सूत्र :तज्जस्संस्कारोऽन्यसंस्कार प्रतिबन्धी ॥॥1/50
सूत्र संख्या :50
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तज्जः। संस्कार । अन्यसंस्कारप्रतिबन्धी।
पदा० - (तज्जः) समाधिप्रज्ञा से उत्पन्न हुआ (संस्कार:) संस्कार (अन्यसंस्कारप्रतिबन्धी) व्युत्थान संस्कारों का प्रतिबन्धक होता है।।
व्याख्या :
भाष्य - प्रमाणदि वृत्तियों के जनक संस्कारों को व्युत्थानसंत्कार कहते हैं, यद्यपि वह अनादि तथा अनन्त हैं तथापि तत्त्वास्पर्शी अर्थात् सविकल्पज्ञानजन्य होने से प्रबल नहीं और प्रज्ञासंस्कार तत्त्वास्पर्शी अर्थात् निर्विकल्पज्ञानजन्य होने से प्रबल है, इसलिये प्रज्ञासंस्कार से उनका प्रतिबन्ध हो जाता है जिससे वह प्रमाण आदि वृत्तियों के उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते है और उनके असमर्थ हो जाने से समाधिप्रज्ञा तथा उसके संस्कार चकवत् पुनः २ आवत्र्तमान हुए नितान्त दृढ़ हो जाते हैं उनके दृढ़ होने से अविद्या आदि क्केश शुभाशुभ कर्म और उनकी वासनाएं सर्वथा निवृत्त हो जाती है, पश्चात् भोग से विरक्त हुआ चित्त पुनः संस्कार की उत्पत्ति के लिये चेष्टा नहीं करता क्योंकि समाधिप्रज्ञा ही चित्तचेष्टा की अन्तिम सीमा है।।