सूत्र :श्रद्धावीर्यस्मृति समाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥॥1/20
सूत्र संख्या :20
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - श्रद्धावीर्य्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक:। इतरेषाम्।
पदा० - (श्रद्धावीर्य्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक:) श्रद्धा, वीर्य्य, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञादि उपायों से होने वाले (इतरेषाम्) योगियों के चित्तवृत्त्विनिरोध का नाम उपायप्रत्यय है।।
व्याख्या :
भाष्य- प्रकृति पुरूष का विवेक मोक्ष का कारण है, उस विवेक का साधन यो मुझको प्राप्त हो, उस प्रकार की इच्छा से लोक तथा परलोक के विषयों में तृष्णा रहित पुरूष की योग में होनेवाली रूचि को “श्रद्धा” कहते हैं।।
श्रद्धालु तथा विवे के अर्थी पुरूष का योगसम्पादन के लिये जो उत्साह है उसको “वीर्य्य” कहते हैं।।
उत्साहवाले पुरूष को वेद, अनुमान तथा आचाय्र्योपदेश से जाने हुएं योगसाधनों में होने वाले स्मरण का नाम “स्मृति” है।।
योगसाधनों के अनुष्ठान से प्राप्त हुई सम्प्रज्ञातसमाधिक का नाम “समाधि” है।
समाहित चित्त में उत्पन्न हुए प्रकृति के विवेक का नाम “प्रज्ञा” है।
प्रज्ञा के अनन्तर जो पुरूष को गुणवैतृष्ण्य अर्थात् उक्त प्रज्ञा में भी अलंप्रत्यय=तृप्ति होती है उसका नाम परवैराग्य है, इस प्रकार श्रद्धा आदि उपायों से जो योगियो के चित्त का निरोध होता है उसको “उपायप्रत्यय” कहते हैं इसी का नाम असम्प्रज्ञात समाधि है जिसका लक्षण १८ वें सूत्र में किया गया है।।
यहां श्रद्धा आदि उपायों का परस्पर कार्य्यकारणभाव है अर्थात् प्रथम श्रद्धा, श्रद्धा से वीर्य्य, वीर्य्य से स्मृति, स्मृति से समाधि, समाधि से प्रज्ञा और प्रज्ञा से परवैराग्य तथा परवैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि होती है, इसी अभिप्राय से सूत्र में श्रद्धादि उपायों का क्रम दिखलाया गया है।।
सं० -अब उक्त श्रद्धा आदि साधनों वाले योगियों के मध्य में जिनको शीघ्र असम्प्रज्ञातसमाधि का लाभ होता है उनका कथन करते है:-