सूत्र :कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः ॥॥2/43
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - कायेन्द्रियसिद्धि: । अशुद्धिक्षयात् । तपस:।
पदा०- (तपस:) तप की सिद्धि होने से (अशुद्धिक्षयात्) अशुद्धिक्षय के अनन्तर योगी को (कायेन्द्रियसिद्धि:) शरीर तथा इन्द्रिय-सिद्धि की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य- रोगादिक से शरीर की तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रसदि विषयों के यथार्थ ग्रहण की अशक्ति इन्द्रियों की अशुद्धि कहलाती है।।
जब योगी का तप सिद्ध हो जाता है जब इसकी उक्त अशुद्धि क्षय होकर शरीर तथा इन्द्रियों की सिद्धि अर्थात् उत्कृष्टता प्राप्त होती है, शरीर के सर्वथा स्वस्थ हो जाने का नाम “कार्यसिद्धि” और दूरवर्ती तथा निकटवर्ती शब्दादि निखिल विषयों के यथार्थ ग्रहण करने की शक्ति का नाम “इन्द्रियसिद्धि” है, इन दोनों शक्तियों का प्राप्त होना तप सिद्धि का चिन्ह है।।
सं० - अब स्वाध्याय सिद्धि का चिन्ह कथन करते हैं:-