सूत्र :स्वरस्वाहि विदुषोऽपि समारूढोऽभिनिवेशः ॥॥2/9
सूत्र संख्या :9
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - स्वरसवाही। विदुष:। अपि। तथा। आरूढ़ः। अभिनिवेशः।
पदा० - (विदुपः अपि) विवेकी पुरूष को भी (तथा, आरूढ़:) मूर्ख के समान (स्वरसवाही) वासना के बल से होने वाले मरणमय को (अभिनिवेश:) अभिनिवेश कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - अनादि काल से पूर्व २ जन्म में अनुभव किय हुए मरणजन्य दुःखों की वासनाओं का नाम “स्वरस” है और उक्त वासनासमूह के द्वारा निरन्तर होने वाले “मनाभूवं हि भूयासम्= ”मैं कभी न मरूं किन्तु सर्वदा जीता रहूं” इस प्रकार के मरणभय का नाम “अभिनिवेश” है, यह भय ज्ञानी तथा मूर्ख पुरूष को समान होता है, यहां वाचस्पति मि़श्र ने “विद्वान्” पद का अर्थ शास्त्रज्ञ और वार्तिकार ने तत्त्वज्ञ किया है।।
उक्त पांच क्लेशों का नाम अन्य शास्त्रों में तम, मोह, महामोह, तामिस्न्न, अन्धतामिस्न्न है, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में वर्णन किया है कि:-
तमोमोहो महामहोहस्तामिस्न्नोहृान्धसंज्ञक:।
अविद्या पश्व पर्वैषा सांख्ययोगेपुकीर्त्तिता।।
सांख्य और योगशास्त्र में अविद्या का नाम “तम” अस्मिता का “मोह” राग का “महामोह” द्वेष का “तामिस्न्न” और अभिनिवेश का “अन्धतामिश्र” है, इन पांचों के ६२ भेद सांख्यार्य्यभाष्य अ० १। ४१ में भले प्राकर निरूपण किये हैं विशेष बोधार्थ वहां देखना आवश्यक है।।
सं० - ननु, क्रियायोग से सूक्ष्म हुए क्केश किस प्रकार निवृत्त होते हैं? उत्तर:-