेकर पृथ्वी पर्यन्त यह नाना प्रकार का जड़—जंगमस्वरूप संसार,

जिस का है, मैं यदि उस की महिमा का गान करना भी चाहूं तो कैसे करूँ । उस

के गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ तो अनन्त हैं । और मेरी सामर्थ्य बहुत ही अल्प

है । अनुवादक

हो कि वह सदेह रूप में प्रकट हो तो क्या बाधा है ।

हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

जो पादरी साहेब ने कहाउस की परीक्षा हम नहीं कर सकते । इस

पर सवाल यह है कि सर्वथा नहीं कर सकते या कुछ—कुछ कर सकते हैं।

वैसे सर्वव्यापक के विषय में कुछ जानते हैं या नहीं ? और जो कुछ जानते

हैं तो कितना ? जो किसी का कहना हो कि मैं ईश्वर को जानता हूं तो वह

मूर्ख है और जो यह पादरी साहेब का कहना है तो कुछ उस के जानने में

वश नहीं रहा । और पादरी साहेब अपने पहले कथन के विरुद्ध बोले हैं।

वह यह है कि ईश्वर देह धारण करता है । कर सकता है या नहीं ऐसा नहीं।

लेकिन देह धारण करता है ।

यहां प्रश्न होता है कि उस को क्या आवश्यकता देह धारण करने की

है ? दूसरे उस की इच्छा में कोई बन्धन है या नहीं ? तीसरे, वह निराकार

है या साकार ? चौथे, वह सर्वव्यापक है या एकदेशी ?

जीव और ईश्वर के गुण दया आदि क्या ठीक—ठीक मिलते हैं या नहीं?

बहुत से जीवों में भी दया देखने में आती है ।

प्रश्नवे दोनों एक हैं तो दोनों ही खुदा हैं । इस का क्या उत्तर है?

आध्यात्मिक पक्ष में जो परमेश्वर देहधारी होता है, तब वह सम्पूर्ण ही देह

में आ जाता है या टुकड़े—टुकड़े होकर आता है ? यदि टुकड़े होकर आता

है तो नाश वाला हुआ । और जो वह सम्पूर्ण आ जाता है तो शरीर से छोटा

हुआ । फिर तो ईश्वर ही नहीं हो सकता ।

जीव तथा ईश्वर में कुछ भी भेद नहीं आ सकता । और यदि वह

एकदेशी है तो एक स्थान पर रहता है या घूमता फिरता है । यदि कहो कि

एक स्थान पर रहता है तो उस को सब स्थानों की खबर रहना असम्भव

है । और जो घूमता फिरता है तो कहीं अटक भी जाता होगा, और धक्का

और शस्त्र भी लगता होगा । जब परमेश्वर सृष्टि करता है, तब निराकार स्वरूप

से या साकार से ? जो कहो निराकार स्वरूप से तो ठीक है । और जो कहो

कि देहधारी होकर तो उसका सृष्टि रचना सर्वथा असम्भव है, क्योंकि त्रसरेणु

आदि पदार्थ सृष्टि का कारण रूप, उस के वश में कभी नहीं आ सकते

हैं । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

हम नहीं कहते हैं कि ईश्वर को सर्वथा जान ही नहीं सकते । लेकिन

तो भी बहुत बातें हैं, जो हम सर्वथा नहीं जान सकते । सर्वव्यापक के विषय

में यह सिद्धान्त है कि वह ऐसा है, परन्तु यह कोई नहीं कह सकता कि

इस का पूर्ण अभिप्राय हम को मालूम है । यह तो कह सकते हैं कि ईश्वर

ने देह धारण किया परन्तु उस का अपने आप का देह में धारण करना एक

रहस्य है । अपितु हमारे आत्मा का विषय भी शरीर के साथ रहस्यमय है।

रहा यह प्रश्न कि ईश्वर की इच्छा में बन्धन है या नहीं । पण्डित जी इस

बात को कुछ और स्पष्ट करने की कृपा करें। मैं कहता हूं कि परमात्मा अर्थात्

खुदा की रूह और इन्सान की रूह सर्वथा एक जैसी ही नहीं हैं । एक ससीम

है और दूसरी असीम । इसलिए दो खुदा नहीं हैं । इन में एक रचने वाला

है और दूसरा रचा गया है । परन्तु ईश्वर की इच्छा हुई और उसने इन्सान

को अपने जैसा ही बनाया है ।

रहा यह प्रश्न कि ईश्वर सम्पूर्ण देह में आ जाता है, हां आ जाता है।

मगर तो भी बाहर भी रहा । वह सर्वव्यापक है तो उस देह के अन्दर क्यों

नहीं है ? हम यह नहीं कहते कि केवल शरीर में ही है, और कहीं नहीं

है । विचार कीजिये कि इस कमरे के अन्दर वह सर्वशक्तिमान् इस समय

मौजूद है । वह अनादि परमेश्वर इस समय मौजूद है । अर्थात् ईश्वर अपने

सब गुणों सहित इस समय इस कमरे में मौजूद है । इस बात से कोई भी

इन्कार नहीं कर सकता तो इस में क्या कठिनाई है ? यदि उस की इच्छा

यूं ही हुई कि अपने आप को एक शरीर में प्रकट करे । यह असम्भव नहीं

है । उस की इच्छा है । जब भी आवश्यकता हो। अपनी लाचारी से नहीं

करता; अपितु हम लोगों के लिये, क्योंकि हमारी बुद्धि यदि बहकाना जानती

है तो आगे चलकर हम देख लेंगे कि कोई उचित कारण है अथवा नहीं कि

परमेश्वर देह धारण करे । यदि कोई कहे कि देह धारण करना, उस की

महिमा के विरुद्ध है तो यह भ्रान्तिपूर्ण है । यह किस बात में उस की महिमा

के प्रतिकूल है ? देह में कुछ त्रुटि है या कुछ अपवित्र है ? अथवा कोई

अशुद्ध वस्तु है कि ईश्वर उस से घृणा करे । देह को किस ने बनाया है?

क्या वह अब सर्वव्यापक नहीं है ? अर्थात् क्या वह अब भी प्रत्येक देह में

वर्तमान नहीं है ? हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

पादरी साहेब ने मेरे प्रश्नों के ठीक—ठीक उत्तर नहीं दिये । जब वह

सर्वव्यापक है तो एक देह में आना या एक देह से निकलना सर्वथा असम्भव

है । ईश्वर ने देह धारण किया, इस की क्या आवश्यकता है, यह मैंने पूछा

था । इसका कुछ उत्तर नहीं दिया और इस का भी कुछ जवाब नहीं दिया

कि ईश्वर और जीव आध्यात्मिक रूप में सर्वथा समान हैं अथवा उन में भिन्नता

है । पादरी साहेब पहले कह चुके हैं कि इन्सान की देह अपने शरीर में बनाई।

इस के विरुद्ध पीछे कहा कि वे पृथक —पृथक  हैं, एक नहीं । मुझ से पूछा

कि पण्डित जी इस का स्पष्टीकरण करें । मैं पादरी साहेब के अभिप्राय का

स्पष्टीकरण क्यों करूँ ? यह तो वे ही स्वयं बतावें । यह मैं भी जानता हूं

कि ईश्वर सर्वव्यापक है। इस कारण से वह अवतार धारण नहीं कर सकता

क्योंकि क्या पहले वह उस में न था ? या उस में एक था ? अब दूसरा,

तीसरा । इस से उस में हजारों घुस गये ? जब वह असीम था तो ससीम

शरीर में देह धारण करना सर्वथा झूठ । और जो पादरी साहेब ने कहा कि

उस ने मनुष्य की रूह अपने स्वरूप में बनाई तो मैं पूछता हूं कि बन्दर किस

के स्वरूप में बनाये ? क्या बन्दरों का खुदा कोई दूसरा है ? इस प्रकार से

तो हाथी, घोड़े आदि सब के ही खुदा जुदा—जुदा हो जायेंगे ।

जब सर्वव्यापक है तो उस ने देह धारण नहीं किया । अपितु उस ने

तो संसार का अणु—अणु धारण कर रखा है । पादरी साहेब का यह कहना

कि वह देह धारण करता है सर्वथा मिथ्या प्रमाणित हो जाता है । क्या वह

पहले धारण नहीं करता था ? क्या सर्वशक्तिमान् परमात्मा अपनी इच्छा से

देह धारण करता है ? यदि हां, तो मैं पूछता हूं कि वह अपनी इच्छा से देह

छोड़ भी देता होगा, क्योंकि जो कोई पकड़ेगा, वह कभी न कभी अवश्य

ही छोड़ेगा। और वह कभी अपने आपको मारने की भी शक्ति रखता है वा

नहीं ? तब तो वह आप के कथनानुसार सर्वशक्तिमान् भी न रहेगा । जैसे

अविघा आदि और अन्याय करने आदि का उस का स्वभाव ही नहीं है, सो

यह ही उस के जन्म और मरण में भी प्रतिबन्धक है । क्योंकि वह अपने

स्वभाव के विरुद्ध कोई कार्य चरितार्थ नहीं कर सकता ।

हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

मेरा प्रश्न यह ही है कि क्या पण्डित जी का यह अभिप्राय है कि

अब परमेश्वर देहधारी है ? क्योंकि उन की युक्ति से प्रतीत होता है । वह

यह दावा करते हैं कि परमेश्वर अब देह में है । अब जो ये सूरतें सब दृष्टिगोचर

होती हैं, सब उस का देह ही हैं । यदि ऐसा है, तब तो मेरा दावा सिद्ध ही

हो गया । अब उस में बाकी ही क्या रहा ? देह धारण करने का क्या अर्थ

है ? इस वार्तालाप में मैंने जो देह, पशु, पत्थर इत्यादि हैं, अनादि काल से

हैं । परमेश्वर सर्वव्यापक तो है परन्तु इस का यह अर्थ नहीं है कि इस प्रकार

से देहधारी है । जैसे जब कोई कहे कि अमुक व्यक्ति परमेश्वर का अवतार

है तो पण्डित जी इस में झगड़ा क्यों करते हैं ? देह धारण करने का अर्थ

कौन नहीं जानता ? और यह कहना कि इस विशेष अर्थ में ईश्वर के

देहधारी होकर आने जाने का कुछ कथन नहीं है । अपितु केवल यही अर्थ

है वह हमारे लिये शरीर में प्रकट हुआ । जब वह शरीर लुप्त हो जाता है,

तब भी ईश्वर वहां वर्त्तमान रहता है । परन्तु वह ईश्वर की आत्मा उस समय

भी उस शरीर में हैवानी आत्मा नहीं है । अभी रूह इस शरीर में प्रकट हुई।

यह कोई आने या जाने का मामला ही नहीं है । मैंने साफ—साफ कहा है

कि जो मनुष्य का आत्मा ईश्वर के आत्मा के समान है परन्तु है सर्वथा भिन्न।

बन्दर की स्थिति और है । उस की चर्चा करने की यहां क्या आवश्यकता

है ? रहा यह प्रश्न कि ईश्वर ने बन्दर को किसके स्वरूप पर बनाया । सो

जैसी उस की इच्छा हुई, वैसा उस ने बनाया अर्थात् बन्दर की सूरत और

गीदड़ की सूरत और बैल की सूरत और इन्सान को अपनी सूरत में । तब

इस में आक्षेप की क्या बात है ?

अब यहां यह प्रश्न है कि ईश्वर ने क्यों देह धारण की ? इस का

उत्तर देता हूं । इस की सम्भावना का होना तो कुछ असम्भव नहीं है । मकान

के उदाहरण को स्मरण कीजिए और यह भी कि देह धारण करने का अर्थ

यह है कि परमात्मा को एक देह में प्रकट करना । यदि इस घटना अथवा

गति को आप समझ गये तो समझिये । हम डरते नहीं कि यह कहने लगें

कि ईश्वर के गुण तो गति करते ही नहीं हैं तो क्या वह जड़ पत्थर है ?

अथवा निर्गुण है ? उनका आना जाना कुछ न हुआ । जीना मरना कुछ न

हुआ । केवल मनुष्य की अल्प सामर्थ्य के कारण अवतार होना अर्थात् देह

धारण करना । देह धारण करने में लाभ यह है कि मनुष्य के लिए किसी

पूर्ण गुरु, पथ—प्रदर्शक और आदर्श की जरूरत है । जब गुरु पूर्ण और आदर्श

भी सर्वथा दोष रहित हो, तभी मनुष्य उन्नति करता है । अन्यथा जैसी चाहिए,

वैसी उन्नति नहीं करता, क्योंकि उन्नति का साधन वा माध्यम अच्छा नहीं

होता । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

जो पादरी साहेब ने कहा कि पण्डित जी के दावे ने मेरे दावे को साबित

किया । यह गलत है क्योंकि देह धारण करता है, इस का अर्थ यह है कि

पहले वह देह में नहीं था । इस कथन ने तो पादरी साहेब के दावे को ही

खारिज किया है न कि साबित ।

जो कि सर्वव्यापक है वह देह धारण करता है या करे या छोड़े, यह

कहना सर्वथा असम्भव है । और जब वह सर्वव्यापक है, तब देह धारण

करने को कहां से आया ? क्या ऊपर या नीचे से अथवा बाहिर या बगल

से । जो कहें कि किसी तरफ से आया तो फिर तो वह सर्वव्यापक न हुआ।

शास्त्रार्थ—बरेली 187

और जो कहें कि सर्वव्यापक है तो कहीं से आना साबित नहीं हो सकता।

जाहिर होने में मैं पादरी साहेब से पूछता हूं कि क्या पहले गुम था कि आंख

से नहीं दीखा । जाहिर होने में दीख पड़ा । क्या रूह आंख से देखने का

विषय है ? जो कहें नहीं तो फिर जाहिर होने का क्या अर्थ है ? जैसे सांप

बिल में से निकल कर जाहिर होकर फिर गुम हो जावे ?

वैसे ही मैंने पूछा था कि बन्दर को किस की सूरत में बनाया ? उसका

कुछ भी उत्तर नहीं दिया । क्या बन्दर और आदमी आदि का बनाने वाला

एक ही खुदा है, अथवा दो जुदा—जुदा हैं ?

जब उस के देह धारण करने में पादरी साहेब कुछ विशेष मामला नहीं

दिखला सकते तो बस, पादरी साहेब का तो मामला ही खारिज हो गया । जो

पादरी साहेब ने कहा कि परमेश्वर के गुण गति करते हैं, यह सर्वथा झूठी बात

है क्योंकि वह गुण है, द्रव्य नहीं । गतिशील द्रव्य होता है, गुण नहीं ।

जो पादरी साहेब कहें कि देह धारण करना जरूर है, तब तो उसकी

जरूरत की बात भी ठीक—ठीक अवश्य ही बतलावें । और जो यह कहा

कि मनुष्य की उन्नति के लिए देह धारण करता है, तब तो पहले कहे हुए

सभी दोष पादरी साहेब के कथन में आते हैं और मैं पूछता हूं कि वह

सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक क्या अपनी सामर्थ्य से जीवों की उन्नति नहीं करा

सकता ? जो कहें कि करा सकता है तो देहधारण करना व्यर्थ हुआ । जो

कहें कि करा नहीं सकता तो सर्वशक्तिमान् नहीं रहा । और जो मैंने दोष

दिये थे कि पादरी साहेब के कथनानुसार देह धारण करने पर तो परमाणु

आदि को अपनी पकड़ में लाने का सामर्थ्य ही उस में नहीं हो सकता ।

इतने दोष मौजूद रहे । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

प्रत्येक बात में यह कहना कि यह झूठ है । सो शिष्टाचार के कुछ

प्रतिकूल प्रतीत होता है क्योंकि झूठ बेईमानी और फरेब है । और भी बहुत

सी मिथ्या बातें हैं, जिन को कि झूठ कहना जरा शिष्टाचार विरुद्ध प्रतीत

होता है । ईश्वर तो बन्दर की देह में सर्वव्यापक के रूप में है । परन्तु कोई

उस को गीदड़ बता दे, वैसे ही कोई उसको बन्दर बता दे । परन्तु हां अद्वैतवादी

ही कहेंगे परन्तु पण्डित जी तो द्वैतवादी हैं । यह मैं पूछता हूं पण्डित जी

से कि परमेश्वर के अतिरिक्त और भी कोई पदार्थ है वा नहीं ? संसार में

नहीं, परन्तु जब ईश्वर का कोई खास अवतार हो तो उस देह में वह सर्वव्यापक

है । परमेश्वर के सिवा और कोई जीव उस में नहीं । उस को अवतार कहते

हैं । कुछ आने जाने का यह मामला नहीं है । कोई स्याही ऐसी होती है

कि जब उस से लिखते हैं तो कुछ नजर नहीं आता । परन्तु वह लिखाई

मौजूद होती है या नहीं । स्याही मौजूद है, अक्षर मौजूद हैं, उन को जरा आग

के सामने दिखाओ तो कुल लिखाई नजर आती है। पहले भी मौजूद तो थी

परन्तु नजर नहीं आती थी । इसी प्रकार परमेश्वर का नजर न आना, कुछ

आने जाने का मामला नहीं है । उस ने अपने आप को केवल हमारी कमजोरी

के वास्ते इस शरीर में प्रकट किया है । वह कहीं गुम नहीं था । कहीं से

आया नहीं । फिर इस विषय में मैं यह कथन करूँगा कि गुण का गति करना,

यह है कि वह कार्य का रूप धारण करे उपयोग में आवे । जैसे कि प्रेम

और दया का रखना और न्याय करना ।

और यह कहना कि देह धारण करने से परमेश्वर की लाचारी मालूम

होती है, भ्रान्तिपूर्ण है । पण्डित जी का सिद्धान्त है कि जन्म लेने से मनुष्य

सुधर जाता है तो इस में भी परमेश्वर लाचार है या उस की इच्छा है । यदि

वह सर्वशक्तिमान् है, तब तो ऐसा नहीं कहना चाहिए कि लाचार है, पण्डित

जी के कथनानुसार । और यदि उस की इच्छा है तो अपनी इच्छा से वह

जानता है कि मनुष्य के विषय में कौन सा उपाय उत्तम है परन्तु कुछ—कुछ

बातों के विषय में हम मानते हैं कि परमेश्वर लाचार है ।

ध्यान दीजिएयदि वह सर्वशक्तिमान् है तो एकदम ही रूह को पवित्र

क्यों नहीं कर देता ? क्यों मनुष्यों को अनेक प्रकार के दुःख देता है । विचार

करना चाहिए कि मनुष्य कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है । और खुदा उस के

विषय में बलात्कार नहीं करता है । खुदा चाहता तो है कि वह सुधर जावे

परन्तु उस का सुधारना केवल खुदा के वश में नहीं है । खुदा ने इन्सान को

ऐसा ही बनाया है और कर्म करने में स्वतन्त्र होना यह मनुष्य के महत्त्व का

सूचक है । तो इस से वह अपनी बहुत बड़ी हानि भी कर सकता है । ईश्वर

ने उचित यही समझा कि मनुष्य को सुधारने के लिए पूर्ण आदर्श नमूने के

तौर पर उस को दिखावे । खुदा के गुम होने से नहीं, अपितु इन्सान के गुम

होने से । और बातों को छोड़कर आगे चलकर अधिक निवेदन करूँगा ।

हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

जो पादरी साहेब ने शिष्टाचार के विषय में कहा, सो ठीक है परन्तु सत्य

के कहने में अशिष्टता कभी नहीं हो सकती । अशिष्टता तो झूठ के कहने

में होती है । और जो पादरी साहेब ने मुझे द्वैतवादी बताया, सो ठीक नहीं है।

मैं अद्वैतवादी हूं, क्योंकि मैं ईश्वर को एक मानता हूं । जो पादरी साहेब ने

कहा कि बन्दर और गीदड़ आदि के शरीर में ईश्वर के सर्वव्यापक होने से

शास्त्रार्थ—बरेली 189

बन्दर और गीदड़ नहीं कहा जा सकता तो आदमी के शरीर में व्यापक होने

से आदमी भी उसे नहीं कहना चाहिए । और कहा कि शरीर में ईश्वर ने अवतार

लिया । उसमें दूसरा जीव नहीं था तो मैं पूछता हूं कि उस में पहले ईश्वर

था कि नहीं ? जो कहें कि था तो उसका आना—जाना असम्भव है । और जो

कहें कि नहीं था तो उसका सर्वव्यापक होना नहीं हो सकता ।

जो मैंने जाहिर होने के विषय में पूछा था, उसका ठीक—ठीक उत्तर

पादरी साहेब ने नहीं दिया । गोलाकार कर गये । जो ईश्वर दृश्य नहीं तो

उस को जाहिर होना कहना व्यर्थ है । और जो कहें कि दृश्य है तो सर्वव्यापक

नहीं । और जो पादरी साहेब ने कहा कि हमारी कमजोरी के कारण वह

अवतार लेता है तो हमारी कमजोरी के कारण ही क्या वह सर्वव्यापक हमारा

काम नहीं कर सकता ? जो कहें कि नहीं कर सकता तो इस में क्या युक्ति

है? और फिर वह सर्वशक्तिमान् भी नहीं रहता । और जो कहें कि कर सकता

है तो जन्म धारण करना ही व्यर्थ हो जाता है ।

और जो कहा कि प्रीति का रखना, सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि

यहां प्रीति गुण और प्रीति करने वाला चेतन द्रव्य है । इसलिए पादरी साहेब

का कहना ठीक नहीं है । परमेश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुकूल काम

करने में लाचार कभी नहीं है । परन्तु अवतार के धारण करने में तो लाचार

ही मानना होगा । जैसे कि पादरी साहेब ने कहा कि वह आदमी को नहीं

सुधार सकता । अब मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान् का क्या अर्थ है ? पादरी

साहेब क्या चाहते हैं ? जैसे पादरी साहेब ने कहा कि कुछ बातों में लाचार

है, वैसे ही अवतार लेने में भी लाचार है, क्योंकि सर्वव्यापक का आना—जाना

प्रकट करना सर्वथा असम्भव है । जब वह दुःख—नाश नहीं करता तो पादरी

साहेब के कहने से ही पादरी साहेब की बात कट जाती है । जो कि कहते

हैं कि अवतार लेकर मनुष्यों का दुःख काटता है । और जो कहा कि दुःख

क्यों देता है ? इस का उत्तर यह है कि वह न्यायाधीश है । जीवों के जैसे

पाप—पुण्य होते हैं, वैसा ही उन का फल देना अवश्य है क्योंकि वह सच्चा

न्यायकारी है । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

द्वैतवादी वे होते हैं जो कि दो पदार्थ मानते हैं । एक तो ईश्वर और

दूसरे ईश्वर से भिन्न यह कार्य जगत् । अद्वैतवादी वे होते हैं जो कि एक

ही पदार्थ ईश्वर को मानते हैं और कुछ नहीं । सो ज्ञात नहीं कि पण्डित

जी एक ही पदार्थ मानते हैं, वा दो । ईश्वर अनदेखा तो है परन्तु जब अपने

आप को प्रकट करना चाहता है तो प्रकट कर देता है । शारीरिक अर्थात्

शरीर में तो आत्मा से हम आप के शरीर को देखते हैं, आत्मा को नहीं ।

परन्तु उस प्रकार से होने से ईश्वर का हाल बहुत अधिक जानते हैं । क्योंकि

एक नमूना पवित्र और पूर्ण हमारी दृष्टि में होता है । इसलिए ईश्वर का अवतार

होता है । ईश्वर ने देख लिया कि मनुष्य के लिए उचित यही है, इसलिए

ऐसा ही हुआ और होता है ।

ईश्वर सर्वशक्तिमान् तो है परन्तु तब भी इसका अर्थ यह नहीं है कि

कोई बात उस के वश से बाहर नहीं । वह अधर्माचरण नहीं कर सकता।

झूठ नहीं बोल सकता । दो और दो को वह पांच नहीं मान सकता । इस

से यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु हो भी और न भी हो । अर्थात् एक

अर्थ से उस की शक्ति की भी सीमा है ।

मैंने यह कहा कि यदि मनुष्य को रोग नहीं है तो ईश्वर उसे सुधार

नहीं सकता । सुधार का सर्वोत्तम उपाय यही है कि देह धारण करे और एक

पूर्ण आदर्श मनुष्य के सामने प्रस्तुत करे । मनुष्य तो आदर्श को चाहता ही

है । संसार में सर्वश्रेष्ठ और पवित्र गुरु कोई नहीं है कि जिस ने कभी भी

पापाचरण न किया हो । कोई गुरु ऐसा नहीं है जो सब बातों में पूर्ण हो ।

केवल ईश्वर ही देह धारण करके मनुष्य के सामने ऐसा नमूना पेश कर सकता

है । जिस से ठीक—ठीक धर्म का मार्ग प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त हो सके और

वह हर बात में नेकी और पुण्य को जान सके । यह बहुत रहस्य की बात

है । कौन नहीं जानता कि मनुष्य अनुकरणप्रिय है । नमूने को देखकर उस

के अनुसार कार्य करता है । पाठशालाओं और सेनाओं में देखो और घर में

भी देखो, जब नमूना अच्छा है, गुरु पूर्ण है, तब उन्नति भी बहुत अच्छी होती

है । क्या यह बात उत्तम और रहस्यमयी नहीं है कि ईश्वर देह धारण करके

इन्सान के लिए एक पूर्ण और पर्याप्त नमूना दिखावे कि जिस में मनुष्य अपनी

मोक्ष—प्राप्ति में समर्थ हो सके ?

ईश्वर की इच्छा यूं है और यही मेरा भी अभिप्राय है कि खुला करके

कह देना कोई अच्छी बात नहीं है । उस में सावधानता होनी ही चाहिए ।

यदि ईश्वर ने अपनी इच्छा से ऐसा किया क्योंकि उस को यही उत्तम प्रतीत

हुआ तो फिर हम इस के विरुद्ध क्याें बोलें ?

अब शब्द—प्रमाण को लीजिये । इञ्जील में लिखा हैट्टआरम्भ में शब्द

था और शब्द खुदा के साथ था और शब्द खुदा था । और शब्द साकार हुआ।’

अर्थात् वही खुदा शरीर धारण करके प्रकट हुआ, यही लिखा है। और जिस

शास्त्रार्थ—बरेली 191

किताब में यह लिखा है, ऐसी उत्तम किताब है । और वह अपना प्रमाण कि

वह ईश्वर की ओर से है । और जो कुछ कि उस में लिखा है, वह बुद्धिपूर्वक,

तर्वQसंगत और प्रमाणयुक्त है । और यह कहा कि बहुत से लोग इस को

झूठ समझकर छोड़ देते हैं, जैसा कि वेद को । क्योंकि वह सर्वथा मिथ्या

है और उस के समर्थन में कोई भी युक्ति वा प्रमाण नहीं है ।

हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

अद्वैत विशेषण परमेश्वर का है, किसी दूसरे का नहीं । इस के कहने

से यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर एक है । जीव अनेक हैं और जगत् का

कारण अनेक प्रकार का है । और जो पादरी साहेब कहें कि ईश्वर के अतिरिक्त

दूसरा और कोई न था तो फिर जीव और यह जगत् कहां से आया ? जो

कहें कि ईश्वर से तो जीव ईश्वर हुआ । जो कहें कि कारण से तो पादरी

साहेब को भी कारण मानना पड़ेगा । और यदि जीव की उत्पत्ति मानी जाये,

तब तो उस का नाश भी अवश्य ही मानना पड़ेगा । यह बात कई बार चली,

परन्तु अभी तक ठीक—ठीक उत्तर नहीं दिया गया कि उस को देह धारण

करने की आवश्यकता ही क्या है ? और इस के विना ही वह अपना काम

क्यों नहीं कर सकता ? इस का कुछ जवाब नहीं हुआ । जब उस की शक्ति

की सीमा है तो फिर ईश्वर की भी सीमा क्यों नहीं है ? जो कहें ईश्वर की

भी सीमा है तो वह सर्वव्यापक नहीं । और यह बात पादरी साहेब के पहले

कथन के भी विरुद्ध होगी । जब परमेश्वर की सब बातों को नहीं जानते

तो फिर पादरी साहेब ने ऐसा क्यों कहा था कि ईश्वर अवतार लेता है ।

और वे अब इस बात में जिद क्यों करते हैं ? और जब अवतार लेने से पहले

उसे कोई जान ही नहीं सकता तो उसी ने अवतार लिया यह कहना भी व्यर्थ

ही है क्योंकि वही पुरुष या पादरी साहेब आज भी हैं, जो कि कल के शास्त्रार्थ

में थे । जब कि अवतार होने से पहले कभी देखा या जाना ही नहीं तो फिर

उसी ने अवतार लिया है, यह कहना भी तो अनुचित और अयुक्त ही है ।

क्या पादरी साहेब ने कभी इस बात पर विचार नहीं किया कि पृथिवी,

सूर्य, चन्द्र, मनुष्य शरीर आदि भी तो ईश्वरीय शक्ति के ही नमूने हैं । और

एक साढ़े तीन हाथ के शरीर में आकर, खा, पी, बढ़, घट कर मर जाना

भी क्या कोई बड़ा नमूना है ।

और जो इञ्जील के लेख की बात कही कि वह शब्द अवतार हुआ। यह

कथन सर्वथा मिथ्या है क्योंकि शब्द गुण होता है और वह द्रव्य कभी भी नहीं

हो सकता । ऐसी मिथ्या बात जिस इञ्जील में लिखी है, वह सत्य कभी नहीं

हो सकती और नहीं कभी उत्तम हो सकती है । पादरी साहेब की इञ्जील में

योहन्ना के स्वप्न के प्रकाशित वाक्य की कथा सर्वथा असम्भव है कि जो पोथी

के एक बन्धने के खोलने पर उस में से एक सवार घोड़े सहित निकला । क्या

ऐसा कभी हो सकता है ? ऐसी—ऐसी कई झूठ बातें हैं । क्या पादरी साहेब ने

ही कभी भी नहीं देखी होंगी और फिर भी ऐसी किताब के सत्य होने का दावा

करते हैं, सो जिद करने के सिवा और कुछ नहीं है ।

इसलिये पादरी साहेब और सब सज्जन पुरुषों को चाहिये कि

सबसर्वथा सत्य, ईश्वरकृत वेदों की शरण लेकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष

की सिद्धि अवश्य करें । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

योहन्ना के विषय में ट्टमकाशफात की पुस्तक’ में लिखा है । उस के विषय

में यदि पण्डित जी की बुद्धि ऐसी ही है तो मैं क्या उत्तर दे सकता हूं ? ईश्वर

ने अपनी सामर्थ्य से इस सम्पूर्ण सृष्टि को अभाव से भाव रूप में रचा है ।

उचित यही है कि वह जब भी चाहे इस का नाश कर दे । जब तक यह सृष्टि

स्थिर है, तब तक ईश्वर इस में सर्वव्यापक नहीं है । वह तो इस से पृथक

है । और मैंने बार—बार यह कहा है कि उस ने जो अवतार लिया, इस का कारण

था । सो आप फिर से पहले लेख को देख लीजिये ।

ईश्वर की शक्ति की सीमा यही है कि वह अपने विरुद्ध कुछ भी

नहीं कर सकता । हम दावा करते हैं कि हम सब के शरीर में भी उस का

प्रकाश होता है । और सब कामों के लिये उस ने एक पूर्ण नमूना भी हमें

दिया है । मनुष्य के लिए उस की महिमा चांद, सूर्य, सितारे से अधिक है।

शब्द का भाव यह है कि वह ईश्वर को प्रकाशित करने वाला हो।

जैसे कि शब्द ही मनुष्य के अर्थ को भी प्रकट करता है । उसी प्रकार मसीह

जैसे अवतार ईश्वर की महिमा और अर्थ को प्रकट करते हैं ।

अब देखिये कि लोग बाइबिल के विषय में कितने पुरुषार्थी और

सावधान हैं । और इस पुस्तक को कैसी दृढ़ता के साथ पकड़े हुए हैं । पच्चीस

सोसाइटियां हैं, जो कि इसकी छपाई में संलग्न हैं । दो सौ भाषाओं में इस

के अनुवाद हो चुके हैं । उदाहरण के रूप में दो सोसाइटियाें के कार्य को

लें। एक वर्ष में इंगलिस्तान में एक ने बाईस लाख, छियानवे हजार, एक सौ,

तीस प्रतियाँ छपवाईं । और बतलाइये । अमेरिका में एक सोसाइटी में सत्तर

बड़ी—बड़ी मशीनें छापने के लिये हैं । चार सौ कार्यकर्त्ता हैं । उस में बीस

हजार पांच सौ प्रतियां एक ही दिन में तैयार की जाती हैं । कौन कह सकता

है कि इस किताब को नहीं मानते । सो मैंने सिद्ध कर दिया कि ईश्वर की

देह धारण करने की पूर्ण सम्भावना है । ऐसा होना बुद्धि से परे की बात

नहीं अपितु यह युक्तिसंगत और उचित है । उस का बहुत आवश्यक कारण

भी मैंने बता दिया और इस पुस्तक का वचन सत्य प्रामाणिक होता है ।

हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

विषयईश्वर पाप को क्षमा भी करता है

(ता० २७ अगस्त, सन् १८७९ ई०)

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

मेरा यह दावा नहीं है कि ईश्वर दण्ड नहीं देता । दण्ड भी वह अवश्य

ही देता है । परन्तु मेरा निवेदन यह है कि वह समय—समय पर, जब भी

और जैसा भी उस को उचित प्रतीत होता है, मनुष्य के कल्याण के लिए

पाप को क्षमा कर सकता है । जब कोई ईश्वर है, वह सर्वगुण सम्पन्न है

और चेतन भी है और भी उस में अनेक प्रकार के गुण, कर्म और स्वभाव

विघमान हैं तो यह भी अवश्य ही समझना चाहिये कि वह हम को देखता

है । हमारे लिए चिन्तन करता है । हमारा कल्याण चाहता है और हम को

सुधारना चाहता है । सो यह दावा कोई अनुचित नहीं है ।

बहुत—सी बातों में हमारी ईश्वर से समानता है अर्थात् हम धर्म की

बातें जैसे कि न्याय और अन्याय इत्यादि जानते हैं । ईश्वर में अनेक प्रकार

की विशेषताएं हैं । जैसा कि न्याय, प्रेम, दया इत्यादि । सो ये मनुष्य में भी

पाई जाती हैं । जब हम इस बात पर विचार करें कि बहुत—सी बातों में हम

और ईश्वर एक ही हैं, तब हम ईश्वर की सत्ता को कुछ—कुछ जान सकते

हैं । हमें यह भी समझना चाहिये कि ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध ऐसा

है, जैसा कि हम आपस में रखते हैं अर्थात् ईश्वर हमारा शासक है। वह हम

पर शासन करता है । वह हमारा पिता है । उस ने हम को उत्पन्न किया

है । वही हमारा पालन और संरक्षण करता है ।

जब हम इन बातों पर विचार करते हैं, तब हम ईश्वर के विषय में

अधिकाधिक बोध प्राप्त करते हैं । और वेदों में तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों

में भी पिता तथा शासक आदि के रूप में ईश्वर का उल्लेख किया गया

है। अब विचारना चाहिये कि जब सभी धर्म—ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है तो

इसमें कुछ न कुछ बात हमारे समझने—समझाने की भी है । हमें यह समझना

चाहिये कि जिस प्रकार उस के साथ हमारा शासक वा पिता के रूप में सम्बन्ध

है, उसी प्रकार वह पिता और शासक के कर्तव्य कर्मों का पालन भी अवश्य

ही करता है । अब विचारिये कि पिता और शासक का काम क्या—क्या होता

है ? इस में कुछ भी सन्देह नहीं है कि ये दण्ड देने वाले भी होते ही हैं।

दण्ड देने का भी एक उत्तम उद्देश्य होता है और वह यह कि दण्ड देकर

अपराधी सन्तान वा प्रजा को सुधारा जाये । और इस प्रकार दूसरों को भी

शिक्षा मिले। हम और आप यह भी कहते ही हैं कि बदले की भावना से

दण्ड न दिया जावे । दण्ड उतना ही दिया जावे, जितना कि आवश्यक हो

और शिक्षादायक हो । फिर भी यदि पिता वा शासक चाहें तो क्षमा कर दें।

और इसीलिए क्षमा होती है । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

पादरी साहेब का पक्ष यह था कि ईश्वर पापों को क्षमा भी करता है।

क्षमा कर सकता है, ऐसा पक्ष नहीं । फिर पादरी साहेब ने दूसरी प्रकार से

क्यों कहा ? और यह कहा कि दण्ड भी अवश्य देता है । यह तो परस्पर

विरोधी कथन है। क्या आधा दण्ड देता ? और क्या आधा क्षमा कर देता

है ? या कुछ कम—अधिक करता है ? जैसे ईश्वर सब बातें जानता है, क्या

जीव लोग भी वैसे ही जानते हैं ? अथवा कम—अधिक जानते हैं । जैसे हमारे

बीच में न्यायाधीश न्यायकारी होता है और अन्यायकारी होता है, क्या ईश्वर

भी वैसा ही है ? अथवा ईश्वर केवल न्यायकारी है ? जो न्यायकारी है तो

फिर क्षमा करना कहां रहा ? क्योंकि न्याय उस का नाम है जिस ने जितना

जैसा काम किया उसको उतना वैसा ही फल देना ।

जो ईश्वर को थोड़ा बहुत कुछ न कुछ जानते हैं तो मैं पूछता हूं कि

ईश्वर की सब ही बातों में ऐसी रीति है, या कुछ कम—अधिक ? यह मैं

भी मानता हूं कि ईश्वर के साथ हमारा राजा और पिता का सा सम्बन्ध है।

परन्तु यह सम्बन्ध क्या अन्याय करने के लिए है ? ऐसा कभी नहीं हो सकता।

वेद आदि पुस्तकों में क्षमा करना कहीं नहीं लिखा है । ईश्वर के न्याय करने

का क्या अर्थ है ? न्यायाधीश सभा आदि के दण्ड और पुरस्कार आदि

सुधार के लिए होते हैं अथवा इन का कुछ और अर्थ है ? और जो क्षमा

करता है तो किस—किस काम पर क्षमा करता है और किस—किस पर नहीं?

जब क्षमा करता है तब तो ईश्वर पाप का बढ़ाने वाला होता है, क्योंकि वह

जीवों को पाप करने में उत्साहित करता है । जब ईश्वर सर्वज्ञ है तो उस

के न्याय आदि गुण और कर्म भी भूल और भ्रान्ति आदि सब दोषों से रहित

 

हैं । इसलिए जब ईश्वर अपने स्वभाव के विरुद्ध कोई कार्य कभी कर ही

नहीं सकता तो फिर न्याय के प्रतिकूल क्षमा वह कैसे कर सकता है ? और

ईश्वर जो दयालु है तो दया का भी वही अर्थ है, जो कि न्याय का है । क्षमा

करना दया नहीं है । जैसे कि एक डाकू पर कोई दया करे अर्थात् क्षमा करे

तो क्या वह दयालु गिना जा सकता है ? कभी नहीं ? क्योंकि हजारों जीवों

को उस ने दुःख दिया है । जब डाकू क्षमा कर दिया जावेगा, तब तो वह

बड़े साहस के साथ और भी खूब डाके मारेगा । इसलिए दया का मतलब

भी और ही है, जो पादरी साहेब जानते हैं, वह नहीं ।

हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

पण्डित जी जल्दी न करें । मेरा मतलब बेईमानी पर कमर बांध

ने का नहीं है । ईश्वर क्षमा करता है तो उस में सकता या नहीं सकता’

का उल्लेख आरम्भ में इसलिये किया गया है कि इस प्रकार की सम्भावना

प्रतीत होती है । निस्सन्देह आज का विषय तो यही है कि वह क्षमा करता

है । हम यह नहीं कह सकते कि वह कहां तक दण्ड देता है और कहां

तक क्षमा करता है । यह उस का काम है, हमारा नहीं । परन्तु जब वह

सर्वज्ञ है और हम लोगों के समान भूल भी कभी नहीं करता । हम लोग

तो अपने कामों में भूल किया ही करते हैं । ईश्वर अपनी अच्छी बातों में,

और उस की सभी बातें अच्छी हैं, भूल कभी नहीं करता, ईश्वर तो सब

कुछ जानता है । हम वास्तव में कुछ भी नहीं जानते । उस के क्षमा करने

में भी अवश्य ही कोई भेद है । क्योंकि क्षमा करना सदा ही एक सूक्ष्म विवेक

का कार्य होता है। ईसाई लोग दृढ़तापूर्वक कहा करते हैं कि वह विना किसी

सिफारिश के और विना किसी न्याय के क्षमा किया करता है । परन्तु जब

वह दयालु है और न्यायकारी भी है तो वह सर्वथा एक ही बात है । अर्थात्

दया और न्याय एक ही बात है ।

परन्तु जरा न्यायकारी बनकर सोचिए । दया में कुछ न कुछ मतलब

ऐसा भी जरूर होगा जो कि न्याय में नहीं है । वेद में यह जरूर लिखा है

कि ईश्वर पापों को क्षमा करता है ।

अब मैं यहां पर एक पुस्तक म्यूर साहेब की कि जिस में लिखा है

किट्टट्टअदिति पाप को क्षमा करती है’’ का प्रमाण देता हूं । पण्डित जी कहेंगे

कि यह अर्थ गलत है । अब अंग्रेजी जानने वालों का यह काम है कि वे

म्यूर साहेब की पुस्तक देखकर न्याय करें । मैं यह पूछना चाहता हूं कि क्या

क्षमा शब्द का विचार वेद वालों को कभी भी नहीं सूझा । क्या वे क्षमा का

अर्थ नहीं जानते थे । और क्या क्षमा करना भूल है ?

मैं यह सिद्ध करूँगा कि समय—समय पर क्षमा करना बहुत ही श्रेष्ठ

कार्य है । यदि इसे संसार में से हटा दिया जाये तो संसार की अवस्था बहुत

ही बिगड़ जायेगी । और यह तो अनुमान से प्रत्येक व्यक्ति जान सकता है

कि क्षमा से संसार में बहुत अच्छे—अच्छे परिणाम होते हैं । कौन जानता है

कि माता—पिता के बीच में और बेटा—बेटी के बीच में क्या वास्ता है और

परस्पर एक का दूसरे से तथा मित्र का मित्र से क्या सम्बन्ध है ? यदि इन

सब के बीच में क्षमा करने का भाव कभी भी, सर्वथा न आवे तो ये सम्बन्ध

जरा भी न चलें ।

और यह कहना कि क्षमा करने से पाप बढ़ जाता है तो यह ठीक

है । यदि क्षमा सदा ही क्षमा हो, और वह कभी किसी भी रूप में दण्ड

न हो । और यह भी ठीक है कि कुछ अवस्था ऐसी भी होती हैं कि जिन

में किसी को कभी भी क्षमा नहीं करना चाहिये जैसा कि डाकुओं के विषय

में । संसार में सभी बातें इस प्रकार की नहीं हैं कि हम क्षमा को संसार

से सदा के लिए सर्वथा दूर कर दें । जो अनादि और न्यायकारी है, वह भी

जानता है कि कब और किस पर क्षमा और दया आदि का व्यवहार किस

प्रकार करना चाहिये । आगे चलकर मैं यह भी बताउंQगा कि क्षमा करने से

पापवासना का अन्त हो जाता है और साथ ही यह भी कि दण्ड देने से पाप

की प्रवृत्ति बढ़ जाती है । और इस प्रकार मनुष्य और भी अधिक निडर तथा

बड़ा शैतान बन जाता है । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

जो शास्त्रार्थ का विषय है और जिस को सिद्ध करने की प्रतिज्ञा प्रथम

पादरी साहेब ने की थी, उस से दूसरा कथन न्याय—शास्त्र के अनुसार पराजय

का सूचक है । इस प्रकार की पराजय को दार्शनिक भाषा में प्रतिज्ञान्तर कहा

जाता है । पादरी साहेब ने कहा कि असल विषय वही है कि ईश्वर पापों

को क्षमा भी करता है । इस से यह सिद्ध हुआ कि ऐसे अवसर पर पादरी

साहेब को अपना पक्ष सिद्ध करने के लिए विशेष बल देना चाहिये था ।

जब पूर्ण निश्चय से नहीं जानते तो फिर प्रतिपादन या समर्थन कैसा ? मैं

पूछता हूं कि जितने अंश में क्षमा करना पादरी साहेब मानते हैं, उस को भी

ठीक—ठीक जानते हैं या नहीं ? क्या आपके मत में ईश्वर डाकू आदि को

क्षमा नहीं करता? आप डाकू आदि को क्षमा करने का उपदेश नहीं करते?

और यदि ईश्वर किसी के वसीले से क्षमा करता है तब तो वह पराधीन ठहरता

है। और यह भी बतायें कि ईश्वर किस के वसीले से क्षमा करता है ? वह

वसीला आप का है या किसी दूसरे का । यदि कहो कि अपने आप का

वसीला है तो झूठ है । और यदि कहो कि किसी दूसरे का है तो फिर ईश्वर

स्वतन्त्र नहीं रहा ।

और जो पादरी साहेब ने कहा कि अदिति माता क्षमा करती है, वेद

में लिखा है तो मैं पूछता हूं कि अदिति किस का नाम है ? और क्षमा करना

तो चारों वेदों में कहीं भी नहीं लिखा । जब क्षमा करना है ही व्यर्थ तो फिर

ऐसी मिथ्या बातों का उपदेश वेदों में क्यों कर हो सकता है ?

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अंग्रेजी जानने वाले वेदों के

सिद्धान्तों का निर्णय करें । यह बात तो ऐसी ही है, जैसे कि कोई संस्कृत

पढ़कर, अंग्रेजी के सिद्धान्तों का निर्णय करे ।

और जो माता—पिता क्षमा करते हैं, ऐसा पादरी साहेब का कथन है

सो वे भी पूर्णतया क्षमा करते हैं या कुछ—कुछ । जो कहें कि कुछ—कुछ,

तब भी ठीक नहीं है । क्योंकि पाप करने से माता—पिता अपने अन्तरात्मा

में अपने सन्तान के प्रति प्रसन्न होते हैं ? यदि हां तो फिर वे बालकों की

ताड़ना क्यों करते हैं ? यही तो दण्ड है । जब बालक कुछ समर्थ हो जाते

हैं और पांच वर्ष से बड़े हो जाते हैं, तब माता—पिता बालकों के साधारण

पाप वा अपराध भी क्षमा नहीं किया करते । और जो क्षमा करते हैं तो कभी—

कभी माता—पिता और सन्तान में वैर विरोध क्यों होता है ? इस से पादरी

साहेब का दृष्टान्त गलत ठहरता है । हां यदि सब माता—पिता क्षमा करते,

तब तो पादरी साहेब का दृष्टान्त भी ठीक होता और कथन भी । आपके

मत के अनुसार शैतान ने बहुत से अपराध किये हैं । परन्तु ईश्वर ने उस

को आज तक कोई दण्ड दिया कि नहीं ? और भविष्य में भी उस को कोई

दण्ड देगा या नहीं । जब शैतान को बनाया तब तो वह पवित्र था । फिर

जब उस ने पाप किया ईश्वर ने उसे क्षमा क्यों नहीं किया ? और आगे भी

क्षमा करेगा या नहीं । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

हमारे सुयोग्य विद्वान् और प्रिय मित्र स्वामी दयानन्द जी घबरायें नहीं। मैं

विषय से बचकर न चलूंगा । परन्तु यह मुझे अधिकार है कि मैं जिस प्रकार

भी उचित समझूं, उसी प्रकार अपनी युक्ति का आधार स्थिर करूँ । पहले मैं

बुद्धि से यह सिद्ध कर रहा हूं कि क्षमा की सम्भावना है । फिर आगे चलकर

देख लेना, मैं शास्त्रीय प्रमाणों से भी यह सिद्ध करूँगा कि ईश्वर पाप क्षमा करता

है । अर्थात् आज का विषय कि ईश्वर पाप क्षमा भी करता है, वह बुद्धि पूर्वक

है कि नहीं ? और फिर इस का विशेष कथन न करूँगा ।

मेरी युक्ति तीन प्रकार की हैंबुद्धिपूर्वक हैं, शास्त्रसिद्ध हैं और अनुभव

से भी पुष्ट हैं । वह डाकू का उदाहरण इस प्रकार से है कि अनुशासन को

स्थिर रखने के लिए डाकू को क्षमा करना अच्छा नहीं है । परन्तु कौन नहीं

जानता कि कभी—कभी डाकुओं को क्षमा करने के भी बड़े उत्तम—उत्तम

परिणाम निकलते हैं । एक उदाहरण है

योहन्ना रसूल ने एक आदमी को ईसाई धर्म में दीक्षित किया । वह

डाकू था । बाद में वह धर्म से बहिष्कृत किया गया और जंगल में भाग गया

तथा बड़े—बड़े डाकुओं का काम करने लगा । योहन्ना उस की खोज करने

जंगल में गया । पहले तो डाकू ने उसे मार डालना चाहा, परन्तु योहन्ना बूढ़ा

था । वह उस से न डरा और पास जाकर बोला कि मैं तो बूढ़ा आदमी हूं,

मुझे क्यों मारते हो ? डाकू का हृदय—परिवर्तन हो गया । उस ने डाकुओं

का साथ छोड़ दिया और योहन्ना के साथ चला आया। फिर वही डाकू बहुत

उत्साही प्रचारक और साधु पुरुष बन गया । उसने फिर कभी कोई अपराध

नहीं किया और अपना जीवन बहुत पवित्रता से व्यतीत किया । डाकुओं आदि

के विषय में जब कि मनुष्य भी क्षमा—पूर्ण व्यवहार करते ही हैं, तब यह

भी सम्भावना है कि ईश्वर भी क्षमा कर देता है । और यह पूर्णतया सम्भव

है । ईश्वर तो मनोगत बातों को भी जानने वाला है ।

ईसाइयों का सिद्धान्त यह है कि यह वसीला, जिस से क्षमा प्राप्त होती

है, निष्कलट अवतार ईसा मसीह का इस संसार में पैदा होना है ।

मैं पण्डित जी से पूछता हूं कि अदिति का क्या अर्थ है ? म्यूर साहेब

की पुस्तक का जो जिकर मैंने किया है, सो स्वामी जी जल्दी में किसी बात

को उलटी न समझें । मैं कोई मूर्ख नहीं हूं । म्यूर साहेब की पुस्तक अंग्रेजी

में है परन्तु उस में साथ ही संस्कृत श्लोक भी वेद के भरे हुए हैं । अंग्रेजी

जानने वाले सज्जन म्यूर साहेब के प्रमाणों और युक्तियों को अंग्रेजी में भी

देख सकते हैं और अपनी संस्कृत में भी समझ सकते हैं ।

शैतान का जो हाल है, सो हम नहीं जानते । शायद उस को बीस बार

क्षमा मिल चुकी है और अब उसे क्षमा मिलने की कोई आशा नहीं है। फिर

भी कौन जानता है। हां, इतना हम जानते हैं कि आज शैतान का विषय नहीं

है । मैं पण्डित जी से यह पूछता हूं कि क्या क्षमा कभी भी नहीं होनी चाहिये

? क्या मनुष्य के हृदय में क्षमा करने वा क्षमा चाहने का कुछ भी विचार

कभी नहीं होता ? क्या क्षमा शब्द का संसार में कुछ भी काम नहीं है ?

पण्डित जी इस बात पर विचार करें ।

हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

मैं कब घबराया हूं जो आपने कहा कि घबरायें नहीं । जब आप ने

पहले कहा कि ईश्वर पापों को माफ भी करता है और अब कहा कि कर

सकता है तो क्या ये दोनों परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं और क्या इस प्रकार

आप प्रतिज्ञा हानि नहीं कर रहे ? तर्वQशास्त्र में प्रमाण और अनुभव आप्त

पुरुषों का ही सत्य होता है । प्रत्येक जनसाधारण का नहीं । जब डाकू

का कहीं—कहीं क्षमा करना अच्छा है तो आजकल की सरकार को भी चाहिये

कि किसी अवसर पर डाकुओं को क्षमा करे ।

योहन्ना के क्षमा करने से क्या प्रत्येक अपराधी क्षमा के योग्य हुआ।

उस ने भयवश या किसी स्वार्थवश क्षमा किया होगा तो क्या उस ने यह

कोई अच्छा काम किया ? और जब तक उस ने डाका मारना न छोड़ा था,

तब तक अपने साथ क्यों न रखा ? और जो कहो कि क्षमा करने से लिया

तो यह बात सत्य नहीं है क्योंकि जब उस ने डाके का काम छोड़ दिया

और अच्छे काम करके अच्छा आदमी बना, तब साथ रखा । भले और बुरे

दोनों प्रकार के कामों का फल ईश्वर यथायोग्य देता है । जब पादरी साहेब

का सिद्धान्त यह है कि ईश्वर पापों को क्षमा भी करता है, फिर उसके विरुद्ध

पादरी साहेब ने कथन किया कि जब हम कभी क्षमा करते हैं तो ईश्वर क्षमा

नहीं करता । और जब हम क्षमा नहीं करते तो ईश्वर क्षमा करता है ।

पादरी साहेब ने मुझ से अदिति का अर्थ पूछा है । सो पृथिवी, अन्तरिक्ष,

माता, पिता और ईश्वर आदि अर्थ हैं । जैसे किसी हल जोतने वाले के सामने

या विघा वाले के सामने रत्नों की या और—और विघाओं की बात करें तो

क्या वह व्यर्थ नहीं है ? जो शैतान का पाप क्षमा न किया जायेगा, तब तो

शैतान के विषय में आपका सिद्धान्त अटक गया । क्षमा शब्द किसी और

मुहावरे के लिए है । दण्ड तो दिया जाता है, परन्तु समर्थ को जैसा दण्ड

दिया जाता है, वैसा असमर्थ को नहीं । जैसे कि पागलों को पागलखाने में

भेजा जाता है । यदि ईश्वर ईसा के वसीले से क्षमा करता है तो क्या वह

खुशामदी नहीं है ? क्या आप ईश्वर के सामने भी वकील आदि की आवश्यकता

समझते हैं ? क्या आप उसे सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् नहीं मानते । और

यदि आप ईसा के वसीले से पापों का क्षमा होना मानते हैं तो ईसा ने जो

पाप किये, उन को क्षमा करने का वसीला क्या है ?

हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

अब यहां पर कुछ विचार करना उचित है । क्षमा करना और बात है

तथा दिल को पवित्र करना और बात है । इसलिए मनुष्य की क्षमा और ईश्वर

की क्षमा में बहुत भेद है । जब मनुष्य तोबा करे और उस नियम पर चले जो

कि उस के लिये नियत और विहित है, तब ईश्वर उस को क्षमा कर देता

है । और उसके हृदय को भी पवित्र कर देता है । और मेरा भाव यह है कि

ईश्वर ने किसी को क्षमा किया और उस के हृदय को भी पवित्र किया, इस

की पूर्ण सम्भावना है, परन्तु फिर भी मनुष्य की स्वतन्त्रता और धर्मशास्त्र के

कारण नियम के अनुसार वह क्षमा नहीं होता । यह मेरा अभिप्राय है ।

और क्षमा का लाभ इस में प्रतीत होता है कि बीसियों विचारवान्

युक्ति—तर्वQ—विशेषज्ञ भली प्रकार जानते हैं कि क्षमा का परिणाम बहुत उत्तम

निकलता है । कोई हठ वा दुराग्रहवश इस सिद्धान्त से इन्कार करे तो करे।

पण्डित जी का सिद्धान्त यह है कि ईश्वर किसी को भी विना दण्ड दिये

छोड़ता नहीं परन्तु योहन्ना ने उस डाकू को दण्ड नहीं दिलाया, क्षमा कर

दिया । और हमारा यह सिद्धान्त है कि ईश्वर जब भी उसे उचित प्रतीत होता

है, क्षमा कर देता है । जैसा कि धर्म—शास्त्र में लिखा है ।

पण्डित जी ने अदिति के अर्थ परमेश्वर भी लिखे हैं । और म्यूर साहेब

का दावा कि अदिति वेद के प्रमाण से पापों को क्षमा भी कर देती है । यदि

शैतान अभी तक माफ नहीं किया गया तो यह किसी प्रकार भी मेरे दावे

के विरुद्ध नहीं है क्याेंकि आज के विषय में एक शब्द ट्टट्टभी’’ मौजूद है

और यह ट्टट्टभी’’ अवस्था और परिस्थिति के अनुसार कभी दण्ड और कभी

क्षमा इन दोनों को बताता है । पण्डित जी का दावा है कि ईश्वर कभी भी

क्षमा नहीं करता, अतः ट्टट्टक्षमा’’ शब्द को संसार से हटा दो । इस के प्रतिकूल

यदि ईश्वर कभी किसी एक पाप को क्षमा भी करता है तो केवल उसी से

मेरा पक्ष सिद्ध हो जाता है । मेरा पक्ष यह नहीं है कि ईश्वर क्षमा ही करता

है अपितु यह मेरा पक्ष है कि ईश्वर क्षमा भी करता है । इस ट्टट्टभी’’ पर

विशेष ध्यान दीजिये ।

ईसा के वसीले का विषय आज नहीं है । इसलिये इस विषय में मैं

आज कुछ नहीं कहता । हमारे लिये आज यह जान लेना ही बहुत है कि

किस वसीले से पाप क्षमा होता है । उदाहरण कि लिये देखिये, दवाई से

दर्द हट जाता है । हम दवाई के विषय में विशेष कुछ नहीं जानते, परन्तु

न जानने से क्या भेद पड़ता है ? दर्द तो दूर हो ही जाता है । इसी प्रकार

क्षमा होने की भी एक शर्त तो है ।

अब शास्त्रीय प्रमाण आरम्भ होता है । इसमें मैं अधिक कुछ नहीं

लिखता। जो लोग इस विषय में कुछ विशेष जानना चाहें, और प्रमाण पूछें,

वे कल की लिखित पर विचार करें तथा तौरेत में, खरूज की किताब अध्याय

चौंतीस आयत आठ और गिनती की किताब अध्याय चौदह आयत अट्ठारह

को पढ़ें एवं विचार करें । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

क्षमा करना पवित्र होना है या नहीं ? क्या क्षमा करना पवित्र होने के

लिए है ? जो कहें कि पवित्र होने के लिए है तो ठीक नहीं, क्योंकि क्षमा

करने से पाप की निवृत्ति संसार में देखने में नहीं आती । और जो अशुद्ध

होने के लिये क्षमा होना कहा जाये तब तो क्षमा करना ही सर्वथा व्यर्थ हो

जाये । जब हमारे क्षमा करने और ईश्वर के क्षमा करने में भेद है तो आपने

पहले क्यों कहा था कि हम भी दयालु हैं और ईश्वर तुल्य हैं । और ईश्वर

के सामने क्षमा कराने वाला योहन्ना मौजूद है तब तो ईश्वर भी खुशामद को

पसन्द करने वाला तथा बेसमझ सिद्ध होता है । क्या योहन्ना मनुष्य नहीं था

कि जिस ने क्षमा किया ? क्या योहन्ना कोई राजा था । वह राजा या ईश्वर

नहीं था, यह मैं जानता हूं ।

न्याय दण्ड देने से छोड़ता नहीं है और छोड़ता भी है । यह बात परस्पर

विरुद्ध है । जो पादरी साहेब ने यहां मनुष्यों के राज के विषय में यह कहा

कि कानून की पाबन्दी करनी आवश्यक है, अतः डाकुओं को क्षमा नहीं

किया जा सकता तो मैं पूछता हूं कि क्या ईश्वर के घर में कानून की पाबन्दी

नहीं है ? क्या कोई कह सकता है कि ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है ? यदि नहीं

तो फिर योहन्ना के कहने, फुसलाने और खुशामद करने से वह क्षमा करने

को राजी क्यों हो गया ? ऐसी बातों से तो ईश्वर की सर्वज्ञता नष्ट होती है।

और जो पादरी साहेब ने कहा कि ईश्वर कभी दण्ड देता है और कभी

क्षमा भी करता है । यह बात ऐसी ही मिथ्या है, जैसे कि अग्नि कभी गर्म

होती है और कभी ठण्डी हो जाती है । और जो यह बात कही कि आज

ईसा मसीह का विषय नहीं है । सो आपने ही आज ईसा का विषय बीच

में छेड़ा है । क्योंकि आप ने कहा कि ईश्वर ईसा के वसीले से पापों को

क्षमा करता है । यहां मैं यह पूछता हूं कि ईसा जीव था या ईश्वर ? जो

कहें कि जीव था तो सभी आदमी जीव हैं । सभी ईश्वर के सामने क्षमा

कराने वाले हुए । फिर आप एकमात्र ईसा का नाम ही क्यों लेते हैं । और

जो कहो कि ईसा ईश्वर था तो अपने आप ही वह वसीला अथवा साक्षी

कभी नहीं बन सकता । जो कहें कि उस में जीव आत्मा और परमात्मा दोनों

थे तो दोनों के क्या—क्या काम थे । और दोनों साथ—साथ थे या पृथक —पृथक ?

जो कहें कि पृथक  थे तो व्याप्य—व्यापकता न रही । जो कहें कि

व्याप्य—व्यापकता है तो ईसा में और इन सब जीवों में क्या भेद है ? जो

कहें कि विघा पढ़े थे । सो भी ठीक नहीं । क्योंकि इञ्जील के लेख से

मालूम होता है कि वह विद्वान् नहीं था परन्तु एक साधु पुरुष था ।

जो लोग ईसा को मानते हैं, उनके सिद्धान्तानुसार जब यहूदियों ने ईसा

को फांसी पर चढ़ाया तो उस ने ईश्वर से प्रार्थना की किहे ईश्वर ! तूने

मुझे क्यों छोड़ दिया ? ऐसी बातों से उस में केवल साधारण जीव ही गति

करता था, ईश्वर नहीं । किन्तु ईश्वर तो जैसे सब में व्यापक है वैसे ही उस

में था। जो कहें कि उस ने मुरदों को जीवित किया, अन्धों को आंखें दीं

और कोढि़यों को चंगा किया, भूत निकाले, इसलिए वह ईश्वर था । यहां

मैं कहता हूं कि ये बातें प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों और सृष्टिक्रम आदि से विरुद्ध

होने से विद्वानों के मानने योग्य न कभी थीं, न हैं और न कभी होंगी । हां,

ये बातें पौराणिकों के अनुसार हैं ।

पक्षी बोला, पशु, हाथी आदि आदमी की बोली में बोले । जैसा कि तौरेत

में लिखा है कि गदहे आदमी की बोली बोले । क्या इन बातों को कोई विद्वान्

मान सकता है ? अथवा किसी विद्वान् से इन बातों को मनवा सकता है ?

और जो यह कहा कि दवा खाने से रोग छूट जाते हैं, वैसा ही यह

पापों को क्षमा करना भी है तो क्या दवा का नियम से सेवन करना, परहेज

करना, वैघ के कहने के अनुसार चलना, अपनी मर्जी से न चलना, ये सब

दण्ड नहीं हैं ?

