व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - पुरूषार्थशून्यानां। गुणानां। प्रतिप्रसव:। कैवल्यं। स्वरूपप्रतिष्ठा। वा। चितिशक्ति:। इति।।
पदा० - (पुरूषार्थशून्यानां, गुणानां) पुरूषार्थ से रहित बुद्धि आदि द्वारा परिणत गुणों का (प्रतिप्रसव:) अपने कारण में लय होने को (कैवल्यं) कैवल्य कहते हैं (वा) अथवा (स्वरूपप्रतिष्ठा) अपने शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठारूप (चितिशक्ति:) चेतन स्वरूप पुरूष की बुद्धि के सम्बध से रहित होकर अपने स्वरूप में स्थित होना कैवल्य है, (इति) शब्द शास्त्र की समाप्ति का बोधक है।।
व्याख्या :
भाष्य - जब व्युत्थान, समाधि तथा निरोध के संस्कार चित्त में लीन होजाते हैं जब चित्त का अंहकार में अंहकार का महत्तत्त्व में तथा महत्तत्त्व का प्रकृति में लय होना “प्रतिप्रसव” कहलाता है, और जब चेतनस्वरूप पुरूष का बुद्धि के साथ सम्बन्ध नहीं रहता तब उसकी अपने स्वरूप में स्थिति को “स्वरूपप्रतिष्ठा” कहते हैं।।
तात्पर्य्य यह है कि कार्य कारणभाव को प्राप्त हुए तीनो गुण पुरूष के लिये भोग वा मोक्ष को सम्पादन करने के अनन्तर अपने २ कारण में लीन होजाते हैं, कार्य कारण भाव को प्राप्त हुए तीनों गुणों का पुरूष के भोग मोक्ष को सम्पादन करने के अनन्तर अपने २ कारण में लयरूप प्रतिप्रसव द्वारा लिये शरीर के भंग होजाने का नाम “कैवल्य” है, और लिड्ड शरीर के भंग होने के अनन्तर बुद्धि वृत्ति के समानाकार न होने से अपने स्वरूप में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को भोगना पुरूष का कैवल्य है, क्योंकि संसार दुःख से रहित होकर पुरूष ही ब्रह्मानन्द का भोक्ता होसकता है, इसलिये प्रधान कैवल्य के अनन्तर पुरूष कैवल्य का निरूपण किया गया है।।
ननु - इस शास्त्र में स्वरूप प्रतिष्ठा का नाम “मुक्ति” है अथवा संस्कार मन में लय होजाते हैं, मन अस्मिता में, अस्मिता महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व प्रधान में, इस प्रकार बुद्धि आदि गुणों के लय का नाम “मुक्ति” है, और न्यायशास्त्र में “तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग:” न्याय० १। २२=दुःख की अत्यन्त निवृत्ति का नाम “मुक्ति” है, वैशेषिकशास्त्र में “तदभावेसंयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्चमोक्ष:” वै० ५। २। १८=सश्वित कर्मों का ज्ञान द्वारा अभाव होने से प्रारब्ध कर्मों के भोगने से और क्रियामाण कर्मों का दोषों की निवृत्ति से संयोगाभाव अर्थात् मन आदिकों के सम्बन्ध का अभाव होने पर जो अप्रादुर्भाव=जन्म का न होना है उसका नाम “मुक्ति” है, नवीन नैयायिकों के मत में एकविंशति दुःखों के नाश का नाम “मुक्ति” है, वह दुःख यह हैं:-
