सूत्र :योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः ॥॥2/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - योगाड्डानुष्ठानात् । अशुद्विक्षये। ज्ञानदीप्ति: । आविवेकख्याते:।
पदा० - (योगाड्डानुष्ठानात्) योगाड्डों के अनुष्ठान द्वारा (आशुद्विक्षये) अशुद्धि के नाश हो जाने से (आविवेख्याते:) विवेकख्याति पर्य्यन्त (ज्ञानदीप्ति:) निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है।
व्याख्या :
भाष्य - सम्प्रज्ञात, सम्प्रज्ञात समाधि को “योग” और उस के यम नियमादि आठ साधनों को “अड्ड” कहते हैं, उन अड्डो के यथाविविध सम्पादन का नाम “अनुष्ठान” और उसके सूक्ष्म होने का नाम “क्षय” है, योगी जैसे २ योग के अड्डो को अनुष्ठान करता जाता है वैसे ही अशुद्धि क्षय होती जाती है और जैसे २ अशुद्धि का क्षय होता जाता है वैसे २ ही ज्ञान निर्मल होकर बुद्धि को प्राप्त होता है, इस प्रकार साधनों के अनुष्ठान द्वारा बुद्धि को प्रापत हुए निर्मल ज्ञान की अन्तिम सीमा का नाम “विवेकख्याति” है, तात्पर्य्य यह है कि योगी को दीर्घकाल तक निरन्तर तथा सत्कारपूर्वक योगाड्डों के अनुष्ठान करने से हान क उपाय निर्विपल्लव विवेकख्याति की प्राप्ति होती है।।
यहां यह भी स्मरण रहे कि योगाड्डों के अनुष्ठान से प्रथम अशुद्धि का क्षय होता है और पश्चात् विवेकख्याति की प्राप्ति होती है।।
सं० - अब योग के अंगों की गणना करते हैं:-