सूत्र :तत्परं पुरुषख्यातेः गुणवैतृष्ण्यम् ॥॥1/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०-तत्। परं । पुरूपरव्याते:। गुणवैतृष्ण्यम्।
पदा०- (पुरूपरव्याते:) विवेकज्ञान से (गुणवैतृष्ण्यम्) सत्त्वादि गुणों में होने वाली इच्छा की विवृत्ति को (तत्, परं) परवैराग्य कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य- सम्प्रज्ञातसमाधि की दृढ़ता से प्रकृति का विवेक ज्ञान होता है, उस विवकेज्ञान से इस्तामलक की भांति पुरूष का साक्षात्कार होजाता है अर्थात् प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य्य निखिल पदार्थों से भिन्न पुरूष प्रतीत होता है, ऐसे पुरूष के साक्षात्कार से विवेकी पुरूष को स्थूल सूक्ष्म विषयों के भोग की इच्छा सर्वथा निवृत्त होजाती है इसी को “परवैराग्य” कहते हैं।।
तात्पर्य यह है कि सम्प्रज्ञात समाधिक का फल प्रकृति पुरूष का विवेक ज्ञान भी प्रकृति का कार्य्य होने से दुःखरूप है उसको दुःखरूप जानकर तृप्णा का त्याग करना परवैराग्य कहलाता है, इसी को ज्ञान की पराकाष्ठा होने के कारण ज्ञानप्रसाद भी कहते हैं, इसी का फल मोक्ष है और यह धर्ममेघसमाधि की सीमा होने के कारण सबसे उत्कृष्ट है।।
सं०- चित्ततृत्तिनिरोध के साधन अभ्यास तथा वैराग्य का लक्षण कथन करके अब अपरवैराग्य से जिस पुरूष के चित्त की राजस, तामस वृत्तियों का निरोध होगया है उसको प्राप्त होने वाली सम्प्रज्ञातसमाधिक का लक्षण करते हैं-