सूत्र :तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्यात् ज्ञेयमल्पम् ॥॥3/31
सूत्र संख्या :31
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तदा । सर्वावरणमलापेतस्य। ज्ञानस्य। आनन्त्यात्। ज्ञेयम्। अल्पम्।
पदा० - (तदा) अविद्यादि क्केश तथा शुभाशुभ कर्मों की निवृत्ति काल में (सर्वावरणमलापेतस्य) अविद्यादि सब मलों से रहित हुए (ज्ञानस्य) चित्त के (आनन्त्यात्) अनन्त प्रकाश से (ज्ञेयम् , अल्पम्) सर्व विषय परिछिन्न होजाते हैं ।।
व्याख्या :
भाष्य - मेघों से आच्छादित हुए चन्द्रमण्डल की भांति जब स्वभाव से प्रकाशरूप चित्त अविद्यादिमलों से आवृत्त हुआ सम्पूर्ण विषयों का प्रकाश नहीं कर सकता तब धर्ममेघसमाधिद्वारा सर्व अविद्यादि मलों की निवृत्ति होजाने से शरदऋतु के चन्द्र समान योगी का चित्त अनन्त प्रकाशयुक्त हुआ सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षत कर लेता है इनके साक्षात्कार करने से योगी के लिये सर्व विषय अल्प होजाते हैं अर्थात् कोई ऐसा पदार्थ नहीं रहता जिसको योगी का चित्त साक्षात्कार न कर सके।।
तात्पर्य्य यह है कि धर्ममेघसमाधि की परमकाष्ठारूप सीमा का ज्ञानप्रसाद नाम परवैराग्य द्वारा हस्तामलकवत् साक्षात्कार करता हुआ तथा विकारों में परिणामादि दोषों को देखता हुआ योगी का चित्त परम निर्मल होजाता है फिर उसको इच्दा का विषय कुछ भी शेष नहीं रहता, यही ज्ञानप्रसाद रूप परवैराग्य व्युत्थान तथा सम्प्रज्ञातसमाधि के संस्कारों का सर्वथा निरोध करता हुआ योगी के चित्त को असम्प्रज्ञातसमाधि में लगाता है।।
सं० - अब धर्ममेघ समाधि सम्पन्न योगी के पुनर्जन्म का अभाव कथन करते हैं:-