सूत्र :चित्तान्तर दृश्ये बुद्धिबुद्धेः अतिप्रसङ्गः स्मृतिसंकरश्च ॥॥3/21
सूत्र संख्या :21
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - चित्तान्तरद्दश्ये। बुद्धिबुद्धे:। अपिप्रसगं:। स्मृतिसक्कर:। च।
पदा० - (चित्तान्तरद्दश्ये) पूर्व चित्त को चित्तान्तर का विषय मानकर (बुद्धिबुदे:) उस चित्त का अन्य चित्त द्वारा ग्रहण मानने से (अतिप्रसंग:) अनवस्था होगी (च) और (स्मृतिसक्कर:) स्मृतियों का परस्पर संकर होगा।।
व्याख्या :
भाष्य - यहां विज्ञानवादी का यह कथन है कि जब पूर्वक्षण चित्त को उत्तर क्षण चित्त विषय कर लेगा तब पूर्वोत्तर चित्तों के विषयविषयीभाव सिद्ध होने से चित्त को प्रकाश करने के लिये भिन्न साक्षी चेतन मानना निष्फल है? इसका समाधान यह है कि ऐसा मानने से आपके मत में अनवस्था दोष तथा स्मृतिसक्कर बना रहेगा अथात् प्रथम क्षण में नीलघट को विषय करने वाला एक चित्त उत्पन्न हुआ द्वितीय क्षण में नीलघट विषयक चित्त को विषय करने वाला दूसरा चित्त उत्पन्न हुआ, एवं उस चित्त का प्रकाशक तीसरा और तीसरे का प्रकाशक चैथा और चैथे का पांचवा इत्यादि, एक ही नीलघट के अनुभव काल में अनेक चित्तों की निरन्तर धारा से अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है।।
दूसरी बात यह है कि अनुभव के अनुसार स्मृति नियम से संस्कारों के उद्वोधकाल में अनन्त चित्तों की अनन्त स्मृतियें एक ही काल मे उत्पन्न होगी अर्थात् यह स्मृति नीलघट विषयक है, यह नीलघट के प्रकाशक चित्त की स्मृति है और यह नीलघट के प्रकाशक चित्त को प्रकाश करने वाली अन्य चित्त की स्मृति है, इस प्रकार विवेक न होने से एककाल में प्रकट हुई अनन्त स्मृतियों का सक्कररूप दोष होगा अर्थात् वह आपस में मिल जायंगी, इस लिये चित्त का प्रकाशक अन्य चित्त मानना ठीक नहीं।।
सं० - चेतन पुरूष किस प्रकार चित्त का प्रकाश करता है अब इस बात का निरूपण करते हैं:-