सूत्र :दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥॥2/6
सूत्र संख्या :6
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - दृग्दर्शनशक्यो: । एकात्मता । इव । अस्मिता।
पदा० - (दृगदर्शनशक्यो:) पुरूष और बुद्धि दोनों का (एकात्मता, इव) एक पदार्थ की भांति प्रतीत होना (अस्मिता) अस्मिता कहलाती है।।
व्याख्या :
भाष्य - चेतनस्वरूप होने से पुरूष को “दृक्शक्ति” और जड़ होने के कारण बुद्धि को “दर्शनशक्ति” कहते हैं, बुद्धि और पुरूष दोनों का घट पट की भांति परस्पर अत्यन्त भेद होने पर भी अविद्याबल से एक पदार्थ सा प्रतीत होने को “अस्मिता” कहते हैं, इसी अस्मितारूप क्केश के होने से पुरूष में अहमसिम= मैं हूं, अहंसुखी=मैं हूं, अहंदुःखी हूं, इस प्रकार का व्यवहार होता है औपनिषद लोग इसी अस्मिता को हृदयग्रन्थि कहते हैं, जब ज्ञान द्वारा इस अस्मिता के निवृत्त होने से रागद्वेषादिक निवृत्त होजाते हैं जब पुरूष को मोक्षपद की प्राप्ति होती है, जैसा कि इस उपनिषद् में कहा गया है कि:-
भिद्यतेहृदयग्रन्थिश्छिद्यन्तेसर्वसंशया:।
क्षीयन्तेचास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।। मुण्ड ० २। २। ८
अर्थ - प्रकृतिपुरूष के विवेक द्वारा पमरपुरूष परमात्मा के साक्षत्कार होने से अविद्यानिवृत्तिपूर्वक हृदयग्रन्थि=अस्मिता की निवृत्ति हो जाती है और संशया: = मैं चेतन हूं, वा अचेतन हूं, नित्य हूं, वा अनित्य हूं, इस प्रकार के सम्पूर्ण संशय निवृत्त होकर जन्ममरण के हेतु सम्पूर्ण कर्म भी क्षीण हो जाते हैं।।
अविद्या और अस्मिता का इतना भेद है कि अनात्मा में आत्मबुद्धि को अविद्या और सुखदुःखविशिष्ट अनात्मा में आत्मबुद्धि की अस्मिता कहते हैं।।
सं० - अब राग का लक्षण करते हैं-