(१) शरीर (२) श्रोत्र (३) त्वक् (४) चक्षु (५) रसना (६) घ्राण (७) मन, उक्त ६ इन्द्रियों के ६ विषय और इनके श्रवणादि ६ ज्ञान, सुख और दुःख। सांख्यशास्त्र में आध्यात्माधिदैविकादि तीनों दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति का नाम “मुक्ति” है, नवीन वदान्तियों के मत में मिथ्याभूत संसार की निवृत्ति और स्वात्मभूत ब्रह्म की प्राप्ति का नाम “मुक्ति” है, रामानुज के मत में ईश्वर के गुणों को ज्ञान कर्म के समुच्चयद्वारा प्राप्त होने का नाम “मुक्ति” है, शून्यवादियों के मत में शून्यभाव की प्राप्ति का नाम “मुक्ति” है।।
एवं वैदिक और अवैदिक लोग अनेक प्रकार से मुक्ति विष में विप्रतिपत्तिग्रस्त हैं, फिर कैसे निश्चित करे कि किस मत की मुक्ति ठीक है और कौन २ शास्त्र वेदोक्त मुक्ति को मानता है? इस पूर्वपक्ष का समाधान यह है कि वस्तुगत्या कैवल्य ही “मुक्ति” है, कैवल्य नाम स्वरूपनिष्पत्ति का है, जब जीव स्वरूप से सर्वथा शुद्ध होता है तो उसको कैवल्य पद की प्राप्ति होती है, अविद्याग्रस्त को कैवल्य पद की प्राप्ति कदापि नहीं होती, इसी अभिप्राय से योगियां ने मुक्तपद का नाम कैवल्य रक्खा है, जैसाकि “परंज्योतिरूपसम्पद्यस्वेनरूपेणीनिष्पद्यते” इस छान्दोग्य वाक्य में मुक्त पुरूष का शुद्धस्वरूप वर्णन किया गया है, एवं “तमेवविदित्वाऽतिमृत्युमेति” यजु० ३१। १८ इस वेद मंत्र मे भी कैवल्य का नाम ही मुक्ति है, क्योंकि मृत्युतत्येति के अर्थ यह है कि परमात्मज्ञान से जीव मृत्यु का अतिक्रमण कर जाता है, मृत्यु को उल्ंघन करने के अथल जीव की स्वरूपमात्र स्थिति के हैं, इसी को कैवल्य कहते हैं इसी भाव से सांख्यशास्त्रकार ने आध्यात्मादि दुःखों की निवृत्ति का नाम मुक्ति रखा है और इसी भाव से नयायशास्त्र के कत्र्ता महर्षि गौतम ने दुःख के अभाव को मोक्ष कहा है, यहां उक्त शास्त्रकार दुःखाभावमात्र ही मुक्ति नहीं मानते किन्तु दुःख निवृत्ति पूर्वक परमसुख की प्राप्ति को मुक्ति मानते हैं, जैसाकि “समाधिसुपुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता” सां० ५। ११६ इत्यादि सूत्रों में ब्रह्मभाव की प्राप्ति का नाम मोक्ष माना है और वह ब्रह्मभाव की प्राप्तिरूप ब्रह्मानन्द का उपभोग दुःखात्यन्तनिवृत्तिपूर्वक ही होसकता है अन्यथा नहीं, इसी अभिप्राय से न्याय, वैशेषिकादि शास्त्रों में दुःखात्यन्तनिवृत्ति पर अधिक बल दिया गया है, एवं न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग की दुखात्यन्तनिवृत्तिरूप कैवल्य और पूर्वोत्तर मीमांसाकार महर्षि जैमिनिन और वयासजी की ब्रह्मप्राप्तिरूप मुक्ति का वैदिकमुक्ति से कोई विरोध नहीं।।
वैदिक मुक्ति “वेदाहमेतंपुरूषंग्रहान्त” यजु० ३१। १८ इत्यादि मन्त्रों में स्पष्ट रूपता से वर्णन की गई है कि ब्रह्मज्ञान से ही मुक्ति होती है अन्यथा नहीं, यही ब्रह्मभाव अर्थववेद के इस मन्त्र में इस प्रकार वर्णन किया गया है कि:-
