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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानम् ॥॥1/19
सूत्र संख्या :19

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - भवप्रत्यय:। विदेहप्रकृतियानाम् । पदा० - (विदेहप्रकृतियानाम्) विदेह और प्रकृतियलं पुरूषों की वृति का निरोध (भवप्रत्ययः) अज्ञानजन्य होती है।।

व्याख्या :
भाष्य - संस्कारशेष चित्त का निरोध भवप्रत्यय और उपायप्रत्यय भेद से दो प्रकार का है, जो पुरूष परमात्मा के स्वरूप को न जानकार पंचभूत तथा इन्द्रियों मे पमरमात्मभाव का अभिमान कर उनकी उपासना करते हैं वह शरीर छोड़ने के अनन्तर उन्हीं में लीन होते है और अन्त में उनका चित्त संस्काररूप से रहजाता है जैसे पुरूषों को विदेह कहते हैं, क्योंकि इनका स्थूल देह नहीं रहता और जो पुरूष प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार अथवा पश्चातन्मात्र की परमात्माभाव से उपासना करते हैं उनके चित्त की वासना इन्हीं के समान हो जाती है और वह शरीरान्त के अनन्तर इन्हीं प्रकृति आदि में लीन होजाते हैं ऐसे पुरूषों को “प्रकृतिलय” कहते हैं।। इन दोनों प्रकार के पुरूषों का वर्णन यजु० ४०। ९ - ११ मंत्रों में किया गया है जिनका अर्थ इसी पाढ़ के १५ वें सूत्र में कर आये हैं, उक्त दोनों पुरूषों को जा लयावस्था में चित्तवृत्ति निरोध होता है उसको “भवप्रत्यय” कहते हैं, भव नाम अज्ञान का है अर्थात् प्रकृति आदि अनात्म पदार्थों में परमात्माबुद्धि होने के कारण इस निरोध को “भवप्रत्यय” कहते हैं।। तात्पर्य्य यह है कि अज्ञानजन्य वित्तवृत्ति के निरोध का नाम “भवप्रत्यय” है और यह प्रकृति आदि अनात्म पदार्थों में लय होने से होता है परवैराग्य से नहीं, इसलिये यह निरोध योगाभास है, क्योंकि इसमें निरूद्ध हुआ चित्त मोक्ष का हेतु नहीं, अतएव यह निरोध मुमुक्षुजनों का उपादेय नहीं किन्तु सर्वथा त्याज्य है।। सं० - अब उपायप्रत्ययनिरोध का लक्षण करते हैं:-