सूत्र :तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञ ॥॥2/27
सूत्र संख्या :27
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तस्य। सप्तधा। प्रान्तभूमि: । प्रज्ञा।
पदा० - (तस्य) उक्त विवेकख्याति वाले योगी की (सप्तधा) सात प्रकार की (प्रान्तभूमिः) सब से उत्कृष्ट अवस्थावाली (प्रज्ञा) बुद्धि ताप्त होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - निर्मल विवेकख्याति के उत्पन्न होने से जो योगी के चित्त में प्रज्ञा उत्पन्न होती है वह विषयभेद से सात प्रकार की है, जैसा कि “परिजातंहेयंनपुनरस्यकिशिचत्परिज्ञेयमस्ति=संसाररूप हेय को मैंने भले प्रकार जान लिया कि यह सम्पूर्ण दुःखमय है अब इसमें कुछ जानाना शेष नहीं रहा।। १।।
हताः हेयहेतवः अविद्यादयः क्केशाः न पुनरेतेषां किश्रिद्धातव्यमस्ति=हेय के हेतु अविद्यादि पांचो क्केश निवृत्त हो गए अब मुझको इनमें से कोई भी निवत्र्तनीय नहीं।। २।।
प्राप्तंहानंनपुनरन्यत्किज्ञि´चत्प्राप्तव्यमस्ति = मुझ को हान प्राप्त हुआ, अब कुछा प्रापणीय नहीं।। ३।।
निष्पादितो हानोपायो न पुनरत्यत्किच्चिन्निष्पादनीयमस्ति =हान का उपाय मैंने सम्पादन करलिया, अब मुझको कुछ सम्पादनीय नहीं।। ४ ।।
कृतार्थ में बुद्धिसत्त्वं = भोग, अपवर्गरूप पुरूषार्थ के सम्पादन करने से मेरी बुद्धि कृतार्थ होगई।। ५ ।।
बुद्धिरूपेण परिणता: गुणाअपि गिरिशिखरच्युता इव ग्रावाणो निरवस्थाना: स्वकारणे प्रकृतौ प्रलयाभिमुखा: सहबुद्धिसत्त्वेनात्यन्तिकंलयंगच्छन्ति नचैषामस्ति पुनरूत्पादः प्रयोजनाभावात् = जैसे पर्वत के शिखर से गिरे हुए पाषाण चूर २ होकर पृथिवी में लय होजाते हैं वैसे ही सत्त्व, रज, तम, यह तीनों गुण भी चित्तरूप् आश्रय के न रहने से निराश्रय हुए चित्त के साथ ही अत्यन्त लय को प्राप्त होजाते हैं, अब किसी प्रयोजन के न रहने से फिर इनका प्रादुर्भाव न होगा ।। ६ ।।
तत्र गुणातीत: स्वरूपमात्रावस्थितश्रदेकरसः केवली पुरूष: परमात्मना सम्पत्स्यते = अब त्रिगुणातीत हो जाने से स्वरूप में स्थित हुआ ज्ञान स्वरूप पुरूष परमात्मा को प्राप्त होगा।। ७।।
इन सातों में प्रथम प्रज्ञा का फल जिज्ञासनिवृत्ति, दूसरी का जिहासानिवृत्ति, तीसरी का प्रेप्सानिवृत्ति, चौथी का चिकीर्षानिवृत्ति, पांचवी का शोकनिवृत्ति, छठी का भय निवृत्ति और सातवीं का विकल्पनिवृत्ति फल है, इस प्रकार सात फलोंवाली जो सात प्रकार की प्रज्ञा विवेकाख्यातिनिष्ठ योगी को प्राप्त होती है इसमें प्रथम की चार प्रज्ञा का नाम “काव्र्यविमुक्ति” और शेष तीन का नाम “चित्तविमुक्ति” है, कार्य्यविमुक्ति प्रज्ञासाधन और चित्तविमुक्ति प्रज्ञाफल है, कार्य्यविमुक्ति का अर्थ कत्र्तव्यों से मुक्ति अर्थात् निष्कत्र्तव्यबुद्धि और चित्तविमुक्ति का अर्थ चित्तसत्त्व से मुक्ति अर्थात् चित्त में समाप्ताधिकारता बुद्धि हैं।।
उक्त सात प्रकार की प्राप्त प्रज्ञा जिस योगी को होती है उस को निर्विकल्प तथा कुशल कहते हैं, कुशल, जीवन्मुक्त, यह दोनों पय्र्याय शब्द हैं।।
सं० - ननु, विवेकख्याति की प्राप्ति कैसे होती है? उत्तर:-