सूत्र :द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम् ॥॥3/23
सूत्र संख्या :23
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - द्रष्टृद्दश्योपरक्तं। चित्तं। सर्वाथम्।
पदा० - (चित्तं) चित्त (द्रष्टृद्दश्योपरक्तं) विषय और पुरूष के साथ सम्बन्ध वाला होने से (सर्वाधम्) अनेक रूप है।
व्याख्या :
भाष्य - जैसे शुद्ध स्फटिकमणि दोनों भागों में स्थित हुए रक्त तथा नील पुष्प् के प्रतिबिम्ब से तीन प्रकार की भासती है अर्थात् एक ओर से अपने शुद्धरूप से श्वेत और दूसरी ओर से अपने श्वेतरूप सहित रक्त तथा तीसरी ओर से नील प्रतीत होती है, इसी प्रकार और पुरूष के मध्य में स्थित हुआ विषय चित्त उन दोनों के सम्बन्ध से प्रहीता, ग्रहण तथा ग्राह्मरूप से प्रतीत होता है।।
तात्पर्य्य यह है कि “घटमहंजानामि”= मैं घट को जानता हूं , यह घट के अनुभव सिद्ध प्रत्यक्षज्ञान केवल द्दश्यघट का प्रतीतिजनक ही नहीं किन्तु विषय और विषयी की भी प्रतीति कराता है अर्थात् एक ही चित्त अपने स्वरूप से ग्रहणाकार और विषय के सम्बन्ध से ग्राह्मकार तथा पुरूष के सम्बन्ध से ग्रहीताकार भासता है।।
भाव यह है कि पूर्वोक्तज्ञान में एक ही चित्त, द्रष्टा, द्दश्य तथा दर्शन रूप से प्रतीत हुआ अनेकरूप होता है, इसलिये चित्त की अनेकरूपता का विवेक न होने से बौद्धों ने चित्त को ही विषय तथा आत्मा मान लिया है यह उनकी सर्वथा भ्रान्ति है।।
सं० - अब चित्त से भिन्न पुरूष की सिद्धि में अन्य हेतु कथन करते हैं:-