वेदाहं सूत्रंविततं यस्मिन्नेता प्रजा इमा।
सूत्रंसूत्रस्याऽहंवेदायोयदूब्राह्मणं महत्।। अथर्व० १०। ४।८
अर्थ - जिस सूत्रात्मा ब्रह्म में सम्पूर्ण प्रजा ओतप्रोत है उस सर्वात्मभूत ब्रह्म के सूत्रपन अर्थात् सर्वाधारपन को मै जानता हूं, ऐसा ज्ञान महद्ब्राह्मणं=ब्रह्मभाव है अर्थात् ब्रह्म के आनन्द का उपयोग करना है, इसी आनन्द के उपभोग को “सोऽश्नुतसर्वान्कामान्सहब्रह्मणाविाश्चिता” इत्यादि उपनिषद्वा क्यों में वर्णन किया है कि जिज्ञासा सर्वज्ञ ब्रह्म के भावों को प्राप्त होकर उसके स्वरूपानन्द का उपभोग करता है और इसी बात को “भोगमात्रसाम्यड्डिाच्च”ब्र० सू० ४। ४। २१ में वर्णन किया है कि ब्रहानन्द के उपभोग करने मात्र से ही जीव ब्रह्म की मुक्ति में समता होती है, इस प्रकार षट्शास्त्रकारों का मुक्ति विषय में मन्तव्य एक है।।
और जो एकविशति दुःखों की ध्वंसरूप मुक्ति नवीन नैयायिकों ने मानी है और सब विशेषताओं को मिटाकर पाषाण के तुल्य होजाने का नाम मुक्ति जो आधुनिक वेदान्तिायों ने रक्खा है वह शून्यवाद का अनुकरण होने से सर्वशास्त्र विरूद्ध है, क्योंकि शास्त्र में जीव का स्वरूपभूत ज्ञान नित्य माना गया है, जैसाकि “आत्मेन्द्रिययर्थसत्रिकर्षाद्यद्यतेतदनयत्” वै० ३। १। ११ इस स्थल में वर्णन किया है कि आत्मा और मन के संयोग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह जीवन के स्वरूपज्ञान से भिन्न है, इस तत्त्व को न समझकार न्याय वैशेषिक के पढ़नेवाले यह मान बैठते हैं कि आत्मा में ज्ञान मन के संयोग से ही उत्पन्न होता है और जब मन का संयोग नहीं होता तब उसमें कोई ज्ञान नही, ऐसा मानना शास्त्र से सर्वथा विरूद्ध है और आधुनिक वेदान्ती आत्मा के ज्ञान को उपाधि से मानते हैं शुद्ध में ज्ञातृत्व नहीं मानते, उनका ऐसा मानना वेदान्त शास्त्र से सर्वथा विरूद्ध है, जैसाकि “ज्ञोऽतएव” ब्र० सू० २। ३। १९ इस सूत्र में महर्षि व्यास ने जीव को ज्ञाता माना है और मायावादी इसके अर्थ अन्यथा करते हैं, क्योंकि स्वरूपभूत ज्ञान मानने से अर्थात् आत्मा में ज्ञातृत्व मानने से “ मैं हूं ” इस ज्ञान को सत्य मानना पड़ता है और वास्तव में उक्त ज्ञान उनके मत मे रज्जु सर्प के समान भ्रममात्र है, इस प्रकार शास्त्र की मर्यादा ग्रन्थों के छोड़ने से सर्वथा भंग होगई है, जैसाकि श्रीभाष्याचार्य्य स्वामी रामानुज वैशेषिक खण्डन में यह लिखते हैं कि “उतकणभुगभिमतपाषाणकल्पस्वरूपमचित्स्वरूपमेवागन्तुकचैतन्यगुप्यकम् ” क्या कणाद के माने हुए पाषाण के तुल्य जीवात्मा जड़स्वरूप आगन्तुक ज्ञान गुणवाला है? इस लेख से यह पाया गया कि मूलग्रन्थों की