सूत्र :परिणाम ताप संस्कार दुःखैः गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ॥॥2/15
सूत्र संख्या :15
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - परिणामतापसंस्कारदुःखैः। गुणवृत्तिविरोधात्। च। दुःखं। एव। सर्व। विवेकिन:।
पदा० - (परिणामतापसंस्कारदुःखैः) परिणामदुःख, तापदुःख, तथा संस्कारदुःख से मिश्रित (च) और (गुणवृत्तिविरोधात्) परस्पर विरूद्ध तथा चल स्वभावगुणों का परिणाम होने के कारण (सर्व) सम्पूर्ण विषयसुख (विवेकिन:) विचारशील योगी को (दुःख, एव) दुःख ही हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - जब पुरूष को विषसुख की प्राप्ति होती है तब उसके साधन पुत्र, कलत्र, मित्र, धन, गृह, आदि चेतनाचेतन विषयों में राग और उनके विरोधियां में द्वेष तथा विरोधियों के परिहार में असमर्थ होने से मोह अर्थात् कत्र्तव्याकत्र्तव्य का विचार न होना, इन तीनों के उत्पन्न होने से मन; वाणी तथा शरीर के द्वारा मानसिक, वाचिक और शारीरिक शुभाशुभ कर्मों को करता है, उनसे जन्म और जन्म से जो इसको दुःख प्राप्त होता है उसका नाम “परिणामदुःख” है क्योंकि विषयसुख ही राग द्वेषादिकों की उत्पत्ति द्वारा भावी जन्म में दुःखरूप से परिणत हुआ है।।
विषयसुख की प्राप्ति समय में जो पुरूषको सुखसाधनों की अपूर्णता देखकर हृदय में सन्ताप उत्पन्न होता है उसका नाम “तापददुःख” है अर्थात् जब यह पुरूष विषयसुख के अनुभवकाल में सुखसाधनों की अपूर्णता और दुःखसाधनों की प्रबलता देखता है जब राग, द्वेष, लोभ, मोहादि के वशीभूत होकर नानाप्रकार के शुभाशुभ कर्मों में प्रवत्त होता है, उस प्रवृत्तिकाल में जो पुरूष के अनतःकरण में द्वेषजन्य प्रवृत्ति तथा शुभाशुभ कर्मों से होनेवाले भावीजन्म में दुख की संभावना से परिताप उत्पन्न होता है उसको “तापदुःख” कहते हैं।।
विषयसुख के अनुभव से संस्कार, संस्कारों से सुख्स्मरण, सुखस्मरण से राग, तथा राग से सुखप्राप्ति के लिये शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्ति, प्रवृत्ति से पुण्यपाप और पुण्यपाप से पुनर्जन्मद्वारा सुखनुभव और फिर पुनःसंस्कार, इस प्रकार होनेवाले जन्ममरण के हेतु संस्कारचक्र का नाम “संस्कारदुःख” है।।
इन तीनप्रकार के दुःखों से सम्पूर्ण विषयसुख मिश्रिता हैं, इनसे मिश्रित होने पर भी स्थिर नहीं किन्तु क्षणिक है, अर्थात् जिनते पदार्थ हैं वह सब गुणों का परिणाम हैं और गुण परस्पर विरोधी तथा क्षणपरिणामी हैं अर्थात् जब किसी एक गुण की प्रधानता से कोई कार्य्य उत्पन्न होता है तो शीघ्र ही दूसरा गुण प्रबल होकर उस से विपरीत कार्य्य को उत्पन्न कर देता है, इस प्रकार गुणोंका स्वभाव चल होने से उनक कार्य्य भी सर्वदा चलायमान रहते हैं एक क्षण भी स्थिर नहीं रहते।।
तात्पर्य्य यह है कि यद्यपि अज्ञानी पुरूषों की दृष्टि में सुख के हेतु जाति, आयु तथा भोग यह तीनों उपादेय हैं परन्तु विचारशील योगी को यह सब परिणामदि दुःखों से मिश्रित तथा क्षणपरिणामी होने के कारण सर्वथा त्यात्य हैं।।
सं० - यहां तक शास्त्र के अर्थ का संक्षेप पसे निरूपण किया, अब हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय, इन चार भेदों से उसी का विस्तारपूर्वक निरूपण करते हुए प्रथम हेय का स्वरूप कथन करते हैं:-