सूत्र :तज्जपः तदर्थभावनम् ॥॥1/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तज्जप:। तदर्थभावनम् ।
पदा० - (तज्जप:) ओ३म् का जप और (तदर्थभावनम्) उसके वाच्य ईश्वर के पुनः २ चिन्तन करने को प्रणिधान कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - ओ३म् का जप करते हुए परम प्रेम से ईश्वर के चिन्तन का नाम “प्रणिधान” है इसीको भक्तिविशेष तथा उपासना भी कहते हैं जिसका वर्णन भाष्यकार इस प्रकार करते हैं कि:-
स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् ।
स्वाघ्याययोगसम्पाया परमात्मा प्रकाशते ।।
अर्थ- स्वाध्याय=ओंकार जब के अनन्तर योग अर्थात् समाधि का अभ्यास करे और समाधिक के अनन्तर ओंकार का जप करे, क्योंकि ओंकार के जप तथा समाधि के अभ्यास से परमात्माका प्रकाश होता है।।
भाव यह है कि जब योगी वैराग्यसहित प्रणवोपसना=प्रणिधान करता है तब ईश्वर प्रसन्न होकर सकंल्पमात्र से ही योगी=उपासक के सकंल्पों को पूर्ण कर देता है, क्योंकि ईश्वर सत्यसंकल्प और सर्वशक्तिसम्पन्न है वह प्रणिधान से प्रसन्न होकर जब कृपा करता है जब उसकी कृपा से योगी का चित्त शान्त होकर समाधि में स्थित होंजाता है।।
सं० - अब ईश्वरप्रणिधान का फल निरूपण करते हैं:-