अब तीन दिन से मुझ से और पादरी साहेब से जो वार्तालाप हुआ है,

उस के विषय में मैं अपनी बुद्धि के अनुसार यह समझता हूं कि मैंने पुनर्जन्म

का सिद्धान्त सिद्ध कर दिया। पादरी साहेब उस का खण्डन नहीं कर सके।

और पादरी साहेब अपने सिद्धान्तों का मण्डन करने में तथा उस के विषय

में मेरे प्रश्नों के युक्ति और प्रमाण से उत्तर देने में भी समर्थ नहीं हुए ।

हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती जी

पादरी टी०जी० स्काट साहेब

अब विचार करने वाले भाई विचार करें, क्योंकि इस लिखाई के बीच

में शास्त्रार्थ के नियमों के विरुद्ध बहुत सी बातें कही गई हैं और वे लिखी

नहीं गईं । इस का परिणाम वही हुआ है कि जिस के ऊपर झगड़ा हुआ

अर्थात् केवल अर्थ मिलाने के लिए मैं एक वाक्य सुनाना चाहता था । परन्तु

 

मैंने यह आवश्यक न समझा कि लिखने वाले से उसे लिखने के लिए भी

कहूं । अब मैं केवल उस प्रमाण का ही उल्लेख करता हूं । भाषा के शब्दों

का विचार मैं न करूँगा । जो चाहें वे पुस्तक में स्थल को निकाल कर देख

लें । हां, यह मैं लिखवा दूंगा कि मैं प्रमाण किस उद्देश्य से देता हूं । पण्डित

जी का यह कहना कि मेरी दलील पक्की नहीं है, और मैंने यूं सिद्ध किया

है, इत्यादि । इसमें कुछ भी सार नहीं है । मैं भी इस प्रकार कह सकता

हूं । अब यह सुनने वालों का काम है कि वे विचार करके, स्वयमेव निर्णय

करें । और यह भी स्मरण रखना चाहिए कि मैं यही नहीं चाहता कि इस

विषय में किसी प्रकार का पक्षपात किया जाये ।

पण्डित जी ने इस बात का कुछ उत्तर नहीं दिया कि ट्टट्टक्षमा’’ शब्द

को संसार से बहिष्कृत क्यों नहीं कर दिया जाता । यह एक व्यर्थ और

हानिकारक शब्द है । इस से सदा सब की हानि ही होती है, यदि पण्डित

जी के कथनानुसार यही बात है तो बहिष्कार जरूरी है । मैं तो निस्सन्देह

यह कहता हूं कि क्षमा करने से भगवान् की महिमा का प्रकाश होता है।

ईश्वर की बड़ाई इसी में है कि वह मनुष्य को क्षमा करे क्योंकि मैंने कहा

कि वह सब गुप्त भेदों को भी यथावत् जानता है । और क्षमा करने के देश,

काल तथा पात्र को भी भली प्रकार जानता है । और क्षमा करने के कारणों

को भी पूर्णतया जानता है । ईश्वर के घर में न तो कुछ कमी है और न

ही किसी प्रकार की भूल या भ्रान्ति की कोई सम्भावना है । ये सब कमियां

और त्रुटियां इस संसार में ही हैं ।

देखो, संसार में कितना पाप, अन्याय, घमण्ड और रक्तपात तथा अनेक—

विध अनाचार दृष्टिगोचर हो रहा है । पण्डित जी इसे स्वीकार नहीं करेंगे,

परन्तु प्रत्यक्ष ही संसार में भारी कमी और त्रुटि देखने में आ रही है । जैसा

कि अंग्रेजी सरकार ने इस का यथोचित प्रबन्ध किया है, ईश्वर भी इस का

प्रबन्ध करेगा ।

मैं निःसन्देह मसीह के विषय में कोई वार्ता न चलाउंQगा । मैं केवल

यह कहना चाहता हूं कि इस पवित्र धर्म—ग्रन्थ में जिस को क्षमा करने का

उल्लेख है, वह उसी वसीले से है । यह दर्द का जिक्र तो है परन्तु दर्द का

विवरण यह नहीं है कि कहां—कहां, कैसे—कैसे है ? जब कभी इस विषय

पर वार्ता चलेगी, तब आप इसे यथार्थ रूप में देख लेंगे । युक्ति और प्रमाण

के आधार पर मेरा निवेदन यही है कि क्षमा होती है ।

और तोबा के सिद्धान्त से भी यही प्रमाणित होता है कि क्षमा होती

है । उपाय को खूब जानना और ईश्वरीय पुस्तक के विषय में इस प्रकार

से हंसी—ठट्टा करना यदि पण्डित जी को उचित प्रतीत होता है और वे प्रत्येक

बात को उलटे रूप में ही समझना चाहते हैं तो वे जानें । वेद की अनेकानेक

बातें हैं परन्तु यहां उनके विषय में मैं विशेष कुछ कहना नहीं चाहता । अब

आप मेरे इन उत्तरों को कृपया देख लीजिये

गिनती की पुस्तक अध्याय १४ आयत १८ का अर्थ इस प्रकार है कि

ईश्वर पापों को क्षमा करता है ।

लूका की इञ्जील अध्याय ९ आयत ४ तथा अध्याय १५ और आयत

१०, इसी प्रकार योहन्ना का पहला पत्र अध्याय १ आयत ९ इन का अर्थ

यह है कि पापों को क्षमा किया जाता है । फिर मसीह ने अपने चेलों को

समझाया कि अपनी प्रार्थना में इस प्रकार से बोलोट्टट्टहे ईश्वर हमारे पापों

को क्षमा कर ।।’’

अब अनुभवसिद्ध प्रमाण पर भी विचार कीजिए। अनुभव के आधार

पर सत्य को जानना बहुत बड़ी बात है और अपना अनुभव सत्यासत्य का

निर्णय करने की सब से बड़ी कसौटी है । मनुष्य कह सकता है कि मेरा

पाप क्षमा किया जाये और इस के साथ ही ऐसा कथन निराधार है क्योंकि

जैसे पण्डित जी ने स्वयं भी एक उदाहरण में बताया है कि प्रत्येक पापी

को दण्ड अवश्य ही मिलेगा । वह पाप भी है, फिर जब तोबा—तोबा कहा

तब भी वही पाप मौजूद है । फिर खुदा के बेटे का नाम लिया तब भी पाप

वर्तमान है । मैं यह मान लेता हूं कि मनुष्य मिथ्या—कथन करें ।

कल्पना करो कि वे सच्ची तोबा करके सन्मार्ग पर आ जावेंगे और

प्रत्यक्ष देख भी लें कि अब वह पहले जैसी बात नहीं है । अब मन में सन्तोष

है और शान्ति है । प्रकाश ही प्रकाश है । न कोई सन्देह है, न चिन्ता है

और न ही कोई आशटा है । अब देख लीजिये कि ऐसे हजारों आदमी संसार

में हैं कि जिन का यही अनुभव है और उन्होंने अपने अनुभव से यह भली

प्रकार जान लिया है कि ईश्वर ने मेरे पापों को क्षमा कर दिया है । वे अब

पूर्णतया सन्तुष्ट हैं । उनके हृदय पर न तो पाप की छाप शेष है और न ही

पाप का कोई भार है । पापाचरण की किसी प्रकार की इच्छा वा कल्पना

भी नहीं है । एक क्षणमात्र में हृदय—परिवर्तन हो गया है ।

मेरी ओर से इञ्जील के अनुसार प्रमाण मिल चुका है । यह कहना

बहुत ही आसान है कि यह मिथ्या है ऐसा है । और ऐसा नहीं, परन्तु जानने

वाले जानते हैं । जिस का दर्द सर्वथा चला गया है, वह जानता है, परन्तु

मेरे धर्म के मानने वाले इकतालीस करोड़ ईसाई संसार में हैं। उन में से बहुत

से तो झूठे ही हैं, यह मैं स्वीकार करता हूं, उन का कथन भी झूठ ही है।

परन्तु सच्चे आदमी भी बहुत हैं और उन का कथन भी पूर्णतया यथार्थ

है, सत्य है । उन की जीवनचर्या से यह भली भांति प्रमाणित हो जाता है

कि उन के सब पाप सर्वथा लुप्त हो चुके हैं । उन के पापों को क्षमा किया

गया है । हां इस को जानने और समझने के लिए अपना अनुभव होना भी

आवश्यक है । यह कार्य अभ्यास से होगा ।

मैं फिर कहता हूं कि वह अपने अनुभव का प्रमाण, सब से बढ़कर

और पक्का प्रमाण है । युक्ति और तर्वQ की पुष्टि से भी बढ़कर यह पुष्टि

है कि जिस को अनुभव के आधार पर अपना अन्तरात्मा भी पुष्ट करता है।

बात यह नहीं कि हम केवल मौखिक कथनमात्र ही करते हैं, ऐसा कथन

तो मिथ्या भी हो सकता है । परन्तु जिस के पाप तोबा करने के बाद अपना

अस्तित्व सर्वथा खो चुके हैं कि वह नहीं जानता कि जैसे कि कोई पिता

अपने पुत्र से क्षमा का वचन कहे तो क्या वह पुत्र यह नहीं समझता कि

पिता ने उसे क्षमा कर दिया है और अब चिन्ताओं की कोई आवश्यकता नहीं

है । मानव—हृदय की भी इसी प्रकार अवस्था है ।

मैंने तर्वQ, युक्तियों और शास्त्रीय प्रमाणों के द्वारा तथा मनुष्यों के अपने

प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर, यह सिद्ध कर दिया है कि ईश्वर पापों को

क्षमा करता है । हस्ताक्षर टी०जी० स्काट साहेब

(लेखराम पृष्ठ ४४९—४७०)

(313) शंका :- सत्यासत्यविवेक की भूमिका

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

सत्यासत्यविवेक की भूमिका

यह शास्त्रार्थ श्री गोविन्दराम हासानन्द नई सड़क दिल्ली ने पं० लेखराम

कृत महर्षि जीवनचरित्र से भाषा में अनुवाद कराके दयानन्द ग्रन्थसंग्रह में छापा

था । उसी के अनुसार यह छापा गया है । इस शास्त्रार्थ सम्बन्धी उस के

सम्पादकीय में से निम्न लेख भी उपयोगी समझकर नीचे दिया जाता है ।

महर्षि दयानन्द सरस्वती और पादरी टी०जी० स्काट साहेब के मध्य

तीन दिन तक बरेली नगरी में जो लिखित शास्त्रार्थ हुआ था, उस का विवरण

धर्मवीर श्री पण्डित लेखराम जी आर्य मुसाफिर कृत महर्षि के बृहद् उर्दू

जीवनचरित्र में, पृष्ठ ४४१ से ४६३ तक मुद्रित हुआ है । महर्षि दयानन्द १४

अगस्त, सन् १८७९ ई० तदनुसार भाद्रपद कृष्णा १२, संवत् १९३६ वि० को

बरेली पधारे थे और बेगम बाग में श्री लाला लक्ष्मीनारायण जी खजांची की

कोठी में उन्होंने निवास किया था ।

प्रथम कई दिन तक महर्षि के उपदेश होते रहे, जिन में जनता बहुत

अधिक संख्या में उपस्थित होती थी । नगर के बड़े राज्याधिकारी कलक्टर

आदि तथा अंग्रेज एवं पादरी आदि और नगर के प्रतिष्ठित सज्जन भी बड़े

प्रेम और उत्साह से उपस्थित होते थे । इस प्रकार कई दिन तक बड़ा आनन्द

रहा और जनता उपदेशामृत पान करके लाभ उठाती रही ।

उन दिनों महर्षि के पूर्व परिचित और भक्त सुप्रसिद्ध पादरी टी०जी०

स्काट साहेब का निवास भी बरेली में ही था। महर्षि के व्याख्यानों में

स्काटसाहेब भी बड़े उत्साह से पधारा करते थे । महर्षि के जीवनचरित्र के

प्रसंगों में स्काट साहेब का उल्लेख पाया जाता है । मेला चांदापुर में भी श्री

स्काट महोदय ने ईसाई मत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था । ये पादरी

साहेब अमेरिका के रहने वाले थे और ईसाई मत का प्रचार करने के लिए

भारत में पधारे थे । ये ईसाइयों के प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय के अनुयायी, सुयोग्य

विद्वान्, मधुरभाषी और व्यवहारकुशल विद्वान् थे । महर्षि के ये बहुत प्रेमी

थे, और महर्षि ने तो इन का नाम ही भक्त स्काट रख दिया था ।

कुछ लोगों ने विचार किया कि महर्षि दयानन्द और पादरी स्काट साहेब

का परस्पर शास्त्रार्थ कराया जाये । महर्षि दयानन्द और पादरी साहेब ने भी

इस प्रस्ताव को उत्तम समझा और सहर्ष स्वीकार कर लिया । तदनुसार

आवश्यक नियम आदि निर्धारित किये गये और तीन दिन तक लिखित रूप

में यह शास्त्रार्थ आनन्दपूर्वक होता रहा । समाप्ति के कुछ ही दिन पश्चात्

इस शास्त्रार्थ का विवरण उर्दू भाषा में पुस्तकाकार में छपवाकर प्रसारित किया

गया था ।

धर्मवीर श्री पण्डित लेखराम जी ने अपने ग्रन्थ में जो विवरण बरेली

शास्त्रार्थ का प्रस्तुत किया है, वह सब ज्यों का त्यों उसी प्रति के अनुसार

प्रतीत होता है, जो कि शास्त्रार्थ के अन्त में प्रकाशित की गई थी । उस प्रति

का आरम्भिक निवेदन श्री पण्डित लेखराम जी के ग्रन्थ में पृष्ठ ४४२ पर

इस प्रकार मुद्रित हुआ है

विदित हो कि यह लिखित शास्त्रार्थ बड़े आनन्द के साथ जैसा कि

प्रायः सुसभ्य, सुयोग्य और विद्वान् पुरुषों में हुआ करता है, और जैसा कि

वास्तव में होना भी चाहिए, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और पादरी टी०जी०

स्काट साहेब के मध्य राजकीय पुस्तकालय बरेली· में तीन दिन तक ता०

२५, २६, और २७ अगस्त, सन् १८७९ ई० को लाला लक्ष्मीनारायण साहेब

खजांची रईस बरेली की अध्यक्षता में हुआ ।

अन्य नियमों के साथ ही इस शास्त्रार्थ के मुख्य नियम इस प्रकार थे

ट्टट्टशास्त्रार्थ लिखित होगा । तीन लेखकएक स्वामी जी की तरफ दूसरा

पादरी साहेब की तरफ और तीसरा अध्यक्ष महोदय की तरफ बैठकर शास्त्रार्थ

के प्रत्येक शब्द को सावधानी के साथ ज्यों का त्यों लिखते जावेंगे । जिस

समय एक विद्वान् निश्चित समय के अन्दर अपना कथन समाप्त कर चुके

तो उसका लिखा हुआ वक्तव्य सभा में उपस्थित पुरुषों को सुना दिया जावे

और तीनों प्रतियों पर हस्ताक्षर भी कराये जावें । और जब शास्त्रार्थ समाप्त

हो तो उस पर अध्यक्ष महोदय के हस्ताक्षर भी कराये जावें । इन तीनों प्रतियों

में से एक स्वामी जी के पास, दूसरी पादरी साहेब के पास और तीसरी अध्यक्ष

महोदय के पास प्रमाण स्वरूप रहे, जिससे कि बाद में भी उनमें किसी प्रकार

की घटा—बढ़ी न हो सके ।’’

पृष्ठ ४४३ पर फिर प्रार्थना के रूप में लेख है

ट्टट्टहम इस शास्त्रार्थ को अक्षरशः मूल के कि जिस पर स्वामी जी और

पादरी साहेब के हस्ताक्षर हैं, के अनुसार करके और स्वामी जी के आदेशानुसार

तैयार करके इस को छापेखाने में छपवाते हैं । इस में किसी अक्षर का भी

परिवर्तन नहीं किया है । इसको शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने के लिए यहां तक

सावधानता रखी गई है कि जहां जिस विद्वान् के हस्ताक्षर थे, वहां हस्ताक्षर

का शब्द लिखकर उसी का नाम लिख दिया है । पाठक दोनों विद्वानों के

लेखों अथवा वक्तव्यों को सत्यासत्य विवेचक दृष्टि से देखें और किसी प्रकार

के पक्षपात को पास न आने दें, जिस से कि सत्य और असत्य का प्रकाश

भली प्रकार हो जावे । कुछ सज्जनों का कथन है कि इन शास्त्रार्थों के अन्त

में निर्णय भी निकाल देना चाहिए । परन्तु हम ने अपनी सम्मति प्रकाशित

करना उचित नहीं समझा । निर्णय करने का काम पाठकों की सत्यता प्रेमी

· जहां आजकल म्युनिसिपल बोर्ड बरेली का दफ्तर है, पहले यहां पर ही

यह पुस्तकालय था, जिस में यह शास्त्रार्थ हुआ था । सम्पादक

बुद्धि पर ही छोड़ा जाता है ।’’

इस भूमिका और प्रार्थना आदि की शब्द—रचना से ज्ञात होता है कि

यह लेख श्री लाला लक्ष्मीनारायण जी, जो कि अध्यक्ष थे, की ओर से ही

है, और उन्होंने ही इस विवरण को सर्वप्रथम प्रकाशित किया था ।

इस पुस्तक के विषय में धर्मवीर श्री पं० लेखराम जी आर्य मुसाफिर

कृत महर्षि के बृहद् जीवनचरित्र में पृष्ठ ७९८ पर लिखा है

बड़ी सावधानी के साथ प्रथम बार मास सितम्बर, सन् १८७९ ई० में

आर्य भूषण यन्त्रालय शाहजहांपुर में मुद्रित हुआ । और दोबारा आर्य दर्पण

प्रेस शाहजहांपुर में और चौथी और पांचवीं बार उर्दू व हिन्दी में लाहौर में

मुद्रित हुआ ।’’

प्रस्तुत पुस्तक के रूप में हम ट्टट्टसत्यासत्यविवेक’’ का हिन्दी अनुवाद

जनता की सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं । हमने इसे धर्मवीर पं० लेखराम जी

के ग्रन्थ के आधार पर ही तैयार किया है । और अनुवाद—कार्य में इस बात

का पूर्ण ध्यान रखा है कि दोनों पक्ष के विद्वानों के भाव पूर्णतया यथावत्

रूप में प्रकाशित हों । सम्पादक

शास्त्रार्थ—बरेली

सत्यासत्यविवेक

ता० २५ अगस्त, सन् १८७९ ई०

(314) शंका :- ईश्वर साकार नहीं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- अवतारवाद

समाधान :-

(पं० रामप्रसाद तथा पं० वृन्दावन से बदायूं में शास्त्रार्थअगस्त, १८७९)

नोटस्वामी जी ३१ जौलाई, सन् १८७९ को बदायूं में पधारे और १४

अगस्त, सन् १८७९ की दोपहर तक वहां निवास किया । इसी समय के बीच

में यह शास्त्रार्थ हुआ । यघपि शास्त्रार्थ की ठीक तिथि लिखी हुई नहीं है

तथापि ऐसा अनुमान है कि यह शास्त्रार्थ ५ अगस्त के पश्चात् हुआ क्योंकि

४ अगस्त तक के उनके कार्यक्रम का संक्षिप्त विवरण जीवनचरित्र में दिया

हुआ है । उसके पश्चात् शास्त्रार्थ की चर्चा है । यह शास्त्रार्थ दो दिन तक

होता रहा ।

पण्डित रामप्रसाद, पण्डित वृन्दावन, पण्डित टीकाराम, पण्डित रामप्रसाद

दारोगा सभा आदि सज्जन स्वामी जी के निवास स्थान पर शास्त्रार्थ की इच्छा

से पहुंचे । प्रथम पण्डित रामप्रसाद जी ने बातचीत आरम्भ की ।

पण्डित रामप्रसाद ईश्वर साकार है और उस में पुरुषसूक्त की यह

ऋचा प्रमाण है

सहस्रशीर्षा पुरुषः’’ इत्यादि (यजु० अध्याय ३१, मन्त्र १)

यदि ईश्वर साकार नहीं तो उस को सहस्रशीर्षा’’ आदि क्यों लिखा?

स्वामी जीसहस्र कहते हैं सम्पूर्ण जगत् को और असंख्य को । जिस

में असंख्यात शिर, आंख और पैर ठहरे हुए हैं उस परमेश्वर को सहस्रशीर्षा’’आदि

कहते हैं । यह नहीं कि उस की हजार आंखें हों ।

पण्डित जी ने अमरकोश का प्रमाण दिया ।

स्वामी जी ने कहा किवेदों में अमरकोश प्रमाण नहीं प्रत्युत निरुक्त

और निघण्टु आदि प्रमाण हैं ।

पण्डित जी ने कहा कि हम तो वह पढ़े ही नहीं और लक्ष्मी विष्णु

की स्त्री है और साकार है । इस में लक्ष्मीसूक्त का प्रमाण है

अश्वपूर्णां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् ।

श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी कुप्यताम् ।।३।।

इस में जो विशेषण हैं उन से उस का साकार होना सिद्ध होता है ।

स्वामी जीप्रथम तो यह वाक्य संहिता का नहीं और जो तुम उस को

विष्णु की स्त्री समझकर बुलाते हो तो विष्णु तुम को अपनी स्त्री नहीं देगा

और तुम उस के मांगने से पाप के भागी होगे और वह भी व्यभिचारिणी

ठहरेगी। लक्ष्मी के अर्थ राज्यलक्ष्मी, राज्य की सामग्री और शोभा के हैं और

इसी कारण से इस श्लोक में हाथी, रथ और घोड़े लिखे हैं ।

पण्डित रामप्रसादआप जो कहते हैं कि वेदों के पढ़ने का अधिकार

सब को है, यह अनुचित है । वेद पढ़ने का अधिकार केवल द्विजों को ही

है और उन में से भी मुख्य ब्राह्मणों को है ।

स्वामी जीयथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । इत्यादि ।

इस वेदमन्त्र से स्पष्ट सिद्ध है किवेदों के पढ़ने का अधिकार सब

को है ।

पण्डित जीजो रामचन्द्र और कृष्णादि हुए हैं, ये साक्षात् परमेश्वर के

अवतार हैं ।

स्वामी जीऐसा न समझना चाहिये, यह वेद के विरुद्ध है । परमेश्वर

कभी अवतार नहीं लेता ।

पण्डित जीइस यजुर्वेद के मन्त्र से विष्णु का वामनावतार सिद्ध होता

है इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् ।’’

स्वामी जीइस से वामनावतार सिद्ध नहीं होता । इस का अर्थ यह

है कि परमेश्वर अपनी सामर्थ्य से सब जगत् को तीन स्थानों में स्थापन करके

धारण करता है। यह नहीं कि परमेश्वर ने तीन प्रकार से चरण रखा जैसा

कि तुम कहते हो ।

पण्डित वृन्दावन जी बोले तो इस से विदित हुआ कि विष्णु साकार

नहीं है ।

स्वामी जीविष्णु के अर्थ तो करो, यह किस धातु से बना है ?

पण्डित वृन्दावन जीट्टट्टविष्लृ व्याप्तौ’’ से विष्णु बनता है अर्थात्

जो सर्वव्यापक हो उसे विष्णु कहते हैं ।

स्वामी जीफिर जो व्यापक है वह साकार कैसे हो सकता है ?

पण्डित रामप्रसादइस यजुर्वेद के मन्त्र में

ट्टट्टमृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः’’

जो कुचर’’ शब्द आया है उस से मत्स्य (मच्छ) आदि अवतार सिद्ध

होते हैं क्योंकि ट्टट्टकुचर’’ का अर्थ है पृथिवी पर चलने वाला ।

स्वामी जीकुचर से मत्स्यादि अवतार सिद्ध नहीं होते । ट्टट्टकु’’ के

अर्थ वेद में कभी पृथिवी के नहीं लिये जाते ।

पण्डित रामप्रसादमहीधर की टीका में तो ऐसा ही लिखा है ।

स्वामी जीमहीधर की टीका प्रायः अशुद्ध है । निरुक्त और निघण्टु

आदि के विना वेद का अर्थ शुद्ध नहीं हो सकता ।

पण्डित रामप्रसादफिर आपने अपने पास महीधर की टीका को क्यों

रखा हुआ है ?

स्वामी जीखण्डन के लिए और देखो इस का अशुद्ध अर्थ ट्टट्टगणानां

त्वा गणपति§हवामहे’’ इत्यादि आठ दस मन्त्रों पर । क्या ऐसे अर्थ प्रमाण

योग्य हैं कि यजमान की स्त्री घोड़े के पास सोवे आदि आदि । वेदों पर

जो ऋषियों की टीका हैं वही प्रमाण के योग्य हैं । और अवतारों का न होना

यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र ट्टट्टस पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं

शुद्धम्’’ इत्यादि से सिद्ध है कि सर्वव्यापक परमात्मा कल्याणस्वरूप, काया

अर्थात् शरीर से रहित, नाड़ी नस आदि बन्धन से मुक्त और शुद्धस्वरूप पापों

से न्यारा है । जिसने आदि जगत् में अपनी अनादि प्रजा जीवों के लिए वेदविघा

का प्रकाश किया । शास्त्रार्थ दो दिन में समाप्त हुआ ।

(लेखराम पृष्ठ ४४६—४४७)

(315) शंका :- नमस्ते पर

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

(मुन्शी इन्द्रमणि जी से मुरादाबाद में शास्त्रार्थजौलाई, १८७९)

मुरादाबाद में समाज की स्थापना से पूर्व कई दिन तक मुन्शी इन्द्रमणि

और श्री स्वामी जी महाराज का परस्पर इस विषय में शास्त्रार्थ हुआ कि समाजों

में प्रणाम के स्थान पर क्या शब्द नियत किया जावे। श्री स्वामी जी कहते

थे कि नमस्ते’’ कहना चाहिये । मुन्शी इन्द्रमणि ने कहा कि हम ने प्रथम

जयगोपाल और तत्पश्चात् परमात्मा जयते’’ प्रचलित किया, इस पर लोगों

ने बहुत आक्षेप किये और हँसी उड़ाई । अब सब मामला ठण्डा हो गया है।

अब नमस्ते प्रचलित की जावेगी तो फिर लोग धुन्द मचावेंगे और इस के

अतिरिक्त परमेश्वर का नाम जिस शब्द में आवे उसे कहना चाहिये । नमस्ते’’

कहने में यह बुराई है कि जो राजा से नमस्ते किया जावे तो क्या राजा भी

एक तुच्छ कोली चमार से नमस्ते कहेगा ? स्वामी जी महाराज ने कहा कि

मुन्शी जी ! बड़ा किस को कहते हैं ? जिस मनुष्य ने यह गर्व किया कि

मैं बड़ा हूं अर्थात् राजा या विद्वान् या शूरवीर हूं तो उस में अभिमान आ

गया और उस की बड़ाई में दोष लग गया । देखो जितने महाराजाधिराज,

शूरवीर और विद्वान् हुए हैं उन्होंने अपने मुख से अपने आप को बड़ा कभी

नहीं कहा। नमस्ते का अर्थ मान और सत्कार का है जिस से राजा—प्रजा दोनों

को परस्पर नमस्ते कहना ठीक है । अब हम तुम से यह पूछते हैं, तुम अपने

अन्तःकरण से सत्य कह देना कि जब कोई व्यक्ति तुम्हारे घर पर आता है

या तुम को मिलता है तो उसे देखकर तुम्हारे मन में क्या विचार आता है?

मुन्शी जी मौन रहे । तब स्वामी जी कहने लगे कि कौन नहीं जानता

कि सम्मानित पुरुष को देखकर उस का सम्मान और छोटे व्यक्ति को देखकर

उस का आतिथ्य तुरन्त करने का ध्यान आता है । फिर बतलाइये कि ऐसे

अवसर पर परमेश्वर के नाम का क्या सम्बन्ध है ? मनुष्य को चाहिये जो

मन में हो वही मुख से कहे और यह आप का दोष है कि आपने पहले

जयगोपाल’’ और फिर परमात्मा जयते’’ प्रचलित किया । विचार करके

ऐसा शब्द जो पहले इस देशवासियों में प्रचलित था, प्रचलित क्यों न किया।

इस से सब आर्यसमाजों में नमस्ते’’ का उच्चारण करना ठीक है, जैसा कि

सब दिन से महर्षि लोगों में प्रचार था । और नमस्ते शब्द वेदों में भी आया

है । हम यजुर्वेद से बहुत से प्रमाण दे सकते हैं । आप परमात्मा जयते’’

का किसी प्राचीन ग्रन्थ से प्रमाण नहीं दे सकते । फिर उसी दिन दोपहर के

पश्चात् बहुत से प्रमाण आर्ष ग्रन्थों और वेदों से निकालकर दिखलाये परन्तु

मुन्शी जी ने अपने दुराग्रह और हठधर्मी से न माना ।

(लेखराम पृष्ठ ४४३—४४५)

(316) शंका :- हिन्दू मुसलमानों के तीर्थ

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(वकारअली बेग से कुम्भ मेला हरिद्वार में प्रश्नोत्तर

फरवरी से अप्रैल, १८७९)

सन् १८७९ में होने वाले कुम्भ के मेले पर एक दिन नजफअली

तहसीलदार रुड़की स्वामी जी के पास आये और व्याख्यान सुनने लगे ।

व्याख्यान सुनकर कहा कि आज तक कुछ सन्देह था परन्तु अब अच्छी प्रकार

सिद्ध हो गया जितना ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान संस्कृत में है उतना दूसरी भाषा

में नहीं । दूसरी बार वकार अली बेग डिप्टी मैजिस्ट्रेट को साथ लेकर आये।

डिप्टी साहब तम्बू के द्वार में और तहसीलदार साहब भीतर आ गये और डिप्टी

साहब से कहा किस्वामी जी बड़े सिद्ध पुरुष हैं, मैं भी उन का सेवक

हूं । डिप्टी साहब ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि यह हरिद्वार और हर की

पैड़ी क्या है ?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि हर की पैड़ी तो नहीं किन्तु हाड़ की पैड़ी

है क्योंकि हजारों मन हड्डियाँ यहां पड़ती हैं ।

डिप्टी साहब ने कहा कि यदि इस गग में स्नान का माहात्म्य है तो

इस में ही क्या विशेषता है कि पैड़ी पर स्नान, दान करें ?

स्वामी जी ने कहा कि यह बात पण्डों की बनाई हुई है क्योंकि यदि

लोग गग में प्रत्येक स्थान पर स्नान करने लगें तो पण्डा जी दक्षिणा कहां

से लें । आपके यहां अजमेर में भी यही बात है । मुजाविर (कब्र के समीप

रहने वाला) कहते हैं कि न इधर न उधर चढ़ाओ बल्कि इन ईंटों में चढ़ाओ,

ख्वाजा साहब इन ईंटों में घुसे हैं । इस पर वे निरुत्तर हो गये ।

(लेखराम पृष्ठ ६११)

(317) शंका :- (मौलवी मुहम्मद मुराद अली साहब प्रोप्राइटर राजपूताना गजट’ अजमेर से वार्तालाप का वृत्तान्तनवम्बर १८७८ ई०)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

ट्टट्टमुझे श्री महाराज स्वामी जी जगतारक से पांच बार मिलने का अवसर

प्राप्त हुआ । प्रथम बार सन् १८७८ में जब कि मुंशी अमीचन्द साहब सरदार

भूतपूर्व जुडीशियल असिस्टैण्ट कलक्टर ने प्रशंसनीय महाराज को यहां बुलाया

था, रात को सेठ गजमललूथ की हवेली जो चौका कड़क्का में है, में प्रशंसनीय

महाराज ने उपदेश दिया । उस दिन प्रथम तो लगभग दो बजे दिन को भेंट

हुई थी । चूंकि स्वामी जी महाराज की प्रसिद्धि समस्त देशों में फैल रही

थी और यहां आप प्रथम बार ही पधारे थे इसलिए मैं एक प्रश्नकर्त्ता के रूप

में आपकी सेवा में गया । मेरे साथ एक सेवक और हिन्दू जो दीवान बूटासिंह

के यहां कम्पोजीटर था, गये और बैठते ही महाराज जी से मैंने ये प्रश्न किए?

१. आत्मा क्या वस्तु है ।

२. बहुत से मत शरीर के नष्ट होने के पश्चात् शुभ कर्मों के कारण

मनुष्य का मुक्त होना स्वीकार करते हैं, वास्तव में यह मोक्ष किस वस्तु का

नाम है ?

३. बार—बार जन्म लेने का क्या कारण है ? यदि इस कथन को माना

जाये कि पाप करने से मनुष्य बार—बार जन्म लेने का अधिकारी है तो मेरे

विचार में मनुष्य का स्वभाव यही है कि जब तक ज्ञान प्राप्त न हो वह अवश्य

पाप किया करता है, इस से सिद्ध होता है कि स्वयम् ईश्वर की ही इच्छा

से मनुष्य बार—बार जन्म लेने का अधिकारी ठहरता है। यदि ईश्वर की इच्छा

न हो तो मनुष्य मां के पेट से ही पवित्रता प्राप्त कर ले ऐसा उत्पन्न हो ताकि

पाप न करे ।

४. बुराई या तो शैतान से उत्पन्न हुई या खुदा से या अपनी ही इच्छा

से । यदि अपनी इच्छा से उत्पन्न है तो विदित हुआ है कि ईश्वर के अतिरिक्त

भी कोई कारण बुराई या भलाई का ऐसा है जो स्वयं ही उत्पन्न होने की

शक्ति रखता है । खुदा के बस का नहीं और जो खुदा ही ने इस बुराई को

उत्पन्न किया तो विदित हुआ कि बुराई का आविष्कारक भी परमेश्वर है और

चूंकि उसकी उत्पन्न की हुई कोई वस्तु श्रेष्ठता से रहित नहीं और न निकम्मी

है, इसलिए इस से यह मानना पड़ेगा कि स्वयं खुदा ने मनुष्य के लिए बुराई

उत्पन्न की तो फिर अब बुराई का दण्ड क्यों ?

इन प्रश्नों के उत्तर स्वामी जी महाराज ने कई प्रकार से देर तक दिये।

प्रश्न नं० १ और ४ का उत्तर ऐसा युक्तियुक्त था कि मेरा सन्तोष हो गया

था और प्रश्न नं० २ और ३ के विषय में उत्तर देने का वचन दिया था ।

उसी दिन सायंकाल स्वामी जी ने उपदेश दिया । अजमेर के असंख्य सामान्य

और विशेष व्यक्ति एकत्रित थे । चूंकि उपदेश करने में दो चार वाक्य कहने

के पश्चात् गिलास में से पानी के घूंट लेते थे । दूसरे दिन मैंने उस के विषय

में भी आप से निवेदन किया कि यह रीति तो अंगरेज पादरियों की है आप

क्यों करते हैं ? कहा कियह वैघक से सम्बद्ध बात है । मनुष्य दुर्बल है,

कहते—कहते चित्त में उत्तेजना आ जाती है । पानी के घूंट लेने से वह दूर

हो जाती है इस में क्या बुरा है ?

उसी दिन स्वामी जी महाराज की गोरक्षा के विषय में चिरकाल तक

मुझ से बातें हुईं ? चूंकि मेरे विचार पहले ही से गोहत्या के विरुद्ध हैं, मैंने

निरन्तर लेखों में और विशेष पत्रिका में यह बात भली भांति सिद्ध कर दी

है कि भारत जैसे देश में गाय मारना बिल्कुल मूर्खता और नासमझी है, और

यह कि गाय मारने में मुसलमानी नहीं धरी हुई है । इसलिए स्वामी जी मुझ

से बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि आज से हम तुम को अपने विचारों का

एक स्तम्भ समझते हैं और यह भी कहा कि तुम जो पत्रिका गोरक्षा के बारे

में लिखो उस की एक प्रतिलिपि हम को भी दिखलाना । उस समय एक

चित्र भी स्वामी जी ने अपना मुझ को दिया ।

इसके पश्चात् जब स्वामी जी उदयपुर गये तब भी भेंट हुई, जोधपुर

में गये तब भी हुई थी । मेरे विचार में स्वामी जी महाराज एक महान् पुरुष

थे और उन के मरने से भारतवर्ष को बहुत बड़ा धक्का लगा है ।

हस्ताक्षरमुराद अली

(लेखराम पृष्ठ ४२९—४३०)

(318) शंका :- तौरेत इञ्जील की अशुद्धियाँ

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(पादरी ग्रे मिशनरी से अजमेर में शास्त्रार्थ२० नवम्बर, १८७८)

कार्तिक सुदि १३, संवत् १९३५ तदनुसार ७ नवम्बर १८७८ को स्वामी

जी अजमेर में पधारे । मगसिर बदि ४ तदनुसार १४ नवम्बर, सन् १८७८,

बृहस्पतिवार से लड़का के चौक में व्याख्यान देना आरम्भ किया । पहले दिन

ईश्वर विषय पर व्याख्यान दिया । १५ नवम्बर को ईश्वर विषय समाप्त करके

ईश्वरीय—ज्ञान का विषय आरम्भ किया । १७ नवम्बर को भी यही विषय

रहा । १८ को फिर ईश्वरीय—ज्ञान पर ही व्याख्यान दे रहे थे । व्याख्यान की

समाप्ति पर एक बड़ी सूची तौरेत, इञ्जील तथा कुरान मजीद की अशुद्धियों

की पढ़कर सुनाई और कहा किमैंने यह सूची किसी को चिढ़ाने के लिए

नहीं सुनाई प्रत्युत इसलिये कि सब लोग पक्षपात रहित होकर विचारें कि जिन

पुस्तकों में ऐसी—ऐसी बातें लिखी हैं, वे ईश्वरकृत हो सकती हैं या नहीं ?

उस दिन सैकड़ों मुसलमान, ईसाई तथा हिन्दू उपस्थित थे । मुसलमान तो

कोई न बोला । पादरी ग्रे साहब और डाक्टर हसबैण्ड साहब उपस्थित थे।

उनमें से माननीय ग्रे साहब बोले कि व्याख्यान के दिन शास्त्रार्थ नहीं होता।

आप इन आक्षेपों को लिखकर हमारे पास भेजिये, मैं उन का उत्तर दूंगा ।

स्वामी जी ने कहा मैं तो यही चाहता हूं और सदा मेरी यही इच्छा रहा करती

है कि आप जैसे बुद्धिमान् पुरुष मिलकर सत्यासत्य का निर्णय करें । पादरी

साहब ने कहा किसत्य का निर्णय जब होगा कि आप मेरे पास प्रश्न भेजेंगे

और मैं उत्तर दूंगा । फिर स्वामी जी ने कहा कि लिखकर दोनों ओर से प्रश्नोत्तर

भेजने में काल बहुत लगता है और मनुष्यों को भी इस से लाभ नहीं पहुंचता।

इसलिए यही बात अच्छी है कि आप यहीं आवें, मैं प्रश्न करूं और आप

उत्तर दें । तब पादरी साहब ने कहा कि आप प्रश्न मेरे पास भेज देवें । जब

मैं दो—चार दिन में उन को विचार लूंगा तब पीछे उत्तर आप को यहां आकर

दूंगा । स्वामी जी ने कहा किप्रश्न तो मैं नहीं भेजूंगा परन्तु मुझ को जहां—जहां

तौरेत और इञ्जील में शटाएँ हैं उन में से थोड़े से वाक्य लिखकर भेज दूंगा।

उन को जब आप विचार लेंगे तो उन्हीं में से प्रश्न करूंगा, आप उत्तर देना।

इतनी बात होने के पश्चात् पादरी साहब चले गये ।

उस के दूसरे दिन अर्थात् १९ नवम्बर, सन् १८७८ मंगलवार को स्वामी

जी ने तौरेत और इञ्जील के ६४ वाक्य लिखकर पण्डित भागराम साहब ऐक्स्ट्रा

ऐसिस्टैण्ट कमिश्नर अजमेर द्वारा पादरी साहब के पास भेज दिये । कई दिन

तक पादरी साहब उन को विचारते रहे । उन के अच्छी प्रकार विचार लेने

के पूरे दस दिन पश्चात् अर्थात् २८ नवम्बर, सन् १८७८ बृहस्पतिवार तदनुसार

मंगसिर सुदि ४, संवत् १९३५ शास्त्रार्थ का दिन नियत हुआ ।

उस दिन शास्त्रार्थ देखने और सुनने के लिए सर्वत्र विज्ञापन दे दिया

गया था, इसलिए बहुत अधिक संख्या में लोग सुनने के लिए आये । सर्दार

बहादुर मंुशी अमीचन्द साहब जज, पण्डित भागराम साहब ऐक्स्ट्रा ऐसिस्टैण्ट

कमिश्नर, सरदार भगतसिंह साहब इञ्जीनियर आदि सरकारी अधिकारी भी

सभा में सम्मिलित थे ।

नियत समय पर स्वामी जी चारों वेदों के पुस्तक साथ लेकर आये।

पादरी ग्रे साहब और डाक्टर हसबैण्ड साहब भी पधारे । बाबू रामनाथ हेडमास्टर

राजपूत स्कूल जयपुर, बाबू चन्दूलाल वकील गुड़गांवा, हाफिज मौहम्मद हुसैन

दारोगा चंुगी अजमेरये तीन लेखक नियुक्त हुए । प्रथम स्वामी जी ने कहा

किमैंने कितने स्थानों पर पादरी लोगों से बातचीत की है, कभी किसी

प्रकार की गड़बड़ नहीं हुई । आज भी मैं जानता हूं कि पादरी साहब से

वार्तालाप निर्विघ्नता से पूरा होगा । फिर पादरी साहब ने भी निर्विघ्नता से

बातचीत होने की आशा प्रकट की और कहा कि स्वामी जी ने जो वाक्य

लिखकर हमारे पास भेजे हैं वे बहुत हैं और समय केवल दो या ढाई घण्टे

का है इसलिये इन आक्षेपों पर दो चार ही प्रश्नोत्तर होना ठीक है । इसके

पश्चात् शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ ।

बोलते समय इन तीन लेखकों को स्वामी जी और पादरी साहब अक्षरशः

लिखवाते जाते थे ।

स्वामी जीतौरेत उत्पत्ति की पुस्तक पूर्व १ आयत २ में लिखा है कि

पृथिवी बेडौल है । अब देखना चाहिए कि परमेश्वर सर्वज्ञ है, सब विघा

उस में पूरी हैं । उस के विघा के काम में बेडौलता कभी नहीं हो सकती

क्योंकि जीव को पूरी विघा और सर्वज्ञता नहीं है इसलिये जीव के काम में

बेडौलता आ सकती है, ईश्वर के काम में नहीं ।

पादरीयहां अभिप्राय बेडौल से नहीं है बल्कि उजाड़ से है । अयूब

की पुस्तक अध्याय २ आयत २४ में है कि विना मार्ग जंगल में आत्मा नहीं

भ्रमता है। यहां जिस शब्द का अर्थ जंगल है उसी का अर्थ वहां बेडौल है।

स्वामी जीइस से पहली आयत में यह बात आती है कि आरम्भ में

ईश्वर ने आकाश और पृथिवी को सृजा और पृथिवी बेडौल सूनी थी, गहराव

पर अन्धेरा था । इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उजाड़ का अर्थ यहां नहीं

ले सकते क्योंकि कहा था कि सूनी थी । बेडौल के अर्थ उजाड़ होते तो

सूनी थी, इस शब्द की कुछ आवश्यकता नहीं थी और जबकि ईश्वर ने ही

पृथिवी को रचा है सो प्रथम ही अपने ज्ञान से डौल वाली क्यों नहीं रच सकता

था ?

पादरी साहबदो शब्द एक ही अर्थ के सब भाषाओं में एक दूसरे

के पीछे होकर आते हैं जैसे इबरानी में तोहो बोहो, फारसी में वूदो वाश,

ये सब एक ही अर्थ के वाची हैं । इसी प्रकार उर्दू में यह अर्थ ठीक है

कि पृथिवी उजाड़ और सुनसान थी ।

स्वामी जी इस बात पर और प्रश्न करना चाहते थे इतने में पादरी साहब

ने कहा कि एक—एक वाक्य पर दो—दो प्रश्न और दो—दो उत्तर होने चाहियें

क्योंकि वाक्य बहुत हैं तो सब प्रश्न आज न हो सकेंगे । स्वामी जी ने कहा

यह आवश्यक नहीं है कि आज ही सब वाक्यों पर प्रश्नोत्तर हो जायें । कुछ

आज होंगे फिर इसी प्रकार दो—चार दिन अथवा जब तक यह वाक्य पूरे न

हों तब तक प्रश्नोत्तर होते रहेंगे । पादरी साहब ने इस बात को स्वीकार नहीं

किया तब स्वामी जी ने कहा कि और अधिक नहीं तो एक वाक्य पर

दस बार प्रश्न होने चाहियें। पादरी साहब ने यह भी स्वीकार न किया ।

स्वामी जी ने फिर कहा कि एक—एक वाक्य पर कम से कम तीन बार प्रश्नोत्तर

होने ही चाहियें । इस में फिर पादरी साहब ने कहा कि हम को दो बार से

अधिक प्रश्नोत्तर करना कदाचित् स्वीकार नहीं है । तब स्वामी जी ने कहा

किहम को इस में कुछ हठ नहीं है, सभा की जैसी सम्मति हो वैसा किया

जावे । स्वामी जी की इस बात पर कोई कुछ न बोला परन्तु डाक्टर हस्बैण्ड

साहब ने कहा कियदि सभा से प्रत्येक विषय में पूछेंगे तो चार सौ मनुष्य

हैं उनमें से किस—किस से पूछा जायेगा । स्वामी जी ने कहा कि यदि पादरी

को तीन प्रश्न करना स्वीकार नहीं है तो जाने दो हम दो ही करेंगे क्योंकि

इतने मनुष्य विज्ञापन देखकर इकट्ठे हुए हैं । जो यहां कुछ बातचीत न हुई

तो अच्छा नहीं । फिर दूसरे वाक्य पर प्रश्न किया ।

स्वामी जी(वही पर्व वही आयत) और ईश्वर का आत्मा जल के ऊपर

डोलता था । पहली आयत से विदित होता है कि ईश्वर ने आकाश और पृथिवी

को रचा । यहां जल की उत्पत्ति नहीं कही तो जल कहां से हो गया । ईश्वर

आत्म—स्वरूप है वा जैसे कि हम स्वरूप वाले हैं वैसा । जो वह शरीर वाला

है तो उसका सामर्थ्य आकाश और पृथिवी बनाने का नहीं हो सकता क्योंकि

शरीर वाले के शरीर के अवयवों से परमाणु आदि को ग्रहण करके रचना में

लाना असम्भव है और वह व्यापक भी नहीं हो सकता । जब उस का आत्मा

जल पर डोलता था तब उसका शरीर कहां था ?

पादरी साहबजब—जब पृथिवी को सृजा तो पृथिवी में जल भी आ

गया । दूसरी बात का उत्तर यह है कि परमेश्वर आत्मरूप है । तौरेत के

आरम्भ से इञ्जील के अन्त तक परमेश्वर आत्मरूप कहलाया ।

स्वामी जीईश्वर का वर्णन तौरेत से लेकर इञ्जील पर्यन्त बहुत ठिकानों

में ऐसा ही है कि वह किसी प्रकार का शरीर भी रखता है क्योंकि आदम

की बाड़ी को बनाया, वहां आना फिर ऊपर चढ़ जाना, सनाई पर्वत पर जाना,

मूसा इब्राहीम और उन की स्त्री सरः से बातचीत करना, डेरे में जाना, याकूब

से मल्लयुद्ध करना इत्यादि बातों से पाया जाता है कि अवश्य किसी प्रकार

का शरीर वह रखता है और उसी क्षण अपना शरीर बना लेता है ।

पादरी साहबये सब बातें इस आयत से कुछ सम्बन्ध नहीं रखतीं केवल

अनजानपने से कही जाती हैं । इसका यही उत्तर है कि यहूदी, ईसाई और

मुसलमान जो तौरेत को मानते हैं इसी पर एकमत हैं कि खुदा रूह है ।

स्वामी जी(पर्व वही, आयत २६) तब ईश्वर ने कहा कि हम आदम

को अपने स्वरूप में अपने समान बनावें । इस से स्पष्ट पाया जाता है कि

ईश्वर भी आदम के स्वरूप जैसा था । जैसा कि आदम आत्मा और शरीर—युक्त

था, ईश्वर को भी इस आयत से वैसा ही समझना चाहिए । जब वह शरीर

जैसा स्वरूप नहीं रखता तो अपने स्वरूप में आदम को कैसे बना सका ?

पादरी साहबइस आयत में शरीर का कुछ कथन नहीं । परमेश्वर

ने आदम को पवित्र, ज्ञानवान् और आनन्दित रचा । वह सच्चिदानन्द ईश्वर

है और आदम को अपने स्वरूप में बनाया । जब आदम ने पाप किया तो

परमेश्वर के स्वरूप से पतित हो गया। जैसे पहले प्रश्नोत्तर के २४ और २५

प्रश्न से विदित होता है (कोलोसियों के पत्रे तीसरा पर्व ९ और १० आयत)।

एक दूसरे से झूठ मत बोलो क्योंकि तुमने पुराने फैशन को उस के कार्यों

समेत उतार फेंका है और नये फैशन को जो ज्ञान में अपने सिरजनहारे के

स्वरूप के समान नये बन रहे हैं, पहना है । इस से विदित होता है कि ज्ञान

158

और पवित्रता में परमेश्वर के समान बनाया गया और नये सिरे से हम लोगों

को बनाया (करन्तियों अध्याय १७, आयत १९) और प्रभु ही आत्मा है और

जहां कहीं प्रभु का आत्मा है वहीं निर्विघ्नता है और हम सब विना पर्दा प्रभु

के तेज को दर्पण में देख—देख प्रभु के आत्मा के द्वार पर तेज से उस के

स्वरूप में बदलते जाते हैं । इस से ज्ञात होता है कि विश्वासी लोग बदल

के फिर परमेश्वर के स्वरूप में बन जाते हैं अर्थात् ज्ञान, पवित्रता और आनन्द

में क्योंकि धर्मी होने से मनुष्य के शरीर का रूप नहीं बदलता है ।

स्वामी जीपरमात्मा के सदृश आदम के बनने से सिद्ध होता है कि

ईश्वर भी शरीर वाला होना चाहिए । जो परमेश्वर ने आदम को पवित्र और

आनन्द से रचा था तो उसने परमेश्वर की आज्ञा क्यों तोड़ी और जो तोड़ी

तो विदित होता है कि यह ज्ञानवान् नहीं था । और जब उस ने ज्ञान के पेड़

का फल खाया तब उस की आंख खुल गई । इस से जाना जाता है कि

वह ज्ञानवान् पीछे से हुआ । जो पहले ही ज्ञानवान् था तो फल खाने के पीछे

ज्ञान हुआ, यह बात नहीं बन सकती और प्रथम परमेश्वर ने उस को आशीर्वाद

दिया था कि तुम फूलो—फलो, आनन्दित रहो और फिर जब उस ने ईश्वर

की आज्ञा के विना उस पेड़ का फल खाया तब उस की आंखें खुलने से

उस को ज्ञान हुआ कि हम नंगे हैं । गूलर के पत्ते अपने शरीर पर पहने ।

अब देखना चाहिये कि जो वह ईश्वर के समान ज्ञान में और पवित्रता में

होता तो उस को नंगा होना, क्यों नहीं जान पड़ता । क्या उस को इतनी भी

सुध नहीं थी । जब परमेश्वर के समान वह ज्ञानी, पवित्र और आनन्दित था

तो उस को सर्वज्ञ और नित्य शुद्ध आनन्दित रहना चाहिये और उस के पास

कुछ दुःख भी कभी न आना चाहिये क्योंकि वह परमेश्वर के समान है ।

इन ऊपर कही तीनों बातों में तो वह पतित किसी प्रकार से नहीं हो सकता

और जो पतित हुआ तो परमेश्वर के समान नहीं हुआ क्योंकि परमेश्वर ज्ञानादि

गुणों से पतित कभी नहीं होता । फिर बतलाइये कि जैसे आदम प्रथम ज्ञानादि

तीनों गुणों में परमेश्वर के समान होके फिर उन से पतित हो गया वैसे ही

विश्वासी लोग ज्ञानी, पवित्र और आनन्दित होंगे वा अधिक कम । जो वैसे

ही होंगे तो फिर जैसे आदम पतित हो गया वैसे ही विश्वासी भी हो जायेंगे

क्योंकि वह तीनों बातों में परमात्मा के समान होकर पतित हो गया था ।

पादरी साहबकई बातों में पहला उत्तर पर्याप्त है और रहा यह कि

यदि आदम पवित्र था तो आज्ञा क्यों तोड़ी । उत्तर यह है कि वह पहले पवित्र

था, आज्ञा तोड़ के पापी हुआ । फिर यह कहा कि ज्ञानवान् पीछे से हुआ।

यह बात नहीं है जब भले बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाया तब बुरे जान

पड़े । पहले न जानता था, आंखें खुल गईं और उस को जान पड़ा कि मैं

नंगा हूं । इस का उत्तर यह है कि पापी होके उस को लज्जा आने लगी।

फिर यह कि यदि वह परमात्मा के समान होता तो पतित न होता । इस का

उत्तर यह है कि वह परमात्मा के समान बनाया गया न उस के तुल्य । यदि

परमात्मा के तुल्य होता तो पाप में न गिरता । अन्त में जो पूछा कि विश्वासी

लोग आदम से अधिक पवित्र हो जायेंगे इस का उत्तर यह है कि अधिक

और कम पवित्र होने में प्रश्न नहीं है किन्तु स्वरूप के विषय में है कि परमेश्वर

का रूप शरीर जैसा था वा नहीं । यदि वह स्वरूप जिस का कथन होता

है शारीरिक होता तो धर्मी लोग जब परमेश्वर के स्वरूप में नये सिरे से नहीं

जाते हैं तो अपने शरीर को नहीं बदल डालते ।

स्वामी जी(तौरेत का पर्व २, आयत ३) उस ने सातवें दिन को

आशीर्वाद दिया और ठहराया । ईश्वर को सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्द

स्वरूप होने से परिश्रम जगत् के रचने में कुछ भी नहीं हो सकता। फिर सातवें

दिन विश्राम करने की क्या आवश्यकता ? और विश्राम किया तो छः दिन

तक बड़ा परिश्रम करना पड़ा होगा । और सातवें दिन को आशीर्वाद दिया

तो छः दिनों को क्या दिया । हम नहीं कह सकते कि ईश्वर को एक क्षण

भी जगत् के रचने में लगे और कुछ भी परिश्रम हो ।

पादरी साहबअब समय हो चुका, इस से अधिक हम नहीं ठहर सकते

और बोलते समय लिखना पड़ता है इस से देर बहुत लगती है । इसलिए

हम कुछ नहीं करना चाहते जो बोलते समय लिखा न जाये तो हम कर सकते

हैं । यदि स्वामी जी को लिखकर प्रश्नोत्तर करना है तो हमारे पास प्रश्न लिखकर

भेज दें । हम लिखकर उत्तर देंगे ।

इस पर डाक्टर हसबैण्ड साहब के कहने से सरदार बहादुर अमीचन्द

साहब ने कहा कि मेरी भी यह सम्मति है कि प्रश्न लिखकर पत्र द्वारा किया

करें । आज की भांति किये जायेंगे तो छः महीने तक भी पूरे न होंगे ।

स्वामी जी ने कहा किप्रश्नोत्तर के लिखे विना बहुत हानि है । जैसे

अभी थोड़ी देर के पश्चात् अपने में से कोई अपनी कही हुई बात के लिए कह

सकता है कि मैंने यह बात नहीं कही । दूसरे इस प्रकार बातचीत होने में और

लोगों को यथार्थ छुपाकर प्रकट नहीं कर सकते और यदि कोई छुपावे भी तो

जिस के जी में जो आवे सो छुपा सकता है और जो मकान पर प्रश्नोत्तर

लिख—लिख किया करें तो इस में काल बहुत लगेगा और जो कहा गया कि इस

प्रकार छः मास में पूरा न होगा । सो मैं कहता हूं कि इसमें छः मास का कुछ

काम नहीं है । हां जो मकान पर पत्र द्वारा करेंगे तो तीन वर्ष में भी पूरा न होगा

और मनुष्य जो मेरे सामने सुन रहे हैं वे नहीं सुन सकेंगे इसलिए यही अच्छा

है कि सब के सामने प्रश्नोत्तर किये जावें और लिखाया भी जावे ।

पादरी साहब ने कहा कि आपने यहां प्रश्नोत्तर करने में लोगों के सुनने

का लाभ दिखलाया परन्तु मैं जानता हूं कि आज की बातों को जो यहां इतने

लोग बैठे हैं, उनमें से थोड़े ही समझे होंगे । पादरी साहब की यह बात सुन

कर हाफिज मौहम्मद हुसैन और अन्य मुसलमान लोग कहने लगे कि हम

कुछ भी नहीं समझे । इस पर पादरी साहब ने कहा कि देखिए लिखने वाला

ही नहीं समझा तो और कौन समझ सकता है । पर स्वामी जी ने दो दूसरे

लिखने वाले थे उन से पूछा कि तुम समझे वा नहीं ? उन्होंने कहा कि हां

हम बराबर समझे, हम ने जो कुछ लिखा है उस को अच्छी प्रकार कह सकते

हैं । तब स्वामी जी ने कहा कि दो लिखने वाले तो समझे और एक नहीं

समझा । सारांश यह कि पादरी साहब ने दूसरे दिन शास्त्रार्थ का लिखा जाना

स्वीकार नहीं किया ।

स्वामी जी ने पादरी साहब से कहा किआज के प्रश्नोत्तर के तीन

परत लिखे गये हैं आप उन पर हस्ताक्षर कर दीजिये और मैं भी कर देता

हूं । और प्रधान सभा से भी कराकर एक प्रति आपके पास और एक मेरे

पास और एक प्रधान के पास रहेगी ।

पादरी साहब ने कहा कि हम ऐसी बातों पर हस्ताक्षर करना नहीं चाहते।

तत्पश्चात् सभा उठ खड़ी हुई और सब लोग अपने घरों को चले गये परन्तु

स्वामी जी महाराज, सरदार बहादुर अमीचन्द साहब, पण्डित भागराम साहब,

सरदार भगतसिंह जी के मकान पर जो सभा के मकान के पास था, ठहरे।

उस समय शास्त्रार्थ की दो कापियों पर जो स्वामी जी के पास रही थीं। (क्योंकि

एक पादरी साहब साथ ले गये थे ।) उन दोनों सज्जनों ने हस्ताक्षर भी कर

दिये और सब अपने मकानों को गये ।

दूसरे दिन अर्थात् २९ नवम्बर, सन् १८७८ को पादरी साहब ने स्वामी

जी के पास पत्र लिखकर भेजा कि आज आप प्रश्नोत्तर करेंगे या नहीं । यदि

करना हो तो किया जाये परन्तु लिखा न जाये और लिखना हो तो पत्र द्वारा

किया जाये ।

स्वामी जी ने इस के उत्तर में लिख भेजा कि सब के सामने प्रश्नोत्तर

किये जायें और लिखे भी जावें । इस प्रकार हम को स्वीकार है अन्यथा

तौरेत इञ्जील की अशुद्धियाँ 161

नहीं क्योंकि और प्रकार करने में बहुत हानि है जो कि हम पहले लिख चुके

हैं। अब यदि आप को लिखकर प्रश्नोत्तर करना हो तो मुझ को लिखिये ।

मैं जब तक आप कहें यहां रहूं और यदि आप को इस प्रकार न करना हो

तो सरदार भगतसिंह जी को लिख भेजो कि अब शास्त्रार्थ न होगा ताकि उन्होंने

जो तम्बू आदि का प्रबन्ध कर रखा है उसे उठा लेवें । पादरी साहब ने इस

को बड़ा सुअवसर जाना और प्रसन्नता से सरदार साहब को इसी प्रकार कहला

भेजा । उन्होंने सब सामान उठवा दिया । इस के पश्चात् स्वामी जी तीन

चार दिन और अजमेर में रहे । चौथे दिन दूसरी दिसम्बर, सन् १८७८ को

मसूदा की ओर प्रस्थान कर गये । (लेखराम पृष्ठ ६८१ से ६८६)

(319) शंका :- (धर्मसभा से फर्रुखाबाद में प्रश्नोत्तरअक्तूबर, १८७८)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

दयानन्द सरस्वती के पास यह प्रश्न धर्मसभा फर्रुखाबाद की ओर से

भेजे जाते हैं कि आप्त ग्रन्थों के प्रमाण से इन प्रश्नों का उत्तर पत्र द्वारा

धर्मसभा के पास भेज दें । और यह भी विदित रहे कि धर्मसभा के सभासदों

ने यह संकल्प  कर लिया है कि यदि आप इन प्रश्नों के उत्तर पत्र द्वारा प्रमाण

सहित न देवेंगे तो यह समझा जावेगा कि आपने अपना मत आधुनिक मान

लिया । और एक प्रति इन प्रश्नों की आपकी मतानुयायी सभाओं में और

अमरीका के सज्जनों के पास भेजी जावेगी और देशी और अंग्रेजी पत्रों में

मुद्रित की जायेगी । इन प्रश्नों पर चौदह व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किये थे कि

जिनके नाम भारत सुदशाप्रवर्तक’’ पत्रिका में लिखे हैं ।

विज्ञापन का उत्तर

जो आप लोगों को शास्त्र प्रमाण सहित उत्तर अपेक्षित था तो इतने पण्डितों

में से कोई एक भी तो कुछ पण्डिताई दिखलाता । आप के तो प्रश्न सब

के सब अण्डबण्ड शास्त्रविरुद्ध यहां तक कि भाषारीति से भी शुद्ध नहीं हैं।

ऐसों का उत्तर प्रमाणसहित मांगना मानो गाजरों की तुला देकर तुरन्त विमान

की मार्ग—परीक्षा करना है । शास्त्रोक्त उत्तर शास्त्रज्ञों को ही मिलते हैं क्योंकि

वे इन वचनों को समझ सकते हैं । तुम्हारे आगे शास्त्रोक्त वचन लिखना ऐसा

है जैसा कि गंवार मनुष्यों के आगे रत्नों की थ्ौलियां खोल देनी। वास्तव

में तुम्हारा एक भी प्रश्न उत्तर देने के योग्य न था तथापि हमने ट्टट्टतुष्यतु दुर्जनः’’

इस न्याय से सब का उत्तर शास्त्रोक्त प्रमाण सहित दिया है । समझा जाये

तो समझ लो ।

नोटउपर्युक्त २५ प्रश्न ६ अक्तूबर, सन् १८७८ को शाम के समय

पण्डितों ने स्वामी जी के पास भेजे । वास्तव में उस समय स्वामी जी को

उन प्रश्नों के सुनने तक का भी समय न था परन्तु उन लोगों के आने से

सुनते ही उसी समय उन का उत्तर देना आरम्भ किया और उन से लिख लेने

को कहा परन्तु वे न लिख सके ।

७ अक्तूबर, सन् १८७८ को बहुत से आर्य सभासदों ने शाम के समय

प्रार्थना करके उन प्रश्नों के उत्तर स्वामी जी से लिखवा लिये और स्वामी

जी के चले जाने के पश्चात् शुद्ध करके १२ अक्तूबर, सन् १८७८ को

आर्यसमाज में सुनाये, तत्पश्चात् वे उत्तर पोप लोगों के पास भेज दिये ।

फर्रुखाबाद के पण्डितों से प्रश्नोत्तर

पहला प्रश्नआप्त ग्रन्थों अर्थात् वेदादिक सत्यशास्त्रों के अनुसार

परिव्राजकों अर्थात् संन्यासियों के धर्म क्या हैं ? वेदों के अनुसार उन को

यानों अर्थात् सवारियों पर चढ़ना और धूम्र अर्थात् हुक्का आदि पीना योग्य

है या नहीं ?

उत्तरवेदादि शास्त्रों में विद्वान् होकर वेदानुकूल सत्य शास्त्रोक्त रीति

से पक्षपात, शोक, वैर, अविघा, हठ, दुराग्रह, स्वार्थसाधन, निन्दा—स्तुति, मान,

अपमान, क्रोधादि दोषों से रहित हो स्वपरीक्षापूर्वक सत्यासत्य निश्चय करके

सर्वत्र—भ्रमणपूर्वक सर्वथा सत्यग्रहण असत्य परित्याग से सब मनुष्यों की

शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति, आसन के साधन, सत्यविघा,

सनातन धर्म, स्वपुरुषार्थयुक्त करके व्यावहारिक और पारमार्थिक सुखों से

वर्तमान करके दुष्टाचरणों से पृथव्Q कर देना संन्यासियों का धर्म है । लाभ

में हर्ष, अलाभ में शोकादि से रहित होकर विमानों में बैठना और रोगादि

निवारणार्थ औषधिवत् धूम्र अर्थात् हुक्का पीकर परोपकार करने में

तत्पर तिन्हों को कुछ भी दोष नहीं । यह सब शास्त्रों में विधान है परन्तु

तुम को वर्तमान वेदादि सत्य शास्त्रों से विरुद्ध होने के कारण भ्रम है सो

इन सत्य ग्रन्थों से विमुखता न चाहिए ।

दूसरा प्रश्नयदि आपके मत में पापों की क्षमा नहीं होती तो मन्वादिक

आप्त ग्रन्थों में प्रायश्चित्त का क्या फल है ? वेदादि ग्रन्थों में परमेश्वर की

क्षमाशीलता और दयालुता का वर्णन है इस से क्या प्रयोजन है ? यदि उस

से आगन्तुक पापों की क्षमा से प्रयोजन है तो क्षमा न हुई और जब मनुष्य

स्वतन्त्र है और आगन्तुक पापों से बचा रहे तो उस में परमेश्वर की क्षमाशीलता

क्या काम आ सकती है ।

उत्तरहमारा किन्तु हम लोगों का वेद—प्रतिपादित मत के अतिरिक्त और

कोई कपोलकल्पित मत नहीं है । वेदाें में कहीं किये हुए पापों की क्षमा नहीं

लिखी, न कोई युक्ति से भी विद्वानों के सामने किए हुए पापों की क्षमा सिद्ध

कर सकता है । शोक है उन मनुष्यों पर कि जो प्रश्न करना नहीं जानते और

करने को उघत हो जाते हैं । क्या प्रायश्चित्त तुमने सुखभोग का नाम समझा है?

जैसे जेलखाने में चोरी आदि पापों के फल का भोग होता है वैसे प्रायश्चित्त भी

समझो । यहां क्षमा की कुछ भी कथा नहीं । क्या प्रायश्चित्त वहां पापों के दुःखरूप

फल का भोग है ? कदापि नहीं । परमेश्वर की क्षमा और दयालुता का यह प्रयोजन

है कि बहुत से मूढ़ मनुष्य नास्तिकता से परमात्मा का अपमान और खण्डन करते

और पुत्रादि के न होने या अकाल में मरने, अतिवृष्टि, रोग और दरिद्रता के होने

पर ईश्वर को गाली प्रदानादि भी करते हैं तथापि परब्रह्म सहन करता और कृपालुता

से रहित नहीं होता । यह भी उसके दयालु स्वभाव का प्रयोजन है । क्या कोई

न्यायाधीश कृतपापों की क्षमा करने से अन्यायकारी और पापों के आचरण का

बढ़ाने वाला नहीं होता? क्या परमेश्वर कभी अपने न्यायकारी स्वभाव से विरुद्ध

अन्याय कर सकता है ? हां जैसे न्यायाधीश विघा और सुशिक्षा करके पापियों

को पाप से पृथव्Q करके राजदण्ड प्रतिष्ठितादि करके शुद्धकर सुखी कर देता

है वैसे परमात्मा को भी जानो ।

तीसरा प्रश्नयदि आपके मत से तत्त्वादिकों के परमाणु नित्य हैं और

कारण का गुण कार्य्य में रहता है तो परमाणु जो सूक्ष्म और नित्य हैं उन

से संसारादिक स्थूल और सान्त कैसे उत्पन्न हो सकता है ?

उत्तरजो परम अवधि सूक्ष्मता की अर्थात् जिसके आगे स्थूल से सूक्ष्मता

कभी नहीं हो सकती वह परमाणु कहलाता है । जिस के प्रकृत, अव्याकृत,

अव्यक्त, कारणादि नाम भी कहलाते हैं । वे अनादि भी कहलाते हैं ।

वे अनादि होने से सत् हैं । हाय दुःख है लोगों की उलटी समझ पर जो कारण

के गुण समवाय सम्बन्ध से हैं वे कारण में नित्य हैं । जो कारण के कारणावस्था

में नित्य हैं वे कार्यावस्था में भी नित्य हैं क्या जो गुण कारणावस्था में हैं

वे कार्यावस्था में वर्तमान होकर जब कारणावस्था होती है तब भी कारण के

गुण नित्य नहीं होते और जब परमाणु मिलकर स्थूल होते हैं या पृथव्Q—पृथव्Q

होकर कारणरूप होते हैं तब भी उनके विभाग और संयोग होने का सामर्थ्य

नित्य होने से अनित्य नहीं होते । वैसे ही गुरुत्व, लघुत्व होने का सामर्थ्य

भी उनमें नित्य है क्योंकि यह गुण गुणी में समवाय सम्बन्ध से है ।

चौथा प्रश्नमनुष्य और ईश्वर में क्या सम्बन्ध है ? विघाज्ञान से मनुष्य

ईश्वर हो सकता है या नहीं ? जीवात्मा और परमात्मा में क्या सम्बन्ध है?

और जीवात्मा और परमात्मा दोनों नित्य हैं और जो दोनों चेतन हैं तो जीवात्मा

परमात्मा के आधीन है या नहीं ? यदि है तो क्यों है ?

उत्तरमनुष्य और ईश्वर का राजा—प्रजा, स्वामी—सेवकादि सम्बन्ध है।

अल्पज्ञान होने से जीव ईश्वर कभी नहीं हो सकता । जीव और परमात्मा

में व्याप्य—व्यापकादि सम्बन्ध है । जीवात्मा परमात्मा के आधीन सदा रहता

है परन्तु कर्म करने में नहीं किन्तु पाप कर्मों के फलभोग में वह ईश्वर की

व्यवस्था के आधीन रहता है तथापि दुःख भोगने में स्वतन्त्र नहीं है । चूंकि

परमेश्वर अनन्त—सामर्थ्य—युक्त है और जीव अल्प सामर्थ्य वाला है अतः उस

का परमेश्वर के आधीन होना आवश्यक है ।

पांचवाँ प्रश्नआप संसार की रचना और प्रलय को मानते हैं या नहीं?

और जब प्रथम सृष्टि हुई तो आदि सृष्टि में एक या बहुत उत्पन्न हुए? जब कि

इन में कर्मादिक की कोई विशेषता न थी तब परमेश्वर ने कुछ मनुष्यों को ही

वेदोपदेश क्यों किया? ऐसा करने से परमेश्वर पर पक्षपात का दोष आता है ।

उत्तरसंसार की रचना और प्रलय को हम मानते हैं । सृष्टि प्रवाह

से अनादि है, सादि नहीं । क्योंकि ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव अनादि

और सत्य हैं । जो ऐसा नहीं मानते उन से पूछना चाहिये कि प्रथम ईश्वर

निकम्मा और उसके गुण, कर्म, स्वभाव निकम्मे थे । जैसे परमेश्वर अनादि

है, वैसे जगत् का कारण जीव भी अनादि है क्योंकि विना किसी वस्तु के

उस से कुछ कार्य होना सम्भव नहीं । जैसे इस कल्प की सृष्टि के आदि

में बहुत स्त्री—पुरुष उत्पन्न हुए थे वैसे ही पूर्व कल्प की सृष्टि में उत्पन्न

थे और आगे की कल्पान्त सृष्टियों में भी उत्पन्न होंगे । कर्मादिक भी जीव

के अनादि हैं। चार मनुष्यों की आत्मा में वेदोपदेश करने में यह हेतु है कि

उन के सदृश या अधिक पुण्यात्मा जीव कोई भी नहीं थे । इस से परमेश्वर

में पक्षपात कुछ भी नहीं आ सकता ।

छठा प्रश्नआपके मतानुसार न्यूनाधिक कर्मानुसार फल होता है

तो मनुष्य स्वतन्त्र कैसे हैं ? परमेश्वर सर्वज्ञ है तो उस को भूत, भविष्यत्,

वर्तमान का ज्ञान है अर्थात् उस को यह ज्ञान है कि कोई पुरुष किसी समय

में कोई कर्म करेगा और परमेश्वर का यह ज्ञान असत्य नहीं होता क्योंकि

वह सत्यज्ञान वाला है अर्थात् वह पुरुष वैसा ही कर्म करेगा जैसा कि परमेश्वर

का ज्ञान है तो कर्म इस के लिए नियत हो चुका तो जीव स्वतन्त्र कैसे है?

उत्तरकर्म के फल न्यूनाधिक कभी नहीं होते क्योंकि जिस ने जैसा

और जितना कर्म किया हो उस को वैसा और उतना ही फल मिलना न्याय

कहलाता है । अधिक न्यून होने से ईश्वर में अन्याय आता है ।

हे आर्यो ! ईश्वर के ज्ञान में भूत, भविष्यत् काल का सम्बन्ध भी कभी

होता है । क्या ईश्वर का ज्ञान होकर न हो और न होकर होने वाला है। जैसे

ईश्वर को हमारे आगामी कर्म्मों के होने का ज्ञान है वैसे मनुष्य अपने स्वाभाविक

गुण, कर्म साधनों के नित्य होने से सदा स्वतन्त्र है परन्तु अनिच्छित दुःखरूप

पापों का फल भोगने के लिए ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र होते हैं । जैसा

कि राजा की व्यवस्था में चोर और डाकू पराधीन हो जाते हैं वैसे उन

पापपुण्यात्मक कर्मों के दुःख—सुख होने का ज्ञान मनुष्य को प्रथम नहीं है।

क्या परमेश्वर का ज्ञान हमारे किये हुए कर्मों से उल्टा है । जैसे वह अपने

ज्ञान में स्वतन्त्र है वैसे ही सब जीव अपने कर्म करने में स्वतन्त्र हैं ।

सातवाँ प्रश्नमोक्ष क्या पदार्थ है ?

उत्तरसब दुष्ट कर्मों से छूटकर सब शुभ कर्म करना जीवन्मुक्त और

सब दुःखों से छूटकर आनन्द से परमेश्वर में रहना, यह मुक्ति कहलाती है।

आठवाँ प्रश्नधन बढ़ाना अथवा शिल्पविघा व वैघकविघा से ऐसा

यन्त्र अर्थात् कला तथा औषधि निकालना जिस से मनुष्य को इन्द्रियजन्य सुख

प्राप्त हो अथवा पापी मनुष्य जो रोगग्रस्त हो औषध्यादि से नीरोग करना

धर्म है या अधर्म है ?

उत्तरन्याय से धन बढ़ाने, शिल्पविघा करने, परोपकार बुद्धि से यन्त्र

वा औषधि सिद्ध करने से धर्म और अन्याय करके करने से अधर्म होता

है । धर्म से आत्मा, मन, इन्द्रिय और शरीर को सुख प्राप्त हो तो धर्म और

जो अन्याय से हो तो अधर्म होता है । जो पापी मनुष्य को अधर्म से छुड़ाने

और धर्म में प्रवृत्त करने के लिए औषधि आदि से रोग छुड़ाने की इच्छा हो

तो धर्म, इससे विपरीत करने से अधर्म होता है ।

नववाँ प्रश्नतामस भोजन (मांस) खाने से पाप है या नहीं ? यदि

पाप है तो वेद और आप्त ग्रन्थों में हिंसा करना यज्ञादिकों में विहित है और

भक्षणार्थ हत्या करना क्याें लिखा है ?

उत्तरमांस खाने में पाप है। वेदों तथा आप्त ग्रन्थों में कहीं भी यज्ञादि

के लिए पशु—हिंसा करना नहीं लिखा है । गौ, अश्व, अजमेध के अर्थ वामियों

ने बिगाड़ दिये हैं । उनके सच्चे अर्थ हिंसा करना कहीं भी नहीं लिखा ।

हां जैसे डाकू आदि दुष्ट जीवों को राजा लोग मारते, बन्धन और छेदन करते

हैं वैसे ही हानिकारक पशुओं को मारना लिखा है । परन्तु मारकर उन को

खाना कहीं भी नहीं लिखा । आजकल तो वामियों ने झूठे श्लोक बनाकर

गोमांस का खाना भी बतलाया है जैसे कि मनुस्मृति में इन धूर्तों का मिलाया

हुआ लेख है कि गोमंास का पिण्ड देना चाहिये । क्या कोई पुरुष ऐसे भ्रष्ट

वचन मान सकता है ।

दशवाँ प्रश्नजीव का क्या लक्षण है ?

उत्तरइच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान यह जीव का लक्षण

न्यायशास्त्र में लिखा है ।

ग्यारहवाँ प्रश्नसूक्ष्म नेत्रों से ज्ञात होता है कि जल में अनन्त जीव

हैं तो जलपीना उचित है या नहीं ?

उत्तरक्या विघाहीन लोग अपनी मूर्खता की प्रसिद्धि अपने वचनों से

नहीं करा देते ? न जाने यह भूल संसार में कब तक रहेगी । जब पात्र और

पात्रस्थ जल अन्त वाले हों तो उन में अनन्त जीव कैसे समा सकेंगे और

छानकर या आंख से देखकर जल का पीना सब को उचित है ।

बारहवाँ प्रश्नमनुष्य के लिए बहुत स्त्री करना कहां निषेध है ? यदि

निषेध है तो धर्मशास्त्र में जो यह लिखा है कि यदि एक पुरुष के बहुत स्त्री

हों और उनमें एक के पुत्र होने से सब पुत्रवती हैं, यह क्यों लिखा ?

