सूत्र :शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ॥॥2/40
सूत्र संख्या :40
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - शौचात्। स्वाग्डजुगुप्सा। परैः । असंखर्ग:।
पदा० - (शौचात्) वाह्मशौच की सिद्धि होने पर (स्वाग्डजुगुप्सा) अपने शरीर में ग्लानि तथा (परै:) दूसरों के साथ (असंर्ग:) असम्बन्ध होता है।।
व्याख्या :
भाष्य - जब योगी को वाह्म शौच सिद्ध होता है, तब इसको अपने शरीर में अशुचिता बुद्धि उत्पन्न होती है, जैसाकि निम्नलिखित व्यास भाष्य में कथन किया है कि:-
स्थानाद्बीजादुपष्टम्भान्नि: स्पन्दान्निघनादपि।
कायमाधेय शौचत्वात्पण्डिताह्मशुचिंविदु:।। व्या० भा० २।५
अर्थ - रक्त वीर्य्य से बनने, गर्भाशय में रहने, रूधिर तथा अस्थिमय होने, नासिकादि सर्व छिद्रों द्वारा मल के बहने, मृत्युद्वारा अस्पृश्य और कल्पित शौच का आश्रय होने से इस शरीर को पण्डित लोग अशुचि कहते हैं।।
इस प्रकार अशुचि बुद्धि के उत्पन्न होने से शरीर में ग्लानि और गलनि से देहाध्यास की निवृत्ति होती है, ऐसा होने से दूसरों के साथ सम्बन्ध की इच्छा नहीं रहती अर्थात् एकान्तवासी होकर आत्मध्यान में तत्पर हो जाता है।।
तात्पर्य्य यह है कि देहाध्यास की निवृत्ति तथा एकान्तसेवन यह दोनों वाह्मशौचसिद्धि का चिन्ह हैं।।
सं० - अब आभ्यन्तर शौचसिद्धि का चिन्ह कथन करते हैं:-