सूत्र :ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥॥2/38
सूत्र संख्या :38
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - ब्रहाचर्य्यप्रतिष्ठायां। वीर्य्यलाभ:।
पदा० - (ब्रहाचर्य्यप्रतिष्ठायां) ब्रहाचय्य्र सिद्ध होने पर (वीर्य्यलाभ:) बल की प्राप्ति होती है।।
भाष्य - आत्मि तथा शारीरिक भेद से बल दो प्रकार का है, ब्रहाचर्य्य की सिद्धिवाले योगी को दोनों प्रकार का बल प्राप्त होता है।।
व्याख्या :
तात्पर्य्य यह है कि जिस योगी का ब्रहाचर्य्य प्रतिष्ठित होगया है उसको अपूर्व सामथ्र्य की प्राप्ति होजाती है जिससे वह संसार तथा आत्मा का पूर्ण रीति से उपकार करसकता है, जैसा कि अथर्ववदे में भी वर्णन किया है कि:-
ब्रहाचय्र्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति ।
आचाय्र्योब्रहाचय्र्येणब्रहाचारिणमिच्छते।। अथर्व० ११। ३।१७
अर्थ - ब्रहाचर्य्यरूप तप से ही राजा स्वदेश की रक्षा कर सकता है और ब्रहाचर्य्य से ही वेदादि सच्छास्त्रों के अध्यापन की सामथ्र्य आचार्य्य में होती है, और:-
ब्रहाचय्र्येणतपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
इन्द्रोब्रहाचय्र्येणदेवेभ्य: स्वराभत ।। अथर्व० ११। ३। १९
अर्थ - ब्रहाचर्य्य के प्रभाव से ही विद्वान् मृत्यु को जय करते अर्थात् दीर्घायु होते हैं ओर परमात्मा भी ब्रहाचारी विद्वानों को ही संपूर्ण सुख देता है।
अतएव मनुष्यमात्र को ब्रहाचर्य्य का पालन करना आवश्यक है और उक्त प्रकार का सामथ्य्र प्राप्त होना ही उसकी सिद्धि का चिन्ह है।।
सं० - अब अपरिग्रह की सिद्धि का चिन्ह कथन करते हैं:-