सूत्र :तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ॥॥1/25
सूत्र संख्या :25
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०- तत्र। निरतिशयं। सर्वज्ञवीजम्।
पदा० - (तत्र) उस ईश्वर में (निरतिशयं) सम से अधिक (सर्वज्ञजीवम्) सर्वज्ञता का कारण ज्ञान ही प्रमाण है।।
व्याख्या :
भाष्य - जो वस्तु सातिशय=परिमित होती है वह आगे बढ़ती २ किसी अन्तिम सीमा पर पहुंचकर निरतिशय=अपरिमित होजाती है अर्थात् उसकी कोई उन्नति की सीमा होती है जिसके समान कोई अन्य वस्तु नहीं होती, जैसाकि परिणाम परिमित है वह छोटे से छोटा होकर अणु में और बड़े से बड़ा आकाशदिकों में अपरिमित होजाता है, इसी प्रकार अस्मदादि जीवों को ज्ञान भी परिमित है, क्योंकि कोई जीव थोड़ा और कोई उससे अधिक और कोई उससे भी अधिक जानता है, यह ज्ञान जहां अपरिमित होजाता है वह ईश्वर है, उसी को सब पुरूषों से उत्तम होने के कारण पुरूषोंत्तम कहते है, यही ’पुरूषविशेष’ पद का अर्थ है, जिसप्रकार निरतिशय=अपरिमित ज्ञान ईश्वर में प्रमाण है इसी प्रकार अपरिमित कियाशक्ति भी ईश्वर में प्रमाण है।।
सं० - नुन, सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि वायु आदि महर्षियों को ही ईश्वर क्यों न मानाजाय, क्योंकि वह सर्वविद्या के मूलभूत वेदों के प्रकाशक होने से अपरिमित ज्ञान का आश्रय होसकते हैं, इनसे भिन्न ईश्वर मानाना व्यर्थ है? उत्तर:-