सूत्र :प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥॥1/34
सूत्र संख्या :34
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - प्रच्छर्दनविधारणाभ्याम् । वा। प्राणस्य।
पदा० - (वा) अथवा (प्राण्स्य) प्राणवायु के (प्रच्छर्दनविधारणाभ्याम्) रेचन और धारण से चित्त स्थिर होता है।
व्याख्या :
भाष्य- योगषास्त्र में कथन किये हुए प्रयत्न से नासिका द्वारा भीरत की वायु को शनै: २ बाहर निकालने का नाम “प्रच्छर्दन” और बाहर निकाली हुई प्राणवायु को बाहर ही इस प्रकार स्तम्भन करना कि वह शीघ्र भीतर प्रवेश न कर सके इसको वाहृा “विधारण” कहते हैं। यह प्रच्छर्दन विधारण पूरण विधारण का उपलक्ष है, नासिका द्वारा बाहर की वायु को शनै २ भीतर प्रवेश करने का नाम “पूरण” और भीतर की हुई वायु को कुछ कालतक भीतर ही स्तम्भन करने का नाम अन्तः “विधारण” है, बाहर रोकने का नाम “वाहृाकुम्भक” और भीतर रोकने का नाम “अन्त: कुम्भक” प्राणायाम है। मैत्री आदि से योगी का चित्त निर्मल होकर प्रच्छर्दनविधारण तथा पूरणविधारण से स्थिति को प्राप्त होता है।।
भाव यह है कि योगी अपने चित्त को रेचक और कुम्भक प्राणायाम से स्थिर करे।।
सं० - अब चित्तस्थिति का और उपाय कथन करते हैं:-