उत्तरमनुष्य के लिए अनेक स्त्रियों के करने का निषेध वेद में

लिखा है । संसार में प्रत्येक अच्छा नहीं होता । जो अनेक अधर्मी पुरुष कामातुर

होकर अपने विषयसुख के लिए बहुत—सी स्त्री कर लेवें तो उनमें सपत्नीभाव

(सौतन के भाव)से विरोध अवश्य होता है । जब किसी एक स्त्री के पुत्र हुआ

तो कोई विरोध से विषादिक प्रयोग से न मार डाले इसलिए यह लिखा है ।

तेरहवाँ प्रश्नआप ज्योतिष शास्त्र के फलित ग्रन्थों को मानते हैं या

नहीं ? और भृगुसंहिता आप्त ग्रन्थ है या नहीं ?

उत्तरहम ज्योतिष शास्त्र के गणित भाग को मानते हैं, फलित भाग

को नहीं । क्योंकि जितने ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थ हैं उन में फलित का

लेश भी नहीं है । जो भृगु—सिद्धान्त कि जिस में केवल गणित विघा है, उस

को हम आप्त ग्रन्थ मानते हैं, इतर को नहीं । ज्योतिष शास्त्र में भूत, भविष्यत्

काल का सुख—दुःख विदित होना कहीं नहीं लिखा । अनाप्तोक्त ग्रन्थों के

अतिरिक्त अर्थात् अप्रमाणित व्यक्तियों की लिखी हुई पुस्तकों के अतिरिक्त।

चौदहवाँ प्रश्नज्योतिष शास्त्र में आप किस सिद्धान्त को आप्तग्रन्थ

समझते हैं ?

उत्तरज्योतिष शास्त्र में जो जो वेदानुकूल ग्रन्थ हैं, उन सब को हम

आप्तग्रन्थ जानते हैं, अन्य को नहीं ।

पन्द्रहवाँ प्रश्नआप पृथिवी पर सुख, दुःख, विघा, धर्म और मनुष्य

संख्या की न्यूनता अधिकता मानते हैं या नहीं ? यदि मानते हैं तो आगे इन

की वृद्धि थी या अब है या होगी ।

उत्तरहम पृथिवी में सुखादिकों की वृद्धि किसी की व्यवस्था

सापेक्ष होने से अनियत मानते हैं, मध्यावस्था में समान जानो ।

सोलहवाँ प्रश्नधर्म का क्या लक्षण है और धर्म सनातन है

परमेश्वरकृत अथवा मनुष्यकृत ?

उत्तरजो पक्षपातरहित न्याय कि जिस में सत्य का ग्रहण और असत्य

का परित्याग हो, वह धर्म का लक्षण कहलाता है सो सनातन और ईश्वरोक्त

और वेदप्रतिपादित है, मनुष्यकल्पित कोई धर्म नहीं ।

सत्रहवाँ प्रश्नयदि मोहम्मदी या ईसाई मतानुयायी कोई आप के अनुसार

है और आपके मत में दृढ़ विश्वासी हो तो आपके मतानुयायी उस को ग्रहण

कर सकते हैं या नहीं और उस का पाक किया हुआ (पकाया) भोजन आप

और आपके मतानुयायी कर सकते हैं या नहीं ?

उत्तरविना वेदों के हमारा कोई कपोलकल्पित मत नहीं है फिर हमारे

मत के अनुसार कोई कैसे चल सकता है । क्या तुमने अन्धेर में गिरकर

खाना पीना, मलमूत्र करना, जूती, धोती, अंगरखा धारण करना, सोना, उठना,

बैठना, चलना धर्म मान रखा होगा । हाय खेद है इन कुमति पुरुषों पर कि

जिन के बाहर और भीतर की दृष्टि पर पर्दा पड़ा हुआ है जो कि जूता पहनना

या न पहनना धर्म मानते हैं । सुनो और आंख खोलकर देखो कि ये सब

अपने अपने देश—व्यवहार हैं ।

अठारहवाँ प्रश्नआपके मत से विना ज्ञान मुक्ति होती है या नहीं ?

यदि कोई पुरुष आपके मतानुसार धर्म पर आरूढ़ हो और अज्ञानी अर्थात्

ज्ञानहीन हो उस की मुक्ति हो सकती है या नहीं ?

उत्तरविना परमेश्वर सम्बन्धी ज्ञान के मुक्ति किसी की न होगी।

सुनो भाइयो ! जो धर्म पर आरूढ़ होगा उस को ज्ञान का अभाव कभी हो

सकता है वा ज्ञान के विना धर्म पर पूरा स्थिर निश्चय कोई मनुष्य कर

सकता है ?

उन्नीसवाँ प्रश्नश्राद्धादिक अर्थात् पिण्डदानादिक जिस में पितृतृप्ति के

अर्थ ब्राह्मणभोजनादि कराते हैं शास्त्ररीति है या अशास्त्ररीति ? यह यदि

अशास्त्ररीति है तो पितृकर्म का क्या अर्थ है और मन्वादिक ग्रन्थों में इनका

लेख है या नहीं ?

उत्तरजीते पितरों की श्रद्धा से सेवा पुरुषार्थ व पदार्थों से तृप्ति

करनी श्राद्ध और तर्पण कहलाता है। वह वेदादि शास्त्रोक्त है। भोजनभट्ट

अर्थात् स्वार्थियों का लड्डू आदि से पेट भरना श्राद्ध और तर्पण शास्त्रोक्त

तो नहीं किन्तु पापों का अनर्थकारक आडम्बर है । जो—जो मनु आदिक ग्रन्थों

में लेख है सो वेदानुकूल होने से माननीय है, अन्य कोई नहीं ।

बीसवाँ प्रश्नकोई मनुष्य यह समझकर कि मैं पापों से मुक्त नहीं

हो सकता, आत्मघात करे तो उस को कोई पाप है या नहीं ?

उत्तरआत्मघात करने में पाप ही होता है और विना भोगे पापाचरण

के फल के पापों से मुक्त कोई भी नहीं हो सकता ।

इक्कीसवाँ प्रश्नजीवात्मा संख्यात हैं या असंख्यात ? कर्म से मनुष्य

पशु अथवा वृक्षादि योनि में उत्पन्न हो सकता है या नहीं ?

उत्तरईश्वर के ज्ञान में जीव संख्यात और जीव के अल्पज्ञान में

असंख्यात हैं । पाप अधिक करने से जीव पशु, वृक्षादि योनि में उत्पन्न

होता है ।

बाईसवाँ प्रश्नविवाह करना अनुचित है या नहीं ? और सन्तान करने

से किसी पुरुष पर पाप होता है या नहीं ? और होता है तो क्या ?

उत्तरजो पूर्ण विद्वान् और जितेन्द्रिय होकर सर्वोपकार किया चाहे उस

पुरुष वा स्त्री को विवाह करना योग्य नहीं, अन्य सब को उचित है । वेदोक्त

रीति से विवाह करके ऋतुगामी होकर सन्तानोत्पत्ति करने में कुछ दोष नहीं।

व्यभिचारादि से सन्तान उत्पन्न करने में दोष है क्योंकि अन्यायाचरणों में दोष

हुए विना कभी नहीं रह सकता है ।

तेईसवाँ प्रश्नअपने सगोत्र में सम्बन्ध करना दूषित है या नहीं,

यदि है तो क्याें है ? सृष्टि के आदि में ऐसा हुआ था या नहीं ?

उत्तर अपने सगोत्र में विवाह करने में दोष यूं है कि इससे शरीर

आत्मा, प्रेम बलादि की उन्नति यथावत् नहीं होती, इसलिये भिन्न गोत्रों

में ही विवाह सम्बन्ध करना उचित है । सृष्टि के आदि में गोत्र ही नहीं

थे फिर वृथा क्यों परिश्रम किया । हां पोपलीला में दक्ष प्रजापति वा कश्यप

की एक ही सब सन्तान मानने से पशुव्यवहार सिद्ध होता है। इस को जो

माने सो मानता रहे।

चौबीसवाँ प्रश्नगायत्री—जाप से कोई फल है या नहीं और है तो

क्यों है ?

उत्तरगायत्री—जाप जो वेदोक्त रीति से करे तो फल अच्छा होता

है क्योंकि इसमें गायत्री के अर्थानुसार आचरण करना लिखा है । पोपलीला

के जप अनर्थरूप फल होने की क्या ही कथा कहना है ? कोई अच्छा व

बुरा किया हुआ कर्म्म निष्फल नहीं होता है ।

पच्चीसवाँ प्रश्नधर्म, अधर्म मनुष्य के अन्तरीय भाव से होता है

या कर्म के परिणाम से ? यदि कोई मनुष्य किसी डूबते हुए मनुष्य

को बचाने को नदी में कूद पड़े और वह आप डूब जाये तो उस आत्मघात

का पाप होगा या पुण्य ?

उत्तरमनुष्यों के धर्म और अधर्म भीतर और बाहर की सत्ता से

होते हैं कि जिन का नाम कर्म और कुकर्म भी है । जो किसी को बचाने

के लिये परिश्रम करेगा और फिर उपकार के लिये जिस का शरीर

वियोग ही हो जाये उस को विना पाप पुण्य ही होगा ।

(लेखराम पृष्ठ ४८७—४९२)

(320) शंका :- जो अवतार हुए हैं ये कौन हैं और उनका बनाने वाला कौन है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

१जो कि चार धाम सप्तपुरी आदि नगर और ग्रामों में उन्नत शिखर

और मन्दिर और इन में देवताओं की मूर्तियों का स्थापन हो रहा है और परम्परा

से पूजा होती आती है । अब इस में आप को भ्रम और सन्देह हुआ सुना

है जो अवश्य सन्देह नहीं तो श्रुति—स्मृति के प्रमाण इस में दीजिएगा और

जो सन्देह नहीं है तो व्यक्त कीजियेगा ।

२गग जी सब नदियों से श्रेष्ठ और पूजनीय है इसमें भी प्रमाण दीजिये

और जो सन्देह कुछ हो तो प्रकाशित करें ।

३और जो अवतार हुए हैं ये कौन हैं और उनका बनाने वाला कौन

है ? और पराक्रम उन को किस ने दिया अथवा ये समर्थ हैं ? अवतारों की

सी सामर्थ्य किसी राजा में अथवा और मनुष्य में नहीं सुनी । प्रमाण श्रुति

स्मृति का होय तो लिखियेगा । इति ।

उत्तर शीघ्र देना योग्य है पत्र द्वारा उत्तर देने में सन्देह समझें तो बलेश्वर

महादेव के मन्दिर में सभा नियत की जावे कि जिससे सत्यार्थ का निश्चय

और सन्देह की निवृत्ति होवे । इति ।

स्वामी जी के उत्तर

१मुझ को पाषाणादि मूर्तिपूजन के विषय में सन्देह या भ्रम कदापि

नहीं, प्रत्युत भली प्रकार निश्चय है कि यह वेदविरुद्ध है। परन्तु भ्रम आप लोगों

का ठीक है कि जिस के कारण से पाषाणादि मूर्तियों को स्थानों और मन्दिरों में

स्थापन करके उन का नाम देव या देव की मूर्ति रखते हैं और उन को देव मानते

हैं। विचारणीय बात यह है कि पाषाणादि मूर्तिपूजन की शिक्षा न किसी ऋषि

मुनि के वचन से और न किसी शास्त्र के उद्धरण से सिद्ध है, प्रत्युत सब से

उस का निषेध प्रकट है । और न पाषाणादि मूर्ति का नाम किसी वेद या शास्त्र

में देव लिखा है और न किसी ऋषि मुनि ने ब्रह्मा जी से लेकर जैमिनि मुनि तक

अपनी पुस्तकों में ट्टट्टदेव’’ का अर्थ पाषाणादि मूर्ति लिखा है । केवल परमेश्वर,

विद्वान् और वेदमन्त्रादि का नाम देव है जो कि दिव्य गुणों से युक्त हैं । पाषाणादि

मूर्ति का नाम देव कदापि नहीं तो फिर बतलाइए कि आपका ऐसा मानना किस

रीति से ठीक है । इस के अतिरिक्त परमेश्वर की पाषाणादि की मूर्ति बनाकर

उपासना करना तो वेदों के अनुसार कि जिन पर हमारा धर्म पूर्णतया निर्भर करता

है, निषिद्ध और विरुद्ध है जैसा कि यजुर्वेद के ३२वें अध्याय के तीसरे मन्त्र

से प्रकट है ।

न तस्य प्रतिमास्ति यस्य नाम महघशः ।

हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः ।।

इस मन्त्र का अर्थ यह हैपरमेश्वर की प्रतिमा अर्थात् सदृश उदाहरण,

नाप का साधन या प्रतिबिम्ब जिस को चित्र कहते हैं किसी प्रकार नहीं ।

उस की आज्ञा का ठीक—ठीक पालन और सत्यभाषणादि कर्म का करना जो

उत्तम कीर्तियों का हेतु है, उस के नाम का स्मरण कहाता है । वही परमेश्वर

तेजवाले सूर्य्यादि लोकों की उत्पत्ति का कारण है । माता—पिता के संयोग

से न उत्पन्न हुआ और न होगा । इसी से यह प्रार्थना है कि परमात्मन् !

हम लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर ।

अब देखिये इस मन्त्र में स्पष्ट शब्दों में मूर्तिपूजन का निषेध है अर्थात्

परमेश्वर का न उदाहरण है, न सादृश्य है और न उसका प्रतिबिम्ब या चित्र

है और न हो सकता है तो फिर परमेश्वर की पाषाणादि मूर्ति बनाना और

उस को परमेश्वर मानना और उस की उपासना करना किस प्रकार सिद्ध हुआ।

यह सब अज्ञान का फल है और कुछ नहीं । प्रत्युत वेद में तो केवल एक

निराकार परमेश्वर की उपासना की शिक्षा और अन्य की उपासना का निषेध

है। फिर बतलाइये कि पचासों और सैकड़ों देवताओं की उपासना किस प्रमाण

से ठीक है । बहुत से मन्त्रों में से दो वेदमन्त्र उपासना विषय के अपनी बात

के समर्थन में यहां लिखता हूं

प्रथम मन्त्रट्टट्टहिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे’’ आदि ।

इस मन्त्र का अभिप्राय यह हैहिरण्यगर्भ जो परमेश्वर है वही एक

सृष्टि के पूर्व वर्त्तमान था, वही इस जगत् का स्वामी है और वही पृथ्वी से

लेकर सूर्य्यादि तक सब जगत् को रचकर उस का धारण कर रहा है । उसी

सुखस्वरूप परमेश्वर देव की हम उपासना करें, और की नहीं । यह ऋग्वेद

के आठवें अध्याय सातवें अष्टक और तीसरे वर्ग का पहला मन्त्र है ।

दूसरा मन्त्रट्टट्टअन्धन्तमः प्रविशन्ति’’ आदि ।

यह यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का नववाँ मन्त्र है इस का अर्थ यह

हैजो मनुष्य कभी न उत्पन्न होने वाले अनादि जड़रूप कारण की उपासना

करते हैं वे अविघादि दुःखरूप अन्धकार में प्रवेश करते हैं । और जो मनुष्य

संयोग से उत्पन्न हुए पृथ्वी—विकाररूप कार्य्य में उपासना भाव से मन करते

हैं, वे कारण की उपासना करने वाले मनुष्य से भी अधिक महाक्लेशों को

प्राप्त होते हैं । इससे स्पष्टतया सिद्ध है कि मनुष्यों को उक्त कारण और

कार्य अर्थात् उपर्युक्त सामग्री और उस से बनी या उत्पन्न होने वाली वस्तुओं

और पाषाणादि मूर्ति की उपासना नहीं करनी चाहिये और केवल एक पूर्ण

ब्रह्म परमेश्वर की उपासना करनी योग्य है ।

युक्ति द्वारा देखने से भी पाषाणादि मूर्तिपूजन उचित नहीं हो सकता

है क्योंकि यदि यह कहा जाये कि हम पाषाणादि की मूर्ति में देव की भावना

करते हैं, कुछ उस को पाषाणादि नहीं मानते तो प्रथम तो यह बतलाइये कि भावना

सच्ची है या झूठी । यदि सच्ची है तो सुख की भावना करने वालों को दुःख

क्यों होता है अर्थात् जब संसार में सब सुख की भावना करते हैं और दुःख की

भावना कोई नहीं करता फिर उस को दुःख क्यों होता है? और सुख ही सुख

क्यों नहीं होता ? और इसी प्रकार पानी में दूध की और मिट्टी में मिश्री की

भावना कर देखो ! यदि भावना सत्य है तो ये वस्तुएं भी भावना करने से वैसी

ही हो जावेंगी और यदि न होवें तो भावना से पाषाणादि मूर्ति भी देव नहीं हो

सकती। और यदि यह कहा जावे कि भावना झूठी है तो आपका मानना और

करना झूठ हो लिया । और यदि यह कहो कि चूंकि परमेश्वर सब में व्यापक

है इसलिये पाषाणादि मूर्तियाें में भी व्यापक है तो यह आप की बहुत बड़ी भूल

है कि आप लोग चन्दन और पुष्पादि लेकर मूर्तियों पर चढ़ाते हैं । क्या चन्दन

और फूल में परमेश्वर व्यापक नहीं ? और इस के अतिरिक्त अपने ही में परमेश्वर

को व्यापक क्यों नहीं मानते, पाषाणादि मूर्तियों को क्यों शिर नवाते हो ? जब

परमेश्वर व्यापक है और आप भी व्यापक मानते हैं तो केवल पाषाणादि मूर्तियों

ही में क्यों व्यापक मानकर उस की उपासना करते हो? इस दशा में तो केवल

एक वस्तु में परमेश्वर को व्यापक मानकर उस की व्यापकता को छोटा करते

हो । यदि यह कहा जावे कि मूर्तिपूजन अज्ञानी मनुष्यों के ब्रह्म को पहचानने

के लिए एक साधन बना रखा है तो यह बात भी बुद्धि और युक्ति से पूर्णतया

दूर है क्योंकि गुण गुणी से और गुण प्राप्त करने के साधनों से मिलता है । जड़

पदार्थ और ऐसे साधनों से कभी गुण नहीं मिल सकता है, इसलिये पाषाणादि

मूर्तिपूजन से तो दिन—प्रतिदिन बुद्धि पत्थर होती जायेगी । ब्रह्म के पहचानने की

तो बात ही क्या है और दूसरे आपके इस कथन से आपका पहला कथन भावना

का भी झूठ हो गया क्योंकि जब अज्ञानी लोग ब्रह्म को नहीं जान सकते हैं तो

वे केवल पाषाणादि मूर्ति को परमेश्वर जानेंगे न कि परमेश्वर को पत्थर से पृथव्Q

और पत्थर में व्यापक जानेंगे । और यदि यह कहो कि हम पाषाणादि मूर्ति में

प्राणप्रतिष्ठा करके प्राण डाल देते हैं फिर वह मूर्ति जड़ नहीं रहती है तो यह

बात बिल्कुल मूर्खता की है क्योंकि पाषाणादि मूर्ति में कभी प्राणप्रतिष्ठा से प्राण

आते नहीं देखे और न जीव के लक्षण तथा कर्म कभी मूर्ति में दृष्टिगोचर हुए।

और यदि आपके कथनानुसार यह मान भी लिया जाये कि प्राणप्रतिष्ठा से

पाषाणादि मूर्तियों में जान भी पड़ जाती है तो फिर आप मृतक को जीवित क्यों

नहीं कर लेते हैं । मृतक शरीर में तो श्वास के आने के लिये छिद्र भी होते हैं

परन्तु पाषाणादि मूर्तियों में कुछ भी नहीं होता है और यह जो आपने लिखा है

कि पाषाणादि मूर्तिपूजन परम्परा से चला आता है तो यह केवल भ्रम और अविघा

का फल है । विचार तो कीजिये कि यदि पाषाणादि मूर्तिपूजन सनातन है तो वेदों

में उसकी शिक्षा होनी चाहिये क्योंकि वेद सनातन हैं और जब वेदों में उसकी

शिक्षा नहीं तो पाषाणादि मूर्तिपूजन भी सनातन नहीं है । मन्दिर और धामादि के

विषय में तो आपने लिखा है कि ये सब पाषाणादि मूर्तिपूजन के सहायक हैं ।

जबकि पाषाणादि मूर्तिपूजन ही वेदविरुद्ध और झूठ सिद्ध हो लिया तो उनकी

क्या बात है ।

२प्रथम तो प्रश्न आप का विचित्र प्रकार का है उस की विशेषता

उस के वाक्य से ही प्रकट है, लिखने या कहने में नहीं आ सकती । आप

पूछते हैं कि गग जी के सब नदियों में पूजनीय और श्रेष्ठ होने में क्या प्रमाण

है? इस से विदित हुआ कि या तो गग जी आप की दृष्टि में श्रेष्ठ और

पूजनीय नहीं और यदि श्रेष्ठ और पूजनीय भी हैं तो आप इसका प्रमाण नहीं

दे सकते हैं । अन्यथा इस बात का मुझ से पूछना क्या आवश्यक था । अब

इतना प्रश्न जो शेष रहा कि यदि गग जी के पूजनीय और श्रेष्ठ होने में

कुछ सन्देह है तो प्रकट करो । इस का उत्तर है कि मुझ को इस बात में

किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं, प्रत्युत मैं निश्चय करके गग जी को श्रेष्ठ मानता

हूं क्योंकि और किसी नदी का ऐसा उत्तम और गुणसहित जल नहीं है परन्तु

गग जी को मुक्ति देने और पाप छुड़ाने का साधन नहीं मान सकता

हूं । भलीभांति समझ लो कि पाप और पुण्य जितना किया जाता है उस से

एक कण न घट सकता है और न बढ़ सकता है । और जब गग जी के

स्नान से मुक्ति प्राप्त हुई या पाप छूट गये तो फिर सत्यधर्म और उत्तम कर्म

करना, परमेश्वर की आज्ञा में चलना और उसकी स्तुति और उपासना करना

बिल्कुल व्यर्थ है क्योंकि जब एक चीज सरलता से मिल सकती है तो फिर

कठिन मार्ग को क्यों चलिये । वेदादि सत्यशास्त्रों में कहीं भी गग जी के

स्नान का माहात्म्य मुक्तिदायक होने में नहीं लिखा है और यदि कहो कि

तीर्थादि नाम तो वेद और धर्मशास्त्रों में लिखे हैं तो यह केवल समझ की

भूल है। वेदादि सत्यशास्त्रों में वेदों के पढ़ने, धर्म के अनुष्ठान और सत्य

के ग्रहण और असत्य के त्याग का नाम तीर्थ लिखा है क्योंकि इन साधनों

से ही मनुष्य दुःखसागर से तरकर मुक्ति पा सकता है। देखिये प्रथम तो मनु

जी महाराज ने मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के नववें श्लोक में लिखा है

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।

विघातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।

इस का अर्थ यह हैजल से शरीर की शुद्धि, सत्य से मन की शुद्धि,

विघा और तप से जीवात्मा की शुद्धि और ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है।

दूसरे छान्दोग्योपनिषद् का यह वचन है

अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः ।’’

इस का अर्थ यह हैमनुष्यों को इस तीर्थ का सेवन करना उचित है

कि अपने मन से वैरभाव को छोड़कर सब के सुख देने में प्रवृत्त रहें और

संसारी व्यवहार के बर्ताव में किसी को दुःख न देवें । इस के अतिरिक्त

और कोई तीर्थ नहीं है ।

अब समझ लेना चाहिये कि सत्यशास्त्रों तथा अन्य युक्तियों के अनुसार

गग कभी मुक्तिदायक नहीं हो सकती ।

३आप जिन को परमेश्वर का अवतार कहते हैं ये महा उत्तम पुरुष

थे। परमेश्वर की आज्ञा में चलते थे, सत्य धर्म और न्यायादि गुणों सहित थे,

वेदादि सत्यशास्त्रों के पूर्ण जानने वाले थे । आज तक कोई और ऐसा हुआ

और न है परन्तु आप जो इन उत्तम पुरुषाें को परमेश्वर का अवतार मानते

हो यह आप की भ्रान्ति है। भला परमेश्वर का कभी अवतार हो सकता

है? वह तो अजर और अमर है । जब उस का अवतार हुआ तो उस का

यह गुण जाता रहा । इसके अतिरिक्त जब परमेश्वर व्यापक और सर्वत्र विघमान

है तो उसका एक शरीर में आना क्योंकर हो सकता है और यदि कहो कि

परमेश्वर प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक मनुष्य में विघमान है तो यह सत्य

है परन्तु यह नहीं कि केवल एक मनुष्य और एक स्थान में है और औरों

में नहीं । इस के अतिरिक्त परमेश्वर को जन्म लेने की क्या आवश्यकता

है ? यदि आप कहें कि रावण और कंसादि को विना अवतार लिये परमेश्वर

कैसे मार सकता था तो यह आप का कहना अत्यन्त अशुद्ध है । क्योंकि

जब वह निराकार परमेश्वर विना शरीर के सब जगत् का पालन और धारण

कर रहा है और विना शरीर के जगत् का प्रलय भी कर सकता है तो उस

को विना शरीर के कंसादि एक—दो मनुष्य का मारना क्या कठिन था ? और

जो यह बात आप पूछते हैं कि इन अवतारों का बनानेवाला कौन है और किस

ने इन को पराक्रम दिया अथवा ये स्वयं समर्थ थे । इसका उत्तर अत्यन्त सरल

और स्पष्ट है । सब का बनाने वाला और पराक्रम देनेवाला परमेश्वर है ।

उस के अतिरिक्त और कोई पराक्रम देने वाला नहीं हो सकता । परन्तु आप

के प्रश्न से प्रकट होता है कि आप की दृष्टि में कदाचित् कोई और भी

परमेश्वर के अतिरिक्त बनाने और पराक्रम देने वाला है । अपने आप तो न

कोई समर्थ हुआ और न है और न होगा । यह जो आप प्रश्न करते हैं कि

उन अवतारों की सी सामर्थ्य और किसी राजा अथवा मनुष्य में क्यों नहीं

हुई, यह आप का कहना तो बिल्कुल व्यर्थ है क्योंकि जिस में जैसे गुण होते

हैं वैसी उस में सामर्थ्य होती है और जैसी जिस में सामर्थ्य है वैसे ही उस

में गुण होते हैं । आजकल बहुत से ऐसे मनुष्य हैं कि बिल्कुल कर्महीन और

अज्ञानी हैं और बहुत से ऐसे विद्वान् सामर्थ्य और पराक्रम वाले हैं कि हजारों

में और कोई उन के समान नहीं तो क्या इस कारण से उन सामर्थ्य वाले

मनुष्यों को परमेश्वर का अवतार कहना या मानना उचित है ? वाह ! वाह!

परमेश्वर का अवतार होने का आपने क्या बढि़या प्रमाण सोच रखा है । किसी

ने सत्य कहा है

प्रत्येक की विचारशक्ति उसकी सामर्थ्य के अनुसार होती है ।’

परन्तु बड़े दुःख की बात है कि आप लोग यघपि रामचन्द्र जी और

श्रीकृष्णादि उत्तम पुरुषों को परमेश्वर का अवतार मानते हो फिर भी उन की

परले सिरे की निन्दा और बुराई करने में संलग्न रहते हो । नगर—नगर और

गली—गली में उन की पाषाणादि की मूर्ति बनवाकर उन से भीख मंगवाई जाती

है और पैसे—पैसे के लिए सर्वसाधारण के सामने उन के हाथ फैलवाये जाते

हैं । जब धनवान् अथवा साहूकार शिवालय या मन्दिर में आते हैं या पुजारी जी

स्वयम् उन के पास जाते हैं तो कहते हैं कि सेठ जी ! आज तो नारायण भूखे

हैं, राधाकृष्ण जी को कल रात से बालभोग नहीं मिला है । इन दिनों तो सीता—राम

जी को प्रशादी की ही कठिनाई पड़ रही है । सर्दी के कपड़े नारायण के पास

नहीं हैं और शीतकाल शिर पर आ गया है । पुराने कपड़े सीताराम जी के तो

कोई दुष्ट चुरा ले गया, उसी दिन से हम सीताराम जी को ताली कुञ्जी में बन्द

रखते हैं, नहीं तो उन की भी कुशलता नहीं थी। और यदि किसी रईस या

धनवान् की ओर से शिवालय या मन्दिर का मासिक व्ययादि नियम हुआ तो

पुजारी जी या बाबा जी जब कहीं बैठे होते हैं तो अपनी झूठी प्रेमभक्ति को जताने

के लिए कहते हैं कि लो यजमान ! हम को जाने दो, अब हमारे सीताराम जी

या राधाकृष्ण जी भूखे होंगे और जब हम जावेंगे तो उन को भोजन मिलेगा अन्यथा

भूखे बन्द रहेंगे । अब देखिये रामलीला को बनवाकर किस प्रकार आप लोग

अपने उत्तम पुरुषों की नकल बनवाते और कितनी उन की निन्दा कराते हो और

अन्य मतवालों को उन पर हंसवाते हो और उन का अपमान कराते हो । इस

लीला का तो कुछ वर्णन ही नहीं, देखो प्रायः लोग क्या धनवान्, क्या रईस, क्या

दुकानदार और क्या श्रमिकादि, सब इस रास की सभा में एकत्रित होते हैं और

रास देख—देख अत्यन्त प्रसन्न होते हैं । कोई कहता है कि कृष्ण जी अच्छा नाचते

हैं, कोई कहता है राधा जी बड़ी शोभावान् हैं, कोई कन्हैया जी के गाने पर प्रसन्न

हो रहा है, कोई राधा जी की मूर्ति पर मोहित और लट्टू है अत्यन्त प्रेमभक्ति

प्रकट कर रहा है । कोई कहता है वाह ! वाह ! साक्षात् राधाकृष्ण जी ही आ

गये हैं । इन्हीं कन्हैया जी ने हजारों गोपियों के साथ भोगविलास किया है। १६००

रानियां रखी हैं, बहुत दूध माखन चुराकर खाया है, नहाते हुए नंगी स्त्रियों के

कपड़े तक चुरा लिये हैं और उन को पहरों नग्न सामने खड़ा रखा है ।

अधिक और कहां तक तुम्हारी बातों का वर्णन करूं । अब लज्जा भी रोकती

है और बुद्धि भी आज्ञा नहीं देती परन्तु खेद, लाख बार खेद कि आप लोग अपने

देश के ऐसे—ऐसे राजा, महाराजों को जो हजारों—लाखों पर शासन करते थे और

उन का पालन तथा सहायता करते थे । और ऐसे उत्तम पुरुषों को जो समस्त

आयु परमेश्वर की आज्ञा में रहे, सत्यवादिता, सदाचार और धर्म्म के कामों में

अद्वितीय हुए, उन को खाने, कपड़े का भिक्षुक बनाते हो, अधर्मी, व्यभिचारी,

तमाशबीन और चोर ठहराये हो । और केवल अपनी स्वार्थ—सिद्धि और मनोरञ्जन

के लिए उन की अपकीर्ति करते और कराते हो। और उन के विषय में ऐसी

झूठी कहानियां कि जिन का प्रमाण किसी पुस्तक या इतिहास से प्राप्त नहीं हो

सकता, अपने मन से बना—बनाकर वर्णन करते हो और फिर अपने आप को

उन का भक्त, गुणगायक और प्रशंसक समझते हो । हाय, हाय, इन बातों के

वर्णन से मन पर इतना शोक और दुःख का भार है कि अधिक वर्णन करने की

सामर्थ्य नहीं । इसलिए इसी पर सन्तोष करता हूं और अपने इस कथन के समर्थन

में कि परमेश्वर का अवतार किसी अवस्था में नहीं हो सकता है, दो वेदमन्त्र

कहता हूं । पहला यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का आठवां मन्त्र है और दूसरा

यजुर्वेद के ३१वें अध्याय का पहला मन्त्र है

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी

परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।।

इस मन्त्र का अर्थ यह है परमेश्वर सब में व्यापक और अनन्त पराक्रम

वाला है, वह सब प्रकार के शरीर से रहित है कटने, जलने आदि रोगों से

परे है, नाड़ी आदि के बन्धन से पृथव्Q है। सब दोषों से रहित और सब पापों

से न्यारा है । सब का जानने वाला, सब के मन का साक्षी, सब से श्रेष्ठ

और अनादि है । वही परमेश्वर अपनी प्रजा को वेद के द्वारा अन्तर्यामी रूप

से व्यवहारों का उपदेश करता है ।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।

इस मन्त्र का अर्थ यह है परमेश्वर तीनों प्रकार के जगत् (अर्थात् भूत,

भविष्य और वर्तमान) को रचता है, उस से भिन्न दूसरा और कोई जगत् का

रचने वाला नहीं है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है । मोक्ष भी परमेश्वर की

ही कृपा से मिलता है । पृथिवी आदि जगत् परमेश्वर के व्यापक होने से

स्थित हैं और वह परमेश्वर इन वस्तुओं से पृथव्Q भी है क्योंकि उस में जन्मादि

व्यवहार नहीं । वह अपने सामर्थ्य से सब जगत् को उत्पन्न करता है और

आप कभी जन्म नहीं लेता है ।

अब भली प्रकार सिद्ध हो गया कि वेद और बुद्धिपूर्वक युक्तियों के

अनुसार परमेश्वर का अवतार किसी प्रकार से नहीं हो सकता । इति ।

नोटउपर्युक्त प्रश्न धर्मरक्षिणी सभा मेरठ की ओर से स्वामी जी महाराज

से उस समय पूछे गये जब वे ५ सितम्बर, सन् १८७८ से ला० रामसरनदास

साहब रईस, मेरठ के मकान पर उन के अनुरोध से व्याख्यान दे रहे थे ।

१० सितम्बर को सभा समाप्ति के समय सभा में यह घोषणा की गई कि

समस्त आये हुए प्रश्नों के उत्तर कल से दिये जाने आरम्भ होंगे। जिन सज्जनों

ने प्रश्न किये हैं वे कल के दिन से सभा में आकर उत्तर सुन लें और जिस

किसी को उत्तरों के लिखने की इच्छा हो वह उसी समय लेखबद्ध कर लें

। इस घोषणा के अनुसार तीन दिन में समस्त प्रश्नों के उत्तर स्वामी जी ने

सभा में दे दिये । (लेखराम पृष्ठ ४०१, ४०९)

मेरठ में शास्त्रार्थ के नियम

सितम्बर, १८७८

१उभय पक्ष से निम्नलिखित १२ सज्जन सभा के प्रबन्धक नियत

किये जायें, यदि वे स्वीकार करें ।

यहां १२ सज्जनों के नाम थे ।

२इन में से एक सज्जन और यदि सम्भव हो तो मातहत जज साहब

प्रबन्धक सभा के सभापति नियत किये जायें ।

३प्रबन्धकों के अतिरिक्त उपस्थित जन की संख्या हर एक ओर से

पचास—पचास से अधिक न हो तो अच्छा है ।

142

४उपस्थित होने वालों की जो संख्या नियत की जावे उतने ही टिकट

छपवाकर आधे—आधे हरेक पक्ष को दिये जावें ।

५हर एक पक्ष अपनी ओर के उपस्थित मनुष्यों को नियम में रक्खे

और सब प्रकार से उन का उत्तरदाता रहे ।

६हर एक पक्ष की ओर से योग्य पण्डितों की संख्या दस से

अधिक न हो, कम का अधिकार है ।

७उभयपक्ष में से केवल एक ही पण्डित सभा में भाषण करे अर्थात्

एक ओर से स्वामी दयानन्द और दूसरी ओर से पण्डित श्रीगोपाल ।

८इस सभा में हर विषय का खण्डन—मण्डन वेदों के प्रमाण ही से

किया जावे ।

९वेदमन्त्रों के अर्थों के निश्चय के लिए ब्रह्मा जी से जैमिनि जी

तक के ग्रन्थों की, जिसे दोनों पक्ष मानते हैं, साक्षी देनी होगी जिन का ब्यौरा

इस प्रकार है

ऐतरेय, शतपथ, साम, गोपथ, शिक्षा कल्प, व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु,

छन्द, ज्योतिष, पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य, वेदान्त, आयुर्वेद,

गान्धर्ववेद अर्थवेद आदि ।

१०विदित रहे कि ऐतरेय ब्राह्मण से लेकर अर्थवेदादि तक ऋषियों

और मुनियों की ही साक्षी और प्रमाण होंगे, परन्तु यदि इन में भी कोई वाक्य

वेदविरुद्ध होगा तो दोनों पक्ष उस को स्वीकार न करेंगे ।

११उभयपक्ष को वेदाें तथा प्रत्यक्षादि प्रमाणों, सृष्टि—क्रम और सत्य

धर्म से युक्त भाषण करना तथा मानना होगा ।

१२इस सभा में जो व्यक्ति किसी पक्ष का पक्षपात और राग प्रदर्शन

करे, उसे सहस्र ब्रह्महत्या का पाप होगा ।

१३यतः बहुत बड़ी बात केवल एक पाषाणादि मूर्तिपूजन ही है, इस

लिए इस सभा में मूर्तिपूजन का खण्डन और मण्डन होगा और यदि वेदाें की

रीति से पण्डित जी पाषाणादि मूर्तिपूजन का मण्डन कर देवें तो पण्डित जी

की सब बातें भी सच्ची समझी जावेंगी और स्वामी जी मूर्तिपूजन का खण्डन

को छोड़ मूर्तिपूजन स्वीकार कर लेवेंगे और जो स्वामी जी वेदों के प्रमाण

से पाषाणादि मूर्तिपूजन का खण्डन कर देवें तो स्वामी जी की और बातें भी

सच्ची समझी जावेंगी और पण्डित जी उसी समय से मूर्तिपूजन छोड़कर

मूर्तिपूजन का खण्डन स्वीकार कर लेवें । ऐसा ही उभय पक्ष को स्वीकार

करना होगा ।

१४उभयपक्ष से प्रश्नोत्तर लिखित होने चाहियें अर्थात् हर एक प्रश्न

मौखिक किया जावे और तत्क्षण लिख दिया जावे । बल्कि जहां तक सम्भव

हो वक्ता का एक एक शब्द लिखा जावे ।

हर एक प्रश्न के लिए पांच मिनट और हर एक उत्तर के लिए पन्द्रह

मिनट नियत हों और नियत समय की कमी का अधिकार है, परन्तु अधिक

समय का नहीं ।

१५सभा में स्वामी जी, पण्डित जी तथा अन्य पुरुषाें की ओर से

आपस में कोई कठोर भाषण न हो, प्रत्युत अत्यन्त सभ्यता और नम्रता से

सत्यासत्य का निश्चय करें ।

१६सभा का समय ६ बजे सायंकाल से नौ बजे रात्रि तक रहे तो

उत्तम है ।

१७प्रश्नोत्तर के लिखने के लिए तीन लेखक नियत होने चाहिए और

प्रत्येक लेख पर मिलान करने के पश्चात् प्रतिदिन दोनाें पक्षों के हस्ताक्षर होकर

एक—एक प्रति हर पक्ष को दी जावे और (एक) प्रति बक्स में बन्द करके उस

पर उभयपक्ष और सभापति का ताला लगाकर सभापति के पास रहे ताकि लेखों

में कुछ न्यूनाधिक न होने पावे और आवश्यकता के समय काम आये ।

१८सभास्थल सब प्रबन्धकों की सम्मति के अनुसार नियत होगा ।

१९जम्मू और काशी आदि स्थानाें के पण्डितों की सम्मति के ऊपर

इस सभा के निर्णय का निर्भर न होना चाहिए क्याेंकि ये स्थान मूर्तिपूजा के

घर हैं और यहां इस विषय में पण्डितों से शास्त्रार्थ भी हो चुका है । इसलिए

उपर्युक्त वेद—शास्त्रादि जिन में हर विषय की विशद व्याख्या की गई है मध्यस्थ

और साक्षी के लिए पर्याप्त हैं । हां यह अधिकार है कि यदि दूसरे पक्ष को

कुछ सन्देह व संशय हो तो आज १७ तारीख सितम्बर, सन् १८७८ से दो

दिन के भीतर उपर्युक्त स्थानों व अन्य जगह से उस पण्डित से जो उस की

सम्मति में उत्तम और श्रेष्ठ हो आने जाने के विषय में तार द्वारा बातचीत

करके स्थिर कर ले वा प्रबन्ध कर लें और आज से छः दिन के भीतर अर्थात्

२२ सितम्बर, रविवार के दिन तक उसे यहां बुला लेवें। यदि दूसरे पक्ष की

ओर से इस अन्तर में उचित प्रबन्ध न हो वा विरुद्ध कार्यवाही हो तो उस

पक्ष की सभी बातें कच्ची और आधार—शून्य समझी जावेंगी और स्वामी जी

इस अन्तर में कहीं चले जावें वा इस लेख से बद्ध न रहें तो उन की बात

कच्ची और आधारशून्य समझी जावेगी ।

२०दोनों पक्षों को सभा में वे सब पुस्तकें, जिन का वे प्रमाण दें सभा

144

के समय अपने साथ लानी चाहियें । उभयपक्ष को विना असली पुस्तकों के

मौखिक साक्षी स्वीकार न होगी ।

अन्तिम नियम लाला किशनसहाय को नहीं लिखाया गया था, परन्तु

आगे कोई कठिनता न हो इस बात को दृष्टि में रखकर यह नियम भी सम्मिलित

किया गया । लिखा हुआ १७ सितम्बर, सन् १८७८ का ।

१८ सितम्बर को भी लाला किशनसहाय ने कोई उत्तर न भेजा परन्तु

पण्डित श्रीगोपाल की ओर से कुछ नियम इन नियमों के परिवर्तन में महाराज

के पास आये ।

पं० श्रीगोपाल जी ने स्वामी जी के प्रस्तावित नियमों में निम्नलिखित

परिवर्तन करके भेजे थे ।

१प्रबन्धकों में ८ नाम और बढ़ाए जावें और उन्हें प्रबन्धक सभा और

निश्चयकर्त्ता सनातनधर्म लिखना चाहिये ।

२मध्यस्थ अवश्य होना चाहिए और साहब कलक्टर जिला बुलन्दशहर

संस्कृतज्ञ हैं, मध्यस्थ हों ।

३उपस्थित होने वाले मनुष्यों की संख्या सीमित करने और टिकट

देने की कोई आवश्यकता नहीं ।

४झूठ सच को विना पक्षपात प्रकट करने के लिए मध्यस्थ होना

आवश्यक है जब कि आप कहते हैं कि ग्रन्थों में वेदविरुद्ध वाक्य होगा तो

उस का प्रमाण न माना जावेगा ।

५समय चार बजे से सात बजे तक रहेगा । ५ मिनट प्रश्न और १५

मिनट उत्तर लिखने के लिए अपर्याप्त हैं समय की कोई सीमा न होनी चाहिए।

६दो दिन में बाहर के पण्डितों का आना असम्भव है, अतः उन्हें

लाने के लिए मनुष्य भेजना पड़ेगा और जब तक वे न आवें आप को यहां

ही ठहरना होगा । यदि इसे स्वीकार न करें तो किसी वेद और उभयपक्ष स्वीकृत

ग्रन्थों के जानने वाले विद्वान् को मध्यस्थ बनावें । विना मध्यस्थ के सभा

का पूरा—पूरा प्रबन्ध नहीं हो सकता ।

१८ सितम्बर को महाराज ने अपने हस्ताक्षरों से एक पत्र लाला

किशनसहाय के पास भेजा कि यदि आप हृदय से कुछ निर्णय करना चाहते

हैं तो आप नियम के अनुसार कार्य कीजिये, हम उन से बद्ध हैं । इस के

उत्तर में एक पत्र विना हस्ताक्षरों के लाला किशनसहाय के नाम से आया

जिस में लिखा था कि पण्डितों की बातों से ज्ञात हुआ कि आप वेदविरुद्ध

उपदेश करते हैं और कुछ अनुचित शब्द महाराज के विषय में लिखे थे ।

मेरठ में शास्त्रार्थ के नियम 145

इस के उत्तर में महाराज ने लिखा कि आपको वेदों से अनभिज्ञ पण्डितों

के कहने से ऐसा लिखना उचित न था । उत्तम हो यदि आप उचित समझें

तो मैं अपने दो विघार्थियों को आपके यहां सभा में भेज दूं और वे यदि आप

अनुमति दें तो आपके पण्डितों से वेद विषय में कुछ प्रश्न करें, तब आप

को पण्डितों की व्यवस्था ज्ञात हो जायेगी । यदि आप को यह स्वीकार न

हो तो आप कृपापूर्वक मेरे निवास स्थान पर अर्थात् बाबू छेदीलाल के गृह

पर पधारें और सब शटाओं को निवृत्त कर लेवें । इस का उत्तर तो आया,

परन्तु उस पर प्रेषकों के हस्ताक्षर न थे । उस का सार यह था कि आप

वेद बिल्कुल नहीं जानते और आप मार्ग भूले हुए हैं और हमारे पण्डित विद्वान्

हैं । हमें हमारे पण्डित यथा पण्डित श्रीधर कहते और लिखते हैं कि जब

तक आप अपना वर्ण और आश्रम सिद्ध न कर देवेंगे तब तक हमें आप के

पास नहीं आना चाहिए और न पण्डितों को आप से सम्भाषण करना चाहिये।

अब तो शास्त्रार्थ स्पष्ट रूप से नकार हो गया और सारा भांडा फूट

गया । सनातनधर्म—रक्षिणी सभा ने जो शास्त्रार्थ के लिए इतना आडम्बर रचा,

वह दिखाने मात्र को था । भला इस के भी कोई अर्थ थे कि महाराज तो

बार—बार कहें कि लाला किशनसहाय के हस्ताक्षरों का पत्र लाओ परन्तु लाला

साहब अपने नाम से पत्र तो भिजवाते हैं परन्तु उन पर हस्ताक्षर नहीं करते

और अन्त तक किसी पत्र पर उन्होंने हस्ताक्षर किये ही नहीं ।

(देवेन्द्रनाथ २।२१७, लेखराम पृष्ठ ४१३ से ४१७)

(321) शंका :- ईश्वर और जीव का भेद

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- पारसी

समाधान :-

(पादरी सोलफीट साहब से गुजरावालां में शास्त्रार्थ

१८ से २० फरवरी, १८७८)

१९ फरवरी, सन् १८७८ तदनुसार फागुन बदि २, संवत् १९३५, मग्लवार

को सायंकाल ४ बजे स्वामी जी महाराज गिर्जाघर में शास्त्रार्थ के लिये पधारे।

निम्नलिखित पादरी सज्जन उपस्थित थे

पादरी साहब मिशनरी सियालकोट, पादरी मेकी साहब अमरीकन, पादरी

स्वीफ्ट साहब देशी पादरी जो लाशा के नाम से प्रसिद्ध थे ।

इन के अतिरिक्त मिस्टर मोहनवीर साहब गोरखा ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट

कमिश्नर, मिस्टर ह्यूसन साहब असिस्टैण्ट कमिश्नर, वाकर साहब असिस्टैण्ट

कमिश्नर, डिप्टी गोपालदास साहब ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर, डिप्टी बर्वQत

128

अली साहब ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर आदि सज्जन तथा नगर के सारे

सम्मानित रईस भी वहां पधारे हुए थे । डिप्टी गोपालदास जी मध्यस्थ बनाये

गये थे । श्रोताओं के लिए टिकिट लगाये गये थे । गिर्जाघर का भीतर बाहर

सब मनुष्यों से भरा हुआ था । डेढ़ दो हजार के लगभग मनुष्य होंगे । शास्त्रार्थ

करने वाले पादरी स्वीफ्ट साहब थे ।

पादरी स्वीफ्ट साहब ने शटा उपस्थित की कियदि जीव भी अनादि

माना जावे और ईश्वर भी तो वे दोनों समान हो गये । दो दिन तक प्रश्नोत्तर

होते रहे ।

स्वामी जी ने इस बात का विघा के प्रमाणों और बुद्धिपूर्ण युक्तियों

द्वारा बड़ी उत्तमता से खण्डन किया कि वे दोनों समान नहीं होते, प्रत्युत स्वामी

सेवक होते हैं । ४ बजे से ८ बजे तक शास्त्रार्थ होता रहा ।

शास्त्रार्थ लिखित था अर्थात् दोनों ओर के प्रश्नोत्तर लिखने वाला गगराम

चोपड़ा था परन्तु वे लिखित पत्र कहीं खो गये, अब नहीं मिलते हैं ।

भाई हजूरासिंह जी कहते हैं कि शास्त्रार्थ के पश्चात् डिप्टी गोपालदास

जी ने पादरी साहब को कहा किस्वामी जी आपके प्रश्नों के पर्याप्त उत्तर दे

चुके हैं, आपका हठ है जो नहीं मानते । और लोगों को भी सम्भवतः उस समय

विश्वास हो गया कि स्वामी जी सच्चाई पर हैं और पादरी साहब भूल पर ।

यह बात भी जतलाने योग्य है कि शास्त्रार्थ के समय स्वामी जी ने

इञ्जील की समस्याओं और मसीह की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में भी निरन्तर

बहुत से आक्षेप किये और इस से ईसाई मत की कलई खुलती रही कि ईसाई

मत कितना निकृष्ट और हीन है परन्तु पादरी साहब रह गये प्रश्नों के उत्तर

से बार—बार बचना और पूर्णतया उपेक्षा करना ही श्रेष्ठ समझते रहे ।

गिर्जाघर चूंकि एक तंग स्थान था जहां से इस शास्त्रार्थ सुनने के सैकड़ों

इच्छुक शास्त्रार्थ के लाभ से वञ्चित रहकर घर को लौट जाते थे । उन की

भीड़ देखकर उन को निराश लौटाने के लिए गिर्जाघर के समस्त द्वार बन्द

कर दिये जाते थे और गिर्जाघर के भीतर मकान की तंगी और श्रोताओं की

अधिकता के कारण लोगों के दम घुटने लग जाते थे । इसलिए लोगों की

इच्छा यह थी कि यह शास्त्रार्थ किसी खुले स्थान पर हो, इसलिए दूसरे दिन

शास्त्रार्थ का समय होने के पश्चात् स्वामी जी ने पादरी लोगों को सम्बोधन

करके कहा किस्थान अत्यन्त संकुचित है, लोगों का एक बड़ा उत्सुक भाग

यहां से निराश जाता है और जो लोग भीतर आकर बैठते हैं वे भी स्थान

के संकुचित होने के कारण बहुत कष्ट पाते हैं और इसके अतिरिक्त यह

स्थान एक पक्ष का धार्मिक—गृह भी है । इसलिए कोई ऐसा स्थान नियत

होना चाहिए जो इन दोषों से रहित हो । पादरी लोगों ने उस समय तो कोई

ठीक उत्तर न दिया परन्तु अगले दिन १२ बजे के लगभग जब स्वामी जी

वेदभाष्य के काम में पूर्णतया संलग्न थे और उन को पहले से बिल्कुल कोई

सूचना नहीं थी और न उन से कोई सम्मति ली गई थी कि शास्त्रार्थ १२

बजे दिन के होगा, स्वयमेव कुछ क्रिश्चन भाइयों को गिर्जाघर में बुलाकर

बिठा लिया और स्वामी जी की ओर मनुष्य भेजा कि वे इस समय गिर्जाघर

आ जायें । स्वामी जी उस की बात को सुनकर बहुत चकित हुए, और कहा

कि जब चार बजे शाम का समय दोनों पक्षों की सम्मति से निश्चित हो चुका

है और लोगों को भी केवल उसी समय की सूचना है और इस १२ बजे

के समय के लिए न तो कोई परस्पर सम्मति हुई है और न पहले से मुझ

को सूचना दी गई है और न लोगों को उसकी सूचना है तो ज्ञात नहीं कि

आपने स्वयमेव १२ बजे दिन का समय किस प्रकार निश्चित कर लिया है।

और हमने कल कहा था किगिर्जाघर पर्याप्त रूप से ख्ुाला स्थान नहीं है

तो क्या उस का यही उत्तर है कि स्थान अच्छा प्रबन्ध करने की जगह अब

समय भी स्वयमेव ऐसा निश्चित कर लेवें जिस को दूसरे पक्ष ने आरम्भ से

ही अस्वीकार कर रखा है । इसलिए ऐसी तुच्छ और गर्वपूर्ण कार्यवाही

के अनुसार चलना मेरे लिए आवश्यक नहीं कि मैं वेदभाष्य जैसे उत्तम

और विशेष कार्य से जिस को कि मैं अब यहां पर बैठा करता हूं छोड़कर

पादरी लोगों के गिर्जाघर में उपस्थित होने के लिए विवश हूं । पादरी लोग

यदि स्थान का कोई समुचित प्रबन्ध नहीं कर सकते तो वह नियत समय

पर (जो कि दोनों की सम्मति से निश्चित हुआ है और जिस की शास्त्रार्थ

के इच्छुकों को पहले से सूचना है) तैयार रहें । चार बजे शाम के लिए प्रबन्ध

का भार मैं स्वयं लेता हूं । यह कहकर क्रिश्चन दूत को स्वामी जी ने विदा

किया और ला० गोपालदास जी ने ऐसा ही उन्हें उत्तर दिया कि इस समय

नियमविरुद्ध मैं उपस्थित नहीं हो सकता ।

नगर का तो मनुष्य इस दिन दोपहर को गिर्जा में न गया परन्तु पादरियों

ने कुछ क्रिश्चन और कुछ लड़के स्कूल के कुर्सियों पर बिठला कर उनको

सुनाया कि चूंकि स्वामी जी अब १२ बजे नहीं आते हैं इसलिए वे हारे हुए

समझे जावें । यह कहकर सभा विसर्जित हुई ।

स्वामी जी पादरियों के इस घृणित कार्य पर बहुत व्रुQद्ध हुए और नगर

के सम्मानित व्यक्तियों ने भी उनके असभ्यतापूर्ण प्रदर्शन की बहुत हंसी की।

और स्वामी जी की प्रार्थना पर नगर के कुछ गण्यमान्य सज्जनों ने ४ बजे

शाम को समाधि के समीप एक खुले स्थान पर दरियां, मेज, कुर्सी आदि

सब सामग्री इकट्ठी करके शास्त्रार्थ का प्रबन्ध कर दिया । और चूंकि वह

स्थान गिर्जाघर के समीप था । (जहंा पहले दो दिन शास्त्रार्थ हुआ था ।)

इसलिए जो लोग नित्य की भांति शास्त्रार्थ सुनने के लिए आये थे वे वहां

पहुंच गये जहां शास्त्रार्थ का आयोजन था । सारांश यह कि लोग पंक्ति

बांध—बांध कर आने लगे और स्थान के खुला होने के कारण अत्यन्त प्रसन्न

थे । पादरी लोगों को कई बार एक बार उनके दूत के मुख से और दूसरी

बार एक और सम्मानित व्यक्ति द्वारा सूचना समय से पूर्व ही दी गई परन्तु

वे अपने घर से बाहर न निकले । पहले स्मरण दिलाने के अतिरिक्त नियत

समय पर भी स्मरण दिलाया गया परन्तु उनका वहां आना अत्यन्त कठिन

हो गया । इसलिए विवश होकर नियत समय के लगभग पौन घण्टा पश्चात्

स्वामी जी ने व्याख्यान देना आरम्भ किया । उस दिन व्याख्यान भी इञ्जील

की शिक्षा पर था, जिस में ईसाई मत का अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण और रोचक ढंग

पर खण्डन किया । आज उपस्थिति सब दिनों से अधिक थी और लोग पादरियों

के मत की वास्तविकता सुनकर बहुत प्रसन्न हुए ।

इस के पश्चात् लगभग दस बारह दिन तक स्वामी जी गुजरांवाला में

रहे परन्तु किसी पादरी को भी सामने आने का साहस न हुआ । व्याख्यान

के पश्चात् कुछ लोग किसी—किसी विषय पर अपनी शटाएं प्रकट किया

करते थे, जिन का उत्तर स्वामी जी अत्यन्त सरल तथा प्रीतिपूर्ण शब्दों में प्रबल

तथा सन्तोषजनक युक्तियों के साथ दिया करते थे । जिन को सुनकर वे सब

बड़ी शान्ति के साथ अपने—अपने घर जाते थे । (लेखराम पृष्ठ ३७७ से ३७९)

एक साथ खानपान

(सेठ हर्भुज जी पारसी से मुलतान में प्रश्नोत्तरमार्च, १८७८)

(322) शंका :- लूत पैगम्बर का अनाचार

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(पादरी और मौलवी से प्रश्नोत्तर रावलपिण्डी मेंनवम्बर, १८७७)

(७ नवम्बर, सन् १८७७ से २९ दिसम्बर, सन् १८७७ तक)

स्वामी जी ७ नवम्बर, सन् १८७७, बुधवार तदनुसार कार्तिक सुदि २,

संवत् १९३४ को रावलपिण्डी में पधारे और सेठ जामसन जी व्यापारी की

कोठी पर ठहरे । इसी कोठी में एक दिन स्वामी जी ने व्याख्यान के पश्चात्

कुछ विशेष व्यक्तियों से बातचीत करते हुए कहा कि हिन्दुओं की दशा पर

अत्यन्त खेद है, वे अन्य मतों की पुस्तक नहीं देखते और मेलों में जब कभी

कोई पादरी और मौलवी उन को कहता है कि ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री से

व्यभिचार किया तो झट स्वीकार कर लेते हैं । ब्रह्मा जी की बात तो किसी

विश्वसनीय ग्रन्थ में नहीं है परन्तु बाईबिल में लूत पैगम्बर का अपनी बेटियों

से व्यभिचार करने का वर्णन है । वह यदि बतलावें तो पादरी तथा मुसलमान

कदापि सामने आकर बात न कर सकें । उस समय एक पादरी तथा एक

मौलवी मिशन स्कूल के बैठे हुए थे । उन्होंने घर में आकर सम्मति की कि

यह बात स्वामी जी ने झूठ कही है, कल उन पर आक्षेप करेंगे । वे लोग

दूसरे दिन आये और आक्षेप किया, पुस्तकें साथ लाये। व्याख्यान की समाप्ति

पर जब स्वामी जी बैठे तब उन्होंने कहा कि कल जो आपने कहा था कि

लूत ने अपनी लड़कियों से व्यभिचार किया है यह बात झूठ है । स्वामी जी

ने कहा किहम को ज्ञात था कि तुम को इस बात की लज्जा आयेगी। वे

लोग पुस्तकें लेकर पास बैठ गये । स्वामी जी ने कहा कि यह तुम्हारी लड़कपन

की बात है तुमको प्रथम यह चाहिये था कि घर में दीपक जलाकर अपनी

चारपाई की दशा का ज्ञान प्राप्त कर लेते ताकि तुम को इस सभा में लज्जित

न होना पड़ता परन्तु वे न समझे । तब स्वामी जी ने कहा किअरे तुलसिया!

हमारी बाईबिल लाओ । वह लाया और स्वामी जी ने निकालकर बतलाया

(बाईबिल उत्पत्ति पर्व, आयत ३० से ३८ तक) जिस में स्पष्ट रूप से लिखा

है । फिर वे अत्यन्त लज्जित हुए परन्तु साथ ही यह कहा कि शराब के

नशे में था । लाला शिवदयाल जी ने कहा कि चाहे कुछ भी हो परन्तु उस

को यह विदित था कि मेरी स्त्री मर चुकी है और मैं चिरकाल से विना स्त्री

के हूं और ये मेरी लड़कियां हैं। पाप से किसी दशा में भी उसका छुटकारा

नहीं हो सकता । जिस पर वे लज्जित होकर चले गये और कहा कि निस्सन्देह

यह हमारा अपराध था, यदि घर में देख लेते तो आपको कष्ट न देते ।

(लेखराम पृष्ठ ३६१—३६२)

(323) शंका :- पुनर्जन्म एवं चमत्कार

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(मौलवी अहमद हसन साहब से जालन्धर में शास्त्रार्थ२४ सितम्बर, १८७७)

भूमिका

फकीर मौहम्मद मिर्जा मवाहिद जालन्धर निवासी पाठकों को इस टै्रक्ट

(पुस्तिका) के प्रकाशित होने के कारणों से परिचित करता है कि मिति १३

सितम्बर, सन् १८७७ को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जालन्धर में भी भ्रमण

करते हुए पधारे और परोपकारमूर्ति श्री सरदार विक्रमसिंह जी अहलूवालिया

की कोठी में विराजमान हुए । वहां वे वेद के अनुसार जिसको वे ईश्वरीय

ज्ञान मानते हैं, कथा करने लगे । मैंने इच्छा प्रकट की कि सरदार साहब

तथा मौलवी अहमद हुसैन साहब की बातचीत भी किसी बौद्धिक विषय पर

होनी चाहिए । माननीय सरदार साहब ने इसको पसन्द किया और स्वामी जी

ने भी स्वीकार करके २४ सितम्बर के प्रातः सात बजे का समय एतदर्थ निश्चित

कर दिया । मौलवी साहब नियत समय पर हिन्दू तथा मुसलमान नगर—निवासियों

के साथ वहां आ गये । मौलवी साहब की इच्छानुसार पुनर्जन्म का विषय

तथा स्वामी जी की इच्छानुसार चमत्कार का विषय शास्त्रार्थ के लिए नियत

हुआ, अर्थात् यह निश्चय पाया कि स्वामी जी पुनर्जन्म को सिद्ध करेंगे तथा

मौलवी साहब उसका खण्डन करेंगे तथा मौलवी साहब अहले अल्लाह

(ईश्वर भक्तों) के चमत्कार को सिद्ध करेंगे तथा स्वामी जी उसका

खण्डन करेंगे । बातचीत प्रारम्भ होने से पूर्व यह निश्चित हुआ कि दोनों

ओर से कोई व्यक्ति सभ्यताविरुद्ध बात न करेगा और स्वामी जी की ओर

से यह घोषणा भी की गई कि कोई सज्जन इस शास्त्रार्थ के समाप्त होने

पर किसी की हार—जीत न माने यदि मानेगा तो पक्षपाती और असभ्य समझा

जायेगा क्योंकि ये समस्याएं ऐसी नहीं हैं कि दो तीन शास्त्रार्थों में इनका निर्णय

हो जाये अथवा किसी की हार—जीत समझी जाये । परन्तु जब यह शास्त्रार्थ

पुस्तक रूप में प्रकाशित होगा तो स्वयं हाथ कंगन को आरसी के सदृश होगा

और बुद्धिमान् इसको पढ़कर स्वयम् इसका निर्णय कर सकेंगे। जो प्रश्नोत्तर

लिखे जायेंगे वे ला० हमीरचन्द जी और मुन्शी मौहम्मद हुसैन साहब के हस्ताक्षर

कराने के पश्चात् प्रकाशित होंगे । शास्त्रार्थ समाप्त होने के पश्चात् मौलवी

साहब की ओर से विद्वानों की परिपाटी के विरुद्ध जो एक कार्य हुआ, न्याय

की दृष्टि से उसका वर्णन करना आवश्यक है और वह यह था कि बातचीत

समाप्त होने के पश्चात् मौलवी साहब खानकाहा (फकीरों के रहने का स्थान)

इमाम नासिर उद्दीन के द्वार पर गये और कुछ प्रशंसात्मक उपदेश देकर उपस्थित

मुसलमानों से अपनी ख्याति के इच्छुक हुए । यघपि विद्वान् और समझदार

मुसलमान तो इस ख्याति की इच्छा को मूर्खों का खेल समझकर इससे पृथव्Q

हो गये परन्तु साधारण असभ्य लोग जो मुर्गे और बटेर आदि की लड़ाई देखने

का स्वभाव रखते थे और जीत की ख्याति के इच्छुक थे उन्होंने मौलवी साहब

को विजयी घोषित किया और घोड़े पर चढ़ा कर शहर के गली कूचों में

भली भांति फिराया और हार—जीत का कोलाहल मचाया परन्तु विशेष समझदार

सभ्य लोगों ने इसको बुरा समझा । अब प्रश्नोत्तर सुन लीजिये ।

ट्टट्टचमत्कार के विषय में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और मौलवी

अहमद हुसैन साहब के मध्य होने वाले प्रश्नोत्तर’’

स्वामी जीचमत्कार आप किसको कहते हैं ?

मौलवीमनुष्य स्वभाव के विरुद्ध जो अद्भुत कार्य मनुष्य से सम्पन्न हो।

स्वामी जीस्वभाव आप किसको मानते हैं ?

मौलवीमनुष्य की प्राकृतिक इच्छा को स्वभाव कहते हैं ।

स्वामी जीजो मनुष्य की शक्ति के बाहर है वह किस प्रकार उससे हुआ?

मौलवीमनुष्य से होने वाले कार्य दो प्रकार के हैं । एक तो वे कि

मनुष्य को जिनका प्रकट करने वाला कहा जाता है और दूसरे वे कि मनुष्य

स्वयं जिनका कर्ता होता है । पहली प्रकार के कार्यों में मनुष्य को वास्तविक

कर्ता नहीं समझा जाता । उदाहरणार्थ जैसे कठपुतली का नाच ऐसे कार्य खुदा

की ओर से मनुष्य के द्वारा प्रकट होते हैं ।

स्वामी जीसब मनुष्यों में ये दोनों प्रकार के कार्य हैं अथवा किसी

एक में ?

मौलवीप्रत्येक में नहीं, कुछ में होते हैं ।

स्वामी जीईश्वर उलटे काम कर और करा सकता है या नहीं ?

मौलवीमनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध करा सकता है परन्तु वह काम

ईश्वर के स्वभाव के विरुद्ध नहीं होता और स्वयम् अपने स्वभाव के विरुद्ध

नहीं करता ।

स्वामी जीईश्वर के काम उलटे होते हैं वा नहीं ?

मौलवीखुदा के कार्य कभी उसके स्वभाव के विरुद्ध नहीं होते यघपि

मनुष्यों के स्वभाव की अपेक्षा वे विरुद्ध समझे जा सकते हैं ।

स्वामी जीचमत्कार सृष्टि के स्वभाव के अनुसार होता है या नहीं

अर्थात् प्रकृति की इच्छा के विरुद्ध ?

 

मौलवी चमत्कार में यह आवश्यक नहीं कि समस्त सृष्टि के स्वभाव

के विरुद्ध हो । यघपि यह सम्भव है कि किसी नबी (पैगम्बर) या वली

(ईश्वर को प्राप्त करने वाला) से कोई ऐसा कार्य हो कि जो समस्त सृष्टि

के स्वभाव के अनुकूल न हो ।

स्वामी जी चमत्कार किसी ने दिखाया अथवा दिखावेगा इसका क्या

प्रमाण है ?

