सूत्र :मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणांसुखदुःख पुण्यापुण्यविषयाणां भावनातः चित्तप्रसादनम् ॥॥1/33
सूत्र संख्या :33
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पदा० -(मैत्रीकरूणामुदितोपेक्षाणां) मित्रता, दया, हर्ष और उदासीनता की (भावनात:) भावना से (चित्तप्रसादनम्) चित्त निर्मल होता है।।
व्याख्या :
भाष्य-मेरे इस मित्र को भलेप्रकार सुख बना रहे, इस प्रकार चित्त को मैत्री आदि के तत्पर करने का नाम “भावना” है, सुखी पुरूषों में मैत्री की भावना, इस दुःखी का दुःख कैसे निवृत्त होगा, इस प्रकार दुःखी पुरूषों में दया की भावना, धर्मात्मा जीवों के धर्म को देखकर “हां इसने शुभकर्म किया” इसप्रकार धार्मिक जीवों में मुदिता की भावना, अधर्मी पुरूषों के पापाचरण को देखकर पाप की उपेक्षा से उनमें उदासीनता की भावना करनी चाहिये, इससे चित्त के ईर्षा आदि मल निवृत्त होजाते हैं अर्थात् “मैत्रीभावना” से ईर्षा, “करूणा भावना” से अपकार की इच्छा, “मुदिता” ओर “उपेक्षा” भावना से क्रोध रूप मल की निवृत्ति हो जाती है, इन ईर्षा आदि मलों की निवृत्ति होजाने से निर्मल हुआ चित्त ईश्वर प्रणिधान में शीघ्र ही स्थिर होता है।।
तात्पर्य्य यह है कि अभ्यास से शुद्ध हुआ चित्त ईश्वरप्रणिधान के योग्य होजाता है।।
सं०- अब पूर्वोक्त मलों से रहित चित्त की स्थिति का अन्य उपाय कथन करते हैं-