सूत्र :संतोषातनुत्तमस्सुखलाभः ॥॥2/42
सूत्र संख्या :42
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - संतोषात्। अनुत्तमसुखलाभ:।।
पदा० - (संतोषात्) सन्तोष सिद्धि होने पर योगी को (अनुत्तमसुखलाभ:) अनुत्तम सुख की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - जिस सुख से बढ़कार अन्य कोई सुख उत्तम नहीं उसको “अनुत्तमसुख” कहते हैं, संतोष की सिद्धि होने से योगी को ऐसे सुख का लाभ होता है, जैसा कि मनुजी ने भी कहा हे कि:-
सन्तोषंपरमास्थाय सुखार्थीसंयतोमवेत् ।
संतोषमूलं हि सुखंदुःखमूलंविपर्य्यय:।। मनु० ४। १२
अर्थ-पुरूष को सन्तोष से ही अनुत्तमसुख प्राप्त हो सकता है असन्तोष से नहीं, क्योंकि सन्तोष ही अनुत्तम सुख का मूल है और इसके विपरीत तृष्णा दुःखों का मूलकारण है, इसलिये अनुत्तम सुख की इच्छा वाला पुरूष सन्तोष का सेवन करे, अनुत्तम सुख की प्राप्ति ही सन्तोष सिद्धि का चिन्ह है।।
सं० - अब तप सिद्धि का चिन्ह कथन करते हैं:-