DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥॥1/51
सूत्र संख्या :51

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद०- तस्य । अपि। निरोघे। सर्वपिराधात्। निर्वीजः। समाधिः। पदा० - (तस्य, अपि) परवैराग्यद्वारा प्रज्ञा तथा प्रज्ञासंस्कारों का (निरोघे) निरोघ होजाने पर (सर्घनिरोघात्.) पुरातन नूतन सर्वसंस्कारों के न रहने से (विर्वीजः, समाधि:) निर्वीजसमाधि होती है।।

व्याख्या :
भाष्य - प्रज्ञा तथा प्रज्ञासंस्कारों की पुन: २ आवृत्ति से जो चित्त को तृप्ति होती है उसको परवैराग्य कहते हैं, उस परवैराग्य से प्रज्ञा तथा उसके संस्कारों की सर्वथा निवृत्ति होजाती है उनके निवृत्त होने से कतकरज=निर्मली की भांति परवैराग्य तथा उसक संस्कार भी निवृत्त होजाते हैं, उन सब के निवृत्त होने से निरालम्बन हुआ चित्त असम्प्रज्ञातसमाधि को प्राप्त होता है, इस समाधि में संसार के बीत अविद्या आदि क्केश, शुभाशुभ कर्म और उनकी वासनाओं की निवृत्ति होजाती है इसलिये इसको निर्वीजसमाधि भी कहते हैं यह सब समाधियों से उत्तम समाधि है जैसाकिः- आगमेनानुपानेनध्यानाभयासरसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम्।। इस व्यासभाष्य में कथन किया है कि वेदविहित श्रवण और श्रवण हुए अर्थ का पश्चात् युक्तियों से चिन्तनरूप मनन तथा निदिध्यासन से उत्तम योग अर्थात् असम्प्रज्ञातसमाधि की प्राप्ति होती है।। ध्येय पदार्थ में विजातीय ज्ञानों से रहित जो सजातीय ज्ञानों का प्रवाह उसको निदिध्यासन कहते हैं।। भाय यह है कि श्रवण, मनन, निदिध्यासन, से योगी समाघिप्रज्ञा अर्थात् ऋतंभराप्रज्ञा को प्राप्त होता है और इससे परवैराग्य तथा परवैराग्य से उत्तम योग अर्थात् असम्प्रज्ञातसमाधि को प्राप्त होता है, इसीको निर्विकल्पसमाधि कहते हैं, यही समाधि सम्पूर्ण कत्र्तव्यों की अवधि है, इसलिये मुमुक्षुजनों को उपादेय है, इस समाधि में निरूद्ध हुआ चित्त निरोधसंस्कारों के सहित अपनी प्रकृति में लन होजाता है, चित्त के लीन होने से स्वरूप में स्थित हुआ पुरूष अपने स्वरूप से ही परमात्मा को साक्षात्कार करता है अर्थात् परमात्मा के स्वरूपभूत आनन्द को भोगता है, इसी अवस्था को प्राप्त होने वाले योगी को ब्रहाभूत अर्थात मुक्त कहते हैं।। इसी भाव को मुण्डकोपनिषद् में इस प्रकार स्पष्ट किया है कि:- यदापश्य: पश्यतेरूक्मवर्ण कर्तारमीशं पुरूषं ब्रहृायोनिम्। तदा विद्वाना पुण्यपापे विधूय निरज्जनः परमं साम्यमुपैति।। मु० २। २। ३। अर्थ - जब विवकी पुरूष वेदप्रकाशिका, स्वयंप्रकाश, जगत्कत्र्ता परमात्मा को देखता है तब अज्ञान से रहित होकर पुण्यपान की निवृत्तिद्वारा मोक्ष को प्राप्त होता है।। दोहा - योगारम्भ प्रतिज्ञा, लक्षण साधन ज्ञान। द्विविघयोग का कथन कर, किया पाद अवसान।। इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिवद्धे, योगार्य्यभाष्ये प्रथमः समाधिपादः समाप्त:।।

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