सूत्र :चितेरप्रतिसंक्रमायाः तदाकारापत्तौ स्वबुद्धि संवेदनम् ॥॥3/22
सूत्र संख्या :22
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - चिते:। अप्रतिसंकमाया:। तदाकारापत्तौ। स्वबुद्धिसंवेदनम्।
पदा० - (अप्रतिसंकमाया:) इन्द्रियों की भांति विषयों के सम्बन्ध से रहित (चिते:) चेतनस्वरूप पुरूष (तदाकारापत्तौ) स्वसम्बन्ध वाले चित्त के समानाकार को प्राप्त होकर (स्वबुद्धिसंवेदनम्) अपने चित्त को प्रकाशता है।।
व्याख्या :
भाष्य - यहां यह शंका होती है कि चित्त को स्वयंप्रकाश तथा अन्य चित्त से प्रकाशित न मानकर चिदू्रप पुरूष को चित्त का प्रकाशक मानने से उसमें सड्डदोष की प्राप्ति होगी अर्थात् जैसे इन्द्रिय द्वारा चित्त विषय के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होकर विषय को प्रकाशता है इसी प्रकार पुरूष भी चित्त के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होकर चित्त को प्रकाशित करेगा, एवं निर्विकार पुरूष में प्रकाशरूप किया होने से पुरूष की असंगता का भंग होजायगा? इसका समाधान इस प्रकार है कि जैसे विषयों को प्रकाशने के लिय चित्त का इन्द्रिय द्वारा विषयों में संचार होता है इस प्रकार चित्त को प्रकाशने के लिये साक्षी पुरूष का चित्त में संचार नहीं माना गया किन्तु समीपतामात्र से वृत्तिविशिष्ट चित्त के साथ पुरूष का सम्बन्ध होता उस चित्तविशिष्ट पुरूष को चित्त के समानाकार होने से चित्त का द्रष्टा कहा जाता है द्दश्य तथा तद्भावापन्न चित्त को ही द्रष्टा माना है वास्तव में पुरूष में द्रष्टापन नहीं।।
सं० - अब चित्त की अनेक रूपता का निरूपण करते हैं:-