सूत्र :समाधिभावनार्थः क्लेश तनूकरणार्थश्च ॥॥2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - समाधिभावनार्थ:। क्केशतनूकरणार्थ:। च।
पदा० - (समाधिभावनार्थ:) उक्त क्रियायोग समाधि का सिद्ध करता (च) और (क्केशतनूकरणार्थ:) अविद्यादि क्केशों को शिथिल करता है।।
व्याख्या :
भाष्य - क्रियायोग का प्रथम फल यह है कि इसके अनुष्ठान से चित्तशुद्धि द्वारा सम्प्रज्ञात, असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्त होती है ओर दूसरा फल यह है कि प्रकृति-पुरूषविवेक के प्रतिबन्धक जो अविद्या आदि क्केश हैं वह इसक अनुष्ठान से निर्बल होजाते हैं अर्थात् अनादि काल से अविद्या आदि क्केश तथा शुभाशुभ कर्मों की वासना से रजोगण तमोगुण की घृद्धि का हेतु जो चित्त में पापरूप मलिनता है जिससे चित्त सर्वदा विक्षिप्त रहता है वह क्रियायोग के अनुष्ठान से निवृत्त होजाती है और उसक निवृत्त होने से शुद्ध हुआ चित्त शीघ्र ही समाधि को प्राप्त होता है।।
भाव यह है कि जब पुरूष निष्काम होकर उक्त क्रियायोग का सेवन करता है तब चित्तविक्षेप के कारण पूर्वोक्त पाप से निवृत्त होकर एकाग्र अर्थात् समाधिनिष्ठ होजाता है और समाधि के प्रतिबन्धक अविद्या आदि क्केश निर्बल होजाते हैं अर्थात् फिर प्रतिबन्धकर नहीं रहते, इससे सिद्ध हुआ कि योग की इच्छावाला विक्षिप्त पुरूष समाधि की सिद्धि और क्केशों की निवृत्ति के लिये क्रियायोग का अनुष्ठान करे।।
सं० - जिन क्केशों को सूक्ष्म करने के लिये क्रियायोग का विधान किया है अब उन क्केशों का निरूपण करते हैं:-