सूत्र :वितर्कविचारानन्दास्मितारुपानुगमात्संप्रज्ञातः ॥॥1/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०- वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् । सम्प्रज्ञात:।
पदा०- (वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्) वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता, इन चारों के सम्बन्ध से जो समाधि होती है उसको (सम्प्रज्ञातः) सम्प्रज्ञात कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य- वितर्क=विविधानां प्रकृतितत्कार्य्यभूतानांदार्थानांतर्कणंग्र-हणंज्ञानमितियावदस्यास्तीतिवितर्क:=परमात्मा, तद्विषयत्वात्समाधिरपिवितर्क:=सम्पूर्ण प्रकृति तथा प्राकृत पदार्थों को ग्रहण करने वाले परमात्मा के सर्वज्ञातृस्वरूप को विषय करनेवाली चित्तवृत्ति का नाम “वितर्क” है।।
विचार=“चर=गतिभक्षणयोः” इस धातु से “विचार” शब्द सिद्ध होता है, विशेषण=अपरोक्षेण चरणं=सर्ववस्तूनां ग्रहणं=विचार:=परमात्मा के ज्ञान मात्र को विषय करनेवाली चित्तवृत्ति का नाम “विचार” है।।
आनन्द=आनन्दयतीति आनन्दः= प्राणीमात्र को आनन्दित करने वाले परमात्मा के आननद गुण को विषय करनेवाली चित्तवृत्ति का नाम “आनन्द” है।।
अस्मिता=“तदात्मानमेवावेदहंन्नाहृास्मीति” वृहदा० १। ९ । १०= वह परमात्मा जिस प्रकार सम्पूर्ण जगत् को जानता है वैसे ही अपने स्वरूप को भी जानता है कि मैं ब्रहृा हूं, इस परमात्मानुभव सिद्ध ज्ञान तथा आनन्दादि अनन्त कल्याणगुणविशिष्ट परमात्मा के स्वरूप को विषय करनेवाली चित्तवृत्ति का नाम “अस्मिता” हैं और इन्ही चारो वृत्तियों के समुदाय का नाम “सम्प्रज्ञातसमाधि” है।।
यहां इतना विशेष जानना आवश्यक है कि इन चारों में प्रथम का नाम गृहीतृसमापत्ति, और तीसरी तथा चौथी का नाम ग्राहृासमापत्ति है, इसका वर्णन इसी पाद के ४१ वें सूत्र में विस्तारपूर्वक किया जायगा।।
और जो आधुनिक टीकाकारों ने इस चार प्रकार के सम्प्रज्ञात योग को स्थूलालम्बन में लगाया है अर्थात् जिसमें जीव चतुर्भुज मूर्ति का ध्यान करता है उसका नाम वितर्क, जिसमें सूक्ष्म पंचतन्मात्रादिकों का ध्यान करता है उस का नाम विचान, जिसमें अहंकार का ध्यान करता है उसका नाम आनन्द और जिसमें अहंकार, बुद्धि वा प्रकृति का ध्यान करता है उसका नाम अस्मिता है, यह व्याख्यान सर्वथा इस दर्शन के आशय से विरूद्ध है, क्योंकि इस दर्शन में ईश्वर से भिन्न जड़ पदार्थों में चित्तवृत्तिं के निरोध का नाम समाधि कहीं भी नहीं, यदि जड़ पदार्थों में चित्ततृत्तिनिरोध का नाम समाधि होता तो “तदाद्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्” इस सूत्र में चेतनस्वरूप परमात्मा में चित्तवृत्ति का निरोध कथन न किया जाता, इससे पाया जाता है कि यह सम्प्रज्ञात, असम्प्रज्ञात दोनों प्रकार का योग परमात्मा में चित्तवृत्तिनिरोध को कहता है।।
ननु-यदि आधुनिक टीकाकारों के मत में वितर्कादि चार प्रकार का योग स्थूल पदार्थों मे चित्तवृत्तिनिरोध का नाम है तो “वितर्कश्चितस्यालम्बनेस्थूलआभोग:”=चित्त के आलम्बन में स्थूल भोग का नाम वितर्क है, इत्यादि भाष्य में स्थूल आभोग क्यो माना गया? उत्तर-इस भाष्य को न समझकार ही आधुनिक टीकाकारों ने भूल की है, क्योंकि उक्त भाष्य में जो वितर्कसमाधि को स्थूल आभोग कथन किया गया है वह स्थूल पदार्थों में होने के कारण नहीं किया किन्तु जिस सर्वज्ञातृत्वधर्म को मुख्य मानकर परमात्मा विषयक वितर्कसमाधिक होती है वह स्थूल सूक्ष्म सर्व पदार्थों की अपेक्षा रखने से स्थूल है, इस कारण उक्त समाधि को स्थूल आभोग कथन किया है कि और “सर्वज्ञातृत्व” की अपेक्षा ज्ञान सूक्ष्म है इसलिये तद्विषयक विचार समापत्ति को सूक्ष्म आभोग कथन किया है, किसी जड़ पदार्थ की अपेक्षा से नहीं, क्योकि वैदिकसिद्वान्त में एक ईश्वर में ही चित्त लगाने का नाम सम्प्रज्ञात-समाधि है, इसी अभिप्राय से कहा है कि “सर्वएतेसालम्बनाः समाघयः” =यह चार प्रकार की समाधि आलम्बन वाली है अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को अवलम्ब रखकर की जाती है, इससे यह नहीं पाया जाता कि उक्त विर्कादि चारो समाधियें जड़ पदार्थों का ध्येय मानकर कीजाती हैं, यदि ऐसा होता तो “इेश्वरप्रणिधानाद्वा” इस २३ वें सूत्र में ईश्वर को अवलम्ब रखकर समाधि का वर्णन न किया जाता और नाही विक्षेपों के अभाव के लिये “तत्प्रतिपेघार्थमेकतत्त्वाभ्यास:” इस १३ वें सूत्र में एकमान परमात्मा का अवलम्बन सिद्ध किया जाता, इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट पाया जाता है कि आधुनिक टीकाकारों ने योगभाष्य के स्थूलादि शब्दों को न समझकर ही इस चार प्रकार के सम्प्रज्ञात योग को जड़विषयक वर्णन करदिया है जो वैदिक सिद्धान्त से सर्वथा विरूद्ध है।।
इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जिसमें वितर्कादि द्वारा ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान रहता है उसका नाम “सम्प्रज्ञातयोग” है।।
सं०-अब सम्प्रज्ञातसमाधि के अनन्तर परवैरागय से होनेवाली असम्प्रज्ञातसमाधि का लक्षण करते हैः-