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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :शौच संतोष तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥॥2/32
सूत्र संख्या :32

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - शौचसतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि । नियमा:। पदा० - (शौचसन्तोष ०) शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान, यह (नियमा:) नियम है।।

व्याख्या :
भाष्य - बाहा और आभ्यन्तर भेद से शौच दो प्रकार का है, जल अथवा मिटृटी आदि से शरीर के और हित, भित, तथा मेध्य=पवित्र भोजनादि से उदर के प्रक्षालन का नाम “वाह्मशौच” मेत्री, करूणा, मुदिता आदि भावनाओं से इर्षा आदि चित्तमलों के प्रक्षालन का नाम “आभ्यन्तरशौच” जो भोग के उपयोगी साधन विद्यमान हैं उनसे अधिक अनुपयोगी साधनों की इच्छा के अभाव का नाम “सन्तोष” सुख, दुःख, शीत, उष्णादि द्वन्दों को सहारने और हितकर तथा परिमित आहार करने का नाम “तप” ओंकारादि ईश्वर के पवित्र नामों का जप और वेद, उपनिषद् आदि शास्त्रों के अध्ययन का नाम “स्वाध्याय” और फल की इच्छा छोड़कर केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिय वेदोक्त कर्मों के करने का नाम “ईश्वरप्रणिधान” है।। इन पांचों का नाम “नियम” है क्योंकि यह प्राणिमात्र को अवश्य कत्र्तव्य हैं, इनके अनुष्ठान से योगी को शीघ्र ही योग की प्राप्ति होती है, जैसा कि निम्नलिखित व्यासभाष्य में कहा है कि :- शय्यासनस्थोऽथि पथि व्रजन्वा स्वस्थ: परिक्षीणवितर्कजाल:। संसारबीजक्षयमीक्षमाण: स्यान्नित्यमुक्तोऽमृतभोगभागी।। अर्थ - जो योगी शय्या किंवा आसन पर बैठा, मार्ग में चलता अथवा एकान्तसेवी हुआ वक्ष्यमाण वितकों से रहित यमों का अनुष्ठान करता है वह संसार के बीज अविद्या आदि क्केशों के क्षय होजाने से शीघ्र ही योग की प्राप्ति द्वारा जीवनमुक्त तथा विदेहमुक्त हो जाता है, इसलिये यह योग के अंग हैं।। सं० - अब उक्त यम नियमों के अनुष्ठानकाल में प्राप्त होनेवाले विघ्रों की निवृत्ति का उपाय कथन करते हैं:-