सूत्र :दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासाः विक्षेप सहभुवः ॥॥1/31
सूत्र संख्या :31
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०-दुःखदौर्मनस्यागंमेजयत्वश्वासप्रश्वासा:। विक्षेपसहभुव:।
पदा० -(दुःखदौर्म०) दुःखदौर्मनस्य, अंडगमेजयत्व, श्वास, प्रश्वास, यह (विक्षेपसहभुव:) विक्षेपों के साथ २ होनेवाले पांच विघ्र है।।
व्याख्या :
भाष्य - प्रतिकूल देवनीय अर्थात् प्राणीमात्र को जिससे द्वेष है उसको “दुःख” कहते हैं और वह आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक भेद से तीन प्रकार का है।।
इच्छा की पूर्ति न होने से जो चित्त में क्षोभ होता है उसका नाम “दौर्मनस्य” है, आसन और मन की स्थिरता को भंग करनेवाले शरीरकम्प का नाम “अड़गमेजयत्व” है, बिना प्रयत्न अर्थात् स्वतः ही बाहर की वायु का नासिका द्वारा भीतर “प्रश्वास” और भीतर की वायु का बिना प्रयत्न बाहर आना “श्वास” कहलाता है, यहं पांच पूर्वोक्त योगघ्रिों के सहचारी विघ्र हैं उनके होने से हेाते और न होने से नहीं होते।।
भाव यह है कि यह सब विघ्र विक्षिप्तचित्त को हेाते हैं समाहितचित्त को नहीं, इसीलिये यह विक्षेपों के सहचारी कथन किये जाते हैं।।
सं०- अब उक्त विव्रों की निवृत्ति का उपाय कथन करते हैं:-