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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम् प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥॥2/4
सूत्र संख्या :4

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद०- अविद्याक्षेत्रम्। उत्तरषाम्। प्रसुप्ततनुविच्छित्रोदारांणाम्। पदा० - (उत्तरेषाम्) अस्मितादि चारो क्केशोंका (अविद्याक्षेत्रम्) अविद्या मूल कारण है, और यह चारो (प्रसुप्ततनुविच्दित्रोदाराणाम्) प्रसुप्त, तनु, विच्छित्र और उदार भेद से चार प्रकार के हैं।।

व्याख्या :
भाष्य - बीजरूप से चित्त में रहने वाले तथा सहकारी कारण के बिना अपने कार्य्य की उत्पत्ति में असमर्थ क्केशों का नाम “प्रसुप्त” है, और क्रियायोग द्वारा निर्बल हुए क्केशों का नाम “तनु” है, सजातीय वा विजातीय क्केश के वत्र्तमान काल में न होनेवाले अर्थात् कभी २ अवसर पाकर प्रकट होनेवाले क्केशों का नाम “विच्छिन्न” है और विषयों के सम्बन्ध से प्रकट होकर सुख, दुःख आदि कार्य्य को उत्पन्न करने वाले क्केशों का नाम “उदार” है, इन में:- प्रसुप्तास्तत्वलीनानांतन्वस्याश्चयोगिनाम्। विच्छिन्नोदाररूपाश्च क्लेशा विषयसड्डनिाम् ।। १।। अर्थ - विदेह और प्रकृतिलय पुरूषों के “प्रसुप्त” योगियों के “तनु” और विषयरत पुरूषों के “विच्छिन्न” तथा “उदार” होते हैं।। इस प्रकार उक्त अवस्थावाले अस्मिता आदि क्केशों का मूल कारण अविद्या अर्थात् विपर्य्यय ज्ञान है क्योंकि अविद्याकाल में इनकी प्रतीति और उसकी निवृत्ति होने से निवृत्ति होती है।। सं० - अब अविद्या का लक्षण करते है:-