सूत्र :प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेः धर्ममेघस्समाधिः ॥॥3/29
सूत्र संख्या :29
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - प्रसंख्याने। अपि। अकुसीदस्य। सर्वथा। विवेकख्याते:। धर्ममेघ:। समाधि:।
पदा० - (प्रसंख्याने, अपि, अकुसीदस्य) विवेकज्ञान में भी फल की इच्छा से रहित योगी को (सर्वथा, विवेकख्याते:) निरन्तर विवेकज्ञान के उदय होने से (धर्ममेघ:, समाधि:) धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य- जब योगी परिणामदि दोषों के देखने से क्केश मानता हुअस विवेकाज्ञानद्वारा किसी फल की इच्छा नहीं करता जब उसको निरन्तर अभ्यास करने से व्युत्थनसंस्कारों के निरोधपूर्वक विवेक द्वारा ज्ञान परिपक्व अवस्थारूप धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति होती है, क्योंकि सम्प्रज्ञातसमाधि के फलरूप विवेकज्ञान की परमसीमा का नाम “धर्ममेघ समाधि” है।
इसी समाधिद्वारा व्युत्थान संस्कारों का सर्वथा निरोध होकर ज्ञानप्रसाद नामक परवैराग्य उदय होता है और यह विवेकज्ञान के संस्कारों का निरोध करता हुआ असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति कराता है।
सं० - अब धर्ममेघ समाधि का फल कथन करते हैं:-