प्रथा भूलजाने से लोगों ने महर्षि कणाद को जड़वादी बनादिया है, इसका कारण यही है कि आधुनिक लोगों ने अवैदिक टीका लिखकर शास्त्रों के तत्त्व को अन्यथा करदिया है, यदि मूलशास्त्रों पर ध्यान दियाजाता तो ऐसा अनर्थ कदापि न होता, क्योंकि मूलसूत्रों में महर्षि कणाद ने विशेष ज्ञान की उत्पत्ति मानी है, स्वरूपभूत ज्ञान की नहीं, इस भाव को हम “वैशेष्किार्य्यभाष्य” ३। १। १९ सूत्र में कथन कर आये हैं, वैदिकसिद्धान्त में “द्वासुपर्णासयुजासखाया” ऋ० २। ३। १७ इत्यादि मन्त्र जीवात्मा को चैतन्य कथन करते हैं और “नित्योऽनित्यानांचेतनशेवतनानाम्” कठ० ५। ३१ इत्यादि औपनिषद वाक्य भी इसी की पुष्टि करते हैं अर्थात् ज्ञानस्वरूप को ही ज्ञान गुणवाला कथन करते है, जैसाकि प्रकाशस्वरूप सूर्य्य को प्रकाश का आश्रय कथन किया जाता है, अधिक क्या सांख्य, योग, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक तथा मीमांसा, यह षट्शास्त्र ज्ञानस्वरूप जीवात्मा को ही ज्ञान गुणवाला कथन करते हैं और ऐसा ही औपनिषद लोगों ने माना है, जैसकि “योवेदेदंजिघ्राणीति स आत्मा” वृहदा० ४। १८=जो यह समझता है कि मै सूंघता हूं वह आत्मा है, इस प्रकार जीव के स्वरूप विषयक शास्त्र की प्रकिया में कोई भेद नहीं, इसी प्रकार मुक्ति में षट्शास्त्रों के मत में दुःख की अत्यन्त निवृत्ति पूर्वक ब्रह्मानन्द के उपभोग करने का नाम मुक्ति है, और “चितितन्मात्रेणतदात्मकत्वात्” व्र० सू० ४। ४। ६ “ब्राह्मेणजैमिनिरूपन्यासादिभ्य:” व्र० सू० ४। ४। ५ इत्यादि सूत्रों में यह वर्णन किया गया है कि जीव मुक्ति अवस्था में चेतन स्वरूप से विराजमान होता और ब्रह्म के धर्मो को धारण करने से मुक्त होता है, यही भाव “परंज्योतिरूपसम्पद्यस्वेनरूपेणाभिनिष्पद्यते” छा० ८। ३। ४ इत्यादि ज्पतिषद्वाक्यों में निरूपण किया गया है, और इसी भाव का वर्णन “कैवल्य स्वरूप प्रतिष्ठा वा चितिशक्ति:” इस सूत्र में लिखा गया है कि जीवात्मा शुद्ध होकर अपने शुद्धस्वरूप से विराजमान होता है और उसके स्वरूप की शुद्धि ईश्वर प्राप्ति के बिना कदापि नहीं होसकती, इसी बाता को “तदाद्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम्” यो० १। ३ “तज्ज्पस्तदर्धभावनम्” यो० ५। १८ “तत्प्रतिषेधार्थ एकतत्त्वाभ्यास:” यो० १। ३२ इत्यादि अनेक सूत्रों में परमात्म स्वरूप के अवलम्बन से जीवात्मा की शुद्धि कथन की गई है, इस प्रकार तद्धर्मतापत्तिरूप ईश्वरप्राप्ति और दुःखनिवृत्ति रूप स्वरूपशुद्धि ही “कैवल्य” है।।
यह वह कैवल्य है जिसको पाकर योगी कृतकृत्य होजाता है, इस कैवल्य का एकमात्र योग ही साधन है, इसको प्राप्त होकर योगी इस प्रकार से ब्रह्मानन्द में निमग्न होता है कि फिर उसको दुःख का लेश भी नहीं रहता, फिर उसको एकमात्र परमात्मा ही पूर्ण प्रतीत होता है, जैसाकि:-