मौलवीयह प्रश्न ऐसा है जैसे कहा जावे कि किसी के मुख पर जो

दाढ़ी आई है उसके आने का क्या प्रमाण है ? जब चमत्कार के विषय में

यह कह दिया गया कि वह कार्य जो मनुष्य से मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध

हो । उसका कार्य मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध होता है यही चमत्कार का

प्रमाण है । बहुत से मनुष्यों ने जो दयालु ईश्वर की दृष्टि में सम्मानित और

प्रतिष्ठित हैं और ईश्वर ने जिनको सृष्टि के उपकार के लिए भेजा है, पूर्वकाल

में चमत्कार दिखाये और भविष्य में भी दिखायेंगे, जैसा कि अल्लाह के रसूल

हजरत मौहम्मद साहब ने भी बहुत चमत्कार करके दिखाये और ऐसे ही उनसे

पूर्व हजरत ईसा ने भी बहुत से चमत्कार करके दिखाये । सिद्धि इस बात

की दो प्रकार से होती है, एक तो सच्चे समाचारदाताओं के द्वारा और दूसरे

स्वयं देखने से । जैसा कि ऊपर दोनों महापुरुषों का वर्णन किया । जो लोग

उनके समय में विघमान थे उन्होंने स्वयम् अपनी आंखों से देखा और हम

लोग जो इस समय के हैं उनको इसका ज्ञान सच्चे समाचारदाताओं के वचनों

और लेखों से हुआ ।

स्वामी जीयह ठीक—ठीक युक्ति से सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि सुनना

कहना और लिखना दो प्रकार का होता है, सच्चा और झूठा । अब यह चमत्कार

की बात सच्ची है, इसका क्या प्रमाण है ? जैसे कार्य को देख के कारण

की पहचान होती है अर्थात् नदी के प्रवाह को देखकर विदित होता है कि

ऊपर वर्षा हुई है । इसी प्रकार चमत्कार हुआ, इसकी सिद्धि में इस समय

क्या युक्ति है । कदाचित् वह झूठा ही लिखा, कहा अथवा सुना हो क्योंकि

जैसे अब कोई स्वार्थी मनुष्य झूठी बातों से बहका सुनाकर अपना प्रयोजन

सिद्ध करता है (वैसे ही यह भी है) जैसे इस समय में भी दो—चार चामत्कारिक

अवतार हुए हैं । आगरे में शिवदयाल और रामसिंह कूका जो काले पानी

चले गये हैं । एक अकलकोट का स्वामी दक्षिण में विघमान है और एक

देव मामलादार ने सात दिन वैकुण्ठ में रहकर फिर आकर सुनाया है कि मैं

नारायण से बात करके आया हूं । और जो जो आज्ञा हुई वह तुम को सुनाता

हूं । अब लाखों मनुष्य उसके चरणों में इतना नमस्कार करते हंै कि उसका

पैर सूज गया है । जैसे यह बात अब झूठ इन्द्रजालवत् है ऐसी पहले भी होगी।

अब इस समय इतने मनुष्यों के बीच में कोई चमत्कार दिखाने वाला विघमान

हो तो दिखलाइये और जो अब नहीं तो पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं

होवेगा क्योंकि कार्य को देखे विना कारण की सिद्धि नहीं होती अथवा कारण

के देखे विना कार्य की ।

मौलवीजब यह सिद्ध हो चुका कि चमत्कार पवित्र ईश्वर का एक कर्म

है, यघपि मनुष्य की अपेक्षा से वह असम्भव होता है तथापि परमात्मा की अपेक्षा

से यह असम्भव नहीं क्योंकि यदि खुदा की अपेक्षा से वे असम्भव हो जायें तो

उड़ना पक्षी का कभी न पाया जाये । इसके अतिरिक्त स्वभाव के विरुद्ध समस्त

कर्म यघपि मनुष्य की अपेक्षा से असम्भव दिखाई देते हैं परन्तु परमात्मा की

अपेक्षा से असम्भव नहीं हैं । जब खुदा एक के बारे में वह अवसर उत्पन्न करता

है तो दूसरे शरीर के बारे में भी उत्पन्न कर सकता है । इसको अस्वीकार करना

मानो परमात्मा की शक्ति का अस्वीकार करना है । यदि समाचार प्रत्येक चीज

का झूठ हो तो हम को चाहिए कि कलकत्ता, लन्दन अथवा और कोई नगर जिस

को हमने अपनी आंखों से नहीं देखा है, उसका विश्वास न करें। इसीलिए सिद्धि

चमत्कार की इसी प्रकार से है जिस प्रकार आप वेद को सिद्ध करते हैं अर्थात्

जिससे आप यह कह सकते हैं कि यह वेद वही पुस्तक है जो ईश्वर की ओर

से आई थी अन्यथा उस पर कोई मुहर खुदा की लगी हुई नहीं है जिससे कहा

जावे कि यह वेद वही पुस्तक है । वेद की सिद्धि में जो युक्तियां आप देंगे वही

चमत्कार के विषय में भी होंगी ।

स्वामी जीमैंने यह पूछा था कि ईश्वर ने अमुक—अमुक व्यक्ति के द्वारा

चमत्कार दिखाये, इसका क्या प्रमाण है । चमत्कार परमेश्वर अपने स्वभाव के

विरुद्ध नहीं करता । इसका दृष्टान्त सब सृष्टि का रचना, धारण करना, प्रलय

करना आदि है । वह न्याय, दया तथा अनन्त विघा वाला है, कभी अपने स्वभाव

के विरुद्ध नहीं करता । इसका उदाहरण समस्त सृष्टि है । जैसे इस समय मनुष्य

का पुत्र मनुष्य ही होता है, पशु नहीं होता। इसी प्रकार परमेश्वर के काम में कभी

भूल नहीं रहती । इसलिए परमेश्वर की शक्ति मानना चमत्कार पर अवलम्बित

नहीं, और जो कोई चमत्कार मानता है वह वर्तमान समय में किसी चमत्कार

दिखाने वाले का उदाहरण दे । और परमेश्वर की शक्ति की भी कुछ न कुछ

सीमा है जैसे ईश्वर मर नहीं सकता, अज्ञानी नहीं हो सकता, बुरा काम नहीं कर

सकता क्योंकि वह न्यायकारी और अविनाशी है । यह उदाहरण चमत्कार पर

लागू नहीं हो सकता क्योंकि कोई कहे कि बम्बई नहीं तो वह बराबर बम्बई को

दिखा सकता है । ऐसे ही जो यह उदाहरण सच्चा हो तो बम्बई के समान चमत्कार

को भी दिखा दे। वेद का ईश्वरकृत होना असम्भव नहीं क्योंकि वह अन्तर्यामी

और पूर्ण विद्वान् दयालु तथा न्यायकारी है । वह बराबर जीवात्मा में अन्तर्यामी

रूप से अपना प्रकाश कर सकता है । जैसे इस समय भी बराबर अन्यायकारी

की आत्मा में भय और लज्जा और न्यायकारी की आत्मा में हर्ष तथा उत्साह

का प्रकाश करता है । इसलिए वेद का उदाहरण चमत्कार से सम्बन्धित नहीं

और अभिप्राय मेरा इस विषय के बारे में कि यह पुस्तक ईश्वरकृत है, यह है

कि जैसा ईश्वर का स्वभाव, जैसा सृष्टि का क्रम प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है

और अनन्त विघा का प्रकाश निर्दोषता आदि है, ईश्वर की रचना सिद्ध करने में

सब मुहरें हैं और जो आप कहें कि और प्रकार की मुहर चाहिए तो पृथिवी, सूर्य,

चन्द्र और मनुष्य पर ईश्वरकृत होने की मुहर क्या है ? जब मुहर से ईश्वर की

रचना सिद्ध करनी है तो कहीं मुहर दिखाई नहीं देती । ईश्वर का स्वभाव क्या

है ? जो ईश्वर मनुष्य के स्वभाव से उलटा करा सकता है तो किसी मनुष्य को

पांव से खिलाया और पिलाया है और मुख से पांव का काम लिया है या लिवाया

है ? मुझको ऐसा विदित होता है कि सब सम्प्रदाय वालों ने यह चमत्कार तथा

भविष्यवाणी जैसे कि रसायन आदि का लोभ दिखा के बहुत लोगों को फंसाया

है। परमेश्वर कृपा करे । सब के आत्मा में विघा का प्रकाश हो कि मनुष्य ऐसे

जाल—फन्दों से छूटकर सत्य को मानें और झूठ से अलग रहें ।

मौलवीहम पहले कह चुके हैं कि चमत्कार का कार्य मनुष्य के

स्वभाव के विरुद्ध कराना असम्भव बात नहीं है । जिससे कहा जावे कि

परमात्मा की शक्ति के बाहर है । यदि किसी को सन्देह हो तो मक्का नगर

अथवा शाम देश में जाकर उन चालीस मनुष्यों को देख लें कि जो चमत्कार

के दिखाने वाले हैं । वेद के अतिरिक्त ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं जिनको

कह सकते हैं कि मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध हैं जैसे शिक्षा के विषय में

ट्टट्टगुलिस्तां’’· और बोस्तां इत्यादि । किन्तु यह कहना कि इसमें सब विघाएं

हैं, यह दावा युक्तिशून्य है क्योंकि इसमें इल्मे इजतराब (उद्विजनविघा)कहां

है । अनोखी बातों का ज्ञान और निर्मित पदार्थों के ईश्वरकृत होने का प्रमाण

यह है कि वे निर्माण किये हुए हैं और यह निर्माण ही मानो खुदा की मुहर

हैं । यह पुस्तक तौरेत के काल से निस्सन्देह पहले की है। इसमें वह समाचार

· गुलिस्तां और बोस्तां शेखसादी द्वारा रचित फारसी भाषा की दो प्रख्यात

पुस्तकें हैं ।

है जो आज के दिन प्राप्त होता है । पुस्तक दानियाल अध्याय ११, पाठ १०

से १९ तक भी प्रमाण है कि वह भविष्यवाणी जो सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी

गई थी अब पूरी हुई । दूसरे कुरान शरीफ के बारे में मुसलमानों का तेरह

सौ वर्ष से सारे सम्प्रदायों के विरुद्ध यह दावा है कि इस कुरान शरीफ के

समान एक पंक्ति भी बनाकर कोई मनुष्य दिखावे । जैसा कि

फातू बिसूरतिम् मिम्मिस्लिही’’

(तो इसकी सी एक सूरत ले आओ) । अब तक किसी से बना नहीं

न बनेगा । यदि पण्डित साहब को यह चमत्कार स्वीकार नहीं तो इसके समान

एक पंक्ति बनाकर दिखायें । चमत्कार का प्रदर्शन मानो हमने इस सभा में

कर दिया । अब हम पवित्र परमात्मा से यह प्रार्थना करते हैं कि वह समस्त

सृष्टि को दृढ़ मार्ग पर लावे और उनकी दृष्टि से पक्षपात को दूर करे ।

मौलवीवर्तमान आकार के बिना सत्ता का होना सम्भव नहीं । जब

आकार की सत्ता विनाशी है तो अवश्य प्रकृति भी नाशवान् होनी चाहिए क्योंकि

प्रकृति को सत्ता आकार के द्वारा प्राप्त हुई । द्रव्य की अपेक्षा द्रव्य का कारण

प्रधान होता तो पुनर्जन्म मानने वालों के लिए जगत् का विनाशी मानना

आवश्यक हो जाता है परन्तु उन्होंने ऐसा माना था कि वह सनातन है ।

स्वामीआकृति दो प्रकार की होती हैंएक ज्ञान से ग्रहण होती

है और एक चक्षु आदि इन्द्रियों से । कारण में ही आकृति की स्थिति

है परन्तु वह इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होती क्योंकि जो सूक्ष्म वस्तु होती है

जब वह स्वयं ही नहीं दिखाई देती तो उसका आकार क्या दिखाई देगा और

जो कारण में आकृति न हो तो कार्य में नहीं आ सकती क्योंकि जो कारण

के गुण हैं वही कार्य में आते हैं । जैसे एक तिल के दाने में तेल होता है,

वह करोड़ों दानों में भी बराबर होता है । लोहे के अणु में तेल नहीं होता

तो वह मन भर में भी नहीं होता । जो वस्तु नित्य है उसके गुण भी नित्य

हैं । कारण का होना न होना नहीं कहा जाता, वह तो सनातन है और जो

वस्तु सनातन है उसकी आकृति भी कारणावस्था में सनातन है । आकृति विना

द्रव्य के पृथव्Q नहीं रह सकती । वह आकृति उसी द्रव्य की है इससे सिद्ध

है कि कारण सनातन है ।

मौलवीयह नहीं कि जो चीज सिवाय किसी चीज के न पाई जाये तो

वह उसका रूप ही हो । उदाहरणार्थ जैसे चेष्टा हाथ और चाबी की । चेष्टा

चाबी की विना हाथ की चेष्टा के नहीं पाई जाती प्रत्युत जब चेष्टा चाबी की

होगी तो चेष्टा हाथ की होगी और जब चेष्टा हाथ की होगी तो चेष्टा चाबी की

होगी अर्थात् इन दोनों चेष्टाओं में कोई काल किसी का किसी से पहले या पीछे

नहीं निकलता और निस्सन्देह उत्कृष्ट बुद्धि जानती है कि कुञ्जी की चेष्टा विना

हाथ के नहीं अर्थात् चेष्टा कुञ्जी की हाथ की चेष्टा पर निर्भर है। यघपि वर्तमान

समय में इकट्ठी है । ऐसे ही प्रकृति और उसका रूप है । यघपि काल में एकता

है परन्तु बुद्धि इस बात को जानती है कि प्रकृति के आकार की अपेक्षा प्रकृति

सनातन है क्योंकि गुणी और मानने वाला गुण और माने हुए की अपेक्षा सनातन

होता है । प्रकृति की सत्ता अर्थात् उसका अनुभव होना दिखाई देना किसी चीज

के लगने से होता है । या तो आकृति के लगने से होता है या किसी और चीज

के लगने से । प्रत्येक अवस्था में वह पदार्थ जिसके लगने से वह प्रकृति संसार

में इस प्रकार स्थित हुई कि अनुभव हो और दिखाई दे वह किसी ऐसे कारण

से हुई जो पीछे से आकर प्रकृति को लगा । और जो उत्तर में यह लिखा गया

कि कारण का होना अथवा न होना नहीं कहा जाता तो वह चीज अद्भुत है

जिसका उपादान कारण में होना या न होना नहीं कह सकते । वह वस्तु जिसका

उपादान कारण ऐसा हो उसका होना किस प्रकार हो सकता है अर्थात् वर्तमान

वस्तु अभाव से नहीं बन सकती और यदि उसके सनातन होने से कोई मनुष्य

यह कहे कि वह विघमान भी होगा तो यह गलत है इसलिए कि अभाव से भाव

का होना उदाहरणार्थ जैसे कोई कहे कि ट्टट्टजैद’’ के तत्त्वों को एक विशेष आकार

प्राप्त हुआ है जिसके कारण उसका ट्टट्टजैद’’ नाम रखा गया तो वह विशेष आकार

इस आकार से पहले कभी विघमान न था इसलिए उसको अर्थात् उसके अभाव

को सनातन कहा जायेगा । रूप के जो दो प्रकार कहेएक वह कि जिसको

आकृति कहते हैं और एक उसके अतिरिक्त, इससे विदित हुआ कि आकार

प्रकृति से रहित है ।

स्वामीस्वाभाविक गुण, रूप आदि वस्तु के पीछे कभी नहीं होते और

जो पीछे हो उस को स्वाभाविक नहीं कहते । जैसे अग्नि के परमाणुओं का

स्वाभाविक अतीन्द्रिय रूप अर्थात् आंख से अनुभव न होना स्वाभाविक सब

काल उसके साथ है । निमित्तकारण के संयोग पर परमाणुओं का संयोग करने

से स्थूल कार्य होने से उसका इन्द्रिय—ग्राह्य रूप प्रकट होता है । जैसे जल

के परमाणु आकाश में उड़कर ठहरते हैं और जब तक बादल नहीं बनते तब

तक नहीं दीख पड़ते ।

हमारा यह अभिप्राय नहीं कि वह प्रकृति नहीं है या प्रकृति का

स्वाभाविक गुण नहीं है । उदाहरणार्थ जैसे लड़के का होना और लड़के का

न होना । जैसा कार्य में यह होना या न होना गुण है, वैसा कारण में नहीं

है । जो कारण और कारण के स्वाभाविक गुण हैं वे अनादि हैं । कार्य वह

है कि जो संयोग से हो और वियोग के पीछे न रहे । वह जो एक संयोगजन्य

आकृति है वह कार्य की आकृति कहलाती है । उसका प्रवाह से अनादिपन

है, स्वरूप से नहीं और ईश्वर जो कि सर्वज्ञ है उस का निमित्तकारण अर्थात्

बनाने वाला है । उसके ज्ञान में सदा है और रहेगा । (अन्तिम वाक्य का

उत्तर ऊपर आ गया) ।

मौलवीपदोत्कर्ष अर्थात् पहले होना दो प्रकार का होता है एक निजी

और एक सामयिक । निजी जैसा कि हम पहले वर्णन कर चुके हैं कि चेष्टा

हाथ की और चाबी की और ऐसा ही उत्कर्ष गुणी का अपने समवायी गुणों

पर उदाहरणार्थ उत्कर्ष पानी का अपने बहने पर । उत्कृष्ट बुद्धि जानती है

कि कहने की स्थिति पानी के साथ है । इस उत्कर्ष को निजी उत्कर्ष कहा

जावेगा । बहने का अभिप्राय यह कि उत्कर्ष गुणी का उन गुणों पर जो उसके

अपने गुण हैं निजी उत्कर्ष कहलाता है, क्योंकि गुणी अपने गुणों से अवश्य

उत्कृष्ट होता है और सन्देह तब उत्पन्न होते हैं जब उत्कर्ष सामयिक हो।

दूसरा सामयिक उत्कर्ष वह है जैसा कि बाप का अपने बेटे पर होता है ।

गुणी का गुणों से रिक्त होना तब आवश्यक होता है जब उत्कर्ष सामयिक

हो । तात्पर्य यह है कि अपने आकार पर जो उत्कर्ष प्रकृति का है वह निजी

उत्कर्ष है क्योंकि गुणी गुणों से उत्कृष्ट होना चाहिए ।

स्वामीद्रव्य उस को कहते हैं कि जिस में गुण, क्रिया, संयोग—वियोग

होने का स्वभाव पाया जावे परन्तु जो द्रव्य परिच्छिन्न अर्थात् पृथव्Q—पृथव्Q हैं

उनका यह लक्षण है । जो विभु व्यापक द्रव्य है वह संयोग वियोग के स्वभाव

से पृथव्Q होता है । किसी व्यापक में गुण ही प्रधान होते हैं, क्रिया नहीं जैसे

कि परमेश्वर, उसमें संयोग—वियोग नहीं होता परन्तु क्रिया और गुण हैं और

आकाश, दिशा काल ये व्यापक हैं परन्तु इनमें क्रिया नहीं, केवल गुण हैं ।

मौलवीयह उत्तर पहले प्रश्न से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता क्योंकि इस

उत्तर में निजी और सामयिक भेद नहीं किया गया । ज्ञानस्थ आकृति की अपेक्षा

से ट्टट्टजैद’’ का विशेष प्रकार का अभाव अर्थात् उसके नियत शरीर का एक

नियत काल से जो सम्बन्ध था उस शरीर की उत्पत्ति के पूर्व उसका पूर्ण

अभाव था और यह जो विचार प्रकट किया गया कि पूर्ण अभाव उस शरीर

विशेष का नहीं है, उसकी आकृति ईश्वर के ज्ञान में विघमान है यह बिल्कुल

गलत है क्योंकि ईश्वर के ज्ञान में यह शरीर विशेष तो विघमान नहीं जो

तीन हाथ का है । किसी वस्तु के अनादि होने से किसी वस्तु की उत्पत्ति

तो सिद्ध नहीं होती । ज्ञानस्थ आकृति के बारे में बात यह है कि ईश्वर का

ज्ञान ज्ञानस्थ आकृति के साथ नहीं है क्योंकि ज्ञानस्थ आकृति वह होती है

जो बाहरी वस्तु के देखने से प्राप्त होती है । जब आकार विशेष को अनादि

नहीं माना जाता तो ईश्वर के ज्ञान में वह ज्ञानस्थ आकृति कहां से प्राप्त हुई?

यदि कोई वस्तु अनादि थी तो आपके मन्तव्य के अनुसार प्रकृति अनादि थी

और जिस वस्तु का साधनों द्वारा अनुभव न किया जा सके । जैसे कि आप

प्रकृति और आकार को मानते हैं कि प्रथम अवस्था में अनुभव के योग्य न

था तो उस का ज्ञान किसी प्रकार भी प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि

किसी पदार्थ को जानने की विधि यही है कि किसी चेष्टा के द्वारा

ज्ञानेन्द्रिय में उसका आकार प्राप्त हो उसी को ज्ञानस्थ आकृति कहा

जाता है और जहां तक जल के परमाणुओं का सूक्ष्म होकर वाष्प बन जाने

का प्रश्न है तो यघपि वह दृष्टिगोचर नहीं होता फिर भी किसी न किसी

चेष्टा के द्वारा वह जानने के योग्य है। प्रत्येक अवस्था में जो आकार इस

प्रकार का माना गया है कि जिसका ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव नहीं

किया जा सकता तो उस का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जब अनादित्व

ही गलत सिद्ध हुआ तो पुनर्जन्म कहां रह गया । यदि यूं कहा जाता है कि

एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का कारण उसके वे कर्म हैं जो प्रथम शरीर

में किये थे तो यह प्रकट है कि कर्म चेष्टा द्वारा होते हैं और चेष्टा काल

पर निर्भर है और काल का आदि अन्त और मध्य इकट्ठा नहीं रह सकता।

इसके अतिरिक्त कर्म जो किसी समय के द्वारा किये गये वे भी नष्ट हो गये।

अथवा दूसरे शरीर से सम्बन्ध किसी उत्कर्षक की ओर से न होगा । जब

आत्मा का शरीरों से समान सम्बन्ध है तो विशेष सम्बन्ध होने से उत्कर्षता

बिना उत्कर्षक के बाधक होगी । इसके अतिरिक्त इस सम्बन्ध से बहुत सी

हानियां उत्पन्न होंगी क्योंकि विशेषताएं जो प्रथम शरीर में प्राप्त की थीं वे

दूर हो गईं और उदाहरणतया यदि दूसरा सम्बन्ध कुत्ते अथवा गधे से हो तो

उस कुत्ते और गधे के शरीर में वह विशेषताएं प्राप्त नहीं कर सकता जो

मनुष्य के शरीर में प्राप्त कर सकता था । अब आपको उचित है कि प्रथम

विघाओं के प्राप्त करने की विधि निश्चित कीजिये फिर उसके पश्चात् सम्बन्ध

का कारण निश्चित किया जावे तब उस पर आक्षेप किया जा सकता है ।

स्वामीदश इन्द्रियों के विषय में मौलवी साहब का कहना ठीक नहीं

जैसा कि जो जीवात्मा किसी इन्द्रिय से नहीं देखा जाता परन्तु अस्तित्व उस

का है । जो मौलवी साहब ने कहा कि अनादि वस्तु झूठी है, यह किसने

कहा है क्या यह बात अपने दिल से जोड़ ली है क्योंकि जब लिखवा चुका

कि परमेश्वर जीव और जगत् का कारण ये तीनों सनातन हैं । इस से अनादित्व

सिद्ध है और अभाव से भाव कभी नहीं होता । यदि कोई कहता है तो उस

का प्रमाण नहीं है । गधे और कुत्ते के शरीर में मनुष्य का जीव जाने से

मौलवी साहब कहते हैं कि बड़ी हानि होती है क्योंकि सब कमाई की हुई

चली जाती है । यदि मौलवी साहब ऐसा मानते हैं तो मौलवी साहब को कभी

सोना न चाहिए क्योंकि निद्रा में जाग्रत की कमाई सब भूल जाती है । यदि

मौलवी साहब कहें कि फिर जागने से वह ज्ञान आ जाता है तो कुत्ते,

गधे के शरीर में भी आ जायेगा और ज्ञान फिर प्राप्त कर सकता है । जैसे

कि मनुष्य निद्रा से जागकर करता है। इसलिये मैं जानता हूं कि मौलवी साहब

के भाषण और मेरे भाषण को बुद्धिमान् लोग स्वयं देख लेंगे और एक जन्म

इन बातों से सिद्ध नहीं होता परन्तु पुनर्जन्म सिद्ध है ।

हस्ताक्षर अंग्रेजी

ला० हमीरचन्द

हमारे समक्ष जो बातचीत के विषय निश्चित हुए वे वास्तव में यही

थे जो इस भूमिका में लिखे हैं । हस्ताक्षरमौहम्मद हुसैन महमूद

(दिग्विजयार्वQ पृ० ३१ से ३३, लेखराम पृ० ३५७ तथा ३९३ से ७००)

(324) शंका :- शिवपुराण खण्डन

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पण्डित लक्ष्मीधर जी तथा पं० दौलतराम जी दीनानगर निवासी से

गुरुदासपुर में शास्त्रार्थअगस्त, १८७७)

१८ अगस्त, सन् १८७७ से २६ अगस्त, सन् १८७७ तक स्वामी जी

गुरुदासपुर रहे । मियां हरिसिंह और मियां शेरसिंह जी ने जो दोनाें मूर्तिपूजक

थे, पण्डित लक्ष्मीधर जी और पण्डित दौलतराम जी दीनानगर निवासी को

स्वामी जी महाराज के साथ शास्त्रार्थ करने को बुलवाया । जिस दिन ये पण्डित

लोग आये उस दिन स्वामी जी का व्याख्यान शिवपुराण के खण्डन पर था।

स्वामी जी ने वह कहानी सुनाई कि लिंग महादेव का बढ़ा और ब्रह्मा विष्णु

सूअर और हंस बनकर उसके नापने के लिये गये, आदि आदि ।

दोनों पण्डितों और दोनों मियां सज्जनों ने कुछ सभ्यता विरुद्ध शब्द

कहने आरम्भ किये कि झूठ बकता है । तब डाक्टर बिहारीलाल जी ने सभा

के नियमों के अनुसार निवेदन किया कि प्रथम सब कुछ सुन लेना चाहिये

तत्पश्चात् आक्षेप करने के लिये उघत रहना चाहिये । परन्तु यह कहां सम्भव

था । अन्त में जब स्वामी जी ने देखा कि पण्डित लोग बोलने से नहीं रुकते

तो कहा कि अब मैं मौन हो जाता हूं, पण्डितों में से जिसे कोई शंका  करनी

हो करे । चूंकि भीड़ बहुत थी और लोगों को उत्सुकता थी कि दोनों पक्षों

को देखें । इसलिये श्रोताओं की प्रार्थना पर बाबू बिहारीलाल जी ने कहा कि

पण्डितों में से जो शास्त्रार्थ करना चाहते हैं वे मैदान में कुर्सी पर पधारें और

स्वयम् एक कुर्सी वहां बिछवा दी । चूंकि उनमें से कोई एक ऐसा विद्वान्

न था और न उनमें स्वामी जी की विघा और तेज का सामना करने की शक्ति

थी । इसलिये मियां सज्जनों और पण्डित लोगों की यह इच्छा थी कि सब

मिलकर प्रश्नोत्तर करें और इस तर्क वितर्क  में ये लोग भांति—भांति की बोलियां

बोलते थे जिससे कोलाहल होता था । इसलिये स्वामी जी ने कहा कि जो

एक पण्डित चाहे सामने बैठकर उत्तर प्रश्न करे । यघपि यह सुझाव पूर्णतया

बुद्धि के अनुकूल था परन्तु विरोधी पक्ष के लिये लाभदायक न था । मियां

हरिसिंह ने कहा कि अकेला कोई पण्डित आपसे शास्त्रार्थ नहीं कर सकता,

दो वा अधिक मिलकर करेंगे । स्वामी जी ने कहा कि अच्छा जिसको इच्छा

हो यहां आनकर उसको बारी—बारी बतलाता रहे । इस पर सहसा मियां हरिसिंह

के मुख से निकला कि यह बन्दर किल्ली कौन खेल सकता है ।

फिर जब डाक्टर साहब ने अनुरोध किया कि शास्त्रार्थ का नियम है कि

दोनों सम्मुख बैठकर विचार करें, अवश्य पण्डित जी को सामने बैठकर शास्त्रार्थ

करना चाहिये। तब मियां साहब के मुख के निकला क्या कंजरियों (वेश्याओं)

का नाच है जो बीच में आने की आवश्यकता है ।’’ इस असभ्यतापूर्ण वाक्य

की उपेक्षा की गई और जिस प्रकार वे चाहते थे वैसे ही बातचीत आरम्भ हुई।

मूर्तिपूजा पर बात चली । पण्डितों ने यह मन्त्र गणानां त्वा’ इत्यादि

पढ़ा कि इससे गणेश जी की मूर्ति सिद्ध होती है । स्वामी जी ने इस पर

किसी भाष्य का प्रमाण मांगा । उन्होंने महीधर की चर्चा की । स्वामी जी

ने झट महीधर का भाष्य निकाल कर आगे रखा और उसका अश्लील अर्थ

लोगों को सुनाया कि न तो इससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है और न गणेश—पूजा।

प्रत्युत यह तो अत्यन्त अश्लील भाष्य है और साथ ही सनातन निरुक्तादि ग्रन्थों

से उसका श्रेष्ठ अर्थ भी बतलाया कि इसका मूर्तिपूजा से कोई सम्बन्ध नहीं।

जब मियां साहब को यह बात बुरी लगी तब कहा कि अंग्रेजी राज्य है अन्यथा

यदि रियासत होती तो कोई आपका शिर काट डालता । स्वामी जी ने इसकी

तनिक भी पर्वाह न की और निरन्तर खण्डन करते रहे। जब मियां सज्जनों

से और कुछ न हो सका तो यह कहा कि यहां पर मैजिस्ट्रेट और पुलिस

दोनों उपस्थित हैं, इसका भी ध्यान रखना । उनकी बात डाक्टर बिहारीलाल

जी को बहुत बुरी लगी जिस पर उन्होंने मियां साहब को भली—भांति मुंहतोड़

उत्तर दिया और डॉक्टर साहब और मियां साहब की परस्पर विरोधात्मक

बातचीत होकर सभा विसर्जित हुई । (लेखराम पृष्ठ ३५२ से ३५३)

(325) शंका :- वेद और गंगा —यमुना

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

 

(कुछ ब्रह्मसमाजी सज्जनों से लाहौर में प्रश्नोत्तरअप्रैल, १८७७)

जब स्वामी जी लाहौर में थे तो एक दिन समाज के मकान में जो

अनारकली में था, ब्रह्मसमाज के लोग मिलकर आये और स्वामी जी से कहा

कि वेदों में मूर्तिपूजा का वर्णन स्थान—स्थान पर है । पण्डित भानुदत्त

ब्रह्मसमाजियों की ओर से स्वामी जी से बातचीत कर रहे थे । विशेष रूप

से उस श्रुति की भी चर्चा चली जिसमें गग, यमुना शब्द आते हैं । इस

पर आक्षेप यह था कि वेदों में गग, यमुना की पूजा भी लिखी है ।

स्वामी जी ने कहा कियदि आप लोग समस्त प्रकरण पढ़ लेते तो

यह शटा न करते । यहां पर गग यमुना नाम दो नाडि़यों का है और यह

स्थान योगाभ्यास का है । यहां पर नदियों से कुछ प्रयोजन नहीं है और इन शब्दों

के साथ विशेषकर इस प्रकार के विशेषण हैं जो नदियों पर कदापि लागू नहीं

हो सकते । उन्होंने और बहुत से प्रश्न व्याकरणादि के किये जिनका पूरा—पूरा

उत्तर ब्रह्मसमाजियों को मिल गया ।(लेखराम पृष्ठ ३२२, ३२६, ३३१)

(326) शंका :- ईश्वर की आत्मा कबूतर के रूप में एक मनुष्य पर उतरी

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

श्रीकृष्ण तथा ईसाईमत

(लुधियाना में पादरी बेरी साहब से प्रश्नोत्तरअप्रैल, १८७७)

स्वामी जी महाराज ३१ मार्च, सन् १८७७ को लुधियाना पहुंचे और

१९ अप्रैल, सन् १८७७ तक वहां रहे । इसी बीच में एक दिन पादरी वेरी

साहब, मिस्टर कारस्टीफन साहब बहादुर जूडीशल असिस्टैण्ट कमिश्नर सहित

वहां आये और स्वामी जी से कृष्ण जी के विषय में शंका  की और बातचीत

के बीच में कहा कि कृष्ण जी के ऐसे कामों के साथ उनका महात्मा होना

बुद्धि स्वीकार नहीं करती । स्वामी जी ने कहा कियह जो अभियोग लगाये

जाते हैं सब निर्मूल हैं । उन्होंने ऐसा कोई कार्य्य नहीं किया परन्तु बुद्धि

के स्वीकार करने के विषय में तो क्या कहूं, जब बुद्धि यह स्वीकार कर

लेती है कि ईश्वर की आत्मा कबूतर के रूप में एक मनुष्य पर उतरी तो

इसके स्वीकार करने में कुछ अधिक कठिनाई नहीं होनी चाहिए ।

(लेखराम पृष्ठ ३१५)

(327) शंका :- मेला चांदापुर सत्यधर्मविचार (अनेक विषयों पर विचार)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

 

१९—२० मार्च, १८७७ में (संवत् १९३७ छपे के अनुसार) जिसको

मुन्शी बख्तावरसिंह एडीटर आर्यदर्पण ने शोध कर भाषा और उर्दू में वैदिक

यन्त्रालय काशी में अपने प्रबन्ध से छापकर प्रकाशित किया था ।

धर्मचर्चा ब्रह्मविचार मेला चांदापुर · कि जिसमें बड़े बड़े विद्वान्·· आर्य्यों,

ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से एक सत्य के निर्णय के लिए इकट्ठे हुए

· यहां यह मेला मुन्शी प्यारेलाल साहब की ओर से प्रतिवर्ष हुआ करता है।

·· इस धर्मचर्चा में आर्य्यों की ओर से स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और मुन्शी

इन्द्रमणि जी, ईसाइयों की ओर से पादरी स्काट साहब, पादरी नोबिल साहब, पादरी

पार्कर साहब और पादरी जान्सन साहब और मुसलमानों की ओर से मौलवी मौहम्मद

कासिम साहब, सैयद अब्दुल मंसूर साहब विचार के लिए आये थे ।

थे सज्जन पाठकगणों के हितार्थ मुद्रित किया जाता है कि जिससे प्रत्येक मतों

का अभिप्राय सब पर प्रकाशित हो जावे । सब सज्जनों को किसी मत के क्यों

न हों उचित है कि पक्षपातरहित होकर इस को सुहृद्भाव से देखें ।

विदित हो कि यह मेला दो दिन रहा । मेले के आरम्भ से पूर्व कई

लोगों ने स्वामी जी के समीप जाकर कहा कि आर्य और मुसलमान मिल

के ईसाइयों का खण्डन करें तो अच्छा है । इस पर स्वामी जी ने कहा कि

यह मेला सत्य और असत्य के निर्णय के लिए किया गया है । इसलिये

हम तीनों को उचित है कि पक्षपात छोड़कर प्रीतिपूर्वक सत्य का निश्चय

करें । किसी से विरोध करना कदापि योग्य नहीं ।

इसके पश्चात् विचार का समय नियत किया गया । पादरियों ने कहा

कि हम दो दिन से अधिक नहीं ठहर सकते और यही विज्ञापन में भी

छापा गया था । इस पर स्वामी जी ने कहा कि हम इस प्रतिज्ञा पर आये

थे कि मेला कम से कम पंाच और अधिक से अधिक आठ दिन तक रहेगा।

क्योंकि इतने दिनों में सब मतों का अभिप्राय अच्छे प्रकार ज्ञात हो सकता

है । जब इस पर वे लोग प्रसन्न न हुए तब मुन्शी इन्द्रमणि जी ने कहा

कि स्वामी जी ! आप निश्चिन्त रहें । सच्चा मत एक दिन में प्रकट हो जावेगा।

फिर निम्नलिखित पांच प्रश्नों पर विचार करना सब ने स्वीकार किया ।

पहले दिन की सभा

मुन्शी प्यारेलाल साहब ने खड़े होकर सब से पहले कहा

प्रथम ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिये कि जो सर्वव्यापक और

सर्वान्तर्यामी है । हम लोगों के बड़े भाग्य हैं कि उसने हम सब को ऐसे

राजप्रबन्ध समय में उत्पन्न किया कि जिसमें सब लोग निर्विघ्नता से

निर्भय होकर मत—मतान्तरों का विचार कर सकते हैं । धन्य है इस आज

के दिन को और बड़े भाग्य हैं इस भूमि के कि ऐसे सज्जन पुरुष और ऐसे

ऐसे विद्वान् मतमतान्तरों के जानने वाले यहां सुशोभित हुए हैं । आशा है कि

सब विद्वान् अपने अपने मतों की वार्ताओं को कोमल वाणी से कहेंगे कि

जिससे सत्य और असत्य का निर्णय होकर मनुष्यों की सत्य मार्ग में प्रवृत्ति

हो जावेगी ।’’

इसके पश्चात् जब मुसलमानों और ईसाइयों की ओर से पांच—पांच

मनुष्य और आर्य्यों की ओर से स्वामी जी और मुन्शी इन्द्रमणि जी दो ही

विचार के लिए नियत किये गये तब मौलवियों और पादरियों ने हठ किया

कि आर्य्यों की ओर से भी पांच मनुष्य होने चाहियें । इस पर स्वामी जी

ने कहा कि आर्य्यों की ओर से हम दो ही बहुत हैं। तब मौलवियों ने पण्डित

लक्ष्मण शास्त्री का नाम अपने ही आप पादरियों से लिखवाना चाहा । तब

स्वामी जी ने उनसे यह कहा कि आप लोगों को अपनी अपनी ओर के मनुष्यों

के लिखवाने का अधिकार है हमारी ओर का कुछ नहीं । और पण्डित से

यह कहा कि आप नहीं जानते ये लोग हमारे और तुम्हारे बीच विरोध कराके

आप तमाशा देखना चाहते हैं । इस बात के कहने पर भी एक मौलवी ने

पण्डित जी का हाथ पकड़ के उनसे कहा कि तुम भी अपना नाम लिखवा

दो । इनके कहने से क्या होता है। तिस पर स्वामी जी ने कहा कि अच्छा

जो सब आर्य्य लोगों की सम्मति हो तो इनका भी नाम लिखवा दो, नहीं तो

केवल आप लोगों के कहने से इनका नाम नहीं लिखा जावेगा । फिर एक

मौलवी साहब उठकर बोले कि सब हिन्दुओं से पूछा जावे कि इन दोनों

के नाम लिखाने में सब की सम्मति है वा नहीं । इस पर स्वामी जी ने कहा

कि जैसे आपको सिवाय फिर्वेQ सुन्नत जमात के अहलेशिया आदि फिर्कों

ने सम्मति करके नहीं बिठलाया और जैसे कि पादरी साहब को रोमन कैथोलिक

फिर्कों ने नियत नहीं किया; ऐसे ही आर्य्य लोगों में भी बहुत सों की हमारे

बिठलाने में सम्मति और बहुत सों की असम्मति होगी । परन्तु आप लोगों

को हमारे बीच गड़बड़ मचाने का कुछ अधिकार नहीं है । मुन्शी इन्द्रमणि

जी ने कहा कि हम सब आर्य्य लोग वेदादि शास्त्रों को मानते हैं और पण्डित

जी भी इन्हीं को मानते हैं। जो किसी का मत आर्य्य लोगों से वेदादि शास्त्रों

के विरुद्ध हो तो चौथा पन्थ नियत करके भले ही बिठला दीजियेगा ।

इन बातों से मौलवियों का यह अभिप्राय था कि ये लोग आपस में

झगड़ें तो हम तमाशा देखें । पण्डित जी का नाम लिखना आर्य्य लोगों ने

योग्य न समझा । फिर मौलवी लोग नमाज पढ़ने को चले गये और जब लौटकर

आये तब उनमें से मौलवी मुहम्मद कासिम साहब ने कहा कि प्रथम मैं एक

घण्टे तक उन प्रश्नों के सिवाय और कुछ अपने मत के अनुसार कहना चाहता

हूं । उसमें जो किसी को कुछ शटा होगी तो उसका मैं समाधान करूंगा।

इसको सब ने स्वीकार किया । मौलवी साहब के कथन का तात्पर्य यह है

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबपरमेश्वर की स्तुति के पश्चात् यह

कहा कि जिस—जिस समय में जो—जो हाकिम हो उसी की सेवा करनी उचित

है । जैसे कि इस समय जो गवर्नर है उसी की सेवा करते और उसी की

आज्ञा मानते हैं और जिसकी आज्ञापालन का समय व्यतीत हो गया, न कोई

उसकी सेवा करता है और न उसकी आज्ञा को मानता है । और जैसे जब

कोई कानून व्यर्थ हो जाता है तो उसके अनुसार कोई नहीं चलता परन्तु जो

कानून उसकी जगह नियत किया जाता है उसी के अनुसार सब को चलना

होता है । तो इन्हीं दृष्टान्तों के समान जो—जो अवतार और पैगम्बर पूर्व समय

में थे और जो—जो पुस्तकें तौरेत, जबूर, बाइबिल उनके समय में उतरी थीं

अब उनके अनुसार न चलना चाहिये । इस समय के सब से पिछले पैगम्बर

हजरत मुहम्मद साहब हैं । इस लिये उनको पैगम्बर मानना चाहिये। और जो

ईश्वरवाक्य अर्थात् कुरान उनके समय में उतरा है उस पर विश्वास करना

चाहिये । और हम श्री राम और श्री कृष्ण आदि और ईसा मसीह की निन्दा

नहीं करते । क्योंकि वे अपने—अपने समय में अवतार और पैगम्बर थे । परन्तु

इस समय तो हजरत मुहम्मद साहब का ही हुकुम चलता है दूसरे का नहीं।

जो कोई हमारे मजहब वा कुरानशरीफ वा हजरत मुहम्मद साहब को बुरा

कहेगा, वह मारे जाने के योग्य है ।

पादरी नोबिल साहबमुहम्मद साहब के पैगम्बर और कुरान के

ईश्वरीय वाक्य होने में सन्देह है क्योंकि कुरान में जो—जो बातें लिखी हैं सो—सो

बाइबिल की हैं । इसलिये कुरान अलग आसमानी पुस्तक नहीं हो सकता।

और हजरत ईसामसीह के अवतार होने में कुछ सन्देह नहीं । क्योंकि उसके

व्याख्यान से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वह सत्यमार्ग बतलाने वाला था । केवल

उसके व्याख्यान से ही मनुष्य मुक्ति पा सकता है और उसने चमत्कार भी

दिखलाये थे ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबहम हजरत ईसा को अवतार तो

मानते हैं और बाइबिल को आसमानी पुस्तक भी मानते हैं परन्तु ईसाइयों

ने उसमें बहुत कुछ घटत—बढ़त कर दी है इसलिये यह वही मूल नहीं

है । और जो कि उसका कुरान ने खण्डन भी कर दिया है इसलिये वह विश्वास

के योग्य नहीं रही । और हमारे हजरत पैगम्बर साहब का अवतार सब से

पिछला है, इसलिये हमारा मत सच्चा है ।

फिर और मौलवियों ने बाइबिल में से एक आयत पादरी साहब को

दिखलाई और कहा कि देखिये आप ही लोगों ने लिखा है कि इस आयत

का पता नहीं लगता ।

पादरी नोबिल साहबजिस मनुष्य ने यह लिखा है वह सत्यवादी था।

जो उसने लेखक—भूल को प्रसिद्ध कर दिया तो कुछ बुरा नहीं किया । और हम

लोग सत्य को चाहते हैं असत्य को नहीं, इसलिये हमारा मत सत्य है ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबयह तो ठीक है कि कुछ बुरा नहीं

किया परन्तु जब कि किसी पुस्तक में वा दस्तावेज में एक भी बात झूठ

लिखी हुई विदित हो जावे तो वह पुस्तक कदाचित् माननीय नहीं रहती और

न वह दस्तावेज ही अदालत में स्वीकार हो सकता है ।

पादरी नोबिल साहबक्या कुरान में लेखकदोष नहीं हो सकता । इस

बात पर हठ करना अच्छा नहीं । और जो हम सत्य ही को मानते हैं और सत्य

ही की खोज करते हैं इस कारण उस लेखक—भूल को हमने स्वीकार कर

लिया । और तुम्हारे कुरान में बहुत घटत—बढ़त हुई । जिसके प्रमाण में एक मौलवी

ईसाई ने अरबी भाषा में बहुत कुछ कहा और सूरतों के प्रमाण दिये ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबआप बड़े सत्य के खोजी हैं ! (मुख

बनाकर) जो आप सत्य ही को स्वीकार करते हैं तो तीन ईश्वर क्यों मानते हो?

पादरी नोबिल साहबहम तीन ईश्वर नहीं मानते । वे तीनों एक

ही हैं अर्थात् केवल एक ईश्वर से ही प्रयोजन है। ईसामसीह में मनुष्यता और

ईश्वरता दोनों थीं । इस कारण वह दोनों व्यवहारों को करता है । अर्थात्

मनुष्य के आत्मा से मनुष्यों का व्यवहार और ईश्वर के आत्मा से ईश्वर का

व्यवहार अर्थात् चमत्कार दिखलाना ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबवाह वाह ! एक घर में दो तलवार

क्योंकर रह सकती हैं ? यह कहना पादरी साहब का अत्यन्त मिथ्या है। उसने

तो कहीं नहीं कहा कि मैं ईश्वर हूं । तुम हठ से उसको ईश्वर बनाते हो।

पादरी नोबिल साहबएक आयत अंजील की पढ़ी और कहा कि यह

एक आयत है जिसमें मसीह ने अपने आपको ईश्वर कहा है और कई एक

चमत्कार भी दिखलाये हैं। इससे उसके ईश्वर होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबजो वह ईश्वर था तो अपने आपको

फांसी से क्यों न बचा सका ?

एक हिन्दुस्तानी पादरी साहबकुरान में कई एक आयतों का परस्पर

विरोध दिखलाया और कहा कि हुकुम का खण्डन हो सकता है समाचार

का नहीं हो सकता । सो आप के कुरान में समाचारों का खण्डन है । पहले

बैतूल—मुकद्दस की ओर शिर नमाते थे फिर काबे की ओर नमाने लगे । और

कई आयतों का अर्थ भी सुनाया और कहा कि ईसामसीह पर विश्वास लाये

विना किसी की मुक्ति नहीं हो सकती । और तुम्हारे कुरान में बाइबिल का

और ईसामसीह का मानना लिखा है । तुम लोग क्यों नहीं मानते हो ?

ऐसी ही बातों के होते होते सन्ध्या हो गई ।

दूसरे दिन की सभा

प्रातःकाल के साढ़े सात बजे सब लोग आये, और वे पांच प्रश्न कि

जो स्वीकार हो चुके थे पढ़े गये । वे पांच प्रश्न ये हैं

१सृष्टि को परमेश्वर ने किस चीज से, किस समय और किसलिये

बनाया ?

२ईश्वर सब में व्यापक है वा नहीं ?

३ईश्वर न्यायकारी और दयालु किस प्रकार है ?

४वेद, बाइबिल और कुरान के ईश्वरोक्त होने में क्या प्रमाण है ?

५मुक्ति क्या है और किस प्रकार मिल सकती है ?

इसके पश्चात् कुछ देर तक यह बात आपस में होती रही कि एक

दूसरे को कहता था कि पहले वह वर्णन करे । तदनन्तर पादरी स्काट साहब

ने पहले प्रश्न का उत्तर देना आरम्भ किया और यह भी कहा कि यघपि यह

प्रश्न किसी काम का नहीं । मेरी समझ में ऐसे प्रश्न का उत्तर देना व्यर्थ

है । परन्तु जब कि सब की सम्मति है तो मैं इसका उत्तर देता हूं

पादरी स्काट साहबयघपि हम नहीं जानते कि ईश्वर ने यह संसार

किस चीज से बनाया है । परन्तु इतना हम जान सकते हैं कि अभाव से भाव

में लाया है । क्योंकि पहले सिवाय ईश्वर के दूसरा पदार्थ कुछ न था । उसने

अपने हुकुम से सृष्टि को रचा है । यघपि यह भी हम नहीं जान सकते कि

उसने कब इस संसार को रचा परन्तु उसका आदि तो है । वर्षों की गणना

हम को नहीं जान पड़ती और न सिवाय ईश्वर के कोई जान सकता है। इसलिये

इस बात पर अधिक कहना ठीक नहीं ।

ईश्वर ने किसलिये इस जगत् को रचा । यघपि इसका भी उत्तर हम

लोग ठीक—ठीक नहीं जान सकते परन्तु इतना हम जानते हैं कि संसार के

सुख के लिये ईश्वर ने यह सृष्टि की है कि जिसमें हम लोग सुख पावें और

सब प्रकार के आनन्द करें ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबउसने अपने शरीर से प्रकट अर्थात्

उत्पन्न किया । उससे हम अलग नहीं । जो अलग होते तो उस की प्रभुता

में न होते । कब से यह संसार बना यह कहना व्यर्थ है। क्योंकि हम को

रोटी खाने से काम है न यह कि रोटी कब बनी है । यह जगत् सृष्टि के

लिये रचा गया है, क्योंकि सब पदार्थ मनुष्य के लिये ईश्वर ने रचे हैं । और

हम को अपनी भक्ति के लिये ईश्वर ने रचा है । देखो ! पृथिवी हमारे लिये

है हम पृथिवी के लिये नहीं । क्योंकि जो हम न हों तो पृथिवी की कुछ

हानि नहीं परन्तु पृथिवी के न होने से हमारी बड़ी हानि होती है । ऐसे ही

जल, वायु, अग्नि आदि सब पदार्थ मनुष्य के लिये रचे गये हैं । मनुष्य सब

सृष्टि में श्रेष्ठ है । उसको बुद्धि भी इसी श्रेष्ठता की परीक्षा के लिये दी

है अर्थात् मनुष्य को अपनी भक्ति के लिये और इस जगत् को मनुष्य के

लिये ईश्वर ने रचा है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जीपहले मेरी सब मुसलमानों और ईसाइयों

और सुनने वालों से यह प्रार्थना है कि यह मेला केवल सत्य के निर्णय के

लिये किया गया है । और यह ही मेला करने वालों का प्रयोजन है कि देखें

सब मतों में कौन सा मत सत्य है । जिसको सत्य समझें उस को अग्ीकार

करें । इसलिये यहां हार और जीत की अभिलाषा किसी को न करनी चाहिये।

क्योंकि सज्जनों का यह ही मत होना चाहिये कि सत्य की सर्वदा जीत और

असत्य की सर्वदा हार होती रहे । परन्तु जैसे मौलवी लोग कहते हैं कि पादरी

साहब ने यह झूठ कही । ऐसे ही ईसाई कहते हैं कि मौलवी साहब ने यह

बात झूठी कही, ऐसी वार्ता करना उचित नहीं । विद्वानों के बीच यह नियम

होना चाहिये कि अपने—अपने ज्ञान और विघा के अनुसार सत्य का मण्डन

और असत्य का खण्डन कोमल वाणी के साथ करें कि जिससे सब लोग

प्रीति से मिलकर सत्य का प्रकाश करें । एक दूसरे की निन्दा करना, बुरे—बुरे

वचनों से बोलना, द्वेष से कहना कि वह हारा और मैं जीता, ऐसा नियम कदाचित्

न होना चाहिये । सब प्रकार पक्षपात छोड़कर सत्यभाषण करना सब को उचित

है । और एक दूसरे से विरोधवाद करना यह अविद्वानों का स्वभाव है विद्वानों

का नहीं । मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि कोई इस मेले में अथवा

और कहीं कठोर वचन का भाषण न करें ।

अब मैं पहले प्रश्न का उत्तर किट्टट्टईश्वर ने जगत् को किस वस्तु

से और किस समय और किस लिये रचा है ?’’ अपनी छोटी सी बुद्धि और

विघा के अनुसार देता हूं

परमात्मा ने सब संसार को प्रकृति से अर्थात् जिसको अव्यक्त अव्याकृत

और परमाणु नामों से कहते हैं रचा है । सो यह ही जगत् का उपादान कारण

है। जिसका वेदादि शास्त्रों में नित्य करके निर्णय किया है और यह सनातन

है । जैसे ईश्वर अनादि है वैसे ही सब जगत् का कारण भी अनादि है। जैसे

ईश्वर का आदि और अन्त नहीं वैसे ही इस जगत् के कारण का भी आदि

अन्त नहीं है । जितने इस जगत् में पदार्थ दीखते हैं उनके कारण से एक

परमाणु भी अधिक वा न्यून कभी नहीं होता । जब ईश्वर इस जगत् को रचता

है तब कारण से कार्य रचता है । सो जैसा कि यह कार्यजगत् दीखता है वैसा

ही इसका कारण है । सूक्ष्म द्रव्यों को मिलाकर स्थूल द्रव्यों को रचता है

तब स्थूल द्रव्य होकर देखने और व्यवहार के योग्य होते हैं । और यह जो

अनेक प्रकार का जगत् दीखता है उसको इसी कारण से ईश्वर ने रचा है।

जब प्रलय करता है तब इस स्थूल जगत् के पदार्थों के परमाणुओं को

पृथक — पृथक कर देता है । क्योंकि जो—जो स्थूल से सूक्ष्म होता है वह

आंखों से दीखने में नहीं आता । तब बालबुद्धि लोग ऐसा समझते हैं कि वह

द्रव्य नहीं रहा । परन्तु वह सूक्ष्म होकर आकाश में ही रहता है क्योंकि कारण

का नाश कभी नहीं होता और नाश अदर्शन को कहते हैं अर्थात् वह देखने

में न आवे । जब एक—एक परमाणु पृथव्Q—पृथव्Q हो जाते हैं जब उनका

दर्शन· नहीं होता । फिर जब वे ही परमाणु मिलकर स्थूल द्रव्य होते हैं तब

दृष्टि में आते हैं । यह नाश और उत्पत्ति की व्यवस्था ईश्वर सदा से करता

आया है और ऐसे ही सदा करता जायेगा । इसकी संख्या नहीं कि कितनी

वार ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न की और कितनी बार कर सकेगा । इस बात को

कोई नहीं कह सकता ।

अब इस विषय को जानना चाहिये कि जो लोग ट्टनास्ति’ अर्थात् अभाव

से ट्टअस्ति’ अर्थात् भाव मानते हैं और शब्द से जगत् की उत्पत्ति जानते हैं

उनका कहना किसी प्रकार से ठीक नहीं हो सकता क्योंकि अभाव से भाव

का होना सर्वथा असम्भव है । जैसे कोई कहे कि वन्ध्या के पुत्र का विवाह

मैंने आंखों से देखा तो जो उसके पुत्र होता तो वन्ध्या क्यों कहलाती ? फिर

उसके पुत्र का अभाव होने से उसके पुत्र का विवाह कब हो सकता है ?

और जैसे कोई कहे कि मैं किसी स्थान में नहीं था और यहां आया हूं अथवा

· जब कोई वस्तु अत्यन्त छोटी हो जाती है तो फिर उसे और छोटा करना

असम्भव है । जो किसी वस्तु के टुकड़े करते—करते उसको इतना छोटा कर दें कि

फिर उसके टुकड़े होना असम्भव हो जावे तो उसको परमाणु कहते हैं । जितनी वस्तुएं

संसार में हैं वे सब परमाणु से बनती हैं । जब किसी पत्थर को तोड़ डालते हैं और

उसके अत्यन्त छोटे—छोटे टुकड़ों को पृथव्Q—पृथव्Q कर देते हैं तो वे परमाणु कि जिनके

इकट्ठे होने से फिर पत्थर बनता है सदा किसी न किसी स्वरूप से बने रहते हैं।

एक परमाणु का भी इस संसार में से अभाव नहीं होता । केवल स्वरूप और गुणों

में भेद हुआ करता है । जब मोम की बत्ती को जलाते हैं तो देखने में यह जान पड़ता

है कि थोड़ी देर में सब बत्ती नहीं रहती । न जाने कि क्या हो गई परन्तु वे परमाणु

जितने बत्ती में थे और ही रूप के वायु के सदृश हो जाते हैं । उनमें के एक परमाणु

का भी अभाव कदाचित् नहीं होता ।

सर्प बिल में न था और निकल भी आया तो ऐसी वार्ता विद्वानों की नहीं

होती । इसमें कोई प्रमाण नहीं क्योंकि जो वस्तु है ही नहीं फिर वह क्योंकर

हो सकती है । जैसे कि हम लोग अपने—अपने स्थानों में न होते तो यहां

चांदापुर में कभी न आ सकते । देखो शास्त्र में भी लिखा हैट्टट्टनासत आत्म—

लाभः । न सत आत्महानम्’’ अर्थात् जो है सो आगे को होता है और जो

नहीं है वह कभी नहीं हो सकता । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि विना भाव

के भाव कभी नहीं हो सकता । क्योंकि इस जगत् में कोई भी ऐसी वस्तु

नहीं है कि जिसका कारण कोई न हो ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि भाव से भाव अर्थात् अस्ति से अस्ति होती

है । नास्ति से अस्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती । यह ट्टट्टवदतो व्याघात’’

अर्थात् अपनी बात को आप ही काटने के सदृश बात है । पहले किसी वस्तु

का अन्यथाभाव कहकर फिर यह कहना कि उसका भाव हो गया; पूर्वापर

विरोध है । इसको कोई भी विद्वान् नहीं मान सकता और न किसी प्रमाण

से ही सिद्ध कर सकता है कि विना कारण के कोई कार्य हो सके । इसलिये

अभाव से भाव तथा अर्थात् नास्ति से वा हुकुम से जगत् की उत्पत्ति का

होना सर्वथा असम्भव है । इससे यह ही जानना चाहिये कि ईश्वर ने जगत्

के अनादि उपादान कारण से ही सब संसार को रचा है अन्यथा नहीं ।

यहां दो प्रकार का विचार स्थित होता है । एकयह कि जो जगत्

का कारण ईश्वर हो तो ईश्वर ही सारे जगत् का रूप हुआ तो ज्ञान, सुख,

दुःख, जन्म, मरण, हानि, लाभ, नरक, स्वर्ग, क्षुधा, तृषा, ज्वर आदि रोग बन्ध

और मोक्ष सब ईश्वर में ही घटते हैं । फिर कुत्ता, बिल्ली, चोर, दुष्ट आदि

सब ईश्वर ही बन गये । दूसरायह कि जो सामग्री मानें तो ईश्वर कारीगर

के समान होता है तो उत्तर यह है कि कारण तीन प्रकार का होता है। एक

उपादानकि जिसको ग्रहण करके किसी पदार्थ को बनावे । जैसे मिट्टी लेकर

घड़ा और सोना लेकर गहना और रूई लेकर कपड़ा बनाया जाय । दूसरा

निमित्तजैसे कुम्हार अपनी विघा और सामर्थ्य के साथ घड़े को बनाता है।

तीसरा साधारणजैसे चाक आदि साधन और दिशा, काल इत्यादि ।

अब जो ईश्वर को जगत् का उपादान कारण मानें तो ईश्वर ही जगत्रूप

बनता है क्योंकि मिट्टी से घड़ा अलग नहीं हो सकता । और जो निमित्त

मानें तो जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता और जो

साधारण मानें जैसे मिट्टी से अपने आप बिना कुम्हार घड़ा नहीं बन सकता।

इन दोनों व्यवस्थाओं में वह पराधीन वा जड़ ठहरता है। इस लिये जो यह

कहते हैं कि ईश्वर जगत् रूप बन गया है तो उनके कहने से चोर आदि

होने का दोष ईश्वर में आता है । इससे ऐसी व्यवस्था माननी चाहिये कि

जगत् का कारण अनादि है और नाना प्रकार के जगत् को बनाने वाला

परमात्मा है । और इसी प्रकार जीव भी अपने स्वरूप से अनादि हैं

और स्थूल कार्य जगत् तथा जीवों के कर्म नित्यप्रवाह से अनादि हैं।

ऐसे माने बिना किसी प्रकार से निर्वाह नहीं हो सकता ।

अब यह कि ईश्वर ने किस समय जगत् को बनाया अर्थात् संसार को

बने कितने वर्ष हो गये ? इसका उत्तर दिया जाता है

सुनो भाइयो ! इस प्रश्न का हम लोग तो उत्तर दे सकते हैं आप लोग

नहीं दे सकते । क्योंकि जब आप लोगों के मतों में से कोई अठारह सौ वर्ष

से, कोई तेरह सौ वर्ष से और कोई पांच सौ वर्ष से उत्पत्ति कहता है तो

फिर आप लोगों के मत में इतिहास के वर्षों का लेख किसी प्रकार नहीं हो

सकता । और हम आर्य लोग सदा से कि जब से यह सृष्टि हुई बराबर

विद्वान् होते चले आये हैं । देखो ! इस देश से और सब देशों में विघा

गई है । इस बात में सब देश वालों के इतिहासों का प्रमाण है कि आर्यावर्त्त

देश से मिस्र देश में और वहां से यूनान और यूनान से योरोप आदि में विघा

फैली है । इसलिये इसका इतिहास किसी दूसरे मत में नहीं हो सकता ।

देखो ! हम आर्य लोग संसार की उत्पत्ति और प्रलय विषय में वेद

आदि शास्त्रों की रीति से सदा से जानते हैं कि हजार चतुर्युगी का एक ब्राह्मदिन

और इतने ही युगों की एक ब्राह्म—रात्रि होती है । अर्थात् जगत् की उत्पत्ति

होके जब तक कि वर्तमान होता है उसका नाम ब्राह्मदिन है । और प्रलय

होके जब तक हजार चतुर्युगीपर्य्यन्त उत्पत्ति नहीं होती उसका नाम ब्राह्म—रात्रि

है । एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं और एक मन्वन्तर ७१ चतुर्युगियों

का होता है सो इस समय सातवां वैवस्वत मन्वन्तर वर्तमान हो रहा है । और

इससे पहले ये छः मन्वन्तर बीत चुके हैंस्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तमि,

तामस, रैवत और चाक्षुष । अर्थात् १९६०८५२९७९ वर्षों का भोग हो चुका

है और अब २३३३२२७०२४ वर्ष इस सृष्टि को भोग करने के बाकी रहे

हैं। सो हमारे देश के इतिहास में यथार्थ क्रम से सब बातें लिखी हैं । और

ज्योतिष शास्त्र में भी मिति, वार प्रति संवत् घटाते बढ़ाते रहे हैं । और ज्योतिष

की रीति से जो वर्ष पत्र बनता है उसमें भी यथावत् सब को क्रम से लिखते

चले आते हैं । अर्थात् एक—एक वर्ष घटाते और एक—एक वर्ष भोगने में आज

तक बढ़ाते आये हैं । इस बात में सब आर्य्यावर्त्त देश के इतिहास एक हैं।

किसी में कुछ विरोध नहीं ।

फिर जब कि जैन मतवाले और मुसलमान इस देश के इतिहासों को

नष्ट करने लगे तब आर्य लोगों ने सृष्टि के इतिहास को कण्ठ कर लिया।

सो बालक से लेके वृद्ध तक नित्यप्रति उच्चारण करते हैं कि जिसको सटल्प

कहते हैं और वह यह है

ओं तत्सत् श्री ब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे

कलियुगे कलिप्रथमचरणे आर्य्यावर्त्तान्तरैकदेशेऽमुकनगरेऽमुकसंवत्सरायनर्तुमास—

पक्षदिननक्षत्रलग्नमुहूर्त्तेऽत्रेदं कार्य कृतं क्रियते वा ।।

जो इसको ही विचार लें तो इससे सृष्टि के वर्षों की गणना बराबर

जान पड़ती है ।

जो कोई यह कहे कि हम इस बात को नहीं मान सकते तो उसको

उत्तर यह है कि जो परम्परा से मिति, वार, दिन चढ़ाते चले आते हैं और

जब कि इतिहासों और ज्योतिष शास्त्रों में भी इसी प्रकार लिखा है तो फिर

इसको मिथ्या कोई नहीं कह सकता । जैसे कि बहीखाते में प्रतिदिन मिति,

वार लिखते हैं और उसको कोई झूठ नहीं कह सकता । और जो यह कहता

है उससे भी पूछना चाहिए कि तुम्हारे मत में सृष्टि की उत्पत्ति को कितने

वर्ष हुए हैं ? तब वह या तो छः हजार या सात हजार या आठ हजार वर्ष

बतलायेगा । तो वह भी अपने पुस्तकों के अनुसार कहता है तो इसी प्रकार

उसको भी कोई नहीं मानेगा क्योंकि यह पुस्तक की बात है ।

और देखो भूगर्भविघा से जो देखा जाता है तो उससे भी यह ही गणना

ठीक—ठीक आती है । इसलिए हम लोगों के मत में तो जगत् के वर्षों की

गिनती बन सकती है और किसी के मत में कदाचित् नहीं । इसलिये यह

व्यवस्था सृष्टि की उत्पत्ति के वर्षों की सब को ठीक माननी उचित है ।

अब यह कि ईश्वर ने किस लिए सृष्टि को उत्पन्न किया ? इसका

उत्तर दिया जाता है

जीव और जगत् का कारण स्वरूप से अनादि, और जीव के कर्म तथा

कार्यजगत् नित्यप्रवाह से अनादि हैं । जब प्रलय होता है तब जीवों के कुछ

कर्म शेष रह जाते हैं तो उनके भोग कराने के लिए और फल देने के लिए

ईश्वर सृष्टि को रचता है और अपने पक्षपातरहित न्याय को प्रकाशित करता

है । ईश्वर में जो ज्ञान, बल, दया आदि और रचने की अत्यन्त शक्ति है

उनके सफल करने के लिये उसने सृष्टि रची है। जैसे आंख देखने के लिए

और कान सुनने के लिए हैं वैसे रचनाशक्ति रचने के लिये है । सो अपनी

सामर्थ्य की सफलता करने के लिए ईश्वर ने इस जगत् को रचा है कि सब

लोग सब पदार्थों से सुख पावें। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के

लिए जीवों के नेत्र आदि साधन भी रचे हैं । इसी प्रकार सृष्टि के रचने में

और भी अनेक प्रयोजन हैं कि जो समय कम रहने से अब नहीं कहे जा

सकते । विद्वान् लोग आप जान लेंगे ।

पादरी स्काट साहबजिसकी सीमा होती है वह अनादि नहीं हो

सकता। जगत् की सीमा का निरूपण है इसलिये वह अनादि नहीं हो सकता।

कोई पदार्थ अपने आपको नहीं रच सकता परन्तु ईश्वर ने जगत् को अपनी

सामर्थ्य से रचा है । कोई नहीं जानता कि ईश्वर ने किस पदार्थ से रचा है

और पण्डित जी ने भी नहीं बताया कि किस पदार्थ से जगत् को रचा ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबजब कि सब पदार्थ सदा से हैं तो

ईश्वर को मानना व्यर्थ है । कोई उत्पत्ति का समय नहीं कह सकता ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(पादरी साहब के उत्तर में)पादरी

साहब मेरे कहने को नहीं समझे । मैं तो केवल जगत् के कारण को ही

अनादि कहता हूं और जो कार्य है सो अनादि नहीं होता । जैसे मेरा शरीर

साढ़े तीन हाथ का है सो उत्पन्न होने से पहले ऐसा न था और न नाश होने

के पश्चात् ही ऐसा रहेगा । पर इसमें जितने परमाणु हैं वे नष्ट नहीं होते।

इस शरीर के परमाणु पृथव्Q—पृथव्Q होकर आकाश में बने रहते हैं और उन

परमाणुओं में जो संयोग और वियोग· की शक्ति है तो वह सदा उनमें रहती

· सब लोग देखते हैं कि अग्नि में बहुत से पदार्थ जल जाते हैं । अब विचार

करना चाहिये कि जब कोई पदार्थ जल जाता है तो क्या हो जाता है । देखने में आता

है कि लकड़ी जलकर थोड़ी सी राख रह जाती है । तो अब यह विचारना चाहिए

कि जलने से वह पदार्थ ही नष्ट हो जाता है वा उसका स्वरूप ही बदल जाता

है ? जब मोमबत्ती जलाते हैं तो देखने में वह मोम नहीं रहता । यह जान नहीं पड़ता

कि कहां गया परन्तु उस मोम का स्वरूप बदलकर वायु के सदृश हो जाता है और

इसी कारण वायु में मिल जाने से दृष्टि में नहीं आता ।

इस की परीक्षा के लिये एक बोतल के भीतर मोमबत्ती जलाओ और उसका

मुख बन्द कर दो तो उस बत्ती का जितना भाग वायु के सदृश हो जावेगा वह बोतल

से बाहर नहीं जा सकेगा । पर थोड़ी देर के पीछे यह दिखलाई देगा कि वह बत्ती

बुझ गई । अब यह सोचना चाहिए कि बत्ती क्यों बुझ गई और बोतल के वायु में

अब कुछ भेद हुआ वा नहीं ? इस बात की परीक्षा इस प्रकार होगी कि थोड़ा सा

चूने का पानी उस बोतल में और एक और बोतल में जिसमें केवल वायु भरा हुआ

हो और उसमें कोई बत्ती न जली हो, डालो तो यह दिखलाई देगा कि जिस बोतल

में जली है उसमें चूने का रंग दूध सा हो जावेगा और दूसरी बोतल का जैसे का तैसा

है । जैसा मिट्टी से घड़ा बनाया जो कि बनाने के पहले नहीं था और नाश

होने के पश्चात् भी नहीं रहेगा परन्तु जो मिट्टी है वह नष्ट नहीं होती । और

जो गुण अर्थात् चिकनापन उसमें है कि जिससे वह पिण्डाकार होता है वह

भी मिट्टी में सदा से है । वैसे ही संयोग और वियोग होने की योग्यता परमाणुओं

में सदा से है । इससे यह समझना चाहिए कि जिन परमाणु द्रव्यों से यह

जगत् बना है वे द्रव्य अनादि हैं, कार्य द्रव्य नहीं । और मैंने यह कब कहा

था कि जगत् के पदार्थ स्वयम् अपने को बना सकते हैं मेरा कहना तो यह

था कि ईश्वर ने उस कारण से जगत् को रचा है ।

और जो पादरी साहब ने कहा कि शक्ति से जगत् को रचा है तो मैं

पूछता हूं कि शक्ति कोई वस्तु है वा नहीं ? जो कहो कि है तो वह अनादि

हुई । और जो कहो कि नहीं तो उससे आगे को दूसरी कोई वस्तु भी नहीं

बन सकती । और जो पादरी साहब ने कहा कि पण्डित जी ने यह नहीं बताया

कि किस से यह जगत् बना है उसको प्रकृति आदि नामों से कि जिसको

परमाणु भी कहते हैं कहा था ।

(मौलवी साहब के उत्तर में)सब पदार्थों का कारण अनादि है

तो भी ईश्वर को मानना अवश्य है क्योंकि मिट्टी में यह सामर्थ्य नहीं

कि आप से आप घड़ा बन जाये । जो कारण होता है वह आप कार्यरूप

नहीं बन सकता क्योंकि उसमें बनने का ज्ञान नहीं होता । और कोई जीव

भी उसको नहीं बना सकता । आज तक किसी ने कोई वस्तु ऐसी नहीं बनाई

जैसा कि यह मेरा रोम है । ऐसी वस्तु कोई नहीं बना सकता । और आज

तक ऐसा कोई मनुष्य नहीं हुआ और न है कि जो परमाणुओं को पकड़ के

किसी युक्ति से उनसे ऐसी वस्तु बना सके । कोई दो त्रसरेणुओं का भी संयोग

नहीं कर सकता । इससे यह सिद्ध हुआ कि केवल उस परमेश्वर की ही

यह सामर्थ्य है कि सब जगत् को रचे ।

देखो ! एक आंख की रचना में ही कितनी विघा का दृष्टान्त है ।

आज तक बड़े—बड़े वैघ अपनी बुद्धि लगाते चले आते हैं तो भी आंख की

विघा अधूरी ही है । कोई नहीं जानता कि किस—किस प्रकार और क्या—क्या

गुण ईश्वर ने उसमें रक्खे हैं । इसलिये सूर्य, चांद आदि जगत् का रचना और

रहेगा। इससे सिद्ध हुआ कि बत्ती के जलाने से कोई नई वस्तु बोतल के वायु में मिल

गई है । वह एक वस्तु वायु के सदृश है कि जो दृष्टि में नहीं आती। अब देखना

चाहिए कि मोमबत्ती का कोई परमाणु नष्ट नहीं होता पर जिन पदार्थों से वह बत्ती

बनी है उनका स्वरूप भिन्न हो जाता है।।

धारण करना ईश्वर ही का काम है । तथा जीवों के कर्म्मों के फल का पहुंचाना

यह भी परमात्मा ही का काम है किसी दूसरे का नहीं । इससे ईश्वर को

मानना अवश्य है ।

एक हिन्दुस्तानी पादरी साहबजब दो वस्तु हैंएक कार्य, दूसरा

कारण तो दोनों अनादि नहीं हो सकते । इससे ईश्वर ने नास्ति से अस्ति अपनी

सामर्थ्य से की है ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबगुण दो प्रकार के होते हैंएक

अन्तःस्थ दूसरे बाह्य । अन्तःस्थ तो अपने में होते हैं और बाह्य दूसरे से अपने

में आते हैं । और अन्तःस्थ गुण दूसरे में जाकर वैसे ही बन जाते हैं परन्तु

जिसके गुण होते हैं वह उससे पृथव्Q होता है। जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब जिस

बर्तन में पड़ता है वैसा ही बन जाता है परन्तु सूर्य नहीं हो जाता । वैसे ही

ईश्वर ने हम को अपनी इच्छा से बनाया है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(ईसाई साहब के उत्तर में)आप दोनों

के अनादि होने में क्यों शटा करते हैं ? क्योंकि जितने पदार्थ इस जगत् में

बने हैं उन सब का कारण अर्थात् परमाणु आदि सब अनादि हैं । और जीव

भी अनादि हैं कि जिनकी संख्या कोई नहीं बता सकता । और नास्ति से

अस्ति कभी नहीं हो सकती सो मैं पहले कह चुका हूं । परन्तु आप जो कहते

हैं कि शक्ति से बनाया तो बतलाओ कि शक्ति क्या वस्तु है ? जो कहो

कि कोई वस्तु है तो फिर वही कारण ठहरने से अनादि हुई । और ईश्वर

के नाम, गुण, कर्म सब अनादि हैं कोई अब नहीं बने ।

(मौलवी साहब के उत्तर में)आप जो यह कहो कि भीतर के गुणों

से जगत् बना है तो भी नहीं हो सकता क्योंकि गुण द्रव्य के विना अलग

नहीं रह सकते और गुण द्रव्य से बन भी नहीं सकता । जब भीतर के गुणों

से जगत् बना है तो जगत् भी ईश्वर हुआ । जो यह कहो कि बाहर के गुणों

से जगत् बना तो ईश्वर के सिवाय आपको भी वे गुण और द्रव्य अनादि मानने

पड़ेंगे । और जो यह कहो कि इच्छा से हम लोग बन गये तो मेरा यह प्रश्न

है कि इच्छा कोई वस्तु है वा गुण है ? जो वस्तु कहोगे तो वह अनादि ठहर

जायेगी और जो गुण मानोगे तो जैसे केवल इच्छा से घड़ा नहीं बन सकता

परन्तु मिट्टी से बनता है तो वैसे ही इच्छा से हम लोग नहीं बन सकते ।

पादरी स्काट साहबहम लोग इतना जानते हैं कि नास्ति से अस्ति

को ईश्वर ने बनाया। यह हम नहीं जानते कि किस पदार्थ से और किस प्रकार

यह जगत् बनाया । इसको ईश्वर ही जानता है । मनुष्य कोई नहीं जान सकता।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहब ईश्वर ने अपने प्रकाश से जगत्

बनाया है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(पादरी साहब के उत्तर में) कार्य को

देखकर कारण को देखना चाहिये कि जो वस्तु कार्य है वैसा ही उसका कारण

होता है । जैसे घड़े को देखकर उसका कारण मिट्टी जान लिया जाता है

कि जो वस्तु घड़ा है वही वस्तु मिट्टी है । आप कहते हैं कि अपनी शक्ति

से जगत् को रचा, सो मेरा यह प्रश्न है कि वह शक्ति अनादि है वा पीछे

से बनी है ? जो अनादि है तो द्रव्यरूप उसको मान लो तो उसी को जगत्

का अनादि कारण मानना चाहिये ।

(मौलवी साहब के उत्तर में)नूर कहते हैं प्रकाश को, उस प्रकाश से

कोई दूसरा द्रव्य नहीं बन सकता । परन्तु वह नूर मूर्तिमान् द्रव्य को प्रसिद्ध दिखला

सकता है और वह प्रकाश करने वाले पदार्थ के विना अलग नहीं रह सकता।

इससे जगत् का जो कारण प्रकृति आदि अनादि है उसको माने विना किसी प्रकार

से किसी का निर्वाह नहीं हो सकता । और हम लोग भी कार्य को अनादि नहीं

मानते परन्तु जिससे कार्य बना है उस कारण को अनादि मानते हैं ।

एक हिन्दुस्तानी ईसाई साहबजो ईश्वर ने अपनी प्रकृति से सब

संसार को रचा तो उसकी प्रकृति में सब संसार सनातन था । और वह उसकी

प्रकृति में अनादि था तो ईश्वर की सीमा हो गई ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जीजबकि ईश्वर की प्रकृति में सब जगत्

था तब ही तो वह अनादि हुआ और वही अनादि वस्तु रचने से सीमा में आई।

अर्थात् लम्बा—चौड़ा, बड़ा—छोटा आदि सब प्रकार का ईश्वर ने उसमें से बनाया।

इसलिये रचे जाने से केवल जगत् ही की सीमा हुई ईश्वर की नहीं ।

अब देखिये मैंने जो पहले कहा था कि नास्ति से अस्ति कभी नहीं

हो सकती किन्तु भाव से ही भाव होता है सो आप लोगों के कहने से भी

वह बात सिद्ध हो गई कि जगत् का कारण अनादि है ।

ईसाई साहबसुनो भाई मौलवी साहबो ! कि पण्डित जी इसका उत्तर

हजार प्रकार से दे सकते हैं । हम और तुम हजारों मिलकर भी इन से बात

करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं । इसलिये इस विषय में

अधिक कहना उचित नहीं ।

ग्यारह बजे तक यह वार्ता सिद्ध हुई । फिर सब लोग अपने—अपने

डेरों को चले गये । और सब जगह मेले में यही बातचीत होती थी कि जैसा

पण्डित जी को सुनते थे उससे सहस्रगुणा पाया ।

दोपहर के पश्चात् की सभा

फिर एक बजे सब लोग आये और इस पर विचार किया कि अब समय

बहुत थोड़ा और बातें बहुत बाकी हैं इसलिये केवल मुक्ति विषय पर विचार

करना उचित है । प्रथम थोड़ी देर तक ये बातें होती रहीं कि पहले कौन वर्णन

करे ? एक दूसरे पर टालता था । तब स्वामी जी ने कहा कि उसी क्रम से भाषण

होना चाहिये । अर्थात् पहले पादरी साहब, फिर मौलवी साहब और फिर मैं ।

परन्तु जब पादरी साहब और मौलवी साहब दोनों ने कहा कि हम पहले न बोलेंगे

तब स्वामी जी ने ही पहले कहना स्वीकार किया ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जीमुक्ति कहते हैं छूट जाने को अर्थात्

जितने दुःख हैं उनसे सब छूटकर एक सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त

होकर सदा आनन्द में रहना, फिर जन्म—मरण आदि दुःखसागर में नहीं गिरना।

इसी का नाम मुक्ति है । वह किस प्रकार से होती है ? इसका पहला

साधन सत्य का आचरण है और वह सत्य आत्मा और परमात्मा की साक्षी

से निश्चय करना चाहिये अर्थात् जिसमें आत्मा और परमात्मा की साक्षी न

हो, वह असत्य है । जैसे किसी ने चोरी की । जब वह पकड़ा गया उससे

राजपुरुष ने पूछा कि तू ने चोरी की या नहीं ? तब तक वह कहता है कि

मैंने चोरी नहीं की । परन्तु उसका आत्मा भीतर से कह रहा है कि मैंने चोरी

की है। तथा जब कोई झूठ की इच्छा करता है तब अन्तर्यामी परमेश्वर उसको

जता देता है कि यह बुरी बात है । इसको तू मत कर और लज्जा, शटा

और भय आदि उसके आत्मा में उत्पन्न कर देता है । और जब सत्य की

इच्छा करता है तब उसके आत्मा में आनन्द कर देता है । और प्रेरणा करता

है कि यह काम तू कर । अपना आत्मा जैसे सत्य काम करने में निर्भय और

प्रसन्न होता है वैसे झूठ में नहीं होता । जब परमात्मा की आज्ञा को तोड़कर

बुरा काम कर लेता है तब उस की मुक्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती।

और उसी को असुर, दुष्ट, दैत्य और नीच कहते हैं । इसमें वेद का प्रमाण

है कि

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।

ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।।

यजुर्वेद, अध्याय ४० । मन्त्र ३ ।।

आत्मा का हिंसन करने वाला अर्थात् जो परमेश्वर की आज्ञा को

तोड़ता है और अपने आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध बोलता, करता और मानता

है उसी का नाम असुर, राक्षस, दुष्ट, पापी, नीच आदि होता है ।

मुक्ति के मिलने के साधन ये हैं १सत्य आचरण । २सत्यविघा

अर्थात् ईश्वरकृत वेदविघा को यथावत् पढ़कर ज्ञान की उन्नति और सत्य

का पालन यथावत् करना । ३सत्यपुरुष ज्ञानियों का सग् करना ।

४योगाभ्यास करके अपने मन, इन्द्रियों और आत्मा को असत्य से हटाकर

सत्य में स्थिर करना और ज्ञान को बढ़ाना । ५परमेश्वर की स्तुति करना

अर्थात् उसके गुणों की कथा सुनना और विचारना । ६प्रार्थना कि जो इस

प्रकार होती है किहे जगदीश्वर ! हे कृपानिधे ! हे अस्मत्पितः ! असत्य

से हम लोगों को छुड़ा के सत्य में स्थिर कर और हे भगवन् ! हम को

अन्धकार अर्थात् अज्ञान और अधर्म आदि दुष्टकामों से अलग करके विघा

और धर्म आदि श्रेष्ठ कामों में सदा के लिये स्थापन कर । और हे ब्रह्म !

