सूत्र :वितर्कबाधने प्रतिप्रक्षभावनम् ॥॥2/33
सूत्र संख्या :33
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - वितर्कबाधने। प्रतिपक्षभावनम् ।
पदा० - (वितर्कबाधने) वितकों के द्वारा उक्त यम, नियमों के अनुष्ठान में बाधा प्राप्त होने पर (प्रतिपक्षभावनम्) प्रतिपक्ष का चिन्तन करे।।
व्याख्या :
भाष्य - हिंससा, मिथ्याभाषण, स्तेय, आदि का नाम “वितर्क” और इनके द्वारा यम, नियमों के अनुष्ठान में प्रतिबन्ध का नाम “बाधन” और हिंसादि से होन वाले दुःखादिरूप भावी फल के चिन्तन का नाम “प्रतिपक्ष-भावन” है।।
यदि योगी को अंहिसा आदि यम नियमों के अनुष्ठान काल में:-
इनिष्याभ्येनमपकारिणम्=मैं इस अपकारी पुरूष को मारूंगा।
“अनृतमपिवदिष्यामि=मिथ्याभाषण भी करूंगा ।
“परधनमपिचोयिष्यामि= पराये धन को भी चुराउंगा।
“परदारेष्वपिव्यवायी भविष्यामि= परस्त्रीसंग भी करूंगा।
“शौचमपि त्यक्ष्यामि= और शौच भी त्याग दूंगा।
इस प्रकार हिंसा आदि वितकों की उपस्थिति हो तो उनकी निवृत्ति के लिये “घोरेपु संहाराड्डारेपु पच्यमानेन मया पग्त्यिज्य दुःखादिफलकान् हिंसादिवितर्कान् शरणमुपागता: खल सर्वभुताभयप्रदानेन सुरवज्ञानाननन्तफला: अहिंसादयो यमनियमा:, सोऽहंत्यक्त्वा वितर्कान् पुनस्तानेवाद-दानों नूनं तुल्य: श्ववृत्तेन= अहो! अनादि काल से दुःखमय संसार-अग्नि में तप्त हुए मैने किसी पुण्यविशेष के प्रभाव से सब प्राणियों को अभय-दानार्थ दुःखों के मूलकारण हिंसा आदि विर्तकों का त्याग करके सुख तथा ज्ञान फलवाले अहिंसादि यम नियमों का आश्रयण किया है, यदि मैं त्याग किये हुए वितर्को का पुन: ग्रहण करूंगा तो निश्चय यह मेरा व्यवहार कुत्ते के समान होगा, क्योंकि त्याग किये हुए का पुनः ग्रहण करना यह कुत्ते का ही स्वभाव है मनुष्य का नहीं, अतएव मुझ को दुःखमय संसाराग्रि के सन्ताप से बचने के लिये हिंसा आदि वितर्को का कदापि ग्रहण न करना चाहिये, इस प्रकार प्रतिपक्ष का चिन्तन करे, प्रतिपक्ष चिन्तन करने से पुनः योगी के चित्त में हिंसा आदि विर्तक कदापि उपस्थित नहीं होते और निर्विघ्रता से अनुष्ठित किये हुए यम नियम शीघ्र ही योग को सिद्ध करते हैं।।
सं० - अब वितर्कों के स्वरूप, प्रकार, कारण, धर्म तथा फल का निरूपण करते हुए प्रतिपक्षभावन का स्वरूप कथन करते हैं:-