सूत्र :ध्यान हेयाः तद्वृत्तयः ॥॥2/11
सूत्र संख्या :11
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - ध्यानहेया:। तद्वृत्तय:।
पदा० - (तद्वृत्तय:) स्थूल क्केशों की वृत्तियें (ध्यानहेया:) सम्प्रज्ञातसमाधिजन्य प्रसंख्यान से निवृत्त होती हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - बीजभाव से विद्यमान उदार अवस्थावाले उक्त पांच प्रकार के क्केश क्रियायोगद्वारा सूक्ष्म होकर ध्यान = सम्प्रज्ञातसमाधिजन्य विवेकाज्ञान से दग्धबीज हो जाते है और दग्धबीज होने से फिर वह संसार का हेतु नहीं रहते, इसलिय उनकी निवृत्ति का उपाय सम्प्रज्ञातसमाधिजन्य प्रसंख्यान है।।
उक्त दोनों सूत्रों का भाव यह है कि विषय के सम्बन्ध से प्रकट होकर सुख दुःख आदि कार्य्य को उत्पन्न करने वाले उदार=स्थूल क्लेश क्रियायोग से सूक्ष्म होते हैं तत्पश्चात् प्रसंख्यानाग्रि से दग्ध हुए असम्प्रज्ञातसमाधि के अनुष्ठान से निवृत्त हो जाते हैं और उनके निवृत्त हो जोन से समाप्ताधिकार हुआ चित्त स्वयं अपनी प्रकृति में लय हो जाता है।।
अतएव योगी को आवश्यक है कि प्रथम क्रियायोग द्वारा उक्त क्केशों को सूक्ष्म करे।।
सं० - ननुः उक्त क्केशों की निवृत्ति क्यों की जाती है? उत्तर:-
भोग और अपवर्ग का देना चित्त का अधिकार कहलाता है, उसके पूर्ण हो जाने से चित्त को समाप्तधिकार कहते हैं।