हम को जन्म—मरणरूप संसार के दुःखों से छुड़ाकर अपने कृपाकटाक्ष से

अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर ।

जब सत्य मन से अपने आत्मा, प्राण और सब सामर्थ्य से परमेश्वर

को जीव भजता है तब वह करुणामय परमेश्वर उसको अपने आनन्द में स्थिर

कर देता है । जैसे जब कोई छोटा बालक घर के ऊपर से अपने माता—पिता

के पास नीचे आना चाहता है वा नीचे से ऊपर उनके पास जाना चाहता

है तब हजारों आवश्यकता के कामों को भी माता पिता छोड़कर और दौड़कर

अपने लड़के को उठाकर गोद में लेते हैं कि हमारा लड़का कहीं गिर पड़ेगा

तो उसको चोट लगने से उसको दुःख होगा । और जैसे माता—पिता अपने

बच्चों को सदा सुख में रखने की इच्छा और पुरुषार्थ सदा करते रहते हैं वैसे

ही परम कृपानिधि परमेश्वर की ओर जब कोई सच्चे आत्मा के भाव से

चलता है, तब वह अनन्तशक्तिरूप हाथों से उस जीव को उठाकर अपनी

गोद में सदा के लिए रखता है । फिर उसको किसी प्रकार का दुःख नहीं

होने देता है और वह सदा आनन्द में रहता है ।

पक्षपात को छोड़कर सत्य ग्रहण और असत्य का परित्याग कर के

अर्थ को सिद्ध करना चाहिए । देखो ! सब अन्याय और अधर्म पक्षपात

से होता है। जैसे कि मौलवी साहब का वस्त्र बहुत अच्छा है । मुझ को

मिले तो मैं उसको ओढ़कर सुख पाउंQ । इसमें अपने सुख का पक्षपात किया

और मौलवी साहब के सुख—दुःख का कुछ विचार न किया । इसी प्रकार

पक्षपात से ही नित्य अधर्म होता है । अधर्म से काम को सिद्ध करना इसी

को अनर्थ कहते हैं । और धर्म और अर्थ से कामना अर्थात् अपने सुख

की सिद्धि करना इस को काम कहते हैं । और अधर्म अर्थात् अनर्थ से

काम की सिद्धि करना इसको कुकाम कहते हैं । इसलिए इन तीनों अर्थात्

धर्म, अर्थ और काम से मोक्ष को सिद्ध करना उचित है । इसमें यह बात

है कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करना इसको धर्म, और उसकी आज्ञा

का तोड़ना इसको अधर्म कहते हैं । सो धर्म आदि ही मुक्ति के साधन हैं और

कोई नहीं । और मुक्ति सत्य पुरुषार्थ से सिद्ध होती है अन्यथा नहीं ।

पादरी स्काट साहबपण्डित जी ने कहा कि सब दुःखों से छूटने

का नाम मुक्ति है, परन्तु मैं कहता हूं कि सब पापों से बचने और स्वर्ग में

पहंुचने का नाम मुक्ति है। कारण यह कि ईश्वर ने आदम को पवित्र रचा

था परन्तु शैतान ने उसको बहका के उससे पाप करा दिया। इससे उसकी

सब सन्तान भी पापी है। जैसे घड़ी बनाने वाले ने उसकी चाल स्वतन्त्र रक्खी

है और वह आप ही चलती है। ऐसे मनुष्य भी अपनी इच्छा से पाप करते

हैं तो फिर अपने ऐश्वर्य से मुक्ति नहीं पा सकते और न पापों से बच सकते

हैं। इसलिए प्रभु ईसामसीह पर विश्वास किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती।

जैसे हिन्दू लोग कहते हैं कि कलियुग मनुष्यों को पाप कराके बिगाड़ता है

इससे उनकी मुक्ति नहीं हो सकती । परन्तु ईसामसीह पर विश्वास करने से

वे भी बच सकते हैं ।

प्रभु ईसामसीह जिस—जिस देश में गये अर्थात् उसकी शिक्षा जहां—जहां

गई है वहां—वहां मनुष्य पापों से बचते जाते हैं । देखो ! इस समय सिवाय

ईसाइयों के और किसी के मत में भलाई और अच्छे गुणों की उन्नति है ?

मैं एक दृष्टान्त देता हूं कि जैसे पण्डित जी बलवान् हैं ऐसे ही इंगलिस्तान

में एक मनुष्य बलवान् था । परन्तु वह मघपान, चोरी, व्यभिचार आदि बुरे

काम करता था। जब वह ईसामसीह पर विश्वास लाया तब वह सब बुराइयों

से छूट गया । और मैंने भी जब मसीह पर विश्वास किया तब मुक्ति को

पाया और बुरे कामों से बच गया । सो ईसामसीह की आज्ञा के विरुद्ध आचरण

से मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिये सब को ईसामसीह पर विश्वास लाना

चाहिए। उसी से मुक्ति हो सकती है और किसी प्रकार नहीं ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबहम लोग यह नहीं कह सकते कि

पण्डित जी ने जो मुक्ति के साधन कहे केवल उन से ही मुक्ति हो सकती

है। क्योंकि ईश्वर की इच्छा है जिसको चाहे उसको मुक्ति दे और जिसको

न चाहे न दे । जैसे समय का हाकिम जिस अपराधी से प्रसन्न हो उसको

छोड़ दे और जिससे अप्रसन्न हो उसको कैद में डाल दे । उसकी इच्छा है

जो चाहे सो करे । उस पर हमारा ऐश्वर्य नहीं है । न जाने ईश्वर क्या करेगा।

पर समय के हाकिम पर विश्वास रखना चाहिए । इस समय का हाकिम

हमारा पैगम्बर है। उस पर विश्वास लाने से मुक्ति होती है। हाँ ! यह बात

अवश्य है कि विघा से अच्छे काम हो सकते हैं परन्तु मुक्ति तो केवल उसी

के हाथ में है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(पादरी साहब के उत्तर में)आपने

जो यह कहा कि दुःखों से छूटना मुक्ति नहीं, पापों से छूटने का नाम मुक्ति

है। सो मेरे अभिप्राय को न समझकर यह बात कही है । क्योंकि मैं तो और

पहले साधन में ही सब पापों अर्थात् असत्य कामों से बचना कह चुका

हूं। और बुरे कामों का फल भी दुःख कहाता है अर्थात् जब पाप करेगा तो

दुःख से नहीं बच सकता । इसके अनन्तर और साधनों में भी स्पष्ट कहा

है कि अधर्म छोड़कर धर्म का आचरण करना मुक्ति का साधन है । जो

पादरी साहब इन बातों को समझते तो कदाचित् ऐसी बात न कहते ।

दूसरे, जो आप यह कहते हैं कि ईश्वर ने आदम को पवित्र रचा था

परन्तु शैतान ने बहकाकर पाप करा दिया तो उसकी सन्तान भी इसी कारण

से पापी हो गई । सो यह बात ठीक नहीं है क्योंकि आप लोग ईश्वर को

सर्वशक्तिमान् मानते ही हैं । सो जब कि ईश्वर के पवित्र बनाये आदम को

शैतान ने बिगाड़ दिया और ईश्वर के राज्य में विघ्न करके ईश्वर की व्यवस्था

को तोड़ डाला तो इससे ईश्वर सर्वशक्तिमान् नहीं रह सकता । और ईश्वर

की बनाई हुई वस्तु को कोई नहीं बिगाड़ सकता है।

और एक आदम ने पाप किया तो उसकी सारी सन्तान पापी हो गई

यह सर्वथा असम्भव और मिथ्या है । जो पाप करता है वही दुःख पाता है

दूसरा कोई नहीं पा सकता और ऐसी बात कोई विद्वान् नहीं मानेगा । और

देखो एक आदम और हव्वा से किसी प्रकार इस जगत् की उत्पत्ति भी नहीं

हो सकती क्योंकि बहन और भाई का विवाह होना बड़े दोष की बात है।

इसलिए ऐसी व्यवस्था मानना चाहिए कि सृष्टि के आदि में बहुत से पुरुष

और स्त्री परमेश्वर ने रचे ।

और जो यह कहा कि शैतान बहकाता है तो मेरा यह प्रश्न है कि

जब शैतान ने सब को बहकाया तो फिर शैतान को किस ने बहकाया ? जो

कहो कि शैतान आप से आप ही बहक गया तो सब जीव भी आप से आप

ही बहक गये होंगे फिर शैतान को बहकाने वाला मानना व्यर्थ है । जो कहो

कि शैतान को भी किसी ने बहकाया है तो सिवाय ईश्वर के दूसरा कोई

बहकाने वाला शैतान को नहीं है । तो फिर जब ईश्वर ने ही सब को बहकाया

तब मुक्ति देनेवाला कोई भी आप लोगों के मत में न रहा और न मुक्ति पाने

वाला । क्योंकि जब परमात्मा ही बहकाने वाला ठहरा तो बचाने वाला कोई

भी नहीं हो सकता । और यह बात परमात्मा के स्वभाव से भी विरुद्ध है

क्योंकि वह न्यायकारी और सत्य कामों का ही कर्त्ता है तथा अच्छे कामों

से ही प्रसन्न होता है। वह किसी को दुःख देनेवाला और बहकाने वाला नहीं।

और देखो ! कैसे आश्चर्य की बात है कि यदि शैतान ईश्वर के राज्य

में इतना गड़बड़ करता है फिर भी ईश्वर उसको दण्ड न देता है, न मारता

है, न कारागृह में डालता है । इससे स्पष्ट परमात्मा की निर्बलता पायी जाती

है और विदित होता है कि परमात्मा ही को बहकाने की इच्छा है । इससे

यह बात ठीक नहीं और न शैतान कोई मनुष्य है । जब तक शैतान के मानने

वाले शैतान का मानना न छोड़ेंगे तब तक पाप करने से नहीं बच सकते क्योंकि

वे समझते हैं कि हम तो पापी ही नहीं । जैसा शैतान ने आदम को और

उसकी सन्तान को बहका के पापी किया वैसा ही परमात्मा ने आदम की

सन्तान के पाप के बदले में अपने एकलौते बेटे को शूली पर चढ़ा दिया।

फिर हम को क्या डर है । और जो हम से कुछ पाप भी होता है तो हमारा

विश्वास ईसामसीह पर है वह आप क्षमा करा देगा । क्योंकि उसने हमारे

पापों के बदले में जान दी है । इसलिये ऐसी व्यवस्था मानने वाले पापों से

नहीं बच सकते ।

और जो घड़ी का दृष्टान्त दिया था सो ठीक है । क्योंकि सब अपने—अपने

काम करने में स्वतन्त्र हैं परन्तु ईश्वर की आज्ञा अच्छे कामों के करने के

लिये है बुरे के लिये नहीं । और जो आपने यह कहा कि स्वर्ग में पहुंचना

मुक्ति है । शैतान के बहकाने के कारण मनुष्यों में शक्ति नहीं कि पापों से

छूटकर मुक्ति पा सकें यह बात भी ठीक नहीं । क्योंकि जब मनुष्य स्वतन्त्र

हैं और शैतान कोई मनुष्य नहीं तो आप दोषों से बचकर परमात्मा की कृपा

से मुक्ति को पा सकते हैं । और स्वर्ग से आदम गेहूं खाने के कारण निकाला

गया और यह ही आदम को पाप हुआ कि गेहूं खाया तो मैं आप से पूछता

हूं कि आदम ने तो गेहूं खाया और पापी हो गया और स्वर्ग से निकाला गया।

आप लोग जो उस स्वर्ग की इच्छा करते हैं तो क्या आप लोग वहां सब पदार्थ

खावेंगे ? तो क्या पाप नहीं होगा ? और वहां से निकाले नहीं जाओगे ?

इससे यह बात भी ठीक नहीं हो सकती ।

और आप लोगों ने ईश्वर को मनुष्य के सदृश माना होगा अर्थात् जैसे

मनुष्य सर्वज्ञ नहीं वैसे ही आपने परमात्मा को भी माना होगा कि जिससे

आप वहां गवाही और वकील की आवश्यकता बतलाते हैं । परन्तु आपके

ऐसे कहने से ईश्वर की ईश्वरता सब नष्ट हो जाती है । वह सब कुछ जानता

है उसको गवाही और वकील की कुछ आवश्यकता नहीं है । और उसको

किसी की सिफारिश की भी आवश्यकता नहीं । क्योंकि सिफारिश न जानने

वाले से की जाती है । और देखिये ! आपके कहने से परमात्मा पराधीन ठहरता

है क्योंकि विना ईसामसीह की गवाही वा सिफारिश के वह किसी को मुक्ति

नहीं दे सकता और कुछ भी नहीं जानता । इससे परमात्मा में अल्पज्ञता आती

है कि जिससे वह सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ किसी प्रकार नहीं हो सकता।

और देखो ! जबकि वह न्यायकारी है तो किसी की सिफारिश और मिथ्या

प्रशंसा से न्याय के विरुद्ध कदाचित् नहीं कर सकता जो विरुद्ध करता है

तो न्यायकारी नहीं ठहर सकता ।

इसी प्रकार जो आप मनुष्य हाकिम के सदृश ईश्वर के दरबार में

भी फरिश्तों का होना मानोगे तो और बहुत से दोष ईश्वर में आवेंगे।

इससे ईश्वर सर्वव्यापक नहीं हो सकता क्योंकि जो सर्वव्यापक है तो शरीर

वाला न होना चाहिये । और जो सर्वव्यापक नहीं है तो अवश्य है कि शरीर

वाला हो । और शरीर वाला होने से उसकी शक्ति सब पर घेरने वाली न

हुई। और शरीर वाला जितना दूर का ज्ञान रखता है पर उसको पकड़ और

मार नहीं सकता । और जो शरीर वाला होगा उसका जन्म और मरण भी

अवश्य होगा । इसलिये ईश्वर को किसी एक जगह पर और फरिश्तों का

उसके दरबार में होना, ऐसी बातें मानना किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकता।

नहीं तो ईश्वर की सीमा हो जायेगी ।

देखो ! हम आर्य्य लोगों के शास्त्रों को यथावत् पढ़े बिना लोगों को

उलटा निश्चय हो जाता है अर्थात् कुछ का कुछ मान लिया जाता है । जो

पादरी साहब ने कलियुग के विषय में कहा सो ठीक नहीं । क्योंकि हम

आर्य्य लोग युगों की व्यवस्था इस प्रकार से नहीं मानते । ऐतरेय ब्राह्मण का

प्रमाण है कि

कलिश्शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः ।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पघते चरन् ।।

(ऐत० पञ्जिका ७ । कण्डिका १५)

अर्थात् जो पुरुष सर्वथा अधर्म करता है और नाममात्र धर्म करता है

उसको कलि, और जो आधा अधर्म और आधा धर्म करता है उसको द्वापर

और एक हिस्सा अधर्म और तीन हिस्से धर्म करता है उसको त्रेता और जो

सर्वथा धर्म करता है उसको सतयुग कहते हैं ।

इसके जाने विना कोई बात कह देना ठीक नहीं हो सकती । इससे

जो कोई बुरा काम करता है वह दुःख पाने से कदाचित् नहीं बच सकता।

और जो कोई अच्छा काम करता है वह दुःख पाने से बच जाता है, किसी

भी देश में चाहे क्यों न हो ।

क्या ईसामसीह के विना ईश्वर अपने सामर्थ्य से अपने भक्तों को नहीं

बचा सकता है ? वह अपने भक्तों को सब प्रकार से बचा सकता है । उसको

किसी पैगम्बर की आवश्यकता नहीं । हाँ ! यह सच है कि जब जिस—जिस

देश में शिक्षा करनेवाले धर्मात्मा उत्तम पुरुष होते हैं उस—उस देश के मनुष्य

पापों से बच जाते हैं । और उन्हीं देशों में सुख और गुणों की वृद्धि होती

है । यह भी सब लोगों के लिये सुधार हैे । इसका कुछ मत से प्रयोजन नहीं।

देखो ! आर्य लोगों में पूर्व उपदेश की व्यवस्था अच्छी थी । इससे उस समय

में वे सुधरे हुए थे । इस समय में अनेक कारणों से सत्य उपदेश कम होने

से जो किसी बात का बिगाड़ हो तो इससे आर्य लोगों के सनातन मत में

कोई दोष नहीं आ सकता । क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति के समय से लेके आजतक

आर्यों ही का मत चला आता है । वह अब तक कुछ नहीं बिगड़ा ।

देखो ! जितने १८०० वा १३०० वर्षों के भीतर ईसाइयों और

मुसलमानों के मतों में आपस के विरोध से फिरके हो गये हैं । उनके सामने

जो १९६०८५२९७६ वर्षों के भीतर आर्यों के मत में बिगाड़ा हुआ तो

वह बहुत ही कम है । और आप लोगों में जितना सुधार है सो मत के

कारण नहीं किन्तु पार्लिमेण्ट आदि उत्तम प्रबन्ध से है, जो ये न रहें, मत से

कुछ भी सुधार न हो । और पादरी साहब ने जो इंगलिस्तान के दुष्ट मनुष्य

का दृष्टान्त मेरे साथ मिलाकर दिया सो इस प्रकार कहना उनको योग्य न

था । परन्तु न जाने किस प्रकार से यह बात भूल से उनके मुख से निकली।

(मौलवी साहब के उत्तर में)ईश्वर चाहे सो करे ऐसा ठीक नहीं।

क्योंकि वह पूर्ण विघा और ठीक—ठीक न्याय पर सदा रहता है । किसी का

पक्षपात नहीं करता । इस कहने से कि जो चाहे सो करे यह भी आता है

कि ईश्वर ही बुराई भी करता होगा और उसी की इच्छा से बुराई होती है,

यह कहना ईश्वर में नहीं बनता । ईश्वर जो कोई मुक्ति का काम करता है

उसी को मुक्ति देता है । मुक्ति के काम के विना किसी को मुक्ति नहीं

देता, क्योंकि वह अन्याय कभी नहीं करता । जो विना पाप—पुण्य के देखे

जिसको चाहे दुःख देवे और जिसको चाहे सुख तो ईश्वर में अन्याय आदि

प्रमाद लगता है। सो वह ऐसा कभी नहीं करता। जैसे अग्नि का स्वभाव प्रकाश

और जलाने का है । इनके विरुद्ध नहीं कर सकता । वैसे ही परमात्मा भी

अपने न्याय के स्वभाव से विरुद्ध पक्षपात से कोई व्यवस्था नहीं कर सकता।

सब समय का हाकिम मुक्ति के लिए परमेश्वर ही है दूसरा कोई

नहीं। और जो कोई दूसरे को माने, उसका मानना व्यर्थ है । मुक्ति दूसरे पर

विश्वास करने से कभी नहीं हो सकती । क्योंकि ईश्वर जो मुक्ति देने में

दूसरे के आधीन है या दूसरे के कहने से दे सकता है तो मुक्ति देने में

ईश्वर पराधीन है तो वह ईश्वर ही नहीं हो सकता। वह किसी का सहाय

अपने काम में नहीं लेता क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है । मैं जानता हूं कि

सब विद्वान् ऐसा ही मानते होंगे । जो पक्षपात से औरों के दिखाने को न मानते

हों तो दूसरी बात है ।

इसमें मुझ को बड़ा आश्चर्य है कि परमात्मा को ट्टट्टलाशरीक’’ भी मानते

हैं और फिर पैगम्बरों को भी मुक्ति देने में उसके साथ मिला देते हैं । यह बात

कोई विद्वान् नहीं मानेगा । इससे यह सिद्ध होता है कि परमेश्वर धर्मात्मा मनुष्यों

को मुक्ति के काम करने से मुक्ति स्वतन्त्रता से दे सकता है किसी की सहायता

के आधीन नहीं । मनुष्य को ही आपस में सहायता की आवश्यकता है ईश्वर

को नहीं । न वह मिथ्या प्रसन्न होने वाला है । जो मिथ्या प्रसन्न होकर अन्याय

करे । वह तो अपने सत्य धर्म और न्याय से सदा युक्त है और अपने सत्य प्रेम

से भरे हुए भक्तों को यथावत् मुक्ति देकर और सब दुःखों से बचाकर सदा के

लिये आनन्द में रखता है । इसमें कुछ सन्देह नहीं ।।

इतने में चार बज गये । स्वामी जी ने कहा कि हमारा व्याख्यान बाकी

है । मौलवी साहब ने कहा कि हमारे नमाज का समय आ गया । पादरी स्काट

साहब ने स्वामी जी से कहा कि हम को आप से एकान्त में कुछ कहना है सो

वे दोनों तो उधर गये । इधर एक ओर तो एक मौलवी मेज पर जूता पहने हुए

खड़े होकर और दूसरी ओर पादरी अपने मत का व्याख्यान देने लगे ।

और कितने ही लोगों ने यह उड़ा दिया कि मेला हो चुका । तब स्वामी

जी ने पादरी और आर्य लोगों से पूछा कि यह क्या गड़बड़ हो रहा है ? मौलवी

लोग नमाज पढ़कर आये वा नहीं ? उन्होंने उत्तर दिया कि मेला तो हो चुका।

इस पर स्वामी जी बोले कि ऐसे झटपट मेला किसने समाप्त कर दिया ?

न किसी की सम्मति ली गई न किसी से पूछा गया । अब आगे कुछ बातचीत

होगी वा नहीं ?

जब वहां बहुत गड़बड़ देखी और संवाद की कोई व्यवस्था न जान

पड़ी तो लोगों ने स्वामी जी से कहा कि आप भी चलिये । मेला तो पूरा

हो ही गया । इस पर स्वामी जी ने कहा कि हमारी इच्छा तो यह थी कि

कम से कम पांच दिन मेला रहता । इसके उत्तर में पादरी साहबों ने कहा

कि हम दो दिन से अधिक नहीं रह सकते । फिर स्वामी जी आकर अपने

डेरे पर धर्मसंवाद करने लगे। उस दिन रात को पादरी स्काट साहब और दो

पादरियों के साथ स्वामी जी के डेरे पर आये। स्वामी जी ने कुरसियां बिछवा

कर आदरपूर्वक उनको बिठलाया और आप भी बैठ गये । फिर आपस में

बातचीत होने लगी

पादरी साहबों ने पूछा किआवागमन सत्य है वा असत्य ? और

इसका क्या प्रमाण है ?

स्वामी जी ने कहा किआवागमन सत्य है और जैसे कर्म करता है

वैसा ही शरीर पाता है जो अच्छे काम करता है तो मनुष्य का और जो बुरे करता

है तो पक्षी आदि का शरीर पाता है । और जो बहुत उत्तम काम करता है वह

देवता अर्थात् विद्वान् और बुद्धिमान् होता है । देखो ! जब बालक उत्पन्न होता

है तब उसी समय अपनी माता का दूध पीने लगता है । कारण यही है कि उसको

पहले जन्म का अभ्यास बना रहता है । यह भी एक प्रमाण है और धनाढ्य,

कगल, सुखी, दुःखी अनेक प्रकार के उंQच—नीच देखने से विदित है कि कर्मों

का फल है । कर्म से देह और देह से आवागमन सिद्ध है । जीव अनादि हैं कि

जिनका आदि और अन्त नहीं । जिस योनि में जीव जन्म लेता है उसका कुछ

स्वभाव भी बना रहता है । इसी कारण मनुष्य आदि विचित्र स्वभाव और प्रकृति

आदि के होते हैं । इससे भी आवागमन सिद्ध होता है ।

इसी प्रकार और बहुत से प्रमाण आवागमन के हैं । परन्तु जीव का

एक बार उत्पन्न होना और फिर कभी न होना इसका कुछ प्रमाण नहीं हो

सकता । क्योंकि जो मैंने कहा उसके विरुद्ध होना चाहिये था, सो ऐसा होना

असम्भव है । और फिर यह बात कि मरा और हवालात हुई अर्थात् जब कयामत

होगी तब उसका हिसाब और किताब होगा तब तक बेचारा हवालात में रहा

मानना अच्छा नहीं ।

फिर पादरी साहब चले गये । मौलवियों ने शाहजहांपुर जाकर मुन्शी

इन्द्रमणि जी को लिखा कि जो आप यहां आवें तो हम आप से शास्त्रार्थ

करना चाहते हैं परन्तु जब स्वामी जी और मुन्शी जी वहां पहुंचे तो किसी

ने शास्त्रार्थ का नाम तक भी न लिया ।

(दिग्विजयार्वQ पृ० ४१, लेखराम २९२ से ३१४)

(328) शंका :- वेद शास्त्र के अनुसार हिन्दुओं को किस किस की उपासना करनी चाहिए और जन्मदिवस से लेकर मृत्यु पर्यन्त क्या—क्या काम करने चाहिए।

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

नारायण के अतिरिक्त और किसी की उपासना नहीं करनी

चाहिए। विघा प्राप्त करके मन की शुद्धि करनी चाहिए । और सत्य व्यवहार

पूर्वक आजीविकार्थ तथा अन्य सांसारिक कार्य करने उचित हैं ।

(329) शंका :- मसीह मूर्तिपूजा की शिक्षा देता था

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

(पादरी पार्कर साहब से मुरादाबाद में शास्त्रार्थनवम्बर, १८७६)

पहली बार स्वामी जी सन् १८७६ में मुरादाबाद पधारे । यहां स्वामी जी

का पादरी पार्कर साहब से कई दिन तक प्रातःकाल लिखित शास्त्रार्थ होता रहा।

साहू श्यामसुन्दर जी रईस मुरादाबाद ने वर्णन किया कि पादरी पार्कर

साहब का शास्त्रार्थ राजा जयकिशनदास साहब बहादुर की कोठी पर कम

से कम १५ दिन तक होता रहा । मैं नित्य जाया करता था । कुंवर  परमानन्द,

रूपकिशोर अध्यापक मिशन स्कूल, मास्टर हरिसिंह तथा और भी कई सज्जन

जाया करते थे । अन्तिम दिन का विषय था कि सृष्टि कब उत्पन्न हुई ?

पादरी साहब का कथन था कि सृष्टि पांच हजार वर्ष से उत्पन्न हुई और

स्वामी जी इसका खण्डन करते थे ।

इसी समय में ब्रिटिश इण्डियन ऐसोसियेशन कमेटी की सभा उस कोठी

के एक कमरे में हुआ करती थी । उस अन्तिम दिन स्वामी जी दूसरे कमरे

में जाकर एक बिल्लौर का पत्थर उठाकर लाये कि आप लोग विज्ञान जानते

हैं, इसको विज्ञान से सिद्ध करें कि कितने वर्ष में यह पत्थर इस रूप में

आया । अन्त में खोज से यही सिद्ध हुआ कि वह कई लाख वर्ष में बना

है। फिर कहा कि जब सृष्टि नहीं थी तो यह पत्थर कैसे बन गया ? जिस

पर पादरी साहब ने यह निकम्मा बहाना किया कि हम मनुष्य की उत्पत्ति

को पांच हजार वर्ष कहते हैं । इस पर स्वामी जी ने कहा कि जब सृष्टि

की उत्पत्ति की चर्चा है तो सृष्टि के भीतर मनुष्यादि सब आ गये । इसी

पर शास्त्रार्थ समाप्त हुआ था । पादरी साहब ने इस शास्त्रार्थ का वृत्तान्त किसी

समाचारपत्र में भी प्रकाशित कराया था परन्तु उसका नाम मुझे ज्ञात नहीं और

यह भी सुना कि पादरी साहब ने एक चिट्ठी अमरीका भेजी कि हम ने आजतक

ऐसा विद्वान् पण्डित कोई नहीं देखा ।

बाबू रूपकिशोर जी ने वर्णन किया कि रैवरेण्ड डब्ल्यू पार्कर साहब

और स्वामी जी के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ था वह मैंने लिखा था, परन्तु

खेद है कि मेरे पुत्र के प्रमाद से वे कागज नष्ट हो गये । अब जो कण्ठस्थ

मुझे ज्ञात है वह लिखवाता हूं । इस शास्त्रार्थ में तीन अंग्रेज सज्जन उपस्थित

थे। एक पादरी पार्कर, दूसरे मिस्टर बेली साहब और तीसरे एक और पादरी

साहब। इनके अतिरिक्त डिप्टी इमदाद अली, बाबू रामचन्द्र बोस, वुंQवर

परमानन्द, मास्टर हरिसिंह और इसी प्रकार ४०—५० मनुष्य थे । शास्त्रार्थ लिखा

जाता था । १४—१५ दिन शास्त्रार्थ होता रहा । बेली साहब अब अलीगढ़ में

रजिस्ट्रार हैं । प्रतिदिन प्रातः दो तीन घण्टे बैठते थे ।

अन्त में एक बात मुझे स्मरण है कि स्वामी जी ने सिद्ध कर दिया

था कि मसीह मूर्तिपूजा की शिक्षा देता था क्योंकि ईश्वर को किसी के द्वारा

मानता तथा किसी के द्वारा इच्छापूर्ति की प्रार्थना करता है वह मूर्तिपूजक है

और हम मूर्तिपूजक नहीं हैं । (लेखराम पृष्ठ ४४१)

(330) शंका :- परमेश्वर का कोई और रूप है या नहीं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

उसका कोई रूप और रंग नहीं है, वह अरूप है और जो कुछ

इस संसार में दिखलाई देता है उसी का रूप है क्योंकि केवल एक अर्थात्

वही एक सब का बनाने और उत्पन्न करने वाला है ।

(331) शंका :- बार बार या प्रत्येक बार मन्त्र जपना या परमेश्वर का नाम लेना चाहिए या नहीं और जैसे ब्राह्मण लाख दो लाख मन्त्र या परमेश्वर के नाम का जाप और पुरश्चरण करते हैं यह ठीक है या नहीं है ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

पहचानना चाहिए । जाप और पुरश्चरण करना कुछ आवश्यक

नहीं ।

(332) शंका :- सन्ध्या दो समय करनी चाहिए या तीन समय ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

केवल दो समय प्रातः—सायं, तीन समय नहीं ।

(333) शंका :- क्या कर्म करना चाहिए ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

समय सन्ध्या करे और सत्य बोले और जो श्रेष्ठ कर्म परोपकार

के हों वे करें ।

(334) शंका :- विना मूर्ति के किस का ध्यान करें और किस प्रकार?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

जैसे सुख दुःख का ध्यान मन में होता है वैसे परमेश्वर का ध्यान

मन में होना चाहिए, मूर्ति की कुछ आवश्यकता नहीं

(335) शंका :- मूर्ति पूजना कैसा है ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

बुरा है । कदापि मूर्ति—पूजन न करना चाहिए । इस मूर्तिपूजा

के कारण संसार में अन्धकार फैल गया ।

(336) शंका :- सत्य किसे कहते हैं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

जिह्वा से सत्य बोलना, जो मन में होवे वह वाणी से कहना या

ऐसा विचार करके कहना जो कभी झूठ न हो ।

(337) शंका :- उत्तम कर्म कौन से हैं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

उत्तरसत्य बोलना, परोपकारादि उत्तम कर्म हैं ।

(338) शंका :- कोई कर्म करना चाहिए या नहीं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

उत्तम कर्म करना चाहिए ।

(339) शंका :- ब्राह्मण यज्ञोपवीत किस लिए रखते हैं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- यज्ञोपवीत

समाधान :-

यज्ञोपवीत केवल विघा का एक चिह्न है ।

(340) शंका :- क्या ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से और क्षत्रिय भुजा से उत्पन्न हुए हैं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- वर्ण व्यवस्था

समाधान :-

इसका अभिप्राय यह है कि जैसे शरीर में मुख श्रेष्ठ है ऐसे सब

वर्णों में ब्रह्म का जानने वाला श्रेष्ठ है । इसी कारण कह दिया कि ब्राह्मण

मुख से हुआ इसी प्रकार और वर्णों का समझ लो ।

(341) शंका :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र किस प्रकार हैं, कब से हैं और किसके बनाये हैं ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- वर्ण व्यवस्था

समाधान :-

कर्मों की दृष्टि से चारों वर्ण ठीक हैं और लोकव्यवहार से ठीक

नहीं हैं अर्थात् जो जैसा कर्म करे वैसा ही उसका वर्ण है । उदाहरणार्थ जो

ब्रह्मविघा जाने वह ब्राह्मण, जो युद्ध करे वह क्षत्रिय, लेन—देन हिसाब—किताब

करे वह वैश्य, जो सेवा करे वह शूद्र है। यदि ब्राह्मण क्षत्रिय या शूद्र का

काम करे तो ब्राह्मण नहीं, सारांश यह कि वर्ण कर्मों से होता है, जन्म से

नहीं । जन्म से चारों वर्ण (वर्तमान अवस्था में) लगभग बारह सौ वर्ष से

बने हैं । जिसने बनाये उसका नाम इस समय स्मरण नहीं परन्तु महाभारतादि

से पीछे बने हैं ।

(342) शंका :- मोक्ष एवम् ईसा पर विश्वास

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

मोक्ष एवम् ईसा पर विश्वास

(फर्रुखाबाद में दो पादरियों से प्रश्नोत्तरमई, १८७६)

एक दिन स्वामी जी से दो पादरियों की धर्म—विषय पर बातचीत हो

रही थी । उनमें से एक पादरी का नाम लूकस था । दूसरा देशी ईसाई था।

मोक्ष एवम् ईसा पर विश्वास 75

लूकसआपके मत से मोक्ष का क्या उपाय है ?

स्वामी दया०हम से पादरी विल्सन ने भी यही प्रश्न किया था । उन्होंने

कहा मोक्ष का साधारण मनुष्यों के लिये एक प्रकार का उपाय है अर्थात्

ईश्वरप्राप्ति और ईसाइयों के लिए अन्य प्रकार का अर्थात् ईसा पर विश्वास

लाना। हमने इस पर उनसे कहा था कि पहला ही उपाय ठीक है।

लूकसमनुष्य ईसा पर विश्वास करने से ही मुक्ति पा सकता है, क्योंकि

वह ईश्वर का पुत्र और मनुष्यों का परित्राता था और इसलिए ईश्वर ने उसे

भेजा था । इसका प्रमाण यह है कि ईसा ने बहुत से मृत पुरुषों को जिलाया

था ।

दया०सत्य वेदोक्त धर्म में ईश्वर के अवलम्बन से ही मोक्ष होता

है। महाभारत में लिखा है कि शुक्राचार्य ने सञ्जीवनी विघा से मृत पुरुषों

को जिलाया था । अब हम शुक्राचार्य को ईश्वर का अवतार मानें या उन्हें

ईश्वर का भेजा हुआ मानें । यदि उत्तम उपदेश देने से ही ईसा को परित्राता

कहते हो तो बायबिल की अपेक्षा भगवद्गीता में अधिक उत्तम उपदेश हैं,

इसलिए भगवद्गीता के वक्ता श्रीकृष्ण भी परित्राता थे कि उन्होंने उत्तम कर्म

किये थे तो शटराचार्य अपेक्षाकृत उत्तमोत्तम कर्म कर गये हैं, इसलिये

शटराचार्य भी परित्राता हैं ।

पादरी साहब इन बातों का कुछ उत्तर न दे सके ।

स्वामी जी ने पादरी साहब से यह भी कहा था कि तुम्हारे देश में बहुत

धन है इसलिये तुम्हारी परिश्रम में अनास्था हो गई है । अतएव तुम्हारी मध्यस्थ

अवस्था नहीं रही है और तुम क्रमशः अवनति की ओर जा रहे हो । इसके

पश्चात् स्वामी जी ने शरबतादि से सत्कार करके पादरी साहब को विदा किया।

(देवेन्द्रनाथ २।२)

(343) शंका :- किस मन्त्र से मूर्तिपूजा का विधान है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० रामलाल शास्त्री से बम्बई में शास्त्रार्थ२७ मार्च, १८७६)

जब स्वामी जी बम्बई से पूर्व की ओर जाने को उघत हुए उस समय

यहां के पण्डितों ने स्वयं दूर रहकर रामलाल जी को जो नदियां शान्ति के

विद्वान् थे, शास्त्रार्थ क्षेत्र में आने के लिए उघत किया । उसने एक हूकाभाई

जीवन जी के घर में बहुत झगड़े के पश्चात् चैत सुदि संवत् १९३३ सोमवार

के दिन शास्त्रार्थ आरम्भ किया। बहुत से भद्रपुरुष उस शास्त्रार्थ के समय

उपस्थित थे । दोनों पक्षों की सम्मति से पण्डित बहुजाऊ जी शास्त्री घारीपुरी

निवासी सभापति निश्चित हुए ।

स्वामी जीवेद के किस मन्त्र से मूर्तिपूजा का विधान है सो बतलाइये?

पण्डित रामलाल जी पुराण और स्मृतियों के श्लोक बोलने लगे ।

स्वामी जीये ग्रन्थ मानने के योग्य नहीं हैं । वेद का यदि कोई मन्त्र

स्मरण हो तो कहिए

पण्डित जी ने मनुस्मृति के वे श्लोक जिनमें प्रतिमा, देव शब्द थे, बोले।

स्वामी जी ने सब श्लोकों के यथार्थ प्रमाण सहित अर्थ कर दिये कि

इनका मूर्तिपूजा से कोई सम्बन्ध नहीं था ।

पण्डित जी फिर और स्मृतियों और पुराणों के श्लोक बोलने लगे परन्तु

अन्त तक वेद का कोई मन्त्र न बोले (तब मध्यस्थ जी बोले) ।

मध्यस्थ पण्डित बहुजाऊ जी शास्त्री बोले कि रामलाल जी ! स्वामी जी

प्रश्न कुछ और करते हैं और आप उत्तर कुछ और ही देते हैं । यह सभा और

पण्डित का नियम नहीं है जैसे किसी ने किसी से द्वारिका का मार्ग पूछा और

बतलाने वाले ने कलकत्ते का मार्ग बतलाया । इसी प्रकार का यह आपका शास्त्रार्थ

है। ऐसा कहने पर भी रामलाल ने कोई वेद का प्रमाण नहीं दिया। तब सब की

सम्मति से सभा विसर्जित हुई और सभापति ने सब से स्पष्ट कह दिया कि ट्टट्टआज

पण्डित रामलाल पाषाण—पूजन वेदोक्त सिद्ध न कर सके ।’’

इस प्रकार सत्य कह देने पर इस सत्यवक्ता शास्त्री को कितने ही स्वार्थी

पण्डितों ने सताने में कोई कमी न रखी ।

फिर चैत संवत् १९४० में इन्हीं पण्डित महोदय की मैनेजर वेदभाष्य

तथा वैदिक यन्त्रालय प्रयाग से भेंट हुई और वह सारी की सारी ट्टट्टदेशहितैषी’’

पत्रिका चैत मास उक्त संवत् में प्रकाशित हो गई जो रोचकता से रहित नहीं

है

मैनेजर आपने संस्कृत विघा का बहुत दिन तक अध्ययन किया है

और आप इस भाषा के विद्वान् हैं और धर्म्मशास्त्र के ग्रन्थ देखे होंगे और

आपके अतिरिक्त काशी आदि स्थानों में और भी बहुत विद्वान् हैं और स्वामी

दयानन्द सरस्वती भी बड़े विद्वान् हैं सो आप सब लोग जानते होंगे । फिर

क्या कारण है कि आप लोगों और स्वामी जी की धर्म—सम्बन्धी विषयों में

बातें नहीं मिलती हैं । स्वामी जी चारों वेदों को प्रामाणिक मानते हैं तब उनमें

लिखी बातों को क्या आप लोग सिद्ध नहीं कर सकते ? जो स्वामी जी सत्य

कहते हैं तो आप लोगों को उनका कहना मानना और जो असत्य कहते हैं

तो उनकी बातों का सभा करके खण्डन करना चाहिए । सो आप लोग दोनों

बातों में से एक भी नहीं करते इसका क्या कारण है ?

पण्डित रामलाल जीस्वामी जी संन्यासी हैं, उन को किसी की पर्वाह

नहीं । उन्होंने वेदादि शास्त्रों का अध्ययन बहुत दिनों तक किया है । वे समर्थ

हैं उनकी बुद्धि बड़ी प्रबल है । वे कहते सो शास्त्रानुसार सत्य ही कहते हैं

परन्तु हमारी शक्ति नहीं कि उनका सामना कर सकें क्योंकि हम लोग गृहस्थी

हैं, हमें अनेक बातों की अपेक्षा बनी रहती है फिर हम स्वामी जी की सी

बातें कैसे कह सकते हैं ? संसार में और भी चर्चा फैली हुई है जो उसके

विरुद्ध कहें तो हमारे कहने से भी कुछ न हो और लोग विमुख हो जावें,

फिर आजीविका ही जाती रहे, तब निर्वाह कैसे होय ?

मैनेजरइससे सिद्ध हुआ कि आप अधर्म की जीविका करते हैं क्योंकि

आप जानते हैं कि यह बात मिथ्या है फिर उससे द्रव्योपार्जन करना अधर्म

है। देखो ! स्वामी जी ने असत्य को छोड़कर सत्य ग्रहण किया तो थोड़े काल

में उनका कितना मान हुआ है । इसी प्रकार जो आप लोग भी सत्य को स्वीकार

करें तो वैसा ही सम्मान और नाम आप लोगों का क्यों न हो ?

पण्डित जीक्या करें, सर्व संसार में ऐसी ही प्रवृत्ति हो रही है,

उससे विरुद्ध हम लोग कहें तो कोई नहीं मानता । इस प्रकार तो स्वामी जी

का ही निर्वाह हो सकता है, हम गृहस्थियों का नहीं । (पृष्ठ ८—९)

(लेखराम पृष्ठ २७२ से २७३)

(344) शंका :- मूर्तिपूजा वेदविहित है वा नहीं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(बम्बई में पण्डितों से शास्त्रार्थमार्च, १८७६)

जब बम्बई के शास्त्रीगण सब प्रकार से तैयारी कर चुके तो स्वामी

जी को शास्त्रार्थ के लिये आहूत किया गया । उन्होंने तत्क्षण शास्त्रार्थ करना

स्वीकार कर लिया । शास्त्रार्थ का विषय वही पुराना विषय था कि मूर्तिपूजा

वेदविहित है वा नहीं । शास्त्रार्थ की तिथि २७ मार्च, सन् १८७६ और स्थान

भाई जीवन जी का हाल नियत हुआ ।

नियत तिथिपर शास्त्रार्थ—सभा सग्ठित हुई । दर्शकों से हाल इतना

खचाखच भर गया था कि खड़े होने तक को जगह न रही थी और बहुत

से लोगों को घर लौट जाना पड़ा था । स्वामी जी यथासमय विना किसी आडम्बर

के सभा में उपस्थित हो गये । पण्डित रामलाल भी पधारे और बड़े दलबल

और घोर गर्ज के साथ पधारे । उनके साथ अनेक स्थानीय शास्त्री और उनके

शिष्य तथा श्रद्धालु जन थे । शास्त्रार्थ—सभा में मध्यस्थ का आसन श्री भूझाऊ

जी शास्त्री ने ग्रहण किया । शास्त्रार्थ उचित भावानुकूल और ऐसे ढंग से

हुआ कि उसमें भाग लेने वालों के लिये वह प्रशंसनीय था ।

पण्डित गट्टूलाल जी ने भी शास्त्रार्थ करना स्वीकार किया था, परन्तु

वे सभास्थल में नहीं पधारे । उनके लाने के लिए गाड़ी भी भेजी गई परन्तु

उन्होंने कहला भेजा कि हम को वमन हो गया है, हम नहीं आ सकते, हमारी

ओर से पण्डित रामलाल ही शास्त्रार्थ करेंगे ।

स्वामी जी ने प्रथम ही पण्डित रामलाल से यह स्वीकार करा लिया

कि आर्य्यों का मौलिक धर्म—ग्रन्थ वेद है और फिर उनसे वेद का कोई मन्त्र

वा पंक्ति दिखाने को कहा कि जिसमें मूर्तिपूजा की ओर सटेत हो । पण्डित

रामलाल ने पुराण और स्मृतियों के प्रमाण उपस्थित किये । स्वामी जी ने

कहा कि ये ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं, यदि कोई वेदमन्त्र स्मरण हो तो कहिये।

इस पर पण्डित रामलाल ने फिर मनुस्मृति के प्रमाण प्रस्तुत किये । स्वामी

जी ने कहा कि इन प्रमाणों में आये हुए प्रतिमा और देव शब्दों से मूर्तिपूजा

का कोई सम्बन्ध नहीं है और उनके यथार्थ अर्थ करके दिखाये और यह

भी कहा कि पण्डित जी के बताए हुए ग्रन्थों में पण्डितों ने अपनी स्वार्थसिद्धि

के निमित्त बहुत से असत्य भाग प्रक्षिप्त कर दिये हैं । अतः वह उन ग्रन्थों

का प्रमाण उक्त असत्य भागों को छोड़कर ही स्वीकार करते हैं । मौलिक

धर्म्म—ग्रन्थ वेद में एक शब्द भी नहीं है, जिससे मूर्तिपूजा का प्रतिपादन होता

हो, अन्य ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं हो सकते ।

तदनन्तर पण्डित रामलाल ने फिर भी स्मृतियों और पुराणों के प्रमाण

उपस्थित किये । इस पर मध्यस्थ ने कहा कि पण्डित जी ! स्वामी जी प्रश्न

कुछ और करते हैं और आप उत्तर कुछ और ही देते हैं । यह सभा और

पण्डितों का नियम नहीं । जैसे किसी से द्वारिका का मार्ग पूछा और उसने

कलकत्ते का मार्ग बतलाया, ऐसा ही आपका यह शास्त्रार्थ है । अन्त में पण्डित

रामलाल ने कहा कि हम मूर्तिपूजा को वेद से सिद्ध नहीं कर सकते परन्तु

मनुस्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों के प्रमाणों से सिद्ध करते हैं । इसी पर

शास्त्रार्थ समाप्त हो गया ।

शास्त्रार्थ—सभा साढ़े ग्यारह बजे रात्रि के विसर्जन हुई । शास्त्रार्थ के

अन्त में अनेक लोगों ने भाई जीवन जी को धन्यवाद दिया कि उनके उघोग

से ऐसा चामत्कारिक परिणाम प्राप्त हुआ । सब लोग यह विश्वास लेकर

घरों को लौटे कि आर्य्यों के मौलिक धर्मग्रन्थ वेद में मूर्तिपूजा की कोई आज्ञा

नहीं है । (देवेन्द्रनाथ १।३६५, लेखराम पृ० २४९—२५०)

(345) शंका :- मूर्तिपूजा वेदों से निषिद्ध है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(बम्बई में शास्त्रार्थ आचार्य कमलनयन जी से१२ जून, १८७५)

बम्बई में नियमपूर्वक समाज स्थापित करके स्वामी जी द्वितीय बार

अहमदाबाद पधारे और वहां प्रबल युक्तियों से स्वामी जी ने नारायणमत की

समीक्षा की । बम्बई से स्वामी जी के चले आने के पश्चात् वहां के पौराणिक

पण्डितों ने यह प्रसिद्ध किया कि स्वामी जी शीघ्र यहां से चले गये नहीं तो

हम उनसे शास्त्रार्थ करने को उघत थे । जब इनके मिथ्या प्रवाद से लोगों

में कुछ भ्रान्ति सी होने लगी तो समाज के मन्त्री ने बम्बई से तार भेजकर

स्वामी जी को अहमदाबाद से बुलवाया । स्वामी जी के आते ही पौराणिक

पण्डितों को मुंह दिखाना कठिन हो गया। लोगों के आग्रह करने पर भी शास्त्रार्थ

से जी चुराने लगे । पं० कमलनयन आचार्य भी जो बम्बई के पौराणिक पण्डितों

के शिरोमणि माने जाते थे शास्त्रार्थ से बचने लगे । निदान बहुत से प्रतिष्ठित

सभ्य लोगों के बाधित करने पर उन्होंने बड़ी कठिनता से स्वामी जी के सम्मुख

आना स्वीकार किया । १२ जून शास्त्रार्थ की तिथि नियत हुई ।

शास्त्रार्थ का स्थान प्रQाम जी क्राउस जी इन्स्टीट्यूट’ नियत हुआ । नियत

समय पहले से लोग आने लगे । दोपहर के तीन बजे पश्चात् स्वामी जी

पधारे और उन्हें बड़ी प्रतिष्ठा के साथ एक उच्च स्थान पर कुरसी पर बिठाया

गया । उनके सामने ही एक कुरसी आचार्य कमलनयन जी के लिए बिछायी

गई । बीच में लगभग डेढ़ सौ प्रामाणिक संस्कृत की पुस्तकें रखी गईं जिससे

कि दोनों पक्षों को प्रमाणों के देखने का सुभीता रहे । चौंतरे के नीचे आठ

कुर्सियां समाचार—पत्रों के पत्र—प्रेषकों के लिए क्रम से लगाई गई थीं । ये

वास्तव में दोनों ओर की उक्तियां लिखने के लिये आये थे । इस सभा में

बम्बई के लगभग समस्त सेठ, साहूकार, अधिकारी और प्रतिष्ठित शिक्षित

पुरुष उपस्थित थे । यथा रायबहादुर बेचरदास अलबाईदास, सेठ लक्ष्मीदास

खेम जी, सेठ मथुरादास लोजी, राव बहादुर दादूबा पाण्डुरग्, भाई शटरनाना,

भाई गगदास किशोरदास, हरगोविन्ददास, राणा मनसुखराम सूरजराम, रणछोड़

भाई उदयराम, विष्णु परशुराम इत्यादि प्रायः श्रीमान् और विद्वान् उपस्थित थे।

इस समय यह खबर उड़ी कि आचार्य कमलनयन जी यहां इसलिए नहीं आवेंगे

कि यह जगह एक पारसी की है । कारण यह था कि रामानुज सम्प्रदाय के

यह आचार्य थे और इनके अनुयायी नहीं चाहते थे कि हमारे आचार्य के गौरव

में अन्तर पड़े । परन्तु ज्यों त्यों आध घण्टे के पीछे आचार्य जी अपने २५—३०

शिष्यों के सहित सभा में सुशोभित हुए और स्वामी जी के सामने वाली कुर्सी

पर विराजमान हो गये, निदान राव बहादुर बेचरदास अलबाईदास जी को

सभापति बनाया गया और उन्होंने आरम्भ में एक उपयुक्त वक्तृता की जिसका

सार यह था कि वास्तव में हम सब पौराणिक और मूर्तिपूजक हैं और मैं

स्वयं मूर्तिपूजा किया करता हूं । परन्तु हम सब यहां पर शास्त्रार्थ सुनने एकत्र

हुए हैं । आग्रह और पक्ष को अपने चित्त से हटाकर स्वामी जी और आचार्य

जी की विघापूरित और सारगर्भित वक्तृताओं को सुनें और सत्य को ग्रहण

करें । हठ और विवाद से काम न लें । इस समय सब से प्रधान विषय मूर्तिपूजा

है । स्वामी जी का यह पक्ष है कि मूर्तिपूजा वेदों से निषिद्ध है और इसलिए

वह पापकर्म है । आचार्य जी का पक्ष इसके सर्वथा विपरीत है अर्थात् वे

मूर्तिपूजा को वेद—विहित समझते हैं । बस अब हमें दोनों महाशयों की उचित

उक्ति—प्रत्युक्तियों को एकाग्र मन होकर बड़े ध्यान से सुनना चाहिए । किसी

प्रकार का क्रोध, आवेग और कोलाहल नहीं करना चाहिए । अन्त में सेठ

साहब ने यह भी विज्ञापित कर दिया था कि वास्तव में यह शास्त्रार्थ दो महाशयों

की परस्पर प्रतिज्ञा का परिणाम है । जिन्होंने इसके व्यय का सारा भार परस्पर

आधा बांटकर अपने ऊपर लिया है उनके नाम ठक्कर जीवनदयालु जी और

मारवाड़ी शिवनारायण वेनीचन्द हैं । ठक्कर जी ने मारवाड़ी शिवनारायण

वेनीचन्द से (जो सदा आचार्य कमलनयन जी के पक्ष का आश्रय लिया करते

हैं ।) यह कहा था कि यदि आचार्य जी शास्त्रार्थ में स्वामी जी को जीत

लेंगे तो मैं आचार्य जी का शिष्य हो जाउंQगा अन्यथा आपको स्वामी जी का

भक्त होना पड़ेगा । शास्त्रार्थ का विषय मूर्तिपूजा है । मैं फिर निवेदन करता

हूं कि आप सब महाशय स्वस्थचित्त होकर आचार्य जी और स्वामी जी की

पाण्डित्य भरी वक्तृताओं को सुनें और अपने लिए उसका परिणाम निकालें।

सेठ साहब अपनी वक्तृता समाप्त करके बैठ गये । तदनन्तर मारवाड़ी

शिवनारायण वेनीचन्द ने यह विवाद उपस्थित किया कि ठक्कर जी से मैंने

यह भी कह दिया था कि मूर्तिपूजा की सिद्धि में पुराणों के भी प्रमाण दिये

जावेंगे । परन्तु ठक्कर जी के प्रतिज्ञा—पत्र प्रस्तुत करने पर वे मौन हो गये,

यह प्रतिज्ञा—पत्र सेठ साहब ने सभा में उच्चैः स्वर से सब को सुना दिया।

उसमें इस बात की गन्ध भी नहीं थी । निदान मारवाड़ी जी को चुप होना

पड़ा । अब आचार्य कमलनयन जी की बारी आई, वे कहने लगे कि कितने

पण्डित इस सभा में उपस्थित हैं, पहले वे मुझे अपने—अपने मत से सूचना

देवें कि किन—किन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते हैं । यह सुनकर विचारशील

पुरुषों ने कहा कि यह एक अत्यन्त असग्त और व्यर्थ प्रश्न है । आपको

इस समय साधारण रीति पर किसी के विश्वास वा मत से कुछ प्रयोजन न

होना चाहिए । सभापति आप की सम्मति से नियत हो चुके हैं बाकी सब

शेष श्रोतागण हैं उनको शास्त्रार्थ की समाप्ति पर अधिकार है कि कुछ सम्मति

निर्धारण करें । परन्तु आचार्य जी ऐसी युक्ति युक्त बातों को कब सुनते थे

कहने लगे कि हम कैसे समझें कि ये लोग किन—किन सम्प्रदायों के और

ठीक—ठीक सम्मति निर्धारण कर सकेंगे या नहीं ? यह सुनकर पं० कालिदास

गोविन्द जी शास्त्री खड़े हुए और आचार्य जी को सम्बोधन करके कहने लगे

कि आप व्यर्थ इस प्रकार की बातों से अपना और उपस्थित लोगों का समय

नष्ट करना चाहते हैं । मैं आप के सम्मुख प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं निष्पक्ष

और सत्य—सत्य जो कुछ मेरी समझ में आवेगा अन्त में प्रकट कर दूंगा और

जो कुछ शास्त्रार्थ सुनने के बाद मेरी सम्मति होगी वह भी नहीं छिपाउंQगा

और आप दोनों की वक्तृता अक्षरशः लिखता जाउंQगा । शोक कि आचार्य

जी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया । तब स्वामी जी ने कोमलता और प्रीति

के साथ आचार्य जी से कहा कि आज का दिन मैं अत्यन्त माग्लिक समझता

हूं कि आप धर्म के एक आवश्यक विषय पर मुझ से वार्तालाप करने के

लिए यहां पधारे हैं और लोगों के इतने संग्रह से यह प्रकट है कि लोगों में

सत्यासत्य के निर्णय करने का सच्चा और प्रबल उत्साह है । मेरा जो पक्ष

है वह सभापति महाशय ने बड़ी उत्तमता के साथ सर्व साधारण को अभी

सुना दिया है इसी प्रकार आपका भी । अब आप को उचित है कि मूर्तिपूजा

को वेदों में सिद्ध करें, प्रामाणिक ग्रन्थों के प्रमाण देवें जिससे प्रकट हो कि

प्रमाण और प्रतिष्ठा (मूर्ति में प्राण का संचार हो जाता है) आवाहन (जिससे

उनको बुलाया जाता है) विसर्जन (जिससे उन को विदा किया जाता है)

पूजन (जिससे उन्हें प्रसन्न और आनन्दित किया जाता है) इत्यादि करना सार्थक

और उचित है । यों तो इस समय एक सज्जन और विचारशील सेठ साहब

सभापति हैं परन्तु मेरी सम्मति में मेरे और आपके वास्तविक मध्यस्थ चारों

वेद हैं । आप विश्वास रखें हम में से लेशमात्र भी किसी का पक्ष न करेंगे।

उचित रीति यह है कि हमारे कथोपकथन अक्षरशः पीछे से प्रकाशित कर

दिये जावें जिससे कि सर्वत्र पण्डितों को अपनी स्वतन्त्र सम्मति निर्धारण करने

का अवसर मिल सके। स्वामी जी की यह समीचीन उक्ति सुनकर भी आचार्य

जी की समझ में नहीं आया और वे अपना हठ करते रहे कि हमने जो कुछ

कहा है जब तक वह नहीं होगा शास्त्रार्थ नहीं हो सकता । जिसका स्पष्ट

यह आशय था कि हम शास्त्रार्थ नहीं करते । यह व्यवस्था देखकर सेठ

मथुरादास लोजी खड़े हुए और उन्होंने आदि से अन्त तक वह कार्यवाही सुनायी

जो उन्होंने कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों की प्रेरणा से आचार्य कमलनयन जी से शास्त्रार्थ

के विषय में की थी ।

आचार्य जी में इतना साहस कब हो सकता था कि सेठ जी के एक

शब्द का भी प्रत्याख्यान करें । निदान अत्यन्त लज्जित होकर विना कुछ

कहे सुने सभा से उठकर चल दिये । इस पर प्रधान सभा ने आचार्य जी को

सम्बोधन करके कहा कि आप इस प्रकार विना कुछ कहे जाते हैं यह उचित

नहीं है । सहस्रों मनुष्य आज बड़े उत्साह से आपके पाण्डित्य का चमत्कार

देखने आये थे, उनको बड़ी भारी निराशा होगी । स्वामी जी ने फिर आचार्य

जी से कहा कि आजकल मूर्तिपूजा से लाखों मनुष्यों का निर्वाह होता है यदि

आप उनकी आजीविका स्थिर रखना चाहते हैं तो इससे बढ़कर और कौन—सा

अवसर होगा । परन्तु आचार्य जी को तो वहां एक क्षण भर ठहरना भी कठिन

हो गया था । वे अपने मन में कहते थे कि वह कौन—सी घड़ी हो जो मैं अपने

घर पहुंच जाउंQ । परिणाम यह हुआ कि आचार्य जी जैसे कोरे आये थे वैसे

ही चले गये । आचार्य जी के चले जाने के पश्चात् सेठ छबीलदास लल्लूभाई

और राजमोहन राजेश्वरी बोल जी ठाकुर ने रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य की

इस उदासीनता पर अत्यन्त शोक प्रकट किया । इसी सभा में सेठ गोविन्ददास

बाबा ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि मूर्तिपूजा सनातन से चली आती है वा

यह आधुनिक है । स्वामी जी ने उत्तर दिया कि बहुत थोड़े काल से यह प्रवृत्त

हुई है । बौद्ध और जैन के पश्चात् बहुत से कम समझ मनुष्यों ने इसको चला

दिया था । नहीं तो संस्कृत के प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थों में इसका कहीं

नाम तक नहीं पाया जाता । इसके पश्चात् स्वामी जी ने इसी सभा में अपना

यौक्तिक व्याख्यान मूर्तिपूजा के खण्डन में प्रारम्भ किया और वेदादि सच्छास्त्रों

के प्रमाणों से मूर्तिपूजा को महापाप सिद्ध कर दिया। समाप्ति पर सभापति ने

स्वामी जी के गले में फूलों का हार डाला और सेठ छबीलदास लल्लूभाई इन्हें

अपनी जोड़ी में सवार कराकर इनके आश्रम तक पहुंचा आये ।

(आर्यधर्मेन्द्र जीवन, रामविलास शारदा पृ० ११७)

(346) शंका :- व्याकरण एवं नियोग

समाधान कर्ता :- , विषय :- नियोग

समाधान :-

(बम्बई में पण्डितों से शास्त्रार्थमार्च, १८७५)

किसी कारण से बम्बई के पण्डितों की यह धारणा हो गई थी कि

स्वामी जी व्याकरण में बहुत व्युत्पन्न नहीं हैं । अतः उन्होंने सोचा कि यदि

दयानन्द को व्याकरण विषयक शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया जायेगा

तो उनकी ख्याति और प्रभाव मन्द पड़ जायेंगे और फिर धर्म्म—विषय में भी

लोग उनके कथन में श्रद्धा और विश्वास न करेंगे । अतः उन्होंने उक्त विषय

पर शास्त्रार्थ करने के लिए स्वामी जी को आहूत किया । ज्यों ही शास्त्रीगण

के यह शब्द महाराज के कर्णगोचर हुए, त्यों ही उन्होंने शास्त्रार्थ करना स्वीकार

कर लिया और शास्त्रार्थ की तिथि १० मार्च, सन् १८७५ नियत हो गई ।

नियत दिवस और समय पर सभा—मण्डप में अपूर्व चहल—पहल दिखाई

देने लगी । बड़े—बड़े सेठ आये, साहूकार आये, बैरिस्टर और सालिसिटर आये,

कालेजों के महोपाध्याय और स्कूलों के उपाध्याय आये, शिक्षित लोग भी

आये और अशिक्षित भी, उष्णीषमण्डित पण्डित आये और दयानन्द को पराजित

करने की आशा साथ लाये । दयानन्द भी आये, उनका मुखमण्डल सदा की

भांति प्रसन्न था, उस पर न चिन्ता की रेखा थी और न भय का चिह्न । सभास्थल

में एक बड़ा सिंहासन बनाया गया था और उस पर वेदादि की पुस्तकें प्रमाण

के लिये रक्खी गई थीं। स्वामी जी आकर सिंहासन पर विराजमान हो गये।

पण्डितों ने इस पर आपत्ति की तो स्वामी जी ने कहा कि हम संन्यासी होने

के कारण बैठे हैं । आप लोग हम से कुछ प्रश्न करें, यदि हम उत्तर न दे

सकेंगे तो हम सिंहासन से उतर जायेंगे और आप बैठ जाना ।

श्री आत्माराम बापू—दल शास्त्रार्थ—सभा के सभापति पद पर प्रतिष्ठित

हुए । पण्डितों की ओर से पण्डित खेम जी बाल जी जोशी ने भाषण आरम्भ

किया । जोशी जी वाव्Qपटु समझे जाते थे, अतः श्रोतृवर्ग उनके कथन को

उत्कण्ठा और आशा से सुनने लगे । परन्तु जोशी जी ने प्रकृत विषय पर तो

कुछ नहीं कहा, इधर—उधर की बातें कहनी आरम्भ कर दीं । श्रोता उकताने

लगे और उनकी ओर से जोशी जी को चुप कराने की चेष्टा होने लगी । परन्तु

वे चुप होने वाले न थे, वे अप्रासग्कि बातें कहते ही रहे । अन्त में श्रोतृगण

उनकी बातों से सर्वथा विरक्त हो गये और उन्हें अधिक समय नष्ट करने का

अवकाश देने से श्रोताओं ने इन्कार कर दिया । इस पर जोशी जी को चुप होना

ही पड़ा । तत्पश्चात् पण्डित इच्छाशंकर सुकुल ने स्वामी जी से व्याकरण

सम्बन्धी प्रश्न आरम्भ किये । स्वामी जी उनके उत्तर देते रहे । जब पण्डित

इच्छाशटर के प्रश्न समाप्त हो गये और वे स्वामी जी के उत्तरों पर कोई आपत्ति

न कर सके तो फिर स्वामी जी ने उनसे प्रश्न करने आरम्भ किये । पण्डितों

के उत्तर लिखे गये और स्वामी जी ने महाभाष्यादि ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा उनके

