सूत्र :क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः ॥॥1/41
सूत्र संख्या :41
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - क्षीणवृत्ते: । अभिजातस्य। इव । मणेः । ग्रहीतृग्रहणग्राहृोषु। तत्स्थतद जनता । समापत्तिः।
पदा० - (अभिजातस्य) अतिषुद्ध (मणे:) मणि को (इव) भांति (क्षीणवृत्ते:) राजसतामसवृत्तिरहित शुद्धसत्त्वमय चित्त का (गृहीतृग्रहणग्राहृोषु) गृहीता, ग्रहण तथा ग्राहृा में (तत्स्थतदजनता) स्थिर होकर इनके समान आकार को धारण करना (समापत्ति:) सम्प्रज्ञातसमाधि है।।
व्याख्या :
भाष्य - स्थूल, सूक्षम, सर्वपदार्थगोचर ज्ञान के आश्रय परमात्मा का नाम गृहीता तथा ज्ञान का नाम ग्रहण और आनन्द तथा अनन्त कल्याण गुणमय परमात्मा का नाम ग्राहृा है, उनके सम्बन्ध से तदाकारता को प्राप्त हुई योगी के चित्त की वृत्ति का नाम सम्प्रज्ञातसमाधि है।।
भाव यह है कि जैसे अत्यन्त स्वच्द स्फटिक मणि रक्तपीतादि पुष्प के सम्बन्ध से अपनी शुक्कता को परित्याग कर उनके रक्तता आदि आकार को प्राप्त होती है वैसेही अभ्यास वैराग्यादि साधनों के अनुष्ठानद्वारा राजस, तामस, निखिल प्रमाणदि वृत्तिरूप मल से रहित हुआ चित्त गृहीतृ आदि के सम्बन्ध से अपने रूप को परित्याग कर उनके समानाकार वृत्ति वाला होजाता हैं, उसी गृहीतृ आदि के समान आकार को प्राप्त हुए चित्त के सात्विकरूप वृत्ति का नाम सम्प्रज्ञातसमाधि है।।
यहां इतना विशेष ज्ञातव्य हे कि जो १७ वें सूत्र मे आचार्य ने वितर्क विचार, आनन्द, अस्मिता, इस प्रकार सम्प्रज्ञातसमाधि के चार भेद दिखलाकर इस सूत्र में आनन्द तथा अस्मिता को ग्राहृासमापत्ति क अन्तर्गत मान गृहीतृसमापत्ति ग्रहणसमापत्ति तथा ग्राहृासमापत्ति, यह तीन भेद दिखलाए हैं, इसका भाव यह है कि समाधि का आलम्बन परमात्मा एक है, इस कारण उसके स्वरूप में होनेवाली सम्प्रज्ञातसमाधि भी एक ही प्रकार की है केवल अवान्तरभेद से चार, तीन तथा दो भेद हैं, जैसा कि आनन्दसमापत्ति तथा अस्मितासमापत्ति ग्राहृासमापत्ति से पृथक् नहीं, वैसे ही ग्राहृासमापत्ति भी गृहीतृ समापत्ति से पृथक् नहीं, क्योंकि आनन्द तथा अस्मिता की भांति परमात्मा का गृहीतृस्वरूप भी योगियों का ग्राहृा है और जिस प्रकार अनादिकाल से परमात्मा आनन्दस्वरूप तथा अनन्तकल्याणगुणविषिष्ट है वैसे ही स्थूल, सूक्ष्म सर्व पदार्थों का ज्ञाता भी है, भेद केवल इतना है कि सर्वज्ञातृत्व सापेक्षधर्म और शेष निरपेक्षधर्म है इसी आशय से आचार्य्य ने प्रथम चार और अनन्तर तीन भेद दिखलाकर पश्चात् वितर्क, विचार अर्थात् गृहीतृसमापत्ति और ग्रहणसमापत्तियों को ही अवान्तर भेद से चार प्रकार का निरूपण करके “ताएव सबीज: समाधि:” इस ४६ वे सूत्र में सम्प्रज्ञातसमाधि कथन किया है, इसलिये योगाधिकारियों का प्रथम सम्प्रज्ञातसमाधि के वितर्क, विचार यह दोही भेद मन्तव्य हैं।।
सर्व ज्ञातृत्वधर्म को मुख्य मानकर अनन्तकल्याणगुणमय सच्चिदानन्द परमात्मा के स्वरूप में होनेवाली समाधि का नाम वितर्क=गृहीतृसमापत्ति और प्राकृत पदार्थों के सम्बन्ध से निर्मुक्त केवल ज्ञानमय परमात्मा के स्वरूप में होने वाली समाधि का नाम विचार=ग्रहणसमापत्ति है, यह दोनों भी दो २ प्रकार की है अर्थात् सविर्तक और निर्वितर्क भेद से वितर्क दो प्रकार की और सविचार तथा निर्विचार भेद से विचारसमापत्ति दो प्रकार की है, जिनका वर्णन यथाक्रम अग्रिम सूत्रों में विस्तार से किया है।।
सं० - अब सवितर्कसमाधि का लक्षण करते हैं:-