सूत्र :विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थिति निबन्धिनी ॥॥1/35
सूत्र संख्या :35
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - विषयवती। वा। प्रवृत्ति: उत्पन्ना। मानस:। स्थितिनिबन्धिनी।
पदा० - (वां) अथवा (विषयवती) गन्धादि विषयों का (प्रवृत्ति:) साक्षात्कार करने वाली मानसवृत्ति (उत्पन्ना) उत्पन्न होकर (मनस:) मन की (स्थितिनिबन्धिनी) स्थिति को सम्पादन करती है।।
व्याख्या :
भाष्य - जब योगी नासिका के अग्रभाग, जिहृा के अप्रभाग तथा जिहृामूल आदि स्थानों में चित्त का संयम करता है तब उसके चित्त की गंध, रस, रूप आदि को विषय करती हुई साक्षात्काररूपता वृत्ति उत्पन्न होती है इस से भी योगी का चित्त स्थिरता को प्राप्त होता है।।
तात्पर्य्य यह है कि एक विषय में होनेवाले धारणा, ध्यान, समाधि इन तीनों का नाम संयम है, इसका निरूपण आगे करेंगे।।
प्रकृत यह है कि नासिका के अपभाग में संयम करने से जो योगी को दिव्यगन्ध का साक्षात्कार होता है उसको “गन्धप्रवृत्ति” कहते हैं, एवं जिहृा के अप्रभाग में संयम करने से उत्पन्न हुए दिव्यरस के साक्षत्कार का का नाम “रसप्रवृत्ति” और तालु में संयम करने से उत्पन्न हुए दिव्यरूप के साक्षात्कार का नाम “रूपप्रवृत्ति” है तथा जिहृा के मध्य में संयम करने से उत्पन्न हुए दिव्यषब्द के साक्षात्कार का नाम “शब्दप्रवृत्ति” है, यह पांचो प्रवृत्तियें अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर शास्त्र, अनुमान तथा आचार्य्य से जाने हुए अन्य विषयों मे विश्वास उत्पन्न कराती हैं और प्रकृति पुरूष के विवके तथा ईश्वर से शीघ्र ही चित्त को स्थिर करती है, अतएव योगी विषयवती प्रवृत्ति से चित्त की स्थिरता को सम्पादन करे।।
सं० - अब चित्तस्थिति का और उपाय कथन करते हैं:-