सूत्र :तदसङ्ख्येय वासनाभिः चित्रमपि परार्थम् संहत्यकारित्वात् ॥॥3/24
सूत्र संख्या :24
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तत्। असंख्येयवासनाभि:। चित्तम्। अपि। परार्थम्। संहत्यकारित्वात्।
पदा० - (तत्) वह चित्त (असंख्येयवासनाभि:) नाना वासनओं से (चित्तम् , अपि) वासित हुआ भी (संहत्यकारित्वात्) विषय तथा इन्द्रियों के साथ मिलकर कार्य्य करने से (परार्थम्) पुरूष के लिये है।।
व्याख्या :
भाष्य - यहां शंका यह होती है कि नाना प्रकार की वासनाओं से विचित्र को ही आत्मा मानना चाहिये, क्योंकि वह वासनायें उसके लिये भोग सम्पादन करती हैं, इसका समाधान यह है कि भित्ति आदि से मिले हुए गृह की भांति चित्त भी देह इन्द्रियादिकों के साथ मिलकर पुरूष के अर्थ भोग तथा मोक्ष सम्पादन करने से परार्थ है स्वार्थ नहीं, इसलिये वह आत्मा नहीं होसकता।।
तात्पर्य्य यह है कि जिसके लिये चित्त भोग तथा मोक्ष सम्पादन करता है वह चित्त से भिन्न भोक्ता ही आत्मा है।।
सं० - पूर्वोक्त युक्तियों द्वारा चित्त से भिन्न आत्मा को सिद्ध करके अब विवेकी पुरूष की कृतकृत्यता कथन करते हैं:-