DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :सत्त्वशुद्धिः सौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शन योग्यत्वानि च ॥॥2/41
सूत्र संख्या :41

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पदा० - सत्त्वशुद्धिसौमनस्येकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शन योग्यत्वानि । च। पदा० - (च) आभ्यन्तर शौच सिद्ध हो जाने से (सत्त्वशुद्धिसौ०) सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य, ऐकाग्य, इन्द्रियजय और आत्मदर्शनयोग्यता की प्राप्ति होती है।।

व्याख्या :
भाष्य - चित्तशुद्धि का नाम “सत्त्वशुद्धि” शुद्धि की अधिकता का नाम “सौमनस्य” ईश्वर में एकतान चित्त का नाम “ऐकाग्रय” इन्द्रियों का अपने अधीन हो जाने का नाम “इन्द्रियजय” और विवेकज्ञान के योग्य होने का नाम “आत्मदर्शनयोग्यत्व” है, जय योगी मैत्री आदि भावनाओं का निरन्तर अभ्यास करता है तब इसके रागादिक चित्तमल निवृत्त होकर चित्त शुद्ध हो जाता है और चित्त की शुद्धि होने से स्फटिक की भांति नितान्त स्वच्छ हुआ एकाग्र होता है और एकाग्रता के अनन्तर योगी को इन्द्रियजय तथा विवेकख्याति की योग्यता प्राप्त होती है।। तत्त्व यह है कि आभ्यन्तर शौच की सिद्धि होने से योगी को यथाक्रम चित्त की शुद्धि, स्वच्छता, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है, यही आभ्यन्तरशौच की सिद्धि का चिन्ह है।। सं० - अब संतोष सिद्धि का चिन्ह कथन करते हैं:-

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