सूत्र :मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततोऽपि विशेषः ॥॥1/22
सूत्र संख्या :22
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - मृदुमध्याधिमात्रत्वात्। तत:। अपि । विशेष:।
पदा० - (मृदुमध्याधिमात्रत्वात्) मृदु, माध्य, अधिमात्र, इस प्रकार तीव्रता के पुनः तीन भेद होने से अधिमात्रतीव्रसंवेग योगियों को (तत:, अपि) पूर्व की अपेक्षा (विशेष:) आसन्नतर, आसन्नतम अर्थात् अति शीघ्र समाधि तथा उसके फल का लाभ होता है।।
व्याख्या :
भाष्य - मन्दतीव्र, मध्यतीव्र, अधिमात्रतीव्र, इसप्रकार तीव्रसंवेग के तीन भेद होने से जिन योगियों का संवेग अधिमात्रतीव्र और श्रद्धा आदि उपाय अधिमात्र हैं उनको पूर्व की अपेक्षा आसन्नतर तथा आसन्नतम समाधि का लाभ होता है।।
तात्पर्य्य यह है कि मृदुतीव्रसंवेग अधिमान्नोपाय योगी को आसन्न, मध्यतीव्रसंवेग, अधिमान्नोपाय योगी को आसन्नतर तथा अधिमात्रतीव्रसंवेग अधिमात्रोपाय योगी को आसन्नतम समाधि का लाभ होता है।।
सं०- अब उक्त समाधि के आसन्नतम लाभ में अन्य सुगम उपाय कथन करते हैं:-