पूर्णमद: पूर्णमिदंपूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। वृहदा० ५। १। १
इस उपनिषद्वाक्य में वर्णन किया गया है कि उसका द्दश्य एकमात्र पूर्ण होता है और उस पूर्ण की पूर्णता से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पूर्ण समझता है, उस पूर्ण के पूर्णभाव को धारण करके योगी इस सर्वोपरि कैवल्यभाव को धारण करता है, कैवलय में जो आनन्द होता है वह निम्नलिखित छन्दों में प्रतिपादन किया गया है:-
सवैया
यम नेध सु आसन प्राण यमं प्रतिहार वली अरू ध्यान अपारो।
ये सच साधन सिद्ध करो तब योग विभूति की तत्त्व विचारो।।
भोग तजो सु भजो पथयौगिक या विध से प्रभु रूप निहारो।
जो इनसे जगदीश मिल तब तो मुनिआर्य्य की मतिधरो।। १।।
पंचक लेश नही जिसमं अरू जीवन जाति को प्राण अधारो।
वयाप रहा सब के घट में पुन कुंजर कीटहिं देत अहारो।।
सूर शशी जिसकी छति से नभमण्डल मण्डित रूप अपारो।
सो चिद्धारिधि लीन भयो मन यौगिक पंथ को मारग न्यारो।। २।।
जिनके घट योग प्रभाव भया उनके मति दोष भये सब भंगा।
क्षुद्र नदी जल शुद्ध भवे जब नीर अगाध मिल वह गंगा।।
ऊंचन की सत्संगति से जस नीचहुं जाय के होत उतंगा।
मायिक मोह मिटा मन का चिद्वारिधि मांह भया इक रंगा।। ३।।
रूप अनूप धरे नित नूतन सो तुम जानहुं अंजन माया।
आय न आय बसे न नशे वह हे चिद्रूप निरंजन राया।
व्यापकर ब्रह्मा अखंड अनावृत है घन सैंधव के सम गाया।
सो चिदृवारिधि रूप भए अब योग प्रभाव को ये फल पाया।। ४।।
केवल रूप भया जन जो वह ना परलोक विषे तनु धारे।
देश म्लेच्छ तजे तनु को उत देव नदि तट में तनु ढारे।।
हित कंदर सुंदर त्याग करे उत जाय मरे वह सिन्धु किनारे।
दोष क्केश मिटे सगरे सुख सिन्धु प्योनिधि मांह पधारे।। ५।।
जाहि निमित्त करी तपसा और जाहि निमित्त धरे व्रत धारी।
साधन योग किये पुन जाहित जाहित नाप किए श्रुति चारी।।
लख्य अलक्ष्य धरा प्रभु जाहित जांहि निमित्त भए ब्रह्मचारी।
सो भवसागर पर भए अब, योग प्रभाव भया बलकारी।। ६।।
चिद्रूप प्रकाश भया अब पूर्ण और सभी तम मोह विनाशे।
पूरण रूप निरूप चिति उसकी प्रतिभा हमको अब भासे।।
भूल अबोध रहे जिनमें दिन एक मांहि मिटें त तमाशे।
त्याग करे इनका जन जो उनके सब शोक क्केश विनाशे।। ७।।
भारत मांह कही मुनि व्यास जु योगमती सब पाप विदारे।
भागवती श्रुति आप कथे पुन और कथा को कहो को विचारे।।
पार भए भवसागर से जिनने सब यौगिक साधन धारे।
नाह लहें इनकी गति से वह शीश धुने मद में मतवारे।। ८।।
सत्त्वादिक गुण गण जिते, भए द्दश्य में लीन।
अहो योग की योग्यता, लिया तत्त्व पद चीन।। १।।
इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिवद्धे योगार्य्यभाष्ये
चतुर्थ: कैवल्यपाद: समाप्त:
।। समाप्तश्चायंग्रन्थ:।।