सूत्र :ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥॥2/10
सूत्र संख्या :10
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - ते। प्रतिप्रसवहेया: । सूक्ष्माः ।
पदा० - (ते) उक्तक्केश (सूक्ष्मा:) क्रियायोग द्वारा निर्बल हो कर (प्रतिप्रसवहेया:) चित्त के निवृत्त होने पर स्वयं निवृत्त हो जाते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - असम्प्रज्ञातसमाधि द्वारा प्रकृति में चित्त के लय होने का नाम “प्रतिप्रसव” है, और प्रसंख्यान तथा विवेकाज्ञान यह दोनों पय्र्याय शब्द हैं, मैत्री, मुदिता, करूणा, उपेक्षा, इन चार भावनासहित क्रियायोग के अनुष्ठान से निर्बल हुए उक्त क्केश प्रसंख्यानरूप अग्रि से दग्ध होकर प्रतिप्रसव=स्वआश्रयभूत चित्त के लय होने से निवृत्त होजाते हैं।।
तात्पर्य्य यह है कि क्रियायोग से निर्बल तथा विवेक से दग्ध हुए उक्त क्केशों की निवृत्ति होजाते हैं क्योंकि असम्प्रज्ञातसमाधि द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध से उक्त क्केशों का स्वयं निरोध होजता है।।
सं० - ननु, बीजभाव से विद्यमान स्थूल क्केशों की निवृत्ति का क्या उपाय है? उत्तर -