उत्तरों को भ्रमपूर्ण सिद्ध कर दिया । पण्डितगण स्वामी जी के आक्षेपों का

निराकरण न कर सके और विवश होकर उन्हें अपनी भ्रान्ति स्वीकार करनी

पड़ी । सब लोगों को प्रतीत हो गया कि पण्डित वर्ग तो स्वामी जी से क्या

उनके शिष्यों से भी तर्वQ करने की योग्यता नहीं रखता ।

तत्पश्चात् पण्डितों ने नियोग पर कुछ आक्षेप किया जिन का उत्तर

स्वामी जी ने इस ढंग से और ऐसी योग्यता और प्रबल युक्तियों से दिया कि

पण्डितों को अनन्योपाय होकर मौन ही धारण करना पड़ा । पण्डितों की इस

बार भी स्वामी जी को परास्त करने की आशा निराशा में ही परिणत हुई

और वे खिन्न और विषादपूर्ण हृदयों के साथ घरों को लौटकर आये ।

(देवेन्द्रनाथ १।३२८, लेखराम पृष्ठ २५१)

(347) शंका :- मूर्तिपूजा हमारे शास्त्रों के अनुकूल है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(अहमदाबाद में पण्डितों से शास्त्रार्थजनवरी १८७५)

२७ जनवरी को राव बहादुर विट्ठलदास के गृह पर एक सभा हुई।

जिसका उद्देश्य स्वामी जी की विदासूचक संवर्द्धना करना और आर्यसमाज—

स्थापना के विषय में परामर्श करना था । सभा में बेचरदास अम्बाईदास,

गोपालराव हरि देशमुख, भोलानाथ साराभाई, अम्बालाल सागरलाल प्रभृति

महानुभाव उपस्थित थे । इसके अतिरिक्त शास्त्रीगण भी थे । जिनमें से कुछ

के नाम ये हैंशास्त्री सेवकराम, लल्लूभाई बापू जी, भोलानाथ भगवान् ।

शास्त्रीगण कहते थे कि मूर्तिपूजा हमारे शास्त्रों के अनुकूल है । इस

पर बेचरदास अम्बाईदास ने उनसे कहा कि स्वामी जी आपसे शास्त्रार्थ करने

पर उघत हैं, आप उनसे शास्त्रार्थ क्यों नहीं कर लेते ? परन्तु शास्त्री लोग

इस पर सहमत नहीं हुए । उनसे शास्त्रार्थ न करने का कारण पूछा गया ।

उन्होंने कहा कि स्वामी जी ने

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ।

हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

यजु० ३३।४३।।

वेदमन्त्र का अर्थ अशुद्ध किया है । इस पर सब लोगों ने पण्डितों से

अपना अर्थ करने का अनुरोध किया और कहा कि यह प्रतिपादित करो कि

स्वामी जी ने भूल की है और आपका अर्थ ठीक है । अपने किए हुए अर्थों

के नीचे अपने हस्ताक्षर कर दो । कुछ पण्डित तो सहमत हो गये और उन्होंने

अर्थ करके हस्ताक्षर कर दिये और कुछ इस पर भी सहमत न हुए । स्वामी

जी ने निम्न अर्थ करके उस पर हस्ताक्षर कर दिये ।

स्वामी जी के किये अर्थ

(आकृष्णेन) आकर्षणात्मना (रजसा) रजोरूपेण रजतस्वरूपेण वा

(रथेन) रमणीयेन (देवः) घोतनात्मकः (सविता)प्रसवकर्त्ता वृष्ट्यादेः (मर्त्यम्)

मर्त्यलोकम् (अमृतम्) ओषध्यादिरसं (निवेशयन्) प्रवेशयन् (भुवनानि पश्यन्)

दर्शयन् (याति) रूपादिकं विभक्तं प्रापयतीत्यर्थः (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेन ।

(सविता) सर्वस्य जगत्—उत्पादकः (देवः) सर्वस्य प्रकाशकः (मर्त्यम्)

मर्त्यलोकस्थान् मनुष्यान् (अमृतम्) सत्योपदेशरूपम् (निवेशयन्) प्रवेशयन्

सर्वाणि (भुवनानि) सर्वज्ञतया (पश्यन्) सन् (आकृष्णेन) सर्वस्याकर्षणस्वरूपेण

परमाणूनां धारणेन वा (रथेन) रमणीयेनानन्दस्वरूपेण वर्त्तमानः सन् (याति)

धर्म्मात्मनः स्वान् भक्तान् सकामान् प्रापयतीत्यर्थः ।

संवत् १९३१ पौष बदि षष्ठी, बुधवार, ७ काल, ४० मिनट सही

सम्मतिरत्र दयानन्दसरस्वतीस्वामिनः ।

शास्त्रियों के किये अर्थ

(आकृष्णेन) ईषत्कृष्णेन (रजसा वर्तमानः) सहितः (सविता देवः)

सूर्य्यः (अमृतम्) स्वर्गं (मर्त्यम्) भूलोकं (निवेशयन्) स्वस्वप्रदेशेषु स्थापयन्

(हिरण्ययेन रथेन) स्यन्दनेन (भुवनानि पश्यन् याति) गच्छति ।

सही लल्लूभाई बापूशास्त्रिणः सम्मतोऽयमर्थः ।

शास्त्री सेवकराम रामनाथः ।

सम्मतिरत्र भास्करशास्त्रिणः ।

सम्मतिरत्र अमृतरामशास्त्रिणः ।

इसके पश्चात् स्वामी जी ने एक वक्तृता दी जिसमें कहा कि सब को

वेदों का अनुकरण करना चाहिये ।

गोपालरावहरि, भोलानाथ, अम्बालाल आदि ने दोनों के अर्थों को देख

और समझकर कहा कि शास्त्री अविवेकी और दुराग्रही हैं, स्वामी जी का

किया अर्थ ही ठीक है ।

इस मन्त्र का जो अर्थ स्वामी जी ने किया था, उस पर उन निष्कारण

वैरी पण्डित विष्णुपरशुराम शास्त्री ने बहुत आक्षेप किया और उसे अशुद्ध बताया

था । उसके सम्बन्ध में स्वामी जी ने अपने एक पत्र में संवत् १९३१, फाल्गुन

शुक्ला ९ को गोपालराव हरि देशमुख को लिखा था कि उस विष्णु शास्त्री

के विषय में एक बानगी लिखते हैं कि ट्टऋ गतिप्रापणयोः’ इस धातु से रथ

शब्द सिद्ध होता है । ट्टरमु क्रीडायाम्’ इस धातु से नहीं, इससे यह अर्थ निर्युक्त

और निर्मूल है । ऐसी मूर्खता कोई विघार्थी भी नहीं करेगा । स्वामी जी ने

लिखा है कि पाणिनिमुनिरचित उणादिगण का सूत्र प्रमाण है

ट्टहनि—कुषि—नी—रमि—काशिभ्यः’ क्थन् । हथः, कुष्ठः, निथः,

रथः, काष्ठम् ।

यास्को निरुक्तकारःरथो रंहतेर्गतिकर्मणः इत्यत्र रममाणो—

ऽस्ंिमस्तिष्ठतीति वेति ।।

इससे ट्टरम’ धातु से ही रथ शब्द सिद्ध होने से ट्टट्टरमणीयो रथो

रमतेऽस्मिन्निति वा ।’’

इन प्रमाणों को देखते हुए कौन कह सकता है कि विष्णुपरशुराम शास्त्री

ने स्वामी जी पर रथ शब्द की निरुक्ति को अशुद्ध कहकर अपने नाम और

विद्वत्ता को कलटित नहीं किया ? उनका ऐसा करना केवल छिद्रान्वेषण करने

के अभिप्राय से ही था ।

उपर्युक्त प्रचार से वेदार्थविषयक बातचीत होने के पश्चात् शास्त्रियों

का स्वामी जी से मूर्तिपूजा और वर्णाश्रम पर भी वार्तालाप हुआ था । शास्त्रियों

ने भोलानाथ साराभाई और अम्बालाल सागरमल को मध्यस्थ बनाया था ।

विचार की समाप्ति पर दोनों ही मध्यस्थों ने अपनी सम्मति स्वामी जी के

पक्ष में व शास्त्रियों के विरुद्ध दी थी । अन्त में लोगों ने स्वामी जी को

धन्यवाद दिया और गोपालराव हरि देशमुख ने उनके भाषण से सन्तुष्ट होकर

उन्हें एक सुन्दर पीताम्बर भेंट किया ।

रावबहादुर गोपालराव हरि देशमुख पहले वेदों के विरोध में लेख और

पुस्तक लिखा करते थे । स्वामी जी के बम्बई में दर्शन, सत्संग और

व्याख्यान—श्रवण से उनका संशयोच्छेदन हो गया और वे स्वामी जी के भक्त

बन गये । स्वामी जी उन्हीं के निमन्त्रण पर अहमदाबाद गये थे ।

(देवेन्द्रनाथ १।३२३, लेखराम पृ० २५८)

(349) शंका :- वेदों से उससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(भडौंच में पण्डितों से शास्त्रार्थदिसम्बर, १८७४)

स्वामी जी के व्याख्यान भडौंच में नर्मदा के तट पर भृगु ऋषि की

धर्मशाला में हुए । पहले व्याख्यान की समाप्ति पर पण्डित माधवराव

ङ्क्षम्बकराव स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने को सम्मुख आये। पण्डित माधव

राव दक्षिणी ब्राह्मण थे । और अनेक सम्भ्रान्त लोग उनके शिष्य थे । वे थे

तो गृहस्थी, परन्तु महन्त समझे जाते थे और भडौंच के लोग उनका बहुत

सम्मान करते थे कट्टर सनातनी और दाम्भिक थे । वे सभा में शास्त्रार्थ करने

के अभिप्राय से ही आये थे और अपने अनेक शिष्यों को साथ ले आये थे।

उनके एक शिष्य ने स्वामी जी से कहा कि पण्डित माधवराव आपसे शास्त्रार्थ

करने के इच्छुक हैं । स्वामी जी के यहां क्या देर थी ? उन्होंने तुरन्त उत्तर

दे दिया कि हम उघत हैं । इस पर पण्डित माधवराव आगे आये और निम्न

प्रकार प्रश्नोत्तर हुए ।

दया०आपने क्या पढ़ा है ?

माधव०कौमुदी आदि व्याकरण और कुछ काव्य पढ़ा है ।

दया०जब आपने वेदादि आर्ष ग्रन्थ पढ़े ही नहीं तो आप उनके विषय

में शास्त्रार्थ कैसे करोगे ?

माधव०मैंने कुछ ऋग्वेद भी पढ़ा है ।

दया०चारों वेदों में से किसी मन्त्र को लेकर उसका पदच्छेद पूर्वक

अर्थ करके दिखलाइये कि उससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है । फिर मैं आर्ष

ग्रन्थों की रीति के अनुकूल उसका अर्थ करूंगा और तत्पश्चात् आपके

और अपने अर्थ काशी आदि स्थानों के बड़े—बड़े पण्डितों के पास भेज दिये

जायेंगे कि वे किसके अर्थों का अनुमोदन करते हैं ।

स्वामी जी के इतना कहते ही पण्डित कृष्णराम ने चारों वेदों के पुस्तक

स्वामी जी के सामने लाकर रख दिये । तब स्वामी जी ने कहा कि चारों

वेदों में से किसी वेद का कोई मन्त्र निकालकर अर्थ कीजिए। पं० माधवराव

ने ऋग्वेद का एक मन्त्र निकाला और उसका अर्थ करने लगे स्वामी जी ने

पद—पद पर उनके अर्थों की अशुद्धि दिखानी आरम्भ की । परिणाम यह हुआ

कि पण्डित माधवराव थोड़ी ही देर में चुप होकर बैठ गये । तब स्वामी जी

ने उनसे कहा कि अभी आप कुछ और पढि़ए और तब शास्त्रार्थ करने आइए।

माधवराव ने समझा कि स्वामी जी मेरा अपमान करते हैं, विशेषकर शिष्यों

के सामने, इस प्रकार के पराजय से वह बहुत क्रोध में आये और उसी दशा

में अपने शिष्यों सहित सभा से उठकर चले गये । शास्त्रार्थ के बीच में

ही माधवराव का एक शिष्य स्वामी जी की ओर हाथ करके उनके लिए

कुछ अपशब्द कह बैठा था । इस पर बलदेवसिंह को इतना आवेश आया

कि वह खड़े हो गये और कड़क कर बोले कि क्या तुम श्रीमहाराज का

अपमान करने आये हो, मेरी उपस्थिति में ऐसा नहीं हो सकता । स्वामी जी

माधवराव के शिष्य के असभ्य व्यवहार से तनिक भी धैर्य्यच्युत नहीं

हुए । वे गम्भीर जलवत् शान्त रहे । उन्होंने बलदेवसिंह को यह कहकर शान्त

कर दिया कि क्यों क्रोध करते हो, यह भी तो हमारा भाई है ।

(देवेन्द्रनाथ १।३०९)

(350) शंका :- जैसा स्वामी नारायण है वैसा मैं नहीं हूं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

अज्ञातनामा के प्रश्नों का उत्तर

बम्बई के रहने वाले किसी अज्ञात ….. नाम ने कार्तिक शुक्ल

४, शुक्रवार, संवत् १९३१ को २४ प्रश्न छपवाकर स्वामी जी के पास भिजवाये।

स्वामी पूर्णानन्द ने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की सम्मति से इन प्रश्नों के

उत्तर में निम्नलिखित विज्ञापन—पत्र प्रकाशित किया

विज्ञापन—पत्र’’

विदित हो कि जैसा स्वामी नारायण है वैसा मैं नहीं हूं और जिस प्रकार

जयपुर नगर के गोसाईं की पराजय हुई ऐसा भी मैं नहीं हूं । बम्बई नगर

के निवासी किसी एक हरिभक्तों के चरणों के इच्छुक …….. ऐसे गुप्त

नाम वाले पुरुष के संवत् १९३१, कार्तिक शुक्ल पक्ष ४, शुक्रवार को

ट्टट्टज्ञानदीपक’’ यन्त्रालय के छपे हुए २४ प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है

पहले प्रश्न का उत्तरप्रत्यक्षादि प्रमाणों को स्वीकार करता हूं ।

दूसरे प्रश्न का उत्तरचारों वेदों को प्रमाण मानता हूं ।

तीसरे प्रश्न का उत्तरचारों संहिताओं को प्रमाण मानता हूं परन्तु

परिशिष्ट को छोड़कर (अर्थात् परिशिष्ट को प्रमाण नहीं मानता, वह अप्रमाण

है) ब्राह्मणादिकों को मैं मत के रूप में स्वीकार नहीं करता परन्तु उनके रचयिता

जो ऋषि हैं उनकी वेद विषय में कैसी सम्मति है, यह जानने के लिए अध्ययन

करता हूं कि उन्होंने कैसा अर्थ किया है और उनका क्या सिद्धान्त है ।

चौथे प्रश्न का उत्तरतीसरे में समझ लेना ।

पांचवें का उत्तरशिक्षादिक जो वेदाग् हैं और उनके कर्ता जो मुनि

हैं उनकी वेद के विषय में कैसी सम्मति है यह जानने के लिये देखता हूं।

उनको मत मान के स्वीकार नहीं करता ।

छठे का उत्तरवेद, वेदाग्, भाष्य और उनके व्याख्यान जो आर्ष अर्थात्

ऋषिप्रणीत हैं उनको मत मानकर स्वीकार नहीं करता किन्तु परीक्षा के लिये

वे ठीक किये गये हैं वा नहीं किये गये इसलिये देखता हूं, वह मेरा मत

नहीं है ।

सातवें का उत्तरजैमिनिकृत पूर्वमीमांसा, व्यासकृत उत्तरमीमांसा,

चरणव्यूहइनको भी मत मानकर संग्रह नहीं करता किन्तु इनके मत की परीक्षा

के लिये देखता हूं, और प्रकार नहीं ।

आठवें का उत्तरपुराण, उपपुराण, तन्त्रग्रन्थ, इनके अवलोकन और

अर्थ में श्रद्धा ही नहीं करता, इनके प्रमाण की कथा तो क्या कथा है ।

नववें का उत्तरसारा भारत और वाल्मीकिरचित रामायण का

प्रमाण नहीं क्याेंकि लोक में बहुत प्रकार व्यवहार है । उनके वृत्तान्त का

जानना ही उनका अभिप्राय है क्योंकि वे मर चुके हैं ।

दसवें का उत्तर भी नववें में समझ लेना ।

ग्यारहवें का उत्तरमनुस्मृति को मनु का मत जानने के लिये देखता

हूं । उसको इष्ट समझ कर नहीं ।

बारहवें का उत्तरयाज्ञवल्क्यादि और मिताक्षरादि का तो प्रमाण ही नहीं

करता ।

तेरहवें का उत्तरबारहवें में समझ लेना ।

चौदहवें का उत्तरविष्णुस्वामी आदि जो सम्प्रदाय हैं उनका प्रमाण मैं

लेशमात्र भी नहीं करता प्रत्युत उनका खण्डन करता हूं क्याेंकि ये सारे सम्प्रदाय

वेद—विरुद्ध हैं ।

पन्द्रहवें का उत्तर चौदहवें में समझ लेना ।

सोलहवें का उत्तरमैं स्वतन्त्र नहीं हूं प्रत्युत वेद का अनुयायी हूं, ऐसा

समझना चाहिये ।

सत्रहवें का उत्तरजगदुत्पत्ति जैसी वेद में लिखी है और जिसने की

है, उस सारे को उसी प्रकार मानता हूं ।

अठारहवें का उत्तरजिस समय से सृष्टि का क्रम हुआ है उस काल

की कोई संख्या नहीं है, यह जानना चाहिये ।

उन्नीसवें का उत्तरवेदोक्त जो यज्ञादि कर्म हैं वे यथाशक्ति सब करने

चाहियें ।

बीसवें का उत्तरवेदोक्त जो विधि है वह माननी चाहिये, और नहीं।

इक्कीसवें का उत्तरशाखाओं में जो कर्म कहे हुए हैं वे वेदानुकूल

होने से प्रमाण हैं, विरुद्ध होने से नहीं ।

बाईसवें का उत्तरपरमेश्वर का कदाचित् जन्म—मरण नहीं होता।

(जिसके जन्म—मरण होते हैं, वह ईश्वर ही नहीं है।) सर्वशक्तिमान् होने से,

अन्तर्यामी होने से, निरवयव होने से, परिपूर्ण होने से, न्यायकारी होने से ।

तेईसवें का उत्तरमैं संन्यासाश्रम में हूं ।

चौबीसवें का उत्तरसत्यधर्म—विचार नामक पुस्तक जिसने यन्त्रालय

में छपवाई, उसका मत उसमें है, मेरा उसके मत में आग्रह नहीं ।

यदि हम आर्य्य लोग वेदोक्त धर्म के विषय में प्रीतिपूर्वक पक्षपात को

छोड़कर विचार करें तो सब प्रकार कल्याण ही कल्याण है, यही मेरी इच्छा

है । तिसके लिये नित्य सभा होनी चाहिए तो श्रेष्ठ समझो । जिस प्रकार

से बहुत प्रकार के सम्प्रदायों का नाश हो जाये वैसा सब को करना

चाहिये ।

परन्तु १३, १४, १५ प्रश्नों का पीसे को फिर पीसना है। उसके समान

पुनरुक्त दोष से दूषित को न समझकर यह मैं ने जाना कि जिसको प्रश्न

करने का ज्ञान नहीं उसके समागम में उचित विचार किस प्रकार हो सकेगा।

ऐसी मेरी सम्मति है क्योंकि जहां भोजन की ही चिन्ता है वहां धन का एकत्रित

होना असम्भव है और जिसने प्रश्न किये उसने अपना नाम भी नहीं लिखा,

यह भी एक दोष है । ऐसा सज्जनों को समझना चाहिए । इसमें स्वामी जी

की सम्मति है । इसके उपरान्त जो कोई अपना प्रकट नाम लिखने के विना

प्रश्न करेगा, उसका उत्तर उसी से दिलाउंQगा और जिस सम्प्रदाय को जो मानता

है उसको संक्षेपतया जब तक न कहेगा तब तक उसका भी उसी से दिलाउंQगा।

प्रसिद्धकर्त्ता स्वामी पूर्णानन्द, कार्तिक शुक्ल ७, सोमवार, संवत् १९३१,

तदनुसार १६ नवम्बर, सन् १८७४ । उसके पश्चात् न तो उस पहले प्रश्नकर्त्ता

ने मुख दिखलाया और न किसी और ने सम्मुख होकर शास्त्रार्थ किया और

न गिट्टूलाल शास्त्री आदि वैष्णव मत के विद्वानों ने कभी शास्त्रार्थ करने

का नाम लिया और न कभी स्पष्ट अपना नाम लिखकर कोई विज्ञापन प्रकाशित

किया । रणक्षेत्र का वीर बनकर सामने आना और मूर्तिपूजा को वेदानुकूल

सिद्ध करना तो नितान्त असम्भव और जान का जंजाल हो गया ।

(लेखराम पृ० २४६—२४८)

(351) शंका :- मेरे कुल का काम विष देना नहीं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- वल्लभ मत

समाधान :-

(वल्लभाचार्य—मतवालों के साथ शास्त्रार्थ बम्बई में

१६ नवम्बर, १८७४)

बम्बई पहुंचकर जब स्वामी जी को वल्लभाचार्य मत का समस्त वृत्तान्त

विदित हुआ तो उसका यथार्थ ज्ञान हो जाने के पश्चात् उन्होंने लगातार उस

मत के खण्डन और उसकी पोल खोलने के लिये भाषण देने और उपदेश

करने आरम्भ किये और ब्रह्म सम्बन्ध वाले मन्त्र की भी जिससे वह चेले

और चेलियों का तन मन धन अपने अर्पण कराके ब्रह्म सम्बन्ध कराते हैं

अच्छी प्रकार छीछालेदर की । गुसाईं जी की बहुत हानि होने लगी तब जीवन

जी गुसाईं ने स्वामी जी के सेवक बलदेवसिंह जी कान्यकुब्ज ब्राह्मण को

बुलाकर कहा कि तुम को मैं एक हजार रुपया दूंगा यदि स्वामी जी

को मार दो । उसी समय पांच रुपया नकद और ५ सेर मिठाई प्रसाद के

रूप में दी और हजार रुपये देने की प्रतिज्ञा करके एक रुक्का (प्रतिज्ञापत्र)

लिख दिया । बलदेवसिंह अभी स्वामी जी के पास पहुंचा नहीं था उनको

सूचना मिल गई कि तुम्हारा रसोइया जीवन जी के पास खड़ा है । जब वह

पहुंचा तब स्वामी जी ने पूछा कि तुम गोकुलियों के मन्दिर में गये थे ?

बलदेवसिंहहां महाराज गया था ।

स्वामी जीक्या ठहरा ?

बलदेवसिंहपांच रुपया नकद और पांच सेर मिठाई और यह रुक्का

लिखकर दिया है कि मार दो तो हजार रुपये ले लो ।

स्वामी जीमुझ को कई वार विष दिया गया है परन्तु मरा नहीं ।

बनारस में विष दिया गया, कर्णवास में राव कर्णसिंह चक्राटिती ने पान में

विष दिया तब भी नहीं मरा और अब भी नहीं मरूंगा ।

बलदेवसिंहमहाराज मेरे कुल का काम विष देना नहीं है और फिर

ऐसे को जिससे समस्त जगत् को लाभ पहुंच रहा है ।

स्वामी जी ने मिठाई फिंकवा दी और रुक्का फाड़कर फेंक दिया और

कहा कि ट्टट्टसावधान, भविष्य में उनके यहां कभी मत जाना ।’’

(लेखराम पृ० २४६)

(352) शंका :- ईसाइयों का ईश्वर चौंक पड़ा

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

(मोहम्याह नीलकण्ठ घोरी क्रिश्चियन से प्रयाग में संवाद)

बुधवार, १ जौलाई, सन् १८७४ के अन्त तक स्वामी जी प्रयाग में रहे।

मोहम्याह नीलकण्ठ घोरी नामक एक क्रिश्चियन मरहठा जेण्टलमैन प्रोफेसर

मैक्समूलर का किया हुआ ऋग्वेदभाष्य ले आया । यह बतलाने के लिए कि

अग्नि के अर्थ केवल आग के हैं, ईश्वर के नहीं । स्वामी जी ने उसको

यह उत्तर दिया कि यदि प्रोफेसर मैक्समूलर ने वेदमन्त्रों का भाष्य करने के

लिए केवल इन्हीं अर्थों का प्रयोग किया है तो कुछ आश्चर्य नहीं क्योंकि

एक पक्षपातपूर्ण ईसाई होने के कारण उसकी हार्दिक इच्छा है कि वेदार्थ को

बिगाड़े ताकि भारतवासी अज्ञानता में फंसकर वेदों को छोड़ दें और बाइबिल

को ग्रहण करें । अतः उसके पक्षपातपूर्ण होने के कारण उसका भाष्य प्रामाणिक

नहीं हो सकता । तत्पश्चात् स्वामी जी ने हिन्दू मरहठों के सामने जिन्होंने

अपने हिन्दू धर्म से भटके हुए भाई को आपना धार्मिक अगुआ (अधिवक्ता)

बनाया था ईसाइयों के ईश्वर के विषय में अज्ञानतापूर्ण विचारों को प्रकट

करने के लिये तौरेत बाबल के बुर्ज वाली कहानी की ओर सटेत किया जिसमें

यह लिखा है कि प्राचीन पाश्चात्य जातियों ने ईसाइयों की देवमाला में आकाश

पर चढ़ने का यत्न किया । उनके इस साहसपूर्ण निश्चय से ईसाइयों का ईश्वर

चौंक पड़ा । अत्यन्त भयभीत होकर अपने बचाव के लिये बाबल के बुर्ज

बनाने वालों की वाणी में गड़बड़ कर दी जो एक दूसरे की बात को समझने

के अयोग्य होकर काम छोड़ बैठे और ईश्वर मनुष्यों के इस बर्बरतापूर्ण आक्रमण

से बच गया ।

ईसाइयों के ईश्वर का अपनी ही सृष्टि से डर जाना अत्यन्त अद्भुत

और वर्णन से बाहर की बात है । निस्सन्देह वे अत्यन्त ही असभ्य होने चाहियें

जिन्होंने कि आकाश की प्रकट और दिखलावे की महराबदार छत को परिमित

उंचाई समझकर उस पर कृत्रिम साधनों से चढ़ना सम्भव समझा। इससे यह

प्रतीत होता है कि ईसाइयों का विश्वास है कि ईश्वर सर्वत्र व्यापक और द्रष्टा

नहीं प्रत्युत इसके विपरीत वह एक विशेष स्थान में सीमित है जिसके विषय

में वे ठीक—ठीक नहीं बतला सकते ।

ईसाई मरहठे ने इस आक्षेप का कुछ उत्तर न दिया परन्तु उसके और

हिन्दू भाई कुछ बोले और विशेषतया काशीनाथ शास्त्री ने अत्यन्त धृष्टतापूर्ण

शब्दाें में स्वामी जी से पूछा किकिस प्रयोजन के लिये समस्त देश में

कोलाहल कर रखा है ।

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मुझ से पहले पण्डितों ने बड़ी धूर्तता फैलाई

है और उनकी बुद्धि पत्थरों के पूजने से पथरा गई है अर्थात् उनकी बुद्धि

पर पत्थर पड़ गये हैं । जिसके कारण वे सत्य के सिद्धान्त को न समझ

सके । शास्त्री फिर मौन होकर अपने मित्रों सहित चला गया ।

(लेखराम पृष्ठ २४२)

(353) शंका :- मूर्ति नहीं तो मुख कहां से आया

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पण्डित दुर्गादास डुमराओं निवासी से शास्त्रार्थअगस्त १८७३)

नोट२६ जौलाई, सन् १८७३ से ८ अगस्त, सन् १८७३ तक स्वामी

जी रियासत डुमराओं में ठहरे थे । उसी बीच में पण्डित दुर्गादास डुमराओं

निवासी से उनका यह शास्त्रार्थ हुआ था । महाराजा साहब डुमराओं ने रायबहादुर

दीवान जयप्रकाश जी के द्वारा पण्डित दुर्गादत्त जी को बुलाया और स्वामी

जी को भी रेलवे वाली कोठी से तालाब के ऊपर वाली कोठी पर बुलाया।

राजा साहब और दीवान साहब के अतिरिक्त वहां तीन सौ के लगभग मनुष्य

थे । पण्डित जी चूंकि महादेव के पुजारी थे और यह निश्चय हो चुका था

कि शास्त्रार्थ मूर्तिखण्डन पर नहीं होगा इसलिये पण्डित जी इस विचार से

कि मूर्ति के बिना यात्रा करनी पाप हैशिवलिंग की मूर्ति साथ ले गये और

अपने सामने कुर्सी पर रख दी और वार्ता आरम्भ हुई

स्वामी जीहम द्वैत मानते हैं । पण्डित जी ने कहा कि इस श्रुति

एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्म’’ से विरोध होता है अर्थात् आप का द्वैत मानना

इस के विरुद्ध है ।

स्वामी जीइसका यह अर्थ नहीं जो आप समझे । इसका यह अर्थ

है कि जैसे किसी के घर में कोई उपस्थित न हो तो वह कहता है कि यहां

मैं एक ही हूं और कोई नहीं परन्तु गांव वाले और नाते कुटुम्ब का निषेध

नहीं । वे विघमान हैं, उनका अस्वीकार नहीं । इसलिए सजातीय तथा जाति

स्वगत भेद शून्य जो शटराचार्य का मत है वह मिथ्या है, हम उसको नहीं

मानते । यहां केवल दूसरे ब्रह्म का निषेध है न कि जीव का ।

पण्डित जीइस सिद्धान्त को तो हम नहीं मानते ।

स्वामी जीशटराचार्य के सिद्धान्त को न मानने में हमने तो युक्ति

दी है । परन्तु जो आप मानते हो तो आपके पास क्या प्रमाण है ?

इसका उन्होंने कोई उत्तर न दिया ।

स्वामी जी ने मूर्ति के विषय में आक्षेप किया कि मूर्तिपूजा में श्रुति

का प्रमाण नहीं ।

पण्डित जी ने

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।

(यजु० ३१।११)

ङ्क्षम्बकं यजामहे सुगनिं्ध पुष्टिवर्धनम् । (यजु० ३।६०)

यह दो श्रुति प्रमाण दीं कि यदि मुख नहीं तो चारों वर्णों की उत्पत्ति

कैसे हुई और मूर्ति नहीं तो मुख कहां से आया और दूसरा मन्त्र विशेष शिव

की पूजा का है जिसके तीन नेत्र हैं और जाबालोपनिषद् में लिखा है

धिव्Q भस्मरहितं भालं धिव्Q ग्राममशिवालयम् ।

इत्यादि प्रमाणों से मूर्तिपूजा सिद्ध है । आप कैसे कहते हैं कि मूर्तिपूजा

में श्रुति प्रमाण नहीं है ।

स्वामी जी ने प्रथम उन दो मन्त्रों का व्याकरण और ब्राह्मण ग्रन्थों के

अनुसार यथार्थ अर्थ करके उनके भ्रम को निवारण करने का प्रयत्न किया

और बताया कि प्रामाणिक उपनिषदों में जाबाल नहीं है, वह जालोपनिषद्

हैउसमें किसी ने वाक्यजाल रचा है । वेद के विरुद्ध है इसलिए अप्रमाण

है । इस पर पण्डित जी ने कुछ उत्तर न दिया । समस्त श्रोतागण परिचित

तथा स्वयं दीवान साहब साक्षी हैं ।

फिर गीता के श्लोक ट्टट्टसर्वधर्मान् परित्यज्य’’ पर कुछ बातचीत होकर

हंसी खुशी से सभा विसर्जित हुई । (लेखराम २२८—२२९)

अग्नि शब्द का क्या अर्थ है ?

(354) शंका :- नास्तिक दयानन्द से धर्म की रक्षा कीजिये

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० जगन्नाथ से छपरा में शास्त्रार्थमई, १८७३)

स्वामी जी छपरा पधारे तो जनता को उनके शुभ आगमन की सूचना

देने व अवैदिक पाखण्डों पर उनके समर्थकों को शास्त्रार्थ के लिए आहूत

करने के लिये नगर में विज्ञापन वितरण किया गया । छपरा में यदि कोई

पं० स्वामी जी से शास्त्रार्थ कर सकता था तो पं० जगन्नाथ थे । पौराणिक

वर्ग उन्हीं के पास गये, और उनसे जाकर प्रार्थना की कि महाराज चलिये

और नास्तिक दयानन्द से धर्म की रक्षा कीजिये । परन्तु पण्डित जी शास्त्रार्थ

के नाम से कानों पर हाथ धर गये । उन्होंने कहा कि शास्त्रार्थ करने से मुझे

नास्तिक का मुख देखना पड़ेगा जिसका शास्त्रों में निषेध है और मैंने ऐसा

किया भी तो मुझे कठोर प्रायश्चित्त करना पड़ेगा ।

पण्डित जी के यह वचन सुनकर पौराणिक धर्म के पृष्ठपोषकों की

आशाओं पर पाला पड़ गया । और वे तेजोहीन और हताश होकर वापस चले

आये । महाराज ने जब यह सुना तो उन्हाेंने पण्डित जगन्नाथ को इस उलझन

से निकालने का एक विलक्षण परन्तु सरल उपाय बताया । उन्होंने कहा कि

यदि पण्डित महोदय मेरा मुख नहीं देखना चाहते हैं तो मेरे सामने एक पर्दा

डाल दिया जाय और वे उसकी ओट में शास्त्रार्थ कर लें परन्तु शास्त्रार्थ

करें तो सही ।

अब तो पण्डित जी भी निरुपाय हो गये । जो प्रधान आक्षेप उन्हें था

वह भी न रहा और उन्हें शास्त्रार्थ के लिये क्षेत्र में आना ही पड़ा । वह सभास्थल

में दलबल सहित पधारे । महाराज के मुख के सामने वास्तव में पर्दा डाला

गया । एक ओर महाराज बैठे और दूसरी ओर पण्डित जगन्नाथ आसन पर

सुशोभित हुए और विचित्र और मनोरंजक ढंग से शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ ।

प्रथम स्वामी जी ने पण्डित जी से कुछ प्रश्न स्मृतियों में से किये,

जिनका उत्तर पण्डित जी ने दिया तो सही, परन्तु उनकी संस्कृत व्याकरण

की अशुद्धियों से भरी हुई थी और उनका उत्तर भी स्मृतियों के कथनानुसार

न था । स्वामी जी ने उनकी अशुद्धियों का भरी सभा में वर्णन किया और

उनके उत्तर की पोल खोली । स्वामी जी के बेरोक—टोक, स्पष्ट, सुगम और

ललित संस्कृत में भाषण और पण्डित जी के उत्तर की भाषा और भाव की

अशुद्धियों और दोषों के स्पष्टीकरण से पण्डित जी के मुंह पर मुहर लग

गई और उन्होंने हूं हां तक न की । पण्डित जी की इस दशा व दुर्दशा को

देखकर जनता को विश्वास हो गया कि पण्डित जगन्नाथ पाण्डित्य में शून्य

हैं और उनका पक्ष भी निर्बल और वेद के प्रतिकूल है । (लेखराम पृ० २२७)

(355) शंका :- प्रतिमा—पूजन विचार

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

इसके आगे जिन शब्दों के अर्थ के नहीं जानने से, टीकाकारों को भ्रम

हो गया है तथा नवीन ग्रन्थ बनाने वाले और कहने वाले तथा सुनने वाले

को भी भ्रम होता है । उन शब्दों का शास्त्र रीति तथा प्रमाण और युक्ति से,

जो ठीक—ठीक अर्थ है, उन्हीं का प्रकाश संक्षेप से लिखा जाता है । प्रथम

तो एक प्रतिमा शब्द है ।

प्रतिमीयते यया सा प्रतिमा ।

अर्थात् प्रतिमानम् जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाये, उसको

कहना प्रतिमा, जैसे कि छटांक, आधपाव, पावसेर, सेर, पसेरी इत्यादि और

यज्ञ के चमसादिक पात्र । क्योंकि इन से पदार्थों के परिमाण किये जाते हैं।

इससे इन्हों का ही नाम है प्रतिमा । यही अर्थ मनु भगवान् ने मनुस्मृति में

लिखा

तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम् ।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत् ।।

पक्ष—पक्ष में, वा मास—मास में, अथवा छठवें—छठवें मास तुला की राजा

परीक्षा करे । क्योंकि तराजू की दण्डी में भीतर छिद्र करके पारा उसमें डाल

देते हैं । जब कोई पदार्थ को तौल के लेने लगते हैं, तब दण्डी को पीछे

नमा देते हैं । फिर पारा पीछे जाने से चीज अधिक आती है । और, जब

देने के समय में दण्डी आगे नमा देते हैं उससे चीज थोड़ी जाती है । इससे

तुला की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए तथा प्रतिमान अर्थात् प्रतिमा की परीक्षा

अवश्य करे । राजा जिस से कि अधिक, न्यून प्रतिमा अर्थात् दुकान के बाट

जितने हैं, उन्हों का ही नाम प्रतिमा । इसी वास्ते प्रतिमा के भेदक अर्थात्

घाट बाढ़ तौलने वाले के ऊपर दण्ड लिखा है

संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः ।

प्रतिकुर्याच्च तत्सर्वं पञ्च दघाच्छतानि च ।।

यह मनु जी का श्लोक है । इसका अभिप्राय यह है कि संक्रम अर्थात्

रथ, उस रथ के ध्वजा की यष्टि, जिसके ऊपर ध्वजा बांधी जाती है, और

प्रतिमा छटांक आदिक बटखरे, इन तीनों को तोड़ डाले वा अधिक न्यून कर

देवे, उनको उससे राजा बनवा लेवे । और जैसा जिसका ऐश्वर्य, उसके योग्य

दण्ड करे । जो दरिद्र, होवे तो उससे पांच सौ पैसा राजा दण्ड लेवे । जो

कुछ धनाढ्य होवे तो पांच सौ रुपया उससे दण्ड लेवे । और जो बहुत

धनाढ्य होवे, उससे पांच सौ अशर्फी दण्ड लेवे । रथादिकों को उसी के

हाथ से बनवा लेवे । इससे सज्जन लोग बटखरा तथा चमसादिक यज्ञ के

पात्र उन्हीं को ही प्रतिमा शब्द से निश्चित जानें ।

दूसरा पुराण शब्द है

पुराभवं पुराभवा वा पुराभवश्च इति पुराणं पुराणी पुराणः ।

जो पुराण पदार्थ होवे, उसको कहते हैं पुराणा । सो सदा विशेषण वाची

ही रहता है तथा पुरातन, प्राचीन और प्राक्तन आदि शब्द सब हैं तथा उनों के

विरोधी विशेषणवाची नूतन, नवीन, अघतन, अर्वाचीन आदिक शब्द हैं । जो

विशेषण वाची शब्द होते हैं, वे सब परस्पर व्यावर्तक होते हैं । जैसे कि यह

चीज पुरानी है तथा यह चीज नवीन है । पुराण शब्द जो है, सो नवीन शब्द

की व्यावृत्ति कर देता है । यह पदार्थ पुराना है अर्थात् नया नहीं । और, यह

पदार्थ नया है अर्थात् पुराना नहीं । जहां—जहां वेदादिकों में पुराणादिक शब्द

आते हैं, वहां—वहां इन अर्थों के वाचक ही आते हैं, अन्यथा नहीं । ऐसा ही

अर्थ गौतम मुनि जी के किये सूत्रों के ऊपर जो वात्स्यायन मुनि का किया

भाष्य है, उसमें लिखा है ।

वहां ब्राह्मण पुस्तक जो शतपथादिक उनों का ही नाम पुराण है । तथा

शटराचार्य जी ने भी शारीरक भाष्य में, और उपनिषद्भाष्य में, ब्राह्मण और

ब्रह्मविघा का ही पुराण शब्द से ग्रहण किया है । जो देखना चाहे सो उन

शास्त्रों में देख लेवे । वह इस प्रकार से कहा है कि जहां—जहां प्रश्न और

उत्तरपूर्वक कथा होवे, उसका नाम इतिहास है । और जहां—जहां ब्राह्मण पुस्तकों

में वंश—कथा होवे उसका नाम पुराण है । और ऐसे जो कहते हैं कि अठारह

ग्रन्थों का नाम पुराण है यह बात तो अत्यन्त अयुक्त है । क्योंकि उस बात

का वेदादिक सत्यशास्त्रों में प्रमाण कहीं नहीं है । और कथा भी इन में अयुक्त

ही है। इन का नाम कोई पुराण रक्खे तो इन से पूछना चाहिए कि वेद क्या

नवीन हो सकते हैं? सब ग्रन्थों से वेद ही पुराने हैं । और यह बात कहते

हैं कि अश्वमेध की जो पूर्ति हो जाय, उसके दसवें दिन पुराण की कथा

यजमान सुने । सो तो ठीक—ठीक है कि ब्राह्मण पुस्तक की कथा सुने और,

जो ऐसा कहे कि ब्रह्मवैवर्तादिकों की क्यों नहीं सुने ? उससे पूछना चाहिये

कि सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जब—जब अश्वमेध भये थे, तब—तब किस

की कथा सुनी थी । क्योंकि उस वक्त व्यास जी का जन्म भी नहीं भया

था । तब पुराण कहां थे । और जो ऐसा कहे कि व्यास जी युग—युग में थे,

यह बात भी उसकी मिथ्या है । क्योंकि अब तक युधिष्ठिरादिकों का निशान

दिल्ली आदिकों में देख पड़ता है । उसी वक्त व्यास जी और व्यास जी की

माता आदिक वर्तमान थे । इससे यह भी उनका कहना मिथ्या ही है । पुराण

जितने ब्रह्मवैवर्त्तादिक वे सब सम्प्रदायी लोगों ने अपने—अपने मतलब के वास्ते

बना लिये हैं । व्यास जी का वा अन्य ऋषि—मुनियों का किया एक भी पुराण

नहीं है । क्योंकि वे बड़े विद्वान् और धर्मात्मा थे । उनका वचन सत्य ही

है तथा छः दर्शनों में उन के सत्य वचन देखने में आते हैं । मिथ्या एक

नहीं । और पुराणों में मिथ्या कथा तथा परस्पर विरोध ही है । और, जैसे

वे सम्प्रदायी लोग हैं, वैसे ही उनके बनाये पुराण भी सब नेष्ट हैं । सो सज्जनों

को ऐसा ही जानना उचित है, अन्यथा नहीं ।

तीसरा देवालय और चौथा देवपूजा शब्द है। देवालय, देवायतन,

देवागार तथा देवमन्दिर, इत्यादिक सब नाम यज्ञशालाओं के ही हैं ।

क्योंकि जिस स्थान में देवपूजा होवे, उसके नाम हैं, देवालयादिक । और देव

संज्ञा है परमेश्वर की तथा परमेश्वर की आज्ञा जो वेद उसके मन्त्रों की भी

देव संज्ञा है । देव जो होता है, सोई देवता है । यह बात पूर्वमीमांसा शास्त्र

में विस्तार से लिखी है । जिसको देखने की इच्छा हो, वह उस शास्त्र में

देख ले । जो कि शास्त्र कर्मकाण्ड के ऊपर है । वे जैमिनि मुनि के किये

सूत्र हैं । यहां तक उसमें लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादिक देव जो

देवलोक में रहते हैं, उन का भी पूजन कभी न करना चाहिये, एक परमेश्वर

के विना । सो वेद में इस प्रकार से निषेध किया है कि

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्म्माणि प्रथमान्यासन् ।

यह यजुर्वेद की श्रुति है । ब्रह्मादिक जो देव वे जब यज्ञ करते हैं, तब

उनों से अन्य कौन देव हैं, जो कि उनके यज्ञों में आके भाग लेवें । सो उन

से आगे कोई देव नहीं है । और जो कोई मानेगा तो उनके मत में अनवस्था

दोष आवेगा । इससे परमेश्वर और वेदों के मन्त्र उन को ही देव और देवता

मानना उचित है । अन्य कोई नहीं ।

अग्निर्देवतेत्यादिक जो यजुर्वेद में लिखा है, सो अग्नि आदिक सब नाम

परमेश्वर ही के हैं । क्योंकि देवता शब्द के विशेषण देने से इसमें मनुस्मृति

का प्रमाण है

आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम् ।

आत्मा हि जनयत्येषा कर्मयोगं शरीरिणम् ।।१।।

प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।

रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विघात्तं पुरुषं परम् ।।२।।

एतमगिं्न वन्दत्येके मनुमेके प्रजापतिम् ।

इन्द्रमेकेऽपरे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।।३।।

इन श्लोकों से आत्मा, जो परमेश्वर, उसी का देवता नाम है । और

अग्न्यादिक जितने नाम हैं, वे भी परमेश्वर के ही हैं । परन्तु जहां—जहां ऐसा

प्रकरण हो कि उपासना, स्तुति, प्रार्थना तथा इस प्रकार के विशेषण वहां—वहां

परमेश्वर का ही ग्रहण होता है, अन्यत्र नहीं । किन्तु ट्टसर्वमात्मन्यवस्थितम्’

सिवाय परमेश्वर के कोई में सब जगह नहीं ठहर सकता । और ट्टप्रशासितारं

सर्वेषामित्यादिक’ विशेषणों से परमेश्वर का ही ग्रहण होता है, अन्य का नहीं।

क्योंकि सब का शासन करने वाला विना परमेश्वर से कोई नहीं । तथा सूक्ष्म

से भी अत्यन्त सूक्ष्म और पर पुरुष परमेश्वर से भिन्न, ऐसा कोई नहीं हो

सकता है । निरुक्त में भी यह लिखा है कि

यत्र देवतोच्यते तत्र तल्लिगे मन्त्रः ।

जहां—जहां देवता शब्द आवे, वहां—वहां उस नामवाले मन्त्र को ही लेना।

जैसा कि ट्टअग्निर्देवता’ इसमें अग्नि शब्द आया, सो जिस मन्त्र में अग्नि शब्द

होवे, उस मन्त्र का ही ग्रहण करना । ट्टअग्निमीडे पुरोहितमिति’ यह मन्त्र ही

देवता है । अन्य कोई नहीं । इससे क्या आया कि परमेश्वर और वेदों

के मन्त्र ही देव और देवता हैं । जिस स्थान में होम, परमेश्वर का विचार,

ध्यान और समाधि करें, उसके नाम हैं देवालयादिक । इसमें मनुस्मृति का

प्रमाण भी है

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

होमो देवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिसेवनम् ।।१।।

स्वाध्यायेनार्चयेदर्षीन् होमैर्देवान्यथाविधि ।

पित¤न् श्राद्धैनर्¤नन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा ।।२।।

इन श्लोकों से क्या आया कि होम जो है, सोई देवपूजा है अन्य कोई

नहीं । और होम स्थान जितने हैं, वे ही देवलयादिक शब्दों से लिये जाते

हैं ।

पूजा नाम सत्कार । क्योंकि ट्टअतिथिपूजनम् होमैर्देवानर्चयेत् ।’ अतिथियों

का पूजन, नाम सत्कार करना तथा देव परमेश्वर और मन्त्र इन्हों का सत्कार

इसका नाम है पूजा, अन्य का नहीं । और पाषाणादि मूर्ति स्थान देवालयादिक

शब्दों से भी नहीं लेना तथा घण्टा—नादादि पूजा शब्द से भी कभी नहीं लेना।

देवल और देवलक शब्द का यह अर्थ है कि

यद्वित्तं यज्ञशीलानां देवस्वं तद्विदुर्बुधाः ।

अयज्वनां तु यद्वित्तमासुरस्वं प्रचक्षते ।।१।।

यह मनु का श्लोक है । इसका अभिप्राय है कि जिन्हों का यज्ञ करने

का शील अर्थात् स्वभाव होवे, उसका सब धन यज्ञ के वास्ते ही होता है।

अर्थात् देवार्थ धन है ।

यद्दैवं तदेव देवस्वम्

अर्थात् होम के लिए जो धन होवे, उसका नाम देवस्व है । सो भिक्षा

अथवा प्रतिग्रह करके यज्ञ के नाम से धन लेके यज्ञ तो करें नहीं, और उस

धन से अपना व्यवहार करे, इसका नाम है देवल । सो इसकी शास्त्र में निन्दा

लिखी है । देवपितृकार्य में उसको निमन्त्रण कभी न करना चाहिए । ऐसा

उसका निषेध लिखा है । और जो यज्ञ के धन की चोरी करता है, वह होता

है देवलक ।

कुत्सितो देवलो देवलकः कुत्सिते इत्यनेन कन् प्रत्ययः ।

देवलक तो अत्यन्त निन्दित है ।

एक यह अन्धकार लोगों का देखना चाहिए कि

विद्वान् भोजनीयः सत्कर्तव्यश्चेति ।

विद्वान् को भोजन कराना चाहिये और उसका सत्कार भी करना

चाहिये । इससे कोई की ऐसी बुद्धि न होगी कि पाषाणादिक मूर्ति को भोजन

कराना, वा उसका सत्कार करना चाहिये । वह भी बात ऐसी ही है ।

एक बात वे लोग कहते हैं कि पाषाणादिक तो देव नहीं हैं, परन्तु भाव

से वे देव हो जाते हैं । उनसे पूछना चाहिये कि भाव सत्य होता है, वा

मिथ्या? जो वे कहें कि भाव सत्य होता है, फिर उनसे पूछना चाहिये कि

कोई भी मनुष्य दुःख का भाव नहीं करता, फिर उसको क्यों दुःख होता है

और सुख का भाव सब मनुष्य सदा चाहते हैं । फिर उनको सुख सदा क्यों

नहीं होता? फिर वे कहते हैं कि यह बात तो कर्म से होती है । अच्छा तो

आपका भाव कुछ भी नहीं ठहरा । अर्थात् मिथ्या ही हुआ है । सत्य नहीं

हुआ । आपसे मैं पूछता हूं कि अग्नि में जल का भाव करके हाथ डाले

तो क्या वह न जल जायेगा ? किन्तु जल ही जायेगा । इससे क्या आया पाषाण

को पाषाण ही मानना और देव को देव मानना चाहिये, अन्यथा नहीं । इससे

जो जैसा पदार्थ है, वैसा ही उसको सज्जन लोग मानें ।

काश्यादिक स्थान, गगदिक तीर्थ, एकादशी आदिक व्रत, राम,

शिव, कृष्णादिक नाम स्मरण तथा तोबा शब्द वा यीसू के विश्वास से

पापों का छूटना और मुक्ति का होना, तिलक, छाप, माला—धारण तथा श्ौव,

शाक्त, गाणपत्य, वैष्णव, क्रिश्चन और मुहम्मदी और नानक, कबीर आदिक

सम्प्रदाय, इन्हों से पाप सब छूट जाते हैं । और मुक्ति भी हो जाती है । यह

अन्यथा बुद्धि ही है । क्योंकि इस प्रकार के सुनने और मिथ्या निश्चय के

होने से सब लोग पापों में प्रवृत्त हो जाते हैं । कोई न भी होगा । तभी

कोई मनुष्य पाप करने में भय नहीं करते हैं । जैसे

अन्यक्षेत्रे कृतं पापं, काशीक्षेत्रे विनश्यति ।

काशीक्षेत्रे कृतं पापं पञ्चक्रोश्यां विनश्यति ।।१।।

पञ्चक्रोश्यां कृतं पापमन्तर्गृह्यां विनश्यति ।

अन्तर्गृह्यां कृतं पापमविमुक्ते विनश्यति ।।२।।

अविमुक्ते कृतं पापं स्मरणादेव नश्यति ।

काश्यां तु मरणान्मुक्तिर्नात्र कार्या विचारणा ।।३।।

इत्यादिक श्लोक काशीखण्डादिकों में लिखे हैं । ट्टकाश्यां मरणान्मुक्तिः।’

कोई पुरुष इसको श्रुति कहता है । सो यह वचन उसका मिथ्या ही है। क्योंकि

चारों वेदों के बीच में कहीं नहीं है । कोई ने मिथ्या जाबालोपनिषद् रच

लिया है । किन्तु अथर्ववेद के संहिता में तथा कोई वेद के ब्राह्मण में इस

प्रकार की श्रुति है नहीं । इससे यह श्रुति तो कभी नहीं हो सकती। किन्तु

कोई ने मिथ्या कल्पना कर ली है । जैसे कि ट्टअन्यक्षेत्रे कृतं पापं’ इत्यादि

श्लोक मिथ्या बना लिये हैं । इस प्रकार के श्लोकों को सुनने से, मनुष्यों

की बुद्धि भ्रष्ट होने से सदा पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं । इससे सब सज्जन

लोगों को निश्चित जानना चाहिये कि जितने—जितने इस प्रकार के माहात्म्य

लिखे हैं, वे सब मिथ्या ही हैं । इन्हों से मनुष्यों का बड़ा अनुपकार होता

है । जो कोई धर्मात्मा बुद्धिमान् राजा होवे तो इन पुस्तकों का पठन—पाठन,

सुनना—सुनाना, बन्द कर दे और वेदादि सत्य शास्त्रों की यथावत् प्रवृत्ति करा

देवे । तब इस उपद्रव की यथावत् शान्ति होने से सब मनुष्य शिष्ट हो जायें,

अन्यथा नहीं ।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी ।

(योग० समा० ३५)

इस सूत्र के भाष्य में लिखा है कि

एतेन चन्द्रादित्यग्रहमणिप्रदीपरत्नादिषु प्रवृत्तिरुत्पन्ना विषयवत्येव

वेदितव्येति ।

इससे प्रतिमा—पूजन कभी नहीं आ सकता । क्योंकि इन में देवबुद्धि

करना नहीं लिखा । किन्तु जैसे वे जड़ हैं, वैसे ही योगी लोग उनको जानते

हैं । और बाह्यमुख जो वृत्ति, उस को भीतर मुख करने के वास्ते योगशास्त्र

की प्रवृत्ति है । बाहर के पदार्थ का ध्यान करना, योगी लोग को नहीं

लिखा । क्योंकि जितने सावयव पदार्थ हैं, उनमें कभी चित्त की स्थिरता नहीं

होती । और जो होवे तो मूर्तिमान् धन, पुत्र, दारादिक के ध्यान में सब संसार

लगा ही है । परन्तु चित्त की स्थिरता कोई की भी नहीं होती । इस वास्ते

यह सूत्र लिखा

विशोका वा ज्योतिष्मती (योग०समा० ६६)

इसका यह भाष्य है

प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनीत्यनुवर्त्तते । हृदयपुण्डरीके

धारयतो बुद्धिसंवित् बुद्धिसत्त्वं हि भास्वरमाकाशकल्पं तत्र स्थिति—

वैशारघात् प्रवृत्तिः सूर्येन्दुग्रहमणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते । तथाऽस्मितायां

समापन्नं चित्तं निस्तरग्महोदधिकल्पं शान्तमनन्तमस्मितामात्रं भवति ।

यत्रेदमुक्तम्तमणुमात्रमात्मानमनुविघास्मीति एवं तावत् सम्प्रजानीत

इति । एषा द्वयी विशोका विषयवती, अस्मितामात्रा च प्रवृत्ति—

र्ज्योतिष्मतीत्युच्यते यया योगिनश्चित्तं स्थितिपदं लभत इति ।

इसमें यह देखना चाहिये कि हृदय में धारणा चित्त की लिखी । इससे

निर्मल प्रकाशस्वरूप चित्त होता है । जैसा सूक्ष्म विभु आकाश है, वैसी ही

योगी की बुद्धि होती है । तत्र नाम अपने हृदय में विशाल स्थिति के होने

से, बुद्धि की जो शुद्ध प्रवृत्ति, सोई बुद्धि सूर्य, चन्द्र, ग्रह, मणि इन्हों की,

जैसी प्रभा, वैसे ही योगी की बुद्धि समाधि में होती है ।

तथा अस्मिता मात्रा अर्थात् यही मेरा स्वरूप है, ऐसा साक्षात्कार स्वरूप

का ज्ञान बुद्धि को जब होता है, तब चित्त निस्तरग्, अर्थात् निष्कम्प समुद्र

की नाईं एकरस व्यापक होता है । तथा शान्त, निरुपद्रव, अनन्त अर्थात् जिसकी

सीमा न होवे, यही मेरा स्वरूप है, अर्थात् मेरा आत्मा है, सो विगत अर्थात्

शोकरहित जो प्रवृत्ति वही विषयवती प्रवृत्ति कहाती है । उसको अस्मितामात्र

प्रवृत्ति कहते हैं । तथा ज्योतिष्मती भी उसी को कहते हैं । योगी का जो चित्त

है, सोई चन्द्रादित्य आदिक स्वरूप हो जाता है ।

सू०स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ।। (योग० समा० ३८)

भाष्य०स्वप्नज्ञानालम्बनं निद्राज्ञानावलम्बनं वा तदाकारं योगिन—

श्चित्तं स्थितिपदं लभत इति ।

जैसे स्वप्नावस्था में चित्त ज्ञानस्वरूप होके पूर्वानुभूत संस्कारों को

यथावत् देखता है, तथा निद्रा अर्थात् सुषुप्ति में आनन्दस्वरूप ज्ञानवान् चित्त

होता है । ऐसा ही जागृतावस्था में, जब योगी ध्यान करता है, इस प्रकार आलम्ब

से तब योगी का चित्त स्थिर हो जाता है ।

सू०यथाभिमतध्यानाद्वा ।। (योग० समा० ३९)

भाष्य०यद्वाभिमतं तदेव ध्यायेत् तत्र लब्धस्थितिकमन्यत्रापि

स्थितिपदं लभत इति । नासिकाग्रे धारयतो या गन्धसंवित् ।

इससे लेके ट्टनिद्राज्ञानालम्बनं वा’ यहां तक शरीर में जितने चित्त के

स्थिर करने के वास्ते स्थान लिखे हैं, इन्हों में से कोई स्थान में योगी चित्त

को धारण करे ।

जिस स्थान में अपनी अभिमति, उसमें चित्त को ठहराये ।

सू०देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । (योग० विभू० १)

भाष्य०नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूर्ध्नि ज्योतिषि नासिकाग्रे

जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्र्ेाण बन्ध

इति । बन्धो धारणा नाभि—हृदय—मूर्द्धा—ज्योतिः ।

अर्थात् नेत्र, नासिकाग्र, जिह्वाग्र, इत्यादिक देशों के बीच में चित्त को

योगी धारण करे । तथा बाह्य विषय जैसा कि ओटार वा गायत्री मन्त्र, इनमें

चित्त लगावे, हृदय से । क्योंकि

तज्जपस्तदर्थभावनम् । (योग० स० पाद २८)

यह सूत्र है योग का । इसका योगी जप, अर्थात् चित्त से पुनः पुनः

आवृत्ति करे । और इसका अर्थ जो ईश्वर, उसको हृदय में विचारे।

सू०तस्य वाचकः प्रणवः । (योग० स० २७)

ओटार का वाच्य ईश्वर है । और उसका वाचक ओटार है । बाह्य

विषय से इनको ही लेना, और कोई को नहीं । क्योंकि अन्य प्रमाण कहीं

नहीं ।

सू०तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । (योग० विभू० २)

भाष्य०तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृशः प्रवाहः

प्रत्ययान्तरेणापरामृष्टो ध्यानम् ।

तीन देशों में अर्थात् नाभि आदिकों में, ध्येय जो आत्मा, उस आलम्बन

की, और चित्त की एकतानता, अर्थात् परस्पर दोनों की एकता, चित्त आत्मा

से भिन्न न रहे तथा आत्मा चित्त से पृथव्Q न रहे, उसका नाम है, सदृशप्रवाह।

जब चित्त प्रत्येक चेतन से ही युक्त रहे, अन्य प्रत्यय कोई पदार्थान्तर का स्मरण

न रहे, तब जानना कि ध्यान ठीक हुआ ।

सू०तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।

(योग० विभू० ३)

जब ध्याता, ध्यान और ध्येय, इन तीनों का पृथव्Q भाव न रहे, तब

जानना कि समाधि सिद्ध हो गई ।

सू०त्रयमन्तरग्ं पूर्वेभ्यः । (योग० विभू० ७)

यमादिक पांच अगें से धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन अन्तरग्

हैं । और यमादिक बहिरग् हैं ।

सू०भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ।। (विभू० २६)

चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ।। २७ ।।

ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ।। २८ ।।

नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ।। २९।।

मूर्द्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ।। ३२ ।।

प्रातिभाद्वा सर्वम् ।। ३३ ।।

इत्यादिक सूत्रों से यह प्रसिद्ध जाना जाता है कि धारणादिक तीन अग्

आभ्यन्तर के हैं । सो हृदय में ही योगी परमाणु पर्यन्त जितने पदार्थ हैं, उनको

योग ज्ञान से ही योगी जानता है । बाहर के पदार्थों से किञ्चिन्मात्र भी ध्यान

में सम्बन्ध योगी नहीं रखता किन्तु आत्मा से ही ध्यान का सम्बन्ध है, और

से नहीं । इस विषय में जो कोई अन्यथा कहे, सो उसका कहना सब सज्जन

लोग मिथ्या ही जानें । क्योंकि

सू०योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।। (समा० २)

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।। (समा० ३)

जब योगी चित्तवृत्तियों को निरोध करता है, बाहर और भीतर से उसी

वक्त द्रष्टा, जो आत्मा उस चेतनस्वरूप में ही स्थिर हो जाता है, अन्यत्र नहीं।

सू०विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् । (योग० समा० ८)

विपरीत ज्ञान जो होता है, उसी को मिथ्या ज्ञान कहते हैं । उस योगी

को तो योग छोड़ के ही विपरीत होता है, अन्यथा कभी नहीं । इससे क्या

आया कि कोई योगशास्त्र से पाषाणादिक मूर्ति का पूजन कहे, सो मिथ्या

ही कहता है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।

श्लोक

दयाया आनन्दो विलसति परः स्वात्मविदितः,

सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यवचना ।

तदाख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रशरणा,

स को दान्तः शान्तो विदितविदितो वेघविदितः ।।

श्रीदयानन्दसरस्वती स्वामिना विरचितमिदमिति विज्ञेयम् ।।

(356) शंका :- हुगली—शास्त्रार्थ

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(चैत्र शुक्ला एकादशी, संवत् १९३०, ८ अप्रैल, १८७३)

एक पण्डित ताराचरण तर्करत्न नामक भाटपाड़ा ग्राम के निवासी हैं।

जो कि ग्राम हुगली के पार है। उस ग्राम में उनकी जन्मभूमि है परन्तु आजकल

श्रीयुत काशीराज महाराज के पास रहते हैं । संवत् १९२९ में वे अपनी जन्मभूमि

में गये थे । वहां से कलिकाता में भी गये थे और किसी स्थान में ठहरे थे।

जिनके स्थान में मैं ठहरा था, उनका नाम श्रीयुत राजा ज्योतीन्द्र मोहन

ठाकुर तथा राजा शौरीन्द्र मोहन ठाकुर है । उनके पास तीन बार जा—जा करके

ताराचरण ने प्रतिज्ञा की थी कि हम आज अवश्य शास्त्रार्थ करने को चलेंगे।

ऐसे ही तीन दिन तक कहते रहे परन्तु एक वार भी न आये । इस से बुद्धिमान्

लोगों ने उनकी बात झूठी ही जान ली ।

मैं कलिकाता से हुगली में आया और श्रीयुत वृन्दावनचन्द्र मण्डल जी

के बाग में ठहरा था । सो एक दिन उन्होंने अपने स्थान में सभा की । उस

में मैं भी वक्तृत्व करने के लिए गया था तथा बहुत पुरुष सुनने को आये

थे । उनसे मैं अपना अभिप्राय कहता था । वे सब लोग सुनते थे । उसी

समय में ताराचरण पण्डित जी भी वहां आये । तब उनसे वृन्दावन चन्द्रादिकों

ने कहा कि आप सभा में आइये । जो इच्छा हो सो कहिये परन्तु सभा के

बीच में पण्डित ताराचरण नहीं आये । किन्तु ऊपर जाकर दूर से गर्जते थे।

वहां भी उन्होंने जान लिया कि पण्डित जी कहते तो हैं, परन्तु समीप

क्यों नहीं जाते । इससे जैसे वे ताराचरण जी थे, वैसे ही उन्होंने जान लिये।

फिर जब नव घण्टा बज गया, तब लोगों ने मेरे से कहा कि अब समय दश

घण्टा का है । उठना चाहिए । बहुत रात आ गई ।

फिर मैं और सब सभास्थ लोग उठे । उठके अपने—अपने स्थान में

चले गये । फिर मैं बाग में चला आया । उसके दूसरे दिन वृन्दावनचन्द्र मण्डल

जी ने मेरे से कहा कि उस वक्त ताराचरण भी आये थे । जब मैंने उनसे

कहा कि सभा में क्यों नहीं आये ?

