सूत्र :क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्त निर्ग्राह्यः क्रमः ॥॥3/33
सूत्र संख्या :33
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - क्षणप्रतियोगी। परिणामापरान्तनिग्र्राह्म:। क्रम:।
पदा० - (क्षणप्रतियोगी) क्षणों के सम्बन्ध वाली (परिणामापरान्तनिग्र्राह्म:) तथा परिणाम की प्राप्ति से अनुमान करने योग्य (कम:) गुणों की अवस्था विशेष को क्रम कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - पूर्व धर्म के तिरोभाव द्वारा अन्य धर्म के आविर्भावरूप परिणाम का निरूपण विभूतिपाद में कर आये हैं, अब इस सूत्र में उसके क्रम का स्वरूप दिखलाते हैं।।
क्षणों की अनन्तधारा को आश्रय करनेवाले परिणाम के निरन्तर प्रवाह का नाम “क्रम” और इसी को “गुणपरिणामक्रम” भी कहते हैं।।
तात्पर्य्य यह है कि बक्स में चिरकाल से रखे हुए वस्त्रों की जीर्णता एक ही काल में उत्पन्न नहीं होती किन्तु सूक्ष्मतः आदि कम से उत्पन्न होकर पश्चात अत्यन्त स्थूल रूप में होजाती है और सब के अनन्तर होने वाली अत्यन्त जीर्णता से अनुमान किया जाता है कि इस वस्तु की जीर्णता प्रथम अत्यन्त सूक्ष्म हुई, पश्चात् बढ़कर इस अवस्था को प्राप्त होगई है, इसलिये यह क्रम प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं।।
इससे सिद्ध हुआ कि अनुमान द्वारा जाने हुए सूक्ष्मतम, सूक्ष्मतर आदि भेद से वस्त्र की जीर्णता के पूर्वोत्तर भाव का नाम ही कम है अर्थात् धर्म तथा लक्षण परिणाम का क्रम प्रत्यक्षरूप से प्रतीत होता है परन्तु अवस्था परिणाम का क्रम अनुमेय हैं।।
सार यह है कि नित्व पदार्थ दो प्रकार के होते हैं, एक परिणामी नित्य और दूसरे कूटस्थ नित्य, परिणामी नित्य प्रकृति है और कूटस्थ नित्य चेतन है, जिसके स्वरूप का नाश न हो उसको “नित्य” कहते हैं।।
सं० - अब कैवल्य का स्वरूप कथन करते हैं:-