सूत्र :तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः ॥॥3/27
सूत्र संख्या :27
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तच्छिद्रेषु। प्रत्ययान्तराणि। संस्कारेभ्य:।
पदा० - (संस्कारेभ्य:) व्युत्थान के संस्कारों से (तच्छिदे्रषु) विवेक युक्त चित्त के अन्तरालों में (प्रत्यान्तराणि) अन्य प्रतीतिये उदय होती हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - यहां यह सन्देह उत्पन्न होता है कि विवेक प्राप्ति के अनन्तर चित्तवृत्ति के बहिर्मुख न होने से योगी की स्नानादि क्रिया सिद्ध नहीं होगी?
इसका उत्तर यह है कि विवेक प्राप्ति होने पर भी क्षीयमाण बीजरूप संस्कारों द्वारा चित्त के विवेकाभावरूप अवसर में “मैं स्नान करता हूं” अथवा “मैं भोजन करता हूं” इत्यादि अन्य प्रतीतियें उदय होने से योगी के चित्त की स्नानादि किया में प्रवृत्ति होती है।।
सं० - अब विवेक उदय के अनन्तर अन्य विरोधी प्रतीतियों को उत्पन्न करनेवाले व्युत्थान संस्कारों की निवृत्ति का उपाय कथन करते हैं:-