उन्होंने कहा किवे तो बड़ा अभिमान करते हैं । तब मैंने उनसे कहा

जो अभिमान करता है, सो पण्डित नहीं होता । किन्तु वह काम मूर्ख

का ही है । और जो पण्डित होता है, सो तो कभी अपने मुख से अपनी

बड़ाई नहीं करता । जो ताराचरण पण्डित जी अभिमान में डूबे जावें, तब

तो उनको मेरे पास एक बार ले आइये । फिर वे अभिमान—समुद्र में डूबने

से बच जायें तो अच्छा हो ।

तब वृन्दावनचन्द्रादिकों ने कहा किआप बाग में चलिये। और जैसी

आपकी इच्छा हो, वैसा शास्त्रार्थ कीजिये । पण्डित जी की कुछ इच्छा न

देखी, तब वृन्दावनचन्द्र से मैंने कहा किआप उनसे कहें कि चिन्ता आप

न करें । स्वामी जी ने हम से कह दिया है कि पण्डित जी प्रसन्नता से आवें।

मैं किसी से विरोध नहीं रखता । तब तो पण्डित जी ने कहा हम चलेंगे ।

सो मग्लवार की सन्ध्या समय में बहुत लोग नगर से शास्त्रार्थ सुनने

को आये ।·

वृन्दावनचन्द्र भी बहुत लोगों के साथ आये तथा पाठशालाओं के अध्यक्ष

श्री भूदेव मुकुर्ज्या आये । तथा श्री हरिहर तर्वQसिद्धान्त पण्डित भी आये ।

उसके पीछे पण्डित ताराचरण जी सशिष्य तथा अपने ग्राम—निवासियों के साथ

आये, जो कि उनके पक्षपाती थे ।

ये सब लोग आ के सभा के स्थान में इकट्ठे भये । तब मैं भी उस

स्थान में आया । फिर यथायोग्य बैठे । तब ताराचरण जी ने प्रतिज्ञा की कि

हम प्रतिमा का स्थापन पक्ष लेते हैं । फिर मैंने कहा कि जो आपकी इच्छा

हो सो लीजिये । मैं तो इस बात का खण्डन ही करूँगा ।

तब उन ने मुझ से कहा कि संवाद में वाद होना ठीक है, वा जल्प

अथवा वितण्डा । उन से मैंने कहा कि वाद ही होना उचित है । क्योंकि

जल्प और वितण्डा सज्जनों को करना कभी उचित नहीं । वाद गौतमोक्त

लेना । तब उन्होंने भी स्वीकार किया ।

फिर दूसरी यह प्रतिज्ञा उस समय में की गई कि चार वेद तथा चार

उपवेद, छः वेदों के अग् और छः दर्शन मुनियों के किये तथा मुनि और

ऋषियों के किये छः शास्त्रों के व्याख्यान, उन्हीं के वचन प्रमाण से ही कहना।

अन्य कोई का प्रमाण नहीं । तब उस ने भी स्वीकार किया, मैंने भी ।

·तर्करत्नपातञ्जलसूत्रम्

चित्तस्य आलम्बने स्थूल आभोगो वितर्वQः । इति व्यासवचनम् ।

तर्करत्न के हाथ में पुस्तक भी थी । उसको देखा । तब भी मिथ्या

ही उसने लिखा । क्योंकि योग—शास्त्र पढ़ा होय, तब उस शास्त्र को जान

सकता है । तर्करत्न ने पढ़ा तो था नहीं । इससे उसने अशुद्ध लिखा । देखना

चाहिये कि ऐसा पातञ्जल—शास्त्र में सूत्र ही नहीं है । किन्तु ऐसा सूत्र तो

है

विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी, इति ।

सो इस सूत्र के व्याख्यान में ट्टट्टनासिकाग्रे धारयत’’ इत्यादिक वहां लिखा

है । यह तो उसने जाना भी नहीं । इससे उनका लिखना भ्रष्ट है । फिर लिखते

हैं कि

इति व्यासवचनम् ।

इस प्रकार का वचन व्यास जी ने कहीं योगशास्त्र की व्याख्या में नहीं

लिखा । इससे यह भी उनका वचन भ्रष्ट ही है । फिर यह लिखा कि

स्वरूपे साक्षाद्वती प्रज्ञा आभोगः स च स्थूल—विषयत्वात् स्थूल इत्यादि।

यह भी उनका लिखना अशुद्ध ही है । क्योंकि प्रतिज्ञा तो ऐसी पूर्व

की गई थी कि वेदादिक शास्त्र—वचनों से ही प्रतिमा पूजन का स्थापन

हम करेंगे । और वचन फिर लिखा वाचस्पति का । इससे तर्करत्न की

प्रतिज्ञा—हानि हो गई । प्रतिज्ञा की हानि होने से उनका पराजय हो गया।

क्याेंकिप्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरमित्यादिक निग्रह—स्थान होते हैं । यघपि हम

को जय तथा पराजय की इच्छा कभी नहीं है, तथापि गौतम मुनि जी ने छब्बीस

निग्रह—स्थान लिखे हैं ।

·जहां—जहां तर्करत्न शब्द आवे, वहां—वहां ताराचरण पण्डित जी को जान

लेना । और जहां—जहां स्वामी शब्द आवे, वहां—वहां दयानन्द सरस्वती स्वामी जी को

जान लेना ।

निग्रह स्थान सब पराजय के स्थान ही होते हैं । और, पहले प्रतिज्ञा

की थी कि जल्प और वितण्डा न करेंगे । फिर जाति—साधन से प्रतिमा

का स्थापन करने लगे । क्योंकि प्रतिमा भी स्थूल साधर्म्य से आती है ।

स्वामी जी

यावान् जागरितावस्थाविषयः तावान् सर्वः स्थूलः कुत, इत्यादि।

मैंने उनको ज्ञापक से जना दिया कि ये गृहस्थ हैं । इनकी अप्रतिष्ठा

न हो जाय । तदपि उसने कुछ भी नहीं जाना । जानें तो तब, जब कुछ शास्त्र

पढ़ा हो । अथवा बुद्धि शुद्ध हो ।

साधर्म्यवैधर्म्योत्कर्षापकर्षेत्यादिक चौबीस प्रकार का शास्त्रार्थ जाति के

विषय में गौतम मुनि जी ने लिखा है । इसके नहीं जानने से जल्प और वितण्डा

तर्करत्न ने किये । क्योंकि

यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः ।।१।।

सप्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।।२।।

जैसा कि इन सूत्रों का अभिप्राय है, वैसा ही तर्करत्न जी ने प्रतिमापूजन

का स्थापन करने में जल्प और वितण्डा ही किया ।

इससे दूसरे बेर प्रतिज्ञा—हानि उसने की । द्वितीय पराजय उनका हुआ।

यदुक्तं भवता तेनैव प्रतिमापूजनमेव सिद्ध्यत्येव तस्य स्थूलत्वात्।

इसमें तीन बेर ट्टएव’ शब्द लिखने से यह जाना गया कि ताराचरण

जी को संस्कृत का यथावत् बोध भी नहीं है । इससे तर्करत्न जी अभिमान

में डूबे जाते हैं क्योंकि हम बड़े पण्डित हैं । इस प्रकार का जो स्वमुख से

कहना है, सोई विघाहीनता को जनाता है । फिर लोकान्तरस्थ शब्द से मैंने

उनको जनाया कि जो चतुर्भुज को आप लेते हो, सो तो वैकुण्ठ में सुने जाते

हैं । ट्टट्टउप’’ अर्थात् समीप ट्टट्टआसना’’ अर्थात् स्थिति सो मनुष्य लोक में रहने

वाला कैसे कर सकेगा ? कभी नहीं, और जो पाषाणादिक की मूर्ति शिल्पी

की रची भई सो तो विष्णु है नहीं । तब भी पण्डित जी कुछ नहीं समझे,

क्याेंकि जो कुछ विघा पढ़ी होती, अथवा सत्पुरुषों का सग् किया होता तो

समझ जाते । सो तो कभी किया नहीं । इससे ताराचरण जी उस बात को

न समझ सके । फिर एक कहीं से सुनी सुनाई ब्राह्मण की श्रुति विना प्रसग्

से पढ़ी । सो यह है

अथ स यदा पित¤नावाहयति पितृलोकेन तेन सम्पन्नो महीयते ।

इस श्रुति से लोकान्तरस्थ की भी उपासना आती है । इस अभिप्राय

से देखना चाहिए । इस श्रुति में उपासना लेशमात्र नहीं आती । क्योंकि यह

श्रुति जिस योगी को अणिमादिक सिद्धि हो गई हैं, वह सिद्ध जिस—जिस लोक

में जाने की इच्छा करता है, उस—उस लोक को उसी समय प्राप्त होता है।

सो जब पितृलोक में जाने की इच्छा करता है, पितृलोक को प्राप्त होके आनन्द

करता है । क्योंकि तेन पितृलोकेन महीयते ।

इत्युक्तत्वात् । ऐसे इच्छा मात्र से ही ब्रह्मलोकादिक में विहार करता

है । इससे इस श्रुति में मरकर उस लोक में जाता है, अथवा पितरों की उपासना

इस लोक में करता है, इस अभिप्राय के नहीं होने से, ताराचरण जी का कहना

मिथ्या ही है । इससे क्या आया कि अर्थान्तर का जो कहना है, सो निग्रह—

स्थान ही है । निग्रह—स्थान के होने से पराजय हो गया ।

स्वामी जी

सर्वः स्थूल इत्यनेनेत्यादि देहान्तरगतस्य प्राप्तित्वादिति दिव्ययोग

देहप्राप्तित्वाघोगिनो न तु प्राकृतदेहस्य माहात्म्यमिदमित्यर्थस्य जागरूकत्वात्

देहान्तरम् ।

अर्थात् जो दिव्य योगसिद्धियों से प्राप्त होता है, उस देह से यह बात

होती है । और जो अयोगी का देह नाम शरीर, उससे कभी यह बात नहीं

होती ।

तर्करत्न

प्रथमतः अस्माभिरित्यादि०

दूषण अथवा भूषण का ज्ञान तो, विघा होने से होता है । अन्यथा नहीं।

क्योंकि दूषण तो आपके वचनों में है, परन्तु आपने नहीं जाने । यह आपकी

बुद्धि का दोष है । जो आपने प्रत्यक्ष दिखाये दूषणों को भी नहीं जाना । ऐसे

दूषणों को तो बालक भी जान सकता है ।

तन्मध्ये प्रतिमापि वर्तते इत्येवेत्यादि० ।

आप देख लीजिये कि हम वाद ही करेंगे, जल्प और वितण्डा कभी

नहीं ।

स्वामी जी

फिर बार—बार स्थूलत्व साधर्म्य से ही प्रतिमापूजन स्थापन किया चाहते

हो । सो अपनी प्रतिज्ञा को आप ही नाश करते हैं । और फिर चाहते हो

कि हमारा विजय होवे । सो कभी नहीं हो सकता है । क्योंकि विजय तो

पूर्ण विघा और सत्य भाषण करने से होता है । सो आप में एक भी नहीं।

इससे आप विजय की इच्छा कभी मत करो । किन्तु आपको अपने पराजय

की इच्छा करनी, उचित है । किञ्च जो आप लोगों की इच्छा होवे तो वेदादिक

सत्यशास्त्रों को अर्थ—ज्ञान सहित पढ़ेंगे तथा पढ़ावेंगे, तब फिर आप लोगों

का पराजय कभी न होगा । किन्तु सर्वत्र विजय ही होगा । अन्यथा नहीं ।

दृष्टान्तत्वेनेत्यादि० छान्दोग्य०

दहर विघायामित्यादि० चेति ।

उस श्रुति का एक अंश दार्ष्टान्त में नहीं मिलने से, वह आपका कहना

मिथ्या ही है । सो मैंने कह दिया । पहले उससे जान लेना ।

यह किसने कहा कि जीवित पुरुष को उपासना का अधिकार नहीं

है । सो यह आपका कहना मिथ्या ही है । क्योंकि ब्रह्मविघा का और पाषाणादिक

मूर्तिपूजन का क्या प्रसंग है ? कुछ भी नहीं । इससे यह भी अर्थान्तर है ।

अर्थान्तर के होने से निग्रहस्थान अर्थात् पराजय स्थान आपका है । सो आप

यथावत् विचार करके जान लेवें ।

तर्करत्न

प्रथमतः अस्माभिः यत् भवत्पक्ष इत्यादि तत्र प्रतिमापि वर्त्तते इत्येवेति।

आप जान लेवें कि साधर्म्य हेतु प्रमाण से ही बोलते हैं । इससे आपके

कहे जितने दूषण हैं, वे सब आपके ऊपर ही आ गये ।

स्वामी जी

क्योंकि आपकी प्रतिज्ञा अर्थात् वाद ही हम करेंगे, ऐसा प्रथमतः कह

चुके हैं । फिर जल्प और वितण्डा ही बारम्बार करते हैं । इससे अपना पराजय

आप ही कर चुके । क्योंकि आपको जो विघा और बुद्धि होती तो कभी ऐसी

भ्रष्ट बात न करते और निग्रहस्थान में बारम्बार न आते । आपको संस्कृत

भाषण करने का भी यथावत् ज्ञान नहीं है । क्योंकि

प्रथमतः अस्माभिः यत्

ऐसा भ्रष्ट असम्बद्ध भाषण कभी न करते ।

किञ्च

प्रथमतोऽस्माभिर्यत्

ऐसा श्रेष्ठ और सम्बद्ध संस्कृत ही कहते ।

दृष्टान्ते सर्वविषयाणां साम्यप्रयोजनं नास्तीति ।

यह भी आपका कहना भ्रष्ट ही है । क्योंकि मैंने कब ऐसा कहा था

कि सब प्रकार से दृष्टान्त मिलता है । वह श्रुति एक अंश से भी आपके

अभिप्राय से मिलती नहीं । इसमें मैंने कहा कि इस श्रुति का पढ़ना आपका

मिथ्या ही है । ऐसा ही आपका कहना सब भ्रष्ट है ।

भवत्पक्ष इत्यादि तत्र प्रतिमापि वर्त्तते० ।

यह आपका जो कहना है, सो प्रतिज्ञान्तर ही है । क्योंकि स्थूलत्व तुल्य

जो प्रतिमा में और गर्दभादिकों में है । इस हेतु से ही प्रतिमा—पूजन का स्थापन

करा चाहते हो । सो फिर भी जल्प और वितण्डा ही आती है, वाद नहीं।

इससे बारम्बार आपका पराजय होता गया । फिर भी आपको बुद्धि वा लज्जा

न आई । यह बड़ा आश्चर्य जानना चाहिए कि अभिमान तो पण्डितता का

करें और काम करें अपण्डित का ।

तर्करत्न

प्रतिमापि वर्त्तते इत्यादि अयं तु प्रकृतविषयस्य साधकः न तु

प्रतिज्ञान्तरं इत्यादि ।

स्वामी जी

प्रकृत विषय यही है कि प्रतिमापूजन का स्थापन, सो स्थापना वाद से

और वेदादिक सत्यशास्त्रों के प्रमाण से ही करना । फिर उस प्रतिज्ञा को छोड़

के जल्प तथा वितण्डा और मिथ्या कल्पित वचन ये वाचस्पत्यादिकों के उनसे

स्थापन करने में लग गये । अहो इत्याश्चर्य कि ताराचरण जी की बुद्धि विघा

के विना बहुत छोटी है । जो प्रतिज्ञा करके शीघ्र ही भूल जाती है । यह

आपका दोष नहीं किन्तु आपकी बुद्धि का दोष है । और आपके काम,

क्रोध, अविघा, लोभ, मोह, भय, विषयासक्त्यादिक दोषों का दोष है । तर्करत्न

जी ! यह आप देख लीजिए कि कितने बड़े—बड़े दोष आप में हैं ?

प्रथम तो प्रतिमा—पूजन का स्थापन पक्ष लेके फिर जब कुछ भी स्थापना

न हो सकी ।

उपासनामात्रमेव भ्रममूलम् ।

अपने आप ही खण्डन प्रतिमा—पूजन का करने लगे कि भ्रममूल अर्थात्

प्रतिमा—पूजन मिथ्या ही है । इससे अपने पक्ष का आपने ही खण्डन कर दिया।

फिर मिथ्या ग्रन्थ, जो पञ्चदशी, उसके प्रमाण देने लग गये । और जो प्रथम

वेदादिक जो बीस सनातन ऋषि मुनियों के किये मूल और व्याख्यान तथा

परमेश्वर के किये चार वेद इनके प्रमाण से बोलेंगे, सो आपकी प्रतिज्ञा मिथ्या

हो गई । प्रतिज्ञा के मिथ्या होने से आपका पराजय भी हो गया फिर

भ्रान्तिरस्माकं न दूषणीया ।

वह भी पहले आपका कहना है । सो कोई भी पण्डित न कहेगा के

भ्रान्तिभूषण होता है । यह तो आपकी भ्रान्त बुद्धि का ही वैभव है और जो

सज्जन लोग हैं, वे तो भ्रान्ति को दूषण ही जानते हैं । तथा

भ्रमः खलु द्विविधः । इत्यादि०

यह पञ्चदशी का वचन है । यह प्रतिज्ञा से विरुद्ध ही है क्योंकि वेदादि

शास्त्रों में इसकी गणना नहीं है ।

पाषाणादि की रचित मूर्ति में देव बुद्धि का जो कर्त्ता है सो दीपप्रभा

में मणिभ्रम की नाईं ही है, क्योंकि दीप तो कभी मणि न होगा, और मणि

तो सदा मणि ही रहेगा । सो आपने मुख से तो कहा परन्तु हृदय में शून्यता

के होने से कुछ भी नहीं जाना । ऐसा ही आपका सब कथन भ्रष्ट है । आपको

जो कुछ भी ज्ञान होय, तब तो जान सकते, अन्यथा नहीं ।

तर्करत्न जी ने आगे—आगे जो कुछ कहा है, सो—सो भ्रष्ट ही है ।

बुद्धिमान् लोग विचार लेवें । ताराचरण जी इस प्रकार के मनुष्य हैं कि कोई

बुद्धिमान् के सामने जैसा बालक । और भाषण वा श्रवण करने के योग्य

भी नहीं, क्योंकि जिसको बुद्धि और विघा होती है, सोई कहने वा श्रवण

में समर्थ होता है । सो तर्करत्न जी में न बुद्धि है, और न कुछ विघा है।

इससे न कहने, न सुनने में समर्थ हो सकते हैं । इनका नाम जो तर्करत्न

किसी ने रखा है सो अयोग्य ही रखा है । क्योंकि

अविज्ञाते तत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्वQः ।

यह गौतम मुनि जी का सूत्र है । इसका यह अभिप्राय है कि जिस

पदार्थ का तत्त्वज्ञान अर्थात् जिसका यथावत् स्वरूप ज्ञान न होवे, उसके ज्ञान

के वास्ते कारण अर्थात् हेतु और प्रत्यक्षादि प्रमाणों की उपपत्ति अर्थात् यथावत्

युक्ति से ऊह नाम वितर्वQ अर्थात् विविध विचार और युक्तिपूर्वक विनयपूर्वक

श्रेष्ठों से, विविध वाक्य कहना, उसे तर्वQ कहते हैं । तर्वQ सो इसका लेशमात्र

सम्बन्ध भी ताराचरण जी में नहीं होने से, तर्करत्न तो नाम अनर्थक है ।

किन्तु इनके कथन में थोड़े से दोष मैंने दिखाये हैं । जैसा कि समुद्र

के आगे एक विन्दु । किन्तु उनके भाषण में केवल दोष ही हैं, गुण एक

भी नहीं सो विद्वान् लोग विचार कर लेवें ।

वे ही ये ताराचरण जी हैं कि जब काशी नगर के पण्डितों से आनन्दबाग

में सभा भई थी उसमें बहुत विशुद्धानन्द स्वामी तथा बालशास्त्री इत्यादिक

पण्डित आये थे । उनके सामने डेढ़ पहर तक एक बात में मौन करके बैठे

रहे थे । दूसरी बात भी मुख से नहीं निकली थी और जो उनका कुछ भी

सामर्थ्य होता तो अन्य पण्डित लोग क्यों  शास्त्रार्थ करते । जब उसने

उपासनामात्रमेव भ्रममूलम् ।

कहा, उसी वक्त श्री भूदेव मुखर्ज्या आदिक श्रेष्ठ लोग उठ गये कि

पण्डित आये तो प्रतिमा—पूजन का स्थापन करने को, किन्तु वह अपना आप

खण्डन कर चुके । पण्डित कुछ भी नहीं जानते हैं । ऐसा कहके उठके

चले गये। फिर अन्य पुरुषों से उसने कहा कि पण्डित हार गया ।

स्वामी

श्रीमत्कथनेनैव प्रतिमापूजनविघातो जात एवेति शिष्टा विचारयन्तु।

ताराचरण जी से मैंने कहा कि आपके कहने से ही प्रतिमा—पूजन का

विघात अर्थात् खण्डन हो गया और मैं तो खण्डन करता ही हूं ।

फिर पण्डित जी चुप होके ऊपर के स्थान में चले गये। उसके पीछे

मैं भी ऊपर जाने को चला । तब पण्डित सीढ़ी में मिले । मैंने उनका हाथ

पकड़ लिया । और, कहा कि ऊपर आओ । फिर ऊपर जाके सब

वृन्दावनचन्द्रादिकों के सामने उन पण्डित ताराचरण से मैंने कहा कि आप

ऐसा बखेड़ा क्यों करते फिरते हैं ?

तब वे बोले कि मैं तो काक—भाषा का खण्डन करता हूं । और सत्यशास्त्र

पढ़ने तथा पढ़ाने का उपदेश भी करता हूं । और पाषाणादिक मूर्तिपूजन भी

मिथ्या ही जानता हूं परन्तु मैं जो सत्य—सत्य कहूं तो मेरी आजीविका नष्ट

हो जाये तथा काशीराज महाराज जो सुनें तो मुझ को निकाल बाहर कर देवें।

इस से मैं सत्य—सत्य नहीं कह सकता हूं । जैसे कि आप सत्य—सत्य

कहते हैं ।

देखना चाहिए कि इस प्रकार के मनुष्यों से जगत् का उपकार तो कुछ

नहीं बनता; किन्तु अनुपकार ही सदा बनता है । विना सत्य उपदेश के उपकार

कभी नहीं हो सकता । इतना मुझ को अवकाश नहीं है कि मिथ्यावादी

पुरुषों के साथ सम्भाषण किया करूँ । जो—जो मैंने लिखा है, इसमें इसी से

सज्जन लोग जान लेवें ।

(महर्षि के पत्र विज्ञापन, लेखराम पृ० २२३—२२५, दिग्विजयार्वQ पृ० ११)

 

(357) शंका :- जातिपांति और ईश्वर—विषयक

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

श्री चक्रवर्ती के प्रश्न तथा उनके उत्तर का विवरण

प्रश्नजातिभेद है या नहीं ?

उत्तरमनुष्य एक जाति, पशु एक जाति, पक्षी एक जाति, जातिभेद

इसी प्रकार है ।

उनके इस उत्तर को सुनकर हम मौन हो गये तब स्वामी जी ने कहा

कि तुम्हारा प्रश्न कदाचित् यह है कि वर्णभेद है या नहीं ? हमने कहा यही

हमारा अभिप्राय है । स्वामी जी ने कहा निस्सन्देह वर्णभेद है। जो वेदज्ञ और

पण्डित है, वह ब्राह्मण; जो उससे न्यून और ज्ञानवान् हैं वे क्षत्रिय; जो व्यापार

करते हैं वे वैश्य और जो मूर्ख हैं वे शूद्र हैं । और जो महामूर्ख वे अतिशूद्र

हैं । तब हम बहुत प्रसन्न हुए और इसी से स्वामी जी पर हमारी भक्ति आई।

दूसरा प्रश्नहमारा यह था कि ईश्वर मूर्तिवाला साकार है या निराकार?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि वर्त्तमान संस्कृत पुस्तकों में तो बहुत से

ईश्वर बताये हैं । तुम कौन सा ईश्वर चाहते हो, सच्चिदानन्द आदि लक्षणवाला

चाहते हो तो वह ईश्वर एक है और निराकार है ।

हम ने पूछा कि वह जो संसार का स्वामी है उसका आकार है या

नहीं? स्वामी जी ने उत्तर दिया उसका आकार नहीं है । वह तो सच्चिदानन्द

है, यही उसका लक्षण है ।

चौथा प्रश्न हम ने चौथा प्रश्न पूछा कि उसके मिलने का क्या उपाय

है ? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि बहुत दिन तक योग करने रूपी कर्म से

ईश्वर की उपलब्धि होती है ।

हमने पूछावह योग किस प्रकार का है ? उस पर स्वामी जी ने अष्टाग्

योग की बातें हम को लिख दीं । वह कागज हमारे पास है और मौखिक

इस प्रकार समझाया कि जब रात तीन घड़ी शेष रह जाये उस समय उठकर

मुंह हाथ धो पद्मासन लगाये । जहां तुम्हारी इच्छा हो बैठो, परन्तु स्थान निर्जन

हो । गायत्री का अर्थ सहित ध्यान करो और वह अर्थ भी लिख दिया जो

अब तक मेरे पास विघमान है । (लेखराम पृष्ठ २१५—२१६)

(358) शंका :- पुराण किसने बनाये ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० रुद्रदत्त और पं० चन्द्रदत्त पौराणिक से

आरा में शास्त्रार्थअगस्त, १८७२)

पं० रुद्रदत्त और पं० चन्द्रदत्त पौराणिक से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ हुआ

था । पं० रुद्रदत्त ने मूर्तिपूजा के पक्ष में पुराणों के प्रमाण प्रस्तुत किये । स्वामी

जी ने उन्हें यह कहकर आग्रह किया किहम वेद, पाणिनि और मनुस्मृति

(प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर) के सिवाय अन्य ग्रन्थों का प्रमाण नहीं

मानते ।

तत्पश्चात् यह प्रसंग उठा कि पुराण किसने बनाये । स्वामी जी ने कहा

किवञ्चक लोगों  के रचे हुए हैं । कुरुक्षेत्र के युद्ध में प्रायः सारे ही राजा

मर गये थे, राजगृह की स्त्रियां उत्पथगामिनी हो गईं, ब्राह्मण असहाय हो गये,

अनेक प्रकार के वञ्चक लोग उत्पन्न हो गये, उन्होंने पुराणादि की रचना

कर डाली, उन्होंने यह भी कहा कि महाभारत का युद्ध भारतवर्ष की अनेक

प्रकार की अवनतियों का मूल हुआ है । तन्त्र—ग्रन्थों के विषय में स्वामी जी

ने अनेक बातें कहीं । जिन्हें सुनकर पं० रुद्रदत्त चिढ़ गये और चटक कर

बोले किऐसी बातें अश्राव्य हैं, इस स्थान से चले जाना ही उचित है । स्वामी

जी ने कहा किआप तो कुछ विचार करते नहीं, इसी से किसी परिणाम

पर नहीं पहुंचते । वेदान्त का प्रसग् उठने पर स्वामी जी ने प्रमाण—चैतन्य,

प्रमेय—चैतन्य और प्रमातृ—चैतन्य के विषय में प्रश्न किये जिनके उत्तर यथामति

पं० रुद्रदत्त ने दिये ।

स्वामी जी दीप्त प्रभाकर के समान थे । उनके गम्भीर विचार और

अतिमानुषिक प्रतिभा के सामने पं० रुद्रदत्त प्रभृति कितनी देर ठहर सकते

थे । वे अपना श्रेय सभा—स्थल से शीघ्रादपि शीघ्र चले जाने में ही समझते

थे । वे केवल वहां से चले जाने का बहाना ढूंढते थे । अतः जब स्वामी

जी ने तन्त्र ग्रन्थों की तीव्र आलोचना की तो उन्होंने यह प्रकट किया कि

उक्त आलोचना असह्य है और सभास्थल से उठकर चले गये ।

(देवेन्द्रनाथ १।२१२)

(359) शंका :- गीता के श्लोक का अर्थ

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- विविध

समाधान :-

(एक सज्जन से मिरजापुर में प्रश्नोत्तरअप्रैल, १८७०)

एक दिन एक सज्जन जो गीता का बड़ा प्रेमी था, स्वामी जी के पास

आकर बोला किमहाराज मैंने गीता की अनेक टीकाएँ देखी हैं परन्तु इस

श्लोकार्ध का अर्थ समझ में नहीं आया । आप अनुग्रह करके इसका अर्थ

मुझे समझा दें ।

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

स्वामी जी ने इसका अर्थ किया कि धर्म्मान्’’ शब्द को यहां

अधर्म्मान्’’ समझना चाहिये । ट्टट्टशकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्’’ व्याकरण

के नियम के अनुसार ट्टट्टसर्व’ में जो वकार में अकार है वह ट्टट्टअधर्म्मान्’’

के अकार में तद्रूप हो गया, अर्थात् वह वकार का अकार उसमें मिल गया,

इस प्रकार यघपि ट्टट्टअधर्म्मान्’’ शब्द ने ट्टट्टधर्म्मान्’’ का रूप ग्रहण कर लिया,

परन्तु वास्तव में ट्टट्टअधर्म्मान्’’ ही रहा । यह अर्थ सुनकर वह मनुष्य बहुत

प्रसन्न हुआ और स्वामी जी से उसने इस अर्थ की पुष्टि में प्रमाण मांगा तो

उन्होंने वेद के दो तीन मन्त्रों का प्रमाण देकर उसका सन्तोष कर दिया ।

(देवेन्द्रनाथ १।१९१, लेखराम १९८)

(360) शंका :- धर्म क्या है ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(मिर्जापुर के रामरतन लड्ढा से शास्त्रार्थमाघ, सं० १९२६ वि०)

इतने में रामरतन लड्ढा ने कहा किमहाराज यह हमारे मिर्जापुर के

पण्डित हैं, आप इनके सामने कुछ कहें । स्वामी जी ने उससे पूछा कितुम

किस मन्दिर के शिष्य हो ? उसने कहा कि हम नाथ जी के शिष्य हैं ।

स्वामी जी ने कहा कितुम्हारा आचार्य वेश्या—पुत्र और तुम उसके शिष्य

हुए, यह तुम को अनधिकार है । स्वामी जी ने हम से पूछा कि इनको

अधिकार है या नहीं ? हम ने कहा कि अधिकार नहीं । फिर स्वामी जी

ने हम से पूछा धर्म क्या है और उसका स्वरूप क्या है ? हम ने कहा कि

आपके इस कथन में दोष है । बोले इसमें क्या दोष है ? हम ने कहा

धर्म का रूप नहीं है, उसका स्वरूप पूछना अनुचित है । तब स्वामी जी ने

मनुस्मृति और महाभारत से धर्म का स्वरूप बतलाना आरम्भ किया । हम

ने कहा कि जो वेद का प्रतिपादित है वही धर्म है ।

तथाकथित प्रतिष्ठा आदि के मन्त्रों में प्रतिष्ठा न निकली न आवाहन।

तब स्वामी जी ने पूछा कि वेद में प्रतिमापूजन है या नहीं ? हम ने उत्तर

दिया कि है । उस पर स्वामी जी ने कहा किकहां ? हम ने कहा किप्रतिष्ठा

और आवाहन वेदमन्त्रों से होता है क्या वह प्रमाण नहीं । तब स्वामी जी ने

कहा किवह प्रतिष्ठा और आवाहन का वेदमन्त्र कहो । तब हम ने मन्त्र

कहा । स्वामी जी ने कहा किइसका अर्थ कहो । जब अर्थ किया तो उनमें

प्रतिष्ठा और आवाहन का कुछ प्रयोजन न आया । फिर हमने पूजन और

पुष्प चढ़ाने और धूप दीप नैवेघ आदि के मन्त्र उनके आगे पढ़े । उनका

अर्थ भी स्वामी जी ने सुनाया कि इनका अर्थ तो यह है फिर तुम उनसे

कैसे नैवेघ आदि चढ़ाते हो । और नवग्रह पूजा के जो मन्त्र हैं उनका भी

अर्थ देखिये । उनका अर्थ भी करके सुनाया । उससे भी सूर्य और बृहस्पति

के अतिरिक्त किसी ग्रह का सम्बन्ध न निकला । (लेखराम पृष्ठ १९५)

(361) शंका :- काशी—शास्त्रार्थ

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

कार्तिक सुदि १२, संवत् १९२६

काशी—शास्त्रार्थ (वैदिक यन्त्रालय काशी में मुद्रित, संवत् १९३७ के अनुसार)

भूमिका

मैं पाठकों को इस काशी के शास्त्रार्थ का (जो कि संवत् १९२६, मि०

कार्तिक सुदि १२, मंगलवार के दिन स्वामी दयानन्द सरस्वती जी’’ का

काशीस्थ स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती’ तथा बालशास्त्री’ आदि पण्डितों के

साथ हुआ था ।) तात्पर्य सहज में प्रकाशित होने के लिये विदित करता हूं ।

इस संवाद में स्वामी जी का पक्ष पाषाणमूर्तिपूजादिखण्डन—विषय और

काशीवासी पण्डित लोगों का मण्डन का विषय था । उनको वेद—प्रमाण से

मण्डन करना उचित था सो कुछ भी न कर सके । क्योंकि जो कोई भी

पाषाणादि मूर्तिपूजादि में वैदिक प्रमाण होता तो क्यों न कहते और स्वपक्ष

को वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किये विना वेदों को छोड़कर अन्य मनुस्मृति आदि

ग्रन्थ वेदों के अनुकूल हैं वा नहीं, इस प्रकरणान्तर में क्यों जा गिरते ? क्योंकि

जो पूर्व प्रतिज्ञा को छोड़ के प्रकरणान्तर में जाना है वही पराजय का स्थान

है । ऐसे हुए पश्चात् भी जिस—जिस ग्रन्थान्तर में से जो—जो पुराण आदि शब्दों

से ब्रह्मवैवर्त्तादि ग्रन्थों को सिद्ध करने लगे थे सो भी सिद्ध न कर सके ।

पश्चात् प्रतिमा शब्द से मूर्तिपूजा को सिद्ध करना चाहा था वह भी न हो

सका । पुनः पुराण शब्द विशेष्य वा विशेषणवाची इस में स्वामी जी का पक्ष

विशेषणवाची और काशीस्थ पण्डितों का पक्ष विशेष्यवाची सिद्ध करना था,

इसमें बहुत इधर उधर के वचन बोले परन्तु सर्वत्र स्वामी जी ने विशेषणवाची,

पुराण शब्द को सिद्ध कर दिया और काशीस्थ पण्डित लोग विशेष्यवाची सिद्ध

नहीं कर सके । सो आप लोग देखिए कि शास्त्रार्थ की इन बातों से क्या

ठीक—ठीक विदित होता है ।

और भी देखने की बात है कि जब माधवाचार्य दो पत्रे निकाल के

सब के सामने पटक के बोले थे कि यहां पुराण शब्द किस का विशेषण

है उस पर स्वामी जी ने उसको विशेषणवाची सिद्ध कर दिया परन्तु काशी—

निवासी पण्डितों से कुछ भी न बन पड़ा । एक बड़ी शोचनीय यह बात उन्होंने

की जो किसी सभ्य मनुष्य के करने योग्य न थी कि ये लोग सभा में काशीराज

महाराज और काशीस्थ विद्वानों के सम्मुख असभ्यता का वचन बोले । क्या

स्वामी जी के कहने पर भी काशीराज आदि चुप होके बैठे रहें और बुरे वचन

बोलने वालों को न रोकें ? क्या स्वामी जी का पांच मिनट दो पत्रों के देखने

में लगाके प्रत्युत्तर देना विद्वानों की बात नहीं थी ? और क्या सब से बुरी

बात यह नहीं थी कि सब सभा के बीच ताली शब्द लड़कों के सदृश किया

और ऐसे महा असभ्यता के व्यवहार करने में कोई भी उनको रोकने वाला

न हुआ? और क्या एकदम उठके चुप होके बगीचे से बाहर निकल जाना

और क्या सभा में वा अन्यत्र झूठा हल्ला करना धार्मिक और विद्वानों के आचरण

से विरुद्ध नहीं था ?

यह तो हुआ सो हुआ परन्तु एक महा खोटा काम उन्होंने और किया

जो सभा के व्यवहार से अत्यन्त विरुद्ध है कि एक पुस्तक स्वामी जी की

झूठी निन्दा के लिए काशीराज के छापेखाने में छपाकर प्रसिद्ध किया और

चाहा कि उन की बदनामी करें और करावें परन्तु इतनी झूठी चेष्टा किये

पर भी स्वामी जी उनके कर्मों पर ध्यान न देकर वा उपेक्षा करके पुनरपि

उनको वेदोक्त उपदेश प्रीति से आज तक बराबर करते ही जाते हैं । और

उक्त २६ के संवत् से लेके अब संवत् १९३७ तक छठी वार काशी जी में

आके सदा विज्ञापन लगाते जाते हैं कि पुनरपि जो कुछ आप लोगों ने वैदिक

प्रमाण वा कोई युक्ति पाषाणादि मूर्तिपूजा आदि के सिद्ध करने के लिये पाई

हो तो सभ्यतापूर्वक सभा करके फिर भी कुछ कहो वा सुनो । इस पर भी

कुछ नहीं करते । यह भी कितने निश्चय करने की बात है परन्तु ठीक है

कि जो कोई दृढ़ प्रमाण वा युक्ति काशीस्थ पण्डित लोग पाते अथवा कहीं

वेदशास्त्र में प्रमाण होता तो क्या सम्मुख होके अपने पक्ष को सिद्ध करने

न लगते और स्वामी जी के सामने न होते ?

इससे यही निश्चित सिद्धान्त जानना चाहिए कि जो इस विषय में स्वामी

जी की बात है वही ठीक है । और देखो ! स्वामी जी की यह बात संवत्

१९२६ के विज्ञापन से भी कि जिसमें सभा के होने के अत्युत्तम नियम छपवा

के प्रसिद्ध किये थे सत्य ठहरती है ।

उस पर पण्डित ताराचरण भट्टाचार्य ने अनर्थयुक्त विज्ञापन छपवा के

प्रसिद्ध किया था । उस पर स्वामी जी के अभिप्राय से युक्त दूसरा विज्ञापन

उसके उत्तर में पण्डित भीमसेन शर्मा ने छपवाकर कि जिसमें स्वामी विशुद्धानन्द

सरस्वती जी और बालशास्त्री जी से शास्त्रार्थ होने की सूचना थी, प्रसिद्ध

किया था, उस पर दोनों में से कोई एक भी शास्त्रार्थ करने में प्रवृत्त न हुआ।

क्या अब भी किसी को शटा रह सकती है जो—जो स्वामी जी कहते हैं वह

सत्य है वा नहीं ? किन्तु निश्चय करके जानना चाहिए कि स्वामी जी की

सब बातें वेद और युक्ति के अनुकूल होने से सर्वथा सत्य ही हैं ।

और जहां छान्दोग्य उपनिषद् आदि को स्वामी जी ने वेद नाम से कहा

है वहां वहां उन पण्डितों के मत के अनुसार कहा है किन्तु ऐसा स्वामी जी

का मत नहीं । स्वामी जी मन्त्रसंहिताओं ही को वेद मानते हैं क्योंकि जो

मन्त्रसंहिता हैं वे ईश्वरोक्त होने से निर्भ्रान्त, सत्यार्थयुक्त हैं और ब्राह्मणग्रन्थ

जीवोक्त अर्थात् ऋषि, मुनि आदि विद्वानों के कहे हैं वे भी प्रमाण तो हैं परन्तु

वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और विरुद्धार्थ होने से अप्रमाण हो भी सकते

हैं । मन्त्रसंहिता तो किसी के विरुद्धार्थ होने से अप्रमाण कभी नहीं हो सकती

क्योंकि वे तो स्वतःप्रमाण हैं । (प्रबन्धकर्त्तावै०य० काशी)

अथ काशीस्थ—शास्त्रार्थः

धर्माधर्मयोर्मध्ये शास्त्रार्थविचारो विदितो भवतु । एको दिगम्बरस्सत्य—

शास्त्रार्थविद्दयानन्दसरस्वती स्वामी गगतटे विहरति । स ऋग्वेदादिसत्य—

शास्त्रेभ्यो निश्चयं कृत्वैवं वदतिट्टट्टवेदेषु पाषाणादिमूर्तिपूजनविधानं श्ौवशाक्त—

गाणपतवैष्णवादिसम्प्रदाया रुद्राक्षत्रिपुण्ड्रादिधारणं च नास्त्येव; तस्मादेतत् सर्वं

मिथ्यैवास्ति; नाचरणीयं कदाचित् । कुतः ? एतत् वेदविरुद्धाप्रसिद्धाचरणे

महत्पापं भवतीतीयं वेदादिषु मर्यादा लिखितास्ति ।’’

एवं हरद्वारमारभ्य गगतटे अन्यत्रापि यत्र कुत्रचिद् दयानन्दसरस्वती

स्वामी खण्डनं कुर्वन् सन् काशीमागत्य दुर्गाकुण्डसमीप आनन्दारामे यदा स्थितिं

कृतवान् तदा काशीनगरे महान् कोलाहलो जातः । बहुभिः पण्डितैर्वेदादिपुस्तकानां

मध्ये विचारः कृतः । परन्तु क्वापि पाषाणादिमूर्तिपूजनादिविधानं न लब्धम् ।

प्रायेण बहूनां पाषाणपूजनादिष्वाग्रहो महानस्ति, अतः काशीराजमहाराजेन

बहून् पण्डितानाहूय पृष्टं किं कर्त्तव्यमिति ? तदा सर्वैर्जनैर्निश्चयः कृतो येन

केन प्रकारेण दयानन्दस्वामिना सह शास्त्रार्थं कृत्वा बहुकालात् प्रवृत्तस्याचारस्य

स्थापनं यथा भवेत् तथा कर्त्तव्यमेवेति ।

पुनः कार्त्तिकशुक्लद्वादश्यामेकोनविंशतिशतषड्विंशतितमे संवत्सरे (१९२६)

मग्लवासरे महाराजः काशीनरेशो बहुभिः पण्डितैः सह शास्त्रार्थकरणार्थमानन्दारामं

यत्र दयानन्दस्वामिना निवासः कृतः, तत्रागतः।

तदा दयानन्दस्वामिना महाराजं प्रत्युक्तम्वेदानां पुस्तकान्यानीतानि न

वा ?

तदा महाराजेनोक्तम्वेदाः पण्डितानां कण्ठस्थाः सन्ति किं प्रयोजनं

पुस्तकानामिति ?

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्पुस्तकैर्विना पूर्वापरप्रकरणस्य यथावद् विचारस्तु

न भवति ।

अस्तु तावत् पुस्तकानि नानीतानि ।

तदा पण्डितरघुनाथप्रसादकोटपालेन नियमः कृतो दयानन्दस्वामिना सहैकैकः

पण्डितो वदतु न तु युगपदिति ।

तदादौ ताराचरणनैयायिको विचारार्थमुघतः । तं प्रति स्वामिदयानन्दे—

नोक्तम्युष्माकं वेदानां प्रामाण्यं स्वीकृतमस्ति न वेति ?

तदा ताराचरणेनोक्तम्सर्वेषां वर्णाश्रमस्थानां वेदेषु प्रामाण्यस्वीकारो—

ऽस्तीति ।

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्वेदे पाषाणादिमूर्तिपूजनस्य यत्र प्रमाणं

भवेत्तद्दर्शनीयम् । नास्ति चेद्वद नास्तीति ।

तदा ताराचरणभट्टाचार्येणोक्तम्वेदेषु प्रमाणमस्ति वा नास्ति परन्तु

वेदानामेव प्रामाण्यं नान्येषामिति यो ब्रूयात्तं प्रति किं वदेत् ?

तदा स्वामिनोक्तम्अन्यो विचारस्तु पश्चाद् भविष्यति वेदविचार एव

मुख्योऽस्ति तस्मात् स एवादौ कर्त्तव्यः । कुतो वेदोक्तकर्मैव मुख्यमस्त्यतः।

मनुस्मृत्यादीन्यपि वेदमूलानि सन्ति तस्मात्तेषामपि, प्रामाण्यमस्ति न तु वेदविरुद्धानां

वेदाप्रसिद्धानां चेति ।

तदा ताराचरणभट्टाचार्य्येणोक्तम्मनुस्मृतेः क्वास्ति वेदमूलमिति ।

स्वामिनोक्तम्ट्टयद् वै किञ्चन मनुरवदत्तद् भेषजं भेषजताया’ इति

सामवेदे· ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्रचनानुपपत्तेश्च अनुमानमित्यस्य व्यास—

सूत्रस्य किं मूलमस्तीति ?

तदा स्वामिनोक्तम्अस्य प्रकरणस्योपरि विचारो न कर्त्तव्य इति ।

पुनर्विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्वदैव त्वं यदि जानासीति ।

तदा दयानन्दस्वामिना प्रकरणान्तरे गमनम्भविष्यतीति मत्वा नेदमुक्तम्।

कदाचित् कण्ठस्थं यस्य न भवेत् स पुस्तकं दृष्ट्वा वदेदिति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्कण्ठस्थं नास्ति चेच्छास्त्रार्थं कर्तंु कथमुघतः

काशीनगरे चेति ।

तदा स्वामिनोक्तम्भवतः सर्वं कण्ठस्थं वर्त्तत इति ?

· इदं पण्डितानामेव मतमग्ीकृत्योक्तमतो नेदं स्वामिनो मतमिति वेघम् ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्मम सर्वं कण्ठस्थं वर्त्तत इति ।

तदा स्वामिनोक्तम्धर्मस्य किं स्वरूपमिति ?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्वेदप्रतिपाघः प्रयोजनवदर्थो धर्म इति।

तदा स्वामिनोक्तम्इदन्तु तव संस्कृतं, नास्त्यस्य प्रामाण्यं, कण्ठस्थां

श्रुतिं स्मृतिं वा वदेति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्ट्टट्टचोदनालक्षणार्थो धर्मः।’’ इति जैमिनि—

सूत्रमिति ।·

तदा स्वामिनोक्तम्चोदना का, चोदना नाम प्रेरणा तत्रापि श्रुतिर्वा

स्मृतिर्वक्तव्या यत्र प्रेरणा भवेत् ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिना किमपि नोक्तम् ।

तदा स्वामिनोक्तम्अस्तु तावद्धर्मस्वरूपप्रतिपादिका श्रुतिर्वा स्मृतिस्तु

नोक्ता किं च धर्मस्य कति लक्षणानि भवन्ति वदतु भवानिति ?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्एकमेव लक्षणं धर्मस्येति ।

तदा स्वामिनोक्तम्किं च तदिति ?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिना किमपि नोक्तम् ।

तदा स्वामिनोक्तम्धर्मस्य तु दश लक्षणानि सन्ति भवता कथमुक्तमेक—

मेवेति ?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्कानि तानि लक्षणानीति ?

तदा स्वामिनोक्तम्

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विघासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।

इति मनुस्मृतेः श्लोकोऽस्ति ।··

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्अहं सर्वं धर्म्मशास्त्रं पठितवानिति ।

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्त्वमधर्म्मस्य लक्षणानि वदेति ।

तदा बालशास्त्रिणा किमपि नोक्तम् ।

तदा बहुभिर्युगपत् पृष्टम्प्रतिमा शब्दो वेदे नास्ति किमिति ?

तदा स्वामिनोक्तम्प्रतिमाशब्दस्त्वस्तीति ।

तदा तैरुक्तम्क्वास्तीति ?

· इदन्तु सूत्रमस्ति, नेयं श्रुतिर्वा स्मृतिः, सर्वं मम कण्ठस्थमस्तीति प्रतिज्ञायेदानीं

कण्ठस्थं नोच्यत इति प्रतिज्ञाहानेस्तस्य कुतो न पराजय इति वेघम् ।

·· अत्रापि तस्य प्रतिज्ञाहानेर्निग्रहस्थानं जातमिति बोध्यम् ।

तदा स्वामिनोक्तम्सामवेदस्य ब्राह्मणे चेति ।

तदा तैरुक्तम्किं च तद्वचनमिति ।

तदा स्वामिनोक्तम्देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्तीत्यादीनि।

तदा तैरुक्तम्प्रतिमाशब्दस्तु वेदे· वर्त्तते भवान् कथं खण्डनं करोति?

तदा स्वामिनोक्तम्प्रतिमाशब्देनैव पाषाणपूजनादेः प्रामाण्यं न भवति।

प्रतिमाशब्दस्यार्थः कर्त्तव्य इति ।

तदा तैरुक्तम्यस्मिन् प्रकरणेऽयं मन्त्रोऽस्ति तस्य कोऽर्थ इति ?

तदा स्वामिनोक्तम्अथातोद्भुतशानिं्त व्याख्यास्याम इत्युपक्रम्य त्रातार—

मिन्द्रमित्यादयस्तत्र्ौव सर्वे मूलमन्त्रा लिखिताः । एतेषां मध्यात् प्रतिमन्त्रेण

त्रित्रिसहस्राण्याहुतयः कार्यास्ततो व्याहृतिभिः पञ्च पञ्चाहुतयश्चेति लिखित्वा

सामगानं च लिखितम् । अनेनैव कर्म्मणाद्भुतशान्तिर्विहिता । यस्मिन्मन्त्रे

प्रतिमाशब्दोऽस्ति स मन्त्रो न मर्त्यलोकविषयोऽपितु ब्रह्मलोकविषय एव ।

तघथाट्टट्टस प्राचीं दिशमन्वावर्त्ततेऽऽथेति’’ प्राच्या दिशोद्भुतदर्शनशान्तिमुक्त्वा

ततो दक्षिणस्याः पश्चिमाया दिशः शानिं्त कथयित्वा उत्तरस्या दिशः शान्तिरुक्ता।

ततो भूमेश्चेति मर्त्यलोकस्य प्रकरणं समाप्यान्तरिक्षस्य शान्तिरुक्ता । ततो

दिवश्च शान्तिविधानमुक्तम् । ततः परस्य स्वर्गस्य च नाम ब्रह्मलोकस्यैवेति।

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्यस्यां यस्यां दिशि या या देवता तस्यास्तस्या

देवतायाः शान्तिकरणेन दृष्टिविघ्नोपशान्तिर्भवतीति ।

तदा स्वामिनोक्तम्इदं तु सत्यं परन्तु विघ्नदर्शयिता कोऽस्तीति ?

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्इन्द्रियाणि दर्शयित¤णीति ।

तदा स्वामिनोक्तम्इन्द्रियाणि तु द्रष्ट¤णि भवन्ति न तु दर्शयित¤णि, परन्तु

स प्राचीं दिशमन्वावर्त्ततेऽथेत्यत्र स शब्दवाच्यः कोऽस्तीति ?

तदा बालशास्त्रिणा किमपि नोक्तम् ।

तदा शिवसहायेन प्रयागस्थेनोक्तम्अन्तरिक्षादिगमनं शान्तिकरणस्य

फलमनेनोच्यते चेति ।

तदा स्वामिनोक्तम्भवता तत्प्रकरणं दृष्टं किम् ? दृष्टं चेत्तर्हि कस्यापि

मन्त्रस्यार्थं वदेति ।

तदा शिवसहायेन मौनं कृतम् ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्वेदाः कस्माज्जाता इति ?

तदा स्वामिनोक्तम्वेदा ईश्वराज्जाता इति ।

·अत्रापि तेषामवेदे ब्राह्मणग्रन्थे वेदबुद्धित्वाद् भ्रान्तिरेवास्तीति वेघम् ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्कस्मादीश्वराज्जाताः ? किं न्यायशास्त्रोक्ताद्वा

योगशास्त्रोक्ताद्वा वेदान्तशास्त्रोक्ताद्वेति ?

तदा स्वामिनोक्तम्ईश्वरा बहवो भवन्ति किमिति ?

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्ईश्वरस्त्वेक एव परन्तु वेदा कीदृग्लक्षणा—

दीश्वराज्जाता इति ?

तदा स्वामिनोक्तम्सच्चिदानन्दलक्षणादीश्वराद्वेदा जाता इति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्कोऽस्ति सम्बन्धः ? किं प्रतिपाघप्रतिपादक—

भावो वा जन्यजनकभावो वा समवायसम्बन्धो वा स्वस्वामिभाव इति तादात्म्यभावो

वेति ?

तदा स्वामिनोक्तम्कार्यकारणभावः सम्बन्धश्चेति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्मनो ब्रह्मेत्युपासीत, आदित्यं ब्रह्मेत्युपासीतेति

यथा प्रतीकोपासनमुक्तं तथा शालिग्रामपूजनमपि ग्राह्यमिति।

तदा स्वामिनोक्तम्यथा मनो ब्रह्मेत्युपासीत आदित्यं ब्रह्मेत्युपासीतेत्यादिवचनं

वेदेषु· दृश्यन्ते तथा पाषाणादिब्रह्मेत्युपासीतेति वचनं क्वापि वेदेषु न दृश्यते।

पुनः कथं ग्राह्यम्भवेदिति ?

तदा माधवाचार्येणोक्तम्ट्टउद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते

स§सृजेथामयं च ।’ इति मन्त्रस्थेन पूर्त्तशब्देन कस्य ग्रहणमिति ?

तदा स्वामिनोक्तम्वापीकूपतडागारामाणामेव नान्यस्येति ।

तदा माधवाचार्येणोक्तम्पाषाणादिमूर्त्तिपूजनमत्र कथं न गृह्यते चेति?

तदा स्वामिनोक्तम्पूर्त्तशब्दस्तु पूर्त्तिवाची वर्त्तते तस्मान्न कदाचित्पाषाणादि—

मूर्तिपूजनग्रहणं सम्भवति । यदि शटास्ति तर्हि निरुक्तमस्य मन्त्रस्य पश्य ब्राह्मणं

चेति ।

ततो माधवाचार्येणोक्तम्पुराणशब्दो वेदेष्वस्ति न वेति ?

तदा स्वामिनोक्तम्पुराणशब्दस्तु बहुषु स्थलेषु वेदेषु दृश्यते परन्तु

पुराणशब्देन कदाचिद् ब्रह्मवैवर्त्तादिग्रन्थानां ग्रहणं न भवति । कुतः ? पुराणशब्दस्तु

भूतकालवाच्यस्ति सर्वत्र द्रव्यविशेषणं चेति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्ट्टट्टएतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतघदृग्वेदो

यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्व्वाग्रिस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानान्यनुव्याख्यानानि’’

इत्यत्र बृहदारण्यकोपनिषदि पठितस्य सर्वस्य प्रामाण्यं वर्त्तते न वेति ?

तदा स्वामिनोक्तम्अस्त्येव प्रामाण्यमिति ।

· इदमपि पण्डितमतानुसारेणोक्तम् । नेदं स्वामिनो मतमिति बोध्यम् ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्श्लोकस्यापि प्रामाण्यं चेत्तदा सर्वेषां

प्रामाण्यमागतमिति ।

तदा स्वामिनोक्तम्सत्यानामेव श्लोकानां प्रामाण्यं नान्येषामिति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्अत्र पुराणशब्दः कस्य विशेषणमिति?

तदा स्वामिनोक्तम्पुस्तकमानय पश्चाद्विचारः कर्त्तव्य इति ।

तदा माधवाचार्य्येण वेदस्य· द्वे पत्रे निस्सारिते । अत्र पुराणशब्दः कस्य

विशेषणमित्युक्त्वेति ।

तदा स्वामिनोक्तम्कीदृशमस्ति वचनं पठ्यतामिति ।

तदा माधवाचार्य्येण पाठः कृतस्तत्रेदं वचनमस्तिट्टट्टब्राह्मणानीतिहासः

पुराणानीति’’ ।

तदा स्वामिनोक्तम्पुराणानि ब्राह्मणानि नाम सनातनानीति विशेषणमिति।

तदा बालशास्ङ्क्षादिभिरुक्तम्ब्राह्मणानि नवीनानि भवन्ति किमिति?

तदा स्वामिनोक्तम्नवीनानि ब्राह्मणानीति कस्यचिच्छटापि माभूदिति

विशेषणार्थः ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्इतिहासशब्दव्यवधानेन कथं विशेषणं

भवेदिति ?

तदा स्वामिनोक्तम्अयं नियमोऽस्ति किं व्यवधानाद्विशेषणयोगो न

भवेत्सन्निधानादेव भवेदिति ?

ट्टअजो नित्यश्शाश्वतोऽयम्पुराणो न’ इति दूरस्थस्य देहिनो विशेषणानि

गीतायां कथम्भवन्ति ? व्याकरणेऽपि नियमो नास्ति समीपस्थमेव विशेषणं

भवेन्न दूरस्थमिति ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिनोक्तम्इतिहासस्यात्र पुराणशब्दो विशेषणं नास्ति

तस्मादितिहासो नवीनो ग्राह्यः किमिति ?

तदा स्वामिनोक्तम्अन्यत्रास्तीतिहासस्य पुराणशब्दो विशेषणं

तघथाट्टइतिहासः पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः’ इत्युक्तम् ।

तदा वामनाचार्यादिभिरयं पाठ एव वेदे नास्तीत्युक्तम् ।

तदा दयानन्दस्वामिनोक्तम्यदि वेदेष्वयम्पाठो·· न भवेच्चेन्मम पराजयो

यघयम्पाठो वेदे यथावद् भवेत्तदा भवताम्पराजयश्चेयम्प्रतिज्ञा लेख्येत्युक्तन्तदा

सर्वेर्मौनं कृतमिति ।

· इदमपि तन्मतमनुसृत्योक्तं नेदं स्वामिनो मतमिति वेदितव्यमेते पत्रे तु

गृह्यसूत्रस्याभवतामिति च ।

·· इदमपि पण्डितानां मतं नैव स्वामिन इति वेघम् ।

तदा स्वामिनोक्तम्इदानीं व्याकरणे कल्मसंज्ञा क्वापि लिखिता न

वेति ?

तदा बालशास्त्रिणोक्तम्एकस्मिन् सूत्रे संज्ञा तु न कृता परन्तु

महाभाष्यकारेणोपहासः कृतः इति ।

तदा स्वामिनोक्तम्कस्य सूत्रस्य महाभाष्ये संज्ञा तु न कृतोप—

हासश्चेत्युदाहरणप्रत्युदाहरणपूर्वकं समाधानं वदेति ?

बालशास्त्रिणा किमपि नोक्तमन्येनापि चेति ।

तदा माधवाचार्येण द्वे पत्रे वेदस्य· निस्सार्य्य सर्वेषां पण्डितानाम्मध्ये

प्रक्षिप्ते । अत्र यज्ञसमाप्तौ सत्यां दशमे दिवसे पुराणानां पाठं शृणुयादिति

लिखितमत्र पुराणशब्दः कस्य विशेषणमित्युक्तम् ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामिना दयानन्दस्वामिनो हस्ते पत्रे दत्ते ।

तदा स्वामी पत्रे द्वे गृहीत्वा पञ्चक्षणमात्रं विचारं कृतवान् । तत्रेदं

वचनं वर्ततेट्टट्टदशमे दिवसे यज्ञान्ते पुराणविघावेदः, इत्यस्य श्रवणं यजमानः

कुर्य्यादिति ।’’

अस्यायमर्थःपुराणी चासौ विघा च पुराणविघा पुराणविघैव वेदः

पुराणविघावेद इति नाम ब्रह्मविघैव ग्राह्या । कुतः ? एतदन्यत्रर्ग्वेदादीनां

श्रवणमुक्तं न चोपनिषदाम् । तस्मादुपनिषदामेव ग्रहणं नान्येषाम् । पुराणविघा—

वेदोऽपि ब्रह्मविघैव भवितुमर्हति नान्ये नवीना ब्रह्मवैवर्तादयो ग्रन्थाश्चेति । यदि

ह्येवं पाठो भवेद् ब्रह्मवैवर्तादयोऽष्टादश ग्रन्थाः पुराणानि चेति, क्वाप्येवं वेदेषु··

पाठो नास्त्येव तस्मात्कदाचित्तेषां ग्रहणं न भवदेवेत्यर्थकथनस्येच्छा कृता ।

तदा विशुद्धानन्दस्वामी मम विलम्बो भवतीदानीं गच्छामीत्युक्त्वा

गमनायोत्थितोऽभूत् । ततः सर्वे पण्डिता उत्थाय कोलाहलं कृत्वा गताः । एवं

च तेषां कोलाहलमात्रेण सर्वेषां निश्चयो भविष्यति दयानन्दस्वामिनः पराजयो

जात इति ।

अथात्र बुद्धिमद्भिर्विचारः कर्त्तव्यः कस्य जयो जातः कस्य पराजयश्चेति।

दयानन्दस्वामिनश्चत्वारः पूर्वोक्ताः पूर्वपक्षास्सन्ति । तेषां चतुर्णां प्रामाण्यं

नैव वेदेषु निःसृतं पुनस्तस्य पराजयः कथं भवेत् ? पाषाणादिमूर्तिपूजन—

रचनादिविधायकं वेदवाक्यं सभायामेतैः सर्वैर्नोक्तम् ।

येषां वेदविरुद्धेषु च पाषाणादिमूर्तिपूजनादिषु श्ौवशाक्तवैष्णवादिसम्प्रदाया—

दिषु रुद्राक्षतुलसीकाष्ठमालाधारणादिषु त्रिपुण्ड्रोर्ध्वपुण्ड्रादिरचनादिषु नवीनेषु

· एते पत्रे तु गृह्यसूत्रस्य भवतामिति ।

·· इदमपि तन्मतमेवास्ति न स्वामिन इति ।

ब्रह्मवैवर्तादिग्रन्थेषु च महानाग्रहोऽस्ति तेषामेव पराजयो जात इति तथ्यमेवेति।।

भाषार्थ

एक दयानन्द सरस्वती नामक संन्यासी दिगम्बर गंगा  के तीर विचरते

रहते हैं जो सत्पुरुष और सत्यशास्त्रों के वेत्ता हैं, उन्होंने सम्पूर्ण ऋग्वेदादि

का विचार किया है । सो ऐसा सत्यशास्त्रों को देख निश्चय करके कहते

हैं कि ट्टट्टपाषाणादि मूर्तिपूजन, शैव , शाक्त, गाणपत और वैष्णव आदि

सम्प्रदायों और रुद्राक्ष, तुलसी माला, त्रिपुण्ड्रादि धारण का विधान कहीं

भी वेदों में नहीं है। इससे ये सब मिथ्या ही हैं । कदापि इनका आचरण

न करना चाहिये । क्योंकि वेदविरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरण से

बड़ा पाप होता है ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है ।’’

इस हेतु से उक्त स्वामी जी हरिद्वार से लेकर सर्वत्र इसका खण्डन

करते हुए काशी में आके दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्दबाग में स्थित हुए। उनके

आने की धूम मची । बहुत से पण्डितों ने वेदों के पुस्तकों में विचार करना

आरम्भ किया । परन्तु पाषाणादि मूर्तिपूजा का विधान कहीं भी किसी को

न मिला ।

बहुधा करके इसके पूजन में आग्रह बहुतों को है । इससे काशीराज

महाराज ने बहुत से पण्डितों को बुलाकर पूछा कि इस विषय में क्या करना

चाहिये ? तब सब ने ऐसा निश्चय करके कहा कि किसी प्रकार से दयानन्द

सरस्वती स्वामी के साथ शास्त्रार्थ करके बहुकाल से प्रवृत्त आचार को जैसे

स्थापना हो सके करना चाहिए ।

निदान कार्तिक सुदि १२, सं० १९२६, मग्लवार को महाराज काशीनरेश

बहुत से पण्डितों को साथ लेकर जब स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के हेतु

आए तब दयानन्द स्वामी जी ने महाराज से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक

ले आए हैं वा नहीं ?

महाराज ने कहा किवेद सम्पूर्ण पण्डितों को कण्ठस्थ हैं । पुस्तकों

का क्या प्रयोजन है ?

तब दयानन्द सरस्वती जी ने कहा किपुस्तकों के विना पूर्वापर प्रकरण

का विचार ठीक—ठीक नहीं हो सकता । भला पुस्तक नहीं लाए तो नहीं सही

परन्तु किस विषय पर विचार होगा ?

पण्डितों ने कहा कितुम मूर्तिपूजा का खण्डन करते हो । हम लोग

उसका मण्डन करेंगे ।

पुनः स्वामी जी ने कहा किजो कोई आप लोगों में मुख्य हो वही

एक पण्डित मुझ से संवाद करे ।

पण्डित रघुनाथप्रसाद कोतवाल ने यह नियम किया कि स्वामी जी से

एक—एक पण्डित विचार करे ।

पुनः सब से पहले ताराचरण नैयायिक स्वामी जी से विचार हेतु सम्मुख

प्रवृत्त हुए ।

स्वामी जी ने उनसे पूछा किआप वेदों का प्रमाण मानते हैं वा नहीं?

उन्होंने उत्तर दिया किजो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सब को वेदों का

प्रमाण ही है ।·

इस पर स्वामी जी ने कहा किकहीं वेदों में पाषाणादि मूर्तियों के

पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि हो तो दिखलाइए और जो नहीं तो कहिये

कि नहीं है ।

पण्डित ताराचरण ने कहा किवेदों में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक

वेदों ही का प्रमाण मिलता है औरों का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए?

इस पर स्वामी जी ने कहा किऔरों का विचार पीछे होगा । वेदों

का विचार मुख्य है । इस निमित्त से इस का विचार पहले ही करना चाहिए।

क्योंकि वेदोक्त ही कर्म्म मुख्य है । और मनुस्मृति आदि भी वेदमूलक हैं

इस से इनका भी प्रमाण है । क्योंकि जो—जो वेदविरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध

हैं उनका प्रमाण नहीं होता ।

पण्डित ताराचरण ने कहा किमनुस्मृति का वेदों में कहां मूल है ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किट्टजो जो मनु जी ने कहा है सो—सो

औषधों का भी औषध है’ ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है ।··

विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किट्टरचना की अनुपपत्ति होने से

अनुमानप्रतिपाघ प्रधान, जगत् का कारण नहीं’ व्यास जी के इस सूत्र का

वेदों में क्या मूल है ?

इस पर स्वामी जी ने कहा कियह प्रकरण से भिन्न बात है । इस

पर विचार करना न चाहिए ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कियदि तुम जानते हो तो अवश्य

कहो ।

· इससे यह समझना कि स्वामी जी भी वर्णाश्रमस्थ हैं वेदों को मानते हैं।

·· यह कहना उन पण्डितों के मत के अनुसार ठीक है परन्तु स्वामी जी तो

ब्राह्मण पुस्तकों को वेद नहीं मानते किन्तु मन्त्रभाग ही को वेद मानते हैं ।

इस पर स्वामी जी ने यह समझकर कि प्रकरणान्तर में वार्त्ता जा रहेगी; कहा

जो कदाचित् किसी को कण्ठ न हो तो पुस्तक देखकर कहा जा सकता है ।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा किजो कण्ठस्थ नहीं है तो काशी

नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों उघत हुए ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किआप को सब कण्ठाग्र है ?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा किहां हम को कण्ठस्थ है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किकहिये धर्म्म का क्या स्वरूप है?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा किजो वेदप्रतिपाघ फलसहित अर्थ है वही

धर्म कहलाता है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा कियह आप का संस्कृत है । इसका क्या

प्रमाण है, श्रुति वा स्मृति कहिये ।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा किजो चोदनालक्षण अर्थ है सो धर्म

कहलाता है । यह जैमिनि का सूत्र है ।

स्वामी जी ने कहा कियह सूत्र है । यहां श्रुति वा स्मृति को कण्ठ

से क्यों नहीं कहते ? और चोदना नाम प्रेरणा का है वहां भी श्रुति वा स्मृति

कहना चाहिए जहां प्रेरणा होती है ।

जब इसमें विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा, तब स्वामी जी ने

कहा किअच्छा आपने धर्म का स्वरूप तो न कहा परन्तु धर्म के कितने

लक्षण हैं कहिये ?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा किधर्म का एक ही लक्षण है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किवह कैसा है ?

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा ।

तब स्वामी जी ने कहाधर्म्म के तो दश लक्षण हैं । आप एक ही

क्यों कहते हैं ।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा किवे कौन लक्षण हैं ?

इस पर स्वामी जी ने मनुस्मृति का वचन कहा किधैर्य्य १, क्षमा

२, दम ३, चोरी का त्याग ४, शौच ५, इन्द्रियों का निग्रह ६, बुद्धि ७, विघा

का बढ़ाना ८, सत्य ९, और अक्रोध अर्थात् क्रोध का त्याग १०। ये दश

धर्म के लक्षण हैं । फिर आप कैसे एक लक्षण कहते हैं ?

तब बालशास्त्री ने कहा किहां हमने सब धर्मशास्त्र देखा है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किआप अधर्म का लक्षण कहिये ?

तब बालशास्त्री जी ने कुछ भी उत्तर न दिया ।

फिर बहुत से पण्डितों ने इकट्ठे हल्ला करके पूछा किवेद में प्रतिमा

शब्द है वा नहीं ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किप्रतिमा शब्द तो है ।

फिर उन लोगों ने कहा किकहां पर है ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किसामवेद के ब्राह्मण में है ।

फिर उन लोगों ने कहा किवह कौन सा वचन है ?

इस पर स्वामी जी ने कहा कियह हैट्टट्टदेवता के स्थान कम्पायमान

होते और प्रतिमा हँसती है इत्यादि· ।

फिर उन लोगों ने कहा किप्रतिमा शब्द तो वेदों में भी है फिर आप

कैसे खण्डन करते हैं ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किप्रतिमा शब्द से पाषाणादि मूर्तिपूजनादि

का प्रमाण नहीं हो सकता है । इसलिए प्रतिमा शब्द का अर्थ करना चाहिए

इसका क्या अर्थ है ?

तब उन लोगों ने कहा किजिस प्रकरण में यह मन्त्र है उस प्रकरण

का क्या अर्थ है ?

इस पर स्वामी ने कहा कियह अर्थ हैअब अद्भुत शान्ति की व्याख्या

करते हैं ऐसा प्रारम्भ करके फिर रक्षा करने के लिए, इन्द्र [त्रातारमिन्द्र] इत्यादि

सब मूलमन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं। इन में से प्रति मन्त्र करके

तीन हजार आहुति करनी चाहियें । इस के अनन्तर व्याहृति करके पांच—पांच

आहुति करनी चाहियें । ऐसा लिख के सामगान भी करना लिखा है । इस

क्रम करके अद्भुत शान्ति का विधान किया है । जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द

है सो मन्त्र मृत्युलोक विषयक नहीं किन्तु ब्रह्मलोक विषयक है । सो ऐसा

है कि ट्टजब विघ्नकर्त्ता देवता पूर्वदिशा में वर्त्तमान होवे’ इत्यादि मन्त्रों से

अद्भुतदर्शन की शान्ति कहकर फिर दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा और उत्तर

दिशा, इसके अनन्तर भूमि की शान्ति कहकर मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त

कर अन्तरिक्ष की शान्ति कहके, इसके अनन्तर स्वर्गलोक फिर परमस्वर्ग अर्थात्

ब्रह्मलोक की शान्ति कही है । इस पर सब चुप रहे ।

फिर बालशास्त्री ने कहा किजिस—जिस दिशा में जो—जो देवता

है उस—उस की शान्ति करने से अद्भुत देखने वालों के विघ्न की शान्ति

होती है ।

यह वेदवचन नहीं किन्तु सामवेद के षड्विंश ब्राह्मण का है परन्तु वहां

भी यह प्रक्षिप्त है क्योंकि वेदों से विरुद्ध है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा कियह तो सत्य है परन्तु इस प्रकार में

विघ्न दिखाने वाला कौन है ?

तब बालशास्त्री ने कहा किइन्द्रियां दिखाने वाली हैं ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किइन्द्रियां तो देखने वाली हैं दिखाने वाली

नहीं । परन्तु ट्टस प्राची दिशमन्वावर्त्ततेऽथेत्यत्र’ इत्यादि मन्त्रों में ट्टस’ शब्द का

वाच्यार्थ क्या है ? तब बालशास्त्री ने कुछ न कहा ।

फिर पण्डित शिवसहाय जी ने कहा किअन्तरिक्ष आदि गमन, शान्ति

करने से फल इस मन्त्र करके कहा जाता है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किआपने वह प्रकरण देखा है तो किसी

मन्त्र का अर्थ तो कहिये ?

तब शिवसहाय जी चुप हो रहे ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किवेद किससे उत्पन्न हुए हैं?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहाकिस ईश्वर से ? क्या न्यायशास्त्र

प्रसिद्ध ईश्वर से वा योगशास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से ? अथवा वेदान्तशास्त्र प्रसिद्ध

ईश्वर से ? इत्यादि ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किक्या ईश्वर बहुत से हैं ?

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किईश्वर तो एक ही है परन्तु

वेद कौन से लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किसच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से

प्रकाशित भये हैं ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध

है ? क्या प्रतिपाघप्रतिपादकभाव वा जन्यजनकभाव अथवा समवायसम्बन्ध

वा स्वस्वामिभाव अथवा तादात्म्य सम्बन्ध है ? इत्यादि ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किकार्य्यकारणभाव सम्बन्ध है ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किजैसे मन में ब्रह्मबुद्धि और

सूर्य्य में ब्रह्मबुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है वैसे ही शालिग्राम के पूजन

का ग्रहण करना चाहिए ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किजैसे ट्टट्टमनो ब्रह्मेत्युपासीत आदित्यं

ब्रह्मेत्युपासीत’’ इत्यादि वचन वेदों· में देखने में आते हैं वैसे ट्टपाषाणादि

· यह भी उन्हीं पण्डितों का मत है स्वामी जी का नहीं, क्योंकि स्वामी जी

तो ब्राह्मण पुस्तकों को ईश्वरकृत नहीं मानते ।

ब्रह्मेत्युपासीत’’ इत्यादि वचन वेदादि में नहीं देख पड़ता फिर क्योंकर इस का

ग्रहण हो सकता है ?

तब माधवाचार्य ने कहा कि उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते

सृजेथामयञ्च’’ इति । इस मन्त्र में पूर्त्त शब्द से किसका ग्रहण है? ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किवापी, कूप, तडाग और आराम का

ग्रहण है ।

माधवाचार्य ने कहा किइससे पाषाणादि मूर्तिपूजन का ग्रहण क्याें नहीं

होता है ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किपूर्त्त शब्द पूर्ति का वाचक है । इससे

कदाचित् पाषाणादि मूर्तिपूजन का ग्रहण नहीं हो सकता यदि शटा हो तो इस

मन्त्र का निरुक्त ब्राह्मण देखिए ।

तब माधवाचार्य ने कहा किपुराण शब्द वेदों में है वा नहीं ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किपुराण शब्द तो बहुत सी जगह वेदों

में है परन्तु पुराण शब्द से ब्रह्मवैवर्त्तादिक ग्रन्थों का कदाचित् ग्रहण नहीं हो

सकता । क्योंकि पुराणशब्द भूतकालवाची है और सर्वत्र द्रव्य का

विशेषण ही होता है ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किबृहदारण्यक उपनिषत् के

इस मन्त्र में किट्टट्टएतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेदः

सामवेदोऽथर्वाग्रिस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानान्यनुव्याख्यानानीति’’

यह सब जो पठित है इसका प्रमाण है वा नहीं ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किहां प्रमाण है ।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यदि श्लोक का भी प्रमाण

है तो सब का प्रमाण आया ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किसत्य श्लोकों ही का प्रमाण होता है

औरों का नहीं ।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कियहां पुराण शब्द किसका

विशेषण है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किपुस्तक लाइए तब इसका विचार हो।

माधवाचार्य ने वेदों के दो पत्रे· निकाले और कहा कि यहां पुराण

शब्द किसका विशेषण है ? · यह भी उन्हीं का मत है स्वामी जी का नहीं, क्योंकि ये गृह्यसूत्र के पत्रे थे ।

स्वामी जी ने कहा किकैसा वचन है ? पढि़ये ! ।

तब माधवाचार्य ने यह पढ़ाट्टब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानीति’ ।

इस पर स्वामी जी ने कहा कियहां पुराण शब्द ब्राह्मण का विशेषण

है अर्थात् पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं ।

तब बालशास्त्री जी आदि ने कहा किब्राह्मण कोई नवीन भी होते हैं?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि नवीन ब्राह्मण नहीं हैं परन्तु ऐसी शटा

भी किसी को न हो इसलिये यहां यह विशेषण कहा है ।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कियहां इतिहास शब्द के

व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किक्या ऐसा नियम है कि व्यवधान से

विशेषण नहीं होता और अव्यवधान ही में होता है क्योंकि ट्टअजो नित्यः

शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।’’ इस श्लोक में दूरस्थ देही

का भी क्या विशेषण नहीं है ? और कहीं व्याकरणादि में भी यह नियम

नहीं किया है कि समीपस्थ ही विशेषण होते हैं दूरस्थ नहीं ।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कियहां इतिहास का तो पुराण

शब्द विशेषण नहीं है । इससे क्या इतिहास नवीन ग्रहण करना चाहिए ?

