सूत्र :तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥॥2/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : सं० - प्रथम पाद में योग तथा योग के भेदों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया अब इस पाद में योग के साधनों का निरूपण करते हुए प्रथम कियायोग का उपदेश करते हैं:-
पदा० - तपःस्वाव्यायेश्वरप्रणिघानानि। कियायोग:।
पदा० - (तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिघानानि) तप, स्वाघ्याय और ईश्वरप्रणिघान, इन तीनों को (क्रियायोगः) क्रियायोग कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - सुख, दुःख, शीत, उष्णादि द्वन्दों को सहारने और हितकर तथा परिमित आहार करने का नाम “तप” है, ओंकारदि ईश्वर के पवित्र नामों का जप और वेद, उपनिपदादि शास्त्रों के अध्ययन का नाम “स्वाध्याय” है, फल की इच्छा छोड़कार केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिये वेदाक्त कम्र्मो के करने का नाम “ईश्वरप्रणिमान” है, इन तीनों का नाम योगशास्त्र में “क्रियायोग” है, क्योंकि यह तीनों स्वयं कियारूप तथा योग के साधन हैं, इनके करने से अस्थिर चित्त वाला भी योग को प्राप्त होजाता है।।
यद्यपि योग के साधन यम नियमादिक भी क्रियात्मक होने से किया योग हैं परन्तु अशुद्धचित मन्द अधिकारी भी शीघ्र ही सम्प्रज्ञातसमाधि तथा उसके उक्त तीनों साधानों के फल को प्राप्त होजाता है, अतएव यम नियमादिकों से उतकृष्ट होने के कारण प्रथम इन तीनों का उपदेश किया है, इसलिये योगरूढ़ पुरूष को इस क्रियायोग का अनुष्ठान करना परमाश्यक है।।
सं० - अब उक्त क्रियायोग का फल कथन करते है:-