सूत्र :विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥॥1/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०- विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व: । संसकारशेष:। अन्य: ।
पदा०- (विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व:) निखिलवृत्तिनिरोध के कारण परवैराग्य के अभ्यास से होने वाली (संसकारशेष) संस्कारशेष चित्त की स्थिति का नाम (अन्य:) असम्प्रज्ञातसमाधि है।।
व्याख्या :
भाष्य-जैसे भुना चना अंकुर जनने की सामथ्र्य से रहित होकर केवल आकार मात्र से शेष रहजाता है, इसी प्रकार परवैराग्य के अभ्यास से चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध होजाता है, फिर आगे अन्य वृत्ति के जनने की सामथ्र्य नहीं रहती, उस अवस्था का नाम संस्कारशेष है और वितर्कादि सर्ववृत्तियों के अभाव का नाम विराम है, और विराम के कारण ज्ञान की पराकाष्ठारूप परवैराग्य का नाम प्रत्यय है, उस प्रत्यय के पुनः २ अभ्यास से सर्ववृत्तियों के निरोध होजाने पर जो चित्त का संस्काररूप से अवस्थान विशेष है उसको “असम्प्रज्ञात“ कहते हैं।।
भाव यह है कि जिस अवस्था में निरालम्बन हुआ चित्त अपने स्वरूप मात्र में स्थित होता है उस अवस्था का नाम “असम्प्रज्ञात” है।।
सूत्र में “अन्य:“ पद से असम्प्रज्ञात समाधि को बोधन किया है, “संस्कारशेष:” पद से उसका लक्षण और “विरामप्रत्याभ्यासपूर्व:” पद से उपाय का कथन किया है, निरालम्बन होने के कारण इसी समाधि का नाम निर्वीज समाधि है, जो योगी इस समाधि का प्राप्त होते हैं उनको ब्रहाविद्वरिष्ठ कहते हैं, यही समाधि योग का पराकाष्ठा है, इसी अवस्था को लेकर सांख्य तथा योग में कहा है कि “समाधिसुपुप्तिमोक्षेपुनहारूपता” सां०५। ११६=समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में ब्रहाभाव की प्राप्ति होती है, “तदाद्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्” योग० १। ३=सम्पूर्ण वृत्तियों के निरोध से चेतनस्वरूप पुरूष अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हुआ परमात्मा में स्थित होता है, इसी का फल मोक्ष है, अतएव मुमुक्षजनों को यह समाधि उपादेय है।।
सं०- अब पूर्वोक्त निरोध का भेद दिखलाते हुए यह निरूपण करते हैं कि मुमुक्षजनों के लिये कौनसा निरोध ग्राहृा और कौनसा त्याज्य है:-