इस पर स्वामी जी ने कहा किऔर जगह पर इतिहास का विशेषण पुराण

शब्द है। सुनियेट्टट्टइतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः।’’ इत्यादि में कहा है ।

तब वामनाचार्य आदिकों ने कहा किवेदों में यह पाठ ही कहीं भी

नहीं है । इस पर स्वामी जी ने कहा कि यदि वेद· में यह पाठ न होवे तो

हमारा पराजय हो और जो हो तो तुम्हारा पराजय हो यह प्रतिज्ञा लिखो। तब

सब चुप हो रहे ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किव्याकरण जानने वाले इस पर कहें

कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा करी है वा नहीं ?

तब बालशास्त्री ने कहा किसंज्ञा तो नहीं की है परन्तु एक सूत्र में

भाष्यकार ने उपहास किया है ।

इस पर स्वामी जी ने कहा किकिस सूत्र के महाभाष्य में संज्ञा तो

नहीं की और उपहास किया है । यदि जानते हो तो इसके उदाहरण पूर्वक

समाधान कहो ?

तब बालशास्त्री और औरों ने कुछ भी न कहा । माधवाचार्य ने दो

यह उन्हीं पण्डितों के मतानुसार कहा है किन्तु स्वामी जी तो छान्दोग्य

उपनिषद् को वेद नहीं मानते ।

पत्रे वेदों के· निकालकर सब पण्डितों के बीच में रख दिये और कहा कि

यहां ट्टयज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दशवें दिन पुराणों का पाठ सुने’ ऐसा

लिखा है । यहां पुराण शब्द किस का विशेषण है ?

स्वामी जी ने कहा किपढ़ो इसमें किस प्रकार का पाठ है ? जब

किसी ने पाठ न किया तब विशुद्धानन्द जी ने पत्रे उठा के स्वामी जी की

ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो ।

स्वामी जी ने कहा किआप ही इसका पाठ कीजिए ।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा किमैं ऐनक के विना पाठ नहीं

कर सकता, ऐसा कहके वे पत्रे उठाकर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने दयानन्द

स्वामी जी के हाथ में दिये ।

इस पर स्वामी जी दोनों  पत्रे लेकर विचार करने लगे । इसमें अनुमान

है कि ५ पल व्यतीत हुए होंगे कि ज्यों ही यह उत्तर कहा चाहते थे कि

ट्टट्टपुरानी जो विघा है उसे पुराणविघा कहते हैं और जो पुराणविघा वेद

है वही पुराणविघा वेद कहाता है । इत्यादि से यहां ब्रह्मविघा ही का ग्रहण

है क्योंकि पूर्व प्रकरण में ऋग्वेदादि चारों वेद आदि का तो श्रवण कहा है,

परन्तु उपनिषदों का नहीं कहा । इसलिए यहां उपनिषदों का ही ग्रहण है,

औरों का नहीं । पुरानी विघा वेदों ही की ब्रह्मविघा है । इससे ब्रह्मवैवर्त्तादि

नवीन ग्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो यहां ऐसा पाठ होता

कि ब्रह्मवैवर्त्तादि १८ (अठारह) ग्रन्थ पुराण हैं सो तो वेद में·· कहीं ऐसा

पाठ नहीं है । इसलिये कदाचित् अठारहों का ग्रहण नहीं हो सकता ।’’ कि

विशुद्धानन्द स्वामी उठ खड़े हुए और कहा कि हम को विलम्ब होता है हम

जाते हैं ।

तब सब के सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गये।

इस अभिप्राय से कि लोगों पर विदित हो कि दयानन्द स्वामी का पराजय···

34

· ये पत्रे गृह्यसूत्र के पाठ के थे वेदों के नहीं ।

·· यह पण्डितों के मतानुसार कहा है, यह स्वामी जी का मत नहीं है।

··· क्या किसी का भी इस शास्त्रार्थ से ऐसा निश्चय हो सकता है कि स्वामी जी

का पराजय और काशीस्थ पण्डितों का विजय हुआ ? किन्तु इस शास्त्रार्थ से यह

तो ठीक निश्चय होता है कि स्वामी—दयानन्द सरस्वती जी का विजय हुआ और

काशीस्थों का नहीं । क्योंकि स्वामी जी का तो वेदोक्त सत्यमत है उसका विजय क्योंकर

न होवे ? काशीस्थ पण्डितों का पुराण और तन्त्रोक्त जो पाषाणादि मूर्तिपूजादि है

उनका पराजय होना कौन रोक सकता है ? यह निश्चय है कि असत्य पक्ष वालों

का पराजय और सत्य वालों का सर्वदा विजय होता है ।।

हुआ । परन्तु जो दयानन्द स्वामी जी के ४ पूर्वोक्त प्रश्न हैं उनका वेद में

तो प्रमाण ही न निकला फिर क्योंकर उनका पराजय हुआ?।। इति ।।

(लेखराम पृ० ५७०, दिग्विजयार्वQ पृ० १५)

(363) शंका :- वेद में प्रतिमा की आज्ञा नहीं है तो निषेध कहां है ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० हलधर ओझा शास्त्री से कानपुर में शास्त्रार्थ३१ जौलाई, १८६९)

कानपुर नगर में भैरव  घाट के नीचे फर्श पर शास्त्रार्थ हुआ था।

मुख्य—न्यायाधीश और डब्लू थेन साहब बहादुर ज्वाइण्ट मैजिस्ट्रेट कानपुर तथा

नगर कोतवाल आदि सब सम्मानित व्यक्ति वहां उपस्थित थे । उपस्थिति

२०—२५ हजार मनुष्यों की थी । दो बजे से मनुष्य एकत्रित होने आरम्भ हुए।

साढ़े चार बजे से शास्त्रार्थ आरम्भ हो गया । शास्त्रार्थ का विषय मूर्तिपूजन’’

था । स्वामी जी के सम्मुख लक्ष्मण शास्त्री भटूर वाले और हलधर ओझा

दोनों उपस्थित थे । शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ । मिस्टर थेन साहब बहादुर

जो अच्छे संस्कृतज्ञ थे, मध्यस्थ नियत हुए । सूर्य्यास्त होने के पश्चात् शास्त्रार्थ

समाप्त हुआ ।

स्वामी जी नीचे भैरव  घाट पर उतरे हुए थे । प्रथम सब लोगों ने यह चाहा

कि वह घाट के ऊपर आकर शास्त्रार्थ करें और कोतवाल आदि अधिकारियों

ने भी स्वामी जी से कहा कि आप ऊपर आ जायें । स्वामी जी ने उत्तर दिया

कि मैंने किसी को नहीं बुलाया, जिसका जी चाहे वह यहां आ जाये और जिसका

जी चाहे वह न आवे । इस पर सब नीचे चले आये ।

स्वर्गीय बाबू श्यामाचरण बंगाली मुख्य प्रधान, पण्डित काशीनारायण

न्यायाधीश (जो इस समय बनारस में रहते हैं) तथा सुल्तान अहमद कोतवाल

आदि सब सम्मानित व्यक्ति उपस्थित थे । अन्त में सब के सामने मिस्टर

थेन साहब मध्यस्थ ने निर्णय दिया था कि स्वामी जी जीते हैं और उनकी

विद्वत्ता की बहुत प्रशंसा की थी । पण्डित शिवसहाय जी ने वर्णन किया कि

उस दिन मैं उपस्थित था । शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ । हलधर ओझा अपने साथ

लक्ष्मण शास्त्री को भी लाया था । प्रथम प्रश्न हलधर ओझा ने यह किया

कि आपने जो विज्ञापन दिया है जिसका विषय अष्ट गप्पं’’ और अष्ट

सत्य’’ है उस में व्याकरण की अशुद्धि है ।

स्वामी जीये बातें पाठशाला के विघार्थियों की हैं । ऐसे शास्त्रार्थ

सदा पाठशालाओं में हुआ करते हैं । आज वह विषय छेड़ो जिसके लिए

हजारों मनुष्य एकत्रित हैं । व्याकरण के बारे में कल मेरे पास आनामैं समझा

दूंगा ।

तब ओझा ने प्रश्न किया कि आप महाभारत को मानते हैं ?

स्वामी जी ने कहा कि हम मानते हैं ।

ओझा ने एक श्लोक भारत का पढ़ा जिसका अभिप्राय यह था कि

एक भील ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर और सामने रखकर धनुष—विघा सीखी।

स्वामी जीमैं तो यह कहता हूं कि कहीं प्रतिमापूजा की आज्ञा बतलाओ!

इस में तो आज्ञा नहीं पाई जाती है प्रत्युत लिखा है कि एक भील ने ऐसा

किया जैसा कि सदा अज्ञानी लोग आज तक किया करते हैं । वह कोई ऋषि,

मुनि न था, न उसको किसी ने ऐसी शिक्षा दी थी और यदि यह बात कहो

कि उसको ऐसा करने से धनुष—विघा आ गई तो उसका कारण द्रोणाचार्य

की मूर्ति न थी, प्रत्युत अभ्यास का परिणाम था जैसा कि अंग्रेज लोग चांदमारी

के द्वारा सीखते हैं परन्तु वे कोई मूर्ति नहीं धरते । फिर उस पर ओझा जी

चुप रहे और दूसरा यह प्रश्न किया

ओझा जी वेद में प्रतिमा की आज्ञा नहीं है तो निषेध कहां है ?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि जैसे किसी स्वामी ने सेवक को आज्ञा

दी कि तू पश्चिम को चला जा, इससे स्वयं ही तीन दिशाओं का निषेध हो

गया । अब उसका यह पूछना कि उत्तर दक्षिण को न जाउं व्यर्थ है । इसलिये

जो वेद ने उचित समझा, कह दिया और नहीं लिखा वही निषेध है ।

इसके पश्चात् थेन साहब को सन्देह हुआ कि ये स्वामी जी कुछ पढ़े

हैं या केवल मुख से ही शास्त्रार्थ करते हैं । इसकी परीक्षा के लिये एक

पत्रा जो हलधर लाये थे वह परीक्षार्थ स्वामी जी के सामने रख दिया। स्वामी

जी ने पढ़कर सुना दिया। इस पर साहब बहादुर ने स्वामी जी से प्रश्न किया।

थेन साहबआप किस को मानते हैं ?

स्वामी जीएक ईश्वर को ।

तत्पश्चात् थेन साहब ने छड़ी और टोपी उठाई और कहा कि ठीक

बात है, अच्छा प्रणाम । उनके उठते ही सब उठ खड़े हुए और कोलाहल

मचाते हुए चले कि बोलो श्री गग जी की जय । यह सारा कार्य स्वर्गीय

प्रागनारायण तिवारी का था और रुपया या आठ आने के पैसे भी ओझा जी

के सिर से लुटाए और शोर मचाया कि ओझा जीते और स्वामी जी हारे और

उनको गाड़ी में चढ़ाकर ले गये । (लेखराम पृष्ठ ५८६—५९६)

(364) शंका :- कुरान ईश्वरीय वचन नहीं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(मौलवी से कानपुर में प्रश्नोत्तरसन् १८६९)

रायबहादुर दरगाही लाल वकील तथा आनरेरी मैजिस्ट्रेट कानपुर ने वर्णन

किया कि जब स्वामी जी कानपुर में हमारे घाट पर ठहरे हुए थे, तो एक

मौलवी आये । स्वामी जी ने उससे कुरान के विषय में कहा कि कुरान

तुम्हारा ईश्वरीय वचन नहीं हो सकता इसलिये कि उसकी बिस्मिल्लाह

अशुद्ध है । मौलवी ने अर्थ किये । स्वामी जी ने कहा कि यदि ईश्वर ने

बनाया है तो फिर वह किस ईश्वर के नाम से आरम्भ करता है ? इस पर

वह मौन होकर चले गये । (लेखराम पृष्ठ १३५—१३६)

(365) शंका :- सुरा शब्द से अच्छे फल की रसरूप औषधि का वर्णन है, मघ का नहीं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० हलधर ओझा मैथिल से फर्रुखाबाद में शास्त्रार्थ१९ जून, १८६९)

जेठ शुदि दशमी, शनिवार, संवत् १९२६ तदनुसार १९ जून, सन् १८६९

रात्रि को आठ बजे के समय ला० प्रेमदास तथा देवीदास साहूकार, पण्डित

उमादत्त, पण्डित पीताम्बरदास, पण्डित रामसहाय शास्त्री, पण्डित गौरीशटर,

पण्डित ललिताप्रसाद, पण्डित गणेश शुक्ल, पण्डित चरनामल शुक्ल, पण्डित

माधवाचार्य, पण्डित बृजकिशोर, ला० जगन्नाथप्रसाद, पण्डित दिनेशराम,

पण्डित बिहारीदत्त सनाढ्य, पण्डित गगदत्त पुरोहित, पण्डित हलधर ओझा

को साथ लेकर नगर के बाहर गगतट पर स्वामी जी के निवास—स्थान पर

गये । लाला जगन्नाथप्रसाद रईस फर्रुखाबाद ने आगे बढ़कर स्वामी जी को

सूचना दी । (उस समय स्वामी जी पूर्वाभिमुख बैठे हुए खर्बूजा खा रहे थे।)

कि महाराज हलधर आया है । स्वामी जी ने उनकी ओर से दृष्टि नीचे कर

ली और खर्बूजा छोड़ दिया और फिर सिर उठाकर कहा कि आने दो । उक्त

लाला साहब नीचे आकर उनको ले गए । हलधर ने जाकर प्रणाम किया।

स्वामी जी ने उत्तर में कहाअरे हलधर आनन्द है ?

…. हलधर आनन्दो जातः ?’’

उसने कहा महाराज आनन्द है ।

यह पहले निश्चय हो गया कि शास्त्रार्थ मूर्तिपूजा पर हो परन्तु मूर्तिपूजा

पर आरम्भ होते ही बात सुरापान पर जा पड़ी क्योंकि यह हलधर तान्त्रिक

पण्डित था जो मांस—मघ खाता—पीता था और उसे उचित समझता था । मैथिल

ब्राह्मण प्रायः तान्त्रिक होते हैं और मांस—मघ खाते—पीते हैं । हलधर ने प्रमाण

दिया

ट्टट्टसौत्रामण्यां सुरां पिबेत् ।’’

अर्थात्सौत्रामणि यज्ञ में सुरा पीनी चाहिये । स्वामी जी ने कहा कि

सुरा शब्द से अच्छे फल की रसरूप औषधि का वर्णन है, मघ का नहीं ।

मघ अर्थ करने वालों का अच्छी तरह खण्डन किया और कहा कि इसका

अर्थ यह है कि सौत्रामणि यज्ञ में सोमरस अर्थात् सोमवल्ली का रस पीवे।

फिर हलधर ने स्वामी जी से संन्यासी के लक्षण पूछे । स्वामी जी

ने सब लक्षण बतला दिये । तत्पश्चात् स्वामी जी ने हलधर से पूछा कि आप

ब्राह्मण के लक्षण कहें । परन्तु वह उससे न बन सका और संस्कृत में गड़बड़

करने लगा । तब स्वामी जी ने कहा कि हलधर ट्टट्टभाषायां वद, भाषायां वद’’

अर्थात् भाषा में बात कर, भाषा में बात कर । इस पर वह बहुत घबरा गया

और प्रकरण छोड़कर दूसरी ओर जाने लगा । तब स्वामी जी ने कहा कि

हे हलधर ! प्रकरण छोड़कर मत जाओ, प्रकरण पर रहो ।

ट्टट्टभो हलधर प्रकरणं विहाय मा गच्छ ।’’ हलधर ने इसका उत्तर दिया

ट्टट्टअहं तु न प्रकरणं विहाय गच्छामि परन्तु श्रीमान् पुनः पुनः प्रकरणमभिनयते,

प्रकरणशब्दस्य कथं सिद्धिः’’ ?

अर्थात् मैं तो प्रकरण छोड़कर नहीं जाता परन्तु आप बार—बार प्रकरण

शब्द कहते हैं । बतलाइये प्रकरण शब्द किस प्रकार सिद्ध होता है ?

स्वामी जीट्टट्टप्रपूर्वात् कृधातोर्ल्युट् प्रत्यये कृते सति प्रकरणशब्दस्य

सिद्धिर्भवति’’ अर्थात् ….’’ धातु से …..’’ प्रत्यय करने से प्रकरण शब्द

सिद्ध होता है ।

हलधरट्टट्टकृ धातुः समर्थो भवति किं वाऽसमर्थो भवति’’ अर्थात् ….’

धातु समर्थ होती है या असमर्थ ?

स्वामी जीट्टट्टसमर्थो भवति । समर्थः पदविधिः’’ अर्थात् …..’ धातु

समर्थ होती है और इस सूत्र में समर्थ—पदविधि है जितने पद प्रसिद्ध होते

हैं ।

हलधरयह तो कहिये कि समर्थ किस को कहते हैं और असमर्थ

किस को कहते हैं ?

स्वामी जीट्टसापेक्षोऽसमर्थो भवति’ अर्थात् अपेक्षा करने वाला असमर्थ

होता है । यह महाभाष्य का वाक्य है ।

हलधरयह वाक्य महाभाष्य में नहीं लिखा हैयह तो केवल आपकी

संस्कृत है ।

स्वामी जी बृजकिशोर पण्डित से बोले कि दूसरे अध्याय का पहला

अंक महाभाष्य का निकालिये । जब निकाला और देखा गया तो वही बात

निकली जो स्वामी जी कहते थे ।

अन्त में निरुत्तर होकर हलधर ओझा ने कहा कि महाभाष्यकार भी

पण्डित है और मैं भी पण्डित हूं । मैं क्या उससे कम हूं ।

स्वामी जी ने कहा कितुम तो उसके बाल के समान भी नहीं

हो । यदि हो तो कहो कि कल्म संज्ञा किस की है ?

हलधर इसका कुछ उत्तर न दे सके । जब हलधर से कुछ उत्तर न

बन सका तब स्वामी जी ने कहा कि महाभाष्य में ट्टट्टअकथितं च’’ इस सूत्र

को देख लो कि कल्म संज्ञा कर्म की है । इस पर सब लोग जान गये कि

हलधर ओझा की कितनी विघा है । इसी प्रकार शास्त्रार्थ व्याकरण पर होते—होते

एक बजे रात का समय हो गया । अन्त में यह निश्चय पाया कि ट्टट्टसमर्थः

पदविधिः’’यह सूत्र यदि सर्वत्र लगे तो हलधर जी की हार हो गई और

यदि एक स्थान पर लगे तो स्वामी जी की । यह निश्चय होने से सब लोग

हलधर सहित चले आये ।

ला० जगन्नाथप्रसाद तथा पण्डित मुन्नीलाल जी ने कहा कि हम और

सब पण्डित लोग एक साथ ही चले जाते थे । मार्ग में सब पण्डितों ने कहा

किस्वामी जी ने बड़ा हठ किया क्योंकि यह केवल सूत्र में लगता है, सर्वत्र

नहीं लगता । चूंकि हम स्वामी जी के हितचिन्तक थे इसलिये प्रातःकाल हम

दोनों स्वामी जी के पास गये । वह एकादशी का दिन था । हमने स्वामी

जी से अलग जाकर कहा कि महाराज ! अब यहां तक ही रहने दो । उन्होंने

कहा कि क्यों ? हमने कहा किरात को सब पण्डित कहते थे कि ट्टट्टसमर्थः

पदविधिः।’’ यह सूत्र केवल सूत्र में ही लगता है, सर्वत्र नहीं । अभी न हमारी

हार है और न उनकी । यदि बात बनी रहे तो अच्छा है। तब स्वामी जी ने

क्रोध करके कहा कि गोवध का पाप तुझे है यदि उसे न लावे और गोवध

का पाप उसे है यदि वह न आवे । तब हमारा मुंह बिगड़ गया और हमने

जान लिया कि स्वामी जी अपनी खोज तथा सत्य पर बड़े दृढ़ हैं अतः

हम चले आये ।

उस दूसरी रात के लिये दरियों का प्रबन्ध हो गया था परन्तु स्वामी

जी चटाई पर ही बैठे रहे । आठ बजे रात के सब एकत्रित हुएरात चांदनी

थी । कुशल क्षेम पूछकर बैठ गये । सब के सामने स्वामी जी ने कहा कि

भाई कल हमारा तुम्हारा किस बात पर शास्त्रार्थ था । क्या इसी बात पर था

या नहीं कि यदि केवल सूत्र पर लगे तो हमारी पराजय और यदि सर्वत्र लगे

तो तेरी पराजय । वह मौन रहा परन्तु पीताम्बरदास ने कहा कि हां महाराज!

कल यही बात निश्चित हुई थी जिसे सब पण्डितों ने स्वीकार किया । इस

रात शास्त्रार्थ आरम्भ होने से पहले यह ज्ञात हुआ कि कुछ लोगों का विचार

कोलाहल करने का है इसलिये सब को सुनाकर कह दिया गया कि

जिस किसी को स्वामी जी से बात करने की इच्छा हो वह अकेला—अकेला

करे । यदि कोई बीच में बोलेगा तो उठा दिया जायेगा । पण्डितों के अतिरिक्त

जो और लोग थे उनको कहा गया कि आप लोग यहां से उठकर नीचे चबूतरे

पर सुनें । इस पर गौरीशटर कशमीरी ब्राह्मण क्रोधित होकर अपने घर को

चला गया और उसी दिन से स्वामी जी के विरुद्ध हो गया ।

शास्त्रार्थ आरम्भ होने से पहले स्वामी जी ने हलधर से कहा कि

हलधर तू अभी नवीन पढ़कर आया है और गृहस्थी है । तू अब यदि समझ

ले कि मेरी हार हो गई तो कुछ हानि नहीं परन्तु तुम्हारी हार होने में तेरी

हानि है । हलधर ने इस बात की कुछ परवाह न की और उसी हठ पर अड़ा

रहा । तब स्वामी जी ने पं० व्रजकिशोर को आवाज दी कि व्रजकिशोर !

महाभाष्य लाओ । दीपक भी पास मंगा लिया । महाभाष्य खोलकर इस

सूत्र को सब के सामने सर्वत्र लगा दिया । जिस पर हलधर बिल्कुल मौन

हो गया । पण्डित लोग और बातें करने लगे स्वामी जी ने कहा कि नहीं

जिस बात पर हमारा शास्त्रार्थ हुआ है पहले उसका निर्णय कर दो कि किसकी

हार हुई । तब सब चुप हो गये । ला० जगन्नाथप्रसाद जी ने कहा कि जो

बात हो वह सच—सच कह दो तब सब ने स्वीकार किया कि कल यही ठहरी

थी किट्टट्टसमर्थः पदविधिः।’’यह सूत्र सर्वत्र लगता है या एक स्थान

पर । जो बात कल हलधर ने कही थी वह अशुद्ध सिद्ध हुई । इतना सुनकर

हलधर निश्चेष्ट सा हो गया और दुःख से गिरने लगा । उसके साथियों ने

उसे संभाल लिया । उस रात को पहली रात से बहुत अधिक मनुष्य थे ।

अन्ततः हलधर को पराजित होने के पश्चात् लोग उठा ले गये । शेष पण्डित

भी चले गये । केवल पण्डित पीताम्बरदास, उमादत्त, रामसहाय शास्त्री,

मुन्नीलाल तथा ला० जगन्नाथप्रसाद जी बैठे रहे । रात एकादशी की थी ।

कुछ पुण्योपार्जन के विचार से और कुछ सत्योपदेश के लिये वहां रात भर

जागते रहे । आज भी एक बजे तक शास्त्रार्थ होता रहा ।

फिर उसी रात को स्वामी जी का पण्डित उमादत्त जी से मित्रतापूर्वक

वार्तालाप हुआ । बीच में पण्डित रामसहाय जी बोलने लगे । स्वामी जी ने

उन्हें कहा कि आप बूढ़े हैं, शास्त्रार्थ में अपमान हो जाता है, आप सुनते रहें

जिस पर वह बुद्धिमानी से फिर मौन रहे । प्रातःकाल सब गगस्नान करके

अपने घर को चले गये और उनके चले जाने के पश्चात् विना किसी को

सूचना दिये स्वामी जी भी कानपुर की ओर चले गये ।

(लेखराम पृ० ५८३—५८६)

(366) शंका :- आप मूर्तिपूजा का क्यों और कैसे खण्डन करते हैं?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पण्डित श्रीगोपाल जी से फर्रुखाबाद में शास्त्रार्थ२४ मई, १८६९)

जब श्री स्वामी जी महाराज फर्रुखाबाद में धर्म—प्रचार तथा पाखण्ड

का खण्डन कर रहे थे तो वहां के पण्डितों में हलचल मच गई और उन्होंने

जिला मेरठ के रहने वाले पण्डित श्रीगोपाल जी को शास्त्रार्थ के लिए बुलाया।

इस शास्त्रार्थ में पीताम्बरदास जी मध्यस्थ थे और उनके अतिरिक्त दस पांच

पण्डित और भी थे । विश्रान्त घाट पर जहां स्वामी जी उतरे थे सब लोग

एकत्रित हुए और पण्डित श्रीगोपाल जी भी गये । उस समय श्रीगोपाल जी

तथा स्वामी जी के मध्य निम्नलिखित बातचीत हुई

पण्डित जी बोले किट्टट्टभो स्वामिन् मया रात्रौ विचारः कृतः।’’ हे

स्वामी! मैंने रात्रि में विचार किया है । आप मूर्तिपूजा का क्यों और कैसे

खण्डन करते हैं । यह मूर्तिपूजा तो सर्वथा लिखी है ।

स्वामी जीकुत्र लिखितमस्ति तदुच्यताम् ।’’ अर्थात् कहां लिखी है

वह कहो और यह संस्कृत अशुद्ध है ।

पण्डित जी ने संस्कृत की अशुद्धि तो स्वीकार न की परन्तु मूर्तिपूजा

के प्रमाण में मनुस्मृति अध्याय २, श्लोक १७२ पढ़ा

ट्टट्टदेवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च ।’

स्वामी जीट्टट्टअस्यार्थः क्रियताम्’’ अर्थात् इसका अर्थ करो ।

पण्डित जीदेवता का पूजन करे, सायं—प्रातः हवन करे और पूजन चूंकि

प्रतिमा का ही हो सकता है और का नहीं इसलिये इससे मूर्तिपूजन सिद्ध है ।

 

स्वामी जीव्युत्पत्ति द्वारा इसका अर्थ करो । अर्च पूजायाम् अर्थात् अर्चा

पूजा और पूजा सत्कार को कहते हैं । यहां अग्निहोत्र और विद्वानों के सत्कार

का आभिप्राय है, मूर्तिपूजा का नहीं । इस पर कुछ समय तक शास्त्रार्थ चलता

रहा । श्री गोपाल जी निश्चय करके गये थे कि स्वामी जी को परास्त करेंगे

वह बात न हुई और न मूर्तिपूजन का प्रतिपादन हुआ । इस पर स्वामी जी

की विद्वत्ता की ख्याति और भी नगर में फैल गई और इसका कारण भी श्रीगोपाल

हुए क्योंकि उसने उस समय यघपि अपनी भूल न मानी परन्तु दूसरे दिन पण्डितों

से पूछता फिरता था कि पूजा शब्द कहीं नपुंसक भी होता है या नहीं क्योंकि

मैंने वहां भूल से पूजा नपंुसक लिग् बोल दिया है । पण्डितों ने कहा कि

नहीं, वह तो स्त्रीलिग् होता है ।

इस अवसर पर श्रीगोपाल ने अपनी अपकीर्ति देखकर अपनी सफलता

का यह एक उपाय सोचा कि काशी जाकर स्वामी जी के विरुद्ध मूर्तिपूजा

के पक्ष में व्यवस्थापत्र लाउं और उनको शास्त्रार्थ में इस बहाने से हराने का

यत्न करूं । यह निश्चय कर वे बनारस गये । पं० शालिग्राम जी शास्त्री

मुख्याध्यापक गवर्नमेण्ट कालिज अजमेर वर्णन करते हैं कि जब स्वामी जी

ने फर्रुखाबाद हमारे नगर में आकर मूर्तिपूजा का खण्डन आरम्भ किया तब

पण्डित श्रीगोपाल जी बनारस में हमारे पास आये कि आप फर्रुखाबाद नगर

के रहने वाले हैं । आजकल एक स्वामी दयानन्द नामक वहां आये हैं और

मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं, कृपा करके हमें व्यवस्था ले दीजिये । हमने

उनके लिये प्रमाण लिखने का निश्चय किया परन्तु हमारे गुरु पण्डित राजाराम

शास्त्री ने कहा कि तुम क्यों परिश्रम करते हो । पहले भी एक बार दक्षिण

में मूर्तिखण्डन की चर्चा हुई थी उस समय हमने काशी के पण्डितों के हस्ताक्षर

से एक व्यवस्था लिखी थी उसकी प्रतिलिपि भेज दी । मैंने उसकी प्रतिलिपि

करके काशी के पण्डितों के हस्ताक्षर कराने के पश्चात् उनको दे दी । श्रीगोपाल

जी के कुछ रुपये भी हस्ताक्षर कराने में पण्डितों की भेंट पूजा में व्यय हुए

थे । हमने पहली बार श्रीगोपाल के मुख से ही स्वामी जी का नाम सुना

था । (लेखराम १२१, ५७५)

(367) शंका :- मूर्तिपूजा का शास्त्रों में निषेध है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० हरिशटर कन्नौज से प्रश्नोत्तरसंवत् १९२६)

पण्डित हरिशटर जी ने वर्णन किया कि संवत् १९२६ में जब स्वामी

जी कन्नौज में ठहरे हुए थे तो मूर्तिपूजा पर हमारी उनसे यह बातचीत हुई

स्वामी जी ने कहा कि मूर्तिपूजा का शास्त्रों में निषेध है ।

हमने कहा कि आप वचन पढ़ें ।

स्वामी जी ने कहा कि तुम कोई विधिवचन पढ़ो । हम ने कहा कि

श्रुति, स्मृति, सदाचार इत्यादि अर्थात् सदाचार श्रुति, स्मृति के अनुसार है और

मूर्तिपूजा सदाचार है । (उस समय हमने और ग्रन्थ नहीं देखे थे और न वेद

पढ़े थे) ।

स्वामी जी ने कहा किसदाचार पञ्चमहायज्ञ है न कि मूर्तिपूजा

और प्रतिमापूजन के कारण से लोगों ने बलिवैश्वादिक पञ्चयज्ञ छोड़ दिये

हैं, जब उससे अश्रद्धा होगी तब वह काम करने लगेंगे और जब वैदिक

कर्म करने लगोगे तब तुम्हारा बड़ा मान होगा ।

हमने कहा कि वैदिककर्म तो अब कोई कर नहीं सकेगा और मूर्तिपूजा

पर अश्रद्धा हो जावेगी तो इससे लोक भ्रष्ट हो जावेंगे ।

(लेखराम पृष्ठ १२७, १२८)

(368) शंका :- आदम हव्वा का वियोग

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(मौलवी अहमद अली टूबान से कायमगंज में प्रश्नोत्तरनवम्बर, १८६८)

मौलवी अहमद अली टूबान से मनुष्योत्पत्ति विषय पर बातचीत हुई

तो स्वामी जी ने पूछा कि आदम—हव्वा का वियोग क्यों हुआ ? खुदा ने

उनके मन में प्रेम क्यों न उत्पन्न किया ? जो वियोग का दुःख न सहते।

इसका मौलवी कोई उत्तर न दे सका । मौलवी स्वामी जी की बात से प्रसन्न

हुआ और उनके कथन की पुष्टि करता रहा । उसने महाराज की बहुत प्रशंसा

की और कहा यह फकीर बहुत बड़ा आलिम (विद्वान्) है और बुतपरस्त

नहीं है । (देवेन्द्रनाथ १।१३०, लेखराम पृ० ११९—१२०)

(369) शंका :- क्या मौहम्मद पैगम्बर है ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- इस्लाम

समाधान :-

(मुसलमानों से फर्रुखाबाद में प्रश्नोत्तरसं० १९२५)

ला० मुन्नीलाल वैश्य ने वर्णन किया कि स्वामी जी संवत् १९२५ में

जब फर्रुखाबाद में ठहरे हुए थे तो एक दिन तीसरे पहर चार पांच मुसलमान

स्वामी जी के पास गये । मुसलमानों ने पूछा किट्टट्टमौहम्मद को खुदा ने

हमारे लिए भेजा है या नहीं ?’’

स्वामी जी ने हम से कहा किनियम होना चाहिए कि सत्य को सुनकर

मनुष्य विचार करे न कि घबराकर लड़ने को दौड़े । अब तो यह धार्मिक

बात करते हैं पर पीछे युद्ध होगा । मैंने उनसे कहा कि स्वामी जी कहते

हैं फिर लड़ोगे तो नहीं ? उन्होंने कहा कि हम ऐसा नहीं करेंगे, आप तो

बलवान् हैं । सारांश यह कि यह बात स्वामी जी ने तीन बार कही तब कहा

कि ट्टट्टमौहम्मद अच्छा मनुष्य नहीं था । तुम लोगों ने उसका अनुकरण किया

यह बुरा किया। जब चोटी कटवाई तो दाढ़ी रखने से क्या प्रयोजन ? उंची

बांग देते हो, यह क्या ईश्वर की उपासना है ?’’

खुतने के विषय में भी पूछा था परन्तु कोई उत्तर मुसलमान न दे सके।

अन्त में चले गये । (लेखराम पृष्ठ १२५)

(370) शंका :- कैसी लज्जा की बात है कि तुम लिंग की पूजा करते हो

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(ठाकुर किशनसिंह से कायमगंज में प्रश्नोत्तरसंवत् १९२५)

पण्डित शामलाल कान्यकुब्ज कायमगंज ने वर्णन किया कि जब स्वामी

जी शिवालय में आनकर उतरे तो लोगों से पूछा कि यह क्या है? लोगों ने

कहा कि यह शिवालय है, कहा कि तुम लोग स्वयं ही कहते हो कि शिवालय

तो कैलास में है क्योंकि शिव वहां रहते हैं । इसलिए यह तो सराय बैठक

है । हम को भी स्मरण किया, हम ठाकुर किशनसिंह भूश्रित सहित वहां

गये । किशनसिंह ने पूछा कि तुम शिवलिग् पूजा का निषेध करते हो परन्तु

इसका तो शास्त्रों में लेख है ।

स्वामी जी ने कहा कि कैसी लज्जा की बात है कि तुम लिंग  की

पूजा करते हो और फिर जब लिग् पृथ्वी  होकर यहां आ गया तो शिव कैलास

में हीजड़ा रह गया । (लेखराम पृष्ठ ११८)

(371) शंका :- शालिग्राम की मूर्ति गंगा में डाल दी

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(पं० अग्दराम शास्त्री से शास्त्रार्थ सोरों मेंसंवत् १९२५)

गुसाईं बलदेवगिरि जी ने वर्णन किया कि स्वामी जी जब संवत् १९२५

में सोरों में आये थे तो उनका वहां अग्दराम शास्त्री से शास्त्रार्थ हुआ । पण्डित

अग्दराम जी संस्कृत के पूर्ण विद्वान् और व्याकरण के पूरे प्रकाण्ड पण्डित

थे । बीसियों पण्डित उनसे संस्कृत पढ़ते थे और केवल पढ़ाते ही नहीं प्रत्युत

वे पण्डितों में शिरोमणि गिने जाते थे । इस ओर उनकी समानता करने वाला

कोई न था और न किसी का साहस पड़ता था कि अग्दराम जी से शास्त्रार्थ

करने पर उघत हो । उनके नाम से ही पण्डित लोग घबरा जाते थे । विशेषतया

वह न्याय और व्याकरण में पूर्ण दक्षता रखते थे । कस्बा बदरिया जो सोरों

के अत्यन्त समीप है, वहां के रहने वाले थे । पण्डित नारायण चक्राटित

जिसे स्वामी जी ने हराकर अपना शिष्य बनाया था, वह पं० अग्दराम के

पास पढ़ा करता था । उसने जाकर पं० अग्दराम जी से कहा कि एक ऐसे

स्वामी आये हैं जिनके सामने किसी को मुख से बात निकालने की भी शक्ति

नहीं । पण्डित जी तुम चलो । पण्डित अग्दराम जी आये और आते ही संस्कृत

में मूर्तिपूजा पर विचार होने लगा । ये पण्डित जी महाराज शालिग्राम की पूजा

करते थे, और नित्य भागवत की कथा बांचा करते थे । स्वामी जी ने वेद

और सत्य—शास्त्रों के प्रमाणों से मूर्तिपूजा का अत्यन्त बुद्धिपूर्वक खण्डन किया

और साथ ही भागवत को भी खण्डन करने से न छोड़ा । पण्डित अग्दराम

जी से भागवत के विषय में बहुत सी बातें हुईं । वे बहुत विद्वान् थे, स्वामी

जी की विघा पर मोहित हो गये । स्वामी जी ने उनको भागवत के बहुत

से दोष बतलाये थे । अन्तिम दोष यह था

कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।

राज्ञां चोभयवंशानां चरितं परमाद्भुतम् ।।

यह दशम स्कन्ध का पहला श्लोक है । इस में स्वामी जी ने विस्तार

शब्द अशुद्ध और व्याकरण के विरुद्ध बतलाया था कि विस्तर चाहिए,

विस्तार नहीं । क्योंकि अष्टाध्यायी में लिखा है विस्तर शब्द में ट्टट्टघञ्’’ प्रत्यय

हो अशब्द में । इस पर स्वामी जी ने बहुत से श्लोकों का प्रमाण दिया कि

देखो ट्टट्टविस्तरेण व्याख्याता’’ सब स्थान पर ऐसा लिखा है कि विस्तार अशुद्ध

है। वार्ता या वंश के लिये विस्तर और मापादि के लिए विस्तार आता है ।

उसी को सुनकर पण्डित अग्दराम जी बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि महाराज!

आपकी बातों को कहां तक श्रवण करूंसब सत्य हैं । अन्त में पण्डित

जी ने अपना पूर्ण सन्तोष हो जाने के पश्चात् शालिग्राम की मूर्ति जिसे वह

पूजते थे, सब के सामने गंगा में डाल दी और भागवतादि पुराणों की कथा

करनी पूर्णरूप से छोड़ दी, प्रत्युत भागवत का बहुत तिरस्कार किया । उनकी

यह दशा देखकर गुसाईं बलदेवगिरि जी ने भी बहुत सी बहलियां बटियां गग

में फेंक दीं और पण्डित अग्दराम जी के सम्बन्धियों ने भी अपनी पूजा

की मूर्तियां गग में फेंक दीं । (लेखराम पृष्ठ १०८)

(372) शंका :- यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- यज्ञोपवीत

समाधान :-

(शिवलाल वैश्य रईस डिबाई, जि० बुलन्दशहर से

प्रश्नोत्तरफरवरी १८६८)

ठाकुर शिवलाल वैश्य रईस डिबाई जि० बुलन्दशहर ने वर्णन किया

कि दूसरी बार स्वामी जी मुझे फागुन बदि १३ संवत् १९२४ तदनुसार २१

फरवरी, सन् १८६८ को कर्णवास में मिले । वहां पहुंचकर क्या देखता हूं

कि आप दो—चार ठाकुरों और वैश्यों  के लड़कों के उपनयन संस्कार कराने

का यत्न कर रहे हैं । मैंने जाकर नमस्कार किया और प्रश्न किया ।

प्रश्नमहाराज ! यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन

संस्कार होना अवश्यक है, क्योंकि जब तक उपनयन संस्कार नहीं होता

तब तक मनुष्य को वैदिक कार्य करने का अधिकार नहीं ।

प्रश्नएक व्यक्ति उपनयन संस्कार करावे परन्तु शुभ कर्म्म न करे

और दूसरा उपनयन संस्कार नहीं करावे और सत्यभाषणादि कर्म में तत्पर हो,

उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है ?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि श्रेष्ठ वह है जो उत्तम कर्म करता है परन्तु

संस्कार होना आवश्यक है क्योंकि संस्कार न होना वेद, शास्त्र के विरुद्ध

है और जो वेद—शास्त्र के विपरीत करना है वह ईश्वरीय आज्ञा को नहीं मानता

और ईश्वरीय आज्ञा को न मानना मानो नास्तिक होने का लक्षण है ।

(लेखराम पृष्ठ ९४)

(373) शंका :- कि वहां तो पत्थर है, महादेव नहीं

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(साधु कृष्णेन्द्र सरस्वती से रामघाट पर शास्त्रार्थसन् १८६७

अगहन १९२४ वि०)

खेमकरन जी भूतपूर्व ब्रह्मचारी वर्तमान संन्यासी कर्णवास निवासी ने

वर्णन किया किअगहन मास, संवत् १९२४ में स्वामी जी रामघाट में आये।

वहां एक साधु कृष्णेन्द्र सरस्वती रहते थे । लोगों ने उनसे जाकर कहा कि

एक स्वामी आया है जो गगदि तीर्थ, महादेवादि की मूर्ति और भागवत,

वाल्मीकि आदि सब का श्रुति और स्मृति के अतिरिक्त खण्डन करता है ।

ग्राम में कोलाहल मच गया । अन्त में कृष्णेन्द्र को लोग उसके बार—बार

अस्वीकार करने पर भी वहां वनखण्डी पर ले आये जहां स्वामी जी ठहरे

हुए थे और शास्त्रार्थ आरम्भ किया । इतने में एक व्यक्ति ने कृष्णेन्द्र से पूछा

कि महाराज ! मैं महादेव पर जल चढ़ा आउँ  तो स्वामी जी बोले कि वहां

तो पत्थर है, महादेव नहीं । ट्टट्टमहादेवो कैलासे वर्तते’’ अर्थात् महादेव कैलास

में है । तब कृष्णेन्द्र ने कहा कि यहां महादेव नहीं है ?

स्वामी जी ने कहा कि वह महादेव मन्दिर के अतिरिक्त यहां भी है,

वहां जाना व्यर्थ है । तब कृष्णेन्द्र ने गीता के इस श्लोक का प्रमाण दिया

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर निराकार है, अवतारवादी नहीं बन सकता।

देह धारना केवल जीव का धर्म है ।

इसका कोई उत्तर कृष्णेन्द्र से न आया । वह स्वामी जी के सामने

बैठा—बैठा ही घबरा गया और घबराकर वही गीता का श्लोक बार—बार लोगों

की ओर मुख करके (मुख से कफ निकलता था) पढ़ने लगा । तब स्वामी

जी ने कहा कि तू लोगों से शास्त्रार्थ करता है या मुझ से शास्त्रार्थ करता

है ? मेरे सामने होकर बात कर ।

फिर जब इस पर भी वह बात न कर सका और कुछ दशा भी ठीक

न रही तो ट्टट्टगन्धवती पृथिवी’’ ट्टट्टधूमवती अग्निः’’ इस प्रकार की न्याय की

बात चली, जिस पर उसने कहा कि लक्षण का भी लक्षण होता है । स्वामी

जी ने कहा कि लक्ष्य का तो लक्षण होता है परन्तु लक्षण का लक्षण

नहीं होता । पूज्य का पूज्य और चून (आटा) का चून क्या होगा ?

इस पर सब लोग हँस पड़े और वह घबराकर उठ खड़ा हुआ । सब

लोग कहने लगे और जान गये कि स्वामी जी की जीत हुई ।

(लेखराम पृष्ठ १००, १०३)

(374) शंका :- मैं इन देवमूर्तियों को दयानन्द के हाथ से भोग लगवाकर उठूंगा

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(अनूपशहर—निवासी पं० हीरावल्लभ पर्वती का कर्णवास में

शास्त्रार्थनवम्बर १८६७)

पौराणिकों को पं० अम्बादत्त के पराजय की कालिमा धोने की चिन्ता

थी ही । वे अनूपशहर गये और पं० हीरावल्लभ को बुलाकर लाये। पौष मास

की किसी तिथि को पं० हीरावल्लभ कर्णवास आये और बड़े ठाठ से आये।

वे अपने आराध्य देवों की मूर्तियों को एक सुन्दर सिंहासन में सजाकर साथ

लाये । शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ । उसमें पं० हीरावल्लभ प्रवृत्त हुए तो अनोखे

ढंग से । देवमूर्तियों का सिंहासन सामने रखकर और यह प्रतिज्ञा करके कि

मैं इन देवमूर्तियों को दयानन्द के हाथ से भोग लगवाकर उठूंगा । छः दिन

तक शास्त्रार्थ होता रहा, नियम और न्यायपूर्वक होता रहा । छठे दिन पं०

हीरावल्लभ ने अस्त्र शस्त्र डाल दिये, अपनी हार स्वीकार की, वाणी से भी

और कर्म से भी । पण्डित जी ने महाराज को हाथ जोड़कर प्रणाम किया

और साथ ही देवमूर्तियों को भी सदा के लिए हाथ जोड़कर गगजल में प्रविष्ट

करा दिया । उन देवमूर्तियों को जिन्हें वे दयानन्द के हाथ से भोग लगवाने

की प्रतिज्ञा करके शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए थे, स्वयं भोग लगाना छोड़कर शास्त्रार्थ

से निवृत्त हुए । सभा में २००० मनुष्य उपस्थित थे । स्वामी जी पं०

हीरावल्लभ की न्यायप्रियता देखकर गद्गद हो गये । और उन्होंने पण्डित

जी की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की । निष्पक्ष मनुष्यों ने भी उन्हें हृदय से

साधुवाद कहा । सब के मुखमण्डल हर्ष से खिल उठे । मूर्तिपूजकों के हृदय

शोक—सन्तप्त और उनके मुख विषाद से तेजहीन हो गये और आह करते

और ठण्डे सांस भरते सभा से उठकर चले गये । इस शास्त्रार्थ का यह प्रभाव

हुआ कि सैकड़ों की आस्था मूर्तिपूजा के ऊपर से उठ गई और बीसियों लोगों

ने पं० हीरावल्लभ का अनुकरण करते हुए अपनी देवमूर्तियां गंगा के प्रवाह

में डाल दीं । (देवेन्द्रनाथ १।१११, लेखराम पृष्ठ ७७)

(375) शंका :- मूर्तिपूजा अवैदिक और त्याज्य है

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

(अनूपशहर—निवासी पं० अम्बादत्त वैघ से शास्त्रार्थनवम्बर १८६७)

जब महाराज को कर्णवास में निवास करते हुए बहुत दिन हो गये और

उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई, तब भगवानदास आदि को महाराज की बढ़ती

हुई लोकप्रियता असह्य हो गई । उन्होंने सोचा कि उनके मार्ग से दयानन्द

रूपी कण्टक तभी दूर हो सकता है जब उसे शास्त्रार्थ में परास्त किया जावे।

अतः वह अनूपशहर निवासी पं० अम्बादत्त पर्वती को जो संस्कृत में बहुत

व्युत्पन्न समझे जाते थे स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिये बुला लाये ।

पं० अम्बादत्त से शास्त्रार्थ हुआ । परिणाम यह निकला कि पण्डित जी

परास्त हुए और उन्होंने एक सत्यप्रिय मनुष्य की भांति भरी सभा में मुक्तकण्ठ

से कहा कि जो कुछ स्वामी जी कहते हैं, वह सत्य है, मूर्तिपूजा अवैदिक

और त्याज्य है ।

(श्री देवेन्द्रनाथ जी कृत जीवनचरित्र, भाग १, पृष्ठ १०५, लेखराम, पृ० ७६)

मूर्तिपूजा

(376) शंका :- संन्यासी को किसी ग्राम में तीन दिन से अधिक न रहना चाहिए

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- संन्यासाश्रम

समाधान :-

पं० रामरत्न अजमेर से संन्यासाश्रम के विषय में प्रश्नोत्तर)

सन् १८६६ में जब स्वामी जी अजमेर में थे और मूर्तिपूजा तथा भागवतादि

का खण्डन कर रहे थे तो उन दिनों रामरत्न नामक एक पण्डित ने जो ग्राम

रामसर जिला अजमेर में रहता था और ग्राम का पटवारी भी था, सम्भवतः

दस प्रश्न बनाकर भेजे थे जो इस विषय के थे

संन्यासी को किसी ग्राम में तीन दिन से अधिक न रहना चाहिए ।

घोड़ों की बग्घी में न चढ़ना चाहिए आदि ।

ये प्रश्न संस्कृत में थे । स्वामी जी ने प्रत्येक प्रश्न का उत्तर विश्वसनीय

पुस्तकों के प्रमाणों सहित लिख भेजा और उसके लेख में जो अशुद्धियां थीं,

वे भी साथ ही लिखकर भेज दीं । इन प्रश्नों का एक उत्तर यह था कि निस्सन्देह

संन्यासी को एक स्थान पर तीन दिन से अधिक न रहना चाहिए परन्तु

जहां अन्धकार हो रहा हो तो वहां उपदेश के लिये अधिक रहना उचित

है । (लेखराम पृष्ठ ६६)

(377) शंका :- पादरी ग्रे साहब आदि से अजमेर में शास्त्रार्थजून १८६६

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- ईसाईमत

समाधान :-

३० मई, सन् १८६६ को स्वामी जी पुष्कर से अजमेर आये । वहां

स्वामी जी का पादरी लोगों से मित्रतापूर्ण शास्त्रार्थ हुआ । एक तो रैवरेण्ड

जे० ग्रे साहब मिशनरी प्रेस वी टेरेन मिशन अजमेर और दूसरे पादरी राबिन्सन

शूलब्रेड साहब थे और तीसरे साहब पादरी मेरवाड़ अर्थात् ब्यावर थे । प्रथम

तीन दिन ईश्वर, जीव, सृष्टिक्रम और वेद—विषय में बातचीत रही । स्वामी

जी ने उनके उत्तर उत्तम रीति से दिये । चौथे दिन ईसा के ईश्वर होने पर

और मरकर जीवित होने और आकाश में चढ़ जाने पर स्वामी जी ने कुछ

प्रश्न किये । दो—तीन सौ मनुष्य इस धर्मचर्चा के समय आया करते थे ।

अन्तिम दिन जब पादरी लोग इस विषय पर कोई बुद्धिपूर्ण उत्तर न दे सके

तो स्कूल के लड़के ताली पीटने लगे परन्तु स्वामी जी ने रोक दिया । आपस

में शास्त्रार्थ का ढंग यह था कि प्रथम एक पक्ष प्रश्न ही प्रश्न करे और

दूसरा पक्ष उत्तर ही उत्तर दे, बीच में प्रश्न न करे । तत्पश्चात् इसी प्रकार

दूसरा पक्ष करे । प्रथम प्रश्न पादरी लोगों ने किये जिनके उत्तर स्वामी जी

ने दिये। इस शास्त्रार्थ में ईसाइयों ने एक वेदमन्त्र का भी प्रमाण दिया था

जिसे स्वामी जी ने अस्वीकार किया कि यह वेदमन्त्र नहीं । उन्होंने कहा

कि हम वेद लाकर दिखावेंगे परन्तु वेद से न दिखला सके ।

राबिन्सन साहब का जो उन दिनों बड़े पादरी थेएक प्रश्न यह था

कि ब्रह्मा जी ने जो व्यभिचार किया है उसका क्या उत्तर है ?

स्वामी जी ने कहा कि क्या एक नाम के बहुत से मनुष्य नहीं हो

सकते ? फिर यह कौन बात है कि यह ब्रह्मा वही है प्रत्युत कोई और व्यक्ति

होगा । वे महर्षि ब्रह्मा ऐसे नहीं थे । (लेखराम पृष्ठ ६३)

(378) शंका :- लिखित शास्त्रार्थ (जैनमत) (जयपुर के जैनगुरु के साथ)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- जैनमत

समाधान :-

जयपुर में जैनियों के एक गुरु ने शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट की,

परन्तु वह स्वामी जी को अपने मकान पर ही बुलाना चाहता था, इस कारण

मौखिक शास्त्रार्थ न हुआ । और स्वामी जी ने १५ प्रश्न लिखकर उनके पास

भेज दिये, जिनका उत्तर यति जी से न बन पड़ा परन्तु उन्होंने ८ प्रश्न लिखकर

स्वामी जी के पास भेज दिये, जिनका उत्तर स्वामी जी ने बड़ी योग्यता से

दिया । (आर्य धर्मेन्द्रजीवन, रामविलास शारदा पृ० ३२, लेखराम पृ० ५६)

(379) शंका :- मूर्तिपूजा (लिखित शास्त्रार्थ) (जयपुर की संस्कृत पाठशाला के पण्डितों के साथ)

समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- मूर्तिपूजा

समाधान :-

स्वामी दयानन्द ने दस या पन्द्रह प्रश्न लिखकर जयपुर की संस्कृत

पाठशाला में पण्डितों के पास भेजे । पण्डित महाशयों ने इनके उत्तर में

गाली—गलौज के सिवाय और कुछ नहीं लिखा । स्वामी जी ने इस पत्र में

आठ प्रकार के दोष निकालकर हरिश्चन्द्रादि महान् पुरुषों के पास भेज दिये।

उस पत्र को पढ़कर सब ने अत्यन्त शोक प्रकट किया और पत्र का कुछ

भी उत्तर नहीं दिया । फिर सब पण्डित एकत्रित होकर व्यास बक्षीराम जी

के पास गये और कहा कि हमारा स्वामी जी से शास्त्रार्थ करवा दो । पण्डितों

के कहने पर व्यास जी ने स्वामी जी को महलों में बुलवाया, सब पण्डित

भी एकत्रित हुए और शास्त्रार्थ होने लगा । अन्त में पण्डित निरुत्तर होकर

चुप हो गए, और एक मैथिल पण्डित ने कहा कि महाभाष्य की गणना व्याकरण

में नहीं है । स्वामी जी ने उसको यही बात लिख देने के लिए कहा । परन्तु

उन्होंने नहीं लिखा और रात्रि विशेष हो गई, यह बहाना करके चुप हो गये।

(आर्य धर्मेन्द्रजीवन, रामविलास शारदा पृ० ३१, ३२, लेखराम पृ० ५५)

(380) शंका :- सर्व मनोकामना पूर्ण यज्ञ : एक अवैदिक कृत्य : प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु: प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु आज देश में मन्नत माँगने व मन्नतों को पूरा करवाने का बहुत अच्छा धन्धा चल रहा है I पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वासों की दलदल में फंसकर नदी सरोवर के स्नान पेड़ पूजा कबर पूजा कुत्ते बिल्ली के आगे पीछे घूमकर अपनी मनोकामनाएँ पूरी करवाने के लिए धक्के खा रहे हैं I जो सैकड़ों वर्ष पूर्व कबरों में दबाये गए उनको अल्लाह मियाँ ने मनुष्यों के दुःख निवारण करने का मुख्तार बना दिया है I मनुष्यों की इस दुर्बलता का शिकार आर्य समाजी भी हो रहे हैं I ऐसे अटार्नी जनरल आर्यसमाज में मनोकामनायें पूरी करवाने के नए नए जाल फैला रहे हैं I कुछ सज्जनों का प्रश्न है की किसी से कोई यज्ञ अनुष्ठान करवाने से मन्नत पूरी हो जाती हैं ? कामनाएं पूरी करने के लिए वेदानुसार क्या कर्म करने चाहिए ?

समाधान कर्ता :- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु , विषय :- विविध

समाधान :-

अब इस प्रश्न का क्या उत्तर दें ? परन्तु जब उच्च शिक्षित व्यक्ति व परिवार ऐसा प्रश्न उठायें तो कुछ समाधान करना प्रत्येक आर्य का कर्त्तव्य है I हम महर्षि दयानन्द जी द्वारा इस प्रश्न का उत्तर पाठकों की सेवा में रखते हैं I सर्वकामनाएं ऐसे पूर्ण होती हैं I

१.       “जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं इसी से प्रारब्ध की उपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है I”

२.       फिर लिखा है “ क्योंकि जो परमेश्वर की पुरषार्थ करने की आज्ञा है  उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा”

३.       “जो कोई ‘गुड मीठा है ‘ ऐसा कहता है उसको गुड प्राप्त वा उसको स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता I और जो यत्न करता है उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड मिल ही जाता है “

४.       “जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है वैसा ही वर्तमान करना चाहिए “

५.       “अपने  पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है “

 

वेदोपदेश आर्ष वचनों के प्रमाण तो हमने दे दिए पोंगापंथी टोटके और अनार्ष वचनों को हम जानते हैं परन्तु उनकी शव परीक्षा यहाँ नहीं करेंगे I धर्म कर्म मर्म हमने ऋषी के शब्दों में दे दिया है .

 

परोपकारी अक्टूबर (द्वितीय) २०१४

(381) शंका :- (क) सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णानुसार सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है परन्तु ऋग्वेद में इसका निषेध है- नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ। अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।। – ऋ. ७-४-८ इस स्थिति में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि महर्षि जी ने किस आधार पर सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है तथा अब समाधान कैसे होगा? २. यजुर्वेद के ‘सत्याःसन्तु यजमानस्य कामाः’ मन्त्रांश को बदलकर कुछ पुरोहित आशीर्वाद रूप में सत्याः सन्तु यजमानायोः अथवा यजमानानां बोलते हैं। मन्त्रों में परिवर्तन का अधिकार उन्हें हैं या नहीं? ३. सन्ध्या के अन्तर्गत मार्जन मन्त्रों में प्रथम कहा है- ओं भूः पुनातु शिरसि अर्थात् हे ईश! आप प्राणों के भी प्राण हैं। मेरा शिर पवित्र करें। इस में शंका है कि प्राणों का सम्बन्ध नासिका से है। भूः का सम्बन्ध नासिकाओं से उचित प्रतीत होता है- ‘ओं भूः पुनातु प्राणयोः’ अथवा ‘ओं भूः पुनातु नासिक्योः।’ कृपया ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ में से भूः व शिरसि की संगति स्पष्ट कीजिएगा। ४. इसी प्रकार मार्जन मन्त्रों के अन्तर्गत तृतीय मन्त्र पर शंका है- ओं स्वः पुनातु कण्ठे। अर्थात् हे सुखस्वरूप प्रभो! अपने उपासकों को सुख प्रदान करने हारे हो। मेरे कण्ठ को सुख प्रदान करो ….। यदि यह मन्त्र ऐसे होते तो अच्छा होवे- ओं स्वः पुनातु शिरसि। शिर में शुद्धि हो, विचारों में शुद्धि हो तो सारी शुद्धि स्वतः होगी। मनुष्य विचारों को अपवित्र बनाता है तो शेष सब अशुद्ध व अपवित्र बनता है। शिर पवित्र बने बिना सुख नहीं आएगा। उपरोक्त दोनों वेद मन्त्रांश नहीं जान पड़ते। अतः इन में परिवर्तन करना वेद में परिवर्तन नहीं माना जाएगा परन्तु ऐसा तब प्रश्न उत्पन्न होगा, जब मेरा विचार संगत माना जाएगा। समाधान दीजिएगा। – इन्द्रजित् देव चूना भट्ठिया, सिटी सैन्टर के निकट, यमुनानगर-१३५००१ (उ.प्र.)

समाधान कर्ता :- आचार्य सोमदेव , विषय :- वर्ण व्यवस्था

समाधान :-

समाधान (क)- आपकी जिज्ञासा, महर्षि के द्वारा वर्णित वर्णानुसार सन्तान होनी चाहिए, इस पर है। यदि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न क्षत्रिय गुण कर्म वाला पुत्र है तो वह क्षत्रिय वर्ण का कहलावे। और ऐसा क्षत्रिय परिवार जिसका पुत्र ब्राह्मण गुण कर्म वाला है, वह ब्राह्मण वर्ण का कहावे। वे दोनों आपस में पुत्रों को बदल लें ऐसा अन्य वर्णों के लिए भी है। दूसरा वेद में कहा अपने गोत्र में उत्पन्न को ही ग्रहण करे। इन दोनों स्थलों को देखने पर आपकी जिज्ञासा स्वाभाविक है।

पहले हम यहाँ महर्षि के दोनों स्थलों को दे रहे हैं।

नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ।

अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।।

-ऋ. ७.४.८

पदार्थ- हे मनुष्य! जो (अरणः) रमण न करता हुआ (सुशेवः) सुन्दर सुख से युक्त (अन्योदर्य्यः) दूसरे के उदर से उत्पन्न हुआ हो (सः) वह (मनसा) अन्तःकरण से (ग्रभाय) ग्रहण के लिए (नहि) नहीं मानने योग्य है (चित्, उ, पुनः इत्) भीर भी वह (ओकः) घर को नहीं (एति) प्राप्त होता है (अथ) उसके अनन्तर जो (नव्यः) नवीन (अभीषाड्) अच्छा सहनशील (वाजी) विज्ञान वाला (नः) हमको (आ, एतु) प्राप्त हो।

भावार्थ- हे मनुष्यो! अन्य गोत्र में अन्य पुरुष से उत्पन्न हुए बालक को पुत्र करने के लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि वह घर आदि का दाय भागी नहीं हो सकता किन्तु जो अपने शरीर से उत्पन्न वा अपने गोत्र से लिया हुआ हो वही पुत्र वा पुत्र का प्रतिनिधि होवे।

दूसरा स्थल सत्यार्थप्रकाश से है- ‘‘प्रश्न- जो किसी के एक ही पुत्र वा पुत्री हो, वह दूसरे वर्ण में प्रविष्ट हो जाये तो उसके माँ-बाप की सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायेगा, इसकी क्या व्यवस्था होनी चाहिए? उ     ार- न किसी की सेवा का भंग और न वंशच्छेदन होगा, क्योंकि उनको अपने लड़के-लड़कियों के बदले स्ववर्ण के योग्य दूसरे सन्तान, विद्यासभा और राजसभा की व्यवस्था से मिलेंगे इसलिए कुछ भी अव्यवस्था नहीं होगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४। इन दोनों स्थलों में विरोध दिख रहा है, यथार्थ में कोई विरोध नहीं है। वेद ऊँची स्थिति को कह रहा है और ऋषि आपत् स्थिति में एक अन्य विकल्प दे रहे हैं कि वेद के अनुसार यदि स्वगोत्र की सन्तान न मिल रही हो तो स्ववर्ण के गुण कर्म वाली सन्तान को अपना लें।

इस विषय में व अन्य प्रश्नों के उ   ार के लिए आर्यसमाज के योग्य विद्वान् आचार्य आनन्द प्रकाश जी (अलियाबाद, तेलंगाना) ने जो विचार हमें लिखकर दिये हैं जो कि हमें उचित लग रहे हैं, उनको यहाँ आपके समाधान हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘‘(१) सबसे अच्छा तो वह है, कि जो अपने वर्ण के गुण कर्मों से युक्त भी हो और आत्मज भी हो अर्थात् अपने से उत्पन्न भी हो, क्योंकि बन्धु-बान्धवों में उससे किसी का विरोध नहीं होता अर्थात् सबको वह स्वीकार्य होता है।

(२) यदि अपना पुत्र न हो, तो जो अपने गोत्र का अपने वर्ण के गुण कर्म से युक्त हो उसे अपना सकते हैं।

(३) तीसरी स्थिति यह है कि यदि अपना वा अपने गोत्र में भी स्ववर्ण के योग्य न हो तो अपने गोत्र से भिन्न दूसरे की सन्तान अपने गुण कर्म से युक्त होने पर, उसे अपना लेवें।’’ यह आपत स्थिति है, श्रेष्ठ स्थिति तो पूर्व-पूर्व वाली है। यह इसलिए कि जो प्रश्न उठाया था- ‘‘जो किसी के एक ही पुत्र……. सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायेगा……।’’ इस स्थिति के लिए महर्षि ने यह व्यवस्था रखी है।

इस प्रकार से यदि दोनों स्थलों को देखेंगे तो जो विरोध दिख रहा है वह विरोध नहीं दिखेगा। फिर भी इस विषय में कोई इससे अच्छा समाधन करना चाहे तो उसका स्वागत है।

(ख) दूसरा प्रश्न आपका ‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः’ -य. १२.४४। इस मन्त्रांश के ‘यजमानस्य’ पद पर है। इस मन्त्र के ‘यजमानस्य’ पद में जाति (समूह को शास्त्रीय भाषा में जाति कहते हैं) में एक वचन समझना चाहिए, जिससे एक वा अनेक यजमानों के लिए यह वाक्य ठीक बैठ जाता है। पुनरपि यदि कोई इस पद को ‘व्यक्ति’ (एक इकाई) रूप में बोलना चाहें और ‘जाति’ में एकत्व का ज्ञान न हो, तो ‘यजमानयोः’ या ‘यजमानानाम्’ का प्रयोग भी कर सकते हैं। इसका समाधान व्याकरण महाभाष्य के प्रथम आह्निक में दिया है-

न सर्वैर्लिङ्गैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेदे मन्त्रा निगदिताः।

ते चावश्यं यज्ञगतेन पुरुषेण यथायथं विपरिणमयितव्याः।

तान् नावैयाकरणः शक्नोति यथायथं विपरिणमयितुम्

अर्थात् – ‘वेद में मन्त्र सब लिङ्गों ’और सब विभक्तियों से युक्त नहीं पढ़े हैं। उन्हें यज्ञगत पुरुष के द्वारा यथावत् (त    ात् यज्ञ के अनुरूप) विपरिणमित करना (बदलना) होगा। उनको अवैयाकरण नहीं बदल सकता। ऐसा करना मूल मन्त्र के संहितापाठ में परिवर्तन नहीं, अपितु विनियोग में सुविधानुसार परिवर्तन होगा।

(ग) सन्ध्या के मार्जन मन्त्रों में आये ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ पर आपकी शंका है। हे प्रभु- आप प्राणों के भी प्राण हैं मेरे शिर को पवित्र कर दें। इस विषय में हम आपको बता दें कि सम्पूर्ण शरीर में सबसे अधिक प्राणवायु की आवश्यकता मस्तिष्क को होती है। इस तथ्य को आज का आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है। नासिका प्राणवायु लेने का मार्ग है, नासिका मार्ग से लिया गया प्राण सम्पूर्ण शरीर को संचालित करता है। मुख्य रूप से मस्तिष्क को। जब मस्तिष्क को पर्याप्त प्राणवायु नहीं मिलता तब मस्तिष्क काम करना कम कर देता है। उस समय हमें ऊँघ आने लगती है, तमोगुण की वृद्धि होने लगती है और हमें नींद आ जाती है। इसलिए प्राण का अधिक सम्बन्ध मस्तिष्क से होने के कारण ‘भूः पुनातु शिरसि’ कहा है।

दूसरा सभी ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियों का मूल उद्गम शिर (मस्तिष्क) में है। और इन्द्रियों को भी प्राण कह देते हैं। जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा है- ‘‘प्राणा इन्द्रियाणि’’ (काठ.सं. ९.१/ताण्ड्य ब्रा. २२.४.३) इसी प्रमाण से महर्षि दयानन्द के सांख्यदर्शन से तथाकथित विरोधाभास का समन्वय भी हो जाता है। क्योंकि सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर के घटकों में ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ गिनाए हैं, जबकि महर्षि दयानन्द ने ५ प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ कहा है। किन्तु प्राण को इन्द्रिय कहने पर यह तथाकथित विरोध समाप्त हो जाता है। पवित्रता के लिए यहाँ प्रार्थना है। यहाँ शिरः पर प्राणरूपी ज्ञान व कर्मेन्द्रियों के मूल उद्गम स्थान मस्तिष्क भाग को संकेतित करता है और ‘सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि’ वाला ‘शिरः’ पद मस्तिष्क स्थानीय मेधा=बुद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ है।

(घ) इसी प्रकार ‘स्वः पुनातु कण्ठे’ भी उचित ही है। आप इसको शिर से जोड़ कर देखना चाहते हैं और शिर की पवित्रता से सुख होगा यह भी देख रहे हैं। यह ठीक है किन्तु शिर की पवित्रता के लिए महर्षि ने पृथक् से ‘सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि’ मन्त्र लिखा है। जो तर्क आप ‘स्वः’ के साथ शिर को जोड़ कर दे रहे हैं, वही तर्क ‘सत्यं’ को जोड़ कर भी दिया जा सकता है। इसलिए महर्षि ने जो क्रम रखा है वही अधिक संगत है। ‘सत्य’ सत्यस्वरूप परमेश्वर हमारे शिर को पवित्र करें। अर्थात् हमारे विचारों में सत्यता हो और यही सत्यता ही पवित्रता है। जब हमारे विचारों में सत्यता=पवित्रता होगी तो हम अपने कण्ठ से सुखकारी वचन बोलेंगे, जिससे हमें व अन्यों को सुख मिलेगा। इसलिए ऋषिवर ने ‘स्वः’ को कण्ठ के साथ जोड़ा है और ‘सत्य’ को शिर के साथ, स्वयं एवं दूसरों को सुख व दुःख पहुँचाने में कण्ठ का विशेष मह  व है। विचारों की पवित्रता सत्य से है और कण्ठ की पवित्रता सुखकारक, मधुर वचनों से है।

इसलिए ये मन्त्र भले ही वेद के नहीं है ऋषि वचन हैं फिर भी इनको परिवर्तित करने का अधिकार हम अल्पबुद्धि वालों का नहीं है और जब ये युक्तिसंगत हैं ही तो बदलने की बात भी व्यर्थ है। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)