सूत्र :व्याधि स्त्यान संशय प्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपाः ते अन्तरायाः ॥॥1/30
सूत्र संख्या :30
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०- व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि। चित्तविक्षेपा:। ते। अन्तराया:।
पदा०- (व्यापिधस्त्यानसंशय०) व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरित, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व, यह नव चित्तको विक्षिप्त=चंचल करते हैं, अतएव (ते) यह (अन्तरायाः) योग में विघ्र हैं।।
व्याख्या :
भाष्य- शरीर में बात, पित्त, कफ यह तीन मुख्यधातु हैं, इन्हीं से शरीर की स्थिति होती है और अन्नादि के खानपान से रूधिरादि परिणाम का नाम रस है, धातु, रस और इन्द्रियों की विषमता से शरीर में होने वाले ज्वरादि रोगों का नाम “व्याधि” है, चित्त में इच्छा होने पर भी कर्म करेन की अशक्ति का नाम “स्त्यान” है, मैं योग का करसकुंगा वा नहीं करसकुंगा, इस प्रकार के ज्ञान को “सशय” कहते हैं, यम नियमादि योग के आठ अंगों को परित्याग करने का नाम “प्रमाद” है, योग साधनों के अनुष्ठानकाल में कफ आदि से शरीर के भारी हो जाने तथा तमोगुण से चित्त के भारी होजाने का नाम “आलस्य” है, विषयों में प्रीति का नाम “अविरित” है, गुरू उपदेश से ज्ञात हुए योगसाधनों में विपरीत ज्ञान का नाम “भ्रान्तिदर्शन” है, योगसाधनों के अनुष्ठान से वक्ष्यमाण मधुमति आदि भूमियों की अप्राप्ति को “अलब्धभूमिकत्व” कहते हैं, उक्त भूमियों के प्राप्त होने पर चित्त के स्थिर न रहने का नाम “अनवस्थितत्व” है।।
यह नव चित्तविक्षेप प्रमाण आदि वृत्यिों को उत्पन्न करक चित्त को चंचल करते हैं, इन्हीं का नाम योगान्तराय अथवा योगविघ्र हैं, क्योंकि यह योग के विरोधी हैं और इन्हीं को योगमल भी कहते हैं।।
यहां यह भी स्मरण रहे कि संषय और भ्रान्तिदर्शन, यह दोनों चित्त की वृत्तिरूप होने से वृत्तिनिरोधरूप योग के साक्षात् प्रतिबन्धक हैं और व्याधि आदि सात चित्तवृत्ति के सहचारी होने से प्रतिबन्धक हैं।
सं०- अब उक्त विक्षेपों के साथ २ होनेवाले अन्य विघ्रों का निरूपण करते हैं:-