सूत्र :विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥॥2/19
सूत्र संख्या :19
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - विशेषाविशेषलिड्डमात्रालिड्डानि । गुणपर्वाणि ।
पदा० -(विशेषाविशेषलिड्डमात्रालिड्डानि) विशेष, अविशेष, लिड्डमात्र और अलिड्ड, यह चारों (गुणपर्वाणि) गुणों के पर्व=परिणामविशेष होने से अवस्धाविशेष हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - जिनके सम्बन्ध से पुरूष सुखी, दुःखी तथा मूढ़ होजाता है अर्थात् जो सुख, दुःख, मोहरूप धर्म से युक्त है उनको “विशेष” और उनसे विपरीत का नाम “अविशेष” है, आकाशादि पांच स्थूलभूत तथा श्रोत्रादि पांच ज्ञानन्द्रिय, वाक्आदि पांच कर्मेन्द्रिय और ज्ञान, क्रिया उभयशक्तिवाला मन, इन षोढश विकारों का नाम “विशेष” और एकलक्षणशब्दतन्मात्र, द्विलक्षणस्पर्शतन्मात्र, त्रिलक्षणरूपतन्मात्र, चतुर्लक्षण्रसतन्मात्र, पंचलक्षणगन्धतन्मात्र, इस प्रकार आकाशादि महाभूतों के कारण पांच तन्मात्र और श्रोत्र आदि ग्यारह इन्द्रियों का कारण अहंकार, इन ६ विकारों का नाम “अविशेष” पूर्व २ तन्मात्र उत्तर २ तन्मात्र में अनुगत हैं इसलिये उनको एक, द्वि आदि लक्षण कथन किया है।।
शब्दादिक पांच तन्मात्र तथा अहंकार के कारण महतत्त्व का नाम सम्पूर्ण जगत् का अभिव्यक्ति की बीज होने से “लिड्डमात्र” है, लिड्डमात्र के कारण त्रिगुमात्मक प्रकृति का नाम “अलिड्ड” है, यह चारों गुणों की अवस्थाविशेष होने से “गुणपर्व” कहलाते हैं, इनमें विशेष, अविशेष और लिड्डमात्र यह तीन अवस्थायें अनित्य और चौथी अलिड्डअवस्था नित्य है, अर्थात् गुणों की दो अवस्थायें होती हैं एक सम और दूसरी विषम, प्रलयकाल में सम अवस्था और उत्पत्त्किाल में विशमअवस्था होती है, समअवस्था का नाम प्रकृति और विशमअवस्था का नाम लिड्डमात्र, अविशेष तथा विशेष है, इन दोनों में सम अथवा स्वाभाविक और भोग तथा अपरवर्गरूप निमित्त से होने के कारण विषम अवस्था नैमित्तिक है, अतएव यह उसकी निवृत्ति से निवृत्त होजाती है, इसप्रकार अवान्तर भेद से गुणों की चार अवस्था हैं इन्हीं का नाम योगशास्त्र में “दृश्य” है।।
सं० - अब दृष्टा का स्वरूप निरूपण करते है:-