सूत्र :द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥॥2/20
सूत्र संख्या :20
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - द्रष्टा। दृशिमात्र:। शुद्धः । अपि। प्रत्ययानुपश्च:।
पदा० - (शुद्धः, अपि) स्वरूप से ज्ञान, अज्ञान, सुख, दुःखआदि निखिल धर्मो का अनाश्रय होने पर भी जो (प्रत्यानुपश्य:) बुद्धि के सम्बन्ध से उक्त सर्व धर्मो का आश्रय (दृशिमात्र:) ज्ञान स्वरूप पुरूष है उसको (द्रष्टा) द्रष्टा कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य- केवल ज्ञानस्वरूप को “दृशिमात्र” और जिसमें ज्ञानादिक कोई विकार उत्पन्न नहीं होते अर्थात् जो उत्पादविनाशी धर्मो का आश्रय नहीं उसको “शुद्ध” और तप्तलोह की भांति बुद्धि के साथ तादात्म्य को प्राप्त हुआ जो बुद्धिवृत्ति द्वारा बाहृा तथा आभ्यन्तर पदार्थों का अनुभवता है उसको “प्रत्ययानुपश्य:” कहते हैं अर्थात् प्रत्यय=बाहृा तथा आभ्यन्तर विषयों को देखती हुइ्र बुद्धिवृत्ति के अनु=पश्चात्, पश्यः=देखनेवाले का नाम “प्रत्ययानुपश्य” है।।
तात्पर्य्य यह है कि जो प्रमाणादि बुद्धिवृत्तियों द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का प्रमाता तथा कूटस्थ नित्यचेतनस्वरूप पुरूष है वह “द्रष्टा” है।
सं० - अब पूर्वोक्त दृश्य को द्रष्ट्रर्थत्व कथन करते हैं:-
द्रष्टा के लिये होने का नाम द्रष्ट्रर्थत्व है।